रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
6
अनुवाद
विश्वप्रपंच
दसवाँ प्रकरण -चेतना
आत्मा या मन के व्यापारों में से चेतना से बढ़कर विलक्षण और कोई व्यापार
नहीं। इसके सम्बन्ध में जिस प्रकार भिन्न भिन्न मत दो हजार वर्ष पहले
प्रचलित थे उसी प्रकार अब भी हैं। इसी को देखकर आत्मा के अमर और भूतों से
परे होने की कल्पना लोगों को सूझी है। यही एक ऐसा रहस्य है जिसके बल पर
आत्मा और शरीर को पृथक् माननेवाले द्वैतवादी अनेक प्रकार के अन्धविश्वास
ग्रहण किए हुए हैं। अत: तात्त्विक दृष्टि से चेतना का विचार परम आवश्यक है।
इस दृष्टि से यदि हम विचार करेंगे तो देखेंगे कि और दूसरे मनोव्यापारों के
समान चेतना भी एक प्राकृतिक गुण है तथा शरीर और अन्त:करण की अन्य वृत्तियों
के समान एक प्राकृतिक व्यापार है, अर्थात प्रकृति के नियमों के सर्वथा अधीन
है।
चेतना के स्वरूप और लक्षण तक के विषय में दार्शनिकों का एकमत नहीं। कोई कुछ
कहता है, कोई कुछ। पर सबसे उपयुक्त परिभाषा उन दार्शनिकों की प्रतीत होती
है जो चेतना को एक प्रकार की अन्तर्दृष्टि कहते हैं और उसकी उपमा दर्पण की
क्रिया से देते हैं। चेतना दो प्रकार की होती है-एक अन्तर्मुख, दूसरी
बहिर्मुख। अन्तर्मुख चेतना को अहंकार भी कहते हैं। अहंकार वृत्ति के द्वारा
अन्त:करण अपनी ही क्रिया का निरीक्षण, अपनी ही अवस्था का बोध करता है।
बहिर्मुख चेतना के द्वारा अन्त:करण को वाह्य जगत् का बोध होता है। हमारी
अधिकांश चेतना वाह्यजगत्सम्बन्धी होती है। अन्तर्मुख चेतना का क्षेत्र
संकुचित होता है। उसमें हमारे इन्द्रियानुभव, संस्कार और संकल्प
प्रतिबिम्बित होते हैं।
बहुत से तत्वज्ञों की धारणा है कि 'चेतना' और 'मनोव्यापार' परस्पर पर्याय
शब्द हैं, अर्थात जितने मनोव्यापार होते हैं सब चेतन होते हैं। पर यह धारणा
ठीक नहीं। जैसा मैं पहले दिखा चुका हूँ अधिकतर अन्त:क्रियाएँ या मनोव्यापार
ऐसे होते हैं जिनकी हमें कुछ भी खबर नहीं रहती। हमारी इन्द्रियों के साथ
विषय का सम्पर्क होता है, अन्त:संस्कार अंकित होकर पेशियों में गति उत्पन्न
करते हैं पर हम कुछ भी नहीं जानते। चेतन अन्त:संस्कार जिनके द्वारा
ज्ञानकृत व्यापार होते हैं और अचेतन अन्त:संस्कार जिनके द्वारा अज्ञानकृत
व्यापार होते हैं, दोनों अन्त:करण या मन ही के व्यापार हैं।
चेतना का परिज्ञान हमें चेतना ही के द्वारा हो सकता है। उसकी वैज्ञानिक
परीक्षा में यही बड़ी भारी अड़चन है। परीक्षक भी वही, परीक्ष्य भी वही।
द्रष्टा अपना ही प्रतिबिम्ब अपनी अन्त:प्रकृति में डालकर निरीक्षण में
प्रवृत्त होता है। अत: हमें दूसरों की चेतना का परीक्षात्मक बोध पूरा पूरा
कभी नहीं हो सकता। हमें उनकी चेतना का अपनी चेतना से मिलान करते हुए चलना
पड़ता है। यदि यह मिलान सामान्य मस्तिष्क के मनुष्यों ही तक रखा जाय तब तो
हम कुछ थोड़े बहुत सिद्धांत उनकी चेतना के सम्बन्ध में निश्चय के साथ स्थिर
कर सकते हैं। पर यदि हम असामान्यमस्तिष्क के मनुष्यों, जैसे प्रतिभाशाली,
सनकी, जड़ या विक्षिप्त लोगों को लेकर विचार करने जाते हैं तो हमारे
सिद्धांत या तो अपूर्ण या सर्वथा भ्रान्त निकलते हैं। यही बात मनुष्यों की
चेतना को जंतुओं, विशेषत: क्षुद्र जंतुओं की चेतना के साथ मिलाने से होती
है। ऐसा करने में इतनी भारी कठिनाइयाँ सामने आती हैं कि चेतना के सम्बन्ध
में भिन्न भिन्न शरीर विज्ञानियों और दार्शनिकों के मतों में आकाश पाताल का
अन्तर पड़ जाता है। मुख्य मुख्य मतों का नीचे उल्लेख किया जाता है-
1. चेतना केवल मनुष्य ही में होती है- इस सिद्धांत का प्रवर्तक फ्रांसीसी
तत्ववेत्ता डेकार्ट है जिसके अनुसार विचार और चेतना मनुष्य ही के गुण हैं
और अमर आत्मा केवल मनुष्य ही में होती है। इस तत्ववेत्ता ने मनुष्य के
व्यापार और पशु के मनोव्यापार में भेद किया है। इसके मत में मनुष्य की
आत्मा एक विचार करनेवाली अभौतिक सत्ता है जो भौतिक शरीर से सर्वथा पृथक्
है। पर पृथक् होते हुए भी वह मस्तिष्क के एक विशिष्ट अंश के साथ लगी रहती
है जिसमें वह वाह्य जगत् के विषयों को संस्कार के रूप में ग्रहण करे और
कर्मेन्द्रियों को प्रवृत्त करे। पशुओं में विचार करने की शक्ति नहीं होती,
आत्मा नहीं होती। वे कौशल के साथ बैठाए हुए, पुरजों की मशीन की तरह हैं।
उनके इन्द्रियसंवेदन, अन्त:संस्कार और प्रवृत्ति जड़ व्यापार मात्र हैं जो
भौतिक नियमों के अनुसार होते हैं। अस्तु, डेकार्ट मनुष्य के सम्बन्ध में तो
द्वैतवादी था, पर पशुओं के सम्बन्ध में अद्वैतवादी। मनुष्यों के सम्बन्ध
में तो वह शरीर और आत्मा को दो पृथक् वस्तुएँ मानता था पर पशुओं के सम्बन्ध
में दोनों को एक ही मानता था। डेकार्ट के इस दोरंगे सिद्धांत का फल यह हुआ
कि सत्तारहवीं और अठारहवीं शताब्दी के भूतवादी तो मनोव्यापारों को भौतिक
क्रिया मात्र सिद्ध करने के लिए उसकी पशुसम्बन्धी विवेचना का सहारा लेने
लगे और अध्यात्मवादी लोग उसके मनुष्यसम्बन्धी विवेचन को आगे करके आत्मा का
अमरत्व और शरीर से उसका पृथक्त्व सिद्ध बलताने लगे। पर मनुष्य की आत्मा के
सम्बन्ध में डेकार्ट का यह विवेचन उन्नीसवीं शताब्दी के गम्भीर और सूक्ष्म
अनुसंधानों से सर्वथा भ्रान्त सिद्ध हुआ।
2. चेतना संवेदन सूत्रावाले जीवों ही में होती है- मनुष्य तथा और उन्नत
जीवों ही में चेतना होती है जिन्हें केन्द्रीभूत संवेदनसूत्रा विधान अर्थात
विज्ञानमय कोश होता है। यही सिद्धांत आजकल जंतुविज्ञान, शरीरविज्ञान और
अद्वैत मनोविज्ञान में माना जाता है। प्राणिविज्ञान की भिन्न भिन्न शाखाओं
में जो अपूर्व उन्नति हुई है उससे इसी सिद्धांत का समर्थन होता है। हजारों
वर्ष से लोग देखते आते हैं कि बन्दर, कुत्तो आदि जो उन्नत कोटि के पशु हैं
उनकी बुद्धि बहुत सी बातों में मनुष्य की बुद्धि से मिलती जुलती होती है।
उनके इन्द्रियसंवेदन, अन्त:संस्कार, सुख दु:ख आदि का अनुभव, इच्छा, द्वेष
आदि मनोव्यापार बहुत कुछ मनुष्यों के से होते हैं। यहाँ तक कि इतना सब होने
पर भी यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता कि उन्नतिक्रम के अनुसार जीवों की
वर्गपरम्परा में किसी विशेष वर्ग से चेतना का प्रादुर्भाव होता है। मुझे तो
इसी सिद्धांत के सत्य होने की सम्भावना अधिक प्रतीत होती है जिसके अनुसार
चेतना संवेदनसूत्रों के केन्द्रीभूत होने पर उत्पन्न होती है। छोटे जीवों
में संवेदनसूत्रा एक स्थान पर केन्द्रीभूत नहीं होते, उनमें पूर्ण
विज्ञानमय कोश नहीं होता। जिन जीवों में संवेदनसूत्रों का केन्द्ररूप अवयव
या अन्त:करण होता है, उन्नत ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं अर्थात जिनमें
विज्ञानमय कोश होता है उन्हीं में चेतना होती है।
3. चेतना सब प्राणियों में होती है- छोटे बड़े जितने जीव हैं सब चेतन होते
हैं। यह सिद्धांत उदि्भदों और जंतुओं के आन्तरिक व्यापारों में भेद करता
है। प्राचीनों का भी यही विश्वास था कि जंतुओं में इन्द्रियानुभव और चेतना
होती है, लेकिन पौधों में नहीं। पर उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यभाग में जब
स्पंज आदि क्षुद्र जंतुओं की आन्तरिक क्रियाओं की परीक्षा की गई तब इस
विश्वास की असारता प्रकट हो गई। स्पंज आदिकों के स्थावर जंतु होने में कोई
सन्देह नहीं, पर उनमें चेतना का कोई आभास उसी प्रकार नहीं पाया जाता जिस
प्रकार पौधों में। एक घटक अणुजीवों की जब सूक्ष्म परीक्षा की गई तब उनकी और
एक घटक अणूदि्भदों की आन्तरिक क्रियाओं में कोई विशेष अन्तर नहीं पाया गया।
4. चेतना सब शरीरियों में होती है, क्या उदि्भद् क्या जंतु- इस मत के
अनुसार जीव जंतु, पेड़ पौधो सब चेतन हैं, पर मिट्टी के ढेले आदि निर्जीव
पदार्थों में चेतना नहीं होती। इस सिद्धांत का यह भाव भी निकलता है कि सब
देहवान् (उदि्भद् और जंतु) पदार्थों में आत्मा होती है। इस मत को माननेवाले
प्राण, चेतना और आत्मा को परस्पर सहगामी समझते हैं। उनकी समझ में जहाँ एक
रहेगा वहाँ दूसरा भी अवश्य रहेगा। फेक्नर नामक तत्ववेत्ता ने यह सिद्ध करने
तक का प्रयत्न किया है कि पौधों में भी उसी प्रकार आत्मा होती है जिस
प्रकार जंतु में, और पौधो की आत्मा में भी उसी प्रकार चेतना होती है जिस
प्रकार मनुष्य की आत्मा में। बात यह है कि जब क्षुद्र जंतुओं की
अन्त:क्रियाओं को चेतना कह सकते हैं तब पौधों की अन्त:क्रियाओं को चेतना
कहना ही पड़ेगा। लजालू, मक्खी पकड़नेवाले पौधो आदि की गतिविधि अत्यंत क्षुद्र
जंतुओं की गतिविधि के समान ही होती है।
5. चेतना प्रत्येक घटक में होती है- जिस प्रकार हम सजीव घटक को अनेकघटक
जंतुओं और पौधों के शरीर के मूल अणु मानते हैं, जिनके संयोग से उनके शरीर
संघटित हैं, उसी प्रकार हम घटकात्मा अर्थात घटक की अन्त:क्रिया को भी शरीर
की आत्मा अर्थात उसके उन्नत मनोव्यापारों की समष्टि की व्यष्टि मान सकते
हैं। हम कह सकते हैं, कि चेतना, धारणा आदि उन्नत कोटि के मनोव्यापार
सूक्ष्म घटकों की क्षुद्र अन्त:क्रियाओं के योगफल हैं। मैंने समुद्री
अणुजीवों की परीक्षा करके दिखलाया था कि उनमें भी उन्नत जंतुओं से मिलती
जुलती इन्द्रियसंवेदना, प्रवृत्ति और गति आदि होती है। अत: यदि हम समस्त
शरीरियों में चेतना मानने वालों की बात मानें तो शरीर को संघटित करनेवाले
अणुरूप घटकों में भी चेतना का कुछ अंश हमें मानना ही पड़ेगा। पहले मैं भी
ऐसा ही मानता था, पर अब विवश होकर मुझे स्वीकार करना पड़ता है कि अणुजीवों
में आत्मबोध नहीं होता, उनके इन्द्रिय संवेदन और अंगसंचालन आदि अचेतन
अर्थात अज्ञानकृत होते हैं।
6. चेतना द्रव्य के परमाणुमात्र में होती है- इस सिद्धांत ने चेतना को सबसे
आगे बढ़ाया है, इसकी दौड़ सबसे लम्बी है। इसे माननेवाले यह समस्या हल करने से
बच जाते हैं कि चेतना की उत्पत्ति कब और कहाँ से होती है। अन्त:करण की यह
वृत्ति ऐसी विलक्षण है कि इसे किसी और वृत्ति से उत्पन्न बतलाना अत्यंत
कठिन है। अत: इस कठिनता से बचने का सीधा रास्ता यही दिखाई पड़ा कि चेतना
द्रव्य मात्र का एक वैसा ही अनर्तव्याप्त गुण मान ली जाय जैसे कि आकर्षण,
रासायनिक प्रवृत्ति आदि हैं। ऐसा मानने पर हमें मूल चेतना उतने प्रकार की
माननी पड़ती है जितने रासायनिक मूल द्रव्य1, आक्सिजन, कार्बन आदि होते हैं।
यह सब गड़बड़ चेतना का लक्षण निर्दिष्ट न करने के कारण होता है। मेरे मत में
तो चेतना मनुष्य आदि उन्नत प्राणियों के मनोव्यापारों या अन्त:क्रियाओं का
एक अंश मात्र है, अधिकतर अन्त:क्रियाएँ जिन्हें मनोव्यापार भी कहते हैं,
अचेतन होती हैं अर्थात वे होती हैं पर हमें उनकी खबर नहीं होती।
चेतना की उत्पत्ति और लक्षण के सम्बन्ध में चाहे जितने मतभेद हों पर उसके
1- मूलद्रव्य वे हैं जिनमें विश्लेषण करने पर और किसी द्रव्य का योग नहीं
पाया जाता। अब तक ऐसे 77 या 78 तत्त्वों का पता लगा है। इनके सबसे सूक्ष्म
टुकड़ों को परमाणु कहते हैं क्योंकि पहले लोग समझते थे कि उनका और विभाग
नहीं हो सकता। पर कुछ नए मूल द्रव्य मिले जिनके परमाणु और भी सूक्ष्म अणुओं
के योग से बने पाए गए जिन्हें विद्युतअणु (इलेक्ट्रॉन) कहते हैं। पहले लोग,
जल, वायु आदि को मूलभूत समझते थे, पर वे कई मूलभूतों के योग से संघटित
द्रव्य हैं। उनके संयोजक मूल द्रव्य विश्लेषण द्वारा अलग अलग किए जा सकते
हैं।
विषय में दो सिद्धांत मुख्य हैं-एक अतीतवाद दूसरा शरीरधर्मवाद। अतीतवाद
चेतना को शरीर या भूतों से अतीत वस्तु (आत्मा) का धर्म मानता है और शरीर
धर्मवाद शरीर ही का धर्म मानता है। मैं इसी दूसरे सिद्धांत को सत्य मानता
हूँ। मैं चेतना को शरीर ही का एक धर्म मानता हूँ जो भौतिक और रासायनिक
नियमों के अधीन है, उनसे परे नहीं। मैं उसे संवेदनसूत्रों ही की एक विशेषता
मानता हूँ जो उनके केन्द्रीभूत होने पर उत्पन्न होती है। संवेदनसूत्रों का
केन्द्ररूप अवयव (अन्त:करण) और उन्नतिक्रम द्वारा पूर्णता प्राप्त
ज्ञानेन्द्रिय विधान विशेष करके जरायुज जंतुओं ही में होता है। बनमानुस,
कुत्तो, हाथी आदि की चेतना में और मनुष्य की चेतना में केवल न्यूनाधिक का
भेद है, कोई वस्तुभेद नहीं। इन पशुओं की चेतना और मनुष्य की चेतना में उससे
अधिक अन्तर नहीं होता जितना अत्यंत असभ्य जंगली मनुष्यों की चेतना और सभ्य
जाति के दार्शनिकों और तत्वचिन्तकों की चेतना में। अस्तु, चेतना मन की
समुन्नत क्रिया ही का एक अंग है और मस्तिष्क की बनावट पर निर्भर है।
सूक्ष्मदर्शक यत्रों आदि की सहायता से मस्तिष्क का जो वैज्ञानिक अन्वीक्षण
किया गया उससे पता लगा कि चेतना का अधिष्ठान मस्तिष्क के भूरे मज्जापटल का
एक विशेष भाग है। इस क्षेत्र में बड़ा भारी काम फ्लेशजिक नामक एक जर्मन
वैज्ञानिक ने किया जिसने मस्तिष्क के भीतर चिन्तन करने के अवयवों का पता
लगाया। उसने सिद्ध किया कि मस्तिष्क के भूरे मज्जाक्षेत्र में
इन्द्रियानुभव के केन्द्ररूप चार अधिष्ठान या भीतरी गोलक हैं जो इन्द्रिय
संवेदनों को ग्रहण करते हैं। स्पर्श ज्ञान का गोलक मस्तिष्क के खड़े लोथड़े
में, घ्राण का सामने के लोथड़े में, दृष्टि का पिछले लोथड़े में और श्रवण का
कनपटी के लोथड़े में रहता है। इन चारों भीतरी इन्द्रियगोलकों के बीच में चार
विचारगोलक हैं जिनके द्वारा भावों की योजना और विचार आदि जटिल मानसिक
व्यापार होते हैं। ये ही गोलक चेतना और विचार के कारण अर्थात प्रधान
अन्त:करण हैं। फ्लेशजिक ने दिखलाया है कि मनुष्य के मस्तिष्क के इन गोलकों
के कुछ अंशों में विशेष प्रकार की रचनाएँ होती हैं जो और दूसरे दूधा
पिलानेवाले जीवों में नहीं होतीं। इन्हीं विशेषताओं के कारण मनुष्य मानसिक
शक्तियों में सब प्राणियों से बढ़ाचढ़ा है।
आधुनिक शरीरविज्ञान की इन बातों का समर्थन चिकित्साशास्त्र के अनुसंधानों
द्वारा भी होता है। जब रोग के कारण मस्तिष्क का कोई भाग नष्ट हो जाता है तब
उस भाग के द्वारा होनेवाला मानसिक व्यापार भी शिथिल या नष्ट हो जाता है। इस
बात से हम मन या अन्त:करण की भिन्न भिन्न वृत्तियों के स्थान बहुत कुछ
निर्दिष्ट कर सकते हैं। अन्त:करण की किसी विशेष वृत्ति का ध्यान यदि रुग्ण
हो जाता है तो साथ ही वह वृत्ति भी नष्ट हो जाती, जैसे मस्तिष्क के भीतर
वाणी का जो केन्द्र है यदि वह नष्ट हो जाय तो आदमी गूँगा हो जायेगा। इस बात
का प्रमाण तो हम नित्य ही पाते हैं कि मस्तिष्क के द्रव्य में किसी प्रकार
का रासायनिक परिवर्तन उपस्थित होने पर चेतना पर पूरा पूरा प्रभाव पड़ता है।
कुछ पीने की चीजें, जैसे चाय और कहवा ऐसी हैं जिनसे इमारी विचारशक्ति कुछ
उत्तोजित होती है, कुछ ऐसी हैं, जैसे मद्य, भांग आदि जिनसे हमारे मनोवेग
उत्तोजित होते हैं। कपूर और कस्तूरी से मुरूच्छा या बेहोशी दूर होती है,
ईथर और क्लोरोफार्म बेहोशी लाता है। यदि चेतना मस्तिष्क के अवयवों से
सर्वथा स्वतन्त्र कोई अभौतिक सत्ता होती तो ऐसा कैसे होता? जब मस्तिष्क के
अवयव काम के नहीं रहते तब 'अमर आत्मा' की चेतना क्या होती है?
इन सब बातों से सिद्ध होता है कि मनुष्य तथा और स्तन्य जीवों की चेतना
परिणामी है। उसमें भीतरी कारणों, जैसे रक्त का चढ़ाव उतार और बाहरी कारणों,
जैसे आघात, उत्तोजन से फेरफार हो सकता है। बहुत सी बीमारियाँ ऐसी होती हैं
जिनमें अन्त:संस्कारों अर्थात अन्त:करण में उपस्थित प्रतिबिम्बों के उलटफेर
से मनुष्य की चेतना दो चार दिन एक प्रकार की रहती है, दो चार दिन दूसरे
प्रकार की दो चार दिन वह अपने को कुछ और समझता है, दो चार दिन कुछ और।
प्राय: सब लोग देखते हैं कि तुरन्त के उत्पन्न बच्चे में चेतना नहीं होती1।
प्रेयर नामक शरीरविज्ञानी ने दिखलाया है कि चेतना बच्चे में उस समय स्फुरित
होती है जब वह बोलना आंरभ करता है। बहुत दिनों तक वह अपने लिए किसी सर्वनाम
आदि शब्द का प्रयोग नहीं करता। जिस घड़ी वह 'मैं' शब्द का उच्चारण करता है
और उसमें अहंकार वृत्ति स्पष्ट होती है उसी घड़ी से उसमें आत्मचेतना का आंरभ
समझना चाहिए। 10 वर्ष की अवस्था तक उसके ज्ञान की वृद्धि बहुत जल्दी जल्दी
होती है; उसके पीछे वृद्धि की गति कुछ मन्द होती है। ज्ञानवृद्धि की यह गति
चेतना और उसके करण मस्तिष्क की वृद्धि के अनुसार होती है। पूर्ण वयस्क होते
ही मनुष्य की चेतना पूर्णता को नहीं पहुँच जाती; वह संसार के अनेक रूप के
व्यवहारों द्वारा, समाज के संसर्ग द्वारा, परिपक्व होती है। 20 वर्ष की
अवस्था के उपरान्त 30 वर्ष की अवस्था के भीतर ही भीतर उसके विचार परिपक्व
हो जाते हैं और 60 वर्ष की अवस्था तक पूरा काम देते हैं। 60 वर्ष की अवस्था
के उपरान्त जरावस्था के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं, धीरे धीरे मानसिक
शक्तियों का द्दास होने लगता है, स्मरणशक्ति, ग्रहणशक्ति, विशेष विशेष
वस्तुओं की और प्रवृत्ति क्षीण होने लगती है। हाँ, उद्भावना की शक्ति,
चेतना की परिपक्वता और दार्शनिक सिद्धांत तत्त्वों की ओर अभिरुचि कुछ दिनों
तक और बनी रहती है।
मनुष्य ने चेतना की जो उच्च अवस्था प्राप्त की है वह भी क्रम क्रम करके।
ज्यों ज्यों सभ्यता बढ़ती गई त्यों त्यों उसकी चेतना भी उन्नत होती गई। यह
बात
1 छांदोग्योपनिषद् में बच्चों में मन का अभाव माना गया है। यथा बाला अमनस:
प्राणन्त: प्राणेन, वदन्तो वाचा, पश्यन्श्चक्षुषा, शृण्वन्त: श्रात्रोणै
वमिति'।-प्रपाठक 5, खंड 1।
जंगली जातियों की ओर ध्यान देने से, उनकी भाषाओं का मिलान करने से, स्पष्ट
हो जाती है। भावग्रहण की शक्ति ज्यों ज्यों मनुष्यों में बढ़ती जाती है
त्यों त्यों वे
सामने आनेवाले अनेकानेक विशेष पदार्थों के बीच सामान्य लक्षणों को ढूँढ़
निकालने और उन्हें सामान्य प्रत्ययों अर्थात भावनाओं के रूप में ग्रहण करने
में समर्थ होते जाते हैं। इस प्रकार उनकी चेतना गूढ़ होती जाती है1A
1 जैसे गाय, भैंस, बकरी, हिरण इत्यादि बहुत से विशेष जानवरों को देख मनुष्य
सींग को सामान्य लक्षण पाकर 'सींगवाले जंतु' की एक सामान्य भावनाधारणा करता
है।
ग्यारहवाँ प्रकरण -आत्मा का अमरत्व
अब हम आत्मा के अमरत्वसम्बन्धी सिद्धांत की परीक्षा में प्रवृत्त होते हैं
जिसकी नींव पर अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों का गढ़ खड़ा किया गया है। यह एक
ऐसा विषय है जिस पर दार्शनिक विचार करते समय प्राय: लोग अपने व्यक्तित्व के
राग में फँस जाते हैं। वे चाहते हैं कि किसी न किसी प्रकार उन्हें यह
विश्वास दिलाया जाय कि उनकी सत्ता जीवन के उपरान्त भी बनी रहेगी। यह वासना
ऐसी प्रबल है कि इसके सामने कोई तर्क या युक्ति नहीं चल सकती। अत: आत्मा के
सम्बन्ध में इस प्रबल वितंडावाद की सूक्ष्म परीक्षा करके आधुनिक
शरीरविज्ञान के प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा इसकी असारता दिखा देना हमारा काम
है।
मृत्यु के उपरान्त भी मनुष्य का व्यक्तित्व या उसकी पृथक् आत्मा का
अस्तित्व बना रहता है; इस मत को अमर्त्यवाद कह सकते हैं। इसी प्रकार उस
सिद्धांत को हम मर्त्यवाद कहेंगे जिसमें यह माना जाता है कि मनुष्य के मरने
पर उसके और शारीरिक व्यापारों के साथ ही साथ अन्त:करण के सारे व्यापार भी
नष्ट हो जाते हैं, अर्थात आत्मा भी नहीं रह जाती।
किसी विशेष प्राणी के समस्त सजीव व्यापारों के सब दिन के लिए बन्द हो जाने
को मृत्यु कहते हैं। जिस समय मनुष्य का व्यक्तित्व नहीं रह जाता वह मृत
कहलाता है, चाहे उसका वंश चलता रहे। वंशपरम्परा के नियमानुसार किसी किसी के
गुण और लक्षण उसकी अगली पीढ़ी में बहुत दिनों तक दिखाई पड़ते हैं। पर ऐसा
होना दूसरी बात है। कई अच्छे शरीर विज्ञानी यह कहने लगे हैं कि सबसे
क्षुद्र जीव ही अमर होते हैं और जीव नहीं। उनका यह कथन इस आधार पर है कि एक
घटक अणुजीव अपनी वंशवृद्धि अमैथुनीय रीति पर विभाग या विच्छेद द्वारा करते
हैं। अणुजीव का सारा शरीर दो या कई बराबर भागों में विभक्त हो जाता है और
प्रत्येक भाग बढ़कर एक स्वतन्त्र जीव हो जाता है। पर यह समझ रखना चाहिए कि
जिस घड़ी अणुजीव के दो भाग होकर अलग अलग हो जाते हैं उसी क्षण उसका
व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है।
'अमर' या 'नित्य' शब्द का प्रयोग समस्त विश्व के लिए ही किया जा सकता है।
जो कुछ है, समष्टि रूप में उसकी सत्ता सदा रहेगी, यह परमतत्व का धर्म है।
विश्व की अनश्वरता का सिद्धांत मैं आगे चलकर कहूँगा जब कि द्रव्य और शक्ति
की अक्षरता का विवेचन करूँगा। यहाँ पर तो मैं इस प्रचलित भ्रान्त मत की ही
परीक्षा करूँगा कि एक एक व्यक्ति की आत्मा अमर है। पहले मैं इस अन्धविश्वास
के मूल आदि का निरूपण करूँगा, फिर यह दिखलाऊँगा कि युक्ति और प्रमाण से
मर्त्यवाद ही सिद्ध होता है। मर्त्यवाद दो रूपों में मिलता है-आदिम और
उत्तर। आदिम रूप में यह असभ्य जंगली जातियों में पाया जाता है जिनमें आत्मा
के अमरत्व की भावना का उदय ही नहीं हुआ रहता, उसका आंरभ ही से अभाव रहता
है। उत्तर रूप में यह सभ्य और ज्ञानवृद्ध लोगों के बीच पाया जाता है जिनमें
आत्मा के अमरत्व की भावना का प्रधवंसभाव रहता है, अर्थात प्रकृति के
निरीक्षण और सूक्ष्म विवेचन द्वारा उसका निराकरण हुआ रहता है। जिस प्रकार
आदिम रूप में मर्त्यवाद आदिम और असभ्य दशा के मनुष्यों के बीच पाया जाता है
उसी प्रकार उत्तर रूप में वह ज्ञान के उन्नत होने पर सभ्य मनुष्यों के बीच
पाया जाता है। अमर्त्यवाद के प्रचलित हो जाने पर प्राचीन काल के बहुत से
स्वतन्त्र विचारवाले दार्शनिकों ने उसका घोर प्रतिवाद किया। पर संसार के
भिन्न भिन्न धार्मिक मतों के साथ इस अमरत्व के भाव का गहरा लगाव रहने के
कारण वे अधर्मी, नास्तिक आदि नामों से पुकारे गए। उनके मत की भरपूर निन्दा
की गई। यह दशा प्राय: सब सभ्य देशों में हुई1। युरोप में डॉक्टरों के बीच
सैकड़ों वर्ष पहले से यह विचार उठ रहा था कि मनुष्य की मृत्यु के साथ ही
आत्मा का भी अन्त हो जाता है, पर उसे वे स्पष्ट शब्दों में प्रकट नहीं करते
थे। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यभाग में जब शरीरविज्ञान की विशेष उन्नति हुई
तब आत्मा के अमरत्व का सिद्धांत बिलकुल निर्मूल पाया गया। पीछे विकास
द्वारा मनुष्य जाति की उत्पत्ति के स्थिर हो जाने, गर्भस्फुरण का क्रम
निर्धारित हो जाने तथा सूक्ष्मदर्शक यत्रों के प्रयोग द्वारा मस्तिष्क के
पुरजों की छानबीन हो जाने पर उक्त सिद्धांत के लिए कहीं कोई आधार नहीं रह
गया। अब कहीं सौ में कोई एक शरीर विज्ञानी आत्मा के अमरत्व का राग अलापता
सुनाई देता है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्राय: सब अद्वैतवादी दार्शनिक
मर्त्यवादी थे।
कुछ लोगों का ख्याल है कि आत्मा के अमरत्व का भाव सारे प्रचलित धर्मों का
एक मुख्य अंग है। पर यह ख्याल ठीक नहीं। पूर्वीय देशों के समुन्नत धर्मों
में इस भाव का कहीं समावेश नहीं। न तो बौद्ध धर्म में, जिसको एक तिहाई
दुनिया मानती है, यह भाव है, न चीन के कनफूची धर्म में।
1 भारतवर्ष में आत्मा की पृथक् सत्ता और उसकी अमरता को न माननेवाले
दार्शनिकों में चार्वाक प्रधान हुआ है जिसके अनुयायी लोकायतिक और नास्तिक
कहलाते हैं।
यह रहस्यमय विचार कि मरने के पीछे भी मनुष्य की आत्मा सदा बनी रहेगी,
पृथ्वी के भिन्न भिन्न स्थानों में मनुष्यों के बीच आपसे आप उत्पन्न हुआ।
अत्यंत प्राचीन युग के असभ्य मनुष्यों में यह विचार नहीं था। पीछे बुद्धि
के कुछ बढ़ने पर जब जीवन और मरण, निद्रा और स्वप्न आदि को देख, उनके सम्बन्ध
में विचार उठने लगे, तब मनुष्य की दोहरी सत्ता की धारणा भिन्न भिन्न
स्थानों पर आप से आप उत्पन्न हुई। पितरों की पूजा, कुटुम्बियों का प्रेम,
जीवन से आसक्ति, मरने के पीछे अधिक सुखपूर्ण जीवन की आशा, अच्छे कर्मों से
अच्छे फल और पाप से दंड की प्राप्ति, इन्हीं सब बातों के प्रभाव से यह
धारणा और भी प्रबल होती गई। इसी धारणा के अनुकूल बहुत सी विलक्षण विलक्षण
बातें बहुत से धार्मों में प्रचलित पाई जाती हैं। अधिकांश धार्मिक अपने
ईश्वर ही से मिलती जुलती वस्तु अपनी अमर आत्मा को भी मानते हैं। ईसाइयों ही
को लीजिए, जो समझते हैं कि जैसे ईसा कब्र से उठ बैठे थे, वैसे ही वे भी
कयामत के दिन अपनी अपनी कब्रों से उठेंगे और अपने किए कर्मों का फल
पावेंगे। यह विचार भी वैसा ही है जैसा कि असभ्य जंगलियों का होता है।
यह तो हुआ धार्मिकों का विचार जिसमें भौतिक और अभौतिक का भेद उतना नहीं है;
जिसके अनुसार स्वर्ग में भी जाकर मनुष्य वही सुख भोगेगा जो भूतात्मक शरीर
से भोगता है। शरीर और आत्मा को पृथक् माननेवाले दार्शनिक अपना सिद्धांत कुछ
अधिक स्पष्ट रूप में प्रकट करते हैं। वे शरीर को नश्वर और भौतिक मानते हैं
और आत्मा को अमर, अभौतिक और चिन्मय। थोड़े काल के लिए दोनों का संयोग हो
जाता है। युरोप के देशों में इस सिद्धांत का प्रचार पहले पहल प्लेटो
(अफलातून) नामक यूनान देश के दार्शनिक ने किया। उसने शरीर के साथ संयोग
होने के पहले और वियोग होने के उपरान्त प्रत्येक आत्मा को शुद्ध रूप में
मानकर 'आवागमन' के सिद्धांत का समर्थन किया। उसने बतलाया कि एक शरीर छोड़कर
आत्मा अपने अनुकूल दूसरे शरीर में जाती है। पुण्यात्माओं की आत्मा अच्छी
योनि में जाती है और पापियों की बुरी योनि में। शरीरविज्ञान,
अंगविच्छेदशास्त्र गर्भविज्ञान आदि की दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो यह
बात बच्चों की सी जान पड़ती है।
कुछ दार्शनिक आत्मा को एक पृथक् तत्व मानते हुए भी उसका ठीक ठीक लक्षण नहीं
बतला सकते। कभी तो वे उसकी सत्ता भावरूप में मानते हैं और कभी वस्तुरूप
में। वैज्ञानिक अद्वैत दृष्टि से यदि हम परमतत्व का निरूपण करते हैं तो
उसमें द्रव्य और शक्ति (गति) को ओतप्रोत भाव में लेते हैं क्योंकि दोनों का
नित्य सम्बन्ध है। अत: आत्मतत्व के अन्तर्गत भी ये हैं- आत्मशक्ति अर्थात
इन्द्रियसंवेदन, अन्त:संस्कार, प्रवृत्ति आदि गत्यात्मक व्यापार, और
आत्मद्रव्य अर्थात सजीव कललरस जो कि शक्ति या मनोव्यापारों का आधार है।
मनुष्य आदि उन्नत प्राणियों में यह आत्मद्रव्य संवेदनसूत्रों का अंग है और
संवेदनसूत्रा विहीन क्षुद्र जीवों में उनके कललरसमय शरीर का। आत्मा के
व्यापार के लिए वाह्यकरण अर्थात ज्ञानेन्द्रियाँ और अन्त:करण आवश्यक हैं।
बिना इन भूतात्मक अवयवों के किसी प्रकार का आत्मव्यापार नहीं हो सकता। पर
आत्मा की एक निर्दिष्ट सत्ता है, वह शरीर की अन्त:क्रियाओं की निर्दिष्ट
समष्टि है।
आत्मा और शरीर को परस्पर निरपेक्ष मानने वाले द्वैत दृष्टि के दार्शनिकों
का भाव आत्मतत्व के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है। वे अमर आत्मा को द्रव्य मानते
हुए भी उसे अगोचर और गोचर शरीर से भिन्न मानते हैं। अत: अगोचरता आत्मा की
एक विशेषता मान ली गई है। कुछ लोग तो आत्मा को ईथर वा आकाशद्रव्यवत् एक
अत्यंत सूक्ष्म, अगोचर पदार्थ मानते हैं। यही धारणा प्राचीनों की भी थी। वे
समझते थे कि मरने पर शरीर तो जड़ द्रव्य के रूप में रह जाता है और आत्मा
निकलकर उड़ जाती है।
ईथर से आत्मा की तुलना ईधर थोड़े ही दिनों से होने लगी है जब से विद्युत् और
प्रकाश की गति आदि के सम्बन्ध में परीक्षा द्वारा बहुत सी बातें प्रकट हुई
हैं। पर ईथर का विचार मैं आगे चलकर करूँगा जिससे प्रकट हो जायेगा कि आत्मा
को ईथरवत् बतलानेवाला चिदाकाशवाद भी ठीक नहीं है। जिस प्रकार ईथर वा
आकाशद्रव्य समस्त विश्व में स्थूल पिंडों और परमाणुओं के बीच व्याप्त है
उसी प्रकार कललरस या मस्तिष्क के अणुओं के बीच आकाशरूप आत्मा को व्याप्त
मानने पर भी मनोव्यापारों के हेतु का निरूपण नहीं होता।
आत्मा को वायुरूप समझनेवालों की संख्या बहुत अधिक है। यह समझ बहुत पुरानी
है। प्राण शब्द वायुवाचक है जिसके कारण जीव प्राणी कहलाते हैं। श्वासरूपिणी
जीवन शक्ति का नाम प्राण रखा गया था। पर साधारणा जनों के बीच वह जीवात्मा
ही के रूप में माना जाता है। वे किसी के मरने पर कहते हैं कि उसका प्राण
निकल गया। मृत पुरुषों की आत्माओं या प्रेतों को वे वायुरूप ही मानते हैं।
वायुरूप मानते हुए भी वे उनमें शरीरवयवयुक्त जीवों के से व्यापार मानते
हैं। किसी किसी आध्यात्मिक मंडली ने तो उनके फोटो तक तैयार किए हैं।
परीक्षात्मक भौतिक विज्ञान ने समस्त गैसों या वायु पदार्थों को द्रवरूप में
और बहुतों को स्थूलरूप तक में परिणत करके दिखा दिया है। इस प्रकार वायु जो
अपनी सूक्ष्मता के कारण अग्राह्य वा अदृश्य मानी जाती थी वह दृश्य और
ग्राह्य करके दिखा दी गई। अब यदि आत्मा वायुरूप पदार्थ होती तो उसे भी द्रव
रूप में ला सकते। किसी मुनष्य के मरने के समय उसमें से निकलनेवाली वायुरूपी
आत्मा को पकड़कर हम उसे द्रवरूप में एक शीशी के भीतर बन्द करके दिखाते कि यह
लो 'अमृतरस' तैयार है। यहीं तक नहीं, उस रसपर और भी अधिक ठंडक और दबाव
डालकर हम एक बरफ की टिकिया बनाते और उसे 'आत्मा की बरफ' कहते। पर आज तक
किसी ने भी ऐसा करके दिखाया नहीं।
आत्मा की अमरता के जितने प्रमाण दिए जाते हैं उनमें सत्य के अनुसंधान का
कोई प्रयत्न नहीं पाया जाता, केवल एक प्रकार का राग या मन:प्रवृत्ति पाई
जाती है। जैसा कि कांट ने कहा है आत्मा का अमरत्व शुद्धबुद्धि का निरूपण
नहीं है, व्यवसायात्मिका बुद्धि की धारणा है। पर सत्य के अन्वेषण में हमें
शुद्धबुद्धि को छोड़ और किसी बुद्धि से काम न लेना चाहिए। सत्य का निरूपण जब
होगा तब शुद्ध बुद्धि के द्वारा, किसी प्रकार की अभिरुचि वा वासना के
द्वारा नहीं। सत्य कैसा ही अप्रिय हो उसे ग्रहण करना ही पड़ेगा।
आत्मा के अमरत्व के जितने प्रमाण दिए जाते हैं उनमें से एक भी वैज्ञानिक
कोटि का नहीं, एक भी ऐसा नहीं जो शरीरविज्ञानानुसारी मनोविज्ञान और जंतुओं
की उत्पत्तिपरम्परा सम्बन्धी सिद्धांत के आधार पर हो। मतवादियों और
धर्मवादियों की यह बात कि ईश्वर आत्माओं को कुछ काल तक के लिए पहले से
तैयार शरीरों में भेजा करता है, अथवा सृष्टि के आदि में उसने मनुष्यरूपी
पुतले के शरीर में अपनी रूह फूँक दी थी, कपोलकल्पना मात्र है। कुछ लोगों का
यह कथन कि यदि आत्मा नित्य न होती तो संसार में धर्म की व्यवस्था न रहती
सर्वथा निर्मूल है। यह विचार कि मनुष्य की आत्मा अपनी 'परमगति' को इस
पार्थिव जीवन में नहीं प्राप्त कर सकती, उसकी पूर्णता के लिए उत्क्रमण
आवश्यक है, मनुष्य के महत्त्व की झूठी भावना पर अवलम्बित है। यह समझना कि
सांसारिक जीवन में जो अनेक प्रकार के अन्याय होते हैं, अनेक प्रकार की
इच्छाएँ अपूर्ण रह जाती हैं, उन सबका प्रतिकार या पूर्ति परलोक या परजन्म
में होगी, दुराशा मात्र है। यह बात भी प्रमाणविरुद्ध है कि मनुष्य मात्र
में आत्मा के अमरत्व या ईश्वर के अस्तित्व की भावना स्वाभाविक है। बहुत सी
ऐसी जातियाँ हैं जिनमें इस प्रकार की कोई भावना नहीं। आत्मा के अमरत्व की
सिद्धि के लिए उपस्थित की जाने वाली ये सब युक्तियाँ वैज्ञानिक अनुसंधानों
से नि:सार प्रमाणित हो चुकी हैं।
इन नि:सार युक्तियों के विरुद्ध जो वैज्ञानिक प्रमाण मिलते हैं वे ये हैं।
शरीरविज्ञान से इस बात का पूरा प्रमाण मिलता है कि आत्मा शरीर से स्वतन्त्र
कोई अभौतिक सत्ता नहीं है। मस्तिष्क के व्यापारों की समष्टि का नाम ही
आत्मा है और ये व्यापार भी शरीर के और व्यापारों के समान भौतिक और रासायनिक
नियमों के अधीन हैं। मस्तिष्क के सूक्ष्म अन्वीक्षण द्वारा आत्मव्यापार के
साधक अवयवों का पता लगता है। परीक्षा द्वारा यह देखा गया है कि आत्मा के
भिन्न भिन्न व्यापार मस्तिष्क के भिन्न भिन्न भागों पर अवलम्बित हैं। यदि
वे भाग नष्ट हो जाते हैं तो उनके द्वारा होनेवाले व्यापार भी बन्द हो जाते
हैं। इस बात का प्रमाण प्रकृति हमें बराबर देती रहती है। भ्रूणवृद्धि और
शिशुवृद्धि आदि के क्रम को देखने से हमें पता चलता है कि किस प्रकार मनुष्य
की आत्मा भी क्रमश: बढ़ती जाती है और प्रौढ़वस्था में परिपक्व हो जाती है।
इतना ही नहीं, जरावस्था में वह शिथिल और क्षीण भी होती है। जीवों की
वर्गोत्पत्ति परम्परा की ओर ध्यान देने से पता लगता है कि मनुष्य का
मस्तिष्क और उसका व्यापार आत्मा, और दूसरे स्तन्य जीवों के मस्तिष्क से
उन्नत होते होते बना है। इसी प्रकार स्तन्य जीवों का मस्तिष्क दूसरे
क्षुद्र कोटि के रीढ़ वाले जंतुओं के मस्तिष्क से उन्नत होते होते बना है।
आत्मा की घटती बढ़ती उत्पत्तिधर्म और अनित्यता का प्रमाण है, अमरत्व का
नहीं।
आधुनिक विज्ञान के अन्वेषणों से आत्मा के अमरत्व का सर्वथा खंडन हो गया है।
कुछ दिनों पीछे इसकी चर्चा वैज्ञानिक क्षेत्र से बिलकुल उठ जायेगी, केवल
आँख मूँदकर विश्वास करनेवालों में रह जायेगी। आत्मा के अमरत्व का विश्वास
एक अन्धविश्वास मात्र रह जायेगा। पर अभी सभ्य से सभ्य देश के करोड़ों मनुष्य
इस अन्धविश्वास को अपनी 'परमनिधि' समझते हैं। इसे वे कदापि छोड़ना नहीं
चाहते। पर मैं इस बात को दृढ़ता के साथ कहता हूँ कि आत्मा के अमरत्व की
भावना मोह के अतिरिक्त और कुछ नहीं। इसे त्यागने से मनुष्य जाति की हानि
कुछ नहीं, और लाभ बहुत है।
आत्मा को अमर मानने की प्रबल वासना का कारण क्या है? क्यों लोगों की यह
इच्छा रहती है कि आत्मा अमर सिद्ध हो? इसके मुख्य कारण दो हैं- एक तो यह
आशा कि परलोक में अधिक सुख मिलेगा, दूसरी यह आशा कि मृत्यु के कारण जिन
प्रिय जनों का वियोग हुआ है वे फिर देखने को मिलेंगे। इस संसार में बहुत सी
भलाईयाँ हम दूसरों के साथ करते हैं जिनके बदले की कोई आशा यहाँ नहीं होती।
अत: हम एक ऐसे अनन्त जीवन की वांछा करते हैं जिसमें सब बदले पूरे हो जायें
और सदा सुख और शान्ति बनी रहे। भिन्न भिन्न जातियों में स्वर्ग की भावना
उसकी सुख की भावना के अनुसार है। मुसलमानों के बिहिश्त में सुन्दर छायादार
बगीचे हैं, मीठे पानी के चश्मे जारी हैं, हूर और गिलमा सेवा के लिए हैं।
ईसाइयों का स्वर्ग भी सुखसंगीतपूर्ण है, अमेरिका के आदिम निवासियों के
स्वर्ग में शिकार खेलने के लिए बड़े बड़े मैदान हैं जिनमें असंख्य भैंसे और
भालू फिरा करते हैं। ध्यान देने की बात है कि लोग स्वर्ग में उन्हीं सब
सुखों को भोगने की कामना करते हैं जिन्हें वे यहाँ अपनी इन्द्रियों के
द्वारा भोगते हैं। वे कानों से स्वर्गीय संगीत सुनेंगे, आँखों से अप्सराओं
का नृत्य देखेंगे और रसना से अमृत का स्वाद लेंगे। इन सब सुखों को वे अनन्त
काल तक भोगेंगे। आत्मा को अभौतिक आदि मानते हुए भी उसे परलोक में भौतिक
सुखों का भोक्ता माने बिना नहीं रह सकते।
अमर्त्यवाद मानने की इच्छा सबसे बढ़कर इसलिए होती है कि उससे उन प्रियजनों
से फिर मिलने की आशा बँधाती है जिनसे इस जीवन में वियोग हो जाता है। पर यदि
ऐसा होना मान भी लें तो भी हमारी स्थिति कुछ विशेष सुखदायक नहीं हो सकती
क्योंकि जिस प्रकार प्रियजन मिल सकते हैं उसी प्रकार वे शत्रु भी तो मिल
सकते हैं जिन्होंने यहाँ नाक में दम कर रखा था। ऐसे करोड़ों आदमी मिलेंगे जो
स्वर्ग का सारा सुख छोड़ने के लिए तैयार हो जायँगे यदि वे समझें कि ऐसा करने
से स्त्री या नानी से भेंट हो जायेगी।
अमरवादियों से एक बात और पूछने की है। वह यह कि स्वर्ग का सुख भोगने वाली
आत्मा किस अवस्था की होगी, शैशवावस्था की, तरुणावस्था की या जरावस्था की1।
यदि किसी बालक की आत्मा शरीर से मुक्त होकर स्वर्ग को गई तो क्या उसे उसी
प्रकार धीरे धीरे परिपक्व होना पड़ेगा जिस प्रकार यहाँ अपने अनुभव की
उत्तरोत्तर वृद्धि और गुरुजनों की शिक्षा द्वारा वह परिपक्व होती है? क्या
बुङ्ढे की आत्मा वहाँ जाकर निरन्तर क्षीयमाण ही रहेगी?
ईसाइयों, मूसाइयों आदि का कयामत का ख्याल तो सबसे गया बीता है। वे समझते
हैं कि मनुष्यों की आत्माएँ शरीर से निकल निकल कर बराबर जमा होती जायेगी और
सृष्टि के अन्तिम दिन में दो दलों में बाँटी जायेगी। एक दल तो स्वर्ग में
अनन्तकाल का सुख भोगने के लिए जायेगा, दूसरा नरक में चिरकाल तक के लिए
यन्त्रणा भोगने के लिए जायेगा। यह सब करेगा कौन? दयामय आसमानी बाप। वही
क्षणिक जीवन के बीच किए हुए पुण्य के लिए अनन्त सुख और पाप के लिए अनन्त
दु:ख देगा?
आध्यात्मिक दर्शन धर्माचार्यों की इन स्थूल पौराणिक कल्पनाओं को न मानकर
आत्मा की सत्ता सब भूतों से परे मानता है। पर आजकल के परीक्षात्मक तत्ववाद
में इस प्रकार की ऊटपटाँग भावना के लिए कोई जगह नहीं। सारांश यह कि आत्मा
के अमरत्व का प्रवाद आधुनिक विज्ञान के परीक्षात्मक निश्चयों के सर्वथा
विरुद्ध है।
1 जो लोग आत्मा को अजर आदि मानते हैं वे यह प्रश्न सुनकर चौंकेंगे। पर हैकल
ने पहले ही कह दिया है कि आत्मा भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है,
अर्थात वह भी जवान और बुङ्ढी होती है। हिन्दुओं की स्वर्गसम्बन्धिनी भावना
कुछ समाधान कारक है। वे स्वर्गवासी अमरों को अजर मानते हैं।
बारहवाँ प्रकरण - मूलप्रकृति की व्यवस्था
प्रकृति का सर्वव्यापक गुण, समस्त विश्व का एक अखंड धर्म परमतत्व का धर्म
है। इस गुण का पता लगना ज्ञानक्षेत्र में सबसे बड़ी विजय है क्योंकि प्रकृति
के और नियम इसके वशवर्ती हैं। इस मूलप्रकृति या परमतत्व के धर्म के
अन्तर्गत दो अखंड नियम हैं एक तो द्रव्य की अक्षरता का और दूसरा शक्ति का
अक्षरता का। यदि विचारपूर्वक देखा जाये तो ये दोनों नियम परस्पर अभिन्न
हैं; ये एक दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस
अभिन्नता को नहीं मानना चाहते। पर शुद्ध तत्वदृष्टि रखनेवाले दार्शनिकों के
निकट यह प्रत्यक्ष है। अब संक्षेप में इन दोनों नियमों का उल्लेख किया जाता
है।
द्रव्य की अक्षरता या अनश्वरता का नियम, जिसका अनुसंधान और जिसकी व्याख्या
लवायशियर नामक एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक ने पहले पहल सन् 1789 में की, इस
प्रकार है। द्रव्य जो अनन्त दिक् में व्याप्त है उसका योग सदा समान रहता
है, उसमें किसी प्रकार की घटती बढ़ती नहीं हो सकती। द्रव्य का कोई पिंड जो
हमारे देखने में लुप्त हो जाता है, वह वास्तव में नष्ट नहीं होता, केवल
अपना रूप बदल देता है। जब कपूर जल जाता है तब उसके अणुओं का नाश नहीं होता,
उसके अणु धुएँ, काजल या अन्य किसी रूप में बने रहते हैं। जब मिट्टी की डली
पानी में घुल जाती है तब वह स्थूल से तरल रूप में हो जाती है। इसी प्रकार
जहाँ कोई नया पदार्थ उत्पन्न होता दिखाई देता है वहाँ भी रूप परिवर्तन
मात्र ही समझना चाहिए। मेह की झड़ी वायु में मिली भाप है जो बूँदों के रूप
में होकर गिरती है। लोहे के ऊपर जो मुरचा लग जाता है वह उसी धातु की एक तह
है जो पानी और हवा में मिली आक्सिजन के साथ मिलकर मुरचे के रूप में हो जाती
है। प्रकृति के बीच कभी किसी नए अर्थात अतिरिक्त द्रव्य की उत्पत्ति या
सृष्टि नहीं होती और न द्रव्य के किसी एक कण का भी नाश या प्रधवंसाभाव होता
है। यह बात निर्विवाद है और इसी पर आधुनिक रसायनशास्त्र की स्थिति है। इसका
निश्चय हम जब चाहें तब वैज्ञानिकों के मानयत्रों तराजू द्वारा कर सकते हैं।
'द्रव्य की नित्यता' का निश्चय अब वैज्ञानिक मात्र को है।
शक्ति की अक्षरता या नित्यता का सिद्धांत इस प्रकार है। शक्ति अर्थात
गतिशक्ति जो अनन्त दिक् में कार्य करती है और समस्त व्यापार जिसके परिणाम
हैं उसका योग सदा समान रहता है। उसमें किसी प्रकार की घटती बढ़ती नहीं होती।
गतिशक्ति का न कभी क्षय होता है और न कोई अतिरिक्त नई शक्ति विश्व में
उत्पन्न होती है। एंजिन जब तक खड़ा रहता है तब तक भाप की गतिशक्ति निहित या
संचित रहती है। जब वह दौड़ता है तब भाप की वही निहित शक्ति व्यक्त या
क्रियमाण शक्ति के रूप में परिवर्तित हो जाती है। यह व्यक्त या क्रियामाण
शक्ति कई रूपों में दिखाई पड़ती है। ताप, पिंडगति, शब्द, प्रकाश विद्युत्
आदि व्यक्त शक्ति के ही भिन्न भिन्न रूप हैं। भौतिक विज्ञान ने एक रूप की
शक्ति को दूसरे रूप की शक्ति में परिणत करके दिखा दिया है। ताप पिंडों को
गति के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है, पिंडों की गति शब्द या प्रकाश
के रूप में और प्रकाश विद्युत् के रूप में। एक रूप से दूसरे रूप में
परिवर्तित होने पर वेग की मात्र उतनी ही बनी रहती है, उसमें अन्तर नहीं
पड़ता। जीती जागती गतिशक्ति का कोई अंश न कभी क्षय को प्राप्त होता है और न
किसी नवीन अंश की विश्व में उत्पत्ति होती है। यह सिद्धांत सन् 1842 में
पूर्णरूप से निर्धारित हो गया। शरीरविज्ञान में भी यह सिद्धांत पूर्णरूप से
घटता है। पर शरीर के भीतर एक अतीत शक्ति माननेवाले शरीरविज्ञानी तथा
द्वैतभावापन्न दार्शनिक अभी तक उसका विरोध करते जाते हैं। उनके मत में शरीर
के भीतर चेतन व्यापार संपादन करनेवाली जो आध्यात्मिक शक्ति है वह सर्वथा
स्वतन्त्र है-वह भौतिक गतिशक्ति के नियमाधीन नहीं है। वे आत्मा के इच्छा,
द्वेष आदि व्यापारों को सर्वथा स्वतन्त्र मानते हैं। पर अद्वैत
तत्वदृष्टिसम्पन्न वैज्ञानिक इनको भी गतिशक्ति का ही एक उन्नत रूप मानते
हैं।
द्रव्य की अक्षरता का सिद्धांत और गतिशक्ति की अक्षरता का सिद्धांत दोनों
वस्तुत: एक ही हैं; यह बात आधुनिक अद्वैतवाद में बड़े काम की है। इन दोनों
सिध्दान्तों में उसी प्रकार नित्य सम्बन्ध है जिस प्रकार द्रव्य और शक्ति
में। ये वस्तुत: अन्योन्याश्रित क्या अभिन्न हैं। अद्वैतदृष्टि के बहुत से
दार्शनिकों को तो इनकी अभिन्नता या एकता सर्वथा प्रत्यक्ष है क्योंकि ये एक
ही पदार्थ विश्व के दो रूपों से सम्बन्ध रखते हैं। पर प्रत्यक्ष होने पर भी
यह बात सबको स्वीकृत नहीं है। शक्ति और द्रव्य, आत्मा और शरीर को पृथक्
माननेवाले द्वैतवादी दार्शनिक, अतीत शक्ति माननेवाले शरीरविज्ञानी तथा शरीर
और आत्मा के व्यापारों को दो सहगामी व्यापार माननेवाले मनोविज्ञानी इसका
घोर विरोध करते हैं। यहाँ तक कि व्याहत दृष्टि के कुछ अद्वैतवादी दार्शनिक
भी यह कहते हैं कि द्रव्य और शक्ति की एकता मानने पर भी 'चेतना' एक ऐसी
वस्तु रह जाती है जो इस एकता के अन्तर्गत नहीं आती, जो द्रव्य और भौतिक
शक्ति के नियमों से परे प्रतीत होती है। पर मुझे तो पूरा निश्चय है कि
'चेतना' भी द्रव्य और भौतिक शक्ति के नियमाधीन है, उससे परे नहीं। द्रव्य
का नियम और गतिशक्ति का नियम दोनों अभिन्न हैं। व्यवहार के लिए उनकी अलग
अलग भावना मात्र मनुष्य को होती है। दोनों नियमों के समाहार को हम 'परमतत्व
का धर्म' कहते हैं जिसका वशवर्ती अखिल ब्रह्मांड है। कार्यकारण व्यवस्था
इसी के अन्तर्गत है।
युरोप में स्पिनोजा (सन् 1677) पहला दार्शनिक है जिसके विचार में 'परमतत्व'
की शुद्ध भावना आई। उसी ने पहले पहल ईश्वर और जगत् की एकता का प्रतिपादन
किया1। इस प्रकार युरोप में शुद्ध अद्वैतवाद की नींव पड़ी। स्पिनोजा ने
बतलाया कि यह 'परमतत्व' अपनी सत्ता को दो रूपों में व्यक्त करता है। एक
द्रव्य के रूप में अर्थात अनन्त दिक् में व्याप्त पदार्थ या तत्व के रूप
में और दो आत्मा के रूप में अर्थात सर्वव्यापिनी गतिस्वरूपा चित् शक्ति के
रूप में2। संसार के सब पदार्थ, सब जीव, जिनकी हमें अलग अलग भावना होती है,
इसी परमतत्व के विशेष विशेष क्षणभंगुर नाम रूप हैं3। इन नाम रूपों का जब हम
विस्तार के गुणानुसार विचार करते हैं तब वे द्रव्यात्मक वस्तु कहलाते हैं,
और जब चित् शक्ति या क्रियाशक्ति के रूप में विचार करते हैं तब गति या
बुद्धि क्रिया कहलाते हैं। स्पिनोजा के इस गूढ़ विचार का समर्थन हम आज भी
करते हैं और द्रव्य अर्थात दिक् में व्याप्त परम तत्व और शक्ति अर्थात गति
या वेग को एक ही सर्वव्यापक परमतत्व की दो अभिव्यक्तियाँ मानते हैं।
आधुनिक विज्ञान में परमतत्व के सम्बन्ध में जो भिन्न भिन्न सिद्धांत
प्रचलित हैं उनमें मुख्य दो हैं- प्रथम अणुदोलन सिद्धांत और द्वितीय आकुंचन
सिद्धांत। दोनों सिध्दान्तों के अनुसार यह निश्चय पक्का ठहरता है कि
आकर्षण, विद्युत्, प्रकाश और ताप इत्यादि सब एक ही मूल गतिशक्ति के
रूपान्तर हैं। पहले अणुदोलनवाले सिद्धांत को लेते हैं। इसके अनुसार मूल
गतिशक्ति द्रव्य के परमाणुओं का क्षोभ है। ये परमाणु जड़ हैं और दूर से एक
दूसरे पर आकर्षण प्रभाव डालकर शून्य में नाचते रहते हैं। इस सिद्धांत का
प्रवर्तक न्यूटन है जिसने युरोप में आकर्षण सिद्धांत की स्थापना
1 भारतवर्ष में ईश्वर और जगत् की एकता का सिद्धांत अत्यंत प्राचीन काल में
निश्चित हुआ था। उपनिषद् की 'सर्वखल्विदं ब्रह्म' की भावना बहुत पुरानी है।
वेदान्ती लोग भी ईश्वर को जगत् का 'अभिन्ननिमित्तोपादान' बतला कर ईश्वर और
जगत् की एकता का आभास देते हैं।
2 द्वे बाव ब्रह्मणो रूपे मूर्त×चैवरामूत्ता×च, मर्त×चैवामृर्त×च, स्थितं च
यच्च सच्च त्यच्च।-वृहदारण्यक-मूर्तामूर्त ब्राह्मण।
3 इन नाम रूपों की क्षणभंगुरता का विषय हमारे यहाँ आकाश के दृष्टान्त
द्वारा समझाया गया है। जैसे घट के भीतर का आकाश विशेष रूप का दिखाई पड़ता
है, पर घडे क़े फूटने पर वह घटाकाश नहीं रह जाता अर्थात आकाश का वह स्वरूप
नहीं रह जाता।
की। सन् 1687 में अपने सिद्धांत ग्रंथ में उसने दिखाया कि समस्त विश्व
आकर्षण
के नियम पर चलता है। यह आकर्षण पदार्थों के गुरुत्व और उनकी बीच की दूरी के
हिसाब से होता है। पिंड जितने ही भारी होंगे उतने ही अधिक वेग से आकर्षण
होगा और एक दूसरे से जितने ही अधिक दूर होंगे उतना ही आकर्षण का वेग कम
होगा। इसी व्यापक नियम के अनुसार फल पेड़ पर से टूटकर पृथ्वी पर गिरता है,
समुद्र की लहरें ऊपर की ओर उठती हैं और ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं।
न्यूटन ही ने इस नियम के परिचालन का ठीक ठीक हिसाब गणित करके दिखाया।
न्यूटन के निरूपण से इस बात का तो पता लगा कि आकर्षण किस हिसाब से होता है
पर इसका पता कुछ भी न लगा कि यह होता किस प्रकार है। यह कहने से कि एक
ग्रहपिंड दूर से बिना किसी मध्यवर्ती वाहक के दूसरे पिंडों में गति उत्पन्न
करता है, आकर्षण का विधान कुछ भी समझ में नहीं आता। अत: यह कोई आश्चर्य की
बात नहीं कि दूर से बिना किसी आधार के होनेवाली यह क्रिया न्यूटन को एक गूढ़
रहस्य या ईश्वरी माया प्रतीत हुई हो, जिसके कारण उसने अपना शेष जीवन बाइबिल
की बेसिर पैर की बातों की उधोड़बुन में बिताया।
इस अणुदोलन सिद्धांत के विरुद्ध हाल का आकुंचन सिद्धांत है। इसके अनुसार
जगत् की मूल गति शून्य स्थान में अणुओं का दोलन या कम्पन नहीं है बल्कि
अनन्त दिक् में अखंड रूप से व्याप्त मूलद्रव्य या परमतत्व का आकुंचन या
जमाव है। इस परमतत्व की मूलगति आकुंचित होने या जमने की प्रवृत्ति है जिसके
कारण जमाव के अनन्त केन्द्र उत्पन्न हो जाते हैं। अखिल मूल प्रकृत्ति या
परमतत्व के सूक्ष्म कण परमाणु रूप ही हैं। पर अणुदोलन सिद्धांतवाले इन
परमाणुओं को जैसा मानते हैं वैसे वे नहीं होते। उनमें एक प्रकार की संवेदना
या प्रवृत्ति जिसे मूल वासना या मनोगति कह सकते हैं, होती है। अत: इन अणुओं
को एक प्रकार की मूल आत्मा1 से युक्त मानना चाहिए। एक बात और है। आत्माओं
से युक्त ये परमाणु शून्य में नहीं फिरते हैं बल्कि एक अत्यंत सूक्ष्म और
प्रवाह रूप मध्यवर्ती द्रव्य में घूमते हैं जो जमा नहीं रहता। मूलद्रव्य के
जमने में जो क्षोभ होता है उससे क्षोभ के बहुत से केन्द्र बनते हैं जिनके
चारों ओर असंख्य परमाणु एकत्र होकर परस्पर मिलते हैं और आसपास के द्रव्य से
अधिक स्थूलता प्राप्त करते हैं। इस रीति से मूलप्रकृति या परमतत्व जो अपनी
मूल साम्यवस्था में सर्वत्रा एकरस रहता है, दो रूपों में हो जाता है। क्षोभ
के केन्द्र जिनका घनत्व साम्यवस्था के मूलद्रव्य के सामान्य घनत्व से अधिक
हो जाता है, पिंडों के स्थूल उपादान होते हैं; और उनके बीच के स्थानों में
व्याप्त सूक्ष्म मध्यवर्ती जिनका घनत्व साम्यवस्था के मूलद्रव्य के सामान्य
घनत्व
1 आत्मा से अभिप्राय यहाँ चैतन्य का नहीं है, केवल जड़ प्रवृत्ति का है।
चेतना को हैकल गुणविकास मानते हैं।
से कम हो जाता है, वह ईथर या सूक्ष्म अगोचर आकाशद्रव्य हो जाता है। एक
मूलतत्व के पिंड और ईथर इन दो पदार्थों में विभक्त हो जाने से दोनों
पदार्थों में निरन्तर विरोध चलता रहता है। यही विरोध समस्त भौतिक व्यापारों
का कारण है। इच्छा या प्रवृत्तियुक्त स्थूल द्रव्य निरन्तर संयुक्त और
घनीभूत होने का प्रयत्न करता रहता है और इस व्यापार द्वारा विपुल मात्र में
निहित गतिशक्ति का संचय करता है। उसके विरुद्ध सूक्ष्म अग्राह्य द्रव्य
निरन्तर इस बात का प्रयत्न करता रहता है कि उस पर और अधिक खिंचाव न पड़े और
इस प्रकार वह अधिक से अधिक व्यक्त या क्रियामाण गतिशक्ति का संचय करता है।
यह आकुंचन सिद्धांत मूल प्रकृति की एकता का निश्चय रखनेवाले जीवविज्ञानियों
को अणुदोलन सिद्धांत की अपेक्षा अधिक मान्य है। पर अणुदोलन सिद्धांतवाले
वैज्ञानिक आकुंचन सिद्धांत स्वीकार नहीं करते। दोनों अनुमानमूलक
सिध्दान्तों में जो विरोध है वह केवल गति के प्रकार में है, मूल प्रकृति या
परमतत्व की गति दोनों मानते हैं। आकुंचन सिद्धांत चाहे अभी अपूर्ण हो,
उसमें बहुत सी त्रुटियाँ हों, पर यह मानना ही पड़ेगा कि अणुदोलन सिद्धांत
में जो दोष थे वे इसके द्वारा बहुत कुछ स्पष्ट हो गए हैं। आज इसी सिद्धांत
का अनुसरण करके मैं अद्वैतदृष्टि से परमतत्व के सम्बन्ध में ये बातें
निश्चित करता हूँ-
1. परमतत्व के ये दोनों रूप अर्थात द्रव्य और ईथर जड़ नहीं हैं। वे किसी
बाहरी शक्ति के द्वारा परिचालित नहीं होते बल्कि उनमें स्वयं संवेदन और
इच्छा अत्यंत निम्न श्रेणी की होती है। एक में जमाव की इच्छा और दूसरे में
खिंचाव की अनिच्छा होती है।
2. विश्व में कहीं कोई स्थान शून्य नहीं। जो स्थान स्थूल परमाणुओं से पूर्ण
नहीं, वह ईथर से व्याप्त है।
3. एक पिंड दूसरे में जो गति आदि उत्पन्न करता है वह या तो संसर्ग द्वारा
अथवा ईथर की मध्यस्थता द्वारा।
परमतत्व के सम्बन्ध में ऊपर जिन दोनों सिध्दान्तों का उल्लेख हुआ है वे
दोनों अद्वैत सत्ता सूचित करते हैं; क्योंकि परमतत्व के जो दो अवस्था भेद
हैं- द्रव्य और ईथर, वे उसके मूल रूप नहीं हैं। पर अध्यात्मपक्ष के
दार्शनिकों का द्वैतमत कुछ और ही है। वे दो प्रकार के तत्व मानते हैं-
भौतिक और अभौतिक। भौतिक तत्व उन पदार्थों का उपादान है जो भौतिक विज्ञान और
रसायनशास्त्र के नियमाधीन हैं। अभौतिक तत्व आध्यात्मिक जगत् में है जो
समस्त भूतों से परे है, अत: भौतिकविज्ञान के नियमों के बाहर है। इस
अध्यात्म जगत् में 'आत्मशक्ति', 'अबाधा इच्छाशक्ति' या इसी प्रकार का कोई
हौवा काम करता है। इन विचारों के खंडन में प्रवृत्त होने की कोई आवश्यकता
नहीं, क्योंकि आजतक अनुभव द्वारा न तो किसी अभौतिक तत्व का पता लगा है न और
किसी ऐसी क्रिया या शक्ति का जो द्रव्याश्रित न हो। यहाँ तक कि गतिशक्ति
अर्थात क्रियाशक्ति के सबसे जटिल और विशद भेद जो जीवधारियों के बुद्धि आदि
व्यापार हैं, वे भी भूतात्मक द्रव्य विधान के आश्रित हैं; मस्तिष्क के
अवयवों की परिस्थिति और रसविकार पर अवलम्बित हैं। इन अवयवों और रसविकारों
से पृथक् उनकी भावना हो नहीं सकती।
स्थूल द्रव्य का विश्लेषण आदि रसायन शास्त्र का विषय है। रसायन शास्त्र ने
ईधर जो आश्चर्यजनक उन्नति की है वह किसी से छिपी नहीं है। प्रकृति में
जितने पदार्थ हैं विश्लेषण करने पर वे कुछ मूलद्रव्यों के योग से बने पाए
गए हैं। मूलद्रव्य का अभिप्राय यह है कि यदि उसका और विश्लेषण किया जाय तो
उसमें और किसी भिन्न द्रव्य का योग पाया जायेगा। अब तक सत्तर या पचहत्तर
मूलद्रव्यों में से केवल चौदह ऐसे हैं, जो इस पृथ्वी पर बहुत अधिक व्याप्त
हैं। बाकी जो हैं उनमें से अधिकांश धातुएँ हैं; जैसे लोहा, सोना, सीसा
इत्यादि। मेंडालायक नामक एक रूसी रसायनवेत्ता ने इन मूलद्रव्यों को
परमाणुओं के गुरुत्व के अनुसार वर्गों में बाँटा है। इस वर्गीकरण में समान
गुणवाले मूलद्रव्य एक वर्ग में आ जाते हैं। इन वर्गों में जो परस्पर
सम्बन्ध है उसे देखने से प्राणिवर्गों और वनस्पति वर्गों के परस्पर सम्बन्ध
की ओर ध्यान जाता है। अत: जिस प्रकार एक मूलरूप से सम्पूर्ण प्राणिवर्गों
की उत्पत्ति हुई है उसी प्रकार मूलद्रव्य के इन वर्गों की भी उत्पत्ति समझी
जा सकती है। क्रुक्स आदि रसायनज्ञों ने सूचित किया है कि समस्त मूलद्रव्यों
का विकास एक आदिम मूलद्रव्य से हुआ है।
दार्शनिकों का अणुवाद तो बहुत पुराना है। पर रसायन शास्त्र में परमाणुवाद
की स्थापना डाल्टन नामक एक वैज्ञानिक ने की। उसी ने पहले पहल प्रत्येक
मूलद्रव्य के परमाणुओं का गुरुत्व निश्चित किया1 जिसके आधार पर आधुनिक
रसायन शास्त्र के सिद्धांत स्थिर किए गए हैं। ये सिद्धांत परमाणुमूलक हैं
क्योंकि इनमें प्रत्येक मूलद्रव्य एक ही प्रकार की सूक्ष्मअतिसूक्ष्म
कणिकाओं के योग से बना माना गया है। ये परमाणुमूलक सिद्धांत परीक्षात्मक या
अनुभवसिद्ध हैं क्योंकि ये ठीक ठीक बतलाते हैं कि किस हिसाब से एक
मूलद्रव्य के परमाणु दूसरे मूलद्रव्य के परमाणुओं के साथ मिलते हैं।
रसायनशास्त्र इसके आगे नहीं जाता। वह यह नहीं बतलाता कि परमाणुओं की आकृति,
प्रकृति, अन्त:क्रिया आदि कैसी हैं। 2
भिन्न भिन्न मूलद्रव्यों का भिन्न भिन्न मूलद्रव्यों के साथ जो परस्पर
प्रीतिसम्बन्ध है वह ध्यान देने योग्य है। यह प्रीतिसम्बन्ध कुछ
मूलद्रव्यों के रासायनिक रीति से मिलने और कुछ के न मिलने में देखा जाता
है। मूलद्रव्यों के व्यापार में उदासीनता
1 गुरुत्व से यह न समझना चाहिए कि परमाणुओं की ठीक ठीक तौल बतला दी गई।
उनके गुरुत्व का केवल सम्बन्ध बताया गया कि यदि एक का गुरुत्व एक माना जाय
तो दूसरे का दो होगा और तीसरे का चार होगा।
2 परमाणु की ईधर और परीक्षा हुई है। दे भूमिका।
से लेकर प्रबल से प्रबल प्रीति का उसी प्रकार दृष्टान्त मिलता है जिस
प्रकार मनुष्यों, विशेषकर स्त्री पुरुषों के व्यापार में। वह प्रबल प्रेम
जिससे स्त्री पुरुष एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं वही प्रबल
चेतनानिरपेक्ष 'अचेतन' आकर्षण है, जिसकी प्रेरणा से शुक्रकीटाणु गर्भकीटाणु
में प्रवेश करता है और हाइड्रोजन के परमाणु आक्सिजन के परमाणुओं के साथ
मिलते और जलकणिका की सृष्टि करते हैं। इसका समर्थन शरीराणुरूप घटकों की
अन्त:क्रिया या मनोव्यापार की परीक्षा द्वारा भी होता है। इन बातों के आधार
पर हमारा यह निश्चय है कि द्रव्य के एक परमाणु में भी मूलरूप की संवेदना और
इच्छा अथवा अनुभूति और प्रवृत्ति होती है। उसमें भी एक अत्यंत मूलरूप की
अत्यंत सादे ढंग की आत्मा होती है। इन परमाणुओं के योग से बने हुए अणुओं
में भी इसी प्रकार की अल्प आत्मा होती है। भिन्न भिन्न प्रकार के अणु मिलकर
ऐसे रासायनिक द्रव्य या रस जैसे कललरस हो जाते हैं जिनमें ऊपर लिखे
अनर्तव्यापार भी अधिक गूढ़ और जटिल रूपधारणा कर लेते हैं। प्राणियों के
व्यापार इसी प्रकार के अनर्तव्यापार हैं।
यहाँ तक तो स्थूल द्रव्य की बात हुई। अब अत्यंत सूक्ष्म द्रव्य ईथर को
लीजिए जो भौतिक विज्ञान का विषय है। प्रकाश किस प्रकार एक पिंड से निकलकर
दूसरे पिंड पर जाता है, इसके समाधान के लिए एक अत्यंत सूक्ष्म और पतले
मध्यवर्ती द्रव्य का अस्तित्व भौतिक विज्ञान में कुछ दिनों से माना जाने
लगा था। पर उसका विशेष रूप से परिचय तब हुआ जब विद्युत् के तत्त्वों की
छानबीन की गई, उसके अनेक प्रकार के प्रयोग किए गए और उसकी गति आदि की
मीमांसा की गई। अब ईथर की वास्तविक सत्ता वैज्ञानिकों में सर्वत्रा मानी
जाती है। पर अभी कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि ईथर एक अनुमान मात्र
है। ऐसा कहनेवाले सृष्टितत्व से अनभिज्ञ दार्शनिक और चलते हुए साधारण लेखक
ही नहीं, कुछ वैज्ञानिक लोग भी हैं। पर यह कोई आश्चर्य की बात नहीं,
क्योंकि ऐसे करामाती दार्शनिक भी हुए हैं जिन्होंने इस दृश्य जगत् तक की
सत्ता अस्वीकार की है। उनकी समझ में केवल एक ही वास्तविक सत्ता है, वही
उनकी परम प्रिय अमर आत्मा। युरोप में डेकार्ट, बक्र्ले और फिक्ट इसी प्रकार
के दार्शनिक हुए हैं। कई एक ने तो इस आत्माद्वैतवाद को तत्वज्ञवर कांट के
इस कथन का ठीक अभिप्राय न समझने के कारण ग्रहण किया है कि वाह्य जगत् का
हमें जो बोध होता है वह प्रतीतिमूलक है, अर्थात उन्हीं रूपों में होता है
जिन रूपों में इन्द्रियों के सहित हमारे मन को दिखाई पड़ता है। कांट का कहना
है कि वस्तुओं का चित्तानिरपेक्ष वास्तव स्वरूप मनुष्य नहीं जान सकता।
1 ध्यान रखना चाहिए कि आत्मा से हैकल का अभिप्राय चेतना का नहीं है। चेतना
को वे एक ऐसी वृत्ति मानते हैं जो मस्तिष्क या अन्त:करण के कुछ उन्नत होने
पर उत्पन्न होती है।
2 भारतवर्ष में इनके बहुत पहले यह मत प्रकट हुआ था।
पर यदि अन्त:करण द्वारा हमें भूतात्मक जगत् का अपूर्ण और परिमित ज्ञान ही
प्राप्त हो सकता है, तो यह कोई ऐसा कारण नहीं जिससे हम एकदम जगत् का
अस्तित्व ही न मानें। अस्तु, ईथर का होना उसी प्रकार निश्चित है जिस प्रकार
स्थूल द्रव्य का होना। जिस प्रकार गुरुत्व आदि के अनुभव द्वारा हमें स्थूल
द्रव्य के अस्तित्व का निश्चय होता है उसी प्रकार विद्युत्क्रिया और
रश्मिविश्लेषण की परीक्षा और अनुभव द्वारा हमें ईथर के अस्तित्व का निश्चय
होता है।
यद्यपि ईथर का अस्तित्व अब प्राय: सब वैज्ञानिक मानते हैं और उसके बहुत से
गुणों का परिचय विद्युत् की क्रिया और प्रकाश की किरनों की विविध परीक्षाओं
द्वारा सब को हो गया है, पर उसके वास्तविक रूप और प्रकृति के सम्बन्ध में
कोई एक निश्चित मत नहीं। जिन वैज्ञानिकों ने ईथर के विषय में विशेष रूप से
विचार किया है उनके मत परस्पर विभिन्न और विरुद्ध हैं। अत: जो मत मुझे सबसे
ठीक जान पड़ा है उसे मैं नीचे देता हूँ-
1. आकाश द्रव्य ईथर एक अखंड और अनवच्छिन्न द्रव्य है अर्थात अण्वात्मक नहीं
है और सम्पूर्ण दिक् में व्याप्त है; यहाँ तक कि परमाणुओं के बीच जो अन्तर
होता है वह भी ईथर से परिपूर्ण रहता है।
2. ईथर के अण्वात्मक न होने से उसमें कोई रासायनिक गुण नहीं माना जा सकता,
वह सर्वत्रा एकरस रहता है। क्योंकि यदि ईथर को भी अत्यंत सूक्ष्म अणुओं के
द्वारा संयोजित मानें तो फिर इन ईथराणुओं के बीच कोई और भी सूक्ष्म तत्व
अखंड रूप से व्याप्त मानना पड़ेगा। पर इस प्रकार बराबर मानते चले जाने से
अनवस्था आती है। अत: कहीं न कहीं चलकर हमें एक अखंड, अनवच्छिन्न तत्व मानना
ही पड़ेगा।
3. जब कि शून्य स्थान की भावना हो नहीं सकती और एक पिंड का दूसरे पिंड पर
दूर से बिना किसी मध्यस्थ के, आकर्षण आदि प्रभाव डालना सम्भव नहीं, तब ईथर
के विषय में यही मानना उचित है कि स्थूल द्रव्य के समान उसका ढाँचा अणुघटित
नहीं, बल्कि आकाशीय या गत्यात्मक अर्थात प्रकाश आदि की किरणों का
वाहकस्वरूप और आकर्षणशक्ति का प्रवर्तकस्वरूप है। ईथर वायु से कहीं अधिक
सूक्ष्म आकाशरूप तत्व है।
4. ईथर को हम अग्राह्य द्रव्य कह सकते हैं क्योंकि उसकी तौल आदि जानने का
कोई साधान हमारे पास नहीं है। यदि उसमें कुछ गुरुत्व हो तो भी उसको जानना
वैज्ञानिकों के सूक्ष्म से सूक्ष्म मानयत्रों की शक्ति के बाहर है।
5. आकुंचन सिद्धांत के अनुसार द्रव्य ईथर या आकाशीय रूप से उत्तरोत्तर जमाव
की प्रक्रिया द्वारा वायु रूप में आ सकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे वायु
द्रव्य द्रवरूप में, और द्रव स्थूल या ठोसरूप में परिणत हो सकता है।
6. अत: उत्तरोत्तर रूपप्राप्ति क्रम के अनुसार द्रव्य की पाँच अवस्थाएँ कही
जा सकती हैं- ईथरीय या आकाशीय, वायु, द्रव, कणात्मक, जैसे कललरस की होती
है, और ठोस।
7. ईथर दिक् के समान अनन्त और अपरिमेय है। वह सदा गति में रहता है। पिंडगति
अर्थात आकर्षण के साथ परस्पर कार्य करती हुई ईथर की यही नित्यगति, चाहे यह
क्षोभ के रूप में मानी जाय अथवा खिंचाव या जमाव के रूप में; जगत् के
सम्पूर्ण व्यापारों का मूल कारण है।
व्यक्त प्रकृति; जगत्
ईथर (आकाशरूप द्रव्य)-अग्राह्य पिंड-ग्राह्य
1 स्वरूप 1 स्वरूप
आकाशीय (अर्थात न वायु , ठोस, द्रव व वायु
न द्रव, न ठोस)
2 विधान 2 विधान
अण्वात्मक नहीं, अखंड अण्वात्मक, अत्यंत सूक्ष्म
और व्यापक परमाणुओं से संघटित और खंडित
3 गुण 3 गुण
प्रकाश, ज्योतिर्मय ताप, विद्युत् गुरुत्व, अधिचलल,
और चुम्बक अण्वात्मक ताप, रासायनिक प्रवृत्ति
ईथर अर्थात आकाश द्रव्य और ग्राह्य अर्थात स्थूल द्रव्य सदा एक दूसरे के
लगाव में ही नहीं रहते बल्कि एक दूसरे पर अपनी क्रिया करते हैं। प्रकृति के
गुणों और व्यापारों को हम दो वर्गों में बाँट सकते हैं-ईथर के गुण और
व्यापार, स्थूल द्रव्य के गुण और व्यापार।
द्रव्य के गुणों और व्यापारों के ये दोनों वर्ग द्रव्य के उन्नति विधान में
आदि कार्यविभाग हैं। पर कार्यत: अलग होते हुए भी ये दोनों वर्ग सदा
सम्बन्धसूत्रा में बँधे रहते हैं और एक दूसरे पर कार्य क्रिया करते हैं। यह
जानी हुई बात है कि विद्युत् और रश्मिसम्बन्धी व्यापारों और ग्राह्य द्रव्य
के भौतिक और रासायनिक विकारों में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। ईथर का
ज्योतिर्मय ताप भौतिक पिंड के ताप के रूप में परिणत किया जा सकता है। इसी
प्रकार एक रूप की गतिशक्ति दूसरे रूप की गतिशक्ति में परिवर्तित हो सकती
है। इन बातों से स्पष्ट है कि परमतत्व के दोनों रूप, ईथर और पिंड, सदा
मिलकर कार्य किया करते हैं।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि विश्व में गतिशक्ति का योग सदा एक ही रहता
है, हमारे चारों ओर चाहे जो उलटफेर हों उसमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता।
गतिस्वरूपा शक्ति भी उस द्रव्य के समान, जो उसका आश्रय है, नित्य और अनन्त
है। प्रकृति का सारा रंगस्थल चराचर का खेल है। उसमें पदार्थ कभी चल और कभी
अचल होते रहते हैं। जो पदार्थ स्थिर या अचल रहते हैं उनमें उसी प्रकार
गतिशक्ति रहती है जिस प्रकार चलायमान् पदार्थों में, अर्थात वह निहित या
संचित रहती है। यही निहित शक्ति जब व्यक्त हो जाती है तब वे पदार्थ गति में
होते हैं। इस भौतिक जगत् में निहित शक्ति की और व्यक्त शक्ति की मात्र
अक्षुण्ण और एकरस रहती है। निहित गतिशक्ति व्यक्त गतिशक्ति के रूप में या
व्यक्त शक्ति निहित के रूप में एक ठीक बँधे हुए हिसाब से परिवर्तित होती
है। जिस हिसाब से एक ओर एक की वृद्धि होती है उसी हिसाब से दूसरी ओर दूसरी
का ह्रास होता है। अत: अन्त में शक्ति की मात्र उतनी ही रहती है, उसमें
अन्तर नहीं पड़ता।
भौतिक विज्ञान में जब परमतत्वसम्बन्धी नियम निश्चित हो गए तब शरीर
विज्ञानियों ने उनकी चरितार्थता शरीरियों में भी दिखलाई। उन्होंने सिद्ध
किया कि जड़ पदार्थों के नियमित व्यापार जैसे गतिशक्ति की विविध क्रियाओं के
अनुसार होते हैं वैसे ही जीवों के सब शरीर व्यापार, जैसे एक धातु से दूसरी
धातु में परिवर्तन आदि, गतिशक्ति की नियमित क्रियाओं के अनुसार होते हैं।
उदि्भदों और जंतुओं की वृद्धि और पोषण आदि व्यापार ही नहीं, बल्कि उनके
संवेदन और अंगसंचालन, उनके इन्द्रिय व्यापार और अन्त:करण व्यापार भी, निहित
गतिशक्ति के व्यक्त गतिशक्ति में और व्यक्त गतिशक्ति के निहित गतिशक्ति में
परिवर्तित होने पर अवलम्बित हैं। मनुष्य तथा दूसरे उन्नत प्राणियों में जो
मन या बुद्धि की वृत्तियाँ कहलाती हैं वे भी परमतत्व के इन्हीं नियमों के
अधीन हैं।
भौतिक अद्वैतदृष्टि से देखा जाय तो यह स्पष्ट है कि परमतत्वसम्बन्धी नियम
विश्व में सर्वत्रा चलता है। यह बात ध्यान देने योग्य है, क्योंकि इससे
विश्व की एकमूलता का और उसके अन्तर्गत होनेवाली सारी बातों के कार्यकारण
सम्बन्ध का निरूपण ही नहीं होता बल्कि ईश्वर, आत्मस्वातन्त्रय और अमरत्व इन
तीन काल्पनिक प्रवादों का एकदम निराकरण भी हो जाता है।
रामचन्द्र
शुक्ल ग्रंथावली - 6
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