रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
6
अनुवाद
विश्वप्रपंच
पन्द्रहवाँ प्रकरण
-ईश्वर और जगत्
कई हजार वर्षों से मनुष्य जाति सृष्टि के समस्त व्यापारों
का एक परम कारण मानती चली आ रही है जिसे ईश्वर कहते हैं। और सब सामान्य
भावनाओं के समान ईश्वरसम्बन्धिनी भावना में भी बुद्धि के विकास के साथ साथ
अनेक प्रकार के फेरफार होते आए हैं। सच पूछिए तो और किसी पदार्थ की भावना
में समय समय पर इतने परिवर्तन नहीं हुए हैं। बात यह है कि बुद्धि और
आन्वीक्षिकी विद्याओं के जितने मुख्य विषय हैं, कल्पना और मनोवेग के जितने
आधार हैं, सबका इसके साथ गहरा लगाव है। ईश्वर के सम्बन्ध में जितनी प्रकार
की भावनाएँ हैं उन सबको यदि परस्पर मिलान करके देखते हैं तो बहुत सी बातें
प्रकट होती हैं। कई ऐसे उपयोगी ग्रंथ लिखे भी जा चुके हैं जिनमें इस ढंग की
आलोचना की गई है। पर यहाँ अधिक स्थान नहीं है। अनेक रूपों में लोग ईश्वर की
भावना करते हैं, कुछ लोग कहते हैं कि वह ऐसा है, कुछ लोग कहते हैं ऐसा नहीं
ऐसा है। मुख्य मत दो हैं-देववाद और ब्रह्मवाद या सर्वात्मवाद। देववाद
द्वैतवादियों का है और ब्रह्मवाद अद्वैतवादियोंका।
देववाद-देववादी ईश्वर को जगत् से भिन्न, उसका कर्ता और पालक मानते हैं।
देववाद में ईश्वर एक 'पुरुषविशेष' माना गया है जो मनुष्यों ही के समान
सोचता, विचारता और काम करता है। अन्तर इतना ही है कि उसके सोचने, विचारने
और काम करने की कोई हद नहीं है। ईश्वर की यह नराकार भावना अनेक रूपों में
पाई जाती है असभ्य जातियों के भूतप्रेत से लेकर सभ्य जातियों के एक ईश्वर
तक सब इसी के अन्तर्गत हैं। देववाद चार प्रकार का पाया जाता है। बहुदेववाद,
त्रिदेववाद और एकदेववाद।
बहुदेववाद- बहुदेववादी बहुत से देवीदेवता मानते हैं और समझते हैं कि संसार
में जो कुछ होता है सब उन्हीं के द्वारा। इसमें कोई जड़ प्रतीक लेते हैं कोई
चेतन प्रतीक। जड़ प्रतीकवाले अग्नि, वायु, जल, पर्वत, नदी, मूर्ति इत्यादि
निर्जीव पदार्थों में देवताओं का आरोप करते हैं। चेतन प्रतीकवाले मनुष्य,
पशु आदि में देवताओं की भावना करते हैं। हिन्दुओं, यूनानियों तथा और
प्राचीन जातियों में ये दोनों प्रकार के भाव विशद् रूपों में प्रकट किए गए
हैं। ईसाई आदि एकेश्वरवादी कहलाने वालों में भी बहुदेवाराधान किसी न किसी
रूप में पाया जाता है। कैथलिक ईसाई ईसा की माता मरियम तथा अनेक महात्माओं
को मानते हैं और उनके अनुग्रह की प्रार्थना करते हैं।
त्रिदेववाद- त्रिदेववाद भी कई रूपों में मिलता है। ईसाइयों का एक ईश्वर तीन
रूपों में व्यक्त किया गया है-
(1) परमपिता ईश्वर जो सर्वशक्तिमान् सृष्टिकर्ता है।
(2) तत्पुत्रा ईसामसीह और
(3) पवित्रात्मा।
यह पवित्रा आत्मा क्या बला है इसे समझने समझाने के लिए हजारों वर्ष से ईसाई
धर्माचार्य सिर मारते चले आ रहे हैं। इस गोरखधान्धो का आधार है बाइबिल, पर
उसमें कहीं यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह पवित्रात्मा है क्या और इसका
पिता पुत्र से सम्बन्ध क्या है। बात यह है कि यह देवत्रायी और अधिक प्राचीन
धर्मों से ली गई है। मूसा के पहले जो प्राचीन यहूदी धर्म बाबिलन के मगों की
सूर्योपासना के आधार पर प्रचलित था, उसमें सृष्टिकर्ता इलू की तीन रूपों
में भावना की गई थी। 'अल्' जो शून्यरूप माना जाता था, 'बेल' जो ब्रह्मा या
जगत् की रचना करनेवाला माना जाता था और 'आइ' जो दिव्य ज्योति या
ज्ञानस्वरूप माना जाता था। प्राचीन हिन्दू धर्म में भी ब्रह्मा, विष्णु और
शिव यह त्रिमूर्ति बहुत काल पहले मानी गई थी। प्राचीन धर्मों में यह तीन की
संख्या विशेष रूप में ग्रहण की गई थी।
द्विदेववाद- युग्मदेववादियों के अनुसार जगत् का सारा व्यापार सत्व और तमस्
इन्हीं दो देवताओं के आदेश पर चल रहा है। सात्विक देव अच्छी बातों का
प्रवर्तक है और तामस देव बुरी बातों का। इन दोनों में बराबर विरोध चलता
रहता है। संसार की अवस्था इसी नित्य विरोध का परिणाम है। दयामय सात्विक
देवता या भगवान् सुख, शान्ति और सौन्दर्य के मूल हैं। यदि उन्हीं की चलती
तो यह संसार सुख और शान्ति का धाम होता, पर उनके कार्य में तामस देवता या
शैतान बराबर बाधा डालता रहता है। संसार में जो अनेक प्रकार के क्लेश और
अनर्थ हैं सब इसी शैतान की करतूत है। ईश्वर की इस दोरंगी भावना से संसार
में जो कुछ हो रहा है उसका बहुत कुछ समाधान हो जाता है। अत: ईसा से कई हजार
वर्ष पहले सभ्यताप्राप्त प्राचीन जातियों में यह युग्मदेववाद प्रचलित था।
प्राचीन भारत में सुर और असुर परस्पर विरोधी माने जाते थे। प्राचीन मिश्र
में रक्षक देवता ओसिरीज के कार्य का बाधाक क्रूर देवता टाइफन माना जाता था।
प्राचीन पारसियों के जंद धर्म का भी यही सिद्धांत था कि ज्योति:स्वरूप
अहुरमुज्द धर्म द्वारा संसार की रक्षा करता है और तमोमय अमान अधर्म द्वारा
उसके सुख और शान्ति का भंग करता है।
ईसाइयों की पौराणिक कथा में भी शैतान का दर्जा खुदा से किसी बात में कम
नहीं है। एक स्वर्ग का राजा है तो दूसरा नरक का। एक में यदि भलाई की शक्ति
है तो दूसरे में बुराई की। एक अच्छे कर्मों की प्रेरणा करता है तो दूसरा
बुरे कर्म करने के लिए बहकाता है। बतलाने की आवश्यकता नहीं कि इस शैतान की
भावना बराबर पुरुष रूप में होती चली आई है। ईधर थोड़े दिनों में अपने धर्म
को युक्तिसंगत प्रकट करने के लिए लोग इसे रूपक कहकर उड़ाना चाहते हैं, पर
इसी का जोड़ा जो जमीन और आसमान बनानेवाला खुदा है, उसका पल्ला कस कर पकड़े
हुए हैं। पर ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि शैतान और खुदा की जोड़ी मानने से
इस सुखदु:खात्मक जगत् की बातों का समाधान जितना सुगम है उतना और दूसरी
कल्पना से नहीं।
एकदेववाद या एकेश्वरवाद- साधारणात: लोग एकेश्वरवाद को बहुत ठीक और
युक्तिसंगत मत समझते हैं और उसे धर्म का एक प्रधान अंग मानते हैं। उनकी
धारणा है कि सारे सभ्य देशों के लोग एकेश्वरवादी हैं, पर यह बात नहीं है।
जितने मत एकेश्वरवादी बनकर दूसरे मतों की निन्दा किया करते हैं उनकी यदि
परीक्षा की जाये तो उनमें भी एक सर्वोपरि देव ईश्वर के अतिरिक्त बहुत से
उपदेव, गण, दूत, पारिषद इत्यादि के रूप में पाए जाते हैं। क्या यहूदी, क्या
ईसाई, क्या मुसलमान इन सब मतों में आसमानी खुदा के सिवाय पैगम्बर, फरिश्ते,
शैतान इत्यादि भी माने जाते हैं। मोटे हिसाब से इस पृथ्वी पर डेढ़ अरब के
लगभग मनुष्य बसते हैं। इनमें 60 करोड़ तो हिन्दू और बौद्ध हैं, 50 करोड़ ईसाई
कहलाते हैं, 18 करोड़ के लगभग इस्लाम मत के माननेवाले हैं, 10 करोड़ यहूदी
हैं, 20 करोड़ दूसरे भिन्न भिन्न मत मानते हैं या भूतप्रेत आदि पूजते हैं,
बाकी 10 करोड़ ऐसे हैं जिनका कोई धर्म नहीं। इनमें जो एकेश्वरवादी होने का
डंका पीटते हैं ईश्वर के सम्बन्ध में उनकी भावना स्पष्ट नहीं है।
एकेश्वरवाद दो रूपों में पाया जाता है, प्राकृतिक और पौरुषेय। प्राकृतिक
एकेश्वरवाद ईश्वरीय विभूति का आरोप अपरिमित तेज और शक्ति के प्राकृतिक
अधिष्ठानों में करता है। कई हजार वर्ष पहले प्राचीन सभ्य जातियों ने उस
सूर्य की उपासना चलाई जो अपार शक्ति और तेज का अधिष्ठान है, जिस पर समस्त
सजीव सृष्टि अवलम्बित है। वैज्ञानिकों की दृष्टि में सूर्योपासना से बढ़कर
उपयुक्त ईश्वरोपासना की ओर कोई विधि नहीं, क्योंकि वैज्ञानिक सिध्दान्तों
से उसका कोई विरोध नहीं पड़ता। आधुनिक ज्योतिर्विज्ञान और भूगोलोत्पत्ति
शास्त्र द्वारा यह निरूपित हो चुका है कि पृथ्वी सूर्य का ही एक खंड है जो
उससे छूटकर अलग हुआ है और फिर उसी में जाकर मिल जायेगा। आधुनिक शरीरव्यापार
विज्ञान हमें यह बताता है कि सजीव सृष्टि का मूल तत्व कललरस है और इस कललरस
की सृष्टि जल, अंगारक, अमोनिया आदि निर्जीव द्रव्यों के संयोगविशेष से होती
है जो सूर्य की ज्योति के प्रभाव
1 एशिया के पश्चिमी भागों में प्रवत्तित ईसाई, यहूदी आदि पैगम्बरी मत।
से ही होता है। इसी कललरस से आदि में रसात्मक अणूदि्भदों की सृष्टि हुई,
फिर रसात्मक अणुजीवों की, जिनका पोषण उन अणूदि्भदों के द्वारा होता है। इसी
जीवोत्पत्ति परम्परा के अनुसार अन्त में मनुष्य की भी उत्पत्ति हुई है। सच
पूछिए तो हमारे समस्त जीवन व्यापार सूर्य की ज्योति और ताप पर ही निर्भर
है। अत: शुद्ध बुद्धि से यदि विवेचन किया जाये तो उन ईसाई, मुसलमान आदि
एकेश्वरवादी मतों की उपासना की अपेक्षा जो ईश्वर की भावना पुरुष रूप में
करते हैं, सूर्योपासना कहीं अधिक युक्तिसंगत है। कहने की आवश्यकता नहीं कि
इसी से हजारों वर्ष पूर्व हिन्दू, पारसी, मग इत्यादि सूर्योपासक जातियाँ
ज्ञान और सभ्यता की जिस सीमा तक पहुँची थीं उस सीमा तक दूसरी जातियाँ नहीं।
अब दूसरी भावना ईश्वर के विषय में यह है कि वह मनुष्य ही के
समानसोचता,विचारता और कार्य करता है। भेद इतना ही है कि उसके सोचने,
विचारने और कार्य करने की कोई हद नहीं है। पुरुष या पुरुषोत्ताम रूप में
ईश्वर की इस भावना का सभ्यता के इतिहास पर बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है। पर सबसे
विलक्षण और दुर्बोधा रूप इस भावना को यहूदी, ईसाई और इस्लाम इन तीन
पैगम्बरीमतों में प्राप्त हुआ है। ये तीनों मत परस्पर सम्बद्ध हैं और एशिया
के पश्चिमी किनारे पर इबरानी अनार्य जातियों के कुछ भावोन्मत्ता लोगों के
द्वारा प्रवर्तित हुए हैं। इनमें प्राचीन यहूदी मत है जिससे ईसाई मत निकला।
ईसाई मत के सिध्दान्तों को लेकर ही इस्लाम धर्म की स्थापना हुई। जिस प्रकार
ईसाई मत पौराणिक कथा एँमूसा के यहूदी धर्म से ली गई हैं उसी प्रकार मुसलमान
मत की कथाएँ दोनोंपूर्ववत्तरी मतों से संगृहीत हुई हैं। उक्त तीनों मत पहले
पहले एकेश्वरवाद को लेकर खड़े हुए पर ज्यों ज्यों उनका प्रसार बढ़ता गया
त्यों त्यों उनमें बहुदेववाद आता गया।
जिस एकदेववाद को मूसा ने ईसा से 1600 वर्ष पहले चलाया और जिसमें एकमात्र
'यह्वा' की उपासना मानी गई वह बहुदेववाद ही से निकला था। 'यह्वा' उन अनेक
देवताओं में से एक का नामान्तर है जिन्हें प्राचीन यहूदी पूजते थे। यह
यह्वा आदि में स्वर्ग का देवता माना जाता था जो और देवताओं ही के समान कठोर
और क्रूर था और पूजा न पाने पर कड़ा दंड देता था। इस यह्वा के अतिरिक्त और
भी अनेक देवता थे जिन्हें प्राचीन यहूदी पूजते थे पर मूसा के पीछे इसे
प्रधानता प्राप्त होती गई और सिद्धांत रूप से यह यहूदियों का एकमात्र देवता
कहा जाने लगा। यद्यपि 'यह्वा' का यह वचन था कि 'मैं ही तेरा एकमात्र प्रभु
और ईश्वर हूँ, मेरे सिवा और किसी देवता को न मानना' पर और बाकी देवताओं का
संस्कार बहुत दिनों तक बना रहा।
मूसाई धर्म से निकले हुए ईसाई धर्म की भी यही दशा हुई। यद्यपि सिद्धांत रूप
में ईसाई धर्म एकेश्वरवादी ही था पर व्यवहार में वह बहुदेववादी हो गया।
एकेश्वरवाद का त्याग तो एक प्रकार से तभी हो गया जब पिता, पुत्र और पवित्रा
आत्मा की देवत्रायी मानी गई। पर इस देवत्रायी के अतिरिक्त ईसा की माता
मरियम की उपासना इतनी प्रबल पड़ी कि वह स्वर्ग की अधीश्वरी देवी मानी गई।
कैथलिक सम्प्रदाय के ईसाइयों के बीच स्वर्ग की इस अधीश्वरी ने इतनी
प्रधानता प्राप्त की कि देवत्रायी मन्द पड़ गई। यहीं तक नहीं, ईसाई भक्तों
की भावुकता ने अनेक सन्तों और महात्माओं की मण्डली बिठाकर स्वर्ग को और
गुलजार कर दिया। पोप लोग इस मण्डली को बराबर बढ़ाते ही गए। गाने बजानेवाले
फरिश्तों का जमावड़ा तो वहाँ पहले ही से था। इस प्रकार स्वर्ग में खुदा का
एक खासा दरबार लग गया और उस दरबार में 'ईसा के नायब' पोपों के द्वारा
अर्जियाँ भी गुजरने लगीं।
ईसाई धर्म के तत्त्वों को जानकर मुहम्मद ने ईसा से 600 वर्ष बाद अपना नया
एकेश्वरवादी मत इस्लाम के नाम से चलाया। ईसाइयों के संसर्ग से ही मुहम्मद
ने अपने देशवासी मूर्तिपूजक अरबों को तिरस्कार और घृणा की सृष्टि से देखना
सीखा और उनके बीच अपने ज्ञान का आतंक जमाया। उन्होंने ईसाई मत की मुख्य
मुख्य बातों को तो ले लिया पर ईसा को परमेश्वर का पुत्र नहीं माना, मूसा के
समान एक पैगम्बर ही माना। देवत्रायी को भी उन्होंने अपने मत में स्थान नहीं
दिया। मरियम की उपासना को उन्होंने मूर्तिपूजा ठहराया। सारांश यह कि अपने
एकेश्वरवाद को जहाँ तक विशुद्ध रखते बना उन्होंने रखा। पर उनका ईश्वर भी
नरस्वरूप या देवता स्वरूप ही था। खुशामद सुनने और बदला लेने में वह मनुष्य
के समान ही था। उसके यहाँ भी पूरी दरबारदारी होती थी।
भिन्न भिन्न मतों की ईश्वरसम्बन्धिनी जिन निर्दिष्ट भावनाओं का ऊपर विवेचन
हुआ उन सबसे अधिक प्रचार मिश्र भावना का है जिसमें कई प्रकार की, कभी कभी
परस्पर विरुद्ध भावनाओं का मेल रहता है। यद्यपि सिद्धांतरूप में इस प्रकार
का मिश्रित मत कोई स्वतन्त्र मत नहीं स्वीकार किया गया है पर व्यवहार में
सबसे अधिक चलन इसी का देखा जाता है। मनुष्यों का अधिकांश इसी को माननेवाला
है। अधिकतर लोगों की ईश्वर के सम्बन्ध में जो भावना होती है वह कुछ अपने मत
और सम्प्रदाय की भावना और कुछ दूसरे मतों और सम्प्रदायों की भावनाओं से
मिलजुल कर बनी होती है। लड़कपन में ही अपने मत या सम्प्रदाय की जो भावना
प्राप्त होती है उसमें आगे चल कर दूसरे मतों और सम्प्रदायों के साथ संसर्ग
होने से कुछ फेरफार हो जाता है। शिक्षित मनुष्यों में दर्शन और विज्ञान के
अध्ययन के प्रभाव से भी ईश्वरसम्बन्धिनी भावना में बहुत कुछ फेरफार और
रूपान्तर हो जाता है। इस प्रकार के परस्परविरुद्ध संस्कार मन में जम कर
आजीवन बने रहते हैं। बात यह है कि लड़कपन में पुरानी कथा कहानियों का जो
वंशपरम्परागत संस्कार होता है वह बड़ा प्रबल होता है, वह तो बना ही रहता है।
पीछे शिक्षा तथा दूसरे मतों के परिचय द्वारा जो भाव प्राप्त होते हैं वे भी
पुराने भावों के साथ जा मिलते हैं। इस प्रकार लोगों का अन्त:करण 'भानमती का
पिटारा' हो जाता है जिसमें ईश्वरविषयक रंगबिरंग की परस्पर असम्बद्ध और
असंगत भावनाएँ भरी हुई रहती हैं।
ऊपर जितने प्रकार के देववादों (ईश्वरवादों) का जिक्र हुआ उन सबमें ईश्वर
प्रकृति या भूतों से परे माना गया है। वह जगत् से भिन्न, वाह्य और
स्वतन्त्र तथा उसका कर्ता और नियन्ता कहा जाता है। उसकी भावना पुरुषविशेष
या देवविशेष के रूप में ही हुई है। वह मनुष्यों ही के समान सोचता विचारता,
अनुभव करता तथा प्रसन्न और अप्रसन्न होता है। भेद इतना ही समझा गया है कि
मनुष्य में सब बातें अपूर्ण रूप में होती हैं पर उसमें परम पूर्णरता को
प्राप्त रहती हैं। ईश्वर के विषय में ऐसी ही धारणा अधिकतर मनुष्यों की है-
किसी की स्थूल किसी की सूक्ष्म। जिन मतों में ईश्वर की भावना सूक्ष्म रूप
में की गई है उनमें स्थूल शरीर आदि का आरोप न कर ईश्वर को 'शुद्ध आत्मा'
माना है। पर बिना शरीर की इस निराकार आत्मा के व्यापार भी ठीक उसी तरह के
माने जाते हैं जिस तरह साकार पुरुष रूप ईश्वर के। शरीरियों के मस्तिष्क या
अन्त:करण के जो व्यापार हैं वे सब उसमें आरोपित किए जाते हैं।
ब्रह्मवाद या सर्ववाद1
सर्ववाद कहता है कि ईश्वर और जगत् अभिन्न अर्थात एक है। ईश्वर की यह भावना
मूलप्रकृति या परमतत्व ही की भावना के अनुरूप है2। यह भावना उन सब भावनाओं
के विरुद्ध पड़ती है जिनका ऊपर उल्लेख हो चुका है। 'यह भी ठीक, वह भी ठीक'
कहनेवाले बहुत से लोगों ने इन दोनों प्रकार की भावनाओं में जो विरोध है
उसके परिहार का व्यर्थ प्रयास किया है। पर यह विरोध अपरिहार्य है। दोनों
प्रकार की भावनाओं में बड़ा अन्तर है। ईश्वरवाद में ईश्वर प्रकृति से सर्वथा
स्वतन्त्र, भूतों से परे, और जगत् से वाह्य समझा जाता है पर सर्ववाद या
ब्रह्मवाद में ब्रह्म जगत् में अनर्तव्यापी और ओतप्रोत भाव से शक्ति रूप
में उसका संचालन करनेवाला माना जाता है। सर्ववाद की भावना ही वैज्ञानिकों
के अनुकूल पड़ती है। परम तत्व की अक्षरता का जो वैज्ञानिक सिद्धांत है उसके
साथ इसका मेल हो जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि सर्ववादियों का ब्रह्म
अनन्त विश्व विधान ही का नामान्तर है।
1 सर्व खल्विदं ब्रह्म।
2 हैकल के अद्वैतवाद और ब्रह्मवाद के बीच सिद्धांतभेद है। ब्रह्मवाद चेतना
समष्टि को ब्रह्म मानता है- उसका ब्रह्म चिन्मय और ज्ञानस्वरूप है। हैकल का
परमतत्व प्रवृत्तिधर्मयुक्त होने पर भी जड़ हैं, चेतन का उसके साथ नित्य
सम्बन्ध नहीं। उसके गुणविकास की एक अवस्था का नाम ही चेतना है, जिसका
अधिष्ठान शरीरियों के अन्त:करण के अतिरिक्त और कहीं नहीं। भौतिक अन्त:करण
ही द्रष्टा है। अत:सांख्य के प्रकृति पुरुष के द्वैत में से यदि हम पुरुष
को निकाल केवल जड़ प्रकृति ही को रखें तो हैकल का अद्वैत मत निकलता है जिसे
हम प्रकृतिवाद ही कह सकते हैं।
यह सच है कि अब भी कुछ वैज्ञानिक ऐसे हैं जो इसे नहीं मानते और पुरुषाकार
भावना के साथ इस जगद्विधान समष्टिरूप सर्ववाद का सामंजस्य सम्भव समझते हैं
पर उनका यह सब विचार व्यर्थ का वितण्डा है।
सर्ववाद या ब्रह्मवाद ज्ञान की अत्यंत उन्नत अवस्था का सूचक है अत: पृथ्वी
की प्राचीन सभ्य जातियों के बीच ही इसका उदय हुआ। प्राचीन भारतवासियों और
चीनियों के बीच इसका बीजारोपण ईसा से कई हजार वर्ष पहले हो चुका था। पीछे
यूनान और रोम के तत्वज्ञानियों के बीच इसका प्रचार हुआ। यूनान में इस
सिद्धांत को पूर्णरूप से अनग्जिमेंडर ने व्यक्त किया। उसी ने अनन्त विश्व
की एकता की स्पष्ट व्याख्या की ओर जगत् के सम्पूर्ण व्यापारों का मूलाधार
एक विभु, नित्य आदितत्व बतलाया। उसने लोकपिंडों की उत्पत्ति और लय के अखंड
क्रम का भी आभास दिया। इंपिडाक्लीज आदि अन्य तत्वदर्शियों ने भी ईश्वर और
जगत्, शरीर और आत्मा की अभिन्नता का प्रतिपादन अपने ढंग पर किया। ईसाई
धर्माचार्यों ने इस तत्व को दबाने की लाख अन्याय चेष्टाएँ कीं पर यह बिलकुल
दबा नहीं। पोपों के क्रूर अत्याचारों के समय में भी इस सत्य की घोषणा समय
समय पर होती रही। सन् 1600 में इस सर्ववाद के समर्थन के अपराध में पोप की
आज्ञा से ब्रूनो जीदा जलाया गया।
युरोप में ब्रह्मवाद या सर्ववाद की विशुद्ध और पूर्ण व्याख्या सन् 1700 में
स्पिनोजा द्वारा हुई। उसने वस्तुसमष्टि का ऐसा लक्षण निरूपित किया जिसके
अन्तर्गत ईश्वर और जगत् दोनों आ गए1। इस तत्ववेत्ता ने अपने शुद्ध चिन्तन
के बल से जिस सिद्धांत की स्थापना की, पीछे परीक्षात्मक विज्ञान से भी उसका
समर्थन हुआ। इसका अद्वैतवाद ही वैज्ञानिकों का तत्त्वाद्वैतवाद हुआ।
अनीश्वरवाद के अनुसार जगत् का कर्ता और नियन्ता कोई ईश्वर या देवता नहीं।
अनीश्वरवादियों के इस 'ईश्वरानपेक्ष विश्व विधान' का आधुनिक वैज्ञानिकों के
तत्त्वाद्वैतवाद या सर्ववाद के साथ पूरा मेल हो जाता है। सच पूछिए तो दोनों
एक ही हैं, केवल नाम का भेद है। प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने ठीक
ही कहा है कि 'सर्ववाद प्रच्छन्न अनीश्वरवाद ही है। सर्ववाद ईश्वर और जगत्
इस द्वैतभाव का खंडन करके यह प्रतिपादित करता है कि जगत् अपनी ही निहित
शक्तियों के
1 स्पिनोजा ने एक ही शुद्ध निरपेक्ष द्रव्य का प्रतिपादन किया है और
निरपेक्षता को द्रव्य का लक्षण माना है। उसके अनुसार वस्तुत: एक ही द्रव्य
है जो स्वयंभू, अपरिच्छिन्न और अद्वितीय है; क्योंकि यदि वह किसी दूसरी
वस्तु से उत्पन्न, किसी वस्तु से घिरा हुआ या किसी के साथ रहता तो बिना
द्वितीय वस्तु के उसका बोध न होता और सापेक्ष होने से उसकी द्रव्यता जाती
रहती। इस स्वयंभू अपरिच्छिन्न और अद्वितीय द्रव्य के नाम के विषय में कोई
विवाद नहीं। सामान्यत: ईश्वर शब्द से इसका बोध होता है। पर तार्किकों और
धार्मिकों ने इच्छा ज्ञान आदि विशिष्ट व्यक्तिविशेष को जैसा ईश्वर समझ रखा
है, वैसा वह नहीं है। सर्वगत जो सामान्य सत्ता है वही ईश्वर है।
द्वारा परिचालित हो रहा है। वैज्ञानिक अद्वैतवादियों का यह कहना कि ईश्वर
और जगत् एक ही है प्रच्छन्न रूप से ईश्वर को विदा दे देना ही है।'
लोक में अनीश्वरवादी बहुत बुरे समझे जाते हैं। लोग मानते हैं कि उनकी बहुत
बुरी गति होगी। इसी से सब बातों को समझने बूझने वाले लोग भी ऊपर से इस बात
की चेष्टा में रहते हैं कि वे अनीश्वरवादी न समझे जायँ। सत्य के अनुसंधान
में सच्चे हृदय से तत्पर अनीश्वरवादी वैज्ञानिक लोग दुनिया भर की बुराई
मानने के लिए तैयार रहते हैं पर घंटों पूजापाठ और टंटघंट करनेवाले को, चाहे
वह कपट और व्यभिचार ही में डूबा रहता हो, लोग परम साधु और क्रियानिष्ठ कहते
पाए जाते हैं। यह दुरवस्था तभी दूर होगी जब ज्ञान का प्रचार होगा और लोगों
को तत्वदृष्टि प्राप्त होगी।
सोलहवाँ प्रकरण
-
ज्ञान और विश्वास
सत्य की खोज करना ही सच्चे विज्ञान का काम है। प्रत्येक विज्ञान इस बात का
प्रयत्न करता है कि सत्य का ज्ञान प्राप्त हो। प्रकृति का ज्ञान ही हमारा
वास्तव ज्ञान है। यह उन अन्तराभासों से संघटित होता है जिनका वाह्यपदार्थों
से बिम्बप्रतिबिम्ब सम्बन्ध होता है। यह ठीक है कि हमारी बुद्धि इस जगत् की
आभ्यन्तर सत्ता या वास्तविक स्वरूप तक नहीं पहुँच सकती, पर विशुद्ध
विज्ञानदृष्टि से विचार करने पर हम देखते हैं कि ज्ञानेन्द्रियों और
मस्तिष्क की अविकृत क्रियाओं के द्वारा, वाह्य जगत् के जो अनुभव होते हैं
वे सब मनुष्यों में समान होते हैं और अन्त:करण की अविकृत क्रियाओं के
द्वारा, कुछ ऐसे अन्तराभास उत्पन्न होते हैं जो सर्वत्रा एक होते हैं। ऐसे
अन्तराभासों को हम 'सत्य' कहते हैं क्योंकि हमें इस बात का निश्चय रहता है
कि वे वस्तुओं के ज्ञेय स्वरूप के ठीक ठीक प्रतिबिम्ब हैं।
सत्य का सारा ज्ञान दो विभिन्न, परस्परसम्बद्ध, शरीरव्यापारों पर निर्भर
है, वाह्यार्थ या विषय के इन्द्रियानुभव पर जो इन्द्रियों की क्रियाओं
द्वारा प्राप्त होता है, और इन्द्रियानुभावों की योजना द्वारा संघटित और
स्वयं द्रष्टा या विषयी ही में उपस्थित अन्तराभास पर। इन्द्रियानुभव जिनके
द्वारा होते हैं उन्हें वाह्यकरण अर्थात ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं और
अन्तराभासों को जो ग्रहण और संयोजित करते हैं उन्हें अन्त:करण कहते हैं।
वाह्यकरण विज्ञानमयकोश के ऊपरी तल के अंश हैं और अन्त:करण भीतरी
केन्द्रस्थान के। इसी जटिल मनोविज्ञानमय कोश के द्वारा समस्त मनोव्यापार
होते हैं।
मनुष्य के इन्द्रियव्यापार बनमानुसों के इन्द्रियव्यापार के समुन्नत रूप
हैं। जिस प्रकार बनमानुसी शरीर से क्रमश: उन्नत होते होते मानव शरीर का
विकास हुआ है उसी प्रकार बनमानुसी इन्द्रियव्यापारों से मनुष्य के
इन्द्रियव्यापारों का विकास हुआ है। किंपुरुष वर्ग जिसके अन्तर्गत बन्दर,
बनमानुस और मनुष्य हैं, के सब प्राणियों की इन्द्रियों की बनावट एक ही
ढाँचे की होती है। जिन भौतिक और रासायनिक नियमों के अनुसार एक के
इन्द्रियव्यापार होते हैं उन्हीं के अनुसार दूसरे के भी। जिस क्रम से और
जिन अवस्थाओं में होते हुए एक के इन्द्रियव्यापार गर्भावस्था से क्रमश:
वृद्धि को प्राप्त होते हैं उसी क्रम से और उन्हीं अवस्थाओं में होते हुए
दूसरे के भी। प्रारम्भ में सम्पुर्ण त्वचा ही वाह्यकरण अर्थात
ज्ञानेन्द्रियों का काम देता है। भ्रूण की ऊपरी कला (झिल्ली) के जो
संवेदनात्मक घटक होते हैं वे ही ज्ञानेन्द्रियों के मूल हैं। भिन्न भिन्न
विषयों प्रकाश, शब्द, ताप आदि को विशेष रूप से ग्रहण करने के कारण वे मिलकर
विशिष्ट इन्द्रियों के रूप में हो जाते हैं। जिस विषय का जिन घटकों के साथ
अधिक संयोग हुआ उसे ग्रहण करने ही के उपयुक्त वे हो गए। नेत्रापटल के
शलाकाघटक, कानों के भीतर के श्रोत्राघटक, नाक भीतर के घ्राणघटक, जिह्ना पर
के रसघटक, सबके सब आंरभ में ऊपरी झिल्ली के घटक थे और उसपर सर्वत्रा फैले
थे। मनुष्य तथा और दूसरे उन्नत जीवों के भ्रूणवृद्धिक्रम को ध्यानपूर्वक
देखने से इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाता है। पहले कहा जा चुका है कि
गर्भाधान के उपरान्त किसी एक जीव के उत्तरोत्तर एक अवस्था से दूसरी अवस्था
में होते हुए विकास का जो क्रम है, वही क्रम एक प्रकार के जीवों से दूसरे
प्रकार के जीवों के उत्पन्न होने का भी है। सामान्य कलाकोश या झिल्ली की
थैली के रूप के जो क्षुद्र आदिम जीव थे जैसे पेट के केंचुए आदि, उनमें
भिन्न भिन्न इन्द्रियों का विभाग नहीं था। उनकी बाहरी झिल्ली में जो
संवेदनग्राही घटकों की तह थी उन्हीं से सर्वत्रा समानरूप में संवेदन
व्यापार होता था। विकास क्रमानुसार उन क्षुद्र जीवों से ज्यों ज्यों
उत्तरोत्तर उन्नत जीवों की उत्पत्ति होती गई त्यों त्यों उनके त्वचा के घटक
इस प्रकार विभक्त होते गए कि कुछ केवल एक प्रकार का संवेदन ग्रहण करने लगे
और कुछ दूसरे प्रकार का। कुछ प्रकाश को ग्रहण करने लगे, कुछ शब्द को और कुछ
गन्धा को। इस प्रकार इन भिन्न भिन्न प्रकार के घटकों की योजना से उन्नत
जीवों में भिन्न भिन्न प्रकार के संवेदनसूत्रों और ज्ञानेन्द्रियों की
उत्पत्ति हुई। एक प्रकार के संवेदनसूत्रा से वाह्य पदार्थ के एक ही गुण का
ग्रहण होता है, और का नहीं। आँख में जो संवेदनसूत्रा हैं उनसे रूप ही का,
कान में जो हैं उनसे शब्द ही का, नाक में जो हैं उनसे गन्धा ही का बोध
होगा।
संवेदनसूत्रों की इस विशेषधर्मता से, उनके विशेष विशेष गुणों को ही ग्रहण
करने की शक्ति रखने से, लोगों ने कई प्रकार के भ्रान्त सिद्धांत निकाले।
बहुतों ने यह कहना आंरभ किया कि मस्तिष्क या आत्मा को संवेदनसूत्रा की
विशेष अवस्था ही का बोध हो सकता है अत: उसकी इस क्रिया द्वारा वाह्यपदार्थ
के अस्तित्व और वास्तव स्वरूप के विषय में कोई सिद्धांत नहीं स्थिर किया जा
सकता। संशयवादियों ने वाह्य जगत् के होने तक में सन्देह प्रकट किया और
मायावादियों ने तो उसका होना अस्वीकार ही कर दिया।
इस प्रकार के मत भ्रम से उत्पन्न हुए हैं। सबसे पहले तो समझने की बात यह है
कि भिन्न भिन्न संवेदनसूत्रों के जो 'विशेष धर्म' कहे जाते हैं वे उनके मूल
गुण नहीं हैं बल्कि ऊपरी झिल्ली के घटकों के क्रमश: एक एक विषय में
अधिकाधिक अभ्यस्त होने से प्राप्त हुए हैं। आंरभ में ऊपरी झिल्ली के ये घटक
भिन्न भिन्न विषयों को ग्रहण करने के लिए अलग अलग वर्गों में विभक्त नहीं
थे, सबमें सब विषयों को अत्यंत अल्प परिमाण में ग्रहण करने की समान शक्ति
थी। क्रमश: कुछ घटक एक विषय के रूप मे करने में अभ्यस्त होते गए और कुछ
दूसरे विषय के। कुछ घटक प्रकाशरश्मियों को ही ग्रहण करने के योग्य हो गए,
कुछ शब्दतरंगों को, कुछ गन्धा के रासायनिक उत्तोजन को, इत्यादि। इस प्रकार
कार्यविभाग हो जाने से विषयों को ग्रहण करने की शक्ति क्रमश: तीव्र होती गई
और एक एक विषय को ग्रहण करने वाले घटकों की अलग अलग योजना और स्थिति से
ऊपरी झिल्ली के बनावट में भी विभेद पड़ते गए। प्राकृतिक ग्रहण प्रवृत्ति
द्वारा ये विभेद उत्तरोत्तर वृद्धि प्राप्त करते गए और आँख, कान आदि भिन्न
भिन्न इन्द्रियों का प्रादुर्भाव हुआ। इस प्रकार भिन्न भिन्न इन्द्रियों के
संवेदनसूत्रा और उनके विशेष विशेष धर्म उत्तरोत्तर अभ्यास द्वारा
प्रादुर्भूत हुए हैं और प्रादुर्भूत होकर वंशपरम्परा के नियमानुसार पीढ़ी दर
पीढ़ी बराबर चले आ रहे हैं।
मनुष्यों के इन्द्रियव्यापारों को और दूसरे रीढ़वाले जंतुओं के
इन्द्रियव्यापारों के साथ ध्यानपूर्वक मिलाने से कई बातें मालूम होती हैं।
ज्ञान और भावुकता के सबसे बड़े कारण आँख और कान ही को ले लीजिए। और जंतुओं
के आँख कान से रीढ़वाले जंतुओं के आँख कान की बनावट भी भिन्न और पेचीली होती
है और गर्भ में उनकी वृद्धि भी विशेष प्रकार से होती है। सब मेरुदंड जीवों
की इन्द्रियों के ढाँचे और उनकी गर्भवृद्धि के क्रम को देखने से यही निश्चय
होता है कि वे एक ही मूल जीव से उत्पन्न हुए हैं। मेरुदंड वर्ग के जीवों
में भी कई प्रकार के ढाँचे देखने में आते हैं। यह विभिन्नता भिन्न भिन्न
परिस्थिति में पड़ने और तदनुसार
1 सांख्यशास्त्र में अव्यक्त प्रकृति से सृष्टि की उत्पत्ति का जो क्रम
निर्धारित किया गया है उसमें एक ही मूल इन्द्रिय से क्रमश: और इन्द्रियों
की उत्पत्ति नहीं मानी गई है, बल्कि अहंकार से पहले पाँचों सूक्ष्म
इन्द्रियाँ और फिर पाँच स्थूल इन्द्रियाँ सब की सब एक साथ और एक दूसरे से
स्वतन्त्र उत्पन्न हुईं, ऐसा कहा गया है। सांख्य में जिस प्रकार इन्द्रियों
के विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धा, तन्मात्रा रूप से अर्थात परस्पर
अभिश्रित और सूक्ष्म मूलरूप में एक साथ उत्पन्न माने गए हैं उसी प्रकार
उनको ग्रहण करनेवाली पाँचों इन्द्रियाँ भी। पर सृष्टितत्व के आधिभौतिक
आचार्यों ने परीक्षा द्वारा यह निश्चित किया है कि आंरभ में त्वचा ही एक
मूल इन्द्रिय थी जिससे और इन्द्रियाँ क्रमश: उत्पन्न हुई हैं, जैसे त्वचा
पर प्रकाश का संयोग होते होते आँख उत्पन्न हुई। इस पर सांख्यवादी यह कह
सकते हैं कि मूल प्रकृति में यदि भिन्न भिन्न इन्द्रियों के उत्पन्न होने
की शक्ति न हो तो क्षुद्र कीटों की त्वचा पर प्रकाश का चाहे जितना आघात या
संयोग होता रहे तो भी उन्हें आँखें नहीं उत्पन्न हो सकतीं। उत्पन्न होने की
शक्ति तो आधिभौतिक तत्वज्ञ भी मानते हैं पर उनका कहना है कि यह शक्ति
अस्पष्टरूप में थी विशिष्ट या पृथक् रूप में नहीं थी।
भिन्न भिन्न प्रकार से जीवननिर्वाह करने के कारण उत्पन्न हुई है। परिस्थिति
के अनुसार किसी को किसी इन्द्रिय का अधिक उपयोग करना पड़ा और किसी का कम। इस
प्रकार मेरुदंड वर्ग में भिन्न भिन्न आकार और प्रकार की इन्द्रियों वाले
भिन्न भिन्न जीव उत्पन्न हुए। मनुष्य, कुत्तो, बिल्ली, बैल आदि के आँख, कान
की रचना और शक्ति में भेद दिखाई पड़ता है।
मनुष्य सबसे उन्नत प्राणी है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि उसकी इन्द्रियाँ
सबसे अधिक पूर्ण हैं। गीधा की दृष्टि मनुष्य की दृष्टि से कहीं अधिक तीव्र
होती है। जितनी दूर की चीजें उसकी आँखें देख सकती हैं उतनी दूर की चीजें
मनुष्य की भी आँखें नहीं देख सकतीं। स्तन्यजंतुओं में शेर, भेड़िए आदि हिंसक
जंतुओं, खुरवाले जंतुओं और कुतरनेवाले जंतुओं, जैसे चूहों, गिलहरियों आदि
की श्रवणशक्ति मनुष्य की श्रवणशक्ति से कहीं अधिक तीव्र होती है। उनके
कानों के भीतर की कुंडली को देखने से ही इसका पता लग जाता है। कोकिल आदि
पक्षियों की वाणी कोमल संगीत स्वर निकालने में मनुष्य की वाणी से श्रेष्ठ
होती है। कुत्तो यदि मनुष्य की घ्राणशक्ति को अपनी घ्राणशक्ति से मिलावें
तो उन्हें मनुष्यों पर दया आ सकती है। इसी प्रकार रसना, काम वेदना, स्पर्श
आदि की शक्तियों के विषय में भी कह सकते हैं कि वे कुछ जंतुओं में जितनी
तीव्र हैं उतनी मनुष्य में नहीं।
हम उन्हीं संवेदनों के विषय में कुछ कह सकते हैं जिनका हमें अपनी
इन्द्रियों के द्वारा अनुभव होता है। पर अंगविच्छेद परीक्षा द्वारा बहुत से
जंतुओं में कुछ और ऐसी इन्द्रियाँ पाई गई हैं जिनसे हम परिचित नहीं।
मछलियों तथा कुछ और जलजंतुओं की त्वचा में कुछ ऐसे इन्द्रियगोलक होते हैं
जो विशेष प्रकार के संवेदनसूत्रों से सम्बद्ध होते हैं। मछली के दाहिने और
बाएँ एक एक लम्बी नली होती है जिससे और छोटी छोटी नलियाँ शाखा के रूप में
निकली होती हैं। इन नलियों में एक विशेष प्रकार के संवेदन सूत्रहोते हैं जो
स्थलचारी जंतुओं में नहीं पाए जाते। इन संवेदन सूत्रों के बाहरी छोर पर
अनुभवात्मक इन्द्रियगोलक होते हैं। यह शरीरव्यापी इन्द्रिय शायद जल के दबाव
तथा उसके और गुणों के अनुभव के लिए होती है। कुछ जाति की मछलियों में कुछ
और भी इन्द्रियगोलक होते हैं जिनका क्या उपयोग है हम नहीं कह सकते।
इन बातों से यह स्पष्ट है कि मनुष्य के इन्द्रियानुभव परिमित हैं। पहले तो
जितनी इन्द्रियाँ उसे प्राप्त हैं उनके द्वारा पदार्थों के सब गुणों का
अनुभव नहीं हो सकता। उन्हीं गुणों का अनुभव हो सकता है जिन्हें विषय रूप से
ग्रहण करने के लिए इन्द्रियाँ हैं। दूसरी बात यह है कि जिन गुणों का जो
अनुभव हमें होता भी है वह किसी हद तक होता है। यह नहीं है कि हमारी आँखें
सूक्ष्म अणुओं को देख सकती हैं या हमारे कान नाड़ियों के रक्तसंचार का शब्द
सुन सकते है। हमारी इन्द्रियाँ
1 जो अनाहत नाद सुनने लगते हैं उनकी बात दूसरी है।
अपूर्ण हैं। सम्पर्क या आघात को जिस रूप में इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं उसी
रूप में संवेदनसूत्रा उन्हें मस्तिष्क या अन्त:करण तक पहुँचाते हैं।
हमारी इन्द्रियाँ चाहे अपूर्ण हों पर उनके महत्त्व को हम अस्वीकार नहीं कर
सकते। हमारे सारे ज्ञान विज्ञान का मूल इन्द्रियबोध है। ज्ञान का प्रथम
साधान इन्द्रियाँ हैं। अन्त:करण जब तक काम के योग्य नहीं होता है तब तक
इन्हीं इन्द्रियों, वाह्यकरणों से ही हमारा काम चलता है; ये ही हमें बतलाती
हैं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। अत: जो लोग इन्द्रियों के
एकबारगी दमन या नाश का उपदेश दिया करते हैं वे बड़ी भारी भूल करते हैं। यदि
कोई आदमी इसलिए अपनी आँखें निकलवा डाले कि वे एक बार बहुत बुरी चीजों पर पड़
गई थीं, अथवा इस डर से अपना हाथ कटा डाले कि वह 'पराए माल' पर न पड़े तो उसे
लोग क्या कहेंगे? इन्द्रियज ज्ञान के आधार पर ही सारे दर्शन विज्ञान
प्रतिष्ठित हैं। इन्द्रियों के बिना ज्ञान हो नहीं सकता।
पर इन अपूर्ण इन्द्रियों के द्वारा वाह्यजगत् का जो परिज्ञान होता है उससे
शिक्षितों और विचारवानों को संतोष नहीं हो सकता। वे इन्द्रियों द्वारा
प्राप्त संस्कारों को मस्तिष्क की संवेदन ग्रन्थियों के भीतर अनुभवरूप में
ग्रहण करते हैं और फिर अन्त:करण की ब्रह्मग्रन्थि में अन्तराभास के रूप में
उनकी योजना करते हैं। अन्त में इन अन्तराभासों की योजना से सम्बद्ध ज्ञान
की प्राप्ति होती है। पर बुद्धि की यह योजना शक्ति परिमित होती है। कल्पना
शक्ति यदि बीच बीच में कुछ स्वरूपों का न्यास करके इन अन्तराभासों को अच्छी
तरह संयोजित न करे तो सम्बद्ध ज्ञान पूरा नहीं हो सकता। इस प्रकार अन्त:करण
की भिन्न भिन्न वृत्तियों के द्वारा खंडज्ञान के संयोजित और समन्वित हो
जाने पर एक नए सामान्य स्वरूप का आभास होता है जिससे उपस्थित विषय का
समाधान हो जाता है और हमारी कार्यकारण बुद्धि तुष्ट हो जाती है।
वह अन्तराभास जिसकी उभावना ज्ञान की शृंखला पूरी करने के लिए अथवा
निश्चयात्मक ज्ञान के अभाव में उसका स्थान ग्रहण करने के लिए की जाती है,
'विश्वास' कहलाता है। प्रतिदिन के व्यवहार में हमें इसका काम पड़ता है। जब
हमें यह निश्चय नहीं होता है कि बात ऐसी ही है तब हम कहते हैं कि हमें
विश्वास है कि बात ऐसी ही है। इस प्रकार का विश्वास विज्ञान तक में चलता
है। दो बातों के बीच अमुक सम्बन्ध है इसका प्रत्यक्ष द्वारा निश्चय न होने
पर भी हम यह अनुमान कर लेते या मान लेते हैं कि सम्बन्ध है। यदि यह सम्बन्ध
कार्यकारण का हुआ तो इस प्रकार का मानना अभ्युपगम कहलाता है। विज्ञान में
ऐसे ही अभ्युपगम ग्राह्य होते हैं जो मनुष्य की बुद्धि में आ सकते हैं और
अनुभव के विरुद्ध नहीं पड़ते। भौतिक विज्ञान में ईथर की गति, रसायन शास्त्र
में परमाणु और उनकी प्रवृत्ति, जीवविज्ञान में सजीव कललरस का अण्वात्मक
होना इसी प्रकार के अभ्युपगम हैं। ईथर इतना सूक्ष्म है कि उसकी गति को हम
प्रत्यक्ष नहीं देख सकते। इसी प्रकार रासायनिक मूल द्रव्यों के परमाणुओं और
कललरस के अणुओं का निश्चय भी हम परीक्षा आदि द्वारा नहीं कर सकते।
बहुत सी सम्बद्ध बातों का समाधान एक सामान्य कारण मान कर करना सिद्धांत
निकालना कहा जाता है। चाहे अभ्युपगम हो, चाहे सिद्धांत, विश्वास दोनों में
आवश्यक है। दोनों में कल्पना का सहारा लेना पड़ता है। वस्तु सम्बन्ध ज्ञान
के लिए अकेली बुद्धि ही को नहीं काम करना पड़ता। कुछ बातों का तो हमें
प्रत्यक्ष होता है, कुछ का बुद्धि के द्वारा निश्चय होता है और कुछ का
कल्पना के सहारे अनुमान होता है। इन तीनों के मेल से ही बड़े बड़े सिद्धांत
निकलते हैं। दर्शन या विज्ञान में कोई ऐसा सिद्धांत नहीं जिसमें अनुमान से
काम न लिया गया हो। शुद्ध प्रत्यक्ष ही के आश्रय पर यदि कोई किसी विज्ञान
की स्थापना करना चाहे तो नहीं कर सकता। कार्यकारण सम्बन्ध ज्ञान केवल
प्रत्यक्ष के द्वारा नहीं हो सकता।
ज्योतिष में आकर्षणसिद्धांत, भौतिकविज्ञान में गतिशक्ति का सिद्धांत, रसायन
में परमाणुसिद्धांत, प्राणिविज्ञान में विकाससिद्धांत इत्यादि बड़े महत्त्व
के सिद्धांत हैं। इनके द्वारा प्राय: समस्त प्राकृतिक व्यापारों का
सामंजस्य भिन्न भिन्न क्षेत्रों में बहुत सी बातों के लिए एक एक सामान्य
कारण मान लेने से हो जाता है। इन सामान्य कारणों का स्वरूप आदि चाहे हम न
भी स्थिर कर सकें पर इनका अस्तित्व मान लेने से हमारा काम चल जाता है।
संशयवादी कह सकते हैं कि आकर्षण, परमाणु, विकास इत्यादि काम चलाने के लिए
मानी हुई बातें हैं। इनका आधार 'शास्त्री या विश्वास' है और कुछ नहीं। पर
इस प्रकार के शास्त्री य अनुमान या शास्त्री या विश्वास के बिना किसी
प्रकार का ज्ञान हो नहीं सकता।
यह तो हुआ 'शास्त्री या विश्वास' जो अनुमान के आधार पर होता है। इससे
सर्वथा भिन्न वह विश्वास होता है जो साम्प्रदायिक या मतमतान्तरसम्बन्धी
कल्पित बातों में होता है। साम्प्रदायिक विश्वास का अर्थ है अलौकिक और
अप्राकृतिक बातों में विश्वास जिनकी संगति बुद्धि के अनुसार नहीं बैठ सकती।
इस प्रकार का विश्वास व्यवस्थित अनुमान1 के उपरान्त नहीं होता, यों ही
बुद्धि को किनारे रख कर किया जाता है। अत: इसे एक प्रकार का अन्धविश्वास ही
कह सकते हैं। इसमें और शास्त्री या विश्वास में बड़ा भारी भेद यह है कि यह
ऐसी बातों के प्रति होता है जिनका प्रकृति में प्राय: अत्यन्ताभाव होता है,
जो विज्ञान द्वारा निश्चित प्राकृतिक नियमों के सर्वथा
1 जो कल्पना प्रत्यक्ष के आधार पर और हेतु ज्ञानपूर्वक की जाती है उसी को
अनुमान कहते हैं। बुद्धि की सहयोगिता से या उसके आदेश पर प्रयोजनवश जो
अन्तराभास कल्पना उपस्थित करती है वही अनुमान है। इसी से अनुमान एक प्रकार
से बुद्धि ही का कार्य कहा जाता है। कल्पना की अव्यवस्थित क्रीड़ा को अनुमान
नहीं कह सकते।
विरुद्ध पड़ती हैं। भिन्न भिन्न धर्मों में विश्वास रखनेवाले एक या कई
भूतातीत शक्तियाँ मान कर अनेक प्रकार की कल्पित और असम्भव बातें मानते हैं।
भूमंडल पर बसनेवाली मनुष्यजातियों की जो ईधर खूब छानबीन की गई तो अनेक
प्रकार के अन्धविश्वासों का पता लगा जो भिन्न भिन्न असभ्य जातियों के बीच
अब तक प्रचलित हैं। इन अन्धविश्वासों का परस्पर मिलान करने पर उनमें
विलक्षण सादृश्य पाया जाता है। कुछ विचार करने पर बहुतों का, और तत्वदृष्टि
से विचार करने पर सब का, एक ही मूल निश्चित होता है। सब का मूल है कारण
जिज्ञासा जो मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। मनुष्य प्रकृति के बहुत से
व्यापारों को देखता है और उनका कारण जानना चाहता है। ऐसी बातों के कारणों
को जानने की व्यग्रता सबसे अधिक होती है जिनसे मन में किसी प्रकार का भय
उत्पन्न होता है, जैसे बादल गरजना, बिजली चमकना, भूकंप आना, ग्रहण लगना
इत्यादि। असभ्य से असभ्य, जंगली से जंगली जातियों में ऐसी बातों के कारण
जानने की व्यग्रता पाई जाती है। और कहाँ तक कहें कुछ पशुओं तक में पाई जाती
है। कुत्ते जब पूर्ण चन्द्र को देखकर, फहराते हुए झंडे को देख कर, शंख या
घंटे का शब्द सुनकर भूँकने लगते हैं तब वे केवल अपना भय ही प्रकट नहीं करते
बल्कि इन रहस्यपूर्ण व्यापारों के कारण जानने की व्यग्रता भी प्रकट करते
हैं। प्राचीन जातियों के बीच धर्म का उदय ऐसे ही व्यापारों के कल्पित
कारणों में विश्वास करते करते हुआ है। आगे की पीढ़ियों में ये विश्वास
संस्कार के रूप में और अधिक बद्धमूल होते गए। इस प्रकार अन्धविश्वास,
पितरों की उपासना और अनेक प्रकार के मनोरागों से भिन्न भिन्न जातियों के
बीच मत मतान्तरों की स्थापना हुई।
आजकल की सभ्य जातियों के बीच जो धर्म विश्वास प्रचलित हैं वे असभ्य जंगली
जातियों के अन्धविश्वास से बहुत उन्नत समझे जाते हैं। ये जातियाँ समझती हैं
कि सभ्यता द्वारा हमारे सब अन्धविश्वास दूर हो गए हैं। पर यह बड़ी भारी भूल
है। निष्पक्ष भाव से यदि मिलान करके देखा जाय तो धर्मविश्वास जैसा असभ्य
जातियों का है वैसा ही सभ्य कहलानेवाली जातियों का भी। दोनों में केवल
स्वरूपभेद है, ऊपरी बातों में थोड़ा बहुत फर्क है। तत्वज्ञान की दृष्टि से
सभ्य जातियों के परिमार्जित धर्मविश्वास भी वैसे ही असंगत और ऊपपटाँग हैं
जैसे जंगली जातियों के, जिन्हें वे अहंकारवश उपेक्षा की दृष्टि से देखती
हैं। सभ्य देशों में जो मत प्रचलित हैं उनकी यदि समीक्षा की जाय तो वे सब
अन्धविश्वासपूर्ण ही पाए जायँगे। ईसाई मत को ही लीजिए। सृष्टि की 6 दिन में
रचना, देवत्रायी अर्थात पिता, पुत्रा और पवित्रातात्मा, पवित्राात्मा
द्वारा कुमारी मरियम का गर्भाधान , ईसा का मर कर जी उठना और सदेह स्वर्ग
जाना इत्यादि वैसी ही बेसिर पैर की बातें हैं जैसी मुसलमान, हिन्दू, बौद्ध
आदि और मतों में पाई जाती हैं। इनमें से किसी एक मत पर जिसे पक्का विश्वास
है वह अपने ही मत को एकमात्र सत्य और दूसरे मत को मिथ्या क्या घोर अधर्म
समझता है। जितना ही जो सम्प्रदाय अपने मत का अनन्य और दृढ़विश्वासी होगा
उतने ही कट्टरपन और भीषणता के साथ वह और सम्प्रदायों के साथ झगड़ा करने के
लिए तैयार रहेगा। संसार में धर्म के नाम पर जो इतने भीषण युद्ध हुए हैं वे
सब इसी अनन्य विश्वास, इसी अन्धविश्वास के कारण। शुद्ध बुद्धि की कसौटी पर
तो सारे प्रचलित मत समान रूप से असंगत, मिथ्या और कपोलकल्पित हैं। युक्ति
और विश्वास के सामने कोई ठहरने के योग्य नहीं।
इस अन्धविश्वास ने मनुष्य जाति का कितना अपकार किया है। धर्मान्धाता के
कारण कितना रक्तपात हुआ है, कितने प्राणियों का सुख धूल में मिल गया है।
कितने आदमियों को घरबार छोड़ दूर देशों में भागना पड़ा है। राज्यशासन में
जहाँ जहाँ धर्मान्धाता का प्रवेश रहा है वहाँ वहाँ घोर अनर्थ हुए हैं। बहुत
से देशों में धर्मशिक्षा स्कूलों में अनिवार्य रखी गई है जिसका फल यह होता
है कि बालकों के कोमल हृदयों पर ऐसे कुसंस्कार जम जाते हैं जो कभी नहीं
जाते। उनका वित्ता अन्धविश्वास का अनुयायी हो जाता है, फिर उन्हें व्याहत
और असंगत बातें अभ्यास के कारण नहीं खटकतीं। दु:ख की बात है कि जिन देशों
में सौभाग्यवश धर्मशिक्षा की अनिवार्य व्यवस्था नहीं है वहाँ भी अब कुछ लोग
गला फाड़ फाड़ कर उसकी आवश्यकता बतला रहे हैं। पर आधुनिक सभ्य राज्यों के लिए
यह परम आवश्यक है कि सर्वसाधारण की शिक्षा के लिए ऐसे विद्यालय खुलें जो
साम्प्रदायिक बन्धानों से मुक्त हों।
साम्प्रदायिक शिक्षा के लिए जो इतना आग्रह किया जाता है वह कई प्रकार के
मनोरागों के कारण। इनमें सबसे प्रबल है परम्परा से चली आती हुई बातों पर
'आस्था'। जिन बातों को बाप-दादे मानते चले आए हैं उनसे एक प्रकार की आसक्ति
हो जाती है-उनका मानना धर्म समझा जाता है। पर ऐतिहासिक दृष्टि जो विचार
करेगा उसे प्रकट हो जायेगा कि पूर्वजों की परम्परा में बराबर एक ही प्रकार
का विश्वास नहीं रहा है। 1000 वर्ष पहले के बापदादे जिन बातों को मानते थे
वे उनसे भिन्न थीं जिन्हें 2500 वर्ष पूर्व के बाप-दादे मानते थे। इसी
प्रकार 300 वर्ष पहले जिन जिन बातों पर लोगों का विश्वास था उनका 1000 वर्ष
पहले कहीं नाम तक न था। लोगों के विश्वास और धारणा में देशकालनुसार बराबर
परिवर्तन होता आया है। दूसरी बात यह है कि अपनी विद्या, बुद्धि और स्थिति
के अनुसार प्रत्येक मनुष्य अपने लिए धर्म का एक विशेष रूप ग्रहण कर लेता है
जो और लोगों के तथा बाप-दादों के धर्म से कुछ निराला ही होता है।
सबसे प्रबल अन्धविश्वास जिसका जनता पर अब तक बहुत कुछ प्रभाव है अध्यात्म
वा आत्मविद्या है। दु:ख और आश्चर्य की बात है कि करोड़ों शिक्षित पुरुष, बड़े
बड़े विज्ञानवेत्ता तक इस घोर अन्धविश्वास में निमग्न हैं। अध्यात्म
सम्बन्धी बहुत सी पत्रिकाएँ प्रकाशित होकर इस अन्धविश्वास को चारों ओर दूर
दूर तक फैलाती हैं। अच्छे खासे पढ़े-लिखे और प्रतिष्ठित लोग ऐसे चक्रों में
सम्मिलित होते हैं जिनमें प्रेतात्माएँ आकर बोलती, लिखतीं और परलोक का हाल
बताती हैं। अध्यात्मवादी प्राय: इस बात का गर्व प्रकट किया करते हैं कि
उनके अन्धविश्वासों का समर्थन बड़े बड़े विज्ञानविशारद करते हैं। वे अपने
पक्ष की पुष्टि में ऐेसे लोगों का नाम लेते हैं जैसे जर्मनी के जोलनर और
फेक्नर, इंगलैंड के वालेस और क्रुक्स। ऐसे ऐसे प्रसिद्ध वैज्ञानिक जो
अध्यात्म के चक्कर में पड़ जाते हैं इसका कारण है कुछ तो उनकी कल्पना की
अधिकता और विवेचन शक्ति की न्यूनता और कुछ उन प्रबल संस्कारों का प्रभाव जो
साम्प्रदायिक शिक्षा द्वारा उनके चित्ता में बचपन ही में जमा दिए जाते हैं।
अमेरिका के प्रसिद्ध इन्द्रिजालिक स्लेड ने जोलनर, फेक्नर और बेवर को अपने
चक्र में सम्मिलित करके कैसे धोखे में डाला था इस बात को जर्मनी में प्राय:
सब लोग जानते हैं। पीछे उसकी चालाकियाँ खुल गईं और वह एक धूर्त प्रमाणित
हुआ। इसी प्रकार आत्मविद्या के चमत्कार जहाँ जहाँ दिखाए गए हैं वहाँ वहाँ
अनुसंधान करने पर उनके भीतर गहरी चालबाजियाँ पाई गई हैं। जिनके ऊपर
प्रेतात्माएँ बुलाई जाती हैं वे या तो पक्के धूर्त होते हैं अथवा
दुर्बलचित्ता के मनुष्य। आत्माओं का अन्य लोक से आना, बातचीत करना, परोक्ष
का वृत्तान्त कहना ये सब बातें कल्पना की उच्छृंखलता, विवेचना की न्यूनता
और शरीरविज्ञान की अनभिज्ञता से उत्पन्नहैं।
संसार के प्रचलित मतों के बीच बहुत सी बातों में परस्पर भेद होते हुए भी एक
बात ऐसी है जो सबमें समानभाव से पाई जाती है और जिसे प्रत्येक अपना बड़ा
भारी सहारा समझता है। जितने मत हैं सब इस बात का दावा करते हैं कि हम जगत्
की स्थिति, जीवन के रहस्य आदि के सम्बन्ध में दैवी आभास वा दिव्यदृष्टि
द्वारा ऐसी बातों का ज्ञान कराते हैं जो मनुष्य की प्राकृतिक बुद्धि के
बाहर हैं। भिन्न भिन्न मतवाले अपने उपदेशों और वितंडावादों को दैवी आभास
द्वारा प्राप्त बतलाते हैं। उनका कहना है कि उन्हीं के अनुकूल आचरण और
विश्वास करना मनुष्य का धर्म है। मानवजीवन का शासन उन्हीं के अनुसार होना
चाहिए, वे ही ईश्वरीय धर्मशास्त्र हैं। बहुत सी ऊटपटाँग गढ़ी हुई कथाओं का
मूल भी दैवी आभास ही बतलाया जाता है। कहीं तो ईश्वर साक्षात् प्रकट होकर
मनुष्य की तरह बातचीत करता हुआ बताया गया है और कहीं मेघगर्जन, आँधी,
भूकंप, दावाग्नि में प्रज्वलित झाड़ी, जैसी मूसा ने देखी थी इत्यादि द्वारा
अपने को व्यक्त करता हुआ कहा गया है। पर जिस ज्ञान को ईश्वर इनके द्वारा
व्यक्त करता है वह वैसा ही होता है जैसा मनुष्य अपने मस्तिष्क में उद्भावित
करके अपने कंठ और वाणी द्वारा प्रकट करता है। प्राचीन भारत, मिश्र, यूनान
और रोम की धर्मकथाओं में, नई और पुरानी बाइबिल में देवता या ईश्वर मनुष्य
ही के समान बोलता, सोचता, विचारता और काम करता हुआ बतलाया गया है। अत: जिस
ज्ञान को वह कल्पित रीति से व्यक्त करता हुआ बतलाया गया है वह मनुष्यों की
कपोलकल्पना मात्र है। उसे ज्ञान नहीं कह सकते। उसमें विश्वास करना घोर
अन्धविश्वास है।
सच्चे ज्ञान का आभास प्रकृति ही में मिल सकता है; उसमें ही उसे ढूँढ़ना
चाहिए। उसके लिए अप्राकृतिक शक्ति की कल्पना करना प्रमाद और बुद्धि का
आलस्य है। सत्य का ज्ञान जो कुछ मनुष्य को हुआ है और हो सकता है कि प्रकृति
की समीक्षा द्वारा प्राप्त अनुभवों तथा इन अनुभवों की संगत योजना द्वारा
स्थिर सिध्दान्तों द्वारा ही। प्रत्येक बुद्धिसम्पन्न और अविकृत मस्तिष्क
का मनुष्य सत्य का आभास प्रकृति निरीक्षण द्वारा प्राप्त कर सकता है और
अपने को अज्ञान और अन्धविश्वास के बन्धन से मुक्त कर सकता है।
सत्रहवाँ प्रकरण
-विज्ञान और ईसाई
मत
विगत शताब्दी से विज्ञान और ईसाई मत के बीच विरोध बढ़ता चला जाता है। ज्यों
ज्यों विज्ञान की उन्नति होती जाती है त्यों त्यों उन मतों की असारता
प्रमाणित होती जाती है जो दिव्य दृष्टि या दैवी आभास के बल पर बुद्धि का
दमन करके उसे बन्धन में रखते आए हैं। ऐसे ही मतों में से एक ईसाई मत भी है।
जितनी ही दृढ़ता के साथ आधुनिक ज्योतिर्विज्ञान, भौतिक विज्ञान और रसायन
शास्त्र ने समस्त जगत् के चलानेवाले नियमों का निरूपण किया है और
उदि्भद्विज्ञान, जंतुविज्ञान और मानवविज्ञान ने इन नियमों की चरितार्थता
सजीव सृष्टि के बीच दिखलाई है, उतने ही कट्टरपन के साथ ईसाई मत ने
द्वैतवादी दर्शन का सहारा लेकर 'आध्यात्मिक क्षेत्र' में अर्थात मस्तिष्क
व्यापार के एक विभाग में, इन प्राकृतिक नियमों की चरितार्थता अस्वीकार की
है।
आधुनिक विज्ञान द्वारा निश्चित बातों और ईसाई मत की पुरानी सड़ी गली बातों
के बीच कितना गहरा विरोध है, इसे कई लेखक अच्छी तरह दिखा चुके हैं। ईसाई मत
ने अपनी स्थिति के लिए विज्ञान से जो लड़ाई ठानी उसके द्वारा उसने अपने
विनाश के सामान और भी अधिक इक्कट्ठे कर लिए। दार्शनिक रीति से इस बात को
हार्टमान ने अपने 'ईसाई मत का आत्मविनाश' नामक ग्रंथ में अच्छी तरह दिखाया
है। इस मत का संसार के एक बड़े भाग की सभ्यता पर कितना प्रभाव पड़ता है इसको
देखते हुए उसके इतिहास पर दृष्टि डालना आवश्यक है। ईसाई मत के चार रूप कहे
जा सकते हैं जो उसे आंरभ से अब तक प्राप्त हुए हैं-
(1) प्राचीन ईसाई मत ईसवी सन् की पहली से तीसरी शताब्दी तक,
(2) पोपों द्वारा परिचालित महन्ती ईसाई मत चौथी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक,
(3) पुन: संस्कार प्राप्त ईसाई मत सोलहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक और
(4) आजकल का नाम मात्र का ईसाई मत।
प्राचीन ईसाई मत
ईसाई मत अपने आदि रूप में 300 वर्ष तक रहा। ईसा, जिसने ईसाई मत चलाया, दया
और प्रेम से परिपूर्ण था पर उस समय की यूनानी, मिश्री आदि सभ्य जातियों के
ज्ञान विज्ञान से कोसों दूर था। यहूदियों में प्रचलित किस्से कहानियों के
अतिरिक्त वह और कुछ भी नहीं जानता था। वह अपनी लिखी एक पंक्ति भी नहीं छोड़
गया। यूनानी दर्शन और विज्ञान उससे 500 वर्ष पहले ही किस उन्नत अवस्था को
पहुँच चुके थे इसका उसे कुछ भी परिज्ञान न था।
उसके विषय में हमें जो कुछ जानकारी है वह नई बाइबिल (इंजील) के द्वारा
जिसके अन्तर्गत चार सुसमाचार और प्रेरितों के पत्र हैं। पहले चार
सुसमाचारों की बात लीजिए। प्रत्येक इतिहासवेत्ता जानता है कि उनका संग्रह
पहली और दूसरी शताब्दी के ढेर के ढेर जाली कागजों और पोथियों में से चुन कर
हुआ है। दूसरी शताब्दी में यह संग्रह धर्मशास्त्र के रूप में व्यवस्थित हुआ
पर चौथी शताब्दी तक घटाने और बढ़ाने का काम थोड़ा बहुत जारी रहा। सेंट जिरोम
नामक एक प्राचीन धर्माचार्य ने लिखा है कि ईसवी सन् 325 में निकेआ के
धर्मसंघ में उक्त संग्रह में एक पोथी और जोड़ी गई थी। आधुनिक विद्वानों ने
तीन सुसमाचारों, मत्ती, मार्क और लूक जो इन तीनों के मरने के पीछे औरों के
द्वारा लिखे गए; का ईसवी सन् 65 और 100 के बीच और योहन के समाचार का ईसवी
सन् 125 के कुछ पहले लिखा जाना निश्चित किया है। पर इससे यह न समझना चाहिए
कि ये चारों सुसमाचार जिस रूप में आज मिलते हैं उसी रूप में पहले भी थे।
इनमें न जाने कितना फेरफार हुआ है। ईसा की मृत्यु के 150 वर्ष तक तो इन
सुसमाचारों का पुस्तक रूप में संकलन हुआ ही नहीं था। सेंट जस्टिन के समय से
ही इनका एक सम्बद्ध ग्रंथ के रूप में होना पाया जाता है। उसके पहले इनके
कुछ वाक्य ही ईधर उधर उध्दृत पाए जाते हैं, पुस्तकों के रूप में इनका
उल्लेख नहीं मिलता। अस्तु, इन सुसमाचारों में जो कथाएँ पाई जाती हैं उनका
यदि कोई इन पुस्तकों के संकलन के पहले प्रमाण ढूँढ़ना चाहे तो नहीं मिल
सकता। ईसा की मृत्यु के 100-125 वर्ष पीछे ही इन कथाओं का प्रचार पाया जाता
है। किसी महात्मा या मतप्रवर्तक के सम्बन्ध में कितनी जल्दी जल्दी अलौकिक
कथाएँ जुड़ती जाती हैं इसका जिन्हें अनुभव है वे कदापि इतने पीछे संकलित की
हुई पुस्तकों में लिखी हुई बातों को ठीक नहीं मान सकते1।
1 भारतवर्ष में तो साधुओं और महात्माओं के सम्बन्ध में अलौकिक कथाओं का
जोड़ा जाना एक बहुत साधारण बात है। सारा भक्तमाल ऐसी ही अलौकिक और
अप्राकृतिक कथाओं से भरा पड़ा है। मुर्दे जलानेवाले, लड़की से लड़का कर
देनेवाले, नदी के जल से घी का काम लेनेवाले न जाने कितने हुए हैं। अयोध्या
में बाबा रघुनाथ दास, बाबा माधोदास अभी हाल में ही हुए हैं। एक जीवित
महात्मा
सबसे पहले लिखी जानेवाली पोथी (मार्क) का काल यदि हम ईसवी सन् 70 मान लें
तो भी कथाओं के जुड़ने और फैलने के लिए यथेष्ट समय माना जा सकता है।
पाल प्रेरित के पत्रों से भी ईसा के जीवनवृत्तान्त का कुछ विशेष पता नहीं
लगता। अस्तु, ईसाई मत का प्रवर्तक कैसा था, उसने क्या क्या काम किए, यह ठीक
ठीक नहीं कहा जा सकता। उसके सम्बध में जो अनेक प्रकार की कथाएँ पीछे लिखी
गई हैं उन्हें माननेवाले अब दिन दिन कम होते जा रहे हैं। पवित्रात्मा
द्वारा क्वारी कन्या के गर्भ से ईसा की अलौकिक उत्पत्तिवाली कथा अब
इंगलैंड, जर्मनी आदि देशों में प्रक्षिप्त कह कर टाली जा रही है। इसी
प्रकार कब्र से उठना, सदेह स्वर्ग जाना, मुर्दे जलाना इत्यादि जो अलौकिक
बातें धर्म पुस्तक में पाई जाती हैं, उनकी चर्चा अब पढ़े-लिखे लोगों के बीच
नहीं होती। इस प्रकार ईसा का जो चित्रा बाइबिल ने जनसाधारण के चित्ता में
अंकित कर रखा था वह क्रमश: हवा होता जाता है।
ज्यों ज्यों विद्वान् लोग ईसा के वास्तविक चरित्र और उपदेश के सम्बन्ध में
ऐतिहासिक छानबीन करते जाते हैं और कुछ कुछ असल बातों का पता लगता है त्यों
त्यों मतभेद बढ़ता जाता है। दो तत्व निर्विवाद ठहरते हैं, दया दाक्षिण्य का
सिद्धांत और आचरण का प्रधान नियम अर्थात दूसरों के साथ तू वैसा ही कर जैसा
तू चाहता है कि दूसरे तेरे साथ करें। पर धर्म के ये दोनों तत्व ईसा से
हजारों वर्ष पहले प्राचीन सभ्य जातियों के बीच पूर्णरूप से प्रतिष्ठित थे1A
महन्ती या रोमक मत
कैथलिय सम्प्रदाय में धर्माचार्य पोप की आज्ञा सब बातों में मान्य समझी
जाती है। पुराने समय में पोप लोगों का प्रताप और वैभव बहुत बढ़ा चढ़ा था।
युरोप के बड़े बड़े बादशाह उनके डर से काँपते थे। राजाओं को राजसिंहासन से
च्युत करना, धर्मद्रोह का अपराध लगा कर लोगों को चिता पर बिठा कर भस्म करना
उनके लिए एक साधारण बात थी। ईसाई मत ईसा के शिष्यों द्वारा पहले यूनान में
पहुँचा, वहाँ से फिर रोम में गया। रोम ही से वह इंगलैंड आदि देशों में
फैला। अत: महन्त की
का जीवनचरित उनके कुछ भक्तों ने लिखा है जिसमें बहुत से चमत्कार वर्णन
किए गए हैं, जैसे आँख मूँदते ही सैकड़ों कोस दूर एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन
पर पहुँच जाना, ईश्वर का आकर सरकारी काम पूरा कर जाना इत्यादि। किसी साधारण
आदमी से पूछिए वह किसी न किसी करामाती बाबा का नाम जरूर जानता होगा। पर ऐसे
ऐसे करामातियों की कथाएँ मूर्ख सम्प्रदायों या पन्थों ही में विशेषत:
प्रचलित हैं। शंकराचार्य का अनुयायी कोई वेदान्ती ऐसी बातों की चर्चा नहीं
करेगा।
1 शरशय्या पर भीष्म ने जो उपदेश दिए हैं उनमें एक यह भी है कि जो अपने को
अच्छा लगे उसे दूसरों के लिए भी अच्छा समझे और जो अपने को अप्रिय है उसे
दूसरों के लिए भी अप्रिय समझे।
जैगीषव्य ने इसी प्रकार देवल से कहा था कि 'जो उनके ऊपर आघात करते हैं उनसे
वे (मनीषी) बदला लेने की भी इच्छा नहीं रखते।'
गद्दी वहीं स्थापित हुई। रोमक सम्प्रदाय के ईसाई सब बातों में पुरानी
पद्धति के अनुयायी हैं। उनके यहाँ जो प्रार्थना होती है वह लैटिन भाषा में।
उनके गिरजों में ईसा की माता मरियम तथा अनेक महात्माओं या सन्तों की
मूर्तियाँ होती हैं। 1200 वर्ष तक युरोप का आध्यात्मिक शासन इसी सम्प्रदाय
के हाथ में रहा। अब भी इसको मानने वाले संसार में बहुत अधिक हैं। 50 करोड़
ईसाइयों में से 25 करोड़ रोमक मत के हैं। सबसे अधिक ध्यान देने की बात यह है
कि इतने दिनों के बीच यह एशिया के प्राचीन धर्मों पर कुछ भी प्रभाव न डाल
सका। अब भी वहाँ साढ़े पचास करोड़ बौद्ध और बीस बाईस करोड़ हिन्दू वर्तमान
हैं।
चौथी शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक युरोप में रोमक मत का एकाधिपत्य रहा।
उस बीच में घोर अन्धाकार छाया रहा। पोपों के अत्याचार से स्वतन्त्र विचार
का अवरोध रहा, ज्ञान विज्ञान का मार्ग बन्द रहा, अन्याय और व्यभिचार का
प्रचार रहा। ईसा के पूर्व यूनान और रोम आदि की प्राचीन सभ्यता के प्रभाव से
जो जातियाँ ज्ञान के उन्नत सोपान पर आरूढ़ हो चुकी थीं वे ईसाई मत के
कुप्रभाव के कारण एकदम पतित होकर बर्बरावस्था को प्राप्त हो गईं। विश्वास
को बुद्धि पर प्रधानता दी गई। बुद्धि के द्वारा तत्वचिन्तन और वैज्ञानिक
अनुसंधान का कुछ महत्त्व ही न रह गया क्योंकि सब लोग ईसाई धर्माचार्यों के
उपदेशानुसार कल्पित परलोक की तैयारी ही में हैरान रहने लगे।
सन् 325 में पोप कांस्टेंटाइन की अध्यक्षता में निकेआ के धर्मसंघ की बैठक
हुई थी। तभी से प्राचीन काल के दर्शन और साहित्य पर प्रहार आंरभ हुआ। उनका
प्रचार बन्द किया गया। यहाँ तक कि बहुत से ग्रंथनष्ट कर दिए गए। स्वतन्त्र
दर्शन और विज्ञान की चर्चा ही उठ गई। जो कोई सृष्टिविज्ञान आदि के सम्बन्ध
में अपना स्वतन्त्र विचार प्रगट करता था वह जींदा जला दिया जाता था। इस
प्रकार 1200 वर्ष तक परम शक्तिशाली पोपों के अत्याचार से सारा युरोप अज्ञान
के बन्धन में पड़ा रहा।
ईसाई धर्म के जो मुख्य तत्व हैं वे सदाचार सम्बन्धी हैं। उनकी रक्षा
लोकरक्षा के लिए परम आवश्यक है। अत: यह बात नहीं है कि ईसाई मत ने ही पहले
पहल उन तत्त्वों का उद्धाटन किया, ईसा के पहले किसी को उनका ज्ञान नहीं था।
ईसा के कई हजार वर्ष पहले से धर्म के वे आदर्श भारतीय आर्यों, पारसियों,
चीनियों, मिश्रियों, यूनानियों तथा और दूसरी सभ्यताप्राप्त जातियों के बीच
पूर्णरूप से प्रतिष्ठित थे। इन प्राचीन जातियों के बीच उनकी स्थापना अत्यंत
दृढ़ नींव पर थी। पोपों के आडम्बर के आगे धर्म के वास्तव अंग छिप गए।
स्वर्गप्राप्ति कराने का ठेका होने लगा, मुक्ति बिकने लगी। अधर्मियों
अर्थात पोप की इच्छा के प्रतिकूल चूँ करनेवालों के लिए स्थान स्थान पर
विशेष न्यायालय (या अन्यायालय) खुल गए। सन् 1481 और 1498 के बीच अकेले
स्पेन में 8000 मनुष्य जींदे जलाए गए, 900 मनुष्यों की जायदाद जब्त की गई।
इसी प्रकार हालैंड में पाँचवें चार्ल्स के राजत्वकाल में पादरियों की
रक्तपिपासा यहाँ तक बढ़ी कि 500 मनुष्यों के प्राण अनेक प्रकार की दुर्दशा
से लिए गए। एक ओर तो निरअपराध प्राणी घोर यन्त्रणा से हाहाकार करते थे
दूसरी ओर सारे युरोप का धन धर्मदंड के रूप में पोप के खजाने में जाता था और
अनेक प्रकार के उपभोगों से ईसा के अनुयायी धर्माचार्यों की आत्माएँ तुष्ट
होती थीं। उपदंसग्रस्त पोप दसवें लिओ ने एक बार मौज में आकर कह ही डाला कि
'ये सब अधिकार और उपभोग हम लोगों को ईसा की कहानी की बदौलत ही प्राप्त
हैं।'
रोमक मत के प्रताप से समाज की दशा एकदम बिगड़ गई, उसकी सारी व्यवस्था नष्ट
हो गई। अज्ञान, दारिद्रय और अन्धविश्वास के साथ साथ व्यभिचार खूब बढ़ा।
क्वारे रहने का जो नियम चलाया गया उससे व्यभिचार में पूरी सुगमता हो गई। एक
एक मठ में हजारों क्वारे बाबा और क्वारी संन्यासिनें रहने लगीं। अनेक
प्रकार के छल, पाखंड और मिथ्या प्रवादों के द्वारा व्यभिचार लीला होने लगी।
अनीश्वरवादी ईश्वर के न होने के जो अनेक प्रमाण दिया करते हैं उनमें यह भूल
जाते हैं कि 1200 वर्ष तक 'ईसा के नायब' ने जो अनेक प्रकार के घृणित
अत्याचार प्रजा पर किए वे सब ईश्वर के नाम पर ही। मुहम्मद के अनुयायियों ने
जो इतने प्राणियों की हत्या की वह अल्लाह के नाम पर ही।
संस्कारप्राप्त ईसाई मत
सोलहवीं शताब्दी के आंरभ के साथ ही युरोप में एक नया युग उपस्थित हुआ।
जर्मनी के लूथर ने ईसाई मत का संस्कार किया। पोप द्वारा प्रचारित व्यवस्था
का खंडन किया गया। उसका एकाधिपत्य अस्वीकृत किया गया। छापे के प्रचार और
देशों के संसर्ग से विद्या की चर्चा पहले ही से हो चली थी। अत: संशोधित मत
के प्रचार में बड़ी सुगमता हुई। जो पोपों के अत्याचार से दबे हुए थे वे इस
नए सम्प्रदाय का सहारा पाकर बहुत प्रबल हुए। संस्कृत सम्प्रदाय दिन दिन
बढ़ता गया। लोगों की बुद्धि, जो इतने दिनों तक कड़े बन्धन में पड़ी थी, कुछ
कुछ मुक्त हो कर ईधर उधर दौड़ने लगी। सृष्टि के वास्तव तत्त्वों की ओर ध्यान
जाने लगा। लूथर ने पोपों के पाखंड का तो खंडन किया पर जिस घोर अन्धविश्वास
का सहारा लेकर ईसाई मत खड़ा हुआ था उससे वह अपने को मुक्त नहीं कर सका था।
वह जिन्दगी भर बाइबिल की बातों को ईश्वरवाक्य कहता रहा। ईसा का कब्र से जी
उठना, मनुष्य जाति का शापवश मूल ही से पापग्रस्त होना, संसार में होनेवाली
छोटी से छोटी बात का पूर्व ही से निश्चित होना, केवल विश्वास द्वारा ही
धर्मसम्बन्धी बातों का समाधान तथा इसी प्रकार की ओर दूसरी कल्पनाओं का वह
कट्टर समर्थक था। कोपरनिकस के भूभ्रमणसिद्धांत को उसने मूर्खता बतलाया
क्योंकि बाइबिल में जोशुवा ने सूर्य को ठहर जाने के लिए कहा है पृथ्वी को
नहीं। सुधारे हुए ईसाई मत के अनुयायियों का कट्टरपन भी कुछ कम नहीं था।
उन्हीं में से एक ने एक डॉक्टर को इसलिए जलवा दिया कि उसने ईसाई मत की
त्रिदेव कल्पना पर अविश्वास प्रकट किया था। पर इन दोषों के रहते हुए भी
ईसाई मत के संस्कार द्वारा बड़ा काम हुआ। पोपों का भय हट जाने से लोगों की
बुद्धि बन्धनमुक्त हो गई और अनेक विषयों पर स्वतन्त्र विचार प्रकट किए जाने
लगे। दर्शन और विज्ञान की उन्नति का रास्ता खुल गया और थोड़े ही दिनों में
उस नवीन युग का आंरभ हो गया जो 'विज्ञानयुग, कहलाता है।
आजकल का ईसाई मत
अठारहवीं शताब्दी के आंरभ ही से विद्या के विविध अंगों की उन्नति आंरभ हुई।
प्रकृति के अनेक विभागों की छानबीन में लोग अग्रसर हुए। उन्नीसवीं शताब्दी
ने तो ज्ञान के अनेक नए क्षेत्र खोल दिए। अंगविच्छेद शास्त्र की सहायता से
भिन्न भिन्न जंतुओं की शरीररचना का मिलान किया गया। भिन्न भिन्न जीवों की
उत्पत्ति किस क्रम से हुई इसके निर्धारित हो जाने पर मनुष्य की उत्पत्ति का
सिद्धांत स्थिर किया गया। सन् 1838 में शरीरसंयोजक घटकों का पता लग जाने से
यह प्रत्यक्ष हो गया कि सब प्राणियों के शरीर इन्हीं घटकों या जीवाणुओं की
व्यवस्थित योजना से बने हैं। भौतिक कारणों से ही पृथ्वी की उत्पत्ति सिद्ध
हो गई। द्रव्य और शक्ति की अक्षरता के सिद्धांत द्वारा सृष्टि के समस्त
व्यापारों की व्याख्या की गई। लोकों की उत्पत्ति और लय का व्यापार नित्य
स्थिर किया गया। अन्त में डारविन ने अपने विकास सिद्धांत द्वारा सजीव
सृष्टि में होनेवाले व्यापारों का समाधान भौतिक रीति से करके इन सबका एक
में समाहार कर दिया।
अब देखना चाहिए कि इस विज्ञान की इस अपूर्व उन्नति के आगे आधुनिक ईसाई मत
की स्थिति क्या है? ईसाई मत की बातें तो वैज्ञानिक अनुसंधान से सर्वथा
असंगत और नि:सार प्रमाणित हुईं। इससे रोमक सम्प्रदाय ने तो हताश होकर अपना
कट्टरपन और भी अधिक बढ़ा दिया। वह अब तक अपने अन्धविश्वासों का समर्थन तथा
दिन दिन बढ़ते हुए विज्ञान का विरोध तन मन से करता चला आ रहा है। रहा
संस्कार प्राप्त (प्रोटेस्टांट) उदार ईसाई मत, उसने सर्वात्मवाद या
अद्वैतवाद की शरण ली और विरोधों के परिहार की नाना युक्तियाँ ढूँढ़ने में
लगा। वैज्ञानिक अन्वेषणों द्वारा जो प्राकृतिक नियम स्थिर हुए और उन नियमों
को लेकर जो दार्शनिक तत्व निरूपित हुए, उनके साथ वे ऐसी परिमार्जित
धर्मभावना का अविरोध दिखाने में तत्पर हुए जिसमें अन्य मतों से भिन्न कोई
विशेष लक्षण ही न रह गया। सामान्य धर्म जिसे हम ईसाई या इस्लाम किसी एक नाम
से नहीं पुकार सकते; ही को लेकर यह भी ठीक वह भी ठीक वाला वितंडावाद कुछ चल
सकता था अत: उसी को उन्होंने ग्रहण किया। पर यह बात लोगों पर अच्छी तरह खुल
गई कि जिसे हम ईसाई मत कहते हैं उसका प्रत्येक आधार खंडित हो गया, अब केवल
उसकी सदाचार सम्बन्धिनी बातों को ही लोग स्वीकार कर सकते हैं। लोगों के
विचारों में तो इस प्रकार का परिवर्तन हुआ पर आधुनिक राज्यों में ईसाई मत
के ऊपरी आडम्बर ज्यों के त्यों बने हुए हैं जिसके कारण शिक्षितों के बीच
ईसाई मत मिथ्याडंबर के रूप में पाया जाता है। अब सभ्य देशों में ईसाई मत एक
कृत्रिम और दिखाऊ रीति रस्म के ही रूप में रह गया है। भीतर भीतर तो आधुनिक
विद्यालयों के प्रभाव से लोगों के विचार बिलकुल बदल गए हैं पर ऊपर से
दिखाने के लिए वे अपने को ईसाई मत के अनुयायी प्रकट करते हैं। यह पाखंड या
कपटधर्म समाज के लिए अनिष्टकर है। यह मिथ्या व्यवहार बहुत दिनों तक चल नहीं
सकता।
ईधर यह कृत्रिम ईसाई मत इतना ढीला है कि इससे ज्ञानार्जन में किसी प्रकार
की बाधा अब नहीं पड़ती है। उधर रोमक सम्प्रदाय ने ज्ञान का जो खुल्लम-खुल्ला
विरोध आंरभ किया उससे शिक्षितों में बड़ी खलबली मची और उन पर उसका कुछ भी
प्रभाव न रह गया। सन् 1854 में पोप ने मरियम की निर्दोष भावना के सिद्धांत1
की घोषणा की। 1864 में पोप की ओर से जो धर्माज्ञा निकली उसमें जितने
वैज्ञानिक और दार्शनिक सिद्धांत निकले थे उन सबकी निन्दा की गई और उनका
मानना धार्मिकों के लिए पाप ठहराया गया। 6 वर्ष पीछे पोप ने मूर्खता की हद
कर दी और यह घोषणा प्रचलित की कि पोप दोष और भ्रम से परे है, उसके कार्य
में कभी दोष और भ्रम हो ही नहीं सकता। वर्तमान समय में ऐसी ऐसी घोषणाओं का
शिक्षित समुदाय पर क्या प्रभाव पड़ सकता है यह समझने की बात है।
अब रही अप्राकृतिक रीति से कुमारी मरियम के गर्भ से ईसा के जन्मवाली कथा।
जो भिन्न भिन्न मतों की पौराणिक कथाओं से परिचित हैं वे अच्छी तरह जानते
हैं कि इस प्रकार की जन्मकथाएँ ईसा के जन्म से बहुत पहले से प्राचीन
जातियों में प्रचलित थीं। हिन्दूधर्म, बौद्धधर्म, पारसीधर्म, सबमें ऐसी
कथाएँ पाई जाती हैं। जब किसी राजा या बड़े आदमी की कोई कन्या कुमारिकावस्था
में ही गर्भवती हो जाती थी तब इस बात का प्रचार किया जाता था कि उसे किसी
देवता, जैसे सूर्य, इन्द्र आदि से गर्भ रहा। ईसाइयों ने भी इसी प्रकार की
कथा गढ़ी और ईसा की उत्पत्ति पवित्रात्मा से बतलाने लगे। इस प्रकार के
'देवपुत्र' प्राय: बड़े प्रतापी, यशस्वी और बुद्धिमान हुआ करते थे। यवन
(यूनानी) और रोमक (रोमन) लोगों की प्राचीन कथाओं में इस प्रकार के
देवपुत्रों के बहुत से वृत्तान्त हैं।
1 ईसाइयों के सिद्धांत के अनुसार पाप आदि ही से मनुष्य जाति के साथ लगा हुआ
है। प्रत्येक मनुष्य पाप के साथ उत्पन्न होता है। ईसा की माता मरियम ही पाप
से सर्वथा निर्लिप्त उत्पन्न हुईं। युक्तिपूर्वक विचार किया जाय तो पाप के
साथ उत्पन्न होना और पाप से सर्वथा निर्लिप्त होना ये दोनों बातें
कपोलकल्पना के अतिरिक्त और कुछ नहीं।
पवित्रात्मा द्वारा कुमारी मरियम के गर्भाधान की जो कथा है उस पर थोड़ा
विचार आवश्यक है। बाइबिल की केवल दो पोथियों-मत्ती और लूक में इस कथा का
उल्लेख पाया जाता है। पर इन दोनों पोथियों में शेष पोथियों के अनुकूल यह भी
लिखा है कि मरियम की मँगनी यूसफ नाम के बढ़ई के साथ हो चुकी थी पर संयोग के
पूर्व ही पवित्रात्मा द्वारा मरियम गर्भवती हो गई। पर जैसा पहले कहा जा
चुका है ये चारों पोथियाँ ढेर पोथियों में से अधिक प्रामाणिक समझी जाकर चुन
ली गई थीं। शेष पोथियाँ अत्यंत अधिक असम्बद्ध बातों और असम्भव वृत्तान्तों
के कारण प्रक्षिप्त और अग्राह्य मानी गईं, जैसे; जेम्स, टामस और निकोडेमस
रचित सुसमाचार। पर उनमें कई ऐसी हैं जो चार गृहीत सुसमाचारों से प्राचीनता
में कम नहीं हैं। अत: ऐतिहासिक दृष्टि से जैसे ये चार सुसमाचार वैसी ही वे
अगृहीत पोथियाँ जिन्हें प्रक्षिप्त बतलाकर लोगों ने अलग कर दिया है। उन
अगृहीत पुस्तकों में से निकोडेमस रचित सुसमाचार है जिसका ईसा से 100-150
वर्ष बाद लिखा जाना विद्वानों ने निश्चित किया है। उसमें लिखा है कि
यहूदियों ने ईसा पर व्यभिचार से उत्पन्न होने का दोष लगाया था। इस बात का
समर्थन सेल्सस नामक एक यूनानी लेखक ने भी किया है जो ईसा की दूसरी शताब्दी
में अर्थात निकोडेमसकी पोथी लिखे जाने के थोड़े ही आगे पीछे हुआ था। उसने
लिखा है कि ईसा की माता को यूसफ नाम से बढ़ई ने तलाक देकर इसलिए छोड़ दिया था
कि उस पर व्यभिचार का अभियोग लगाया गया था और पांथरास नामक एक सैनिक से उसे
एक लड़का पैदा हुआ था। यह कथा यहूदियों के यहाँ भी पाई जाती है कि रोमन सेना
के एक अफसर और मरियम के अनुचित सम्बन्ध से ईसा की उत्पत्ति हुई।
पर बाइबिल सम्बन्धी अनुसंधान करनेवाले अधिकांश विद्वानों ने ईसा को उस बढ़ई
का पुत्र मानना ही अधिक उपयुक्त ठहराया है। कई देशों में यूसफ और मरियम के
विवाह के पूर्व की प्रेमलीला बड़ी भावभक्ति के साथ कही-सुनी जाती है।
पवित्रात्मा वाली अप्राकृतिक कथा का अब विद्वानों में आदर नहीं रहा है। अत:
जब इस अप्राकृतिक कल्पना का परित्याग हो ही रहा है तब इसका पता लगा तो
क्या, न लगा तो क्या कि ईसा का बाप यथार्थ में था कौन। बाइबिल में औदार्य,
दया, परोपकार और प्रेमभाव आदि के जो धर्मोपदेश हैं वे इन अप्राकृतिक और
असंगत कल्पनाओं के आधार के बिना भी ज्यों के त्यों मान्य बने रह सकते हैं।
यह मानने की आवश्यकता नहीं है कि वे ईश्वर द्वारा कहे गए या आभास के रूप
में प्रकट किए गए। इस प्रकार की बातें विज्ञान द्वारा निश्चित सिध्दान्तों
के सर्वथा विरुद्ध पड़ती हैं।
रामचन्द्र
शुक्ल ग्रंथावली - 6
भाग
- 1 // भाग -2 // भाग -3
// भाग - 4 // भाग - 5
// भाग -6 // भाग - 7
// भाग - 8 //
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