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कहानी संग्रह

कथाएँ पहाड़ों की

रमेश पोखरियाल निशंक

अनुक्रम

अनुक्रम एक और बेड खाली हो गया     आगे

'अरे राजू जल्दी से आओ, एक और बेड खाली हो गया! जल्दी से डेड बॉडी हटाकर चादर बदल दो और जिसका अगला नम्बर हो, उसे बेड दे दो।' नर्स सिस्टर रोजी ने बार्ड ब्वॉय राजू को आवाज देते हुए कहा।

रोजी की आवाज सुनते ही जमीन पर लेटे हुए कई मरीजों ने आशापूर्ण नजरों से राजू की ओर देखा कि शायद अब उन में से किसी एक मरीज को जमीन छोड़ चारपाई नसीब हो जाये।

'कौन हैं इनके साथ? जल्दी से बताइये, डेड बॉडी कहाँ लेकर जाना है? टाइम नहीं है अपने पास। बहुत काम करना है अभी।' राजू लगभग चिल्लाते हुए बोला।

पिता की मृत्यु का सुरेश अभी शोक भी नहीं मना पाया था कि अब पिता की लाश उठाकर बेड खाली करवाने की जल्दबाजी देखिए।

'मैं दिल्ली में बिल्कुल नया हूँ, अपने दो एक रिश्तेदारों को बुलवा लूँ, तभी पिता की लाश ले जा पाऊँगा।' सुरेश ने दुःख मिश्रित आग्रह करते हुए कहा।

'इतना टाइम नहीं है अपने पास। देखते नहीं मरीजों की लाइन लगी पड़ी है।' रोजी कटु स्वर में बोली। फिर राजू से बोली 'जब तक इसके रिश्तेदार आते हैं, तब तक डेड बॉडी मोर्चरी में डाल दो। बहुत सारे मरीज लाइन में हैं। जल्दी से बेड खाली करवाओ।'

और थोड़ी ही देर में राजू ने सुरेश के पिता की लाश को मोर्चरी में डाल कर तुरन्त ही बिस्तर की चादर बदल दी। अब वह किसी अन्य मरीज को फर्श से उठकार बिस्तर दिलवाने की जल्दबाजी में व्यस्त हो गया था। ऐसे ही मौके तो उसे कुछ ऊपर की कमाई का अवसर देते थे। जमीन से उठकर बिस्तर पर लेटने की ऐवज में दर्द से कराहते गम्भीर बीमारियों से ग्रस्त मरीजों के रिश्तेदारों को ये सौदेबाजी बुरी भी नहीं लगती थी।

पिता की लाश को मोर्चरी में छोड़ सुरेश अस्पताल के समीप स्थित पी.सी.ओ. बूथ पर फोन करने चला गया। अपने मामा, जिनके सहारे पर वह पिता का इलाज कराने पहाड़ के सुदूर गाँव से दिल्ली तक चला आया था, को पिता की मृत्यु की खबर देने के पश्चात् जब उसने दूसरा फोन मिलाने का प्रयास किया, तो लाइन में खड़ा एक आदमी लगभग चिल्ला कर बोला 'अरे इतने सारे फोन करने थे तो कहीं और जाते, देखते नहीं लाइन में इतने लोग खड़े हैं।'

'दरअसल मेरे पिता की मृत्यु हो गयी है और उसकी खबर रिश्तेदारों को देनी थी इसलिए...।' सुरेश की उँगलियाँ फोन पर ही रुक गयी थीं।

'अरे तो किसी एक रिश्तेदार को बताकर उसे ही सबको बताने को कह दो, हमारा टाइम क्यों खराब कर रहे हो?' उस व्यक्ति का स्वर अब और भी उग्र था।

'आप एक और फोन कर किसी एक सगे सम्बन्धी को सूचित कर दीजिए। क्या बतायें बेटा! यहाँ सभी को जल्दी है। किसी के जीवन मरण से यहाँ किसी को फर्क नहीं पड़ता। अस्पताल है, रोज पता नहीं कितनी मौतें होती हैं।' सुरेश के ठीक पीछे खड़े व्यक्ति ने विनम्रता से कहा। उसका स्वर सुरेश को तपती रेत में ओस की बूंद के समान प्रतीत हुआ।

तुरन्त ही काँपती अँगुलियों से उसने अपनी बहिन की ससुराल में फोन मिलाया और उन्हें अन्य सम्बन्धियों को सूचित करने का आग्रह कर सुरेश मोर्चरी के बाहर खड़ा हो गया।

मामाजी और जीजाजी को आने में एक घण्टा तो लग ही जायेगा। वो भी तब, जब कि आज छुट्टी का दिन है। नहीं तो और भी मुश्किल हो जाती। प्रतीक्षा का यह समय उसे वापिस अपने गाँव ले गया।

पिता की बीमारी कई महीनों से ठीक होने में नहीं आ रही थी। गाँव के समीपवर्ती अस्पताल के चक्कर काट-काट कर सुरेश परेशान हो गया था, किन्तु उन पर दवाइयों का कोई प्रभावकारी असर नजर नहीं आ रहा था। 'देखिए इनके कुछ परीक्षण करने होंगे। यहाँ पर तो ये सुविधाएँ उपलब्ध हैं नहीं, अच्छा होगा कि आप इन्हें किसी बड़े अस्पताल में लेकर जायें, तभी बीमारी पकड में आ पायेगी।' गॉव के समीपवर्ती प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के डॉक्टर ने ये कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया था।

डॉक्टर की राय सुनकर माँ सुरेश के पीछे लग गयी थी 'बेटा, इन्हें जल्दी से दिल्ली ले जा। सुना है वहाँ बहुत बड़े-बड़े अस्पताल हैं। कल सुबह ही पैठाणी जाकर अपने मामा को फोन कर बता दे कि तू पिताजी को लेकर दिल्ली आ रहा है, वह सब इन्तजाम कर देगा। क्या करूँ बेटा! इनकी हालत मुझसे तो देखी नहीं जाती।'

माँ की बात सुरेश टाल नहीं पाया। वैसे वह भी तो इतने महीनों से पिता की हालत देखकर परेशान था। शायद दिल्ली में डॉक्टर उनकी बीमारी का पता लगा पायें और वे ठीक से इलाज कर पायें।

सुरेश गाँव के पास ही स्थित प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक था। उसकी दो बड़ी बहिने थीं, जो कि विवाहित थीं और अपने-अपने घरों में प्रसन्न थीं। दूसरे दिन सुबह-सुबह ही पैठाणी जाकर सुरेश ने मामा और बड़ी बहिन को फोन कर गम्भीर रूप से बीमार पिता को दिल्ली लेकर आने की सूचना दी और स्कूल से छुट्टी लेकर, पिता को लेकर दिल्ली रवाना हो गया। इन परिस्थितियों में बहिन के घर जाना उसने उचित नहीं समझा और पिता को लेकर मामा के घर पर चला गया।

मामा का घर देखकर सुरेश हतप्रभ रह गया था। एक कमरा, साथ में छोटा सा किचन और छोटी सी गैलरी, जिसमें बच्चों का कुछ सामान रख कर कमरे का रूप दे दिया गया था। कहाँ रहेंगे यहाँ इतने लोग?, मामा का स्वयं भी चार लोगों का परिवार था? मामा, मामी और उनके दो बच्चे, वही कैसे रह पाते होंगे?

उस पर दो और लोग रहने आ गये। इस घर से बड़ी तो उनकी गौशाला है। सुरेश मन ही मन सोचता रह गया था। अपने मन को तसल्ली देते हुए सोचा कि चलो कुछ दिन की ही तो बात है। पिताजी की हालत में सुधार होते ही वह तुरन्त यहाँ से चला जायेगा।

'जीजा जी को कल ही अस्पताल में दिखवा देंगें, हमारे गाँव का एक व्यक्ति वहाँ नौकरी करता है और मैंने उसी से कह दिया है कि थोड़ा जल्दी दिखला देना। वरना यहाँ तो महीनों लग जाते हैं।'

भोजन के वक्त मामाजी ने कहा तो सुरेश कुछ आशान्वित हुआ। यहाँ की स्थिति देखकर मामा-मामी पर अधिक समय तक कदापि बोझ नहीं बनना चाहता था वह!

अगले दिन पिता को लेकर अस्पताल पहुँचा, तो वहाँ की भीड़ देखकर दंग रह गया। लग रहा था कोई मेला लगा हो। पहाड़ के किसी कौथीग की तरह अस्पताल में लगी भीड़ देखकर एक पल को तो सुरेश हताश हो गया था कि यदि इस भीड़ में वह आज पिता को डॉक्टर को न दिखा पाया, तो दो दिन से पैठाणी बाजार में उसके फोन का इन्तजार कर रही माँ को आज सायं को वह क्या जवाब देगा? सौभाग्यवश, चार घण्टे की प्रतीक्षा के बाद जब उसके पिता का नाम पुकारा गया, तो सुरेश की जान में जान आ गयी थी। डॉक्टर ने प्रारम्भिक जाँच कर कुछ टेस्ट कराने को कहा और टेस्ट की रिपोर्ट लेकर कल मिलने को कहा।

मामाजी ने फिर अपने गाँव के उसी व्यक्ति से कहलवाकर जल्दी से टेस्ट करवा लिए। इसके उपरान्त आरम्भ हुए सुरेश के अस्पताल के चक्कर! कभी कोई रिपोर्ट लेना तो कभी कोई मामाजी भी रोज-रोज नहीं आ सकते थे, क्योंकि प्राइवेट नौकरी जो थी उनकी। वे बेचारे आखिर कब तक छुट्टी लेते। सुरेश की दौड़ धूप और मामाजी के परिचित के सहयोग से लगभग एक सप्ताह बाद जब सभी जाँच रिपोर्ट मिल गयीं, तो सुरेश आश्वस्त हुआ था कि अब पिता का उपयुक्त इलाज सम्भव हो पायेगा और वह सुकून से अपने गाँव वापिस जा पायेगा।

कुछ दिनों बाद ही वह महसूस करने लगा था कि मामी परेशान रहने लगी है। पिता की बीमारी के कारण दिल्ली में रहने वाले रिश्तेदारों का आना-जाना भी होने लगा था। मामी वैसे तो कुछ न कहती, लेकिन बच्चों पर बार-बार उनका बिगड़ना, उनके स्वभाव में आये परिवर्तन को स्पष्ट क्यों कर देता था।

एक बार दबी जुबान से उसने पिता को कुछ दिनों के लिए दीदी के घर जाने की सलाह दी थी, तो मामा ने डाँट कर चुप करा दिया था।

'क्यों? क्या हमारा घर छोटा लग रहा है तुझे, जो बहिन के घर जायेगा। उसके सास-ससुर भी साथ में रहते हैं और दिल्ली में हम जैसे मामान्य लोगों के पास इतने ही बड़े घर हैं। रात होते ही चारपाइयों के नीचे से चारपाइयाँ निकालकर ही सब लोग रात गुजारते हैं। बेटा ऐसी ही है यहाँ की जिन्दगी। इसलिए परेशान मन हो और ढंग से जीजाजी का इलाज करा।'

'इनकी हालत तो काफी खराब है। आंतों का इन्फेक्शन काफी बढ़ चुका है। इन्हें तुरन्त अस्पताल में भर्ती करवा दीजिए। डॉक्टर के इतना कहते ही सुरेश एक पल को तो घबरा गया, किन्तु अगले ही क्षण उसे ठीक भी लगा कि अब उन्हें मामा जी के घर में और नहीं रहना पड़ेगा।

अस्पताल पहुँचते ही वार्ड ब्वाय ने मरीजों से भरे हुए एक बड़े से हाल में जमीन पर एक गद्दा बिछा कर पिता जी को वहाँ पर लेट जाने आदेश दिया, तो सुरेश का खून खौल उठा। 'अरे इतने बीमार और बुजुर्ग आदमी को जमीन पर लिटाने हुए शर्म नहीं आती तुमको? उनके लिए बिस्तर का इन्तजाम नहीं हो पाया क्या?'

'जोर से मत बोलो बाबू जी! ये दिल्ली है, यहाँ रोज न जाने कितने मरीज भर्ती होते हैं। इतनी बेड नहीं हैं यहाँ पर, कोई बेड खाली होगा तो मिल जायेगा।' वार्ड ब्वाय तल्खी से बोला।

थोड़ी देर में नर्स आयी तो जमीन पर लेटे हुए पिता को कुछ दवाईयों खिलाने का निर्देश दे गयी और उनकी बाँह पर ग्लूकोज चढ़ा गयी। जिस बेदर्दी से उसने सुई उनकी बाँह में चुभोई, उसको महसूस कर सुरेश की तो आह निकल गयी थी। लेकिन नर्स के चेहरे पर कोई भाव न थे।

सुरेश को लगा ये सब जैसे मशीन हों। चेहरे पर बिना किसी भाव के ये लोग ऐसे काम कर रहे हैं मानो रोबोट हों। मरीज के दुःख दर्द से इनका कोई लेना देना नहीं है।

दो तीन दिन बाद मामा के उसी परिचित की बदौलत पिता को एक अदद बेड मिल गया था क्योंकि पास ही के कमरे से एक व्यक्ति ठीक होकर घर वापिस जा चुका था।

पिता की हालत में अपेक्षानुरूप बहुत अधिक सुधार नहीं हो रहा था। पिता के पास बैठे सुरेश को बार-बार लगता था कि मानों जमीन पर लेटे हुए हर मरीज की निगाह उसी बेड पर लगी है कि कब बेड खाली हो और उन्हें भी एक अदद बेड नसीब हो।

'सुरेश! क्या हो गया था जीजा जी को अचानक? कल शाम तक तो ठीक थे।'

मामा जी का स्वर सुनकर सुरेश तन्द्रा से जागा। मामाजी के साथ जीजा जी और गाँव के कुछ और लोग भी आ चुके थे।

'साहब! इतनी देर तक आपके पिता की लाश को संभालकर रखा है। क्या उसका मेहनताना नहीं देंगे?' मोर्चरी के बाहर खड़े चौकीदार ने खीसें निपोरते हुए कहा, तो सुरेश का मन वितृष्णा से भर उठा। लाश के साथ भी सौदेबाजी! जेब में जो कुछ भी बचा था, उसे ललचायी नजरों से देख रहे चौकीदार के हाथ में रख सुरेश व्यथित मन लिए अस्पताल से बाहर निकल आया।

इसके बाद कब उसने पिता का अन्तिम संस्कार कर उनका अस्थिकलश ले कोटद्वार की बस पकड़कर गाँव की ओर प्रस्थान किया उसे कुछ ज्ञात नहीं। लगता था जैसे पहाड़ से आने के बाद वह भी रोबोट जैसा निष्प्राण हो गया है। बस चलने में अभी कुछ देर थी, किन्तु सुरेश को आई.एस.बी.टी. पर एक एक पल बस चलने का इन्तजार करना बहुत भारी पड़ रहा था। विगत एक माह में इस मायानगरी के कटु अनुभवों को याद कर वह यहाँ से तुरन्त निकल जाना चाहता था। बस में यात्रा करते हुए पूरी रात उसकी आँखों के समक्ष अस्पताल में घटित एक-एक घटना जो उसने स्वयं अपनी आँखों से देखी थी, प्रकट होने लगी। सुरेश सोचने लगा कि क्या यही दिल्ली जैसे महानगरों की झूठी शानौ शौकत है? जहाँ की दौड़ती भागती जिन्दगी में एक पल रुककर अपने पराये किसी के प्रति भी संवेदना अथवा सहानुभूति के दो शब्द कहने की भी फुर्सत नहीं है।

एक पल के लिए वह सोचने को विवश हो गया था कि इससे लाख गुना बेहतर जिन्दगी तो हम पहाड़ में जी रहे हैं, जहाँ की माटी में दुनियाभर की दुख विपदा को समेटकर सुख बांटने की परम्परा जन्म जन्मान्तर से आज तक भी रची-बसी है। दोपहर बाद गाँव पहुँचकर उसने बरामदे में पिता का अस्थिकलश रख माँ को यह दुःखद समाचार सुनाया तो माँ जोर-जोर से चीखती हुई बेहोश हो गयी। माँ की चीखें सुनकर पल भर में ही पूरा का पूरा गाँव ही नहीं अपितु आसपास के गाँवों के लोग भी उनके घर एकत्रित होकर सुरेश व उसकी माँ को ढाढस बन्धते हुए सान्त्वना देने लगे।

अपनों के बीच से सहानुभूति के बोल सुन सुरेश की आँखों से दिल्ली में सूख चुके आँसू एकाएक अश्रुधर बनकर निकल आये और वह फूट-फूटकर रोने लगा। रोते-रोते जब उसका मन कुछ हल्का हुआ तो वह महसूस कर रहा था कि महानगरों व शहरों में आधुनिकता की चकाचौंध में कब की जिन्दा दफन हो चुकी मानवीय संवेदनाएँ तो वास्तविक रूप में पहाड़ के कण-कण में रची बसी हैं, जिनके बीच आज वह अपनी भावनाएँ व्यक्त कर सका है।


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