चौदहवाँ प्रसंग
नरक
स्वर्ग के साथ नरक के विषय में तेरहवें सर्ग में बहुत सी बातें लिखी जा चुकी हैं। जैसे स्वर्ग के विषय में भूतल के समस्त ग्रन्थ एक राय हैं, और उसके
अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार नरक के विषय में भी उन ग्रन्थों की वही सम्मति है, जो स्वर्ग के विषय में है। यदि पुण्यात्मा स्वर्ग का अधिकारी
माना गया है, पापात्मा को नरक का अधिकारी क्यों न माना जावेगा। पुण्य का फल यदि सद्गति है, तो पाप का परिणाम दण्ड क्यों न होगा। संसार अथवा भूतल में यदि
पुण्यात्मा हैं, तो पापात्मा भी क्यों न होंगे। पापात्मा तो अधिक पाए जाते हैं, क्योंकि स्वार्थांधता और पाप परायणता ही लोगों में अधिक देखी जाती है। अतएव
नियामक नियमन होना स्वाभाविक है। पापात्माओं के नियमन का स्थान ही नरक है। नरक के अस्तित्व के विषय में तेरहवें प्रसंग में स्वर्ग के साथ बहुत से प्रमाण
धर्मग्रन्थों से उठाए जा चुके हैं परन्तु उसके विषय में यही नहीं लिखा गया है कि वह कहाँ है, उसकी व्यवस्था क्या है, उसका नियामक कौन है, इसी प्रकार और
कितनी बातें हैं, ऐसी ही नरक के विषय में जिन पर प्रकाश नहीं डाला गया है, अभिज्ञता के लिए उन सब विषयों और बातों का ज्ञान आवश्यक है, अतएव अब मैं क्रमश:
उनका वर्णन करता हूँ।
हिन्दी शब्दसागर पृष्ठ 1760 में नरक के विषय में यह लिखा है-
''पुराणों और धर्म शास्त्रों आदि के अनुसार (नरक) वह स्थान है, जहाँ पापी मनुष्यों की आत्मा, पाप का फल भोगने के लिए भेजी जाती है। वह स्थान जहाँ दुष्कर्म
करने वालों की आत्मा दण्ड देने के लिए रखी जाती है। अनेक पुराणों और धर्म शास्त्रों में नरक के संबंध में अनेक बातें मिलती हैं। परन्तु इनसे अधिक प्राचीन
ग्रन्थों में नरक का उल्लेख नहीं है। जान पड़ता है कि वैदिक काल में लोगों में इस प्रकार की नरक की भावना नहीं थी। मनुस्मृति में नरकों की संख्या इक्कीस
बतलाई गयी है। जिनके नाम ए हैं-
तामिस्र, अंधतामिस्र, रौरव, महा रौरव, नरक, महा नरक, काल सूत्र, संजीवन, महार्बाचि, तपन, प्रत्ययन, संहात, काकोल, कुड्मल, प्रतिमुर्तिक, लौहशंकु, ऋजीष,
शाल्मली, वैतरणी, असिपत्रवन, और लोह दारक।
इसी प्रकार भागवत में भी नरकों का वर्णन है, जिनके नाम इस प्रकार हैं-
तामिश्र:, अंधतामिश्र, रौरव, महारौरव, कुंभी पाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, शूकर मुख, अंधाकूप, कृमि भोजन, संदंश, तप्त शूर्मि, बज्र कण्टक, शाल्मली, वैतरणी,
पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीची, और अय:पान।
इनके अतिरिक्त-क्षार मर्दन, रसोगणभोजन, शूलप्रोत, दंद शूक, अवट निरोधन, पर्यावर्त्तन, और सूची मुख, ए सात नरक और भी माने गये हैं-
इनके अतिरिक्त कुछ पुराणों में और भी अनेक नरक कुण्ड माने गये हैं-जैस वसा कुण्ड, तप्त कुण्ड, सर्त कुण्ड, चक्र कुण्ड।
कहते हैं कि भिन्न-भिन्न पाप करने के कारण मनुष्य की आत्मा को भिन्न-भिन्न नरकों में सह्स्त्रो वर्ष तक रहना पड़ता है, जहाँ उन्हें बहुत अधिक पीड़ा दी जाती
है। मुसलमानों और ईसाइयों में भी नरक की कल्पना है, परन्तु उनमें नरक के इस प्रकार के भेद नहीं हैं। उनके विश्वास के अनुसार नरक में सदा भीषण आग जलती रहती
है। वे स्वर्ग को ऊपर और नरक को नीचे (पाताल में) मानते हैं।''
देवी भागवत द्वादश स्कंध के दशम अध्याय में स्वर्ग के विषय में लिखकर नरक के विषय में यह लिखा है-
ऐरावत समारूढो वज्रहस्त
:
प्रतापवान्।
देव सेवा परिवृतो राजतेऽत्र शतक्रतु
:
।
याभ्यां शाया यमपुरी तत्र दण्डधरो महान्।
स्वभटैर्वेष्टि तो राजन् चित्रगुप्त पुरो गमै
:
।
निज शक्ति युतो भास्वत्तानयोस्तियमो महान्।
इन पद्यों का यह अर्थ है, ''जिस स्वर्ग में ऐरावतारूढ़ वज्रहस्त प्रतापवान् देव सेवा से आद्रित इन्द्र शोभायमान हैं, उसी के दक्षिण यमपुरी है, जहाँ
चित्रगुप्त अग्रणी, अपने भटों से वेष्टित शक्तिमान सूर्य तनय महान् यमराज का निवास है।''
यमपुरी को ही नरक स्थान माना जाता है, जो न तो पाताल में है ना और कहीं, देवी भागवत ने जैसा बतलाया है, वह स्वर्ग के पास ही उसके दक्षिण है। नरकों का नाम
क्या है, और उनकी संख्या कितनी है, हिन्दी शब्दसागर के उद्धृत, ग्रन्थ द्वारा यह बतलाया जा चुका है। उसका रूप क्या है, और उनमें कैसी यातनायें होती हैं,
पुराणों में उनका वर्णन भी है। कुछ अन्तर होने पर भी यातनाओं के वर्णन में अधिकतर साम्य है। उन पर दृष्टि रखकर मैंने जो कविता की है, उसको मैं उपस्थित करता
हूँ। पुराणों के श्लोक उद्धृत किये जा सकते थे, परन्तु उनका अनुवाद भी लिखना पड़ता, जिससे व्यर्थ विस्तार होता। मेरे पद्यों में आपको यह विशेषता मिलेगी, कि
जितनी कुत्सित वृत्तियाँ हैं, उनकी कुत्सा करते हुए मैंने नरकों का निरूपण इस प्रकार किया है, कि दोनों का लगभग साम्य हो जाता है, जो यह प्रतिपादित करता है
कि जहाँ हो वहीं पर लोक में मनुष्य यदि पाता है तो अपने कर्म के अनुसार ही फल पाता है। अन्यथा कदापि नहीं होता। अब पद्यों को देखिए। एक-एक पद्य में एक-एक
नरक का वर्णन है। भ्रान्ति निवारण के लिए नरकों के नाम के नीचे लकीर बना दी गयी है।
शार्दूल विक्रीड़ित
जो होते कुछ भी सशंक मति तो होती नहीं तामसी।
हो पाती तमसावृता न दृग की ज्योतिर्मयी दृष्टि भी।
तो ब्यापी रहती नहीं हृदय में दुर्वृत्ति की कालिमा।
हैं जो लोग मदांध वे न डरते हैं अंधतामिस्र
से।
1
।
पाई है उसने प्रभूत पशुता दुर्वृत्तता दानवी।
हिंसाहिंसक जन्तु सी कुटिलता सर्पाधिराजोपमा।
उत्पात
-
प्रियता प्रभंजन समा दुर्दग्धाता वन्हिसी।
कुंभीपाक विपाक बात सुन क्यों काँपे महा पातकी।
2
।
देता है अलि डंक सा दुख उसे जो पंक निक्षेप हो।
होती है अहि दंशतुल्य परुषा पीड़ा अवज्ञा हुए।
देखे कीर्ति कलापलोप उसको होता महा ताप है।
पाता है रौरव वासदीर्घ दुख है खो गौरवों को सुधी।
3
होते हैं उसके विचार तरु के पत्ते छुरा धार से।
देते हैं कर जी विपन्न बहुधा रक्ताक्त उद्बोध को।
जो हो के विकलांग भाव उसके होते व्यथा ग्रस्त हैं।
तो क्या है
,
असि पत्र
से नरक का वासी नहीं भ्रष्टधी।
4
।
है दुर्गंध निकेतन कलुषितानिन्द्या जुगुप्सा भरी।
है उन्माद मयी सनी रुधिर से है लोक हिन्सारता।
होती है खर गृद्धदृष्टि उनकी मांसाशिनी निम्नगा।
भू में ही कितनी करालकृतियाँ हैं कालसूत्रोपमा।
5
।
जोंकें हों उसमें प्रकम्पित करी दुर्दंशनों से भरी।
होवें भूरि विषाक्त व्याल उसके फूत्कार से फूँकते।
हो काला न नसा कराल वह या हो आस्य नागेन्द्र का।
थोड़ी भी कब अंधाकूप परवा पापांधता को हुई।
6
।
लोहे से विरची विभावसुवनी आलिंगिता कामिनी।
दे अत्यंत व्यथा
,
नुचे नरक में सर्वांग की बोटियाँ।
सारे सुन्दर गात में कुलिश से काँटे सह्स्त्रो गड़ें।
क्यों कामी सुन वज्र कण्टक कथा कामांधता से बचे।
7
।
जो खाते पर मांस हैं न उनका क्यों मांस खाते वही।
जैसा है नर पाप कर्म मिलता है दण्ड वैसा वहाँ।
चाहे हो अथवा न हो नरक
,
क्या आदर्श भी है नहीं।
तो है शोक विलोक शाल्मलि क्रिया जो हो न शालीनता।
8
।
देखा जो दृग खोल के अवनि तो है वंचितों से भरी।
हैं रोते मिलते अनेक कितने पाते नहीं रोटियाँ।
लाखों को भर पेट अन्न मिलता है स्वप्न के दृश्य सा।
लाखों की कृमि भोजनादि नरकों की नारकी वृत्ति है।
9
।
हो हो लोलुपता प्रपंच पतिता हो लोभ से लालिता।
ला ला के पड़ फेर में ललकती हो लालसा से भरी।
पाती हैं अति यातना निरय की हो लीन दुर्नीति में।
ले ले भक्ष निकेतना अललिता लालायिता वृत्तियाँ।
10
।
चक्की में पिसते नहीं विवश हो
,
होते व्यथा ग्रस्त क्यों।
कैसे शूकर से कदर्य्य मुख बा
-
बा लीलना चाहते।
जो होते न कुकर्म में निरत तो जाता न रेता गला।
कैसे शूकर आननादि नरकों सी यातना भोगते।
11
।
देखे दुर्गति पाप में निरत की
,
कामांध की दुर्दशा।
नाना शूल समूह से हृदय को पाके विधा प्रायश
:
।
बारं बार विलोक मत्तमति को मोहादि से मर्दिता।
होती हैं सुख ज्ञात संडसन की सारी सुनी साँसतें।
12
।
होती है सुखिता पिये रुधिर के
,
है सोचती बोटियाँ।
प्यारा है उसको निपात वह है उत्पात उत्पादिका।
लेती है प्रिय प्राण प्राणि चय का
,
है त्राण देती कहाँ।
क्रूरों की कटुतामयी कुटिलता है गृध्रभक्षोपमा।
13
।
पक्षी को पशु वृन्द को पटक के हैं पीटती प्रायश
:
।
बाणों से कर विद्धगृध्र बन हैं देती बड़ी यंत्रणा।
हैं कोंचा करती सदैव
,
बढ़ के हैं गोलियाँ मारती।
हैं विश्वासन सी निकृष्ट
,
नर की मांसाशिनी वृत्तियाँ।
14
।
जो होवें बहु गृध्र क्षीण खग को चोचें चला चोथते।
जो हों निर्बल को विदीर्ण करते हो क्रुद्ध क्रूराग्रणी।
जो निर्जीव शरीर को लिपट हों कुत्तो कई नोचते।
तो श्वानोदन दृश्य दृष्टिगत क्यों होगा न भू में किसे।
15
।
क्या हैं प्राणि समूह को न डसते नानामुखी सर्प हो।
होती है उनकी कशा कलुषिता क्या बिज्जुतुल्या नहीं।
क्या वे लेशित शेल हैं न कितने हृत्पिण्ड को बेधते।
शूलप्रोत समान क्या न महि में हैं शूल दाताग्रणी।
16
।
है दुर्गंधमयी महा कलुषिता बीभत्सता से भरी।
नाना मुर्ति मती कराल वदना क्रोधन्विता सर्पिणी।
है उच्छृंखलता रता बहु मुखी आतंक आपूरिता।
पापी की पतिता प्रवृत्ति सदृशा वैश्वासिनी प्रक्रिया।
17
।
है डाला करती विपन्न मुख में सीसा गला प्रायश
:
।
भोगे भी यह भोग प्राण कढ़ते हैं पातकी के नहीं।
खाता मुद्गर है
,
प्रहार सहता है
,
छूटता जी नहीं।
कैसी है यह क्षार कर्दम कृता दु
:
खान्त दृश्यावली।
18
।
रोता है पिट के कठोर कर से है यंत्रणा भोगता।
बोटी है कटती
,
समस्त तन को है नोचती दानवी।
है दुर्भाग्य
,
महा विपत्ति यह है
,
है मर्म्म वेधी व्यथा।
जो रक्षोगण भोजनावधि अघी है छूट पाता नहीं।
19
।
महाभारत या पुराणों में नरकों का जैसा निरूपण है, मुसलमान, ईसाई या यहूदियों के किसी धर्म में वैसा वर्णन नहीं पाया जाता। पुराणों में एक यम पुरी का वर्णन
है, जिसके स्वामी यमराज हैं, और जिसमें सब प्रकार के नरक हैं। मुसलमानों ने अलग-अलग सात नरक माने हैं, जिनके नाम ये हैं-
दोज़ख, जहन्नुम, नति, होतमा, सकर, सकष्र, ज्वहिम, हाविया-इनके स्वामी का नाम इजराईल बतलाया गया है। नरकों में दण्ड एक ही प्रकार का दिया जाता है, इनमें अन्तर
नहीं होता। अग्नि में दग्ध किया जाना ही दण्ड की पराकाष्ठा है। 'महा पुरुष मुहम्मद और तत्प्रवर्त्तित इसलाम धर्म' के रचयिता 82 पृष्ठ में लिखते हैं-सूरा
मोमिन 8-72,73, 74
''जो उस किताब को झूठा कहते हैं, जिसको हमने अपने पैगश्म्बरों की मारफत भेजी है, आख़ीर में उनको मालूम हो जायेगा, उस वक्त जब उनको गरदनों में तौक और ज़ंजीरें
होंगी, जब घसीटते हुए उनको सुलगते पानी में ले जायेंगे और फिर उनको आग में झोंकेंगे, कि वे नरक दण्ड भोग रहे हैं।''
''8वां पारासूरा आराफ'' 41, 42 कुरान
''जिन लोगों ने हमारी (कुरान की) आयतों को झूठा कहा, और उनसे अकड़ बैठे, न तो उनके लिए आसमान के दरवाजेश् खोले जायेंगे, न वे स्वर्ग में दाख़िल होने पावेंगे,
उनके लिए (नरक में) आग का बिछौना होगा, और उनके ऊपर आग का ही ओढ़ना होगा।''
लगभग ऐसा ही एक प्रकार का वर्णन ईसाइयों और यहूदियों के ग्रंथों में भी पाया जाता है। क्योंकि इन तीनों धर्मों में बहुत सी बातों में अधिक साम्य है। पहले आप
हिन्दी शब्द सागर के उद्धृत अंश में पढ़ आये हैं कि मुसलमान और ईसाई पाताल को ही नरक मानते हैं। पुराणों में भी पातालों की संख्या सात है। नाम उनके हैं, अतल,
वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल, पाताल, परन्तु उनको नरक नहीं माना गया है, जैसा आप को देवी भागवत का प्रमाण पढ़ने से ज्ञात हो चुका है। जैसे पुराणों में
सात पातालों का निरूपण है, उसी प्रकार सात ऊपर के लोकों का वर्णन है, वे हैं-भू, भुव:, स्व:, मह:, जन:, तप: और सत्यलोक। मुसलमानों ने,-ऊपर के आठ लोक माने
हैं, उनके नाम हैं, खुल्द, दारुस्सलाम, दारुलकरार, एदन, नईम, मावा, आलयिन, फिरदोस, इनको बिहिश्त कहते हैं।
'महा पुरुष मोहम्मद एवम् तत्प्रवर्तित इसलाम धर्म्म के प्रणेता लिखते हैं-'
''अष्टम स्वर्ग में परमेश्वर विचित्र सिंहासन पर विराजमान रहते हैं। स्वर्ग लोक नाना प्रकार के अलौकिक और अद्भुत वर्णनों द्वारा वर्णित हैं। स्वर्ग का
साधारण नाम बिहिश्त है।''
ऊपर के सब लोकों में सबसे उच्चस्थान सत्यलोक का है, महा रामायण कार उसी को ईश्वर का स्थान बतलाते हैं-
''
वाङ्मनो गोचरातीत: सत्यलोकेश ईश्वर:।
''
गुरु नानक देव भी निराकार का निवास सत्य लोक में ही बतलाते हैं, निज निर्मित जपजो नामक ग्रन्थ में लिखते हैं-
''
सच्च खंड बसे निरंकार।
''
कबीर साहब अपने 'बीजक' में कहते हैं-
''
सत्ता लोक सत पुरुख विराजै अलख अगम दोउ भाया है।
कह कबीर सत लोक सार है पुरुख नियारा भाया है।
''
''
कहैं कबीर पुकारि सुनो मन भावना।
हंसा चलु सत लोक बहुर नहिं आवना।
''
मुसलमान लोग जैसे सब लोकों से ऊपर ईश्वर का निवास मानते हैं, वैसे ही आर्य धर्म ग्रन्थों में भी यही विचार प्रतिपादित है। अन्तर केवल इतना है कि एक निवास
स्थान का आठवाँ लोक मानता है, और दूसरा सातवाँ। उद्देश्य दोनों का एक है, दोनों ही ईश्वरीय स्थान को सर्वोच्च प्रतिपादित करना चाहते हैं। अतएव दोनों के
सिध्दान्तों में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु नरक निर्णय से सिद्धान्त का कुछ अन्तर अवश्य पड़ गया है। तथापि दोनों के पाताल सम्बन्धी लोकों की संख्या समान है।
अत: इन बातों पर दृष्टि रखकर कुछ भारतीय और यूरोपीय विद्वानों की यह सम्मतिे कि मुसलिम और ईसाई सम्प्रदाय ने नीचे और ऊपर के लोकों की कल्पना आर्य धर्मानुसार
की है, अधिक प्रामाणिक बन जाती है। अब इस विषय में और अधिक लिखना व्यर्थ विस्तार मात्र होगा।