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हरिऔध समग्र खंड-5

इतिवृत्त
आत्मकथात्मक शैली का गद्य
अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

नवाँ प्रसंग

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अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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उपन्यास
ठेठ हिंदी का ठाट
अधखिला फूल

कविताएँ
प्रियप्रवास
पारिजात
फूल और काँटा
एक बूँद
कर्मवीर
आँख का आँसू

नाटक
रुक्मिणी परिणय
श्रीप्रद्धुम्नविजय व्यायोग

आत्मकथात्मक शैली का गद्य
इतिवृत्त

ललित लेख
पगली का पत्र
चार
भगवान भूतनाथ और भारत
धाराधीश की दान-धारा

 

जन्म

:

15 अप्रैल 1865 (निजामाबाद, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, उपन्यास, नाटक, आलोचना, आत्मकथा

कृतियाँ

:

कविता : प्रियप्रवास, वैदेही वनवास, काव्योपवन, रसकलश, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, पवित्र पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई।
उपन्यास : ठेठ हिंदी का ठाट, अधखिला फूल
नाटक : रुक्मिणी परिणय
ललित निबंध : संदर्भ सर्वस्व
आत्मकथात्मक : इतिवृत्त
आलोचना : हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, विभूतिमती ब्रजभाषा

संपादन : कबीर वचनावली

पुरस्कार/सम्मान

:

हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति (1922), हिंदी साहित्य सम्मेलन के चौबीसवें अधिवेशन (दिल्ली, 1934) के सभापति, 12 सितंबर 1937 ई. को नागरी प्रचारिणी सभा, आरा की ओर से राजेंद्र प्रसाद द्वारा अभिनंदन ग्रंथ भेंट (12 सितंबर 1937), 'प्रियप्रवास' पर मंगला प्रसाद पुरस्कार (1938)

निधन

:

: होली, 1947 ई.


नवाँ प्रसंग

औषधी

जैसे जलती हुई आग के लिए पानी है, वैसे ही रोगों के लिए औषधी है। कितनी अवस्थायें ऐसी हैं जिनमें बिना पानी के भी आग बुझा दी जा सकती है, बहुत सी युक्तियाँ ऐसी हैं कि जिनके बिना आग बुझाने में पानी भी असफल हो जाता है, परन्तु फिर भी, यह बात मानने की है, कि आग बुझाने के लिए पानी सबसे अधिक काम की वस्तु है। ठीक यही दशा रोगों के लिए दवा की है। और यही कारण है कि जब कोई बीमार होता है, तो सबसे पहले दवा की ही चिन्ता होती है। कितनी दवाइयाँ ऐसी हैं, जो खिलाई जाती हैं, कितनी बाँध दी जाती हैं, कितनी के छुला देने से ही काम चल जाता है।

हमारी ऑंखें जब खुलती हैं, तो हम अपने नीचे ऊपर दाहिने बायें आगे और पीछे अनगिनत पदार्थ देखते हैं। इन अनगिनत पदार्थों में एक भी अनुपयोगी और अवांछित नहीं है, हाँ, यह हो सकता है कि हम उसको काम में लाना न जानते हों। जो कुनैन जाड़े और ज्वर की अक्सीर दवा है, अठारहवीं सदी के पहले उसको कोई जानता भी न था। एक दिन एक ऐसे मनुष्य को जिसको बड़े जोर का ज्वर था, प्यास लगी, वह उठकर थोड़े ही दूर पर बहते हुए एक सोते के पास गया। और उसमें से दो तीन चिल्लू पानी लेकर उसने पी लिया। उस पानी पीने के थोड़े ही देर बाद उसका जी बहुत हलका हो गया, और ज्वर का वेग भी कम हो गया। दूसरे दिन फिर उसने जाकर उसी सोते में दो तीन चिल्लू पानी पिया, और आज उसकी तबीयत कल से भी हलकी रही। इसलिए उसने लगातार चार पाँच दिन तक पानी पीने का क्रम जारी रखा। जिसका फल यह हुआ कि उसका बहुत दिनों का ज्वर जाता रहा। एक अनुभवी वैद्य से उसने यह बात कही, उसने सोते की जाँच पड़ताल की तो ज्ञात हुआ कि एक पेड़ की जड़ से टक्कर खाकर यह सोता बहता है, और उसके जड़ में से निकली एक श्वेत वस्तु को अपने में मिलाता जाता है, निदान उसने उस श्वेत वस्तु की परीक्षा ली, परीक्षा लेने पर उसको ज्ञात हुआ कि यह ज्वर की अक्सीर दवा है। फिर क्या था, उसी दिन से कुनैन ज्वर की अक्सीर दवाओं में गिनी जाने लगी, और अब आज लाखों लोगों का इससे भला हो रहा है। पहले पहल सब दवाओं का ज्ञान इसी तरह हुआ है। और अब तक यह क्रम जारी है। तो भी लाखों करोड़ों दवायें ऐसी हैं, कि जिनका हमको बहुत सा भेद अब तक ज्ञात नहीं है। न्यूटन इंगलैण्ड का एक बड़ा विख्यात वैज्ञानिक हो गया है, इसने पृथ्वी में प्राय: प्रति वस्तु को अपनी ओर खींच लेने की जो एक शक्ति है, उसके विषय में और सूर्य की किरणों में कई रंग होने के प्रमाण की बड़ी लम्बी चौड़ी जाँच पड़ताल की है, और इन गुत्थियों को बहुत कुछ सुलझाया है। जब वह मरने लगा, तब उसने कहा था कि-''मैं एक बहुत बड़े समुद्र के किनारे एक अबोध बच्चे की तरह, खेलता रहा। कभी-कभी एक आधा चमकीले कंकर मेरे हाथ आये, पर बहुत बड़ा समुद्र जिसमें न जाने कैसे-कैसे रत्न भरे पड़े हैं, अब तक बिल्कुल बिना छाने हुए ही पड़ा है।'' न्यूटन का यह कहना बहुत ठीक है, उसकी इन बातों से ज्ञात होता है, कि वह कितने ऊँचे विचार का मनुष्य था। किन्तु सच्ची बात यह है कि न्यूटन ही क्या, भगवान् की विशाल विभूति के बहुत बड़े समुद्र के किनारे आज तक न्यूटन ऐसे-ऐसे बरन उससे भी बढ़े-चढ़े लाखों करोड़ों बच्चे खेल खेलकर अपना दिन पूरा कर गये हैं। उनमें कोई-कोई ऐसे भी थे, कि चमकीले कंकर ही नहीं, कभी-कभी चमकते हुए एक आधा रत्न भी उनके हाथ लगे हैं, पर यह सच है कि फिर भी भव का बहुत बड़ा समुद्र अब तक बिना छाने हुए ही पड़ा है। अब तक मनुष्य ने जाना ही क्या है, जो कुछ जाना है वह घड़े का एक बूँद भी नहीं है। और इस पर भी तुर्रा यह कि जो कुछ जाना गया है, उसके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह पूरा है, अधूरा उसे भले ही कह सकते हैं। किसी दवा के बारे में भी यह नहीं कह सकते, कि यह इस रोग की पक्की दवा है, क्योंकि वही दवा कभी उस रोग पर काम करती है, कभी नहीं।

बूअली सेना ईरान में एक बड़ा नामी वैज्ञानिक हो गया है, यह अतिसार की बहुत अच्छी दवा जानता था, मजाल नहीं कि इसकी दवा दी जावे, और फिर अतिसार का रोग दूर न हो। संयोग ऐसा हुआ कि वह आप इस रोग में फँस गया, उसने अपनी दवा एक-एक बार करके कई बार खाई, पर कुछ लाभ न हुआ, दिन-दिन उसकी दशा बिगड़ती गयी। एक दिन लोगों ने उससे कहा, कि आप अपनी अतिसार वाली प्रसिद्ध दवा क्यों नहीं खाते? बूअली सेना ऑंखों में ऑंसू भी लाया, और लोगों को अपने उपवन में एक नहर के किनारे ले गया। इस नहर में पानी बहुत तोड़ के साथ बहता था, बूअली सेना ने इसके किनारे पर पहुँच कर अपनी दवा आर-पार छोड़ दी, देखते-ही-देखते नहर का बहना बन्द हो गया, और बहुत देर तक उसका पानी रुका रहा। लोग देखकर चकित हो गये, बोले-निस्सन्देह आपकी दवा ऐसी ही है। बूअली सेना ने कहा, पर मेरे लिए नहीं। लोग कहते हैं कि पीछे वह इसी रोग से मरा। यहाँ यह कहा जा सकता है कि मौत की दवा तो कुछ है ही नहीं, फिर वह कैसे अच्छा होता। मैं कहता हूँ कि उसका दस्त तो बन्द हो जाता, पीछे वह भले ही मर जाता। पर उसका दस्त बन्द नहीं हुआ, इससे यह पाया जाता है कि उसकी दवा दस्त की अव्यर्थ दवा न थी। और जो यह मान भी लें कि दस्त की बीमारी से ही उसकी मौत थी, इसलिए उसके दस्त पर उसकी दवा कारगर न हुई, तो भी मैं बतला सकता हूँ कि कितने रोग ऐसे देखे गये हैं कि जिनकी सब तरह की दवा बड़े-बड़े डॉक्टर और वैद्यों ने की पर वे अच्छे नहीं हुए, और पीछे एक अनाड़ी आदमी की साधारण दवा काम कर गयी, और वे अच्छे हो गये। ऐसे लोग भी पाए गये हैं कि वे दवा कर ही गये, पर बीमारी न हटी, पीछे वे दवा छोड़ बैठे, और अपने आप यों अच्छे हो गये। यह भी देखा गया है कि जिस दवा ने सैकड़ों जाड़े बोखर वालों को अच्छा किया, वही दवा देते-देते थक गये, पर कितने बीमार वैसे-के-वैसे ही रहे, उनकी बीमारी पर उस दवा ने कुछ भी असर नहीं किया। इस लिए यह बहुत ठीक है कि किसी रोग की कोई अव्यर्थ दवा नहीं है, और आज कल इस विषय में लगभग सभी डॉक्टर एक राय हैं।

भले ही किसी रोग की कोई अव्यर्थ दवा न हो, पर जो कुछ लाभ आज दवा से लोगों को पहुँच रहा है, वह थोड़ा नहीं है। जिन लोगों ने परीक्षा करके दवाओं का भेद जाना है, उन्होंने संसार के साथ बड़ा भारी सलूक किया है। यों तो कुत्तों बिल्ली भी घास खाकर अपनी दवा कर लेते हैं, चिड़ियाँ भी अपना रोग दूर करने की तरकीब जानती हैं, पर मनुष्य ने इस विषय में जो कमाल किया है उसकी प्रशंसा नहीं हो सकती। भागवाले हैं वे जो इन सबकी बातों को ठीक-ठीक समझते हैं, और ठीक तरह से दवा को काम में लेते हैं। हमने तो कितने लोगों को देखा है कि वे रोगों से भी लड़ते हैं, और जब तक वे विवश नहीं होते, दवा नहीं करते, पर यह बहुत बड़ी भूल है, ज्यों कोई बीमार हमको मालूम हो, या किसी तरह की शिकायत हो जावे, त्योंही हमको उसको दूर करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। एक छोटे से पौधे को हम एक झटके में ही उखाड़ कर फेंक दे सकते हैं, पर जब वह बढ़कर पेड़ बन जाता है, तो दस बीस मनुष्य मिलकर भी उसको उखाड़ नहीं सकते। यही अवस्था बीमारी की है, जब वह बढ़ जाती है, तो बहुत तंग करती है, वरन् प्राण लेकर ही छोड़ती है।

जैसे रोगों को न बढ़ने देने का ध्यान वाजिब है, वैसे ही यह भी चाहिए कि दवा करने में उतावली न हो। दवा बहुत सोच समझ कर किसी योग्य अनुभवी वैद्य की करनी चाहिए-अनाड़ी या पैसा कमाने के लिए बने हुए की दवा न करना ही अच्छा है। दवा खाने में बहुत शक करना भी ठीक नहीं है, पर जल्द अच्छा हो जाने के लालच से कड़ी दवाओं को खाना भी उचित नहीं। जड़ी, बूटी, फल, मूल की दवा रसों से अच्छी है, क्योंकि इसमें अनिष्ट की आशंका कम होती है, किन्तु कारण विशेष से जो रस खाना ही पड़े तो उसकी बहुत जाँच और समझ बूझकर खाना चाहिए। जो बिना कुछ पढ़े-लिखे इधर-उधर से थोड़ा बहुत सीखकर झूठ-मूठ वैद्य बनने का दावा करते हैं, उनकी रस की दवा को तो छूना भी न चाहिए। रस से बढ़कर उपयोगिनी कोई दवा नहीं है, वह अकसीर है, और बीमारियों में अमृत का गुण दिखलाती है परन्तु यदि वह ठीक तौर पर तैयार नहीं हुई है, या उसके खाने में ही कुछ असावधानी हुई, तो समझ लेना चाहिए कि उसके विष बन जाने में भी देर न होगी। मुंशी नागेश्वर प्रसाद एक बड़े मिलनसार और अच्छे गिर्दावर कानूनगो थे, यकबयक उनको खाँसी की शिकायत हुई, उन्होंने बहुत दवा की पर खाँसी न गयी, एक अधूरे वैद्य से उनका पाला पड़ा, उसने इन्हें मारी हुई संखिया खाने को दी, इस दवा से उनको बड़ा भारी लाभ हुआ। जब दवा चुक गयी तो उन्होंने फिर उससे दवा ली, अबकी बार दवा ठीक तौर से तैयार न हो सकी थी, इसलिए खाने के आधा घण्टे बाद उसने अपना बुरा प्रभाव दिखलाया, उनकी ऑंख की रोशनी जाती रही, और उनका जी घबराने लगा। यह रात का समय था, दस बज गया था, वे पड़े भी देहात में थे, इसलिए साथ वालों को यह चिन्ता हुई कि वे किसी तरह आजमगढ़ पहुँचाए जावें। एक रईस ने अपनी पालकी दी, वह उस पर आजमगढ़ लाए जा रहे थे, कि दो कोस आते-आते उनका काम तमाम हो गया। दवा खाने के बाद वे कुल पाँच-छ: घण्टे जीते रहे, इससे आगे उनकी साँसें न चल सकीं। मुंशी नागेश्वर प्रसाद की मौत कच्चे वैद्य और रस की दवा दोनों से चौकन्ना बनाती है। और संसार को यह सिखलाती है, कि लोगों को इनसे कहाँ तब बचना चाहिए।

आजकल समाचार पत्रों में बहुत सी दवाओं का विज्ञापन देखा जाता है, परन्तु इनमें काम की बहुत ही थोड़ी होती हैं, सब लोगां को उनसे बहुत बचना चाहिए। हम विज्ञापनों की फड़कती हुई और जोरदार शब्दावली को पढ़कर उनके पेंच में पड़ जाते हैं, परन्तु यह हमारी बहुत बड़ी अज्ञता है। यह सोचने की बात है कि जब हम किसी वैद्य की दवा करते हैं, और वह दवा हमको अवगुण करती है, तो हम दौड़े वैद्य के पास जाते हैं, और उससे उसके दूर होने का उपाय पूछते हैं, परन्तु जब हम विज्ञापनों की दवा करेंगे, और वह हमको अवगुण करेगी, तो हम उसको दूर करने की युक्ति किससे पूछने जावेंगे। यह अवश्य है कि ऐसी दशा में हम विवश होंगे, और कष्ट सहेंगे, क्योंकि चारा ही क्या। जिसने हमको दवा भेजी, वह हमारे पास बैठा नहीं है, कि हमारी सुनेगा, और हमारे दुख को दूर करेगा। फिर क्या और सब वसीले हमारे जाते रहे, जो हम ऐसी नासमझी करते हैं, और आप ही अपने को एक डरावने चंगुल में फँसा देते हैं। इसके सिवा यह भी एक सिद्धान्त है कि बिना जानी हुई दवा न करनी चाहिए, विज्ञापन सम्बन्धी दवाएँ जब हमारे पास आती हैं, तो बिना उनकी सब बातें जाने हुए हम उनको काम में लेते हैं, और यह एक बहुत बड़ी चूक है। क्योंकि अगर उसमें कोई धर्म बिगाड़ने वाली वस्तु है, तो भी बुराई, यदि ऐसा नहीं है, वह हमारे स्वभाव के अनुकूल नहीं है, तो भी बुराई, क्योंकि दवा का गुण दोष कभी-कभी पाँच सात महीने बाद भी ज्ञात होता है। यों तो यदि कोई हमको रस खिलावे, तो हम उसे नहीं भी खा सकते हैं। घर अगर विज्ञापन की दवा में वह मिलाया गया हो, तो उसके जान लेने की हमारे पास कोई युक्ति नहीं है, बहुत सम्भव है कि हम उसको अनजान में खायेंगे, और फिर जो भुगतेंगे वह किसी से छिपा नहीं है।

जो दवाएँ बाँधी या छुलाई जाती हैं, उनसे वे दवाएँ प्रभाव में बढ़ी हुई होती हैं, जो कि खिलाई, पिलाई या लगाई जाती हैं। पर कभी-कभी बाँधी और छुलाई गयी दवा भी बड़ा प्रभाव रखती हैं, और बहुत कुछ काम करती हैं। सन्निपात हो जाने पर उर्द की आधी कच्ची आधी पक्की रोटी बेले का तेल पोत कर जब सर पर बाँधी जाती है, और गाँठ के दर्द में जब रेंड का पत्ता जोड़ों पर बाँध दिया जाता है, तो रोगी को जो लाभ होता है, वह किसी से छिपा नहीं है। गर्म पानी भरकर जब बोतल पेट पर लुढ़काया जाता है, तब सिवा इसके कि वह गर्म पानी से भरा बोतल बार-बार पेट को छूता रहता है, और कुछ नहीं होता, पर इस उपाय से पेट का दर्द जाता रहता है। परन्तु कभी-कभी बाँधने और छुलाने का मतलब ठीक-ठीक नहीं समझा जाता, जड़ी बूटियों में बड़े-बड़े गुण हैं, यह सभी मानेंगे; कहीं-कहीं उनका बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है। फिर भी हम यह कहेंगे कि सब अवसरों पर जड़ी बूटी कमर में या बाँह पर बाँध देने से ही काम नहीं चलता। छोटे-छोटे रोगों में ऐसे-ऐसे लटके अवश्य काम कर जाते हैं, किन्तु बड़ी-बड़ी बीमारियों में इस प्रकार की क्रिया कभी सफल नहीं होती। यदि होती भी है तो उसका असर बहुत थोड़ा दिखलाई पड़ता है, जिसका होना न होना दोनों बराबर होता है। हमने एक पन्द्रह वर्ष के दमा के रोगी को देखा कि उसने अपने बाँह पर एक जड़ी इसलिए बाँध रखी थी, कि इससे उसका दमा जाता रहेगा। किन्तु यह उसका धोखा खाना था, ऐसा करने से न तो उसका दमा ही अच्छा हुआ और न उसके कष्ट में ही कमी हुई, मैंने एक आदमी के पास एक ऐसी जड़ी देखी थी, कि यदि बिच्छू किसी को डंक मारता है, तो वह उस जड़ी को, कुछ देर तक उस जगह पर छुलाता रहता, जहाँ कि डंक लगा होता। और इसका फल यह होता, कि वहाँ का बिल्कुल दर्द जाता रहता। पर हमने कोई जड़ी ऐसी नहीं देखी, सुनी, कि जिसके बाँधने या छुला देने से दिक, सरसाम या कोढ़ जाता रहे, किसी पुस्तक में भी शायद ऐसी जड़ी का वर्णन नहीं है। मैं यह मानूँगा कि जड़ी या बूटियों के शरीर के किसी हिस्से में छुलाने या बाँधने का असर शरीर की बिजली पर पड़ता है, और इससे लोगों को लाभ पहुँचता है। पर फिर भी मैं यह कहूँगा कि यह लाभ छोटी छोटी बीमारियों में ही होता है, बड़ी-बड़ी बीमारियों में नहीं, सम्भव है कि कहीं कोई ऐसी जड़ी मिले जो मेरे इस विचार को बदल दे पर जिस दिन ऐसा होगा, वह दिन स्मरणीय होगा, और मैं प्रसन्नता से उस दिन अपने विचार को बदल डालूँगा।

मैंने अपनी दवा की या नहीं, इस बारे में क्या बतलाऊँ। मैंने दवा सभी तरह की बनाई, मोल भी ली, विज्ञापन वाली दवाइयाँ भी मँगाई, अब तक मेरा बक्स दवाइयों से भरा पड़ा है, परन्तु मैंने दवाई खाई बहुत कम। मेरे मिलने वाले और मेरी दवा करने वाले दोनों कहते हैं कि मैं बड़ा शक्की हूँ, दवा खाता ही नहीं, तो फिर अच्छा कैसे हूँगा। पर मैं करूँ तो क्या करूँ, जरा दवा प्रतिकूल हुई नहीं कि बुरी गत हुई नहीं, जान पड़ता है कि जान ही निकल जावेगी इस डर से दवा मैं बहुत थोड़ी और बहुत समझ बूझकर खाता हूँ। कभी नहीं खाता। जब मैं किसी से यह कहता हूँ, और अपनी दशा वर्णन करने लगता हूँ, तो लोग हँसकर मेरी बातें उड़ा देते हैं, कोई-कोई तो यह भी कह बैठते हैं कि मैं अपनी रुग्णता को भी उपाख्यान बना लेता हूँ। आप लोग कहेंगे कि जब तुम दवा खाते ही नहीं हो, तो क्यों बनाते हो? और क्यों मोल लेते हो? और जिस विज्ञापन की दवा को तुम अच्छा नहीं समझते, उसी के माँगने का क्या मतलब? पर बात यह है कि सर पड़ने ही पर तो अनुभव होता है, जब मैंने पचासों रुपए की विज्ञापन की दवाइयाँ मँगाई, और उनसे कुछ भी लाभ नहीं हुआ, तभी तो मुझको उनकी भलाई बुराई ज्ञात हुई। रहा, मैंने दवाइयाँ बनवाई क्यों? मोल क्यों लीं? तो इसका कारण यह है कि जब रोग सताता, उसका बल बढ़ता, या उसके दौरे पर दौरे होने लगते, तभी जी घबराता, और कोई दवा खाने की चाह होती, इस समय कोई हकीम या वैद्य या डॉक्टर जो दवा बतलाता, वही मैं बनाता, या उसी को मोल लेता, पर जब वह अनुकूल नहीं आती, और खाने पर लाभ पहुँचाने के स्थान पर हानि करती, तो मैं क्या करता, जो उसे छोड़ न देता। यही कारण है कि मुझको बार-बार बहुत सी दवाइयाँ बनानी और मोल लेनी पड़ीं, और फिर उनको छोड़ देना पड़ा। बक्स भी दवाइयों से इसीलिए भरा पड़ा है, क्योंकि जब वह खाई गयी ही नहीं तो होती क्या? मैंने दूसरों को भी बहुत सी दवाइयाँ दे डाली हैं। लेकिन फिर भी अभी बहुत सी मौजूद हैं।

मेरी बीमारी का यह ढंग है कि वह मौसिम पर अपने आप बढ़ती है, और फिर मौसिम पाकर अपने आप घट जाती है। जब बहुत जाड़ा पड़ने लगता है, तो वह जशेर पकड़ने लगती हैं, पर ज्यों-ज्यों दिन गर्म होता जाता है, उसका बल भी घटने लगता है। महीने और सप्ताह के भीतर भी, यहाँ तक कि दिन के चौबीस घण्टों के अन्दर भी, उसका रूप इसी प्रकार बदलता है। जब जैसी आबहवा रही, तब तैसा उसका रूप रहा, हाँ यह अलबत्ता होता है कि कभी वह बहुत बढ़ जाती है, कभी कम कष्ट देती है। और कभी नाम को ही उसकी शिकायत रह जाती है। अब तक मुझको कोई दवा ऐसी नहीं मिली कि जो उसके इस ढंग को बदल दे, सलफष्र वो नक्स की होमियोपैथिक गोलियाँ मुझको कुछ लाभ पहुँचाती रही हैं, पर नक्स ने तो इस साल जवाब दे दिया, हाँ, सलफर अब तक कुछ काम करता है, आगे क्या होगा, ईश्वर जानें। मुझको ठीक-ठीक लाभ टहलना और घूमना पहुँचाता है। अगर बीमारी का जोर हो, और मैं दो तीन मील घूम आऊँ, तो मरी सब शिकायत दूर हो जाती है। पर पन्द्रह बीस घण्टे के लिए, अधिक नहीं। मैंने प्राय: देखा है कि मेरा जी ख़राब होने लगा है, और मैं उठकर दो मील घूम आया, तो फिर मेरी तबीअत सम्हल गयी, और सब शिकायत जाती रही, घूमना मेरी बीमारी की सबसे अच्छी दवा है।

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