हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 

हरिऔध समग्र खंड-5

इतिवृत्त
आत्मकथात्मक शैली का गद्य
अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

दूसरा प्रसंग

हरिऔध समग्र-अनुक्रम | पहला प्रसंग | दूसरा प्रसंग | तीसरा प्रसंग | चौथा प्रसंग | पाँचवाँ प्रसंग | छठा प्रसंग | सातवाँ प्रसंग | आठवाँ प्रसंग | नवाँ प्रसंग | दसवाँ प्रसंग | ग्यारहवाँ प्रसंग | बारहवाँ प्रसंग | तेरहवाँ प्रसंग | चौदहवाँ प्रसंग | पंद्रहवाँ प्रसंग सोलहवाँ प्रसंग

अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

हिंदीसमयडॉटकॉम पर उपलब्ध

उपन्यास
ठेठ हिंदी का ठाट
अधखिला फूल

कविताएँ
प्रियप्रवास
पारिजात
फूल और काँटा
एक बूँद
कर्मवीर
आँख का आँसू

नाटक
रुक्मिणी परिणय
श्रीप्रद्धुम्नविजय व्यायोग

आत्मकथात्मक शैली का गद्य
इतिवृत्त

ललित लेख
पगली का पत्र
चार
भगवान भूतनाथ और भारत
धाराधीश की दान-धारा

 

जन्म

:

15 अप्रैल 1865 (निजामाबाद, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, उपन्यास, नाटक, आलोचना, आत्मकथा

कृतियाँ

:

कविता : प्रियप्रवास, वैदेही वनवास, काव्योपवन, रसकलश, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, पवित्र पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई।
उपन्यास : ठेठ हिंदी का ठाट, अधखिला फूल
नाटक : रुक्मिणी परिणय
ललित निबंध : संदर्भ सर्वस्व
आत्मकथात्मक : इतिवृत्त
आलोचना : हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, विभूतिमती ब्रजभाषा

संपादन : कबीर वचनावली

पुरस्कार/सम्मान

:

हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति (1922), हिंदी साहित्य सम्मेलन के चौबीसवें अधिवेशन (दिल्ली, 1934) के सभापति, 12 सितंबर 1937 ई. को नागरी प्रचारिणी सभा, आरा की ओर से राजेंद्र प्रसाद द्वारा अभिनंदन ग्रंथ भेंट (12 सितंबर 1937), 'प्रियप्रवास' पर मंगला प्रसाद पुरस्कार (1938)

निधन

:

: होली, 1947 ई.

 

रोग का रंग

बाबू बंकिमचन्द्र चटर्जी बंगाल के एक बड़े प्रसिद्ध उपन्यास लेखक हैं। उन्होंने बंगला में 'विष वृक्ष' नाम का एक बड़ा ही अनूठा उपन्यास लिखा है। उसमें कालिदास की एक बड़ी मनोमोहक कहानी है-आप लोग भी उसको सुनिए। कालिदास के पास एक मालिन नित्य आया करती, यह मालिन बड़ी मनचली और चुलबुली थी, प्रकृति भी इसकी बड़ी रसीली थी। यह कालिदास से उनके बनाए रसीले श्लोकों को सुनती, और उसके बदले उन्हें फूलों का गजरा भेंट देती। कालिदास का मेघदूत बड़ा ही मनोहर काव्य है, पर उसके आदि के कई एक श्लोक कुछ नीरस से हैं। एक दिन कालिदास ने मालिन को इन्हीं श्लोकों को सुनाया, मालिन ने नाक भौं चढ़ाई, कुछ मुँह बनाया, कहा मालिन लोग अच्छे-अच्छे फूलों के लिए चक्कर लगाती हैं, आप हमको नाम के श्लोक की ओर क्यों घसीटते हैं। कालिदास ने कहा-तब तो तुम स्वर्ग में न जा सकोगी। मालिन के कान खड़े हुए, उसने कहा-क्यों? कालिदास ने कहा-स्वर्ग में पहँचने के लिए सौ सीढ़ियाँ तय करनी पड़ती हैं। इन सौ सीढ़ियों में पहले की कुछ सीढ़ियाँ अच्छी नहीं हैं। पर उनसे आगे की एक से एक बढ़कर हैं। पर जब तक तुम पहले की सीढ़ियों को तै न करोगी, तब तक न तो तुम्हें अच्छी सीढ़ियाँ ही मिलेंगी, और न तुम स्वर्ग में ही पहुँच सकोगी। मालिन ताड़ गयी, हँसकर बोली-चूक हुई, क्षमा कीजिए, अब मैं जान गयी कि जो मीठे फलों का स्वाद लेना चाहता है, उसको फीके फल खाकर मुँह न बनाना चाहिए।

हम न तो अपने ग्रन्थ को मेघदूत बनाना चाहते हैं, न अपने को कालिदास। हम पढ़नेवालों को मालिन बनाना भी नहीं चाहते। अभिप्राय हमारा इस रचना के परिणाम से है। आप लोग इसके आदि के कुछ प्रसंगों को पढ़कर घबरायेंगे अवश्य। पर मेरी विनय यह है कि घबराने पर भी आप लोग इसे पढ़ते चलिए, आगे चलकर बिना कुछ रस मिले न रहेगा।

हम लोग प्राय: लोगों को तरह-तरह के रोगों में फँसा हुआ पाते हैं। कोई सिर पकड़े फिरता है, कोई पेट के दर्द की शिकायत करता है, किसी की ऑंख दुखती है, किसी का कान फटा पड़ता है, कोई ज्वर से चिल्लाता है, कोई अतिसार के उपद्रव से व्याकुल रहता है, निदान इसी तरह के बहुत से रोग लोगों को घेरे रहते हैं, और वे उनके हाथों बहुत कुछ भुगतते हैं। पर क्या कोई यह भी सोचता है कि इस तरह रोग के हाथों में पड़ जाने का क्या कारण है? रोग सब सुखों का काँटा है। अच्छे-अच्छे खाने, तरह-तरह के मेवे, भाँति-भाँति के फल, सुन्दर सेज, सजे हुए आवास, सुन्दरी रमणी, ऐसे ही और कितने भी सामान रुग्णावस्था में काटे खाते हैं, संसार की सारी सुख विलास की सामग्री मिट्टी हो जाती है-पर क्या रोगग्रस्त होने से पहले कभी हम रुग्ण न होने का विचार करते हैं? लोग जब खाट पर पड़ जाते हैं, तो बात-बात में विचारे भाग्य को कोसते हैं, देवी-देवताओं को मनाते हैं, भगवान की दुहाई देते हैं, पर क्या कभी यह भी विचारते हैं कि हमारा स्वास्थ्य बहुत कुछ हमारे हाथ है। जो हम जी से चाहें, यथार्थ रीति से सावधान रहें, और लड़कपन ही से स्वास्थ्य के नियमों पर चलाए जावें, तो रोगों से हम लोगों को बहुत कुछ छुटकारा मिल सकता है, पर दु:ख है कि हम लोगों का ध्यान इस ओर बहुत कम होता है। मैं यह नहीं कहता कि स्वास्थ्य के नियमों पर चलने से हम लोग सर्वथा रुग्ण होने से बचे रहेंगे, पर यह अवश्य कहता हूँ कि बहुत कुछ बचे रहेंगे। कितनी अवस्थाएँ ऐसी हैं कि जिनमें हम लोग सर्वथा विवश हो जाते हैं और उनके बारे में हमारा किया कुछ नहीं हो सकता, पर ऐसी दशाएँ बहुत कम हैं। अधिकतर ऐसी ही दशाएँ हैं कि यदि हम उनसे बचे रहें तो सब प्रकार के रोगों के पंजे से हमको छुटकारा मिल सकताहै।

जो कोई सिर पकड़े बैठा हो, और सिर दर्द का रोना रोता हो, और आप उससे पूछें कि क्यों भाई, सिर में दर्द क्यों है? तो यदि वह थोड़ी भी समझ रखता होगा, तो कह उठेगा, कि रात मैं देर तक जागता रहा, या आज बहुत समय तक धूप में घूमता फिरा, या कोई ठण्डी वस्तु खा गया, या खाने-पीने में देर हो गयी, निदान कुछ-न-कुछ कारण अपने सिर दर्द का वह अवश्य बतलावेगा, जिससे यह बात पाई जाती है कि उसको अपने सिर दर्द का कारण अवश्य ज्ञात है। और ऐसी दशा में यह कहा जा सकता है कि यदि सिर दर्द के उस कारण से उस दिन वह बचता, तो उसके सिर में दर्द कभी न होता। अब यह बात यहाँ सोचने की है कि जब वह जानता था कि ऐसा करने से उसको इस तरह की वेदना हो जाती है, तो फिर उसने वैसा क्यों किया? यही भेद ऐसा है कि जो समस्त सुख दुखों की जड़ है। और जो इस भेद को जितना समझ सका है, वह इस संसार में उतना ही सुखी या दु:खी पाया जाता है। मान लो कि उसको रात में जागने से सिर दर्द हुआ था, तो फिर रात में वह क्यों जागा? अवश्य है कि या तो वह कोई तमाशा या नाच देखता रहा, या किसी मेले में सैर सपाटा करता रहा, या कोई पुस्तक देर तक पढ़ता रहा, या मित्रों के रोकने से रुका रहा, या ऐसी ही और कोई बात हुई, जिससे उसको रात में देर तक जागते रहना पड़ा। जब उसके सोने का समय हुआ होगा, तो उसके दिल ने उससे अवश्य कहा होगा कि अब चलकर सो रहो। परन्तु चाह ने कहा होगा कि थोड़ा नाच या तमाशा और देख लो, या थोड़ा सैर सपाटा और कर लो, या थोड़ी देर तक पुस्तक और पढ़ लो, या देखो तुम्हारे मित्र रोक रहे हैं, उनकी बात न मान कर यों चले जाना ठीक नहीं। पर चाह बढ़ाने ही से तो बढ़ती है, इसी तरह थोड़ा-थोड़ा करके उसने बहुत रात तक जगाया, जिसका फल यह हुआ कि दूसरे दिन सिर पकड़ कर बैठना पड़ा। मनुष्य को अपनी चाहों पर अधिकार रखना चाहिए, और सदा उसको बुध्दि के कहने पर चलाना चाहिए, पर ऐसा बहुत कम होता है, जहाँ तक देखा जाता है चाह ही मनुष्य को दबा बैठती है, और इसी से उसको सब तरह के दुखों में फँसना पड़ता है। जो उसको चाह के दबाने की शक्ति होती, तो वह कभी स्वभाव के प्रतिकूल अधिक समय तक न जागता। न तो नाच तमाशा या मेले की सजधज उसको ठहरा सकती, न पुस्तक की चटपटी बातें उसको विवश करतीं, और न कोई मित्र ही उसकी उचित बातों को सुनकर उसका रोक रखना पसन्द करता। और ऐसी अवस्था में वह अवश्य यथा समय सोता, और कभी सिर दर्द का शिकार न होता। ऐसे ही और सब दुखों और रोगों की बातों को भी समझ लेना चाहिए। पर स्मरण रखना चाहिए कि चाहों का दबाना स्वभाव डालने से आता है, जब तक स्वभाव न डाला जावे, वे कभी वश में नहीं रहतीं, और मनुष्य को ही दबा बैठती हैं। इस स्वभाव डालने का सबसे अच्छा समय लड़कपन है, जो लड़कपन से इस तरह का स्वभाव डालना नहीं सीखते वे पीछे कम सफलीभूत होते हैं।

मेरे एक मित्र प्राय: पेट के दर्द की शिकायत किया करते। मैंने एक दिन उनसे पूछा-बात क्या है? उन्होंने कहा कि कोई अच्छी वस्तु मिलने पर जब अधिक खा जाता हूँ या कोई कड़ी वस्तु खा लेता हूँ, तभी ऐसी नौबत आती है। मैंने कहा-फिर आप संयम से क्यों नहीं काम लेते ? उन्होंने कहा-जीभ नहीं मानती। इसी तरह किसी की ऑंख नहीं मानती, किसी का कान नहीं मानता, किसी का जी नहीं मानता और किसी के और और अंग नहीं मानते, और यह न मानना ही सब दुखों की जड़ है।

एक मुहर्रिर को मैंने देखा कि जब सूर्य डूब जाता, और अंधियाला बढ़ता जाता है उस समय भी आपकी लेखनी चलती रहती, और आप कागज के पीछे पड़े रहते। ऐसे ही एक क्लर्क दो एक पैसे के तेल का बचाव करता, और रात में चाँदनी के सहारे अपने कागजों को लिखता रहता। थोड़े ही दिनों में उनकी ऑंखें बिगड़ीं। लोगों ने फटकार बतलाई, तो उन्होंने कहा कि सब लोग जानते थे कि ऐसी नौबत आवेगी। किसी ने मना भी तो नहीं किया। इससे पाया जाता है कि इन बेचारों ने जो कुछ किया अनजान में किया, जो वे जानते कि ऐसा करने से ऑंखें बिगड़ जावेंगी तो शायद वे ऐसा न करते। ऐसे ही कितनी बातें ऐसी हैं, जो अनजान में हमारे ऊपर बुरा प्रभाव डालती हैं, हम लोग उसके बुरे प्रभाव को जानते ही नहीं जो उससे बचें। पर यह जानना चाहिए कि जो बातें बँधी हुई नियमों के प्रतिकूल हैं, या जिनके करने में हमको अपने जी पर दबाव डालना पड़ता है, उनको कभी न करना चाहिए। जो हम उसके बुरे प्रभाव को जानते भी न हों, किसी ने हमको बतलाया भी न हो, तब भी समझ लेना चाहिए कि उन बातों के करने से कुछ न कुछ बुराई अवश्य होगी। यह बँधी हुई चाल है कि लोग दिन भर काम करते हैं। और संध्या समय बन्द कर देते हैं, यह भी बँधी हुई चाल है कि जब रात को लिखना पढ़ना होता है तो दीया या कोई दूसरी रोशनी जला लेते हैं। इसलिए मुहर्रिर और क्लर्क को आप ही सोचना चाहिए था कि जो बँधी हुई चाल है, उसे छोड़कर चलना ठीक नहीं। और यदि वे इतना सोचते तो उनकी ऑंखें कभी न बिगड़तीं। ऐसे ही और बातों के विषय में भी सोच लेना चाहिए।

आज हम यह आप लोगों को सुनाने बैठे हैं, पर जब सूझना चाहिए था उस घड़ी हमको भी ये बातें न सूझीं। हम पहले प्रसंग में लिख चुके हैं तीन साल से माघ का महीना हमारे लिए बहुत डरावना हो गया है, यहाँ तक कि इस साल जान बचने की भी बहुत कम आशा थी। पर क्या हमारी यह दशा बिल्कुल अपने आप है, नहीं इसमें बहुत कुछ हमारी भूल चूक और लापरवाही का भी हाथ है। सन् 1879 ई. में जब मेरा सिन चौदह साल का था, मिडिल वर्नाक्यूलर मैंने पास कर लिया, मुझको तीन रुपया गवर्नमेन्ट स्कालर्शिप मिली, और क्वींसकॉलेज बनारस में अंग्रेजी पढ़ने की आज्ञा हुई। मैं पन्द्रह वर्ष के सिन में बनारस गया, और बोर्डिंग हाउस में ठहरा। मैं अपने घर में एक लड़का था, बड़े लाड़ प्यार से पला था, कभी किसी तरह की कठिनता का सामना नहीं पड़ा था। घर पर पका पकाया भोजन मिलता, अच्छी-अच्छी खाने की वस्तु मेरे लिए इहतियात से रखी रहती। मैं जिस तरह चाहता, रहता, जब चाहता नहाता खाता, तनिक सिर भी धमकता, तो घर भर आवभगत में लग जाता। पर बनारस में ये सब बातें कैसे नसीब होतीं, यहाँ मुझको रोटी भी अपने हाथ से बनानी पड़ती, और वह भी मैं कठिनाई से एक बेले बना सकता, जो रसोई बनती, वह भी अच्छी न बनती, इससे उसको खाकर भी प्रसन्न न होता। चित्त पहले से ही वश में न था, रुपये हाथ में थे, फिर बनारस-सा नगर, एक-से-एक खाने की अच्छी वस्तुएँ बिकने को आतीं, हमने भी उन पर हाथ मारना आरम्भ किया। इसका फल यह हुआ कि जो कभी मैं कच्ची रसोई बनाता, तो बड़ी लापरवाही से बनाता, जिससे प्राय: वह बुरी बनती, जिसमें से मैं कुछ खाता, कुछ छोड़ देता। इससे भूख बनी ही रहती, और खोंचेवाले की राह ताकता रहता, ज्यों वह पहुँचता, मैं भी उसके पास जा धमकता, और जो जी में आता, लेकर खाता। इसका परिणाम बड़ा बुरा हुआ, एक तो मेरी प्रकृति बादी, दूसरे बनारस की जलवायु बादी, तीसरा मेरा असंयम। पाँच-चार महीने में मुझे बादी बवासीर हो गयी। इन दिनों मुझको दिन रात कब्ज रहता, तबीअत जब देखो तब खराब। पर बात कुछ समझ में न आती। धीरे-धीरे ज्ञात हो गया कि मुझे बादी बवासीर हो गयी, और मैं बनारस छोड़कर निजामाबाद चला आया।

घर आने पर खाने पीने का गड़बड़ जाता रहा, जलवायु का झगड़ा भी जाता रहा, इसलिए मेरा स्वास्थ्य जैसे पहले था वैसा फिर हो गया, पर बादी बवासीर जड़ से न गयी, कभी-कभी वह अपना रंग दिखला जाती। यह बवासीर युवावस्था के लिए भी टाड़ा हुई, अठारह बीस बरस के सिन में भी जैसा चाहिए वैसा बल शरीर में न आया। जैसा दुबला पतला और दुर्बल बदन पहले था वैसा ही इन दिनों भी रहा। पर न तो बवासीर में कभी पीड़ा होती, और न उसकी वजह से कोई दूसरी ही ऐसी बुराई पैदा हुई, जिससे मुझको कोई विशेष कष्ट होता। इसलिए इन दिनों बवासीर से मैं बहुत लापरवाह रहा, जिसका फल यह हुआ कि वह धीरे-धीरे अपना बल बढ़ाती रही। पच्चीस बरस के सिन में उसका रंग कुछ बदला, वह महीने दो महीने पर सताने लगी, पर उसका यह सताना भी साधारण था, दो एक दिन कुछ कष्ट रहता, फिर दूर हो जाता। धीरे-धीरे तीस साल पूरा हुआ, अब रुग्णता का रंग कुछ और गहरा हुआ, अब उससे तरह-तरह की पीड़ायें होने लगीं। अब मेरे कान भी खड़े हुए, मैं कुछ औषधी-सेवन और दौड़ धूप भी करने लगा, पर आप देखें तो कैसी गहरी नींद के बाद ऑंख खुली। पन्द्रह वर्ष के पहले जिन बातों को दूर करना सहज था, अब वह बहुत ही कठिन हो गया। मैं चिनगारी को न बुझा सका, पर उससे जो एक डरावनी आग पैदा हो गयी, तब उसे बुझाने के लिए दौड़ा। नासमझ और टालटूल करने वालों की यही दशा होती है। वे समय पर सोते हैं, और जब समय नहीं रहता, तब उनकी ऑंखें खुलती हैं, जो सफलता का मँह न देखकर बड़े दु:ख के साथ फिर बन्द हो जाती हैं। तैतीसवीं साल बीमारी का बड़ा कड़ा धावा हुआ। मैंने समझा दिन पूरे हो गये। साथ ही अपनी लापरवाही और टालटूल की प्रकृति पर घृणा भी बड़ी हुई। परन्तु चार-पाँच महीने दुख झेल कर मैं फिर सँभल गया, किन्तु इस बार रुग्णता ने जो रंग पकड़ा वह निराला था। मैं इस निरालेपन को बतला सकता हूँ, पर नीरस बातों को कहाँ तक बढ़ाऊँ। थोडे में इतना कह देना चाहता हूँ कि चालीस साल के सिन तक मैं कुछ सुखी भी था, पर चालीस साल के बाद से रोग ने बहुत दुखी कर रखा है, देखूँ यह रंगत कितनी चटकीली होती है।

हरिऔध समग्र-अनुक्रम | पहला प्रसंग | दूसरा प्रसंग | तीसरा प्रसंग | चौथा प्रसंग | पाँचवाँ प्रसंग | छठा प्रसंग | सातवाँ प्रसंग | आठवाँ प्रसंग | नवाँ प्रसंग | दसवाँ प्रसंग | ग्यारहवाँ प्रसंग | बारहवाँ प्रसंग | तेरहवाँ प्रसंग | चौदहवाँ प्रसंग | पंद्रहवाँ प्रसंग सोलहवाँ प्रसंग
 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.