रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
7
बुद्धचरित
-2
प्रथम सर्ग
जन्म
दिक्पति चार अरूपलोक तर सदा विराजत,
जो या जग के बीच अटल अनुशासन साजत।
तिनके तर है तुषितलोक जहँ जीव श्रेष्ठतर
त्रिगुण- सहस- दस वर्ष वास करि जनमत भू पर।
रहे जबै या लोक बुद्ध भगवान् दयामय
जन्म चिह्न भे प्रगट पाँच तिनपै अति निश्चय।
तुरत तिन्हैं पहिचानि देवगण ने कीनी धुनि
''जैहैं जग कल्याण हेतु भगवान् बुद्ध पुनि।''
तब बोले भगवान् ''जात हौं जग सहाय हित
अब मैं अंतिम बार, भयो बहु बार जात तित।
जन्म मरण सों रहित होयहौं मैं औ वे जन
जे चलिहैं मम धर्म मार्ग पै ह्नै निश्चल मन।
शाक्यवंश में अवतरिहौं हिमगिरि दक्षिण तट,
वसति धर्मरत प्रजा जहाँ नृप न्यायी उद्भट।''
वाही निशि शुद्धोदन नृप की रानी माया
सोई पति ढिग लखी स्वप्न में अद्भुत छाया।
देख्यो सपने में प्रवालद्युति निर्मल तारो,
दीप्तिमान षड् अंशु धारे अतिशय उजियारो।
नभमंडल तें छूटि तासु ढिग दमकत आयो
औ दहिनी दिशि आय गर्भ में तासु समायो।
जासौ लक्षित भयो एक मातंग मनोहर
षड् दंतन सों युक्त छीर सम श्वेत कांतिधार।
जागी जब आनंद अलौकिक उर में छायो
ऐसो जैसो काहु जननि ने कबहुँ न पायोड्ड
पूर्व ही प्रभात के प्रभा पुनीत जो छई
अर्ध्दमंडलांत भूमि भासमान ह्नै गई।
काँपिगे पहार, सिंधुनीर धीरता गही,
फूल भानु पाय जो खिलैं, खिले अकाल ही।
मोद की तरंग प्रेतलोक लौ गई बढ़ी
भानुज्योति अंधकार भेदि जाति ज्यों चढ़ी।
मंजु घोष होत 'जीव होयँ जे जहाँ बहे
आस कै उठैं सुनैं, पधारि बुद्ध हैं रहे'।
लोक लोक में गई अपार शांति छाय है,
फूलि ते रहे उमंग ना हिये समाय है।
भूमि औ पयोधि पै समीर धीर जो बह्यो
और ही रह्यो कछू, न जात काहु पै कह्यो।
भयो ज्यों ही भोर बहु दैवज्ञ बूढ़े आय
लगे भाखन स्वप्न को फल भूप सों हरखाय-
'कर्क बीच दिनेश हैं सब योग शुभ या काल
स्वप्न को फल परम सुंदर होयहै, नरपाल!
श्री महादेवी जायहैं सुत ज्ञानवान् अपार
जो साधिहै या जगत् के सब जीव को उपकार,
अज्ञान तें उद्धारिहै जो सकल मनुज समाज,
ना तो सकल जग शासिहै जो करन चहिहै राज।
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गर्भ पूज्यो, उठी माया के हृदय यह बात
देवदह चलि पिता के घर लखौं शिशु नवजात।
ह्नै गयो मधयाद्द ताको लुंबिनीबन जात
शालतरु तर एक ठाढ़ी भई पुलकित गात।
शिखर सम सो खरो सूधो विटप परम विशाल
नवल किशलय धारे, सुरभित सुमन मंडित भाल।
बुद्ध को आगमन ज्यों सब वस्तु रहीं जनाय
परयो आगम जानि वाहू को, उठयो लहराय।
हेरि महिमा महादेवी पै सहित समान
हरी डार नवाय सुंदर दियो तानि वितान।
भूमि सहसा लाय सुमनन दई सेज सजाय
न्हायबे हित ताहि सोतो विमल फूटो आय।
कियो रानी ने प्रसव बिनु पीर शिशु अवदात
बुद्ध के बत्तीस लक्षण रहे जाके गात।
पहुँचिगो संवाद शुभ प्रासाद में तब जाय
लेन तिनको गई चित्रित पालकी चट आय।
मेरु तें छलि आय बाहक बने सब दिक्पाल
कर्म प्राणिन के लिखत जे रहत हैं सब काल।
पूर्व को दिक्पाल आयो, जासु अनुचर जाल
रजत अंबर धावल धारे, लिए मुक्ता ढाल।
चल्यो दक्षिणपाल लै कुंभांडगण की भीर,
नील वाजिन चढ़े, नीलम ढाल साजे बीर।
चल्यो पश्चिमपाल जाके नागगण हैं संग
गहे ढाल प्रवाल की, और चढ़े पक्त तुंरग।
घेरि उत्तर लोक पालहिं कनकमंडित गात
पीत हय पै स्वर्ण ढालन सजे यक्ष लखात।
शक्तिधार सब देव आए अलख वैभव संग
पालकी पै दियो कंधा लगाय सहित उमंग।
रहे वाहक रूप में कोउ तिन्हैं जान्यो नाहिं
देवगण वा दिवस बिचरे मिले मनुजन माहिं।
रह्यो स्वर्ग उछाह सो भरि गुनि जगत् कल्यान,
जानि यह नरलोक में पुनि अवतरे भगवान्।
नृप यह जान्यो नाहिं रही चिंता चित व्यापी
कह्यो गणकगण आय, 'पुत्र यह परम प्रतापी।'
चक्र्वर्त्ती यह सोइ भूमि भोगन जीवन भर
आवत है जो प्रति सहे वत्सर या भू पर।
सात रत्न यहि सुलभ- प्रथम है चक्ररत्न वर
अजरत्न जो भरि गुंकार पग धारत मेघ पर।
हस्तिरत्न हिम सरिस श्वेत वाहन सुन्दर अति,
नीतिविशारद सचिव तथा दुर्जय सेनापति,
भार्य्या अनुपम रूपवती युवती सुकुमारी
रमणीरत्न अमोल उषा सों बढ़ि उजियारी।
सुनि सुत वैभव नृपति हरषि अनुशासन फेरो
'उत्सव और उछाह नगर में होय घनेरो'।
सब बाट जाति बहारि, चंदननीर छिरको जात है
दमकत द्रुमन पै दीप, फहरत केतु बहु दरसात हैं।
सजि सूर खाँडे धारि कर में करत आसन पैतरे
नट इंद्रजालिक खेल देखत लोग कहुँ अचरज भरे।
कहुँर् नत्तकी चुनि चूनरी, पग घूँघरू झनकारतीं,
निज चपल चरनन के चहूँ दिशि मंद हास उभारतीं।
तीतर बटेर बटोरि कोऊ कतहुँ रहे लड़ाय हैं,
बैठे मदारी कतहुँ मर्कट भालु रहे नचाय हैं।
इत भिरत मोटे कल्ल नाना दाँव पेच दिखाय कै,
उत वाद्यकार मृदंग ढोल बजाय साज मिलाय कै।
आलाप छाँड़त बीन की झनकार मंजु उठाय हैं,
यों देत रसिक समाज को बदि बदि हियो हुलसाय हैं।
बहु बणिक आए दूर तें संवाद शुभ यह पायकै
लैं भेंट की बहु वस्तु सुंदर कनक थार सजायकै-
कौशेय अंशुक चीन के, नव शाल बहु कश्मीर को
मणि पुष्पराग, प्रवाल, मोती सुघर सागर तीर को।
सुंदर खिलौनन के मनोहर मेल कहुँ सोहत धारे,
घनसार, कुमकुम, अगर, मृगमद, भार चंदन के भरे।
कोउ धारत अंबर धूपछाँह सुरंग झीने लाय हैं,
नहिं जासु बारहर् पत्ता सकत सलज्ज वदन छपाय हैं।
सारी किनारी जासु मोतिन सों जरी अति झलझली,
अति भव्य भूषण, वसन, भाजन, फलन फूलन की डली।
बहु भेंट पठवत करद पुर, सब भवन भूपति को भरो,
सिद्धार्थ वा 'सर्वार्थंसिद्ध' कुमार नाम गयो धारो।
आए अपरिचित जनन में ऋषि असित परम पुनीत
संसार सो फिरि श्रवण जिनके सुनत सुर संगीत,
अजत्थ तर बैठे रहे जो धारे अपनो ध्यान,
तहँ बुद्ध जन्म उछाह को सुनि परयो नभ में गान।
सोहत पुराणप्रवीण पूर्ण प्रकार तपबल पाय।
सम्मान सों नियराय नरपति परे पायन जाय।
उत महारानी आय पाँयन पै दियो सिसु डारि,
पै देखि ताहि मुनीश चरनन टारि उठे पुकारि-
'हे देवि! करती कहा?' पुनि शिशु चरनरज सिर लाय
मुनि कह्यो 'हौ तुम सोइ बंदन करत हौं सिर नाय।
मृदु ज्योति लसति अपूर्व, स्वस्तिक चिह्न सो दरसात,
बत्तीस लक्षण मुख्य, अनुव्यंजन असी अवदात।
हौ बुद्ध, धर्म सिखाय करिहौ लोक को उद्धार,
अनुसरण करिहैं जीव जे ते होयहैं भव पार।
तब ताइँ रहिहौं नाहिं, मेरी अवधि गइ नियराय।
तन राखि करिहौं कहा ह्नै कृतकृत्य दर्शन पाय?
भूपाल परम सुजान! जानौ कली है यह सोय,
कल्पांत में कहुँ एक बार विकास जाको होय,
जग ज्ञान सौरभ, प्रेम के मकरंद सों भरि जाय,
तव राजकुल में आज यह अरविंद फूटयो आय।
या भवन को अति भाग्य! पै कछु दु:ख हू दरसात।
नृप! तुम्हैं या सुत हेतु परिहै सहन हिय आघात।
हे देवि! सुर नर प्रिय भई यह गर्भ धारि जग माहिं,
भवताप भोगै और तू अब ह्नै सकत यह नाहिं।
क्लेशरूप यह जीवन जो सो नहिं रहि जैहै।
सात दिवस में करि याको तू अंत सिधौहै।
सातवें दिन भई वाणी सत्य, निज गृह माहिं
राति सुख सों सोय रानी फेरि जागी नाहिं।
त्रायस्त्रिंशस् स्वर्ग में सो जाय लियो निवास
देवगण जहँ रहत सेवा में खड़े चहुँ पास।
महा प्रजावति लागी पालन शिशु सुखकारी,
सींचन लागी कंठ सकल जग मंगलकारी।
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शिक्षा
आठ वर्ष के भे कुमार जब नृप मन माहिं विचारो,
राजकुमारहिं चहिय पढ़ावन राजधर्म अब सारो।
चमत्कार गुनि सकल महीपति आगम कथन विचारै,
चाहत नहिं ह्नै बुद्ध पुत्र मम जग में ज्ञान पसारै।
भरी सभा के बीच एक दिन भूपति बैठयो जाई,
पूछयो सब मंत्रिन सों अपने सादर निकट बुलाई।
''कहौ, सचिववर! कौन नरन में अति विद्वान कहावै,
राजपुत्र के जोग सकल गुण जो मम सुतहिं सिखावै।''
कह्यो एक स्वर सों सब मिलि के ''सुनो नृपति! यह बानी,
विश्वामित्रा समान न कोऊ बुद्धिमान औ ज्ञानी।
वेद विषय पारंगत सब विधि, शास्त्रज्ञान में रूरो,
धनुर्वेद में चतुर लसत सो, सकल कला में पूरो''।
विश्वामित्रा आय नृप आज्ञा सुनी, अमित सुख पायो।
शुभ दिन औ शुभ घरी माहि पुनि कुँवर पढ़न को आयो।
रत्ननजरी रँगी चंदन की पाटी काँख दबाई
लिए लेखनी गुरु समीप भे ठाढ़े दीठि नवाई।
तब बोले आचार्य्य 'वत्स! तुम लिखौ मंत्र यह सारो'।
यों कहि पावन गायत्री को मूल मंत्र उच्चारो
धीमे स्वर सों, सुनै न जासों कोउ निषिद्ध नर नारी
सुनिबे के केवल हैं जाके तीन वर्ण अधिकारी।
'लिखत अबै, आचार्य्य!' कुँवर बोल्यो विनीत स्वर
लिख्यो अनेकन लिपिन मंत्र पावन पाटी पर।
ब्राह्मी, दक्षिण, देव, उग्र, मांगल्य, अंग लिपि,
दरद, खास्य, मधयाक्षर विस्तर, मगधा, बंग लिपि,
औ खरोष्ट्री, यक्ष, नाग, किन्नर, सागर पुनि
लिखि दिखराए कुँवर सबन के अक्षर चुनि चुनि।
मग शक आदिक के अक्षर हू छूटे नाही,
सरूय्य अग्नि की जो उपासना करत सदाहीं।
बोलिन में बहु चल्यो मंत्र सावित्री पुनि भनि
कह्यो गुरु 'बस करौ, चलो अब तो गनती गनि।
कहत चलौ मम साथ नाम संख्यन को तौलौं
पहुँची जायँ हम, कुँवर! लाख पर्य्यंत न जौ लौं।
कहत एक, द्वै, तीन, चार तें दस लौं जाओ,
दस तें सौ लौं, पुनि सौ तें चलि सहस गनाओ।'
ता पाछे गनि गयो कुँवर एकाइ दहाइ,
शत सहे औ अयुत लक्ष लौं पहुँच्यो जाइ,
गनत गयो कहुं रुक्यो नाहि सो कुँवर सयानो
'ताके आगे प्रयुत कोटि औ अर्बुद मानो।
परं इखर्व और महाखर्व औ महापद्म पुनि'
असंख्येय लौं गनत गयौ, सुनि चकित भए मुनि।
बोले मुनि 'है बहुत ठीक हे कँवर हमारे
अब आयत परिमाण बताऊँ तुमको सारे'।
यह सुनि राजकुमार वचन बोल्यो विनीत अति
'श्रवण करौ, आचार्य्य! कहत हौं सकल यथामति।
दस परमाणुन को मिलाय परिसूक्ष्म कहत हैं
जोरे दस परिसूक्ष्म एक त्रासरेणु लहत हैं।
देत सप्त त्रासरेणु योग अणु एक बवाई1
भवनरंध्रभृत रविकर में जो परत लखाई।
सात अगुण को योग एक केशाग्र कहावत,
जो दस मिलि कै लिख्या की हैं संज्ञा पावत।
दस लिख्या को एक यूक सब मानत आवैं,
दस यूकन को एक यवोदर सबै बतावैं।
दस जौ जोरे होत एक अंगुल यों मानत,
1. यह मान वैशेषिक आदि में माने हुए मान से भिन्न है।
बारह अंगुल को वितस्त सिगरो जग जानत।
ताके आगे हस्त, दंड, धनु लट्ठा आवैं।
लट्ठन को लै बीस श्वास दूरी ठहरावैं।
तेती दूरी श्वास होति जेती के बाहर
एक साँस में चलो जाय बिनु थमे कोउ नर।
चालिस श्वासन की दूरी को गो ठहरावत।
होत चार गो को योजन यह सबै बतावत।
यदि आयसु तव होय कहौं अब मैं, हे गुरुवर!
केते अणु ऍंटि सकत एक योजन के भीतर।
यों कहि तुरत कुमार दियो अणुयोग बताई,
सुनतहि विश्वामित्रा परे चरनन पै जाई।
बोले मुनि 'तू सकल गुरुन को गुरु जग माहीं।
तू मेरो गुरु, मैं तेरो गुरु निश्चय नाहीं।
बंदत हौ सर्वज्ञ कुँवर! तेरो पद पावन,
मम चटसारहिं आयो तू केवल दरसावन-
बिनु पोथिन ही सकल तत्व तू आपहि छानत,
तापै गुरुजन को आदर हू पूरो जानत।'
करत श्री भगवान गुरुजन को सदा सम्मान,
वचन कहत विनीत यद्यपि परम ज्ञाननिधन।
राजतेज लखात मुख पै, तदपि मृदु व्यवहार,
हृदय परम सुशील कोमल, यदपि शूर अपार।
कबहूँ जात अहेर को जब सखा लै संग माहिं
साहसी असवार तिन सम कोउ निकसत नाहिं।
राजभवन समीप कबहुँ होड़ जो लगि जाय
रथ चलावन माहिं कोऊ तिन्हैं सकत न पाय।
करत रहत अहेर सहसा ठिठकि जात कुमार,
जान देत कुरंग को भजि, लगत करन विचार।
कबहुँ जब घुरदौर में हय हाँकि छाँड़त साँस,
हार अपनी हेरि वा जब सखा होत उदास।
लगत कोऊ बात अथवा गुनन मन में आनि
जीति आधी कुँवर बाजी खोय देतो जानि।
बढ़त ज्यों ज्यों गयो प्रभु की वयस् लहि दिन राति
बढ़ति दिन दिन गई तिनकी दया याहि भाँति।
यथा कोमल पात द्वै तें, होत विटप विशाल,
करत छाया दूर लौं बहु जो गए कछु काल।
किंतु जानत नाहिं अब लौं रह्यो राजकुमार
क्लेश, पीड़ा, शोक काको कहत है संसार।
इन्हैं ऐसी वस्तु कोऊ गुनत सो मन माहिं
राजकुल में कबहुँ अनुभव होते जिनको नाहिं।
एक दिवस वसंत ऋतु में भई ऐसी बात,
रहे उपवन बीच सों ह्नै हंस उड़ि कै जात।
जात उत्तर ओर निज निज नीड़ दिशि ते धाय,
शुभ्र हिमगिरि अंक में जो लसत ऊपर जाय।
प्रेम के सुर भरत, बाँधों धावल सुंदर पाँति
उड़े जात विहंग कलरव करत नाना भाँति।
देवदत्ता कुमार चाप उठाय, शर संधानि
लक्ष्य अगिले हंस को करि मारि दीनो तानि।
जाय बैठयो पंख में सो हंस के सुकुमार,
रह्यो फैल्यो करन हित जो नील नभ को पार।
गिरयो खग भहराय, तन में बिधयो विशिख कराल,
रक्तरंजित ह्नै गयो सब श्वेत पंख विशाल।
देखि यह सिद्धार्थ लीनो धाय ताहि उठाय,
गोद में लै जाय बैठयो प इरआंसन लाय।
फेरि कर लघु जीव को भय दिया सकल छुड़ाय,
और धारकत हृदय को यों दियो धीर धाराय।
नवल कोमल कदलिदल सम करन सों सहराय,
प्रेम सों पुचकारि ताकत तासु मुख दुख पाय।
खैंचि लीनो निठुर शर करि यत्न बारंबार।
घाव पै धारि जड़ी बूटी कियो बहु उपचार।
देखिबे हित पीर कैसी होति लागे तीर
लियो कुँवर धाँसाय सो शर आप खोलि शरीर।
चौंकि सो चट परयो पीरा परी दारुण जानि,
छाय पयनन नीर खग पै लग्यो फेरन पानि।
पास ताके एक सेवक तुरत बोल्यो आय
अबै मेरे कुँवर ने है हंस दियो गिराय।
गिरयो पाटल बीच बिधि के ठौर पै सो याहि।
मिलै मोको, प्रभो! मेरो कुँवर माँगत ताहि।'
बात ताकी सुनत बोल्यो तुरत राजकुमार
जाय कै कहि देहु दैहौं नाहिं काहु प्रकार।
मरत जो खग अवसि पावत ताहि मारनहार
जियत है जब तासु तापै नाहिं कछु अधिकार।
दियो मेरे बंधु ने बस तासु गति को मारि
रही जो इन श्वेत पंखन की उठावनहारि।'
देवदत्ता कुमार बोल्यो 'जियै वा मरि जाय
होत पंछी तासु है जो देत वाहि गिराय।
नाहिं काहू को रह्यौ जौ लौं रह्यो नभ माहिं,
गिरि परयो तब भयो मेरो, देत हौ क्यों नाहिं?'
लियो तब खगकंठ को प्रभु निज कपोलन लाय
पुनि परम गंभीर स्वर सों कह्यो ताहि बुझाय
'उचित है यह नाहिं जो कछु कहत हौ तुम बात,
गयो ह्नै यह विहग मेरो नाहिं दैहौं, तात!
जीव बहु अपनायहौं या भाँति या संसार
दया को औ प्रेम को निज करि प्रभुत्व प्रसार।
दयाधर्म सिखायहौं मैं मनुजगन को टेरि
मूक खग पशु के हृदय की बात कहिहौं हेरि।
रोकिहौं भवताप की यह बढ़ती धार कराल
परे जामें मनुज तें लै सकल जीव बिहाल।
किंतु चाहैं कुँवर तो चलि विज्ञजन के तीर
कहैं अपनी बात चाहैं न्याय धारि जिय धीर।'
भयो अंत विचार नृप के सभामंडप माहिं
कोउ ऐसो कहत, कोऊ कहत ऐसो नाहिं।
कह्यो याही बीच उठि अज्ञात पंडित एक
प्राण है यदि वस्तु कोऊ करौ नैकु विवेक।
''जीव पै है जीवरक्षक को सकल अधिकार
स्वत्व वाको नाहिं चाह्यो बधन जो करि वार।
बधाक नासत औ मिटावत रखत रच्छनहार
हंस है सिद्धार्थ को यह, सोइ पावनहार''।
लग्यो सारी सभा को यह उचित न्याय विधन।
भई मुनि की खोज, पे सो भए अंतध्र्दान।
ब्याल रेंगत लख्यो सब तहँ और काहुहि नाहिं
देवगण या रूप आवत कबहुँ भूतल माहिं।
दया के शुभ कार्य्य को आरंभ याहि प्रकार
कियो श्री भगवान ने लखि दु:खी यह संसार।
छाँड़ि पीर विहंग की उड़ि मिल्यो जो निज गोत
और क्लेश न कुँवर जानत कहाँ कैसे होत।
कह्यो नृप एक वसंत के वासर वत्स! चलौ पुर बाहर आज।
जहाँ सुखमा सरसाति धानि, धारती अपनो धन खोलि अनाज।
बिछावति काटनहार समीप, चलौ अपनो यह देखन राज।
भरै नृप के नित कोषहिं जो चलि आवत पालत लोकसमाजड्ड
चढ़े रथ पै दोउ जात चले, वन, बाग, तड़ाग लसैं चहूँ ओर।
लसे नव पल्लव सों लहरैं लहि कै तरु मंद समीर झकोर।
कहूँ नव किंशुकजाल सों लाल लखात घने बनखंड के छोर।
परैं तहँ खेत सुनात तहाँ श्रमलीन किसानन को कल रोर।
लिपे खरिहानन में सुथरे पथपार पयार के ढूह लखात।
मढ़े नव मंजुल मौरन सों सहकार न अंगन माँहिं समात।
भरि छबि सो छलकाय रहे, मृदु सौरभ लै बगरावत बात।
चरैं बहु ढोर कछारन में जहँ गावत ग्वाल नचावत गात।
लदे कलियान और फूलन सों कचनार रहे कहूँ डार नवाय।
भरो जहँ नीर धारा रस भीजि कै दीनी है दूब की गोट चढ़ाय।
रह्यो कलगान विहंगन को अति मोद भरो चहुँ ओर सों आय।
कढ़ैं लघु जंतु अनेक, भगैं पुनि पास की झाड़िन को झहराय।
डोलत हैं बहु भृंग पतंग सरीसृप मंगल मोद मनाय।
भागत झाड़िन सों कढ़ि तीतर पास कहूँ कछु आहट पाय।
बागन के फल के फल पै कहुँ कीर हैं भागत चोंच चलाय।
धावत हैं धारिबे हित कीटन चाष धानी चित चाह चढ़ाय।
कूकि उठै कबहूँ कल कंठ सों कोकिल कानन में रस नाय।
गीधा गिरैं छिति पै कछु देखत, चील रहीं नभ में मँड़राय।
श्यामल रेख धारे तन पै इत सों उत दौरि कै जाति गिलाय।
निर्मल ताल के तीर कहूँ बक बैठे हैं मीन पै ध्यान लगाय।
चित्रित मंदिर पै चढ़ि मोर रह्यो निज चित्रित पंख दिखाय।
ब्याह के बाजन बाजन की धुनि दूर के गाँव में देति सुनाय।
वस्तुन सों सब शांति समृद्धि रही बहु रूपन में दरसाय।
देखि इतो सुख साज कुमार रह्यो हिय में अति ही हरखाय।
सूक्ष्म रूप सों पै वाने कीनो विचार जब
देखे जीवन कुसुम बीच कारे कंटक तब।
कैसो दीन किसान पसीनो अपनो गारत
केवल जीयन हेतु कठिन श्रम करत न हारत।
गोदि लकुट सों दीर्घविलोचन बैलन हाँकत
जरत घाम में रहत धूरि खेतन की फाँकत।
देख्यो फेरि कुमार खात दादुर पतंग गहि,
सर्प ताहि भखि जात, मोर सों बचत सर्प नहिं।
श्यामा पकरत कीट, बाज झपटत श्यामा पर,
चाहा पकरत मीन, ताहि धारि खाय जात नर।
यों इक बधिकहिं बधात एक, बधि जात आप पुनि,
मरण एक को दूजे को जीवन, देख्यो गुनि।
जीवन के वा सुखद दृश्य तर ताहि लखानो
एक दूसरे के बधा को षट्चक्र लुकानो।
परे कीट तें लै मनुष्य जामें भ्रम खाई
चेतन प्राणी मनुज बधात सो बंधुहिं जाई।
भूखे दुर्बल बैल को नाधि फिरावत,
जूए सों छिलि छात कंधा पै मनहिं न लावत।
जीबे की धुन माहिं जगत् के जीव मरत लरि
लखि यह सब सिद्धार्थ कुँवर बोल्यो उसास भरि-
'लोक कहा यह कोइ लगत जो परम सुहावन,
अवलोकन हित जाहि परयो मोको ह्याँ आवन?
कड़े पसीने की किसान की रूखी रोटी,
कैसो कड़वो काम करति बैलन की जोटी!
सबल निबल को समर चलत जल थल में ऐसो!
ह्नै तटस्थ टुक धारौं ध्यान, देखौं जग कैसो।'
यों कहि श्रीभगवान् एक जम्बू तर जाई
बैठे मूर्ति समान अचल पराइंसन लाई।
लागे चिंतन करन महा भवव्याधि भयंकर!
कहा मूल है याको और उपचार कहाँ पर?
उमगी दया अपार, प्रीति पसरी जीवन प्रति
क्लेश निवारण को जिय में अभिलाष जग्यो अति।
ध्यानमग्न ह्नै गयो कुँवर यों मनन करत जब
रही न तन सुधि आत्मभाव बहि गए दूर सब।
लह्यो चतुर्विधा ध्यान तहाँ भगवान बुद्ध तब
धर्म मार्ग को कहत प्रथम सोपान जाहि सब।
पंचदेव तिहि काल रहे कहुँ जात सिधाए
तिनके रुके विमान जबै तरु ऊपर आए।
परम चकित ह्नै लागे बूझन ताकि परस्पर
कौन अलौकिक शक्ति हमैं खैंचति या तरु तर?'
गई दीठि जो तरे परे भगवान् लखाई
ललित ज्योति सिर लसत, विचारत लोक भलाई।
चीन्हि तिन्हैं ते देव लगे शुभ गाथा गावन-
''तापशमन हित मानसरोवर चाहत आवन,
नाशन हित अज्ञान तिमिर दीपक जगिहै अब
मंगल को आभास लखौ ह्नै मुदित लोक सब।''
खोजत खोजत एक दूत नृप को तहँ आयो
पहुँच्यो वाही ठौर कुँवर जहँ ध्यान लगायो।
पहर तीसरो चढ़यो ध्यान नहिं भंग भयो पर
अस्ताचल की ओर बढ़े भगवान् भास्कर।
छाया घूमीं सकल किंतु जामुन की छाहीं
रही एक दिशि अड़ी, टरी प्रभु पर तें नाहीं।
जामें प्रभु के पावन सिर पै परै न आई
रवि की तिरछी किरन, ताप प्रभु ओर चढ़ाई।
लख्यो दूत यह चरित हिये अति अचरज मानी।
जामुन की मंजरिन बीच फूटी यह बानी-
'रहिहै इनके हृदय ध्यान की छाया जौ लौं
नाहिं सरकिहै कतहुँ हमारी छाया तौ लौं।
द्वितीय
सर्ग
राजा की चिन्ता
वर्ष अठारह पार भए भगवान् बुद्ध जब
तीन भवन बनिबे की आज्ञा नृपति दई तब-
बनै एक तो देवदार सों मढयो भव्य अति
शीतकाल में होय शीत की नहिं जामे गति,
बनै श्वेत मर्मर को दूजो दमकत उज्ज्वल,
ग्रीष्मकाल में बास जोग सुथरो औ शीतल,
लाल ईंट को बनै तीसरो भवन मनोहर,
पावस ऋतु के हेतु खिलैं चंपक जब सुंदर।
तीन हर्म्य ये- शुभ्र, रम्य तीजो सुरम्य पुनि-
राजकुमार निमित्ता भए निर्मित तहँ चुनि चुनि।
तिनके चारों ओर खिले उपवन मन मोहत,
नारे घूमत बहत, बिटप वीरुधा बहु सोहत।
सघन हरियरी माहि लतामंडप बहु छाए।
जिनमें कबहूँ कुँवर जाए बैठत मन भाए।
नव प्रमोद आमोद ताहि बिलमावत छिन छिन,
पाय तरुण वय रहत सदा सुख सों बितवत दिन।
कबहुँ कबहुँ पै छाय जाति चिंता चित माहीं,
मानस जल झ्रवराय पाय ज्यों बादर छाहीं।
देखि लक्षण ये महीपति कह्यो सचिव बुलाय-
'ध्यान है जो कहि गए ऋषि औ गणकगण आय?
प्राण तें प्रिय पुत्र यह जग जीति करिहै साज,
सकल अरिदल दलि कहैहै महाराजधिराज।
नाहिं तौ पुनि भटकिहै तप के कठिन पथ माहिं
खोय सर्वस पायहै सो कहा जानैं नाहिं।
लखत तासु प्रवृत्ति हम या ओर ही अधिकाय
विज्ञ हौ तुम देहु मोकों मंत्र सोइ बताय।
उच्च पथ पग धारै जासों कुँवर सजि सुख जात,
घटैं लक्षण सत्य सब, सो करै भूतल राज।
रह्यो जो अति श्रेष्ठ बोल्यो बचन सीस नवाय
'प्रेम है सो वस्तु जो यह रोग देय छुड़ाय।
कुँवर के या परम भोरे हृदय पै, नरराय!
तियन के छल छंद को चट देहु जाल बिछाय।
रूप को रस कहा जानै अबै कुँवर अजान,
चपल चख चित मथनहारे, अधार सुधा समान।
देहु वाको कामिनी करि चतुर सहचर साथ,
फेरि देखौ रंग अपने कुँवर को, हे नाथ!
लोह सीकड़ सों नहीं जो भाव रोको जाय
कुटिल कामिनि केश सों सो सहज जात बँधाय'।
कह्यो नृप यदि खोजि युवती करैं याको ब्याह,
प्रेम की कछु परख औरै औ निराली चाह।
यदि कहैं हम ताहि 'हे सुत! रूप उपवन जाय
लेहु चुनि सो कली जो सब भाँति तुम्हैं सुहाय'
परम भोरो बिहँसि कै सो बात दैहै टारि
भागिहै आनंद सों जिहि सकत नहिं जिय धारि।
कह्यो दूसरो सचिव 'नृपति यह समुझि लेहु मन,
तौ लौं कूदत है कुरंग जौ लौं शर खात न।
कोउ मोहिहै अवसि ताहि जानौ यह निश्चय
काहू को मुख ताहि स्वर्ग सम लगिहै सुखमय।
रूप उषा सों उज्ज्वल कोऊ लगिहै ताको,
आय जगावति जो प्रतिदिन सारी वसुधा को।
रचौ सात दिन में 'अशोक उत्सव' नृप! भारी
होयँ जहाँ एकत्रा राज्य की सकल कुमारी।
बाँटै कुँवर 'अशोक भांड' सबको प्रसन्न मन
रूप और गुन करतब तिनके निरखै नयनन।
लै लै निज उपहार जान जब जगै कुमारी,
छिपि कै देखत रहै तहाँ कोऊ नर नारी
काके ऊपर कुँवर आपनी दीठि गड़ावै,
काकी चितवन मिले उदासी मुख की जावै।
चुनैं प्रेम के नयन प्रेयसी आपहि जाई।
रसबस करि कै कुँवरहिं हम यों तो सकत भुलाई।'
भली लगी यह बात, युक्ति सब के मन भाई।
तुरत राज्य में नरपति ने डौंड़ी फिरवाई-
'राजभवन में आवैं सुंदरि सकल कुमारी,
है 'अशोक उत्सव' की कीनी नृपति तयारी।
निज कर सों उपहार बाँटिहैं श्रीकुमार कढ़ि
पैहै वस्तु अमोल निकसिहै जो सब सों बढ़ि।'
प्रेम
नृपद्वार कुमारि चलीं पुर की, ऍंगराग सुगंधा उड़ै गहरी,
सजि भूषण अंबल रंग बिरँग, उमंगन सों मन माहिं भरी।
कवरीन में मंजु प्रसून गुछे, दृगकोरन काजर लीक परी,
सित भाल पै रोचनबिंदु लसै, पग जावक रेख रची उछरी।
चलि कुँवर आसन पास सों मृदु मंद गति सों नागरी,
हैं कढ़ति कारे दीर्घ नयन नवाय भोरी छवि भरी।
बढ़ि राजतेजहु सों कछू तहँ हेरि ते हहरैं हिये,
जहँ लसत कुँवर विराग को मृदु भाव आनन पै लिये।
जो निकसै अति रूपवती, सब लोग सराहत जाहि दिखाय
सो चकि कै हरिनी सी खड़ी चट होय कुमार के सम्मुख आय-
दिव्य स्वरूप, महामुनि सो सब भाँति अलौकिक जो दरसाय-
लै अपनो उपहार मिलै पुनि कंपित गात सखीन में जाय।
पुर की कुमारी एक पै चलि एक यो पलटी जबै,
टूटयो छटा को तार औ उपहार हू बँटिगो सबै
ठाढ़ी भई तब आय कुँवर समीप दिव्य यशोधरा
अति चकित हेरत रहि गयो सो स्वर्ग की सी अप्सरा।
मृदु आनन पै लखि इंदुप्रभा अरबिंद सबै सकुचाय परे
शर हेरि प्रसून के नैनन में हरिनीन के नैनहु ना ठहरे।
पुनि जोरि कुमार सों दीठि चितै मुसकान कछु अधारान धारे
''कछु पाय सकैं हमहूँ'' यह पूछति भौहँन में कछुभाव भरे।
सुनि कहत राजकुमार ''अब उपहार तो सब बँटि गयो,
पै देत हौं जो नाहिं अब लौं और काहू कों दयो''।
चट काढ़ि मरकत माल वाके कंठ में नाई हरी,
तहँ नयन दोउन के मिले जिय प्रीति जासों जगि परी।
बहुत दिनन में भए बुद्ध पद प्राप्त कुँवर जब
बिनती करि बहु लोग जाय तिनसों पूछयो तब
क्यों सहसा लखि गोपा को यों ढरयो तासु चित'
कह्यो बुद्ध 'हम रहे परस्पर नाहिं अपरिचित।
बहुत जन्म की बात सुनौ जमुना के तट पर,
नंदादेवी को सोहत जहँ धावल शिखर वर,
एक अहेरी को कुमार मन मोद बढ़ाई।
वनकन्यन के संग रह्यो खेलत तहँ जाई।
बन्यो पंच सो, ताहि प्रथम चलि छुवन विचारी
देवदार तर दौरैं हरिनी सरिस कुमारी।
बनजूही सों देत काहु को भाल सजाई,
नीलकंठ के पंख काहु को देत लगाई,
औ गूंजा की माल काहु के गर में नावत,
काहू को चुनि देवदार के दल पहिरावत।
दौरी पाछे जो सबके सो आगे आई,
मृगछौना दै एक ताहिं सों प्रीति लगाई,
सुख सों दोऊ रहे बहुत दिन लौं बन माहीं,
बंधो प्रीति में दोउ अभिन्न मन मरे तहाँहीं।
देखौ! जैसे बीज भूमि तर ढको रहत है,
फोरत अंकुर वर्षा की जब धार लहत है,
याही विधि सब कर्मबीज पहले के भाई-
राग द्वेष, सुख दु:ख, भलाई और बुराई-
प्रगटत है पुनि जब कबहूँ ते अवसर पावैं,
औ मीठे वा कड़वे फल निज डारन लावैं।
सोइ अहेरी को कुमार मोको तुम मानौ,
है यशोधरा सोइ चपल वनकन्या, जानो।
जन्म मरण को चक्र भयौ जौ लौं नहि न्यारे,
आवन चाहै, रही बात जो बीच हमारे।''
रहे कुँवर को भाव लखत जो उत्सव माहीं
जाय सुनायो नृप को सब, कछु छाडयो नाहीं।
कैसे कुँवर विरक्त रह्यो बनि बैठो तौ लौं
सुप्रबुद्ध की यशोधरा आई नहिं जौ लौं।
पलटयो कैसा रंग कुँवर को ज्यों सो आई,
निरखन दोऊ लगे परस्पर दीठि मिलाई।
रत्नहार दैबे की सारी बात गए कहि,
रहे प्रेम सों एक दूसरे को कैसे चहि।
शस्त्रपरीक्षा
बोल्यो भूपति बिहँसि ''वस्तु हमने सो पाई
रखि लैहै जो अवसि हमारो कुँवर फँसाई।
पठै दूत अब माँगौ सो कन्या सुकुमारी,
सुप्रबुद्ध सों कहौ जाय यह बात हमारी।''
रही रीति पै शाक्यगणन में जो न सकै टरि,
बड़े घरन की बरन चहै जो कन्या सुंदरी
शस्त्राकला में परै निपुणता ताहि दिखावन
तिन सब सों बढ़ि जो जो चाहैं ताको पावन।
नृपगण हू विपरीत रीति नहिं सकैं चलाई
कह्यो कुँवरि को पिता ''नृपति सौं बोलौ जाई।
दूर दूर के राजकुँवर हैं चाहत याको,
सब सों जो बढ़ि सकै कुँवर तो दैहों ताको।
ए शे हयचालन में यदि सो बढ़ि जैहै,
वासों बढ़ि कै और कहाँ बर कोऊ पै है?
पै देखत हौं ढीले ढंगन को वाके जब
कैसे आशा करौं होयहै वासों यह सब?''
भयो भूप अति दुखी लग्यो सोचन मन माहीं-
'चहत कुँवर है यशोधरा को, संशय नाहीं।
कौन धनुर्धर नागदत्त सों पै बढ़ि मरिहै?
हय चालन में अर्जुन सम्मुख कौन ठहरिहै?
खंग युद्ध में वीर नंद सों बढ़ि काकी गति?''
सोचि सोचि महिपाल भयो मन में उदास अति।
देखि दशा यह विहँसि कुँवर बोल्यो सुखकारी
'सुनो तात! ये सकल कला हैं सिखी हमारी।
करौ घोषणा तुरत भिडै, मो सों जो चाहै
इन सब खेलन माहिं सोच की बात कहाँ है?
नेह विफल करि कुँवरि हाथ सों जान न दैहौं।
ऐसी छोटी बातन कारन ताहि गवैंहौं?'
भयो 'घोष सिद्धार्थ कुँवर हैं करत निमंत्रित।
आय सातवें दिवस दिखावैं रणकौशल इत।
राजकुँवर सों जो चाहै सो होड़ लगावै,
जो जीतै सो यशोधरा को बरि लै जावै।''
रंगभूमि लखाति जाको दूर लौं विस्तार।
सातवें दिन आय पहुँचे सकल शाक्यकुमार।
कुँवरि को लै चली शिविका सजी नाना रंग।
चलीं मंगल गीत गावति सुंदरी बहु संग।
सुंदरी को बरन को अभिलाष मन में लाय
राजकुल को नागदत्त कुमार पहुँच्यो आय।
और आए नंद अर्जुन, दोउ परम कुलीन,
सकल युवकन के शिरोमणि समरकला प्रवीन।
अंत कंथक नाम चपल तुरंग पै असवार,
लखि अपरिचित भी जो हिहनात बारंबार,
आय पहुँच्यो चट तहाँ सिद्धार्थ राजकुमार
चकित चख सों प्रजागण दिशि लखत, करत विचार-
भूपतिन सों भिन्न इनको खान पान निवास,
दु:ख सुख में करत एक समान रोदन हास।
अंत मंजु यशोधरा की ओर हेरि कुमार,
विहँसि खैंची पाट की बागडोर सहित संभार,
कूदि कंथक पीठ तें आयो अवनि पै फेरि,
भुज उठाय विशाल या विधि कह्यो सब को टेरि-
'योग्य नहिं या रत्न के जो योग्य सब सों नाहिं।
आय ठाढ़ो हौं बरन की चाह धारि मन माहिं।
कियो अनुचित आज साहस व्यर्थ हम यह धाय
सिद्ध याको करै अब प्रतिपक्षिगण सब आय।'
धनुर्विद्या की परीक्षा हित प्रचारयो नंद।
जाय राख्यौ लक्ष्य षट् गो दूर पै सानंद।
वीर अर्जुन ने धारयो निज लक्ष्य षट् गो दूर,
नागदत्त सगर्व बढ़िगो आठ गो भरपूर।
पै कुँवर सिद्धार्थ ने आदेश दियो सुनाय-
'धारो मेरो लक्ष्य दस गो दूर ह्याँ ते जाय।'
गयो एती दूर पै धरि लक्ष्य सो जब जाय
दर्शकन को एक कौड़ी सो परयो दरसाय।
खैंचि शर तब छाँड़ि बेध्यो लक्ष्य नंद संभारि
वीर अर्जुन हू निसानो लियो अपनो मारि।
नागदत्त अचूक शर सों लक्ष्य कीनो पार।
चकित जनसमुदाय कीनी 'धन्य धन्य' पुकार।
पै कुमारि यशोधरा यह लखि लियो मन मारि,
चकित नयनन पै लियो निज ऐंचि अंचल डारि
लखै जामें नाहिं सो तिन लोचनन सों और
विफल अपने कुँवर को शर होत कहुँ तिहि ठौर।
जाय तिनको धनुष लीनो हाथ राजकुमार,
कसी जामें ताँत, चाँदी की बँधयो दृढ़ तार,
सकत जाको तानि आंगुर चार सोई वीर
जासु बाहु विशाल में अति होय बल गंभीर।
बिहँसि तीर चढ़ाय खैंचि डोर कुँवर प्रवीन
मिलीं धनु की कोटि दोउ औ मूठ कर की पीन।
दियो यों कहि फेकि वाको दूर कुँवर उठाय-
'खेलिबे को धनुष यह तो दियो मोहिं थमाय।
प्रेम परखन योग्य नहिं यह, लखत सकल समाज।
शाक्य अधिपति योग्य धनुष न कहा कोउ पै आज?
एक बोल्यो 'सिंहहनु को धनुष है पृथु एक,
धारो मंदिर माहि कब सों कोउ न जानत नेक,
सकत नाहिं चढ़ाय जाकी कोउ पतिंचा तानि,
जो चढ़ै तो सकत वाको नाहिं कोउ संधानि।
'वेगि लाओ ताहि' बोल्यो कुँवर तब हरषाय
लोग लाए जाय सो प्राचीन धनुष उठाय।
वज्रनिर्मित, कनकबेलिनखचित, अति गुरुभार
चापि घुटनन पै लियो बल ऑंकि तासु कुमार।
कह्यो पुनि 'लै याहि बेध्यो लक्ष्य तो टुक जाय'।
पै सक्यो लै ताहि कोऊ नेकु नाहिं नवाय।
कुँवर उठि तब सहज झुकी को दंड दियो लचाय,
डोर की लै फाँस दीनी कोटि बीच चढ़ाय,
शिंजिनी पुनि खैंचि कीनी अति कठिन टंकार
भयो कंपित पवन, पूज्यो घोर रवपुर पार।
हहरि निर्बल लोग पूछयो 'शब्द यह किहि ओर?'
कह्यो सब 'यह सिंहहनु के धनुष को रव घोर।
हैं चढ़ायो जाहि अबहीं भूप को सुत धीर,
जात है अब लक्ष्य बेधन, लगी है अति भीर'।
साधि शर संधानि छाँड़यो जबै राजकुमार
पवन चीरत चल्यो, कीनो भेदि लक्ष्यहिं पार।
थम्यो नहिं शर गयो सनसन बढ़त आगे दूर
दृष्टि काहू की नहीं पहुँची जहाँ भरपूर।
नागदत्त पुनि खंग चलावन की ठहराई।
तालदु्रम दस ऑंगुर मोटो दियो गिराई।
अर्जुन खंभो द्वादश ऑंगुर मोटो बरु जब
पंद्रह ऑंगुर विटप छिन्न करि दिया नंद तब।
रहे तहाँ द्वै विटप खड़े ऐसे जुरि संगहि।
चमकायो करवाल कुँवर कर में अपने गहि।
दोऊ यों बेलाग उड़े एकहि प्रहार लहि
ज्यों के त्यों ते खड़े जहाँ के तहाँ गए रहि।
हरषि पुकारयो नंद 'धार बहँकी कुमार की'।
काँपी मन में कुँवरि देखि यह बात हार की।
मरुत देव यह चरित रहे अवलोकत वा छन।
दक्षिण दिशि सों प्रेरि बहायो मंद समीरन।
हरे भरे ते ऊँचे दोऊ ताल मनोहर
तुरत गिरे अरराय आय नीचे धारती पर।
फेरि तीखे तुरग चारों ने बढ़ाए जोर,
तीन फेरो कियो वा मैदान के सब ओर।
गयो कंथक दूर बढ़ि पाछे सबन को नाय
वेग ऐसो तासु जौ लौं फेन मुँह सों आय।
गिरै धारती पै, उड़ै सो बीस लट्ठ प्रमान।
नंद बोल्यो 'हमहुँ जीतैं पाय अश्व समान।
बिना फेरो तुरग कोऊ छोरि लायो जाय,
फेरि देखौ कौन वाको सकै वश में लाय'
सीकड़न सों बंधों लाए एक अश्व विशाल,
जो निशीथ समान कारो, नयन जासु कराल,
झारि केसर रह्यो जो फरकाय नथुने दोउ
पीठ सों नहिं जासु कबहूँ लगन पायो कोउ।
चढ़यौ वापै नंद कैसहु गयो सो जब छेंकि
दोउ पग सों भयो ठाढ़ो दियो वाको फेंकि
रह्यो अर्जुन ही जम्यो कछु काल आसन मारि,
दियो चाबुक पीठ पै कसि बाग को झटकारि।
रोष औ भय सों भड़कि भाग्यो तुरग झुकि झुकि,
बहँकि कै फेरो लगायो खेत में वा घूमि।
किंतु खीस निकासि सहसा फिरयो काँधी मारि,
एड़ सों अर्जुन दबायो, दियो ताकि ढारि।
अश्वपाल अनेक एते माहिं पहुँचे आय,
बाँधि लीनो वाहि तुरतै लोह सीकड़ नाय।
कह्यो सब 'या भूत ढिग नहिं उचित कुँवरहिं जान,
हृदय ऑंधी सरिस जाको रुधिर अनल समान।'
कह्यो किंतु कुमार 'खोलौ अबै सीकड़ जाय,
देहु केसर तासु मेरे हाथ नेकु थमाय'।
थामि केसर कुँवर पुनि कछु मंद शब्द उचारि
दियो माथे पै तुरग के दाहिनो कर धारि।
कंठ को गहि पानि फेरयो पीठ लौं लै जाय।
चकित भे सब लोग लखि जब अश्व सीस नवाय
भयो ठाढ़ो सहमि के चुपचाप तहँ बस मानि,
मनो बंदन करन लाग्यो परम प्रभु पहिचानि।
नाहिं डोल्यो हिल्यो जा छन कुँवर भो असवार
चल्यो सीधो एड़ औ बगडोर के अनुसार।
उठे लोग पुकारि 'बस, अब! इन कुमारन माहिं
है कुँवर सिद्धार्थ सब सों श्रेष्ठ संशय नाहिं'।
विवाह
सुप्रबुद्ध अति है प्रसन्न लखि कौतुक सारे
बोले 'तुम, हे कुँवर! रहे हम सब को प्यारे
सब सों बढ़ि तुम कढ़ौ रही यह चाह हमारी।
कौन शक्ति लहि कियो आज यह अचरज भारी?
कहत सबै तुम रहत रंग में भूले अपने,
फूलन पै फैलाय पाँव देखत हौ सपने।
यह अद्भुत पुरुषार्थ कहाँ तें तुम में आयो
तिनसों बढ़ि जो अपनो सारो समय बितायो
रणखेतन के बीच और आखेट वनन में,
सकल जगत् के व्यवहारन में कुशल जनन में?'
पिता को निदेश पाय सुंदरी कुमारी उठी,
लीने जयमाल दोउ हाथ में सजाय कै।
कंचनकलित पाटसारी खैंचि आनन पै,
घूँघट बढ़ाय चली मंद पग नाय कै।
डोलति समाज बीच पहुँची ता ठौर जहाँ,
सोहत सिद्धार्थ छटा दिव्य छहराय कै।
ठाढ़ो है समीप जाके अश्व चुपचाप सब
चौकड़ी भुलाय, कारे कंठहि नवाय कै।
कुँवर के पास जाय आनन उघारयो वाने
जापै अनुराग के उमंग की प्रभा छई।
कंठ बीच डारी जयमाल झुकि छुयो पद,
पुलकित गात बोली भाव सो भरी भई।
'फेरो मेरी ओर दीठि नेकु तो, कुमार प्यारे!
मैं तो सब भाँति सों तिहारी आज ह्नै गई'।
प्रमुदित लोग भए देखि उन दोउन को
जात कर बीच कर धारे प्रीति सों नईड्ड
बहुत दिनन में भए बुद्ध सिद्धार्थ कुँवर जब
विनती करि यह मर्म जाय तिनसों बूझयो सब-
कनकखचित सो चित्रित सारी क्यों कुमारि धारि
चली हृदय में गर्व औ अनुराग इतो भरि?
बोले जगदाराधय 'विदित तब पूरो नाहीं
रह्यो हमें यह, रही धारणा कछु मन माहीं।
जन्म मरण को चक्र रहत है नाहिं कबहुँ थिर,
विगत वस्तु औ भाव, भूत जीवन प्रगटत फिर।
आवति अब सुधा मोंहि वर्ष बीते हैं लाखन
रह्यो बाघ मैं हिमगिरि के इक विपिन बीच घन।
क्षुधित स्ववर्गिन संग फिरौं मैं बन बन धावत।
कुश के झापस बीच बैठि नित घात लगावत
गैयन पै तिन जे कारे दृग चौंकि उठावैं,
मृत्यु निकट जो चरत चलि आपहि आवैं।
कबहुँ तारकित गगन तरे खोजौं भख उत इत।
सूँघत घूमौं पंथ मनुज मृग गंधा लहन हित।
संगी मेरे मिलै मोहिं जो बन के भीतर
अथवा निचुलन सों छाए मृदु सरित पुलिन पर
तिनमें बाघिनि एक वर्ग में सब सों सुंदरि,
ताहि लहन हित बन के सारे बाघ गए लरि।
चामीकर सो चर्म तासु जापै बहु धारी,
- कछु वैसोई जैसी गोपा की सो सारी।
भयो युद्ध घमसान दंत नख सों वा वन में,
घावन सों बहि चल्यो रक्त तब सबके तन में।
खड़ी नीम तर सुंदरि बाघिनि सो सब निरखति
विकट प्रणय हित जासु मच्यो सो क्रूर कांड अति।
बड़ी चाह सों आई कूदति मरे नेरे,
रुचि सों लगी चाटन हाँफत तन को मेरे।
चली संग लै मोहिं गर्व सों सो पुनि गरजति
तिन सब बाघन बीच कढ़ति जिनको मारयो हति।
यों मेरे संग प्रेमगर्व सों वनहिं सिधाई।
जन्म मरण को चक्र रहत घूमत या, भाई!'
या भाँति सुंदरी कुँवरि को लहि कुँवर मन आनंद छायो,
शुभ लग्न उत्तम धारि गई जब मेष को दिनकर भयो।
सब ब्याह के सुप्रबुद्ध के घर साज बाज रचे गए,
छायो गयो मंडप कलित, तोरण रुचिर बंधिगे नए।
अब द्वार पै सब होत मंगलचार नाना भाँति हैं,
दरसति भीर अपार औ गज बाजि की बहु पाँति हैं।
लै खील फेंकति हैं अटारिन पै चढ़ी पुर नागरी,
कल कंठ सों जिनके कढ़ै धुनि परम कोमल रस भरी।
मन मुदित वर कन्या वरासन पै विराजत आय हैं
मधुपर्क, कंगन आदि की सब रीति जाति पुराय हैं।
औ ग्रंथिबंधन भाँवरी के होत पूर्ण विधन हैं
ऋषि मंत्र बैठे पढ़त हैं, सब विप्र पावत दान हैं।
जब ह्नै गई सब रीति कन्या को पिता तब आय कै
भरि नीर नयनन में कह्यो 'हे कुँवर! हित चित लायकै।
टुक राखियो यापै दया जो अब तिहारी है भई'
दुलहिन विदा ह्नै अंत सज्जित राजमंदिर में गई।
रंगभवन विहार
रहत प्रेमहिं छायो नवल दंपति माहिं
प्रेम ही पै पै भरोसो कियो भूपति नाहिं।
दई आज्ञा रचन की इक प्रेम कारागार
अति मनोहर दिव्य औ रमणीय रुचिर अपार।
कुँवर को विश्रामवन सो बन्यो अति अभिराम
नाहिं वसुधा बीच और विचित्र वैसो धाम।
हर्म्य सीमा बीच सोहत हरो भरो पहार,
बहति जाके तरे निर्मल रोहिणी की धार।
उतरि कलकल सहित सरि हिमशैलतट सों आय
जाति है निज भेंट गंगतरंग दिशि लै धाय।
लसत दक्षिण ओर हैं वट सघन, साल रसाल
झपसि जिनपै रह्यो कुसुमित मालती को जाल।
धाम को वा रहत न्यारे किए ते बिलगाय
जगत् सों सब जहाँ एती हाय हाय सुनाय।
कबहुँ आवत नगर कलकल करत सीमा पार,
दूर सों पै लगत प्रिय सों ज्यों भ्रमरगुंजार।
खड़ो उत्तर ओर हिमगिरि को अमल प्राकार
नील नभ के बीच निखरो धावल मालाकार।
विदित वसुधा बीच जो अद्भुत अगम्य अपार,
जासु विपुल अधित्यका और उठे विकट कगार,
शृंग तुंग तुषार मंडित, वक्ष विशद विशाल,
लहलहे अति ढार औ बहु दरी, खोह कराल
जात मानव ध्यान लै ऊँचे चढ़ाय चढ़ाय
अमर धाम तकाय राखत सुरन बीच रमाय!
निर्झरन सों खचित औ घन आवरण सा छाय
श्वेत हिम तर रही काननराजि कहुँ लहराय।
परत नीचे चीड़ अर्जुन, देवदार अपार।
गरज चीतन की परै सुनि, करिन को चिक्कार।
कहुँ चटानन पै चढ़े वनमेष हैं मिमियात।
मारि कै किलकार ऊपर गरुड़ हैं मँड़रात।
और नीचे हरो पटपर दूर लौं दरसाय,
देववेदिन तर बिछायो मनौ आसन लाय।
सोधि इनके सामने समथल पहाड़ी एक
स्थापकन मिलि दिव्य मंडप खड़े किए अनेक।
उठत ऊँचे धौरहर नहिं नेकु लागी बेर।
और प्रशस्त अलिंद सुंदर खिंचि गए चौफेर।
खचित चकरी धारन पै हैं चरित बहु प्राचीन।
कतहुँ राधाकृष्ण विहरत गोपिकन में लीन।
द्रौपदी को चीर खैंचत कहुँ दुशासन राय।
कहुँ रहे हनुमान सिय सों पिय सँदेश सुनाय।
मुख्य तोरणद्वार ऊपर वक्त्राटुँडही साजि
रहै वैभव बुद्धिदायक श्रीगणेश विराजि।
जाय प्रांगण और उपवन बीच पथ के पार।
विमल बादर1 को मिलै इक और भीतर द्वार।
1. एक प्रकार का संगमरमर जिस पर बादल की सी धारियाँ पड़ी होती हैं।
लसत मर्मर चौखटे पर नील प्रस्तर भार।
लगे चंदन के सुचित्रित अति विचित्र किवार।
मिलैं आगे बृहत् मंडप, कुंज शीतल धाम।
बनीं सीढ़ी, गली, जाली कटी अति अभिराम।
खड़े अगणित खंभ, चित्रित छत रही छवि छाय।
फटिक कुंडन सों फुहारे छुटत झरी लगाय।
लसत इंदीवर तथा अरविंदजाल प्रसार,
हरित, रक्त, सुवर्णमय जहँ मीन करत विहार।
कहूँ अनेक विशालदृग मृग बसि निकुंजन माहिं।
टुँगत पाटल के कुसुमदल, करत कछु भय नाहिं।
कतहूँ ऊँचे ताड़ ऊपर फरफरात विहंग,
इंद्रधनु सम पंख जिनके दिव्य रंग विरंग।
नील धूम कपोत छज्जन तर सुनहरे जाय।
अति सुरक्षित सुघर अपने नीड़ लिए बनाय।
शुचि खडंज़न पै फिरैं कहूँ मोर पूँछ पसारि।
बैठि उज्ज्वल छीर सम बक रहे तिन्हैं निहारि।
एक फल सों दूसरे पै जाय झूलत कीर।
फिरैं मुनियाँ चुहचुहाती खिले फूलन तीर।
शांति औ सुख सों बसैं सब जीव मिलि वा धाम।
लेति जाली बीच निर्भय छिपकली बसि घाम।
हाथ सों लै जाति भोजन गिलहरी झटकारि।
केतकी तर बसत कारो नाग फेंटी मारि।
कतहुँ बसि कस्तूरि मृग हैं करत विविध विहार।
वायसन की बोल पै कपि करत कहँ किलकार।
रहत सुंदरि सहचरिन सों भरो सो रसधाम।
लसति सुखमा बीच आनन की छटा अभिराम।
बोलि मधुरै बैन सेवा में रहैं सब लीन,
सजैं सुख के साज छनछन सुरुचि सहित नवीन।
कुँवर को सुख लखि सखी ते, मुदित मोद निहारि।
गर्व बस आदेश पालन को सकैं जिय धारि।
विविध सुख के बीज जीवन यों बिहात लखाय
पुष्पहास विलास के बिच रमति ज्यों सरि जाय।
मोहनी सी रहति मायाभवन में वा छाय,
रहत भूलो मन, परत दिन राति नाहिं जाय।
लसत गुप्तगृह इन भवनन के भीतर जाई,
मनमोहन हित शिल्प जहाँ सब शक्ति लगाई।
प्रांगण विस्तृत परत प्रथम मर्मर को सुंदर
ऊपर नीलो गगन, मध्य में लसत विमल सर।
मर्मर के सोपान सुभग चारों दिशि सोहत
पच्चीकारी रंग रंग की लखि मन मोहत।
जहाँ ग्रीष्म में जातहि ऐसो ताप जात हरि
परसे निर्मल ज्यों तुषार पै पाँव रहे परि।
नित्य गवाक्षन सों ह्नै कै मृदु रविकर आवैं,
ढारि स्वर्ण की धार रुचिर आभा फैलावें।
जब वा रुचिर विलासभवन के भीतर आवै
प्रखर दिवस हू प्रेम छाकि संध्या ह्नै जावै
रंगभवन सो परत द्वार के भीतर सुंदर,
सकल जगत् के अचरज को आगार मनोहर।
अगरघटित दीपक सुंगधामय बरत सुहावै,
जासु अमल मृदु ज्योति झरोखन सो कढ़ि आवै।
तनी चाँदनी के बूटे चमकैं मनभावन
परे कनक पर्यंक बीच गुलगुले बिछावन।
कनक कलित पट सुंदर द्वारन पै लटकाए,
सुमुखिन भीतर लेन हेतु जो जात उठाए।
उज्ज्वलता, मृदुता प्रभात संध्या की सब छिन
छाई तहँ लखि परति, जानि नहिं जात राति दिन।
लगे रहत पकवान विविध, नित कढ़ति बीन धुनि।
कंद मूल फल धारे रहत डलियन में चुनि चुनि।
हिम सों शीतल किए मधुर रस धारे सजाई।
कठिन युक्ति सों बनी रसीली सजी मिठाई।
नित रहति सेवा में लगी तहँ सहचरी बहु कामिनी,
सुकुमारि कारी भौंहवारी, काम की सहगामिनी।
जब नींद में झपि नयन लागत कुँवर के अलसाय कै,
निहराय बीजन करति कोमल कर सरोज हिलाय कै।
जगि जात जब पुनि तासु मनहिं रिझाय कै बिलमावती।
मुसुकाय, रस के गीत मधुरे गाय नाच दिखावती।
झनकाय घुँघरि बैठि बाहु उठाय भाव बतावतीं।
वीणा मृदंग उठाय कोउ चुपचाप साज मिलावतीं।
नित अगर, धूप कपूर सों उठि धूम छावत घनो।
बगराय केशकलाप बासति कामिनी तहँ आपनो
मृदु अंग लाय उशीर चंदन उत्तरीय सजाय कै,
रसबस कुमार यशोधरा के संग बैठत आय कै।
जरा, मरण, दु:ख, रोग, क्लेश को वा थल माहीं
कोऊ कबहूँ नाम लेन पावत है नाहीं।
यदि कोऊ वा रस समाज में होय खिन्न मन,
परै नृत्य में मंद चरण वा धीमी चितवन
तुरतहि सो वा स्वर्गधाम सों जाय निकारी,
जासों दु:ख लखि तासु न होवै कुँवर दुखारी।
नियत नारि बहु दंड देन हित तिनको हेरी
जो कोउ चर्चा करै कतहुँ दुखमय जग केरी,
जहाँ रोग, भय, शोक और पीड़ा हैं छाई,
बहु विलाप सुनि परत चिता दहकति धुधुआई।
गनो जात अपराधार् नत्ताकिन को यह भारी।
वेणीबंधन छूटि परै जो केश बिगारी।
नित उठि तोरे जात कुसुम कुम्हिलाने सारे,
औ सब सूखे पात जात करि चुनि चुनि न्यारे।
या प्रकार सब बुरे दृश्य नित जात दुराए।
बार बार यों कहत भूप मन आस बँधाए-
'तिन बातन सों दूर कुँवर यदि युवा बितावैं
उदासीनता मानुस के मन में जो लावैं,
कर्मरेख की खोटी छाया अवसिहि टरिहैं,
राजश्री धारि सकल भूमि सो शासन करिहैं,
ताहि देखिहौं सकल भूपतिन सों मैं भारी
छावत अपनी विमल कीर्ति बसुधा में सारी।
प्रेम पाहरू जहाँ, भोग के बंधन भारी,
तिन सुख कारागारन के चहुँ ओर अगारी
उठवाई नृप ऊँची चकरी चारदिवारी।
जामें फाटक लग्यो एक पीतर को भारी।
मनुज पचासक लगैं सकैं तो ताहि फिराई,
आधो योजन शब्द खुलन को परै सुनाई
ताके भीतर और लगे फाटक द्वै दृढ़तर।
लाँघै तीनौं द्वार होय तब कोऊ बाहर।
बेड़े सीकल लगे फाटकन माँहि भिड़ाई।
एक एक पै गई कड़ी चौकी बैठाई।
कह्यो रक्षकन सों 'नृप हम आदेश देत अब,
ह्नैहै जो प्रतिकूल प्राण खोवौगे तुम सब।
देखौ कोऊ फाटक बाहर होन न पावै
चाहै होवै कुँवर, सोउ नहिं कहुँ कढ़ि जावै'।
बुद्धचरित
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