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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7

बुद्धचरित -3

तृतीय सर्ग

 

बसत बुद्ध भगवान् सरस सुखमय थल माहीं

जरा, मरण, दु:ख रोग क्लेश कछु जानत नाहीं।

कबहुँ कबहुँ आभास मात्र इनको सो पावत,

जैसे सुख की नींद कोउ जो सोवत आवत

कबहुँ कबहुँ सो स्वप्न माहिं छानत है सागर,

लहत कूल जगि, भार लादि कछु अपने मन पर।

कबहुँ ऐसो होत रहत सोयो कुमारवर

सिर धारि प्यारी यशोधरा के विमल वक्ष पर,

मृदु कर मंद डुलाय करति सो मुख पै बीजन

उठत चौंकि चिल्लाय 'जगत् मम! हे व्याकुल जन!

जानत हौं, हौं सुनत सबै पहुँच्यौ मैं, भाई?'

मुख पै ताके दिव्य ज्योति तब परति लखाई,

करुणा की मृदु छाया पुनि दरसति तहँ छाई।

अति सशंकदृग यशोधरा पूछै अकुलाई

कौन कष्ट है प्राणनाथ! कछु जात न जानो'

परै कुँवर उठि, लखै प्रिया को मुख कुम्हिलानो।

ऑंसु सुखावन हेतु तासु पुनि लागै बिहँसन।

वीणा को सुर छेड़न को देवै अनुशासन।

 

धारी रही खिरकी पै वीणा एक उतानी,

परसि प्रभंजन ताहि करत क्रीड़ा मनमानी।

तारन को झननाय निकासत अति अटपट धुनि,

रहे पास जो तिनको केवल परी सोइ सुनि।

किंतु कुँवर सिद्धार्थ सुन्यो देवन को गावत।

तिनके ये सब गीत कान में परे यथावत-

हम हैं वाहि पवन की बानी जो इत उत नित धावै,

हा हा करति विराम हेतु पै कतहुँ विराम न पावै

जैसो पवन गुनौ वैसोई जीवन प्राणिन केरो,

हाहाकार उपासन को है झंझावत घनेरो।

 

आए हौ किहि हेतु कहाँ ते परत न तुम्हैं जनाई,

प्रगटत है यह जीवन कित तें और जात कहँ धाई।

जैसे तुम तैसे हम सबहू जीव शून्य सों आवैं

इन परिवर्तनमय क्लेशन में सुख हम कछू न पावैं।

 

औ परिवर्तन रहित भोग में तुमहूँ को सुख नाहीं।

यदि होती थिर प्रीति कछू सुख कहते हम ता माहीं।

पै जीवनगति और पवनगति एकहीं सी हम पावैं।

हैं सब वस्तु क्षणिक स्वर सम जो तारन सों छिड़ि आवैं।

 

हे मायासुत! छानत घूमैं हम वसुधा यह सारी,

यातें हम इन तारन पै हैं रहे उसास निकारी।

देश देश में केती बाधा विपति विलोकत आवैं।

केते कर मलि मलि पछितावैं, नयनन नीर बहावैं।

 

पै उपहासजनक ही केवल लगै विलाप हमारो।

जीवन को ते अति प्रिय मानैं जो असार है सारो।

यह दु:ख हरिबो मनौ टिकैबो घन तर्जनि दिखराई,

अथवा  बहति अपार धार को गहिबो कर फैलाई।

 

पै तुम त्राण हेतु हौ आए, कारज तव नियरानो।

विकल जगत् है जोहत तुमको त्रिविधा ताप में सानो।

भरमत हैं भवचक्र बीच जड़ अंधा जीव ये सारे।

उठौ, उठौ, मायासुत! बनिहै नाहिं बिना उद्धारे।

 

हम हैं वाहि पवन की बानी जो कहूँ थिर नाहीं।

घूमौ तुमहुँ, कुँवर! खोजन हित निज विराम जग माहीं।

छाँड़ौ प्रेमजाल प्रेमिन हित, दु:ख मन में अब लाऔ।

वैभव तजौ, विषाद विलोकौ औ निस्तार बताओ।

 

भरि उसास इन तारन पै हम तव समीप दु:ख रोवैं।

अब लौं तुम नहिं जानत जग में केतो दु:ख सब ढोवैं।

लखि तुमको उपहास करत हम जात, गुनौ चित लाई

धोखे की यह छाया है तुम जामें रहे भुलाई।

 

ता पाछे भइ साँझ, कुँवर बैठयो आसन पर

रस समाज के बीच धारे प्रिय गोपा को कर।

गोधूली की बेला काटन के हित ता छन

लागी दासी एक कहानी कहन पुरातन,

जामें चर्चा प्रेम और उड़ते तुरंग की,

तथा दूर देशन की बातें रंग रंग की,

जहाँ बसत हैं पीत वर्ण के लोग लुगाई,

रजनीमुख लखि सिंधु माहिं रवि रहत समाई।

कहत कुँवर 'हे चित्रो! तू सब कथा सुनाई

फेरि पवन के गीत आज मेरे मन लाई।

देहु, प्रिये! तुम याको मुक्ताहार उतारी।

अहह! परी है एती विस्तृत वसुधा भारी!

ह्नैहैं ऐसे देश जहाँ रवि बूड़त है नित।

ह्नैहैं कोटिन जीव और जैसे हम सब इत।

सुखी न या संसार बीच ह्नैहैं बहुतेरे,

कछु सहाय करि सकैं तिन्हैं यदि पावैं हेरे।

कबहुँ कबहुँ हौं निरखत ही रहि जात प्रभाकर

कढ़ि पूरब सों बढ़त जबै सो स्वर्णमार्ग पर।

सोचौं मैं वे कैसे हैं उदयाचल प्रानी।

प्रथम करैं जो ताके किरनन की अगवानी।

अंक बीच बसि कबहुँ कबहुँ, हे प्रिये! तिहारे

अस्त होत रवि ओर रहौं निरखत मन मारे

अरुण प्रतीची ओर जान हित छटपटात मन,

सोचौं कैसे अस्ताचल के बसनहार जन

ह्नैहैं जग में परे न जाने केते प्रानी

हमें चाहिए प्रेम करन जिनसों हित ठानी।

परति व्यथा मोहिं जानि आज ऐसी कछु भारी

सकत न तव मृदु अधार जाहिं चुंबन सों टारी।

चित्रो! तूने बहु देशन की बात सुनाई,

उड़नहार वे अश्व कहाँ यह देहि बताई।

देहुँ भवन यह, पावौ जो तुरंग सो बाँको

घूमत तापै फिरौ लखौं विस्तार धारा को।

इन गरुड़न को राज कहूँ मोसो है भारी

उड़त फिरत जो सदा गगन में पंख पसारी

मनमानों नित जहाँ चहैं ते घूमैं घामैं।

यदि मेरे हू पंख कहँ वैसे ही जामैं

उड़ि उड़ि छानौं हिमगिरि के वे शिखर उच्चतर,

बसौं जहाँ रविकिरन ललाई लसति तुहिन पर।

बैठो बैठो तहाँ लखौ मैं वसुधा सारी,

अपने चारों ओर दूर लौ दीठि पसारी।

अबलौं क्यों नहिं कढ़यो देश देखन हित सारे?

फाटक बाहर कहाँ कहाँ है परत हमारे?

 

उत्तर दीनो एक 'प्रथम नगरी तव भारी,

ऊँचे मंदिर, बाग और आमन की बारी।

आगे तिनके परैं खेत सुंदर औ समथल,

पुनि नारे, मैदान तथा कोसन के जंगल।

ताके आगे बिंबसार को 'राजकुँवरवर!

है अपार यह धारा बसत जामें कोटिन नर।'

कह्यो कुँवर 'है ठीक! कहौ छंदकहि बुलाई,

लावै रथ सो जोति कालि, देखौ पुर जाई।'

 

 

उद्बोधन

जाय दूत तब बात कही नृप सों यह सारी-

'महाराज! है तव कुमार की इच्छा भारी,

बाहर के प्राणिन को देखै, मन बहलावै।

कहत कालि मधयाह्न समय रथ जोतो जावै।'

 

 

बोल्यो भूप बिचारत, 'हाँ! अब तो है अवसर,

किंतु फिरै यह डौंड़ी सारे आज नगर भर,

हाट बाट सब सजैं, रहै ना कछू अरुचिकर

अंधा, पंगु, कृश, जराजीर्ण जन कढ़ैं न बाहर।'

 

जात मार्ग सब झारि और छिरको जल छन छन।

धारैं कुल बधू दधि दूर्वा, रोचन निज द्वारन।

घर घर बंदनवार बँधो, लहि रंग सजीले

भीतिन पर के चित्र लगत चटकीले गीले।

 

पेड़न पै फहरात केतु नाना रँगवारे।

भयो रुचिर शृंगार मंदिरन में है सारे।

सूर्य्य आदि देवन की प्रतिमा गई सँवारी।

अमरावति सी होय रही नगरी सो सारी।

घोषक डौंड़ी पीटी कह्यो चारौ दिशि टेरी

'सुनौ सकल पुरवासी! यह आज्ञा नृप केरी-

आज अमंगल दृश्य न कोऊ सम्मुख आवैं,

अंधा, पंगु, कृश, जराजीर्ण ना निकसन पावैं।

दाह हेतु शव कोउ न कढ़ै निशि लौं बाहर।

है निदेश यह महाराज का, सुनैं सकल नर।'

 

गृह सँवारे सकल, शोभा नगर बीच अपार

बैठि चित्रित चारु रथ पै चढ़यो राजकुमार।

चपल धावल तुरंग की जोड़ी नधी दरसाय

रह्यो मंडप झलकि रथ को प्रखर रविकर पाय।

 

बनै देखत ही सकल पुरजनन को उल्लास,

करैं अभिवादन कुँवर को आय ते जब पास।

भयो प्रमुदित कुँवर लखि सो नरसमूह अपार।

हँसत यों सब लोग जीवन है मनौ सुखसार।

 

कुँवर बोल्यो 'मोहिं चाहत लोग सबै लखात

होत जीव सुशील ये जो नृप कहे नहिं जात।

मगन हैं भगिनी हमारी लगी उद्यम माहिं।

कियो इनको कौन हित हम नेकु जानत नाहिं।

 

लखौ, बालक रह्यो यह मो पै सुमन बगराय,

लेहु रथ पै याहि मेरे संग क्यों न बिठाय?

अहा! कैसो सुखद है सब भाँति करिबो राज,

पाय ऐसो देश सुंदर और लोक समाज।

 

और है आनंद कैसी सहज सी इक बात,

मग्न जो आनंद में बस मोहिं लखि ये भ्रात।

बहुत सी हैं वस्तु ऐसी हमै चाहिए नाहिं

पाय तिनको होयँ जो ये तुष्ट निज मन माहिं।

 

रथ बढ़ाओ, लखै, छंदक! आज हम दै ध्यान

और सुखमय जगत् यह, नहि रह्यो जाको ज्ञान।

 

फाटकन सों होत आगे चल्यो रथ गंभीर।

सोहती दोउ ओर पथ के लगी भारी भीर।

करत अपने कुँवर को मिलि सकल जयजयकार।

हैं लखात प्रसन्नमुख सब नृपवचन अनुसार।

 

किंतु वाही समय निकस्यो झोपड़ी सों आय।

एक जर्जर वृद्ध पथ पै धारत डगमग पाय।

फटे मैले चीथरे तन पै लपेटे घोर,

जाति काहू की न भूलिहु दृष्टि जाकी ओर।

 

त्वचा झुर्री भरी सूखी खाल सी दरसाति,

झूलि पंजर पै रही पलहीन काहू भाँति।

न ई वाकी पीठ है दबि बहु दिनन के भार।

धाँसी ऑंखिन सों बहै कीचड़ तथा जलधार।

 

हिलति रहि रहि दाढ़ जामें एकहू नहिं दाँत।

धूम और उछाह एतो देखि देखि सकात।

लिए लाठी एक निज कंकाल कर में छीन

टेकिबे हित अंग जर्जर और शक्तिविहीन

 

दूसरो कर धारे पसुरिन पै हृदय के पास,

कढ़ै भारी कष्ट सों रहि रहि जहाँ सों साँस।

क्षीण स्वर सों कहत है 'दाता! सदा जय होय।

देहु कछु, मरि जायहौं अब और हौं दिन दोय।'

 

खड़ो हाथ पसारि, कफ सों गयो कंठ रुँधाय।

कठिन पीड़ा सों कहरि पुनि कह्यो 'कछु मिलि जाय।

किन्तु ताहि ढकेलि पथ सों कह्यो लोग रिसाय

'भाग ह्याँ सों, नाहिं देखत कुँवर हैं रहे आय?'

 

कहत कुँवर पुकारि 'हैं हैं! रहन क्यों नहिं देत?

फेरि बूझत सारथी सों करत कर संकेत-

'कहा है यह? देखिबे में मनुज सो दरसात,

विकृत, दीन, मलीन, छीन कराल औ नतगात।

 

कबहुँ जनमत कहा ऐसे हू मनुज संसार?

अर्थ याको कहा जो यह कहत 'हौं दिन चार?'

नाहिं भोजन मिलत याको हाड़ हाड़ लखाय।

विपद या पै कौन सी है परी ऐसी आय?'

 

दियो उत्तर सारथी तब 'सुनौ, राजकुमार,

वृद्ध नर यह और नहिं कछु, जाहि जीवन भार,

रही चालिस वर्ष पहिले जासु सूधी पीठ,

रहे अंग सुडौल सब औ रही निर्मल दीठ।

 

लियो जीवन को सबै रस चूसि तस्कर काल,

हरयो बल सब, फेरि मति गति करयो याहि बिहाल।

भयो जीवनदीप याको निपट तैलविहीन,

रहि गयो नहिं सार कछु, अब भई ज्योति मलीन।

 

 

रही जो लौ शेष, ताको नहिं ठिकानो ठौर,

झलमलाति बुझायबे हित चार दिन लौं और।

जरा ऐसी वस्तु है, पै, हे कुँवर मतिमान!

देत क्यों या बात पै तुम व्यर्थ अपनो ध्यान?'

 

कुँवर पूछयो 'कहा, याही गति सबै की होय,

मिलत अथवा कहूँ ऐसो एक सौ में कोय?'

कहयो छंदक 'सबै याहि दशा में दरसायँ,

जियत एते दिनन लौं जो जगत् में रहि जायँ।'

 

फेरि बूझत कुँवर 'जो एते दिनन पर्यंत

रहैं जीवित हमहुँ ह्नै हैं कहा ऐसे अंत?

जियति अस्सी वर्ष लौं जो चली गोपा जाय,

जरा वाहू को कहा यों घेरि लै है आय?'

 

और गंगा गौतमी जो सखी परम प्रवीन,

होयहैं वेहू कहा या भाँति जर्जर छीन?'

दियो उत्तर सारथी 'हाँ, अवसि, हे नरराय!'

कह्यो राजकुमार 'बस, अब देहु रथहि घुमाय।

 

चलौ घर की ओर लै अब मोहिं बेगि सुजान!

आजु देख्यों रह्यो जाको नाहिं कछु अनुमान।'

 

आयो फिरि सिद्धार्थ कुँवर निज भवन ताहि छन

सोचत यह सब उदासीन, अत्यंत खिन्नमन।

गए विविध पकवान और फल सम्मुख लाए,

छूयो नहिं, नहिं लख्यो, रह्यो निज सीस नवाए,

निपुणर् नत्ताकी बिलमावन की रही जतन करि

किंतु रह्यो सो मौन, कछू सोचत उसास भरि।

 

यशोधरा दुखभरी परी चरनन पै आई,

रोवति पूछयो 'नाथ रहै क्यों सुख नहिं पाई?'

कह्यो कुँवर 'सुख लहौं सोइ खटकत मनमाहीं।

ह्नै हैं याको अंत अवसि, कछु संशय नाहीं।

ह्नै हैं बूढे, यशोधरे! हम तुम दिन पाई,

नमित गात, रसरूप रहित, सब शक्ति गँवाई,

भुजपासन बँधि रहैं, अधार सों अधार मिलाई

घुसिहै काल कराल तऊ निज घात लगाई।

मम उमंग औ तव यौवनश्री हरिहै ऐसे

असित निशा हरि रही अरुण द्युति नग की जैसे

यहै जानि मम हृदय बीच शंका है छाई।

सोचौं, कैसो है कराल यह काल कसाई!

कैसे यासों यौवनरस हम सकैं बचाई?'

नाहिं कुँवर को चैन, बैठि सब रैन बिताई।

 

देख्यो शुद्धोधन महिपाल

वा रैनस्वप्न ह्नै अति विहाल।

लखि परयो इंद्र को धवज विशाल,

अति शुभ्र, खचित रविकिरणजाल।

 

उठि तुरत प्रभंजन प्रबल फेरि

कियो टूक टूक ताको उधोरि।

ताके पाछे तहँ रहे छाय

चहुँ दिशि सों छायापुरुष आय

लै टूक केतु के करत रोर।

गे नगरद्वार के पूर्व ओर।

अब स्वप्न दूसरो है दिखात,

दक्षिण दिशि सों दस द्विरद जात।

पगभार देत भूतल कँपाय,

निज रजत शुंड इत उत घुमाय।

सबके आगे जो गज अनूप।

    पै सुत अपनो लस्यो भूप।

 

अब स्वप्न तीसरे में लखात

रथ प्रखर एक अति जगमगात,

हैं खैंचत जाको तुरग चार

अति प्रबल वेगि जिनको अपार

नथुनन सों निकसत धूमखंड,

मुख अनल फेन उगिलत प्रचंड।

चौथे सपने में चक्र एक

लखि परम फिरत नहिं थमत नेक।

दमकति कंचन की नाभि जाति,

आरन पै मणिद्युति जगमगाति।

हैं लिखे नेमि की पूरि कोर

बहु मंत्र अलौकिक चहुँ ओर।

पुनि लखत स्वप्न पंचम नरेश,

नग और नगर बिच जो प्रदेश

तहँ वज्रदंड लै कै कुमार

करि रह्यो दुंदुभी पै प्रहार।

घननाद सरिस धुनि कढ़ति घोर,

घहराती गगन में चहुँ ओर।

अब छठों स्वप्न यों लखत भूप

पुर बीच धौरहर है अनूप,

नभ के ऊपर जो उठत जात,

घनमंडित मंडपसिर लखात

बसि जापै दोऊ कर उठाय

रह्यो कुँवर रत्न इत उत लुटाय।

मणि मानिक बरसति आय आय,

सिगरो जग लूटत धाय धाय।

पै स्वप्न सातवें में सुनात

अतिर् आत्ता नाद दिशि दिशि समात।

छ: पुरुष ढाँपि मुख लखि प्रभात।

करि करि विलाप हैं भगे जात।

 

भूपति के मन इन स्वप्नन की शंका छाई,

जिनको फल नहिं वाको कोऊ सक्यो बताई।

बोले नृप ह्नै खिन्न 'विपति मेरे घर आवै,

पै कोऊ नहिं मर्म स्वप्न को मोहिं बतावै

ह्नै उदास सब लोग चले सोचत मन में तब

कैसे होय विचार भूप के स्वप्नन को अब।

परे द्वार पै जात वृद्ध ऋषि एक दिखाई

धारे शुचि मृगचर्म, सीस सित जटा बढ़ाई

कह्यो सबन को टेरि 'भूप के ढिग हम आए,

स्वप्न को फल चलौ देत, हम अबै बताए।'

गयो भूप के पास, चित्त, दै सुन्यौ स्वप्न सब,

कह्यो विनय के सहित 'सुनौ, हे महाराज! अब।

धन्य धन्य यह धाम जहाँ सों निश्चय कढ़िहै

भुवनव्यापिनी प्रभा प्रभाकर सों जो बढ़िहै।

सात स्वप्न जो तुम्हें, नृपतिवर! परे लखाई,

हैं वे मंगल सात जगत् में जैहैं छाई।

इंद्रधवजा लखि परी तुम्हैं जो पहले भारी

टूक टूक ह्नै गिरति, लुटति पुनि छन में सारी,

सुरन जनायो स्वप्न लाय सो केतुपतन को

नए धर्म को उदय, अंत प्राचीन मतन को।

एक दशा नहिं रहति होयँ चाहै सुर वा नर,

वाही भाँति विहात कल्प ज्यों बीतत वत्सर।

भूमि कँपावनहार परे लखि जो दस वारण

गुनौ तिन्हैं दस शील जिन्हैं अब करिकै धारण

राजपाट, घर बार छाँड़िहै कुँवर तिहारो

सत्य मार्ग को खोलि कँपैहै यह जग सारो।

रथ के घोड़े चार रहे ज्वाला जो उगिलत

ऋद्धिपाद ते चार कुँवर करि जिन्हैं हस्तगत

सारे संशय अंधकार को काटि बहैहै,

अतिशय प्रखर प्रकाश ज्ञान को ताहि सुझैहै।

स्वर्णनाभि युत चक्र लख्यो जो अति उजियारो

धर्मचक्र सो जाहि फिरैहै कुँवर तिहारो।

औ दुंदुभी विशाल कुँवर जो रह्यो बजावत,

जाको घोर निनाद गयो लोकन में यावत्

सो गर्जन गंभीर विमल उपदेशन केरो,

जिन्हैं सुनैहै कुँवर करत देशन में फेरो।

और धौरहर उठत परयो लखि जो नभ ऊपर

बुद्धशास्त्र सो, जो चलि जैहै बढ़त निरंतर।

गिरत रत्न अनमोल शिखर सों जो देखे पुनि

सुर- नर वाँछित तिन्हैं धर्म उपदेश लेहु गुनि।

रोवत जो मुख ढाँपि अंत छह पुरुष लखाने

रहे पूर्व आचार्य, जात जो अब लौ माने।

दिव्य ज्ञान और अटल वाद सों कुँवर तिहारो

तिन्हैं सुझैहै हेरि- हेरि तिनको भ्रम सारो।

महाराज! आनंद करौ, तव सुत की संपति

सकल भुवन के राजपाट सों है बढ़िकै अति।

तन पै वास कषाह कुँवर जो धारण करिहै

स्वर्ण खचित वस्त्रान सों सो अनमोल ठहरिहै।

यहै स्वप्न को सार, नृपति! अब बिदा माँगिहैं,

बीते वासर सात बात ये घटन लागिहैं,

यों कहि ऋषि भू परसि दंडवत करत सिधाए,

धन दै दूतन हाथ ताहि नृप देन पठाए।

किंतु आय तिन कह्यो 'सोम के मंदिर माहीं

जात लख्यो हम ताहि, गए जब तहँ कोउ नाहीं

केवल कौशिक एक मिल्यो तहँ पंख हिलावत।'

कबहुँ देवगण भूतल पै याही विधि आवत।

चकित भयो अति समाचार जब नृप यह पायो,

अति उदास ह्नै मंत्रिन को आदेश सुनायो-

'नए भोग रचि और कुँवर को रखौ लुभाई।

दूनी चौकी जाय फाटकन पै बैठाई।'

 

होनी कैसे टरै? कुँवर के मन यह आई,

फाटक बाहर और लखैं जग की गति जाई,

देखैं जीवन को प्रवाह जो अति सुहात है,

काल मरुस्थल जाय, हाय! पै सो बिलात है।

बिनती किन्हीं जाय पिता सों यों कुमार तब-

'चहौं देखिबो पुर जैसो है वैसोई अब।

वा दिन तो अनुशासन फेरयो पुर में सारे

रहैं न दु:ख के दृश्य मार्ग में कोउ हमारे,

मम प्रसन्नता हेतु बनैं बरबस प्रसन्न सब,

हाट बाट में होत रहैं बहु मंगल उत्सव।

पै मैं लीनो जानि नित्य को नहिं सो जीवन

देख्यो जो मैं अपने चारों ओर मुदित मन

यदि मेरो संबंध राज्य सों तुम्हरे नाते

जानन चहिए गली गली की मोकों बातें,

तिन दीनन की दशा चूर जो हैं श्रम माहीं,

रहन सहन तिन लोगन की जो नरपति नाहीं।

आज्ञा मोको मिलै जाहुँ मैं छ िर्वेंश गहि।

मुख तिनको या बार निरखि मैं फिरौ मोद लहि!

यदि ह्नै हों नहिं सुखी बाढ़िहै अनुभव जानो

मिलै मोहिं आदेश फिरौ पुर में मनमानो।

सुनि इन बातन को महीप बोले मंत्रिन प्रति-

'संभव है या बार कुँवर की फिरै कछू मति।

करि प्रबंधा देहु नगर देखै सो जाई।

कैसो वाको चित्त सुनाओ मोको आई।'

 

दूसरे दिन कढ़े छंदक साथ राजकुमार,

चले बाहर फाटकन के नृप वचन अनुसार।

बन्यो बणिक कुमार, छंदक बन्यो तासु मुनीम।

पाँव प्यादे चले दोऊ लखत भीर असीम।

 

जात पुरजन में मिले नहिं तिन्हैं चीन्हत कोउ,

बात सुख और दु:ख की वे जात देखत दोउ।

गली चित्रित लखि परै औ उठत कलरव घोर।

बणिक बैठे धारि मसाले अन्न चारों ओर।

 

हाथ में लै वस्तु गाहक मोल करत लखात-

'दाम एतो नाहिं एतो लेहु, मानौ बात।'

'हटौ छाँड़ौ राह' ऐसी टेर कतहुँ सुनाति,

मरमराती बोझ सों है बैलगाड़ी जाति।

 

कूप सों भरि कलश जातीं गृहवधू सिर धारि,

एक कर सों गोद में निज चपल शिशुहिं सँभारि।

है मिठाई की दुकानन पै भँवर की भीर।

तंतुवाय पसारि तानो बिनत हैं कहँ चीर।

 

कतहुँ धुनियाँ धुनत रूई ताँत को झननाय।

चलति चक्की कतहुँ, कूकर खड़े पूँछ हिलाय।

कतहुँ शिल्पी हैं बनावत कवच और करवाल।

बैठि कतहुँ लुहार पीटत फावड़ो करि लाल।

 

 

बैठि गुरु के सामने कहुँ अर्ध्दचंद्राकार

शिष्य सीखत वेद हैं करि मंत्र को उच्चार।

कुसुम, आल, मजीठ सों रँगि, दोऊ कर सों गारि

धूप में रँगहार गीले वसन रहे पसारि।

 

जात सैनिक ढाल बाँधो, खंग को खड़काय।

ऊँटहारो ऊँट पै कहुँ बैठि झूमत जाय।

विप्र तेजस्वी मिलैं औ धीर क्षत्रिय वीर,

कठिन श्रम में हैं लगे कहुँ शूद्र श्यामशरीर।

 

कहुँ सपेरा बैठि पथ के तीर करत पुकार,

भाँति भाँति भुजंग के धारि अंग जंगम हार।

श्वेत कौड़िन सों टँको महुवर बजाय बजाय।

रह्यो कारे काल को फुफकार सहित नचाय।

 

पालकी लै वधू लावन भीर सजि कै जाति,

संग सिंघे औ नगारे, चपल कोतल पाँति।

कहुँ देवल पै बधू कोउ फूल माल चढ़ाय।

फिरैं पिय परदेश सों यह रही जाय मनाय।

 

पीटि पीतर कहुँ ठठेरे रहे 'ठन ठन ठानि

ढारि लोटे औ कटोरे, धारत दीवट आनि,

बढ़े आगे जात दोऊ फाटकन के पार

धारि तरंगिनी- तीर- पथ जहँ नगर को प्राकार।

 

मारग के इक ओर परयो सुनि यह आरत स्वर

'हाय! उठाओ, मर्यो पहुँचिहौं मैं कैसे घर?'

एक अभागो जीव कुँवर को परयो लखाई,

परयो धूरि में घोर व्याधि सों अति दु:ख पाई।

सारो तन छत विछत, स्वेद छायो ललाट पर,

रह्यो ओंठ चढ़ि दुसह व्यथा सो, मीजत है कर

कढ़ी परति हैं ऑंखि, वेदना कठिन सहत है कर

हाँफि हाँफि कर टेकि भूमि पै उठन चहत है।

आधो उठि इक बार पर्यो गिरि काँपत थर थर,

बेबस उठयो पुकारि 'धारौ कोऊ मेरो कर।'

दौरि परयो सिद्धार्थ, बाँह गहि दियो सहारो,

निरखि नेह सों तासु सीस निज उरु पै धारो।

पूछन लाग्यो 'बंधु! दशा है कहा तिहारी?

सकत न क्यों उठि? कहौ, कौन सो दु:ख है भारी।

छंदक! क्यों यह परो कराहत बिलबिलात है?

हाँफि हाँफि कछु कहि उसास क्यों लेत जात है?'

कह्यो सारथी 'सुनौ, कुँवर! यह व्याधिग्रस्त नर,

या के तन के तत्व बिलग ह्नै रहे परस्पर।

सोइ रक्त जो रह्यो अंग में बल बगरावत

भीतर भीतर मथत सोइ अब तनहिं तपावत।

भरि उछाह सो कबहुँ हृदय जो उमगत रहि रहि

धारकत फूटि ढोल सरिस सोई अब दु:ख सहि।

खसी धनुष की डोर सरिस नस नस भई ढीली।

बूतो तन को गयो, नई ग्रीवा गरबीली

जीवन को सौंदर्य और सुख गयो बिलाई।

है यह रोगी जाहि पीर अति रही सताई।

देखौ, कैसो रहि रहि कै ऐंठत सारो तन!

कढ़ी परति हैं ऑंखि, पीर सों टीसत दाँतन।

चाहत मरिबो किंतु मृत्यु तौ लौं नहिं ऐहै

जौ लौं तन में भोग व्याधि अपनो न पुरैहै।

जोड़ जोड़ के बंधन सारे जब उखारिहै,

नाड़िन सों सब प्राणशक्ति क्रमश: निकारिहै,

दैहै याको छाँड़ि, जाय परिहै कहुँ अनतहि

दूर रहौ, हे कुँवर! व्याधि कहुँ लगै न आपहि।'

लिए रह्यो पै ताहि, कुँवर बोल्यो यह बानी-

'औरहु ह्नै है परे अनेकन ऐसे प्रानी।

बोलौ साँची, कहा याहि गति सब ही पैहैं।

है यह जैसो आज कबहुँ हमहूँ ह्नै जैहैं?

कह्यो सारथी 'व्याधि कबहुँ हैं अवसि सतावति,

काहु न काहू रूप माहिं है सब पै आवति।

मर्ूच्छा औ उन्माद, बात, पित, कफ, जूड़ी, जर,

नाना विधि व्रण, अतीसार औ यकृत, जलंधार

भोगत हैं सब, बचत कतहुँ है कोऊ नाहीं।

रक्त मांस के जीव जहाँ लौं हैं जग माहीं।

बूझत फेरि कुमार 'मोंहि यह देहु बताई,

परत न आवत जानि कहा ये दु:खु सब, भाई!'

 

छंदक बोल्यो 'दबे पाँव ये ऐसे आवत

ज्यों विषधर चुपचाप आय निज दाँत धाँसावत,

अथवा झाड़िन बीच बाघ ज्यों लुको रहत है,

झटपत है पुनि घात पाय जब जहाँ चहत है,

अथवा जैसे वज्र परत नभ सों घहराई,

दलत काहु को और काहु को जात बचाई।'

कह्यो कुँवर 'तब तो सब को सब घरी रहत भय?'

सारथि सीस हिलाय कह्यो 'यामें का संशय?'

कह्यो कुँवर 'तब तौ कोऊ यह सकत नाहिं कहि

सोवत सुख सों आज जागिहैं कालिहु ऐसहि'

'कोउ कहत यों नाहिं, कुँवर! या जग के माहीं,

छन में ह्नै हैं कहा कोउ यह जानत नाहीं।''

कह्यो कुँवर 'है अंत कहा सब दु:खन केरो

यहै जरा, तन जर्जर औ मन शिथिल घनेरो?'

उत्तर दियो सुजान सारथी 'हाँ, कृपालुवर!

इते दिनन लौं जीवत जो रहि जायँ नारि नर।'

'पै न सकै यदि भोगि ताप कोउ एतो दु:सह,

अथवा भोगत भोगत होवै है जैसो यह,

रहै साँस ही चलत, जाय सो दिन दिन थाको,

अति जर्जर ह्नै जाय, कहा पुनि ह्नै है ताको

'मरि जैहै सो, कुँवर!' कह्यो छंदक नि:संशय

'काहू विधि, कोउ घरी मृत्यु आवति है निश्चय।'

 

देखी दीठि उठाय कुँवर पुनि भीर अगारी,

रोवति पीटति जाति नदी की ओर सिधारी।

'राम नाम है सत्य' सबै हैं रहि रहि टेरत,

सीस नवाये जात, कतहुँ इत उत नहिं हेरत।

पाछे विलपत जात मृतक के घर के प्रानी,

इष्ट मित्रा औ बंधु दु:ख सम उर में आनी।

चले जात तिन बीच चार जन पाँव बढ़ाए,

हरे हरे बाँसन की अर्थी काँधा उठाए,

जापै काठ समान परो दरसात मृतक नर-

कोख सटी पथराई ऑंखैं, वदन भयंकर।

'राम नाम' करि लोग ताहि लै गए नदी पर

जहाँ चिता है सजी राखि जल सों कछु अंतर।

दीनों तापै पारि काठ ऊपर सों डारी

कैसी सुख की नींद इतै सोवत नर नारी!

शीत घाम को क्लेश नाहिं पुनि तिन्हैं जगावत।

चारि कोन पै, लखौ, आगि हैं लोग लगावत।

धीरे धीरे दहकि लई सो शव को घेरी,

लाँबी जीभ लफाय मांस चाटत चहुँ फेरी।

सनसनात है चर्म सीझी करकत हैं बंधन।

परो पातरो धूम, राख ह्नै छितरानो तन!

केवल भूरी भस्म बीच अब जात निहारे

श्वेत अस्थि के खंड- शेष नरतनु के सारे।

 

कह्यो कुँवर पुनि 'कहा यहै सब की गति ह्नै है।'

छंदक बोल्यो 'अंत यहै सब पै बनि ऐहै।

इतो अल्प अवशेष चिता पै रह्यो जासु जरि

भूखे काक अघात न त्यागत 'काँव काँव' करि

खात पियत औ हँसत रह्यो जीवन अनुरागो

झोंको याही बीच वात को तन में लागो,

अथवा ठोकर लगी, ताल में जाय तरायो,

सर्प डस्यो कहुँ आय, कुपित अरि अस्त्रा धाँसायो,

सीत समानी अंग, ईंट सिर पै भहरानी

भयो प्राण को अंत, मरयो तुरतहि सो प्रानी।

पुनि ताको नहिं क्षुधा दु:ख औ सुख जग माहीं।

मुखचुंबन औ अनलताप ताको कछु नाहिं।

नहि चिर्रायन गंधा मांस की अपने सूँघत,

और न चंदन अगर चिता के ताको महकत।

स्वादज्ञान रसना सों वाके सबै गयो ढरि,

श्रवणशक्ति नसि गई, नयन की ज्योति गई हरि।

रही न देहहु, होय छार छन माहिं बिलानी।

जिनसों वाको नेह आज ते बिलपत प्रानी।

रक्त मांस के जीवन की सबकी गति याही,

ऊँच नीच औ भले बुरे सब मरत सदाही।

कहत शास्त्र मरि जीव फेर जनमत हैं जाई

नई देह धारि कहाँ कहाँ, को सकै बताई।'

 

नीर भरे निज नयन कुँवर नभ ओर उठाई,

दिव्य दया सों दीस दृष्टि इत उत दौराई।

नभ सों भू लौं, भू सों नभ लौं रह्यो निहारी,

मानो तकी दृष्टि सृष्टि छानति है सारी

पैबे हित सो झलक गई जो कहूँ दूर परि,

जासों दु:ख निदान परत  लखि एक एक करि।

प्रेमदाह सों दमक्यो आनन आशापूरो,

उठयो पुकारि अधीर 'अहो! जग दु:ख सों झूरो,

रक्त मांस के जीव ज्ञात अज्ञातहु सारे!

काल क्लेश के जालि बीच जो परे बेचारे,

देखत हौं या मर्त्यलोक की पीड़ा भारी

औ असारता याके सुख वैभव की सारी,

नीकी तें नीकी याकी वस्तुन को धोखो

और बुरी तें बुरी वस्तु को ताप अनोखो।

सुख पाछे दु:ख औ वियोग संयोग अनंतर

यौवन पाछे जरा, जन्म पै मरण लहत नर।

मरिबे पै पुनि कैसे कैसे जन्म न जाने,

राखत यों यह चक्र नाधि सब जीव भुलाने

भरमावत को तिनको झूठे आनंद माँहीं

औ अनेक संतापन में जो झूठे नाहीं।

मोहूँ को यह भ्रांतिजाल चाह्यो विलमावन।

जासों जीवन मोहिं परयो लखि परम सुहावन।

लग्यो मोहिं जीवन प्रवाह वा सरि सम सुंदर

रविरंजित सुख- शांति- सहित जो बहति निरंतर।

पै अब देखौं वाकी धारा के हिलोर सब

हरे कछारन सों उछरत हैं जात एक ढब

केवल निर्मल नीर आपनो अंत गिरावन

खारे कड़घए सागर में जो परम भयावन।

गयो सरकि जो परो रह्यो परदो ऑंखिन पर

वैसे ही हैं हमहुँ एक जैसे हैं सब नर,

अपने अपने देवन को जो परे पुकारत,

किंतु सुनत जब नाहिं कोउ तब हिय में हारत।

ह्नै है किंतु उपाय अवसि कोऊ जो हेरो

तिनके, मेरे और सबन के दु:खन केरो।

चाहत आप सहाय देव सामर्थ्यहीन जब

कहा सकै करि दीन दुखिन की सुनि पुकार तब?

होय मोहिं सामर्थ्य बचावन की कछु जाको

जान देहुँ मैं यों पुकारिबो विफल न ताको।

है कैसी यह बात रचत ईश्वर जग सारो

पै राखत है सदा दु:ख में ताहि, निहारो!

सर्वशक्तिमत् ह्नै राखत यदि सृष्टि दुखारी

करुणामय सो नाहिं और ना है सुखकारी।

और नाहिं यदि सर्वशक्तिमत् ईश्वर नाहीं।

बस, छंदक, बस! बहुत लख्यों मैं एते माहीं।'

 

सुनी नृपति यह बात, घोर चिंता चित छाई,

दोहरी, तिहरी फाटक पै चौकी बैठाई।

बोल्यो 'कोऊ जान न भीतर बाहर पावैं

स्वप्न घटन के दिन न बीति सब जौ लौं जावैं।'

 


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