हिंदी का रचना संसार | ||||||||||||||||||||||||||
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क |
|
||||||||||||||||||||||||||
रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 7
बुद्धचरित
-6
तपशर्चय्या जहँ बोधि ज्योति प्रकाश भइ थल विलोकन चाहिए तो चलि 'सहेाराम' सों वायव्य दिशि को जाइए। करि पार गंग कछार पाँव पहार पैं धारिए वही जासों निकसि नीरंजना की पातरी धारा बही।
अब होत ताके तीर चकरे पात के महुअन तरे, हिंगोंट औ अंकोट की झड़ीन को मारग धारे, पटपरन में कढ़ि जाइए जहँ फल्गु फोरि नगावली चपती चटानन बीच पहुँचति है गया की शुभथली।
बलुए पहारन और टीलन सो जड़ो सुषमा भरो उरुविल्व को ऊसर कटीलो दूर लौं फैलो परो। लहरात ताके छोर पै बन परत एक लखाय है अति लहलहे तृण सों रही तल भूमि जाकी छाय है।
जुरि कतहूँ सोतन को विमल जल लसत धीर गभीर है, जहँ अरुण, नील सरोज ढिग वक सारसन की भीर है। कछु दूर पै दरसात ताड़न बीच छप्पर फूस के, जहँ कृषक 'सेनग्राम' के सुखनींद सोवत हैं थके।
जहँ विजन वन के बीच बसि प्रभु ध्यान धारि सोचत सदा प्रारब्धा की गति अटपटी औ मनुज की सब आपदा, परिणाम जीवन के जतन को, कर्म की बढ़ती लड़ी, आगम निगम सिद्धांत सब औ पशुन की पीड़ा बड़ी, वा शून्य को सब भेद जहँ सों कढ़त सब दरसात हैं, पुनि भेद वा तम को जहाँ सब अंत में चलि जात हैं। या भाँति दोउ अव्यक्त बिच यह व्यक्त जीवन ढरत है ज्यों मेघ सों लै मेघ लौं नभ इंद्रधनु लखि परत है,
नीहार सों औ धाम सो जुरि जासु तन बनि जात है जो विविध रंग दिखाय कै पुनि शून्य बीच बिलात है, पुखराज, मरकत, नीलमणि, मानिक छटा छहराय कै, जो छीन छन छन होत अंत समात है कहुँ जाय कै।
यों मास पै चलि मास जात लखात प्रभु वन में जमे, चिंतन करत सब तत्व को निज ध्यान में ऐसे रमे, सुधि रहति भोजन की न, उठि अपराह्न में देखैं तहीं रीतो परो है पात्र वामें एक हू कन है नहीं।
बिनि खात बनफल जाहि बलिमुख देत डार हिलाय हैं औ हरित शुक जो लाल ठोरन मारि देत गिराय हैं। द्युति मंद मुख की परि गई, सब अंग चिंता सों दहे, बत्तीस लक्षण मिटि गए जो बुद्ध के तन पै रहे।
झूरे झरत जो पात तहँ जहँ बुद्ध तप में चूर हैं, ऋतुराज के ते लहलहेपन सों न एते दूर हैं जेते भए प्रभु भिन्न हैं निज रूप सों वा पाछिले निज राज के जब वे रहे युवराज यौवन सों खिले।
घोर तप सों छीन ह्नै प्रभु एक दिन मुरछाय गिरे धारती पै मृतक से सकल चेत विहाय। जानि परति न साँस औ ना रक्त को संचार। परी पीरी देह निश्चल परो राजकुमार।
कढ़यो वा मग सों गड़रियो एक वाही काल, लख्यो सो सिद्धार्थ को तहँ परो विकल विहाल, मुँदे दोऊ नयन, पीरा अधार पै दरसाति, धूप सिर पै परि रही मधयाह्न की अति ताति।
देखि यह सो हरी जामुनडार तहँ बहु लाय, गाँछि तिनको छाय मुख पै छाँह कीनी आय। दूर सों मुख में दियो दुहि उष्ण दूध सकात- शूद्र कैसे करै साहस छुवन को शुचि गात?
तुरत जामुन डार पनपी नयो जीवन पाय, उठीं कोमल दलन सों गुछि, फूल फल सों छाय, मनो चिकने पाट को है तनो चित्र वितान, रँग बिरंगी झालरन सों सजो एक समान।
करी बहु अजपाल पूजा देव गुनि कोउ ताहि। स्वस्थ ह्नै उठि कह्यो प्रभु 'दे दूध लोटे माहिं।' कह्यो सो कर जोरि 'कैसे देहुँ कृपानिधन? शूद्र हौं मैं अधाम, देखत आप हैं, भगवान्!'
कह्यो जगदाराधय 'कैसी कहत हौ यह बात? याचना औ दया नाते जीव सब हैं भ्रात। वर्णभेद न रक्त में है बहत एकहि रंग, अश्रु में नहिं जाति, खारो ढरत एकहि ढंग
नाहिं जनमत कोउ दीने तिलक अपने भाल, रहत काँधो पै जनेऊ नाहिं जनमत काल। करत जो सत्कर्म साँचो सोइ द्विज जग माहिं, करत जो दुष्कर्म सो है वृषल, संशय नाहिं।
देहि भैया! दूध मो को त्यागि भेद विचार, सफल ह्नै हौं, अवसि तेरो होयहै उपकार।' सुनत प्रभु के बचन ऐसे तुरत सो अजपाल, दियो लोटो टारि प्रभु पै, भयो परम निहाल।
तपशर्चय्या त्याग नूपुर बजाय देवदासी इंद्रमंदिर की जाति रहीं वाही मग मोद के प्रवाह बहि। संग में समाजी कोउ डारे गर ढोल, जासु में डरे पै मोरपंख मंडित मरोर लहि। धारे एक बाँसुरी सुरीली मृदु तान भरी, बीन तीन तार को चलो है एक हाथ गहि। उतसव माहिं काहू साज बाज साथ जात अटपट बातचीत ठमकत रहि रहि।
गोरे गोरे पाँयन सो कढ़ि रहि मंद मंद पायल औ घूँघरू की रसभरी झनकार। कर बीच कंकन औ कटि बीच किंकिनी हू खनकि उठति संग पूरो करि बार बार। धारि जो सितार हाथ पास चलो जात ऑंगुरी चलाय रह्यो झूमि झनकारि तार। तीर धारि तासु अलबेली मृदु तान छाँड़ि, गाय उठी गीत यह अंगगति अनुसार-
रखौ तुम ठीक बीन को तार। ना ऊँचो, ना नीचो होवै जमै रंग या बार। गाय रिझाय करैं अपने बस हम सिगरो संसार। बहुत कसे टुटि जात तार, लय उखरि जाति मझधार। ढीलो तार न बोल निकासत, रंग होत सब छार।
बाँसुरी औ बीन पै या भाँति सुंदरि गाय जाति वा वनखंड भीतर चूनरी फहराय, मनौ पंछी कोउ चित्रित पंख को फरकाय खोलि निज कल कंठ घाटिन बीच विचरत जाय।
रह्यो सुंदरि को न कछु या बात को अनुमान कान में वा सिद्ध के है परति ताकी तान मार्ग में अश्वत्थ तर जो बसत धारे ध्यान। किंतु पलक उघारि बोले बुद्ध सुनि सो गान- मूढ़ हू तें मूढ़ ते हैं सकत नर कछु जानि। सूक्ष्म जीवनतार को मैं रह्यो अतिशय तानि, समुझि यह संगीत की मृदु निकसिहै झनकार गूँजि करिहै जो जगत् में मनुज को उद्धार। सत्य अब जब लखि परत भइ नयनज्योति मलीन, अधिक बल जब चाहिए तब ह्नै रह्यो तन छीन। प्राप्त साधन जो मनुज को, रह्यो सोउ बहाय। जायहौं या भाँति मरि, कछु करि न सकिहौं, हाय!
सुजाता बसत रह्यो तहँ एक नदीतट पै भूस्वामी धर्मवान्, धनधन्यपूर्ण, सुकृति औ नामी, ढोर सहेन मूँड़ जाहि, जो न्यायी नायक, आसपास के दीन दुखिन को परम सहायक। 'सेन' तासु कुलनाम, ग्राम हू 'सेन' हि बोलत बसि सुख सों जहँ सो भरि भरि नित मूठी खोलत। रही सुजाता नारि तासु रुचि राखनहारी, रूपवती, गुणवती, सती, भोरी, सुकुमारी। मति गति गौरवभरी, दया दु:ख लखि दरसावति। सब सों मीठो बचन बोलि परितोष बढ़ावति। आनन पै आनंद, चाह चितवन में सोहति। नारिन में सो रत्न, शील सों जनमन मोहति। शांति सहित सुखधाम बीच बितवत दिन दोऊ, दु:ख यदि कोऊ रह्यो, यहै संतति नहिं कोऊ। करी सुजाता लक्ष्मी की पूजा बहु भाँती, नित्य सूर्य्य के मंदिर में सो उठि कै जाती। करि प्रदिक्षणा बार बार निज विनय सुनावति। धूप, गंधा दै फूल औ नैवेद्य चढ़ावति। एक बार बन बीच जाय कर जोरि मनायो- ''ह्नै है यदि, वनदेव! कहूँ मेरो मनभायौ यो या तरुवर आय फेरि निज सीस नवैहौं, कनक कटोरे माहिँ खीर अनमोल चढ़ैहौं।''
सफल कामना भई, भयो इक बालक सुन्दर। तीन मास को होत ताहि निकसी लै बाहर। चली मंद गति, भक्ति भरी, सामग्री साजे निर्जन वन की ओर जहाँ वनदेव विराजे। एक हाथ सों थामे सारी के अंचल तर बड़ी साध को प्यारो अपनो शिशु सो सुन्दर, दूजो कर मुरि उठयो सीस लौं, रह्यो सँभारी कनक कटोरिन सजी खीर जामें सो थारी।
दासी राधा गई रही पहिले सों वा थल वेदी झारि बहारि लीपि करिबे को निर्मल। दौरति आई लगी कहन ''है स्वामिनि मोरी! प्रगट भए वनदेव लेन पूजा यह तेरी। साक्षात् तहँ आय विराजत आसन मारे, ध्यान लाय, दोउ हाथ जानु के ऊपर धारे। दिव्य ज्योति दृग माहिं, अलौकिक तेज भाल पर भव्य भाव युत लसत सौम्य शुचि मूर्ति मनोहर। हे स्वामिनि! कलिकाल माहिं यों सम्मुख आई बड़े भाग्य सों देत देव प्रत्यक्ष दिखाई।'' गुनि ताको वनदेव दूर सों करि बहु फेरे, काँपति काँपति गई सुजाता ताके नेरे। करति दंडवत भूमि चूमि बोली यह बानी- 'हे वन के रखवार! देव, अति शुभ फल दानी! दर्शन दै ज्यों दया करी दासी पै भारी, पत्र पुष्प करि ग्रहण करौ प्रभु! मोहिं सुखारी' तव निमित्ता बहु जतनन सों यह खीर बनाई, दधि कपूर सम श्वेत आज प्रभु सम्मुख लाई।' कनक कटोरे माहिं खीर प्रभु ढिग सरकाई चंदन गंधा चढ़ाय, फूलमाला पहिराई। खान लगे भगवान् बचन मुख पै नहिं लाए, खड़ी सुजाता दूर भक्ति सों सीस नवाए। ऐसो गुण कछु रह्यो खीर में, खातहि वाके गई शक्ति प्रभु की बहुरी, वे सुख सों छाके। पूरो बल तन माहिं गयो पुनि ऐसो आई व्रत औ तप के दिवस स्वप्न से परे जनाई। तन में जब बल परयो चित्त हू लाग्यो फरकन, बढ़ि बहु विषयन ओर लग्यो छानत हित सरकन, जैसे पंछी थको मरुस्थल की रज छानत गिरत परत जल तीर आय सहसा बल आनत। ज्यों ज्यों प्रभु मुख कांति मनोहर बढ़ति जाति अति। त्यों त्यों औरहु खड़ी सुजाता है आराधाति। बोले प्रभु 'यह कौन पदारथ मो पै लाई? बोली सुनि यह बात सुजाता सीस नवाई- 'सौ गैयन को दूध प्रथम दुहवाय मँगायो, लै पचास धौरी गैयन को ताहि खवायो, तिनको लै मैं दूध खवायो पुनि पचीस चुनि, तिन पचीस को पय बारह को मैं दीनो पुनि, तिन बारह को दूध दियो पुनि सब गुन ऑंकी छ: गैयन को बीछि, रहीं जो सब में बाँकी। दुहि तिनको सो छीर ऑंच पै मृदु औटाई, तज, कपूर औ केसर सों विधि सहित बसाई, नए खेत सों बासमती चावर मँगवाई, एक एक कन बीनि धोय यह खीर बनाई। भक्ति भाव सों साँचे, प्रभु! मैं कीनो यह सब। करी मनौती रही होयहै मोहिं पुत्र जब तब या तरु तर आय चढ़ैहौं पूजा तेरी, नाथ दया सों सकल कामना पूजी मेरी।'
भुवन उबारनहार हाथ धारि शिशु के सिर पर बोले प्रभु 'सुख बढ़त तिहारो जाय निरंतर। परै न यह भवभार जानि या जीवन माहीं, सेवा तुमने करी, देव मैं कोऊ नाहीं। मैं हूँ भाई एक और जैसे सब तेरे, पहले राजकुमार रह्यो, अब डारत फेरे। निशि दिन खोजत फिरौं ज्योति जो कतहूँ जागति लहै कोउ जो ताहि, मिटै जग अंधकार अति। पैहौं मैं सो ज्योति होत आभास घनेरो, तू ने तन मन गिरत सँभारयो भगिनी! मेरो। अति पुनीत संजीवन पायस तू यह लाई, अपने जतनन ऐसी जीवनशक्ति जुटाई, बहु जीवन बिच होति गई जो बटुरति, बाढ़ति, लहत जन्म बहु गहत जात ज्यों जीव उच्च गति। जीवन में आनंद कहा साँचहु तू पावति? गृहसुख में जिन मग्न और कछु मनहिं न लावति?'
सुनि सुजाता दियो उत्तर 'सुनौ, हे भगवान्! नारि को यह हृदय छोटो, नाहिं जानत आन। नाहिं भीजति भूमि जेतो मेंह थोरो पाय नलिनपुट भरि जात है, लिखि उठत है लहराय चहौं बस सौभाग्यरवि की रहौं आभा हेरि अमल पतिमुख कमल में, मुसकान में शिशु केरि। यहै जीवन को हमारे, नाथ! है मधुकाल, मगन राखत मोहिं तो घरबार को जंजाल।
सुमिरि देवन उठति हौं नित उवत दिन, भगवान्! न्हाय धोय कराय पूजन देति हौं कछु दान। काज में लगि आप दासिन देति सकल लगाय। जात यों मधयाह्न ह्नै, पतिदेव मेरे आय
सीस मेरी जानु पै धारि परत पाँव पसारि, करौं बीजन पास बसि मुखचंद्र तासु निहारि। आय जब घर माहिं भोजन करन बैठत राति ठाढ़ि परसति ताहि व्यंजन लाय नाना भाँति।
रसप्रसंग उठाय बहु कछु बेर लौं बतराय फेरि सुख की नींद सोवति शिशुहि अंक बसाय। और सुख अब कौन चहिए मोहिं या जग माहिं? रही प्रभु की दया सों कछु कमी मोको नाहिं।
पुत्र दै निज पतिहिं अब मैं भई पूरनकाम, जासु कर को पिंड लहि सो भोगिहै सुरधाम। धर्मशास्त्र पुराण भाखत, हरत जे परपीर, पथिक छाया हित लगावत पेड़ जे पथतीर,
जे खनावत कूप, छाँड़त पुत्र जे कुल माहिं सुगति लहि ते जात उत्तम लोक, संशय नाहिं कह्यो ग्रंथन माहिं जो जो चलति हौं सो मानि, सकौं मैं तिन मुनिन सो बढ़ि बात कैसे जानि
होन सम्मुख रहे जिनके देवगण सब आय, गए जे बहु मंत्र और पुराण शास्त्र बनाय, धर्म को जे तत्व जानत रहे पूर्ण प्रकार, शांति को जिन मार्ग खोज्यो त्यागि विषय विकार?
बात मैं यह जानती सब काल में सब ठौर भलो को फल शुभ बुरे को अशुभ है, नहिं और लहत हैं फल मधुर नीके बीच को सब बोय औ विषैले बीज को फल अवसि कड़घवो होय।
लखत इत ही बैर, उपजत द्वेष सों जा भाँति, शील सों मृदु मित्राता औ धरौय्य सों शुचि शांति। जायहैं तन छाँड़ि जब तब कहा ह्नै है नाहिं भलो वाहू लोक में ज्यों होत है या माहिं?
होयहै बढ़ि कै कहूँ- ज्यों परत है जब खेत धन को कन एक, अंकुर फेंकि सहसन देत। सकल चंपक को सुनहरो वर्ण औ विस्तार रहत बिंदी सी कलिन में लुको पूर्ण प्रकार।
यहौ जानौं, परति ऐसी आपदा हैं आय, छूटि जब सब धीरता मुँह मोरि जाति पराय। जाय जैसे मरि कहूँ मम प्राणप्रिय यह लाल, दरकि मेरो हियो ह्नै है टूक द्वै तत्काल।
चाहिहौं तौ अवसि ही द्वै टूक सो ह्नै जाय, अंक में शिशु दाबि यह वा लोक जाहुँ सिधाय। बाट पति की रहौं तब लौं जोहती तहँ जाय अंत वाकी घरी जब लौं नाहिं पहुँचै आय। किंतु मेरे सामने परलोक जो पति जाय, चिता पै मैं चढ़ौं वाकौ सीस अंक बसाय। फूलि अंग समाहुँ ना जब अनल दहकै घोर, उठै कुंडल बाँधि, छावै धूम चारों ओर।
लिखी है यह बात, जो सहमरण करती वाम तासु पुण्यप्रभाव सों पति लहत है सुरधाम, संग ताके करत सुख सों तहाँ विविध विहार वर्ष एते कोटि ताके सीस जेते बार।
रहति मेरे हिये चिंता की न कोऊ बात, दिवस जीवन के सदा आनंद में चलि जाति। किंतु सुख में लीन मैं नहिं भूलि तिनको जाति पतित हैं, जे दीन हैं, दु:ख सहत जे दिन राति।
यहै चाहौं दया तिन पै करैं श्री भगवान्, भलौ जो बनि परत मोसों करति अपनी जान। चलति हौं मैं धर्म पै, विश्वास यह मन आनि। होयहै जो कछु भलोई, होयहै नहिं हानि।
कहत प्रभु 'सिखि सकल तोसों जो सिखावत आन को, कथत भोरी बात सों तेरी अधिक जो ज्ञान को। तू भली जो नाहिं जानति, मगन जीवन में रहै, धर्म अपनो जानि, बस तू और नहिं जानन चहै।
सहित परिजन छाँह में सुख की सदा फूलै फरै! सत्य की खर ज्योति कोमल पात पै या ना परै। बढ़त बीरो जाय यह बहु लोक बीच पसार कै! अंत काहू जन्म में कढ़ि जाय यह भव पार कै।
मोहिं पूजन तू चली, मैं तोहि पूजत हौं, अरी! धन्य तेरी हियो निर्मल! धन्य तव गति मतिभरी! बुद्धि लहि, अनजाने में शुभ पंथ तू दरसावती, ज्यों परेई प्रेम के वश नीड़ की दिशी धावती। होत तोहि विलोकि नर उद्धार की आशा सही, मूठ जीवन चक्र की लखि परति अपने हाथ ही। होय तव कल्याण सुख में रहैं तेरे दिन सने! करौं मैं निज काज पूरो करति ज्यों तू आपने,
चहत यह आसीस जाको देव तू जानति रही।' 'काज पूरो होय प्रभु को' सुनि सुजाता ने कही। शिशु बढ़ाए हाथ प्रभु की ओर हेरत चाव सों। करत बन्दन है मनो भगवान् को भरि भाव सों। बोधिद्रुम बल पाय पायस को उठे प्रभु डारि पग वा दिशि दिए जहँ लसत बोधिद्रुम मनोहर दूर लौं छाया किए, कल्पांत लौं जो रहत ठाढ़ो, कबहु नहिं मुरझात है, जो लहत पूजा लोक में चिरकाल लौं चलि जात है।
है होत आयो बुद्धगण को बोध याही के तरे। पहिचानि प्रभु तत्काल ताकौ ओर आपहि सों ढरे। सब लोक लोकन माहि मंगल मोद गान सुनात हैं। प्रभु आज चलि वा अक्षय तरु की ओर, देखौं, जात हैं।
तकि वा तरु की छाँह जात जहँ उनई डार विशाल। मंडप सम सजि रह्यो चिकनो चमकत चल- दल- जाल। प्रभु पयान सों पुलकित पूजन करति अवनि हरषाय चरणन तर बहु लहलहात तृण, कोमल कुसुम बिछाय। छाया करति डार झुकि बन की, मेघ गगन में छाय। पठवत वरुण वायु कमलन को गंधाभार लदवाय। मृग, बराह औ बाघ आदि सब वनपशु बैर बिसारि ठाढ़े जहँ तहँ चकित चाह भरि प्रभुमुख रहे निहारि।
फन उठाय नाचत उमंग भरि निकसि बिलन सों व्याल। जात पंख फरकाय संग बहुरंग विहंग निहाल। सावज डारि दियो निज मुख तें चील मारि किलकार। प्रभु दर्शन के हेतु गिलाई कूदति डारन डार। देखि गगन घनघटा मुदित ज्यों नाचत इत उत मोर। कोकिल कूजत, फिरत, परेवा प्रभु के चारों ओर। कीट पतंगहु परम मुदित लखि, नभ थल एक समान जिनके कान, सुनत ते सिगरे यह मृदु मंगलगान-
'हे भगवान्! तुम जग के साँचे मीत उबारनहारे। काम, क्रोध, मद, संशय, भय, भ्रम, सकल दमन करिडारे। विकल जीव कल्याण हेतु दै जीवन अपनो सारो जाव आज या बोधिद्रुम तर, प्रभु, हित होय हमारो। धारती बार बार आसीसति दबी भार सों भारी। तुम हौ बुद्ध, हरौगे सब दु:ख, जय जयमंगलकारी! जय जय जगदाराधय! हमारी करौ सहाय दुहाई! जुग जुग जाको जोहत आवत सो जतिनि अब आई।' मारविजय बैठे प्रभु वा रैन ध्यान धारि जाय विटप तर। किन्तु मुक्तिपथ बाधाक नर को मार भयंकर शोधि घरी चट पहुँचि गयो तहँ विघ्न करन को, जानि बुद्ध को करनहार निस्तार नरन को। तृष्णा, रति औ अरति आदि को आज्ञा कीनी, सेना अपनी छाँड़ि तामसी सारी दीनी। भय, विचिकित्सा, लोभ, अहंता, मक्ष आदि अरि, ईर्षा, इच्छा, काम, क्रोध सब संग दिए करि। प्रबल शत्रु ये प्रभुहि डिगावन हित बहुतेरे करत राति भर रहे विघ्न उत्पात घनेरे। ऑंधी लै घनघोर घटा कारी घहराई प्रबल तमीचर अपनी अनी घरी चारौं दिशि छाई। गर्जन तर्जन करति, मेदिनी कड़कि कँपावति, तमकि करति चकचौंधा चमाचम वज्र चलावति। कबहुँ कामिनी परम मनोहर रूप सजाई, चहति लुभावन मन भावन मृदु बैन सुनाई। डोलत धीर समीर सरस दल परसि सुहावन, लगत रसीले गीत कान में रस बरसावन। कबहुँ राजसुख विभव सामने ताके लावत। संशय कबहूँ लाय 'सत्य' को हीन दिखावत। दृश्य रूप में भईं किधौ ये बातें बाहर, कैधौ अनुभव कियो बुद्ध इनको अभ्यंतर, आपहि लेहु बिचारि, सकल हम कहि कछु नाहीं। लिखी बात हम, जैसी पाई पोथिन माहीं। चले साथी मार के दस महापातक घोर। प्रथम 'हम हम' करत पहुँच्यो 'आत्मवाद' कठोर, विश्व भर में रूप अपनो परत जाहि लखाय। चलै ताकी जो कहूँ यह सृष्टि ही नसि जाय।
आय बोल्यो ''बुद्ध हौ यदि करो तुम आनंद। जाय भटकन देहु औरन, फिरौ तुम स्वच्छंद। गुनौं तुम हौ तुमहि, उठि कै मिलौ देवन माहिं, अमर हैं, निर्द्वंद्व हैं, जे करत चिंता नाहिं।'' बुद्ध बोले ''कहत उत्तम जाहि तू, है नीच, स्वार्थ में रत होयँ जे बकु जाय तिनके बीच।''
पुनि 'विचिकित्सा' आई जो नहिं कछू सकारति। बोली प्रभु के कानन लगि हठि संशय डारति ''हैं असार सब वस्तु- सकल झूठो पसार है- औ असारता को तिनकी ज्ञानहु असार है। धावत है तू गहन आपनी केवल छाया। चल, ह्याँ ते उठ! 'सत्य' आदि सबही हैं माया। मानु न कछु, करु तिरस्कार, पथ है, यह बाँको। कैसो नर उद्धार और भवचक्र कहाँ को?'' बोले श्री भगवान् ''शत्रु तू रही सदा ही, हे विचिकित्से! काज यहाँ तेरो कछु नाहीं।'' 'शीलव्रतपरमार्ष' परम मायावी आयो, देश देश में जाने बहु पाखंड चलायो, कर्मकांड औ स्तवन माहिं जो नरन बझावत, स्वर्गधाम की कुंजी बाँधो फिरत दिखावत। बोल्यो प्रभु सों ''लुप्त कहा तू श्रुतिपथ करिहै? देवन को करि विदा यज्ञमंडपन उजरिहै? लोप धर्म को करन चहत तू बसि या आसन, याजक जासों पलत, चलत देशन को शासन'' बोले प्रभु ''तू कहत जाहि अनुसरन मोहिं है, क्षणभंगुर है रूप मात्र, नहिं विदित तोहि है? किंतु सत्य है नित्य, एकरस, अचल सनातन। अंधकार में भागु, न ह्याँ तू रहै एक छन।''
दर्प सहित कंदर्प चढ़यो पुनि प्रभु के ऊपर, जो सुरगण वश करत, बापुरो रहत कहाँ नर? हँसत कुसुम धनुशायक लै पहुँच्यो वा तरु तर, बेधात हिय विषविशिखहु सों बढ़ि जासु पंच शर। चहुँ ओर चढ़ीं पुनि चंद्रमुखी अति चोप सों चंचल नैन चलाय। रसरंगतरंग उठाय रहीं, मधुरो सुर साज के संग मिलाय। सुर सो सुनि मानहुँ, मोहित ह्नै रजनी थिर सी परती दरसाय, नभ में थमि तारक चंद रहे, नवनागरि गाय रहीं समझाय-
''धिक! खोय रह्यो निज जीवन तू तरुनीन को हास विलासविहाय यहि सों बड़िकै सुख और नहीं कोउ तीनहु लोकन माहिं लखाय, बिगसे नव पीन पयोधर को परसै सरसे रस सौरभ पाय, भरि भाव सों भामिनि भौहँ मरोरि, चितै, मुँह मोरि रहै मुसकाय।
कुछ ऐसी लुनाई लखाति लली ललनान के अंगन माहिं ललाम। कहि जाति न जो मन जाय ढरै उत आप उमंग भरो अभिराम। सुख जो यह भोगत हैं जग में तिनको यहि लोकहि में सुरधाम। यहि के हित सिद्ध सुजान अनेक सिझावत हैं तन आठहु याम।
फटकै दु:ख पास कहाँ जब कामिनि राखति है भुजपाश में लाय? यहि जीवन को सब सार हुलास उसास में दोउन के मिलि जाय। मृदु चुंबन पै इक चाह भरे सिगरो जग होत निछावर आय।'' यही भाँति अनेकन भाव बताय रहीं सब सुंदरि गाय रिझाय।
मद की दुति नैनन में दरसै, अधारान पै मंद लसै मुसकान। फिरि नाचत में सुठि अंग सुढार छपैं उधारैं ललचावत प्रान, खिलि कै कछु मानहुँ कंजकली लहि बात झकोर लगै लहरान, दरसावति रंग, छपाचति पै मकरंद भरो हिय आपनी जान।
यहि रंग की रूपछटा की घटा उनई कबहूँ नहिं देखि परीं तरु पास कढ़यो दल पैदल आय नवेलिन को निशि में निखरी। बढ़ि एक सों एक रसीली कहैं प्रभु सों ''प्रिय! हेरहु जाति मरी। अधारान को पान करौं इन, लै यहि यौवन को रस एकघरी।''
डिगे नहिं भगवान् जब करि ध्यान नेकहु भंग, तब चढ़ायो दाप सों उठि चाप आप अनंग। लखि परयो चट कामिनीदल दूसरो चितचोर। रही जो सब माहिं रूरी बढ़ी प्रभु की ओर। रुचिर रूप यशोधरा को धारे पहुँची आय, सजल नयनन में बिरह को भाव मृदु दरसाय ललकि दोऊ भुजन को भगवान् ओर पसारि मंद मृदु स्वर सहित बोली, भरि उसास निहारि-
'कुँवर मेरे! मरति हौं मैं बिनु तिहारे, हाय! स्वर्गसुख सो कहाँ, प्यारे! सकत हौ तुम पाय लहत जो रसधाम में वा रोहिणी के तीर, जहँ पहार समान दिन मैं काटि रही अधीर।
चलौ फिरि, पिय! भवन, परसौ अधार मेरे आय, फेरि अपने अंक में इक बेर लेहु लगाय। भूलि झूठे स्वप्न में तुम रहे सब कुछ खोय। जाहि चाहत रहे एतो, लखो हौं मैं सोय।
कह्यो प्रभु 'हे असत् छाया! बस न आगे और। व्यर्थ तेरे यत्न और उपाय हैं या ठौर। देत हौं नहिं शाप वा प्रिय रूप को करि मान। कामरूपिनि! जाहिं धारि तू हरन आई ज्ञान।
किंतु जैसी तू, जगत् को दृश्य सब दरसाय। कढ़ी जहँ सों भागु वाही शून्य में मिलु जाय।' कढ़त ही ये वचन छायारूप सब छन माँहिं उड़ि गयो चट धूम ह्नै, तहँ रहि गयो कछु नाहिं।
अंधाड़ घना उठाय, ऍंधोरा नभ में छाए, भारी पातक और और सब प्रभु पै आए। आई 'प्रतिघा, कटि में कारे अहि लपटाई, देति शाप जो तिनके बहु फुफकार मिलाई। सौम्य दृष्टि से प्रभु की मारि ताकी बोली, मुख में कारी जीभ कीलि सी उठि न डोली। प्रभु को कछु करि सकी नाहिं सब विधि सों हारी। कारे नागहु रहे सिमिटि फन नीचे डारी। 'रूपराग' पुनि आयो जाके वश नरनारी जीवन को करि लोभ देत जीवनहिं बिगारी। पाछे लगो 'अरूपराग' हूँ पहुँच्यो आई देतर् कीत्ति की लिप्सा जो मन माहिं जगाई, बुधाजन हू परि जात जाल में जाके जाई, बहु श्रम साहस करत, लरत रणभूमि कँपाई। आयो तनि अभिमान, चल्यो 'औद्धत्य' फेरि बढ़ि जासों धर्मी गनत लोग आपहि सब सों बढ़ि। चली 'अविद्या' अपनो दल बीभत्स संग करि, कुत्सित और विरूप वस्तु सों गई भूमि भरि। परम घिनौनी बढ़ी डोकरी बूढ़ी सो जब अंधकार अति घोर छाय सब ओर गयो तब। विचले भूधार, उठी प्रभंजन सों हिलि यामिनि, छाँड़ी मूसलधार दरकि घन, दमकि दामिनि। भीषण उल्कापात बीच महि काँपी सारी खुले घाव पै ताके मानो परी ऍंगारी। वा ऍंधियारी माहिं भयो पंखन को फरफर, चीत्कार सुनि परयो, रूप लखि परे भयंकर। प्रेतलोक तें दल की दल चढ़ि सेना आई, प्रभुहि डिगावन हेतु रही सौ ठट्ट लगाई।
किंतु डिगे नहिं नेकु बुद्ध भगवान् हमारे। ज्यों के त्यों तहँ रहे अचल दृढ़ आसन मारे। लसत धर्म सों रक्षित चारों दिशि सों प्रभुवर, खाईं, कोटन बीच बसत ज्यों निडर कोउ नर। बोधिदु्रम हू अचल रह्यो वा अंधाड़ माहीं, हिल्यो न एकौ पात, ढरे हिमबिंदुहु नाहीं। बाहर सब उत्पात विघ्न ह्नै रहे भयंकर किंतु शांति अति छाय रही ताकी छाया तर। अभिसंबोधन बीतत पहिलो पहर मार की सेना भागी। गई शांति अति छाय, वायु मृदु डोलन लागी। प्रभु ने 'सम्यक् दृष्टि' प्रथम यामहि में पाई, सकल चराचर की जासों गति परी लखाई। 'पूर्वानुस्मृति ज्ञान' दूसरे पहर पाय पुनि जातिस्मर ह्नै गए पूर्ण भगवान् शाक्यमुनि। तुरत सहेन जन्मन की सुधि तिनको आई, जब जब जन्मे जहाँ जहाँ जिन जोनिन जाई! ज्यों फिरि पाछे कोउ निहारत दीठि पसारी बहुत दूर चलि पहुँचि शिखर पै गिरि के भारी, देखत पथ में परे मोहिं कैसे कैसे थल! ऊँचे नीचे ढूह, खोह, नारे औ दलदल, बीहड़ वन घन, देखि परत जौ सिमटे ऐसे महि अंचल पै टँकी हरी चकती है जैसे, गहरे गहरेर् गत्ता गह्यो जिन माहिं पसीनो, जिनसों निकसन हेतु साँस भरि भरि श्रम कीनो, ऊँचे अगम कगार छुटी झाईं जहँ चढ़तहि खिसलत खिसलत पाँव गयो बहु बार जहाँ रहि, हरी हरी दूबन सों छाए पटपर सुंदर, निर्मल निर्झर, दरी और अति सुभग सरोवर,
औ धुँधाले नग अंचल समतल जिनपै जाई लपक्यो पहुँचन हेतु नीले नभ कर फैलाई। बहु जन्मन की दीर्घ शृंखला प्रभु लखि पाई। क्रम क्रम ऊँची होति चली सीढ़ी सी आई, अधाम वृत्ति की अधोभूमि सों चढ़ति निरंतर उच्च भूमि पै पहुँची निर्मल, पावन सुंदर, लसत जहाँ 'दश शील' जीव को लै जैबे हित अति ऊँचे निर्वाणपंथ की ओर अविचलित।
देख्यो पुनि भगवान् जीव कैसे तन पाई पूर्व जन्म से जो बोयो काटत सो आई। चलत दूसरो जन्म एक को अंत होत जब जुरत मूर में लाभ, जात कढ़ि खोयो जो सब। लख्यो जन्म पै जन्म जात ज्यों ज्यों बिहात हैं बढ़त पुण्य सों पुण्य, पाप सों पाप जात हैं। बीच बीच में मरणकाल के अंतर माहीं, लेखो सब को होत जात है तुरत सदाहीं। या अचूक लेखे में बिंदुहु छूटत नाहीं, संस्कार की छाप जाति लगि जीवन माहीं। या विधि जब जब नयो जन्म प्राणी हैं पावत पूर्व जन्म के कर्मबीच सँग लीने आवत।
भई 'अभिज्ञा' प्राप्त तीसरे पहर प्रभुहि पुनि, पायो 'आश्रय ज्ञान' तबै भगवान् शाक्य मुनि। लोक लोक में दृष्टि तासु जब पहुँची जाई हस्तामलक समान विश्व सब परयो लखाई। लखे भुवन पै भुवन, सूर्य्य पै सूर्य्य करोरन, बँधी चाल सों घूमत लीने अपने ग्रहगन ज्यों हीरक के द्वीप नीलमणि, अंबुधि माहीं, ओर छोर नहिं जासु, थाह कहुँ जाकी नाहीं, बढ़त घटत नहिं कबहुँ, क्षुब्धा जो रहत निरंतर, जामें रूपतरंग उठत रहि रहि छन छन पर। अमित प्रभाकर पिंड किए प्रभु यों अवलोकन, अलक सूत्र सों बाँधि नचावत जो बहु लोकन, करत परिक्रम आपहुँ अपने सों बढ़ि केरी, सोउ अपने सों महज्ज्योति की डारत फेरी। परंपरा यह जगी ज्योति की प्रभुहि लखानी अमित, अखंड, न अंत सकत कहुँ जाको मानी। लगत केंद्र सो जो सोऊ है डारत फेरे, बढ़त चक्र पै चक्र गए या विधि बहुतेरे दिव्य दृष्टि सों देख्यो प्रभु लोकन को यावत् अपनो अपनो कालचक्र जो घूमि पुरावत। महाकल्प वा कल्प आदि भर भोग पुराई, ज्योतिहीन ह्नै, छीजि, अंत में जात बिलाई। ऊँचे नीचे चारों दिशि प्रभु डारयो छानी, नीलराशि सो लखि अनंत मति रही भुलानी। सब रूपन सों परे, लोक लोकन सों न्यारे, और जगत् की प्राणशक्ति सों दूर किनारे, अलख भाव सों चलत नियत आदेश सनातन, करत तिमिर को जो प्रकाश औ जड़ को चेतन, करत शून्य को पूर्ण, घटित अघटित को जो है औ सुंदर को औरहु सुंदर करि जग मोहै।
या अटल आदेश में कहुँ शब्द आखर नाहिं। नाहिं आज्ञा करनहारो कोउ या विधि माहिं। सकल देवन सों परे यह लसत नित्य विधन अटल और अकथ्य, सब सों प्रबल और महान्।
शक्ति यह जग रचति नासति, रचति बारंबार, करति विविध विधन सब निज धर्मविधि अनुसार। सर्गमुख गति माहिं जाके त्रिगुण हैं बिलगात, रजस् सों ह्नै सत्व की दिशि लक्ष्य जासु लखात।
भले वेई चलैं जे या शक्तिगति अनुकूल। चलैं जे विपरीत वेई करत भारी भूल। करत कीटहु भलो अपनो जातिधर्म पुराय, बाज नीको करत गेदन हित लवा लै जाय।
मिलि परस्पर विपुल विश्वविधन में दै योग ओसकण उडुगण दमकि निज करत पूरो भोग। मरन हित जो मनुज जीयत, मरत पावन हेत जन्म उत्तम, चलै सो यदि धर्म पथ पग देत,
रहै कल्मषहीन, सब संकल्प दृढ़ ह्वै जायँ, बड़े छोटे जहाँ लौं भव भोग करत लखायँ करै तिनको पथ सुगम नहिं कबहुँ बाधा देय। लोक में परलोक में सब भाँति यों यश लेय।
लख्यो चौथे पहर प्रभु पुनि 'दु:खसत्य' महान् पाप सों मिलि घोर कटु जो करत विश्वविधन, चलति भाथी माहिं जैसे सीड़ लगि लगि जाय जाति दहकति आगि जासों बार बार झ्रवाय। 'आर्य्य सत्यन' माहिं जो यह 'दु:खसत्य' प्रधन, पाय तासु निदान देख्यो ध्यान में भगवान् दु:ख छायारूप लाग्यो रहत जीवन संग जहाँ जीवन तहाँ सोऊ रहत काहू ढंग।
छुटै सो नहिं कबहुँ जौ लौं, छुटै जीवन नाहिं निज दशान समेत पलटति रहति जो पल माहिं- छुटै जब लौं याहिं सत्ता और कर्मविकार, जाति, वृद्धि, विनाश, सुख, दु:ख, राग, द्वेष अपार
सुखसमन्वित शोक सब और दु:खमय आनंद छुटत नहिं, नहिं होत जब लौं ज्ञान 'ये हैं फंद।' किंतु जानत जो 'अविद्या के सबै ये जाल' त्यागि जीवनमोह पावत मोक्ष सो तत्काल।
व्यापक ताकी दृष्टि होति सो लखत आप तब याहि 'अविद्या' सों जनमत हैं 'संस्कार' सब, 'संस्कार' सों उपजत हैं 'विज्ञान' घनेरे 'नामरूप' उत्पन्न होत जिनसों बहुतेरे। 'नामरूप' सों 'षडायतन' उपजत जाको लहि जीव विवश ह्नै दर्पण सम बहु दृश्य रहत गहि। 'षडायतन' सों फेरि 'वेदना' उद्भव पावति जो झूठे सुख औ दारुण दु:ख बहु दरसावति। यहै वेदना वा 'तृष्णा' की जननि पुरानी भवसागर में धाँसत जात जाके वश प्रानी, चल तरंग बिच खारी ताके रहत टिकाई सुख संपति, बहु साधा, मान और् कीत्ति, बड़ाई, प्रीति, विजय, अधिकार, वसनसुंदर, बहु व्यंजन, कुलगौरव अभिमान, भवन ऊँचे मनरंजन दीर्घ आयु कामना तथा जीबे हिय संगर, पातक संगरजनित, कोउ कटु, कोऊ रुचिकर। या विधि तृष्णा बूझति सदा इन घूँटन पाई जो वाको करि दूनी औरहु देत बढ़ाई। पै ज्ञानी हैं दूर करत मन सों या तृष्णहिं, झूठे दृश्यन सों इंद्रिन को तृप्त करत नहिं। राखत मन दृढ़ विचलि न काहू ओर डुलावत करत जतन जंजाल नाहिं, नहिं दु:ख पहुँचावत पूर्वकर्म अनुसार परत जो कछु तन ऊपर सो सब हैं सहि लेत अविचलित चित्त निरंतर। काम, क्रोध, रागादि दमन सबको करि डारत, दिन दिन करि कै छीन याहि बिधि तिनको मारत। अंत माहिं यों पूर्वजन्म को सार भारमय, जन्म जन्म को जीवात्मा को जो सब संचय- मन में जो कुछ गुन्यो और जो कीनो तन सों, अहंभाव को जटिल जाल जो बिन्यो जुगन सों काल कर्म को तानो बानो तानि अगोचर- सो सब कल्मषहीन शुद्ध ह्नै जात निरंतर। फिर तो जीवहिं धारन परत नहिं देहहि या तो अथवा ऐसो विमल ज्ञान ताको ह्वै जातो। धारत देह जो फेरि कतहुँ नव जन्महिं पाई हरुओ ह्नै भव भार ताहिं नहिं परत जनाई। चलत जात आरोहपन्थ पै या प्रकार सों मुक्त 'स्कंधन' सों छूटत मायाप्रताप सों उपादान के बंधन औ भवचक्र हटाई पूर्णप्रज्ञ ह्नै जगत् मनो दु:स्वप्न बिहाई, अंत लहत पद भूपन सों, सब देवन सो बढ़ि। जीवन की सब हाय मिटि जाति दूर कढ़ि। गहत मुक्त शुभ जीवन, जो नहिं या जीवन सम, लहत चरम आनंद, शांति, निर्वाण शून्यतम। निर्विकार अविचल विराम को यहै ठौर है, यहै परम गति, जाको नहिं परिणाम और है।
इत बुद्ध ने संबोधि पाई प्रगट उत ऊषा भई। प्राची दिशा में ज्योति अभिनव दिवस की जो जगि गई, सो जात सरकत यामिनीपट बीच कारे ढरि रही, भगवान् की या विजय की मृदु घोषणा सी करि रही
नव अरुण- आभा रेख अब धाँधाले दिगंचल पै कढ़ी। नभनीलिमा ज्यों ज्यों निखरि कै जाति ऊपर को बढ़ी त्यों त्यों सहमि कै शुक्र अपनो तेज खोवत जात है, पीरो परो, फीको भयो, अब लुप्त होत लखात है।
शुभ दरस दिनकर को प्रथम ही पाय नग छायासने करि परंर्ग- किरीट- भूषित भाल सोहत सामने। संचरत प्रात समीर को सुखपरस लहि सुमनहु जगे, बहु रंगरंजित दलदृगंचल नवल निज खोलन लगे।
हिमजटित दूबन पै प्रभा मृदु दौरि जो छन में गई गत रैन कै ऍंसुवान की बूँदैं बिखरि मोती भईं। आलोक के आभास सों वा भूमि सारी मढ़ि रही। उत गगनतट घन पै सुनहरी गोट चमचम चढ़ि रही।
हेमाभ वृंत हिलाय हरषत ताल करत प्रणाम हैं। गिरिगह्नरन के बीच धाँसि जगमगति किरन ललाम हैं। जलधार मानिक के तरंगित जाल सी दरसाय है। जगि ज्योति सारे जीव जंतुन जाय रही जगाय है,
घुसि सघन झापस माहिं वन की रुचिर रम्य थलीन के है कहति 'दिन अब ह्नै गयो' चकचौंधि चख हरिनीनके, जो नीड़ में सिर नींद में गड़ि बीच पंखन के परे चलि कहति तिनके पास गीत प्रभात के गाओ, अरे!
कलरव पखेरुन को सुनाई परत अब जाओ जहाँ, मृदु कूक कोयल की, पपीहन की बँधी रट 'पी कहाँ', तितरौं की 'उठ देख', 'चुह चुह' चपल फूलचुहीन की टें टें सुअन की, धुन सुरीली सारीका सूहीन की,
किलकिलन की किलकार, 'काँ काँ' काककंठ कठोर की, 'टर टर' करेटुन की करारी, कतहुँ केका मोर की, पुलकित परेवन की परम प्रिय प्रेमगाथा रसभरी जो चुकनहारी नाहिं जौं लौं चुकतिनहिं जीवनघरी। ऐसो पुनीत प्रभाव प्रभु के परम विजयप्रभात को घर घर बिराजी शांति, झगरो नाहिं काहू घात को। झट फेंकि दीनी दूर छूरी बधिक तजि बधाकाज को। लै फेरि धन बटपार दीनो, बणिक छाँड़यो ब्याज को।
भे क्रूर कोमल, हृदय कोमल औरहू कोमल भए पीयूष सो संचार दिव्य प्रभात को वा लहि नए। रण थामि दीनो तुरत नरपति लरत जो रिस सों परे। बहु दिनन के रोगी हँसतमुख उछरि खाटन सों परे।
नर मरन के जो निकट सहसा सोउ प्रमुदित ह्नै गए लखि उदित होत प्रभात मानो देश सों काहू नए। पिय सेज ढिग जो दीन हीन यशोधरा बैठी रही, हिय बीच ताहू के हरख की धार सी सहसा बही, मन माहिं ताके उठति आपहि आप ऐसी बात है 'जो प्रेम साँचो होय कबहूँ नाहिं निष्फल जात है। या घोर दु:ख को अंत यों सुख भए बिनु रहि जायहै ह्नै सकत ऐसो नाहिं, आगम परत कछुक जनाय है।'
छायो उछाह अपार यद्यपि न कोउ जानत का भयो। सुनसान बंजर बीच हू संगीत को सुर भरि गयो। आगम तथागत को निरखि निज मुक्ति आस बँधाय कै। मिलि भूत, प्रेत, पिशाच गावत पवन में हरखाय कै।
'जगकाज पूरो ह्नै गयो' देववाणी यह भई, अति चकित पुरजन बीच पंडित खड़े बीथिन में कई लख्रि स्वर्णज्योति प्रवाह सो जौ गगन बोरत जात है, यों कहत 'भाई! भइ अलौकिक अवसि कोऊ बात है।'
बन, ग्राम के सब जीव बैर बिहाय बिहरत लखि परे। जहँ दूध बाघिन प्यावती तहँ चित्रमृग सोहत खरे। बृक मेष मिलाप सों हैं चरत एकहि बाट पै। गो सिंह पानी पियत हैं मिलि जाय एकहि घाट पै।
भितराय गरल भुजंग मणिधार फन रहे लहराय हैं, बसि पास चोंचन सो गरुड़ निज पंख रहे खुजाय हैं। कढ़ि सामने सों जात बाजन के लवा, कछु भय नहीं। बैठे मगन बक ध्यान में, बहु मीन खेलत हैं वहीं।
बैठे भुजंगे डार पै कहूँ रहे पूँछ हिलाय हैं, पै आज झपटत नेकु नहिं तितलीन पै दरसायँ हैं, या फूल तें वा फूल पै जौ चपल गति सों धावतीं, सित, पीत, नील, सुरंग, चित्रित पंख को फरकावतीं।
धारि दिव्य तेज दिनेश सों बढ़ि नाशहित भवभार के, लहि अमित विजय विभूति जीवन हित सकल संसारके। वा बोधितरु तर ध्यान में भगवान् हैं बैठे अबै पै तासु आत्मप्रभाव परस्यो मनुज पशु पंछिन सबै।
अब बोधितरु तर सों उठे हरखाय कै प्रभु दिव्य तेज, अनंत शक्तिहि पाय कै। यह बोलि वाणी उठे अति ऊँचे स्वरै, सब देश में सब काल में जो सुनि परै-
'अनेक जाति संसारं संधाविसमनिब्बसं। गहकारकं गवेसंतो दु:खजाति पुन: पुन:। गहकारक दिट्ठोसि पुन गेहं न काहसि। सब्बा ते फासका भग्गा, गहकूटं विसंकितं। विसंखारगतं चित्तां, तण्हानं खयमज्झगा।'
'गहत अनेक जन्म भव के दु:ख भोगत बहु चलि आयो। खोजत रह्यो याहि गृहकारहिं, आज हेरि हौं पायो। हे गृहकार! फेरि अब सकिहै तू नहिं भवन उठाई। साज बंद सब तोरि धौरहर तेरो दियो ढहाई।
संस्कार सों रहित सर्वथा चित्त भयो अब मेरो! तृष्णा को क्षय भयो, यह जन्म जन्म को फेरो।'
|
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क |
Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved. |