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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7

बुद्धचरित -7

सप्तम सर्ग

कपिलवस्तुगमन

इन बहु वर्षन बीच बसत नरपति शुद्धोदन

पुत्र विरह में शाक्य नायकन बीच खिन्न मन।

पियवियोग में यशोधरा दु:ख के दिन पूरति,

छाँड़ि सकल सुख भोग सोग में परी बिसूरति।

ढोर लिए जो कंजर थल थल डोलनहारे,

लाभ हेतु जो देश देश घूमत बनिजारे

तिनसों काहू यती विरागी की सुधि पावत

नरपति दूत अनेक तहाँ तुरतहि दौरावत।

ते फिरि आवत, कहत बात बहु साधुन केरी।

जो तजि कै घरबार बसत निर्जन थल हेरी।

पै लायो संवाद नाहिं कोउ ताकी प्यारो

कपिलवस्तु के राजवंश को जो उजियारो,

भूपति की सारी आशा को एक सहारो,

यशोधरा के प्राणन को धन सर्वस प्यारो,

कहाँ कहाँ जो भूलो भटको घूमत ह्नै है

 

भयो और को और, चीन्हि नहिं कोऊ पैहै।

देखो यह बासर वसंत को, रसाल फूलि

       अंग न समात मंजु मंजरीन सों भरे।

सारी धारा साजे ऋतुराज राज सोहति है,

       सुमन सहित पात चीकने हरे हरे।

कुँवरि उदास बैठी वाटिका के बीच जाय

       कंजपुट कलित सरिततीर झाँवरे।

दर्पण सी धार में बिलोके बहु बार जहाँ

       ओठन पै ओठ, पाणिपाश कंठ में परे।

ऑंसुन पलक भारी, कोमल कपोल छीन,

       बिरह की पीर अधारान पै लखाति है।

चपि रही चीकने चिकुर की चमक चारु,

       बेणी बीच बँधि नेकु नाहिं बगराति है।

आभरनहीन पीरी देह पै है सेत सारी,

       खचित न जापै कहूँ हेमनगपाँति है।

पाय पिय बोल गति हरति जो हंसन की

       चरन धारत सोइ आज थहराति है।

 

स्नेहदीप सरिस नवल जिन नैनन की

       कालिमा सों फूटति रही है द्युति अभिराम- 

शर्वरी के शांतिपट बीच ह्नै जगति मनो

       दिवस की ज्योति कमनीय याही सुखधाम- 

ज्योतिहीन, लक्ष्यहीन आज सोइ घूमत हैं,

       लखत न नेकु ऋतुराज की छटा ललाम।

पलकैं रही हैं ढरि, उघरत नाहिं पूरी,

       अधाखुली पूतरी पै बरुनी परी हैं श्याम।

 

एक कर माँहिं मोतीजरो कटिबंधा सोइ

       जाहि तजि कुँवर निकसि गयो रैन वहि।

हाय! विकराल सोइ जामिनि जननि भई

       केते दु:खभरे दिवसन की, न जात कहि।

गाढ़ो प्रेम एतो नाहिं निठुर कबहुँ भयौ

       साँचे प्रेम प्रति ऐसे कहुँ जग बीच यहि।

एक बात भई यासों, जीवन लौं, याही बँधि

       मिति यहि प्रेम की हमारे नाहिं गई रहि।

 

दूजे कर बीच कर सुंदर परम निज 

       बालक को, जासु नाम राहुल धारो गयो,

थाती रूप छाँड़ि कै कुमार चलि गयो जाहि,

       बढ़ि कै जो आज सात वर्ष एक को भयो।

चंचल स्वभावबस डोलन लग्यो है घूमि

       जननी के पास इत उत मोद सों छयो।

विभव विकास पुष्पहास कुसुमाकर को

       हेरि हेरि होत है हुलास चित्त में नयो।

 

नलिनमय वा पुलिन पै दोउ रहे बसि कछु काल।

हँसत फेकत जात मीनन ओर मोदक बाल।

बैठि दुखिया जननि निरखति उड़त हंसन ओर,

करति विनय उसास भरि, धारि नीर दृग की कोर- 

 

'हे गगनचर! होय जहँ पिय कढ़ौ जो तहँ जाय,

दीजियो  संदेश  मेरो  ताहि  नेकु  सुनाय।

दरस हित औ परस हित अति तरसि बहु दुखपाय

दीन हीन यशोधरा अब मरन ढिग गई आय।'

 

बिहँसि बोलीं अनुचरी बहु आय एते माहिं

'देवि! अब लौं सुन्यो यह संवाद कैधों नाहिं?

त्रापुष, भल्लिक नाम के द्वै सेठ माल लदाय

आज  दक्षिण  नगरतोरण  पास  उतरे  आय।

 

दूर  देशन  फिरत  सागरकंठ  लौं  जे  जात

लिए  नाना  वस्तु  जो  हैं  संग  में  दरसात- 

स्वर्णखचित  अमोल  अंबररत्नजटित  कटार,

पात्र चित्र विचित्र, मृगमद, अगर कुंकुमभार।

 

किंतु ये सब वस्तु जाके सामने कछु नाहिं,

परम प्रिय संवाद लाए आज जो पुर माहिं।

दोउ  देखे  चले  आवत  शाक्य  राजकुमार,

प्राणपति  जीवन  तिहारेदेश  के  आधार।

 

कहत हम साक्षात् दर्शन कियो तिनको जाय,

दंडवत  करि  करी  पूजा  भक्तिभेंट  चढ़ाय!

कह्यो बुधाजन रह्यो जो सो भए पूर्ण प्रकार,

परम दुर्लभ ज्ञान ज्ञानिन को सिखावनहार।

भए जगदाराधय प्रभु, अति शुद्ध बुद्ध महान,

करत नर निस्तार औ उद्धार दै शुभ ज्ञान

मधुर वाणी सों, दयासों जासु ओर न छोर।

कहत  दोऊ  सेठ  प्रभु  हैं  चले  याही  ओर'

 

सुनत शुभ संवाद उमड़यो हृदय माहिं उछाह,

ज्यों हिमाचल सों उमगि कै कढ़त गंगप्रवाह।

कुँवरि उठि कै भई ठाढ़ी हर्ष पुलकित गात

ढारि दृग सों बूँद मोती सरिस, बोली बात- 

 

'तुरत  लाओ जाय  सेठन  को  हमारे  पास,

पान हित संवाद के शुभ श्रवण को अति प्यास,

जाव, तिनको तुरत लाओ संग माहिं लिवाय।

कतहुँ जो संवाद तिनको निकसि साँचो जाय!

 

निकसिहै संवाद जो यह सत्य, कहियो जाय,

अवसि  फाँड़न  माहिं  दैहौं  स्वर्ण  रत्न  भराय।

और  तुमहूँ  आइयो  सँग  लेन  को  उपहार- 

ह्नै  सकै  पै  नाहिं  सो  आनंद  के  अनुसार।'

 

चले  दोउ  बणिक  दासिन  संगआज्ञा  पाय

कुँवर  के  वा  रंगभवन  प्रवेश  कीनो  जाय।

चलत  कंचनकलित  पथ  पै  धारत  धीमे  पाँव

राजवैभव निरखि लोचन चकित हैं सब ठाँव।

 

कनकचित्रित  पट  परे  जँह  दोउ  पहुँचे  जाय।

क्षीण, कंपित, मधुर स्वर यह परयो कानन आय- 

'सेठ!  आवत  दूर  तें  हौंकतहुँ  राजकुमार

परे  तुमको  देखिये  सब  कहति  बारंबार।

 

करी  पूजा  तासु  तुमनेत्यागि  जो  भवभार

शुद्ध  बुद्ध  त्रिलोकपूजित  ह्नै  करत  उद्धार।

सुन्यो अब या ओर आवत, कहौ, यदि यह होय

परम प्रिय या राजकुल के होयहौ तुम दोय।'

बोल्यो सीस नवाय त्रापुष 'हे देवि, हमारी!

आवत हैं इन नयनन सों हम प्रभुहि निहारी।

पाँयन पै हम परे, रह्यो जो कुँवर हिरायो

सब राजन महराजन सों बढ़ि वाको पायो।

बोधिद्रुम तर फल्गु किनारे आसन लाई

जासों जग उद्धरै सिद्धि सो वाने पाई।

सब को साँचो सखा, सकल जीवनपति प्यारो

पै सब सों कहुँ बढ़िकै है सो, देवि! तिहारो,

जाके साँचे ऑंसुन ही को मोल कहैहै

जो अनुपम सुख प्रभु के वचनन सों जग पैहै।

'कुशल क्षेम सों हैं' कहिबो यह है विडंबना

सब तापन सों परे, तिन्हैं दु:ख परसि सकत ना।

भेदि सकल भवजाल गए देवन तें ऊपर,

सत्य धर्म की ज्योति पाय जगमगत भुवन भर।

नगर नगर में ज्यों ज्यों फिरि उपदेश सुनावत

तिन माँगन को जीव शांतिसुख जिनसों पावत,

त्यों त्यों पाछे होत जात तिनके नरनारी- 

ज्यों  पतझड़  के  पात  वात  के  ह्नै  अनुसारी।

पास  गया  के  रम्य  क्षीरिकाबन में  जाई

हम दोउन ने सुने वचन तिनके सिर नाई।

चौमासे के प्रथम अवसि प्रभु इत पधारिहैं,

उपदेशन सों मधुर शोक दु:ख सकल टारिहैं।'

 

यशोधरा  को  कंठ  हर्ष  सों  गद्गद  भारी,

बड़ी बेर में सँभरि वचन यह सकी उचारी- 

''हे सुजान जन! भलो होयहै सदा तुम्हारो।

लाए  तुम  संवाद  मोहिं  प्राणन  तें  प्यारो।

जानत जो तुम होहु, मोहिं अब यहौ बताओ

कैसे यह सब बात भई, कहि मोहिं सुनाओ।''

 

भल्लिक ने तब कही बात वा निशि की सारी।

जानत  जाको  'गयपर्वत  के  सब  नरनारी

कैसी  घनी  ऍंधोरी  में  छाया  दरसानी,

मारकोप सों कँपी धारा, भो खलभल पानी।

कैसो भव्य प्रभात भयो पुनि, भानु संग जब

आशा की नव ज्योति जगी सो जीवन हित सब,

कैसे  तब  भगवान्  मिले  वा  बोधिविटप  तर

धारे  तेज  आनंद  अलौकिक  मुख  पै  सुंदर।

भए  आप  तो  मुक्त  बुद्ध  संबोधिहि  पाई

'कैसे  हमसों  दु:खी  जगत्  की  होय  भलाई'

परे सोच में रहे याहि प्रभु कछु दिन ताईं,

बोझ  सरीखो  एक  हृदय  पै  परत  जनाई।

विषय भोग में लिप्त पापरत जन संसारी,

गहत रहत जो नाना वस्तुन सों भ्रम भारी,

ऑंखिन पर को परदो जो नहिं चाहत टारन,

उरझे जामें तोरि सकत सो इंद्रियजालन,

कैसे ऐसे जीव ग्रहण या ज्ञानहिं करिहैं?

'अष्ट मार्ग' 'द्वादश निदान' कैसे चित धारिहैं।

येई  हैं  उद्धारद्वारपै  है  विचित्र  गति!

खग पींजर में पलो लखत नहिं खुले द्वार प्रति।

खोजि मुक्ति को मार्ग ताहि नर हेतु कठिन गुनि

आपै इकले चलते जो भगवान् शाक्य मुनि,

जग में काहुहि जानि तत्व को नहिं अधिकारी

तजते  जो  प्रभु  लहते  गति  कैसे  नरनारी?

 

सब जीवन पै दया रही पै प्रभु के हृदय समानी,

याहि बीच सुनि परी दु:खभरी अतिशय आरत बानी।

जनु 'नश्यामि अहँ भूनश्यति लोक:' भू चिल्लाई।

कछुक बेर लौं शांति रही पुनि धुनि पवनहुँ तें आई- 

 

भगवान्! धर्म सुनाइए, भगवान्! धर्म सुनाइए।

भवताप तें हैं जरि रहे अब नेकु बार न लाइए।

 

दिव्य  दृष्टि  भगवान्  तुरत  प्राणिन  पै  डारी

देख्यो को हैं सुनन योग्य, को नहिं अधिकारी

 

जैसे रवि, जो करत कनकमय अमल कमलसर

लखत कौन हैं, कौन नाहिं कलियाँ बिगसन पर।

बोलि उठे भगवान् 'सुनै जौ जहाँ जहाँ हैं,

अवसि सिखैहौं धर्म, सिखैं जो सीखन चाहैं।'

 

भिक्षु  पंचवर्गीय  ध्यान  में  प्रभु  के  आए।

वाराणसि  की  ओर  तुरत  भगवान्  सिधाए।

तिन ही को उपदेश प्रथम प्रभु जाय सुनायो,

'धर्मचक्र' को कियो प्र्रवत्तान ज्ञान सिखायो।

मंगलमय  'मध्यमा  प्रतिपदातिन्हैं  बताई

'आर्य्य सत्य' गत दियो 'मार्ग अष्टांग' सुझाई।

जन्म मरण सों छूटि सकत हैं कैसे प्रानी,

पूरो  जतन  बताय  बुद्ध  बोले  यह  बानी- 

'है मनुष्य की गति वाही के हाथन माहीं,

पूर्व कर्म को छाड़ि और भावी कछु नाहीं।

नहिं  ताके  अतिरिक्त  नरक  है  कोऊभाई!

आपहिं  नर  जो  लेत  आपने  हेतु  बनाई।

स्वर्ग न ऐसो कोउ जहाँ सो जाय सकत नहिं

जो राखत मन शांत, दमन करि विषय वासनहिं।'

 

पाँच जनन में भयो प्रथम कौंडिन्य सुदीक्षित

'चार सत्य', 'अष्टांग मार्ग' में ह्नै कै शिक्षित,

महानामपुनि  भद्रकवासव  और  अश्वजित

धर्म मार्ग में करि प्रवेश ह्नै गए शांत चित।

'यश' नामक पुनि एक सेठ काशी को भारी

बुद्ध  शरण  गहि  भयो  प्रव्रज्या  को  अधिकारी।

चार मित्रा सुनि तासु भए पुनि भिक्षुक आई।

पुरजन  और  पचास  प्रव्रज्या प्रभु  सों  पाई।

परी  कान  में  जहाँ  जहाँ  बानी  प्रभु  केरी

उपजी तहँ तहँ नवयुग की सी शांति घनेरी,

ज्यों पावस की धार परत जब पटपर ऊपर

नव तृण अंकुर लहलहाय फूटत अति सुंदर।

 

पठयो प्रभु इन साठ भिक्षुकन को प्रचार हित

पाय तिन्हैं संयमी, विरागी और धीर चित।

इसीपत्तान  मृगदाव  माहिं  यह  संघ  बनाई

गए  राजगृह  पास  यष्टिवन  ओर  सिधाई।

कछुक दिनन लौं रहे तहाँ उपदेश सुनावत।

बिंबसार नृप, पुरजन परिजन लौं सब यावत्

भए बुद्ध की शरण प्राप्त सब मोह बिहाई

धर्मशीलसंयमनिरोधा  की  शिक्षा  पाई।

कुश लै कै संकल्प दियो करि भूपति ने तब

परम सुहावन रम्य वेणुवन 'संघ' हेतु सब,

जामें  सुंदर  गुहा  सरितसरकुंज  सुहाए।

शिला तहाँ गड़वाय नृपति ये वाक्य खुदाए- 

 

ये धाम्मा हेतुप्पभवा तेसं हेतुं तथागतो आह।

तेसं  च  यो  निरोधो  एवं  वादी  महासमणो।

 

''हेतु  तें  उत्पन्न  जो  हैं  धर्म- दु:खसमुदाय- 

हेतु तिनको कहि तथागत ने दियो सब आय।

और  तासु  निरोधा  हू  पुनि  महाश्रमण  बताय

लियो या बूड़त जगत् को बाहँ देय बचाय।''

 

सोइ  उपवन  माहिं  बैठयो  संघ  एक  महान्

ओजपूर्ण  अपूर्व  भाख्यो  ज्ञान  श्रीभगवान्।

सुनत सब पै गयो दिव्य प्रभाव ऐसो छाय,

आय नौ सौ जनन ने लै लियो वस्त्रा कषाय

 

और  लागे  जाय  कै  ते  करन  धर्मप्रचार।

बुद्ध ने यों कहि विसर्जित कियो संघ अपार- 

 

सब्ब पापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसंपदा

सचित्त परियो दवनं एतं बुद्धानुसासनं।

 

'करिबौ पाप न कोउ संचिबो शुभ है जेतो,

करिबो चित्त निरोधा बुद्ध अनुशासन एतो।'

या विधि सेठन ने सारी कहि कथा सुनाई।

यशोधरा  ने  भारी  तिनकी  करी  बिदाई।

कंचन  रत्न  भराय  थार  सम्मुख  धारवायो।

चलत चलत यह पूछन हित पुनि तिन्हैं बुलायो

'कौन मार्ग धारि केते दिन में ऐहैं, प्यारे?'

फिरि कै दोऊ सेठ बोलि यह वचन सिधारे- 

'या पुर के प्राचीर सों, हे देवि! गुनत हम,

परत राजगृह नगर साठ योजन तें नहिं कम।

आवत तहँ सों सुगम मार्ग करि पार पहारन,

सोन नदी के तीर तीर ह्वै कढ़त कछारन।

चलत शकट के बैल हमारे आठ कोस नित,

एक मास में वाँ सों चलि कै आवत हैं इत।''

 

परी नृप के कान में जब बात यह सब जाय

अश्वचालन  में  चतुर  सामंत  नौ  बुलवाय

यह सँदेसो कहि पठायो अलग अलग सप्रीति- 

''बिन तिहारे गए कलपत सात वत्सर बीति।

 

रह्यो निशि दिन खोज में सब ओर दूत पठाय,

चिता पै अब चढ़न के दिन गए हैं नियराय।

विनय  याते  करत  हौं  अब  बोलि  बारंबार,

जहँ  तिहारो  सबै  कछु तहँ आय  जाव  कुमार।

 

राजपाट  बिलाततरसति  प्रजा  दरस  न  पाय।

अतिथि थोरे दिनन को हौं, मुख दिखायो आय।'

नौ दूत छूटि यशोधरा की ओर सों गे धाय

संदेस लै यह 'राजकुल की रानि, राहुल माय

 

मुख देखिबे के हित तिहारो परम व्याकुल छीन- 

जैसे कुमुदिनी वाट जोहति चंद्र की ह्नै दीन,

जैसे अशोक विकाश हित निज रीति के अनुसार

पियराय जोहत रहत कोमल तरुणि- चरण- प्रहार।

जो तज्यों वासों बढ़ि पदारथ मिलो जो कोउ होय,

है अवसि तामें भाग ताहू को, चहति है सोय।''

 

तुरत  शाक्य सामंत मगधा  की  ओर  सिधारे।

पै  पहुँचे  वा  समय  वेणुवन  बीच  बेचारे

रहे  धर्म  उपदेश  करत  भगवान्  बुद्ध  जब।

लगे  सुनन  तेभूलि  संदेश  आदि  सब।

रह्यो ध्यान नहिं महाराज को कछु मन माहीं

और  कुँवर  की  रानी  हू की सुधि  कछु  नाहीं।

चित्रलिखे  से  रहेसके  नहिं  वचन  उचारी,

रहे अचल अनिमेष दृष्टि सों प्रभुहि निहारी।

मति गति थिर ह्नै गई सुनत प्रभु की शुभ बानी।

ज्ञानदायिनी,    ओजभरी,    करुणारस   सानी।

ज्यों खोजन आवास भ्रमर कोउ निकसत बाहर,

लखत  मालती  फूल  कहूँ  छाए  खिलि  सुंदर,

औ पवनहुँ में मधुर महक तिनकी है पावत,

ऑंधी  पानी  राति  ऍंधोरी  मनहिं  न  लावत,

बैठत विकसित कुसुमन पै तिन अवसि जाय कै,

गहत मधुर मकरंदसुधा निज मुख गड़ाय कै,

त्यों  पहुँचे ते  सबै शाक्य  सामंत  तहाँ  जब

बुद्ध वचन पीयूष  पान  करि  भूलि  गए  सब,

रह्यो चेत कछु नाहिं कौन कारज सों आए।

भिक्षुसंघ मैं मिले जाय, नहिं कछु कहि पाए।

 

बीते जब बहु मास बहुरि नहिं कोऊ आयो

कालउदायी   सचिवपुत्र   को   नृपति  पठायो,

बालसखा जो रह्यो कुँवर को अति सहकारी,

जापै  भूपति  करत  भरोसो  सब  सों  भारी।

पै  सोऊ  ह्नै  गयो  भिक्षु  तहँ  मूँड़  मुड़ाई,

रहन  लग्यो  प्रभुसंघ  माहिं  घरबार  विहाई।

 

एक  दिवस  ऋतु  परम  मनोहर  रही  सुहाई,

बोल्यो प्रभु के निकट जाय सो अवसर पाई- 

''हे भगवन्! यह बात उठति मेरे मन माहीं,

एक ठौर को वास उचित भिक्षुन को नाहीं।

घूमि  घूमि  कै  तिन्हैं  चाहिए  धर्म  प्रचारैं।

भलो  होयप्रभु कपिलवस्तु की  ओर  पधारैं

जहाँ भूप तव वृद्ध पिता तरसत दर्शन हित

औ राहुल की माता दु:ख सों बिकल रहति नित।''

बोले तब भगवान् बिहँसि सब की दिशि हेरी- 

''अवसि  जायहौंधर्म  और  इच्छा  यह  मेरी।

आदर  में  ना  चूकै  कोऊ  मातुपिता  के,

जो हैं जीवन देत, सकल साधन वश जाके,

जाको लहि नर चाहैं तो सो जतन सकत करि

जन्म मरण को बंधन जासों जाय सकल टरि।

लहै  चरम  आनंदरूप  निर्वाण  अवसि  नर

रहै  धर्म  के  पालन  में  जो  निरत  निरंतर,

दहै  पूर्व  दुष्कर्मतार  हू  तिनकोतोरै,

हरुओ करतो जाय भार, पुनि और न जोरै,

होय प्रेम में पूर्ण दया दाक्षिण्य भाव भरि,

जीवन अपनो देय आप परहित अर्पित करि।

महाराज  के  पास  जाय  यह  देहु  जनाई

आवत हौं आदेश तासु निज सीस चढ़ाई।''

कपिलवस्तु  में  बात  जाय  जब  पहुँची  सारी,

अगवाई  के  हेतु  कुँवर  के  सब  नर  नारी

अति  उछाह  सों  करन  लगे  नाना  आयोजन

भूलि सकल निज काम धाम, निद्रा औ भोजन।

 

पुरदक्षिणद्वार  के  पास  घनो

अति चित्र विचित्र बितान तनो,

जहँ तोरण खंभन पै, बिगसे

नव मंजु प्रसून के हार लसे।

 

पट  पाट  केकंचनतार  भरे,

बहु  रंग  के  चारहु  ओर  परे।

शुभ  सोहत  बंदनवार  हरे,

घट  मंगल द्रव्य  सजाय  धारे।

 

पुर के सब पंकिल पंथ भए

जब चंदननीर सों सींचि गए।

नव पल्लव आमन के लहरैं,

सुठि पाँति पताकन की फहरैं।

 

नरपाल निदेश सुन्यो सबने- 

पुरद्वार  पै  दंति  रहैं  कितने

सजि स्वर्ण वरंडक सों सिगरे

सित दंत चमाचम साम धारे,

 

धुनि धौसन की घहराय कहाँ,

सब लेयँ कुमारहिं जाय कहाँ,

कहँ बारबधू मिलि गान करैं,

बरसाय  प्रसून  प्रमोद  भरैं,

 

पथ फूलन सों यहि भाँति भरै

जहँ  पाँव  कुमार  तुरंग  धारै

धाँसि टाप न तासु लखाय परैं,

मिलि लोग सबै जयनाद करैं।

 

यह  भाँति  नरेशनिदेश  भयो,

सब के हिय माहिं उछाय छयो।

दिन ऊगत नित्य सबै अकनैं

कहुँ आगम दुंदुभि बाजि भनैं।

 

धाय मिलन हित पियहि प्रथम धारि चाह अपार

गई यशोधरा शिविका पै चढ़ि पुर के द्वार।

जाके चहुँ दिशि लसत रम्य न्यग्रोधाराम,

जहँ सोहत बहु विटप बेलि वीरुधा अभिराम।

झूमति दोऊ ओर फूल फल सों झुकि डार,

हरियाली बिच घूमि घूमि पथ कढ़े सुढार।

राजमार्ग चलि गयो धारे सोइ उपवन छोर।

परति अंत्यजन की बस्ती है दूजी ओर,

पुर बाहर जे बसत बेचारे सब बिधि दीन,

छुअत जिन्हैं द्विज नाहिं मानि कै अतिशयहीन।

तिनहूँ  बीच  उछाह  नाहिं  थोरो  दरसात,

इत उत डोलन लगत सबै ज्यों होत प्रभात।

घंटन को रव, बाजन की धुनि कहुँ सुनि पाय

लखत मार्ग में कढ़ि, पेड़न चढ़ि सीस उठाय।

पै जब आवत नाहिं कतहुँ कोउ परै लखाय

लगत झोपड़िन को सँवारिबे में पुनि जाय।

करत द्वार नित फेरि झकाझक झारि बहारि,

पोंछि चौखटन, लीपि चौतरन, चौक सुधारि,

पुनि अशोक की लाय लहलही कोमल डार

चुनि चुनि पल्लव गूँथत नूतन बंदनवार।

पूछत पथिकन सों निकसत जो वा मग जाय

''कतहुँ सवारी रही कुँवर की या दिशि आय?''

यशोधरा  हू  चाह  भरे  चख  तिनपै  डारि

पथिकन को उत्तर सुनती झुकि पंथ निहारि।

 

मुंडी  एक  अचानक  आवत  परयो  लखाय

धारे वसन कषाय कंधा पर सों लै जाय।

कबहुँ पसारत पात्र जाय दीनन के द्वार,

पावत लेत, न पावत लावत बढ़त न बार।

ताके  पाछे  रहे  भिक्षु  द्वै  औरहु  आय

लिए कमंडल कर में, धारे वसन कषाय।

पै जो तिनके आगे आवत धारि पथतीर

ऐसी  गौरवभरी  तासु  गति  अति  गंभीर,

फूटति ऐसी दिव्य दीप्ति कढ़ि चारों ओर,

ऐसो  मृदुल  पुनीत  भाव  दरसत  दृगकोर

भिक्षा लै जो देन बढ़त दोउ हाथ उठाय

चित्र लिखे से चकित चाहि मुख रहत ठगाय।

कोऊ  कोऊ  धाय  परत  पाँयन  पै  जाय,

फिरत लेन कछु और दीनता पै पछिताय,

धीरे धीरे लगे नारि, नर, बालक संग

कानाफूसी  करत  परस्पर  ह्नै  कै  दंग- 

''कहौ कौन यह? कहौ, कछू आवत मन माहिं?

ऋषि तो ऐसो परो लखाई अब लौं नाहिं।''

चलत चलत सो पहुँच्यो ज्यों मंडप नियराय

खुल्यो पाटपट, यशोधरा चट पहुँची धाय।

ठाढ़ी  पथ  पै भई  अमल  मुखचंद्र  उघारि

'हे स्वामी! हे आर्य्यपुत्र!' यह उठी पुकारि।

भरे विलोचन वारि, जोरि कर सिसकि अधीर

देखत  देखत  परी  पाँय  पै  पथ  के  तीर।

जब दीक्षित ह्नै चुकी धर्म में राजवधू वह

एक शिष्य ने जाय करी प्रभु सों शंका यह- 

''सब रागन सों रहित, वासना सकल निवारी,

त्यागि कामिनी परस कुसुमकोमल मनहारी

यशोधरा को करन दियो प्रभु क्यों आलिंगन?''

सुनत बुद्ध भगवान् वचन बोले प्रसन्न मन- 

''महाप्रेम  यों  छोटे  प्रेमन  देत  सहारो

सहजहि ऊँचे जात ताहि लै दै पुचकारो।

ध्यान रहै जो कोउ छूटि बंधन सों जावै

मुक्तिगर्व करि बद्ध जीव कबहूँ न दुखावै।

समुझि लेहु यह मुक्ति लही है जाने, भाई!

एक बार ही नाहिं कतहुँ काहू ने पाई।

जन्म जन्म बहु जतन करत औ लहत ज्ञानबल

आवत हैं जो चले, अंत में पावत यह फल।

तीन कल्प लौं करि प्रयास अति प्रबल अखंडित

बोधिसत्व हैं मुक्त होत जग की सहाय हित।

प्रथम कल्प में होत 'मन: प्रणिधन' श्रेष्ठतर।

बुद्ध होन की जगति लालसा मन के भीतर।

होत 'वाक् प्रणिधन' दूसरे कल्प माहिं पुनि,

'ह्नै जैहौं मैं बुद्ध' कहत यह बात परत सुनि।

लहत तीसरे कल्प माहिं 'विवरण' पुनि जाई

'अवसि होहुगे बुद्ध' बुद्ध कोउ बोलत आई। 1

प्रथम कल्प में रह्यो ज्ञान शुभ मार्ग गुनत सब,

पै  ऑंखिन  पै  परदो  मेरे  परो  रह्यो  तब।

भयो न जाने किते लाख वर्षन को अंतर

'राम' नाम को वैश्य रह्यो जब सागर तट पर,

परति  सामने  स्वर्णभूमि  दक्षिण  दिशि  जाके

निकसत सीपिन सों मोती जहँ बाँके बाँके।

1. 'मन: प्रणिधन' के उपरांत सर्वभद्रकल्प में जब गौतम धन्यदेशीय सम्राट् के पुत्र हुए तब उन्होंने कहा ''मैं बुद्ध हूँगा''। सारमंद नामक तीसरे कल्प में वे पुष्पवती के राजा सुनंद के पुत्र हुए। इसी कल्प में उन्हें तृष्णांकर बुद्ध द्वारा 'अनियत विवरण' (अर्थात् तुम बुद्ध हो सकते हो) और दीपंकर बुद्ध द्वारा 'नियत विवरण' (अर्थात् तुम अवश्य बुद्ध होगे) प्राप्त हुआ। कहीं कहीं बोधिसत्व की तीन अवस्थाओं के नाम 'अभिनीहार' (बुद्धत्व की आकांक्षा), व्याकरण (किसी तथागत की भविष्यद्वाणी कि तुम बुद्ध होगे), और हलाहल (आनंदधवनि) भी मिलते हैं।

यशोधरा  यह  रही  संगिनी  तबहुँ  हमारी,

लक्ष्मी  ताको  नामरही  ऐसिय  सुकुमारी।

घर दरिद्र अति रह्यो, मोहिं सुधि आवति सारी।

लाभ  हेतु  परदेश  कढ़यो  मैं  दशा  निहारी।

लक्ष्मी  तबहूँ  ऑंसुन सों  ऑंखैं  भरि  लीनी,

'विलग न मोसों होहु' बोलि यों विनती कीनी- 

'जलथल पथ की विकट आपदा क्यों सिर लैहौ?

चाहत एतो जाहि ताहि तजि कैसे जैहौ!'

पै मैं साहस सहित गयो चलि सागर पथ पर।

पथ के अंधाड़ झेलि और श्रम करि अति दुष्कर,

काहू बिधि जलजंतुन सों निज प्राण बचाई,

घोर धूप औ निविड़ निशा की सहि कठिनाई,

अवगाहत जल लह्यो एक मोती अति निर्मल

पानी जासु अमोल, चंद्र सी आभा उज्ज्वल,

सकत जाहि लै केवल कोऊ भूपहि भारी

रीतो करि निज कोष, द्रव्य निज सकल निकारी।

फिरि प्रसन्न मन, लख्यो ग्राम के गिरि नयननभरि,

किंतु घोर दुर्भिक्ष देश भर माहिं रह्यो परि।

पथ के कठिन परिश्रम सों ह्नैं चूर शिथिल अति,

भूख प्यास सों विकल, मंद परि रही अंग गति।

पहुँच्यो  काहू  भाँति  द्वार  पै  अपने  जाई,

सागर  को  सित  रत्न  फेंट  में  कसे  छपाई।

एतो  श्रम  सब  जाके  हित  मैं  जाय  उठायो

ताको  परी  अचेत  द्वार  पै  अपने  पायो!

भई कंठगत प्राण, सकति नहिं नयनन खोली,

अन्न बिना मरि रही, कढ़ति नहिं मुख सों बोली।

कह्यो घूमि चिल्लाय 'अन्न कछु होय जासु घर

एक जीव हित धारों राज को मोल तासु कर।

लक्ष्मी  के  मुख  माहिं  अन्न  जो  थोरो  नावै

चंद्रप्रभ  यह  रत्न  आय  मोसों  लै  जावै।'

अपनो अंतिम संचय लै इक पहुँच्यो सुनि यह।

तीन  सेर  बाजरो  तौलि  लै  गयो  रत्न  वह

परयो प्राण तन, लै उसास लक्ष्मी बोली तब- 

'सत्य तिहारो प्रेम, त्याग लखि परयो मोहिं अब।'

मुक्ता  जो  वा  पूर्व  जन्म  में  मैंने  पाई,

भले  काज  में  मैंने  दीनी  ताहि  लगाई।

एक जीव के सुख हित दीनी सो छन माहीं

देखी  काहू  भाँति  और  रक्षा  जब  नाहीं

 

औरहु गहरे धाँसि अथाह में पाय बोधिबल

लह्यो अंत में अति अलभ्य जो यह मुक्ताफल,

सत्य धर्म 'द्वादश निदान' मय रत्न अनोखो,

छीजि सकत नहिं होत दिए सों औरहु चोखो।

गुनौ  मेरु  के  आगे  ज्यों  वल्मीक  पुरानो,

जैसे  वारिधि  आगे  तुम  गोपदजल  जानो

तैसोई  सो  दान  दान  के  आगे  या  मम

जासों  मंगल  होय  जीव  को  छूटै  सब  भ्रम।

ऐसोई  यह  प्रेम  आज  को  बड़ो  हमारो

इंद्रिन के श्रमबंधन सों ह्नै सब विधि न्यारो,

नयो  सहारो  देन  हेतु  जो  जीवहि  निर्बल

है महत्व यह याको, नहिं कछु संशय को थल।'

यशोधरा  यों  पाय  प्रेम  को  मृदुल  सहारो

बढ़ी शांति- सुख- मार्ग और संशय तजि सारो।

 

 

 

भूप  ने  जब  सुन्यो कैसे  आय  पुर  के  द्वार

धरि  उदासी  वेष  मूँड़  मुड़ाय  राजकुमार

रह्यो  नीचन  द्वार  भिक्षा  हेतु  कर  फैलाय।

कोपपूरित  छोभ  छायोगयो  प्रेम  भुलाय!

 

श्वेत  मूँछन  ऐंठि  बारंबार  पीसत  दाँत

कढयो बाहर संग लै सामंत कंपित गात,

तमकि तीखे तुरग पै चढ़ि, रोष सहित निहारि,

चल्यो बीथिन बीच बढ़ि जहँ भरे पुरनरनारि।

 

चकित चितवत रहि गए जे रहे वा मग जात,

कहन पायो काहु सों नहिं कोउ एती बात

''अरे!  आवत  महाराजधिराज  देखत  नाहिं?'

राजदल कढ़ि गयो खम खम करत एते माहिं।

 

मुरयो मंदिर पास सो जब परयो लखि पुरद्वार,

मिली आवति भूप को निज ओर भीर अपार,

लोग चारों ओर सों चलि मिलत जामें जात,

बढ़ति छिन छिन जाति जो, नहिं कतहुँ पंथलखात।

 

भिक्षु सो लखि परयो जाके संग एती भीर।

गयो कोप हिराय नृप को जबै वा पथ तीर

 

तासु व्याकुल वदन बुद्ध विलोकि मृदु टक लाय,

तेजपूरित विनय सों नै लियो दीठि नवाय।

 

निज कुँवरि को सो भाव भूपहि परयो अतिप्रियजानि

पहिचानि पूर्ण स्वरूप ताको और मन अनुमानि

भाव विभव सों बढ़ि सकल तासु विभूति और प्रताप

यों सहमि जासों चलत सँग सब शांति सों चुपचाप।

 

नृप तदपि बोल्यो ''कहा होनो रह्यो याही, हाय।

यों दबे पाँयन कुँवर अपने राज ही में आय,

तन धारि कंथा फिरै माँगत भीख सब के द्वार

जहँ देवदुर्लभ रह्यो जीवन तासु या संसार?

 

ऐश्वर्य  यहहे  पुत्र!  सारो  रह्यो  तेरो  दाय।

तिन नृपन के वर वंश में तू जन्म लीनो आय

जे लहत कर संकेत करि जो चहत भूतल माहिं,

आदेश पालन माहिं जिनके कोउ चूकत नाहिं।

 

धारि चहत आवन रह्यो तोहिं परिधन पद अनुसार

लै संग, भाले करत चमचम, चपलगति असवार।

यह देखु! डेरे डारि सैनिक परे सब पथतीर,

तोहि लेन आगे सों खड़ी पुरद्वार पै यह भीर।

 

तू रह्यो एते दिनन लौं कहँ फिरत राजकुमार?

दिन राति रोवत रह्यो ढोवत मुकुट को या भार।

घर बैठि तेरी वधू विधावा सी दशा तन लाय

ह्नै रही दीन मलीन अति, सुखसाज सकल विहाय।

नहिं सुन्यो कबहूँ गीत वा मृदु बीन की झनकार,

नहिं धारयो तन पै कबहुँ सुंदर वसन एकहु बार,

आगमन सुनि बस आज धारयो स्वर्णवे सजाय

निज भिक्षुपति सों मिलन हित, जो धारे वासकषाय।

हे सुत! कहौ, यह कहा?' उत्तर दियो तब प्रभुहेरि

''हे तात! यह कुलधर्म मेरो,'' सुनि कह्यो नृपफेरि

''लै महासंमत सों भए सौ भूप तव कुल माहिं

पै कियो काहू ने कबहुँ तो काज ऐसो नाहिं।''

 

बोले  प्रभु  ''कुलपरंपरा  मर्त्यन  की  नाहीं,

पै  बुद्धन  के अवतारन  की जुग  जुग  माहीं। 

पहले  हू  हैं  भए  बुद्धआगे  हूँ  ह्नै हैं,

तिनहीं  में  से  एक  हमहुँहे  तात!  कहैहैं।

जो कछु वे करि गए कियो मैंने सोई अब,

जो कछु अब ह्नै रह्यो भयो पहले हू सो सब।

नृपति एक धारि वर्म जाय निज पुर के द्वारन

मिल्यो पुत्र सों, धारे रह्यो जो भिक्षुवेष तन,

सत्य प्रेम संयम के बल जो अमित शक्तिधार,

परम  प्रतापी भूपालन सो कतहुँ श्रेष्ठतर,

सकल  जगत्  को  करनहार  उद्धार  तथागत

नायो जो निज सीस याहि विधि जैसे मैं नत।

समुझि पितृऋण औ लौकिक प्रेमहिं अपनाई

पाई जो निधि तासु प्रथम फल सम्मुख लाई,

चाह्यो अर्पित करन पिता को अति प्रसन्न मन,

जैसे ह्याँ, हे तात! आज मैं चाहत अर्पन।''

'कौन सी निधि?' नृपति पूछयो चाह सों चकराय

पकरि कर नरपाल को भगवान् तब हरखाय,

चले  बीथिन  बीच  भाखत  शांतिधर्मनिदान,

'आर्य सत्य' महान् जामें संपुटित सब ज्ञान।

 

कह्यो पुनि 'अष्टांग मार्ग' बुझाय जाके बीच

जो चहै सो चलै राजा रंक, द्विज और नीच।

पुनि  बताए  मोक्ष  के  सोपान  आठ  उदार

जिन्हैं  चाहैं  जो  गहैं  नर  नारि  या  संसार- 

 

मूर्ख, पंडित, बड़े, छोटे, युवा जरठ समान- 

छूटि या भवचक्र सों यों लहैं पद निर्वान।

चलत पहुँचे जाय ते प्रासाद के अब द्वार।

नृपति नाहिं अघात निरखत प्रभुहि बारंबार,

पीयूष से प्रिय वचन पुलकित पियत डोलत साथ

अति भक्ति सों भगवान् को लै पात्र अपने हाथ।

 

यशोधरा के खुले नयन नव ज्योतिहि पाई,

सूखे  ऑंसू  आनन  पै  मृदुआभा  छाई।

या विधि वा शुभ रैन राजकुल बोलि बुद्ध जय

शांति मार्ग में चलि प्रवेश कीनो मंगलमय।


बुद्धचरित
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