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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7

बुद्धचरित -4

 

चतुर्थ सर्ग

 

जब दिन पूरे भए बुद्ध भगवान् हमारे

तजि अपनो घर बार घोर बन ओर सिधारे।

जासों परयो खभार राजमंदिर में भारी,

शोकविकल अति भूप, प्रजा सब भई दु:खारी।

पै निकस्यो निस्तारपंथ प्राणिन हित नूतन,

प्रगटयो शास्त्र पुनीत कटे जासों भवबंधन।

महाभिनिष्क्रमण

निखरी रैन चैत पूनो की अति निर्मल उजियारी।

चारुहासिनी खिली चाँदनी पटपर पै अति प्यारी।

अमराइन में धाँसि अमियन को दरसावति बिलगाई,

सींकन में गुछि झूलि रहीं जो मंद झकोरन पाई।

चुवत मधूक परसि भू जौ लौं 'टप टप' शब्द सुनावैं

ताके प्रथम पलक मारत भर में निज झलक दिखावैं।

महकति कतहुँ अशोकमंजरी, कतहुँ कतहुँ पुर माहीं

रामजन्म उत्सव के अब लौं साज हटे हैं नाहीं।

 

छिटकी विमल विश्रामवन पै यामिनी मृदुताभरी

वासित सुगंधा प्रसूनपरिमल सों, नछत्रान सों जरी।

ऊँचे उठे हिमवान की हिमराशि सो मनभावनी

संचरित शैल सुवायु शीतल मंद मंद सुहावनी।

 

चमकाय शृंगन चंद्र चढ़ि अब अमल अंबरपथ गह्यो

झलकाय निद्रित भूमि, रोहिनि के हिलोरन को रह्यो।

रसधाम के बाँके मुँडेरन पै रही द्युति छाय है

जहँ हिलत डोलत नाहिं कोऊ कतहुँ परत लखाय है।

बस हाँक केवल फाटकन पै पाहरुन की सुनि परै,

जहँ एक 'मुद्रा' कहि पुकारत एक 'अंगन' धुनि करै।

बजि उठत तोरणवाद्य हैं पुनि भूमि नीरवता लहै।

है कबहुँ बोलत फेरु पुनि झनकार झींगुर की रहै।

 

भवन भीतर जाति जालिन बीच सों छनि चाँदनी

भीति पै औ भूमि पै जो सीप मर्मर की बनी।

किरनमाल मयंक की तरुनीन पै है परि रही।

स्वर्ग बिच विश्रामथल अमरीन को मानो यही।

 

कुमार के रंगनिवास की हैं अलबेली नवेली तहाँ रमनी।

लसै छवि सोवत में मुख की प्रति एक की ऐसी लुनाई सनी,

परै कहुँ जाहि पै दीठि जहाँ सोई लागति सुंदरि ऐसी धानी

यहै कहि आवत है मन में 'सब में यह रत्न अमोल धानी।'

 

पै बढ़ि सुंदरि एक सों एक लखाति अनेक हैं पास परी।

मोद में माति फिरैं ऍंखियाँ तहँ रूप के राशि के बीच भरी,

रत्न की हाट में दौरति ज्यों मणि तें मणि ऊपर दीठी छरी,

लोभि रहै प्रति एक पै जौ लगि और की ओर न जाय ढरी।

 

सोवतीं सँभार बिनु सोभा सरसाय, गात

        आधो खुले गोरे सुकुमार मृदु ओपधार।

चीकने चिकुर कहूँ बँधो हैं कुसुमदाम,

        कारे सटकारे कहूँ लहरत अंक पर।

सोवैं थकि हास औ विलास सों पसारि पाँय,

        जैसे कलकंठ रसगीत गाय दिन भर।

पंख बीच नाए सिर आपनो लखाति तौ लौं

        जौ लौं न प्रभात आय खोलन कहत स्वर।

 

कंचन की दीवट पै दीपक सुगंधाभरे

        जगमग होत भौन भीतर उजास करि।

आभा रंग रंग की दिखाय रही तासों मिलि

        किरन मयंक की झरोखन सों ढरि ढरि।

 

जामें है नवेलिन की निखरी निकाई अंग

        अंगन की वसन गए हैं कहूँ नेकु टरि।

उठत उरोज हैं उसासन सों बार बार,

        सरकि परे हैं हाथ नीचे कहूँ ढीले परि।

देखि परैं साँवरे सलोने, कहूँ गोरे मुख,

        भृकुटी विशाल बंक, बरुनी बिछी हैं श्याम।

अधाखुले अधार, दिखात दंतकोर कछु

        चुनि धारे मोती मानो रचिबे के हेतु दाम।

कोमल कलाई गोल, छोटे पाँय पैजनी हैं,

        देति झनकार जहाँ हिलै कहूँ कोऊ वाम।

स्वप्न टूटि जात वाको जामें सो रही है पाय

        कुँवर रिझाय उपहार कछु अभिराम।

 

ह्नै कै परी लाँबी कोऊ बीना लै कपोल तर,

        ऑंगरी अरुझि रहीं अब ताइँ तार पर

वाही रूप जैसे जब कढ़ति सो तान रही

        झूमि रस जाके झपे लोचन विशाल वर।

लै कै परी कोऊ मृगशावक हिए तें लाय,

        सोय गयो टुँगत कुसुम पाय तासु कर।

कुतरो कुसुम लसै कामिनी के कर बीच,

        पातीं लपटानी हरी हरिन अधार तर।

सखियाँ द्वै आपस में जोरि गर गईं सोय

        गुहत गुहत गुच्छ मोगरे को महकत,

प्रेमपाश रूप रह्यो बाँधि अंग अंगन जो

        अंतस् सो अंतस् मिलावत न सरकत।

सोयबे के प्रथम पिरोवति रही है कोऊ

        कंठहार हेतु मोती मानिक औ मरकत।

सूत में पिरोए रहे अरुझि कलाई बीच

        रंग रंग को प्रकाश तिनसों है झलकत।

 

उपवन भेंटती नदी को कल नाद सुनि

        सोईं सब विमल बिछावन पै पास पास।

मूँदि दल नलिनी अनेक रहीं जोहि मनो।

        भानु को प्रकाश जाहि पाय होत है विकास।

कोठरी कुमार की लखति जाके द्वार बीच

        दमकि सुरंगपट रहे पाय कै उजास।

ताके दोऊ ओर गंगा गौतमी सलोनी सोईं

        रसधाम बीच जो प्रधन ह्नै करैं निवास।

 

लगे द्वार पै चंदन के हैं चित्रित चौखट,

कनककलित बहु परे मनोहर अरुण नील पट।

चढ़ि कै सीढ़ी तीन परत है जिनके भीतर

अति विचित्र आवास कुँवर को परम मनोहर,

रेशम की गुलगुली सेज जहँ सजी सुनिर्मल

लगति कमलदल सरिस अंग तर जो अति कोमल।

भीतिन पै हैं मोतिन की पटरी बैठाई,

सिंहल की सीपिन सों जो हैं गई मँगाई।

सित मर्मर की छत पै सुंदर पच्चीकारी,

रंग रंग के नग जड़ि कै जो गई सँवारी।

विविध वर्ण की बनी बेलबूटी मन मोहति।

कटी झरोखन बीच चित्रमय जाली सोहति,

जिनसों खिली चमेलिन को सौरभ है आवत

चंद्रकिरण, शीतल समीर को संग पुरावत।

भीतर सुषमा लसति नवल दंपति की भारी-

शाक्य कुँवर है बसत, लसत गोपा छबिवारी।

 

यशोधरा उठि परी नींद सों कछु अकुलाई,

उरसों अंचल सरकि रह्यो कटि सो लपटाई।

रहि रहि लेति उसास, हाथ भौंहन पे फेरति,

भरे विलोचन वारि चाहि निज पिय दिशि हेरति।

तीन बार कर चूमि कुँवर को बोली सिसकति

'उठौ, नाथ! मो को बचनन सों सुखी करौ अति।'

कह्यो कुँवर 'है कहा? प्रिये! मोहिं कहौ बुझाई।'

पै सिसकति सो रही, बात मुख पै नहिं आई।

 

पुनि बोली 'हे नाथ! गर्भ में शिशु जो मेरे

सोचति ताकी बात सोच मैं गई सबेरे।

लखे भयानक स्वप्न तीन मैं अति सुखघाती,

करिकै जिनको ध्यान अजहुँ लौं धारकति छाती।

एक श्वेत वृष अति विशालवपु परयो लखाई

घूमत वीथिन बीच बिपुल निज शृंग उठाई,

उज्ज्वल निर्मल रत्न एक धारे मस्तक पर

दमकत जो ज्यों परो टूटि तारो अति द्युतिधर

अथवा जैसो नागराज को मणि द्युतिवारो

जासो होत पताल बीच दिन को उजियारो

मंद मंद पग धारत गलिन में चल्यो वृषभ बढ़ि

नगर द्वार की ओर, रोकि नहिं सक्यो कोउ कढ़ि।

भई इंद्रमंदिर सों वाणी यह विषादमय-

'जो न रोकिहौ याहि नगरश्री नसिहै निश्चय।'

जब कोऊ नहिं रोकि सक्यो तब मैं बिलखाई,

ताके गर भुजपाश डारि मैं लियो दबाई।

आज्ञा दीनी द्वार बंद करिबे की मैं पुनि,

पै सो कंधा हिलाय, गर्व सो करि भीषण धुनि

तुरत छूटि मम अंक बीच सों धायो हँकरत,

तोरण अर्गल तोरि भज्यो पहरुन को कचरत।

दूजे अद्भुत स्वप्न माहिं मैं लख्यो चारि जन,

नयनन सों कढ़ि रह्यो तेज जिनके अति छन छन

मानो लोकप चलि सुमेर तें भू पै आए,

देवन को लै संग रहे या पुर में छाए।

जहाँ द्वार के निकट इंद्र की धवजा पुरानी

गिरी टूटि अरराय, कँपी सिगरी रजधानी।

दिव्य केतु पुनि उठयो एक औरहि तहँ फहरत,

रजततार में टँके अनल सम मानिक छहरत,

जासो कढ़ि बहु किरन शब्दरूपी छितरानी,

सुनि जिनको भे मुदित जगत् के सारे प्रानी।

मृदु झकोर सो चल्यो पूर्व सो प्रात समीरन,

रत्नजटित सो केतु पसारयो, पढै सकल जन।

झरे अलौकिक कुसुम न जाने कित सो आई।

रूप रंग में वैसे ह्याँ नहिं परैं लखाई।'

 

 

कह्यो कुँवर 'हे कमलनयनि! सपनो यह सुंदर।'

बोली सो 'हे आर्य्यपुत्र! आगे है दु:खकर।

गगनगिरा सुनि परी 'समय आयो नियराई।'

याके आगे स्वप्न तीसरो परयो लखाई।

हेरयो मैं, 'हे नाथ! हाय, निज पार्श्व ओर जब

पायो सूनी सेज, तिहारे वसन परे सब।

चिह्न मात्र तव रहे, छाँड़ि तुम मोहिं सिधारे,

जो मेरे सर्वस्व, प्राणधन, जीवन, प्यारे।

देखति हौं पुनि मोतिन को कटिबंधा तिहारो

लपटयो मेरे अंग, भयो अहि दंशनवारो।

सरके कर के कंगन और केयूर गए नसि,

वेणी सो मुरझाय मल्लिकादाम परे खसि।

यह सोहाग की सेज रही भू माहिं समाई,

द्वारन के पट चीथि उठे आपहि उधिराई।

सुन्यो दूर पै फेरि श्वेत वृभभहि मैं हँकरत,

और लख्यो सोइ केतु दूर पै दमकत फहरत।

पुनि बानी सुनि परी 'समय आयो नियराई।'

उठयो करेजो काँपि, परी जगि मैं अकुलाई।

इन स्वप्नन को अर्थ याहि या तो मैं मरिहौं।

अथवा तजिहौ मोहिं, मृत्यु ते बढ़ि दु:ख भरिहौं।'

 

अथवत दिनकर सम आभा मृदु नयनन धारी।

रह्यो कुँवर निज दुखित प्रिया की ओर निहारी।

बोल्यो पुनि 'हे प्रिये! रहौ तुम धीरज धारे,

यदि धीरज कछु मिलै प्रेम में तुम्हें हमारे।

चाहै आगम कछू स्वप्न ये होयँ जनावत

औ देवन को आसन होवै डिग्यो यथावत,

औ निस्तार उपाय जगत् चाहत कछु जानन

हम तुम पै जो चहै परै राखौ निश्चय मन-

यशोधरा सों रही प्रीति मम जुग जुग जोरी,

औ रहिहै सो सदा, नेकु नहिं ह्नै है थोरी।

जानति हौ तुम केतो सोचत रहौ राति दिन

या जग को निस्तार जाहि देख्यो ऑंखिन इन।

समय आयहै ह्नै है जो कछु होनो सोऊ।

जो कछु हम पै परै सहैं हम तुम मिलि दोऊ।

जो आत्मा मम व्यथित अपरिचित जीवन के हित,

जो परदु:ख लखि दु:खी रहत हौं मैं ऐसो नित

सोचौ तो, मन मेरो विहरणशील उच्चतर

रहिहै कैसो लगो सदा घर के प्रानिन पर,

जो साथी मम जीवन के, मोको सुखकारी,

जिनमें सब सों बढ़ि अभिन्न तुम मेरी प्यारी।

गर्भ माहिं तुम मम शिशु की हौ धारनवारी,

जासु आस धारि मिलि देह सों देह हमारी।

जब मेरो मन भटकत चारों दिशि जल थल पर

बँधयो प्रेम में जीवन के या भाँति निरंतर-

उड़ति कपोति बँधी प्रेम में ज्यों शिशु के नव-

मन मेरो मँड़राय बसत है आय पास तव।

कारण यह, मैं जानत हौं तुमको सुशील अति,

सब सों बढ़ि आपनी, परम कोमल उदारमति।

सो अब जो कछु परै आय तुम पै, हे प्यारी!

करि लीजौ तुम ध्यान श्वेत वृष को वा भारी

औ वा रत्नन जड़ी धवजा को गइ जो फहरति,

पुनि रखियो मन माँहिं आपनो यह निश्चय अति-

सब सों बढ़ि कै सदा तुम्हैं चाह्यौं औ चहिहौं,

सबके हित जो वस्तु रह्यो खोजत औ रहिहौं,

ताहि तिहारे हेतु खोजिहौं अधिक सबन सों,

धीरज यातें धारौ छाँड़ि चिंता सब मन सों।

परै दु:ख जो कछू धीर धारियो गुनि यह चित

होय कदाचित् हम दोउन के दु:ख सों जगहित।

सत्य- प्रेम- प्रतिकार सकै कोऊ जेतो चहि

प्रीति निहोरे जेतो कोऊ रसभोग सकै लहि

लहौ सकल तुम आलिंगन में मम, हे प्यारी!

स्वार्थभाव अति अबल प्रेम के बीच बिचारी।

चूमौ मम मुख, पान करौ ये वचन हमारे,

जानौगी तुम और न जाके जाननहारे।

सब सौं बढ़ि कै प्रीति करी तुमसों मैं, प्यारी!

कारण, मेरी प्रीति सकल प्राणिन पै भारी।

प्राणप्रिये हे! सुख सो सोओ तुम निधारक अब

हौं बैठो मैं पास तिहारे औ निरखत सब।'

सजल नयन सों सोय रही सो सिसकति रोवति,

'समय गयो अब आय' स्वप्न सो पुनि यह जोवति।

उलटि कुँवर सिद्धार्थ रह्यो नभ ओर निहारी,

चमकत उज्ज्वल चंद्र, विमल फैली उजियारी।

बीच बीच में कतहुँ रजत सी आभा धारे

मिलि कै मानो रहे यहै कहि सारे तारे-

 

'यहै रैनि सो, गहौ पंथ चाहौ जो हेरो,

सुख वैभव को अपने वा जगमंगल केरो।

चहै करौ तुम राज चहै भटकौ तुम उत इत

मुकुटहीन जनहीन- होय जासों जग को हित।'

 

कह्यौ सो 'मैं अवसि जैहों घरी पहुँची आय,

रहे, सोवनहारि! तब ये मृदुल अधार बताय

करन को सो कटै जासों जगत् को भवरोग,

यदपि मोसो और तोसो ह्नै न जाय वियोग।

 

गगन की निस्तब्धता में मोंहिं झलकत आज

जगत् में आयो करन हित कौन सो मैं काज।

रहे सबै बताय आयों हरन को भवभार।

चहौं मैं नहिं मुकुट जापै वंशगत अधिकार।

 

तजत हौं वे देश जिनको जीततो मैं जाय।

नाहिं मेरो खंग खुलि अब चमकिहैं तहँ धाय।

रुधिर सनि रथचक्र मेरे घूमिहैं नहिं घोर

रक्तअंकित करन को मम नाम चारों ओर।

 

फिरन चाहौं धारा पै धारि अकलुषित पाँव,

धूरि ह्नै है सेज मेरी, बास सूनो ठाँव।

तुच्छ तें अति तुच्छ मेरे वस्तु रहिहैं संग।

चुनि पुराने चीथरे ही धारिहौं मैं अंग।

 

 

कोउ दैहै खायहौं सो और व्यंजन नाहिं।

वास करिहौं गिरिगुहा और विपिन झाड़िन माहिं।

अवसि करिहौं मैं यहै, है परत मेरे कान

सकल जीवन को जगत केर् आत्तानाद महान।

 

हृदय उमगता है दया सों देखि भवरुज घोर,

दूर जाको करन चाहौं चलै जहँ लौं जोर।

शमन करिहौं याहि, जो कछु उचित शमन उपाय

कठिन त्याग, बिराग और प्रयत्न सों मिलि जाय।

 

हैं अनेकन देव, इनमें कौन सदय समर्थ?

काहु न देख्यो इन्है जो करत सेवा व्यर्थ?

निज उपासक करन की ये करै कौन सहाय?

लोग करि आराधन इनकी रहे का पाय?

 

करत विविध विधन सों पूजा अनेक प्रकार,

धारत हैं नैवेद्य बहु, करि मंत्र को उच्चार।

हनत यज्ञन माहिं बलि के हेतु पशु बिललात

औ उठावैं बड़े मंदिर जहँ पुजारी खात।

 

विष्णु, शिव औ सूर्य्य की कीनी अनेक पुकार

पै भले तें भले को नहिं कियो इन उद्धार,

नहिं बचायो ताप तें वा जो सिखावनहार

ठकुरसोहाती, भयस्तुति के अनेक प्रकार।

 

इन उपायन सों बच्यो मम बंधु कोउ बिहाल

कठिन, रोग, वियोग, नाना क्लेश सों विकराल?

कौन जूड़ी और ज्वर सों बच्यो या जग आय?

कौन जर्जर क्षीणकारी जरा सों बचि जाय?

 

भई रक्षा कौन की है मृत्यु सों अति घोर?

पच्यो है भवचक्र में नहिं कौन इनके जोर?

नए जन्मन संग उपजय नए क्लेश अपार,

वासना को वंश बाढ़त अंत जासु विकार।

कौन सी सुकुमारि नारी लह्यो या संसार

कठिन व्रत उपास को फल, भजन कौ प्रतिकार?

भई काहू की प्रसव की वेदना कछु थोरि

दही दूर्वा जो चढ़ावति विनय सों कर जोरि?

 

होयँगे कोउ देव नीके, कोउ बुरे इन माहिं

किंतु मानव दशा फेरे कोउ ऐसो नाहिं।

होयँगे निर्दय सदय ज्यों नरन में दरसात,

पै बँधो भवचक्र में सब रहत फेरे खात।

 

है हमारे शास्त्र को यह वचन सत्य प्रमान।

'जन्म को यह चक्र घूमत रहत एक समान।'

होत हैं आरोहक्रम में जीव जो अवदात

कीट, खग, पशु सों मनुज ह्नै देवयोनिन जात।

 

सोइ परि अवरोह में पुनि कीट उष्मज होत।

हैं जहाँ लौं जीव ते हैं सकल अपने गोत।

शाप तें या मनुज कों कहुँ होय जो उद्धार,

परै हलको सकल प्राणिन को अविद्या भार,

 

जासु छाया है दिखावति त्रास सब कौ घोर,

जीवपीड़ा जासु क्रीड़ा निपट निठुर कठोर।

होति कैसी बात, हा! जो सकत कोउ बचाय!

अवसि ह्नै है कहुँ न कहुँ तो शरण और उपाय।

 

रहे पीड़ित शीत सों तौ लौं मनुज भरपूर

कियो जों लौं नाहिं कोऊ कठिन चकमक चूर,

और अरणी मथि निकासी अग्नि की चिनगारि

रही इनमें लुकी जो बहु आवरण पट डारि।

 

रहे अस्फुट शब्द सों बिंबियात नर जग माहिं

वर्ण के संकेत जौ लौं कोउ निकस्यो नाहिं।

रहे टूटत श्वान सम ते मांस ऊपर जाय

नाहिं रोप्यो बीज जौ लौं खेत कोउ बनाय।

लही जो कछु वस्तु जग में है मनुज ने चाहि

मिली अपनी खोज, त्याग, प्रयत्न सों है वाहि।

करै भारी त्याग कोऊ और खोजै जाय

तो कदाचित् त्राण को मिलि जाय कोउ उपाय।

 

जो सुखी संपन्न होवै लहि सकल सुखसाज,

जन्म जाको होय करिबे हेतु जग में राज,

होत जीवन नाहिं भारी जाहि काहु प्रकार,

जो लहत आनंद ही सब भाँति या संसार,

 

प्रेम के रसरंग में जो सनो तृप्ति विहीन,

जो न होवै जराजर्जर, शिथिल, चिंतालीन,

दु:ख आश्रित विभव जग के होंय करत हुलास,

एक सों बढ़ि एक जाको सुलभ भोग विलास,

 

होय मो सम जो, न जाको रहै कोऊ क्लेश,

औ न अपनी रहै चिंता सोच को कछू लेश,

सोच केवल जाहि पर दु:ख देखि कै दिन राति,

सोच केवल यहै 'मैं हूँ मनुज सबकी भाँति,'

 

होय जो ऐसो, तजन हित होय एतो जाहि,

त्यागि सर्वस देय जो निज मनुजप्रेम निबाहि,

खोज में पुनि सत्य के जो लगै आठो याम

और मुक्ति रहस्य खोजै होय सो जा ठाम-

 

नरक में वा स्वर्ग में चाहै छिपो जहँ होय,

चहै अंतर में सबन के गुप्त होवै सोय-

दिव्य दृष्टि गड़ाय जो सो देखिहै चहुँ ओर

अवसि टरिहै कबहुँ कतहूँ आवरण यह घोर,

 

अवसि खुलिहै मार्ग कहुँ, जहँ थके पाँव पधारि।

पायहै निस्तार को सो कोउ द्वार निहारि।

जासु हित सब त्यागिहै सो अवसि मिलिहै ताहि

और मुत्युंजय कदाचित् होयहै सो चाहि।

करौ मैं यह, त्यागिबे हित जाहि एतो राज।

हिये कसकति पीर सो जो सहत मनुजसमाज।

है जहाँ जो कछु हमारो- कोटिगुन हू और-

करत हौं उत्सर्ग जासों होय सुख सब ठौर।

 

होहु साक्षी आज गगन के सारे तारे!

और भूमि जो दबी भार सो ''आज पुकारे!

त्यागत हौं मैं आज आपनो यह यौवन, धन,

राजपाट, सुख, भोग, बंधु, बांधाव औ परिजन,

सबसों बढ़ि भुजपाश, प्रिये! तव तजत मनोहर

तजिबो जाको या जग में है सब सों दुष्कर।

पै तेरो निस्तार जगत् के सँग बनि ऐहै,

वाहू को जो गर्भ बीच तव कछु दिन रैहै-

है जो फल लहलहे प्रेम को प्रथम हमारे-

पै देखन हित ताहि रहौ तो धरौय्य सिधारे।

हे पत्नी, शिशु पिता और मेरे प्रिय पुरजन!

कछुक दिवस सहि लेहु दु:ख जो परिहै या छन,

जासों निर्मल ज्योति जगै सो अति उजियारी,

लहैं धर्म को मार्ग सकल जग के नर नारी।

अब यह दृढ़ संकल्प, आज सब तजि मैं जैहौं।

जब लौं मिलिहै नाहिं तत्व सो नहिं फिरि ऐहौं।''

 

यों कहि नयनन लाय लियो निज प्यारी को कर।

नेहभरी पुनि दीठि विदा हित डारी मुख पर

करि परिक्रमा तीन सेज की पाँव बढ़ाए,

धाकधाकाति छाती को कर सों दोउ दबाए।

कह्यो ''कबहुँ अब नाहिं सेज पै या पग धारिहौं।

छानत पथ की धूरि धारातल बीच बिचरिहौं।''

तीन बेर उठि चल्यो, किंतु सो फिरि फिरि आयो,

ऐसो वाके रूप प्रेम सों रह्यो बँधायो,

अंत सीस पट नाय, पलटि आगे पग डारी

आयो जहँ सहचरी सकल सोवति सुकुमारी,

पाय निशा मनु बँधी कमलिनी इत उत सोहति।

गंगा औ गोतमी अधिक सब सों मन मोहति!

पुनि तिनकी दिशि हेरि कह्यो 'सहचरी हमारी!

तुम सुखदायिनि परम, तजत तुमको दु:ख भारी।

पै जो तुमको तजौं नाहिं तो अंत कहाँ है?

जरा, क्लेश अनिवार्य्य, मरण विकराल महा है।

देखौ, जैसे परी नींद में हौ या छन सब

परिहौ याही भाँति मृत्यु गरजति ऐहै जब।

सूखि गयो जब कुसुम कहाँ फिर गंधा रूप तब?

चुक्यो तेल जब, ज्योति दीप की गई कहाँ सब?

हे रजनी! तुम और नींद सों चापौ पलकन,

अधारन राखौ मूँदि और तुम इनके या छन,

जासों नयनन नीर और मुख वचन दीनतर

राखैं मोहिं न रोकि, जावँ मैं तजि अपनो घर।

जेतोई सुख मोद लह्यो मैं इनसों भारी

तेतोई हौं होत सोचि यह बात दुखारी-

मैं, ये औ नर सकल भरत जड़ तरु सम जीवन,

लहत सहत हैं जो वसंत औ शीत ताप तन।

कबहूँ पात झुरात, झरत हैं लहलहात पुनि,

''कबहुँ कुठार प्रहार मूल पै होत परत सुनि!

नहिं जीवन या रूप बितैहौं या जग माहीं।

दिव्य जन्म मम, जाय व्यर्थ सो ऐसो नाहीं।

विदा लेत हौं आज, अस्तु, हे सकल सुहृद जन!

जौ लौं है सुखसार पूर्ण मोरो यह जीवन

है अर्पण के योग्य वस्तु सो, यातें अर्पत।

खोजन हित हौं जात मुक्ति औ गुप्त ज्योति सत्।''

 

कढ़यो मंद पग धारत कुँवर वा निशि में रहि रहि,

तारक रूपी नयन नेह सों रहे जासु चहि।

शीतल श्वाससमीर आय चूम्यो फहरत पट,

जोह्यो नाहिं प्रभात सुमन खोल्यो सौरभ चट।

हिमगिरि सों लै सिंधु ताइँ वसुधा लहरानी,

नव आशाँ सों तासु हृदय उमग्यो कछु जानी।

मधुर दिव्य संगीत गगन में परयो सुनाई।

दमकि उठीं सब दिशा, देवगण सों जो छाई।

गणन लिए निज संग, मढ़े रत्नन सों भारी

चारो दिक्पति आय द्वार पै बारी बारी

ताकत हैं कर जोरि कुँवर को मुख, जो ठाढ़ो

सजल नयन नभ ओर किए, हित धारि हिय गाढ़ो

 

बाहर आयो कुँवर पुकारयो 'छंदक, छंदक,

उठौ, हमारो अश्व अबै कसि लाओ कंथक।'

 

फाटक ही पै रह्यो सारथी छंदक सोवत,

धीरे सों उठि कह्यो कुँवर मुख जोवत जोवत-

'कहा कहत हौ, नाथ, राति में या अंधियारी

जैहौ तुम कित, कुँवर! होत विस्मय मोहिं भारी।'

 

बोलौ धीमे, लाओ मेरे चपल तुषारहिं,

'घरी पहुँचि सो गई तजौं या कारागारहि,

जहाँ रहत मन बँधो, तत्व ढिग पहुँचि न पावत।

अब मैं खोजन जात लोक हित ताहि यथावत्।'

 

कह्यो सारथी ''हाय, कुँवर! यह कहा करत अब?

कहे वचन जो गणक कहा झूठे ह्नै हैं सब?

शुद्धोदनसुत करिहै नाना देशन शासन,

राजन को ह्नै महाराज बसिहै सिंहासन।

कहा छाँड़ि धनधन्यपूर्ण धारती सो दैहै?

तजि सब भिक्षापात्र कहा अपने कर लैहै?

जाके ऐसो स्वर्ग सरिस रसधाम मनोहर

भटकत फिरिहै कहा अकेलो सूने पथ पर?''

 

उत्तर दीनो कुँवर ''इतै आयो याही हित,

सिंहासन हित नाहिं, सखा! यह लेहु धारि चित।

चाहत हौं मैं राज्य सकल राज्यन सों भारी।

लाओ कंथक तुरत, होहुँ वाको अधिकारी?''

 

बोल्यो छंदक ''कृपानाथ! हम कैसे रहिहैं?

महाराज, तव पिता शोक यह कैसे सहिहैं?

पुनि जाके तुम जीवनधन वाको का ह्नै है?

करिहौ कहा सहाय जबे जीवन नसि जैहै?''

उत्तर दीनों कुँवर ''सखा? यह प्रेम न साँचो,

जो निज आनंद हेतु प्रेम निश्चय सों काँचो।

पै इनसों मैं प्रेम करत निज आनंद सों बढ़ि-

औ तिनहू के आनंद सों बढ़ि- यातें अब कढ़ि

जात उधरन हेतु इन्हैं औ प्राणिन को सब।

लाओ कंथक तुरत, विलंब न नेकु करौ अब।''

 

'जो आज्ञा' कहि गयो अश्वशाला में छंदक,

तुरत निकासी बागडोर चाँदी की झकझक।

तंग पलानी कसि कंथक को लायो बाहर

फाटक ढिग, जहँ कुँवर रह्यो ठाढ़ो वा अवसर।

देखि प्रभुहि निज अति प्रसन्न ह्नै हय हिहनानो,

निरखत ताकी ओर बढ़ावत मुँह नियरानो।

सोवत जे जे रहे गई यह धवनि तिन लौं, पर

रखे देवगण मूँदि कान तिनके वा अवसर।

 

थपथपाय कर कुँवर कंठ पै वाके फेरे,

बोल्यो पुनि ''अब धीर धारौ, हे कंथक मेरे!

आज मोहिं लै चलौ जहाँ लौं बनै निरंतर,

सत्य खोजिबे हेतु कढ़त हौं आज छाड़ि घर।

कहाँ खोज को अंत होयहै, यह नहिं जानत,

बिनु पाए नहिं अंत यहै निश्चय मन ठानत।

सो अब साहस करौ करारो, तुरग हठीले!

खंगधार जो बिछै पंथ पग परैं न ढीले।

थमै न तेरो वेग, रुकै ना गति कहुँ तेरी।

खाई खंदक परैं, चहै पत्थर की ढेरी।

जा छन बोलौं 'बढ़ौ' पवन हू पाछे पारौ,

अनलतेज औ वायुवेग तुम या छन धारौ।

पहुँचाओ निज प्रभुहि, होयहौ तुमहू भागी

महत्कार्य की महिमा के या जग हित लागी।

चलत आज मैं, गुनौ, नाहिं केवल मनुजन हित

पै सब प्राणिन हेतु सहत दु:ख जो हम सब नित

किंतु सकत कहि नाहिं, मरत निशि दिन यों ही सब।

अस्तु पराक्रम सहित प्रभुहि लै चलौ तुरत अब।''

धीरे सों पुनि उछरि पीठ पै वाके आयो,

केसर पै कर फेरि कंठ वाको सहरायो

बढ़यो अश्व अब, परीं टाप पथरन पै वाकी,

बागडोर की कड़ी हिलीं चमकीं अति बाँकी।

पै 'टप टप' औ खनक नाहिं कोऊ सुनि पाई,

आय देवगण दिए मार्ग में सुमन बिछाई।

जब तोरण के निकट भूमि पै चलि पग डारे,

माया के पट विविध यक्षगण तहाँ पसारे।

या विधि आहट बिना कुँवर तोरण पै आए,

पीतर के तिहरे कपाट जहँ रहे भिड़ाए।

सौ मनुष्य जब लगैं खुलैं जो तब कहुँ जाई,

खुले आप तें आप सरकि, नहिं परे सुनाई।

याही विधि खुलि परे बाहरी फाटक सारे

ज्यों ही राजकुमार पाँव तिनके ढिग धारे।

रक्षकगण जनु मरे परे ऐसे सब सोए,

डारि ढाल तरवार दूर, तन की सुधा खोए।

ऐसी बही बयार कुँवर के आगे ता छिन

परे मोहनिद्रा में लीने श्वास जहाँ जिन।

 

   गयो गगनतट शुक्र, बह्यो जब प्रात समीरन,

लहरन लागी कछुक अनामा पाय झकोरन,

खींचि बाग चट कुँवर कूदि महि पै पग धारे,

कंथक को चुमकारि, ठोंकि मृदु बचन उचारे।

छंदक सो पुनि प्रेम सहित बोल्यो कुमारवर

''जो कछु तुमने कियो आज वाको फल सुंदर

पैहौ तुम औ पैहैं जग के सब नारी नर।

धन्य भए तुम आज जगत् में, हे सारथिवर!

देखि तिहारो प्रेम प्रेम मेरो अति तुम पर,

अब मेरे या प्यारे अश्वहिं लै पलटौ घर।

लेहु सीस को मुकुट, राजपरिधन हमारे

जिन्हें न कोउ अब मोहिं देखिहै तन पै धारे।

रत्नजटित कटिबंधा सहित यह खड्ग लेहु मम

औ ये लाँबी लटैं काटि फेंकत जिनको हम।

दै यह सब तुम महाराज सों कहियो जाई।

'मेरी सुधि अब राखैं तौं लौं सकल भुलाई

जौ लौं आऊँ नाहिं राज सों बढ़ि लहि संपति,

यत्न योगबल, विजय पाय, लहि बोध विमल अति।

यदि पाऊँ यह विजय होय वसुधा मेरी अब

हित नाते, उपकार निहोरे, यहै चहत अब।

गति मनुष्य की होनी है मनुष्य के हाथन।

पच्यो न जैसो कोउ होय पचिहौं दै तन मन।

जग के मंगल हेतु होत हौं जग तें न्यारे,

पैहौं कोऊ युक्ति की यह चित धारे'''

 


बुद्धचरित
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