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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7

बुद्धचरित -5
 

पंचम सर्ग

 

प्रव्रज्य

जहँ राजगृह है राजधानी लसति घिरि बन सों घने

तहँ पाँच पर्वत परत पावन पास पास सुहावने-

अति सघन ताल- तमाल- मंडित एक तो 'वैभार' है,

दूजो 'विपुलगिरि', बहति जा तर पातरी सरिधार है।

 

पुनि सघन छाया को 'तपोवन' जहँ सरोवर हैं भरे,

प्रतिबिंब श्याम शिलान के दरसात है जिनमें परे।

ऊपर चटानन सों शिलाजतु रसत जहाँ पसीजि कै,

नीचे सलिल को परसि रहि रहि डार झूमति भीजि कै।

 

चलि अग्निदिशि की ओर सुंदर 'शैलगिरि' मन को हरै,

उठि 'गृधा्रकूट' सृशृंग जाको दूर ही सों लखि परै,

प्राची दिशा की ओर सोहत 'रत्नगिरि' निखरी खरो,

जो विटप बीरुधा सों हरो, बहु रूप रत्नन सों भरो।

 

पथ विकट पथरीलो परै जो फेर को आओ धारे,

पग धारत बाड़न में कुसुम के, आम जामुन के तरे,

पै बचत झाड़िन सों कटीली बेर की औ बाँस की

औ चढ़त टीलन पै, कढ़त पुनि भूमि पै सम पास की।

 

नव कलित काननकुसुम वह जो अचल अंचल ढार है,

चलि देखिए वटकुंज भीतर जो गुफा को द्वार है।

या सरिस पावन और थल नहीं सकल भूतल पाइए,

करि विमल मन सब भाँति आदर सहित सीस नवाइए।

या ठौर श्रीभगवान् बसि काटत कराल निदाघ को,

जलधारमय घनघोर पावस, कठिन जाड़ो माघ को।

सब लोक हित धारि मलिन वसन कषाय कोमल गात पै

माँगे मिलति जो भीख पलटि पसारि पावत पात पै।

 

तृण डासि सोवत रैन में घर बार स्वजन बिहाय कै।

हुहुँआत चहुँ दिशि स्यार, तड़पत बाघ बनहिं कँपाय कै।

या भाँति जगदाराधय बितवत ठौर या दिन रात हैं।

सुखभोग को सुकुमार तन तप सों तपावत जात हैं।

 

व्रत नियम औ उपवास नाना करत, धारत ध्यान हैं,

लावत अखंड समाधि आसन मारि मूर्ति समान हैं।

चढ़ि जानु ऊपर कूदि कबहूँ धाय जाति गिलाय हैं।

कन चुनत ढीठ कपोत कर ढिग कबहुँ कंठ हिलाय हैं।

 

खरी दुपहरी में बैठत प्रभु ध्यान लगाए!

सन सन करती धारा, धूप धाधाकति दव लाए।

गन गन नाचत परत सकल बनखंड लखाई,

पै प्रभु जानत नाहिं जात कित दिवस बिहाई।

ढरत दीप्त अंगारबिंब सम गिरितट दिनकर,

पसरति आभा अरुण खेत औ खरियानन पर।

जुगजुगात पुनि जहँ तहँ निकसत नभ में तारे।

मिलि कै मंगलवाद्य उठत बजि पुर के सारे।

छाय जाति पुनि निशा, जीव जग के सब सोवत।

केवल कौशिक रटत कहूँ, कहुँ जंबुक रोवत।

पै प्रभु ध्याननिमग्न रहत हैं आसन धारे,

या जीवन को तत्व कहा सोचत मन मारे।

आधीरात निखंड होति, जग थिरता धारत।

केवल हिंसक पशु कढ़ि कै कहुँ फिरत पुकारत- -

ज्यों मन के अज्ञानविपिन भय द्वेष पुकारत,

काम क्रोध मद लोभ घोर विचरत, नहिं हारत।

सोवत पछिले पहर घरी तेती ही प्रभुवर

अष्टमांश पथ जेती में कढ़ि जात निशाकर।

पौ फटिबे के प्रथम परत उठि प्रभु पुनि प्रतिदिन,

फटिक शिला पै आय रहत ठाढ़े नित बहु छिन।

सोवति वसुधा को नयनन भरि नीर निहारत,

सब जीवन की दशा देखि, गुनि हिय में हारत।

पुलकित पुनि लखि परत लहलहे खेत मनोहर,

चुंबन सो अनुरागवती ऊषा के सुंदर।

प्राची आशा कहन लगति दिनरात अवाई,

पहले केवल धुंधा सरीखो परत लखाई।

किंतु पुकारै अरुणचूड़ जौ लौं पुर भीतर,

आभा निखरति शुभ्र रेख सी शैलशीर्ष पर।

लागति परसन होति शुभ्रतर सो अब क्रम क्रम

देखत देखत होति स्वर्णपीताभ भार सम।

अरुण, नील औ पीत होत घनखंड मनोरम,

काहू पै चढ़ि जाति सुनहरी गोट चमाचम,

सब जग जीवन मूल प्रतापी परम प्रभाकर

दिनपति प्रगटत धारि ज्योतिपरिधन मनोहर।

 

ऋषि समान करि नित्यक्रिया सवितहि सिर नावत,

लै पुनि भिक्षापात्र पाँय पुर ओर बढ़ावत।

बीथी बीथी फिरत यती को बानो धारे,

जो कछु जो दै देत लेत सो हाथ पसारे।

भिक्षा सों भरि जात पात्र सो जहाँ पसारत,

'महाराज! ये लेहु' किते रहि जात पुकारत।

देखि दिव्य सो रूप सौम्य, लोचनसुखकारी

जहँ के तहँ रहि जात ठगे से पुर नरनारी।

दूर दूर सों पुत्रवती बहु धावति आवैं,

प्रभु के पाँयन पारि सिसुन, बहु बार मनावैं

लेति चरणरज कोउ, कोउ पट सीस लगावति।

अति मीठे पकवान और जल कोऊ लावति।

 

कबहुँ कबहुँ प्रभु जात रहत अति मधुर मंद गति।

दिव्य दया सों दीप्त, ध्यान में भए लीन अति।

रूप अनूप लुभाय लाय टक रहैं कुमारी,

प्रेम भक्ति सों भरी दीठि निज तिन पै डारी।

मानो रूप समाय रह्यो जो नयनन में अति,

सम्मुख लखि रहि जाति चाह सों ताको चितवति।

पै पकरे निज पंथ जात प्रभु सीस नवाए,

धारे वषन कषाय, भीख हित कर फैलाए।

मृदु वचनन सों करि सबको परितोष यथावत्

फिरत गिरिब्रज ओर, आय पुनि ध्यान लगावत।

जेते जोगी जती बसत तिनके ढिग बहु छिन

बैठि सुनत बहु ज्ञान, सत्यपथ पूछत प्रति दिन।

 

शांत कुंजन बसत तापस रत्नगिरि की ओर हैं,

गनत हैं या तनहिं जो चैतन्य को रिपु घोर हैं।

कहत इंद्रिय प्रबल पशु हैं, लाय वश में मारिए,

क्लेश दै बहु भाँति इनको दमन यों करि डारिए

क्लेश की सब वेदना मरि जाय आपहि, आपहि,

ताप सों तन नहिं तपै औ शीत सों काँपै नहीं।

करत नाना साधन योगी यती मन लाय कै,

त्यागि जनपदवास निर्जन बीच धाम बनाय कै।

 

कतहुँ कोऊ ऊधर्ववाहु दिनांत लौं ठाढ़े रहैं,

जोड़ तें भुजदंड दोऊ मोड़ ना कबहूँ लहैं,

सूखि कै अति छीन औ गतिहीन ह्नै तन में मढ़े

उकठि मानो रूख तें द्वै खूथ ऊपर को कढ़े।

 

कीलि राखे करन को कोउ काठ मारि कठोर हैं,

भालु के से बढ़ि रहे नख ऑंगुरिन के छोर हैं।

लोह कली बिछाय कोऊ बसत आसन मारि कै।

कोउ ऐंठत अंग, कोउ पंचाग्नि तापत बारि कै।

 

पाथरन सो मारि कोऊ जारि तन जर्जर करे,

राख माटी पोति तन पै चीथरे चीकट धारे।

जपत कोउ शिवनाम बैठि मसान पै दिनरात हैं,

स्यार जहँ शव नोचि भागत, गीधा बहु मंडरात हैं।

 

कोउ करि मुख भानु दिशि पग एक पै ठाढ़ो रहै,

नाहिं अथवत देव जौ लौं अन्नजल नहिं कछु लहै।

सहत साँसति सतत यों, सब मांस गलि तन की गई,

हाड़ सों सटि चाम सूखो, ताँत सी नस नस भई।

 

करत अनशन व्रत कोऊ, कोउ कृच्छ चांद्रायण करैं।

धूरि में कोउ जाय लोटत, राख कोउ मुँह में भरैं।

करत रसना सुन्न कोऊ जड़ी बूटी चाबि हैं,

स्वाद की सब वासना या भाँति पावत दाबि हैं।

 

काटि कर पग, छाँटि डारी जीभ कोऊ आपनी,

कोंचि ऑंखिन, नोचि कानन, कनक सी काया हनी,

विकल अंगविहीन, गतिहित मूक, बहरो, ऑंधारो,

जियत मृतक समान ह्नै पलपिंड सो भू पै परी।

 

कायदंड कठोर जो सहि लेत हैं सारे यहीं

कठिन यम की यातना रहि जाय पुनि तिनको नहीं।

क्लेश सारे जीति सुंदर देवगति ते लहत हैं।

वेद शास्त्र पुराण आगम बात ऐसी कहत हैं।

 

जाय बचन भगवान एक सों यों कहे

'अहो! क्लेश यह घोर आप तो सहि रहे।

बीते मास अनेक मोहिं या ठौर हैं

देखे आप समान तपत बहु और हैं।

 

है या जीवन माहिं दु:ख थोरो कहा

औरहु बिढ़वत आप क्लेश जो यह महा?'

बोल्यो तापस 'और कहा हम जानिहैं?

ग्रंथन में जो लिखो चलत सो मानिहैं।

 

जो कोउ तनहिं तपाय क्लेश ही जानिहै

और मरण विश्रामरूप करि मानिहै

क्लेशभोग सों पापलेश नसि जायहै,

निखरि जीव ह्नै शुद्ध, लोक शुभ पायहै,

निकसि घोर या तापपूर्ण भवकूप तें

लोकन बीच बिचरिहै दिव्य स्वरूप तें

भाँति भाँति सुख भोग भोगिहै बसि तहाँ

जिनको ह्याँ अनुमान सकत कोउ करि कहाँ?

 

कह्यो श्रीसिद्धार्थ 'वह जो शुभ्र मेघ दिखात,

इंद्र आसन को मनो पट स्वर्णमय दरसात,

वातक्षुब्धा पयोधि सों सो उठो नभ में जाय,

अश्रुबिंदु समान खसि खसि अबसि गिरिहै आय,

 

कीच सों सनि, धुनत सिर, बहि नदी नारन माहिं

जाय परिहै जलधि में पुनि अवसि संशय नाहिं।

कहा याही रूप को नहिं स्वर्ग को सब भोग,

जाहि अर्जन करत मुनिजन साधि तप औ योग?

 

चढ़त जो सो गिरत, छीजत लेत जाहि बिसाहि,

यह अटल व्यवहार जग में विदित है नहिं काहि?

रक्त तन को गारि यों क्रय करत हौ सुरधाम,

पूजिहै जब भोग सोइ भवचक्र पुनि अविराम।'

 

'कौन जानै होय ऐसो, सकत कहि किहि भाँति?

निशा पै पुनि दिवस आवत, श्रम अनंतर शांति।

रक्त पल की देह पै या हमें ममता नाहिं

रहति बाँधो जीव को जो विषयबंधन माहिं।

 

जीव के हित दाँव पै धारत देवन पास

क्षणिक जीवनक्लेश यह चिरकाल सुख की आस।'

कुँवर बोले, 'सोउ सुख की अवधि है पै भ्रात!

वर्ष कोटिन लौ रहै, पै अंत ह्वै ही जात।

 

अंत जो नहिं तो कहा हम लेंय ऐसो मानि

है कहूँ या रूप जीवन जासु होति न ग्लानि,

भिन्न जो सब भाँति जाको होत नहिं परिणाम?

हैं कहाँ, ये देव सारे नित्य निज धाम?

कह्यो योगिन 'देव हू नहिं नित्य या जग माहिं

नित्य केवल ब्रह्म है, हम और जानत नाहिं।'

 

कह्यो बुद्धभगवान् 'सुनो, हे मेरे भाई!

ज्ञानवान, दृढ़चित्त परत हौ हमैं लखाई।

क्यों तुम अपनी हाय दाँव पै देत लगाई

ऐसे सुख के हेतु स्वप्न सम जो नसि जाई?

आत्मा को प्रिय मानि देह यों अप्रिय कीनी,

ताड़न करि बहु ताकी तुम यह गति करि दीनी

धारन हू में समर्थ वा जीवहि नाहीं

खोजत जो निज पंथ, रह्यो अड़ि बीचहि माहीं।

ज्यों कोउ तीखो तुरग बढ़त जो आपहि पथ पर

खाय खाय कै एड़ भयो बीचहिं में जर्जर।

ढाहत हो क्यों भवन जीव को यह वरिआई,

पूर्व कर्म अनुसार बसे हम जामें आई,

जाके द्वारन सों प्रकाश कछु हम हैं पावत,

सूझत है यह हमैं दीठि निज जबै उठावत

सुप्रभात कब होय घोर तम पुंज नसाई,

सुंदर, सूधो सुगम मार्ग कित तें ह्नै जाई।'

 

योगी बोले हारि 'पंथ है यहै हमारो,

चलिहैं यापै अंत ताइँ सहिहैं दु:ख सारो।

जानत यातें सुगम मार्ग यदि होहु, बताओ

नातो बस, आनंद रहौ, इत ध्यान न लाओ।'

 

बढयो आगे खिन्नमन सो देखि कै यह बात,

मृत्युभय नर करत ऐसो भय करत भय खात।

प्रीति जीवन सों करत यों प्रीति करत सकात,

करत व्याकुल ताहि, तप की सहत साँसति गात।

करन चहत प्रसन्न या विधि देवगणहि रिझाय,

सकत देखि प्रसन्न मानव सृष्टि जो नहिं, हाय!

चहत नरकहि न्यून करिबो नरक आप बनाय।

माति तप उन्माद में ये रचत मुक्ति उपाय!

 

बोलि उठयो सिद्धार्थ 'अहो! वनकुसुम मनोहर!

जोहत कोमल खिले मुखन जो उदित प्रभाकर,

ज्योति पाय हरषाय श्वाससौरभ संचारत,

रजत, स्वर्ण, अरुणाभ नवल परिधन सँवारत,

तुम में ते कोऊ जीवत नहिं माटी करि डारत,

नहिं अपनो हठि रूप मनोहर कोउ बिगारत।

एहो, ताल! विशाल भाल जो रह्यो उठाई,

चाहत भेदन गगन, पियत सो पवन अघाई,

शीतल नीरधि नील अंक जो आवति परसति

मंजु मलयगिरि गंधाभार भरि मंद मंद गति।

जानत ऐसो भेद कौन जासों हे प्रिय द्रुम!

अंकुर तें फलकात ताइँ हौ रहत तुष्ट तुम?

पंख सरीखे पातन सों मर्मर धवनि काढ़त,

अट्ठहास सों हँसत हँसत तुम जग में बाढ़त।

तरुडारन पै बिहरनहारे, हे बिहंगगन!

शुक, सारिका, कपोत, शिखि, पिक, कोकिल, खंजन

तिरस्कार निज जीवन को नहिं तुमहुँ करत हौ,

अधिक सुखन की आस मारि तन मन न मरत हौ।

पै प्राणिन में श्रेष्ठ मनुज जो बधात तुम्हैं गहि,

ज्ञानी बोलत रक्तपात बिच पोसी मति लहि।

सोइ बुद्धि लै हैं प्रवृत्ता ये नर बहुतेरे

आत्मक्लेश दैबे में नाना भाँतिन केरे।

 

कहत यौं प्रभु शैलतट पथ धारे गे कछु दूरि।

खुरन के आघात सों तहँ उठति देखी धूरि।

झुंड भारी भेड़ छेरिन को रह्यो है आय,

ठमकि पाछे दूब पै कोउ देति मुखै चलाय।

 

जितै झलकत नीर, गूलर लसी लटकति डार

लपकि ताकी ओर धावैं छाँड़ि पथ द्वै चार,

जिन्हैं बहकत लखि गड़रियो उठत है चिल्लाय

लकुट सों निज हाँकि पथ पै फिर लावत जाय।

 

 

लखी प्रभु इक भेड़ आवति युगल बच्चन संग,

एक जिनमें ह्नै रह्यो है चोट सों अति पंग।

छूटि पाछे जात, रहि रहि चलत है लँगरात,

थके नान्हें पाँव सो है रक्त बहत चुचात।

 

ठमकि हेरति ताहि फिर फिर तासु जननि अधीर,

बढ़त आगे बनत है नहिं देखि शिशु की पीर।

देखि यह प्रभु लियो बढ़ि लँगरात पशुहि उठाय,

लादि लीनों कंधा पै निज करन सों सहराय

 

कहत यों 'हे ऊर्णदायिनि जननि! जनि घबराय,

देत हौं पहुँचाय याको जहाँ लौं तू जाय।

पशुहु की इक पीर हरिबो गुनत हौं मैं आज

योग औ तपसाधन सों अधिक शुभ को काज।'

 

बढ़ि चरावनहार दिशि प्रभु बहुरि बूझी बात

'जात ऐसी धूप में कित लिए इनको, भ्रात?'

दियो उत्तर सबन 'आज्ञा मिली है यह आज,

मेष अज सौ बीछि कै लै चलौ बलि के काज।

 

देवपूजन राति करिहैं महाराजधिराज।

होत हैं या हेतु नृप के भवन नाना साज।'

'चलत हमहूँ' बोलि यों प्रभु चले धीरज लाय

धूप में वा संग तिनके पशुहि गोद उठाय।

 

स्वेदकणिका धूरि छाए भाल पै दरसाति,

लगी पाछे जाति रहि रहि भेड़ सो मिमियाति।

 

किसा गोतमी

चलत यों सब जाय पहुँचे एक सरिता तीर।

मिली तरुणी एक खंजननयन धारे नीर।

लगी प्रभु सों कहन यों कर जोरि करत प्रणाम

''तुम्हैं चीन्हति हौं प्रभु! तुम सोइ करुणाधाम

जो धारायो धीर मोको वा कुटी में जाय

जहाँ इकली शिशु लिए मैं रही दिनन बिताय।

रह्यो फूलन बीच घूमत एक दिन सो बाल,

रह्यो ढिग नहिं कोउ, लिपटयो आय कर सों व्याल।

 

लग्यो खेलन ताहि लै सो मारि बहु किलकार,

काढ़ि दुहरी जीभ विषधर उठ्यो दै फुफकार।

हाय! पीरो परो वाको अंग सब छन माहिं,

गयो हिलिबो डोलिबो, थन धारयो मुख में नाहिं

 

कहन लाग्यो कोउ याको विष गयो अब छाय,

कोउ बोल्यो 'सकल याको नाहिं कोउ बचाय।'

किंतु कैसे बनै खोवत प्राणधन निज, हाय!

झाड़ फूँक कराय, देवन थकी सकल मनाय।

 

किए जतन अनेक खोलै ऑंखि सो शिशु फेरि,

मुदित 'माय' पुकारि बोलै कछुक मो तन हेरि।

गुन्यो मैं नहिं सर्प को है दंश अधिक कराल,

नाहिं अप्रिय काहु को है नेकु मेरो लाल।

 

ठानि यासों बैर काहे साँप लैहै प्रान?

खेल में क्यों याहि डसिहै, जानि बाल अजान?

कह्यो कोउ 'बसत गिरि पै सिद्ध एक महान,

जाय ता ढिग देखु तौ करि सकैं कछु कल्यान।'

 

सुनत धाई पास, प्रभु! तव विकल कंपितगात,

दिव्य दर्शन पाय परस्यो पुलकि पद जलजात।

बिलखि शिशु तहँ डारि, दीनो तासु मुखपट टारि,

'करिय कछु उपचार' प्रभु! यों विनय कीनी हारि।

 

करी मोपै दया भगवन्! नाहिं टारयो मोहिं

परसि शिशु भरी नीर नयनन कह्यो मो तन जोहिं

 

 

'हे भगिनि! जानत जतन जो मैं देत तोहि सुनाय,

उपचार तेरो और तेरे शिशुहु को ह्नै जाय,

पै सके जो तू लाय जो मैं देत तोहि बताय,

है कहत जो कछु वैद्य रोगी देत ताहि जुटाय।

 

माँगि घर सों काहु के दे लाल सरसों लाय,

ध्यान रखि या बात को तू जहाँ माँगन जाय

लेय वा घर सों न तू जहँ मरो कोऊ होय-

पिता, माता, बहिन, बालक पुरुष अथवा जोय।

 

देय सरसों लाय ऐसी उठै तो तव बाल,

कहीं मोसों रही प्रभुवर बात यह वा काल'

कह्यो मृदु मुसुकाय प्रभु 'हे किसा गोतमि! तोहि

कही मैंने रही ऐसी बात, सुधि है मोहि।

मिली सरसों तोहि ऐसी कतहुँ देय बताय।'

बिलखि बोली नारि सो भगवान के गहि पाय

 

मरे शिशुहि गर बाँधि फिरी मैं सकल ग्राम वन,

द्वार द्वार पै माँगी सरसों धीर धारि मन।

माँगति जासों जाय देत सो मोहिं बुलाई।

दीनन पै तो दया दीन जन की चलि आई।

पै जब पूछति 'मरयो कबहुँ कोऊ तुम्हारे घर-

मातु, पिता, पति, पुत्र, बंधु, भगिनी वा देवर?'

कहत चकित ह्नै 'बहिन! कहा यह कहति अजानी,

मरे न जाने किते, जियत तो थोरे प्रानी।'

सरसों तिनकी फेरि जाय जाँचति पुनि औरन,

पै सब याही रूप कहत कछु उदासीन मन

'सरसों तो है किन्तु मरो है मेरो भाई।'

'सरसों है पै पति दीनो चलि मोहिं बिहाई।'

'सरसों है पै बोयो जाने सो है नाहीं।

काटन को जब समय, गयो चलि सुरपुर माहीं।'

मिल्यो न ऐसो मोहिं कोउ घर, हे प्रभु ज्ञानी!

कबहुँ न होवै मरो जहाँ पै कोऊ प्रानी।

नदी किनारे नरकट के वा झापस माहीं

दीनो मैं शिशु डारि हँसत बोलत जो नाहीं।

तव पाँयन ढिग फेरि, प्रभो! बिनवति हौं आईं,

सरसों मिलिहै कहाँ देहु, प्रभु, यहौ बताई।'

 

बोले प्रभु 'जो मिलत न तो तू हेरति हारी,

पै हेरत में लहि एक कटु औषध भारी।

काली लख्यो निज शिशुहि महानिद्रा में सोवत,

देखति है तू आज सबै सोई दु:ख रोवत।

सब पै जो दु:ख परत लगत हरुओ जग माहीं,

बहुतन में बँटी लगत एक को गरुओ नाहीं।

थमै तिहारी ऑंसु देहुँ तो रक्तहिं गारी,

पै नहिं जानत मर्म मृत्यु को कोउ नर नारी,

प्रेममाधुरी बीच देति जो कटु विष घोरी,

जो नित बलि के हेतु नरन लै जात बटोरी

फूलन सों लहलही वाटिका बीच निकारत-

मूक पशुन इन लिए जात ज्यों, लखौ, हँकारत!

खोजत हौं मैं सोइ रहस्य, भगिनी मेरी!

लै अपनो शिशु जाय क्रिया करु तू वा केरी।'

यज्ञबलिदर्शन

पशुपालन संग प्रवेश कियो पुर में प्रभु देखत देखत जाय,

ढरि कंचन सी किरनैं रवि की जहँ सोन को नीर रहीं झलकाय

सब बीथिन में पुर की परिकै परछाई रही अति दीरघ नाय,

पुरद्वार के पार जहाँ प्रतिहार खड़े बहु दीरघ दंड उठाय।

 

पशु लै प्रभु को तिन आवत देखि दयो पथ सादर मौनहिं धारि।

सब हाट की बाट में बैठनहार लई बगरी निज वस्तुन टारि!

झगरो निज रोकि कै गाहक औ बनियाहु रहे मृदु रूप निहारि।

कर बीच हथौड़ो उठाय लुहार गयो रहि नाहिं सक्यो घनमारि।

 

तनिबो तजि ताकि जुलाह रहे, बहु लेखक लेखनि हाथ उठाय।

गनिबो निज पैसन को चकराय गयो सुधि खोय सराफ भुलाय।

नहिं अन्न की राशि पै काहुकी ऑंखि, रहे सुखसों मिलिसाँड़ चबाय।

मटकी पर धार चली पय की बहि, ग्वाल रहे प्रभु पै टक लाय।

पुरनारि जुरी बहु बूझति हैं 'बलि हेतु लिए पशु को यह जात?

शुचि शांतिभरी मृदुता मुख पै, अति कोमल मंजु मनोहर गात।

कहु जाति कहा इनकी? इन पाए कहाँ अति सुंदर नैन लजात?

तन धारि अनंग किधौ मघवा यह जात चलो गति मंद ललात?

 

कोउ भाखत 'सिद्धसोई यह जो तिन योगिन संग बसै गिरि पार'

प्रभु जात चले निज पंथ गहे मन माहिं बिचारत याहिं प्रकार-

'भटकैं नर भेड़ समान, अहो! इनको नहिं कोउ चरावनहार,

सब जात चले उत अंधा भए बलि हेतु खिंची जित है जमधार।'

 

आय नृपति सों कही एक प्रभु को आवत सुनि

'आवत हैं तव यज्ञ माहिं, प्रभु! एक महा मुनि।'

 

यज्ञशाला में बसत नृप, बँधो बंदनवार,

शुभ्र पट धारि करत ब्राह्मण मंत्र को उच्चार।

देत आहुति जात हैं मिलि सकल बारंबार।

मध्यवेदी बीच धाधाकति अग्नि धुऑंधार।

 

गंधाकाठन सो उठति लौ जासु जीभ लफाय,

खाति बल, धुधुआति रहि रहि धार घृत की पाय,

भखति बलि सह सोमरस जो पाय इंद्र अघात,

अंश देवन को सकल तिन पास पहुँचत जात।

 

बधो बलिपशु के रुधिर की लाल गाढ़ी धार

बिछी बालू बीच थमि थमि बहति वेदी पार।

लखौ अज इक बड़े सींगन को खड़ो मिमियात,

मूँज सों गर कसो जाको यूप में दरसात।

 

तानि ताके कंठ पै करवाल अति खरधार

एक ऋत्विज् लग्यो बोलन मंत्र विधि अनुसार-

'ग्रहण याको करौ तुम, हे देवगण, सब आय

यज्ञबलि शुभ बिंबसार नरेश को हरषाय।

 

 

होहु आज प्रसन्न लखि जो रक्त रहे बहाय।

जरत पल तें वपा की यह गंधा लेहु अघाय।

भूप को मम अशुभ याके सीस पै सब जाय।

हनत हौ अब याहि, लेवैं भाग सुरगण आय।'

 

आय ठाढ़े भए नृप ढिग बुद्ध प्रभु तत्काल

बरजि बोले 'याही मारन देहु ना, नरपाल!

जाय बलिपशु पास बंधन तुरत दीनो खोलि,

तेज सों दबि रहे सब, नहिं सक्यो कोऊ बोलि।

 

कहन पुनि भगवान् लागे 'गुनौ, नृप! मन माहिं,

लै सकत हैं प्राण सब, पै दै सकत कोउ नाहिं।

क्षुद्र कैसउ होय प्यारो होत सबको प्रान।

नाहिं ताको तजन चाहत कोउ अपनी जान।

 

है अमूल्य प्रसाद जीवन, यदि दया को भाव,

सबल निर्बल दोउ पै है विदित जासु प्रभाव।

अबल हित करि देति कोमल जगत की गति घोर,

सबल को लै जाति है सो श्रेष्ठ पथ की ओर।

 

चहत देवन सों दया नर होत निर्दय आप,

देव सम ह्नै पशुन हित इन, देत इन को ताप।

जगत में हैं जीव जेते सबै एकहि गोत,

श्रेष्ठ है सो जीव जाको ज्ञान ऐसो होत।

 

रहत जो विश्वास पै, ऊन दै तृण खात,

दीन जीवन संग ऐसे करत हैं नर घात!

शास्त्र सारे कहत केते नर शरीर बिहाय

भोगि पशु खग योनि पुनि नरदेह पावत आय।

 

अग्निकण सम जीव परि भवचक्र फेरो खात,

कबहुँ दमकत निखरि कै औ कबहुँ लपटि झ्रवात।

यज्ञ में पशुहनन निश्चय पाप है, नरराय!

जीव की गति रोकिबो या भाँति है अन्याय।

जीव शुद्ध न ह्नै सकत है रक्त सों जग माहिं।

देवगण हू भले हैं यदि तुष्ट ह्नै हैं नाहिं!

क्रूर हैं यदि, सकत कैसे तिन्हैं हम बहराय

दीन गूँगे पशुन को इन मारि रक्त बहाय?

 

करत नर जो पाप नाना भाँति कर्म कमाय

तासु फल तिल भर न सकिहै पशुन के सिर जाय।

करत जो हैं सोइ भोगत और कोऊ नाहिं।

विश्व को लेखो भरत सब रहत जीवन माहिं,

 

होत जीवन माहिं जैसे कर्म, वचन, विचार

गति भली वा बुरी पावत ताहि के अनुसार।

नित्य है यह नियम अंतररहित औ अविराम।

कहत भावी जाहि सो है कर्म को परिणाम।'

 

सुनत दया सों भरी खरी बानी प्रभु केरी

रक्तरँगे कर ढाँपि रहे द्विज इकटक हेरी।

सादर सहमि नृपाल खड़े कर जोरि अगारी।

लगे कहन प्रभु फेरि सबन की ओर निहारी-

'धाराधाम यह कैसो सुंदर होतो, भाई!

जो रहते सब जीव प्रेम में बँधि गर लाई,

एक एक धारि खात न जो करि जतन घनेरो,

होत निरामिख रक्तहीन भोजन सब केरो।

अमृतोपम फल, कनक सरिस कन, साग सलोने

सब हित उपजत जो, देखौ, सब थल सब कोने।'

सुनि यह सारी बात सहमि सबही सिर नायो,

दया धर्म को भाव सबन पै ऐसो छायो

ऋत्विज् हू सब दई अग्नि इत उत बगराई,

बलि को खाँड़ो दियो हाथ सों दूर बहाई।

दूजे दिन नृप देश माहिं डौंड़ी फिरवाई,

शिला पटल औ खंभन पै यह दियो खुदाई-

महाराज हैं करत आज या विधि अनुशासन-

यज्ञन में बलि हेतु और करिबे हित भोजन

होत रहयो वधा विविध पशुन को अबलौं घर घर,

पै अब सों नहिं रक्त बहावै कतहुँ कोउ नर।

जीव सबै को एक, ज्ञान हित जीवन सारो।

दयावान् पै दया होति निश्चय यह धारो।'

थल थल पै शुभ शिलालेख यह सोहत सुंदर।

वा दिन सों उत गंगातट के रम्य देश भर,

जहाँ जहाँ प्रभु घूमि दया को मंत्र सुनायो,

पशु, पंछी, नर बीच शांति सुख पूरो छायो।

 

प्रभु की ऐसी दया रही तिन सब पै भारी

प्राणवायु जो खैंचि रहे चल जीवन धारी,

सुख दु:ख के जो एक सूत्र में बँधो बेचारे,

जग में नाना जतन करत जो पचि पचि हारे।

जातक में है लिखी कथा यह एक पुरानी-

पूर्व जन्म में रहे बुद्ध इक ब्राह्मण ज्ञानी।

बसत बीच दालिद्द ग्राम के मुंडशिला पर।

भारी सूखो एक बार परि गयो देश भर।

ढँपे न ढेले, खेत बीच ही धन गए मरि,

घास, पात, तृण, लता गुल्म मुरझाय गए जरि।

ताल तलैयन को सारो जल गयो सुखाई।

पशु पंछी जो बचे विकल ह्नै गए पराई।

सूखे नारे के तट पै प्रभु जाय एक दिन

परी काँकरिन पै देखी इक भूखी बाघिन।

धाँसे नयन ह्नै ज्योतिहीन, हाँफति मुँह बाई,

दाढ़न सों बढ़ि जीभ दूर कढ़ि बाहर आई।

पसुरिन सों सटि रह्यो चर्म चित्रित, ज्यों छप्पर

बाँसन बिच धाँसि रहत होय वर्षा सों जर्जर।

विकल क्षुधा सों शावक द्वै थन पै मुँह लाई।

खैंचि खैंचि रहे हारि, बूँद नहिं मुख में जाई

छटपटात निज शिशुन देखि जननी सिर नाई

सरकि और तिन ओर नेह सों चाटति जाई।

रही भूलि निज भूख नेह के आगे सारी!

गर्जन नहिं रहि गयो, बिलखि हुँकरत गर फारी।

देखि दशा यह तासु भूलि प्रभु अपनो तन मन

करुणा की निज सहज बानि वश लागे सोचन

'कैसे बन की हत्यारिन की करौ सहाई?

केवल एक उपाय परत है मोहिं लखाई।

मांस बिना दिन डूबत ही ये तीनो मरिहैं,

ऐसे मिलिहैं कौन दया जो इन पै करिहैं।

जिन्हैं रक्त की प्यास, मांस की भूख सतावति

तिनपै जग में दया नाहिं काहू को आवति।

याके सम्मुख डारि देहुँ जो मैं अपनो तन

मोहिं छाँड़ि नहिं हानि और काहू की या छन।

अपनी हू तो हानि नहिं कछु मोहिं दिखाती

जीवन प्रति निज नेह निबाहौ जो या भाँती।

यों कहि अपनो उत्तरीय उष्णीष बिहाई।

उतरि करारे सों बाघिन ढिग पहुँचे जाई।

बोले 'लै यह, मातु! मांस तेरे हित आयो।'

भूखी बाघिन झपटि तिन्हैं तहँ तुरत गिरायो।

कुटिल नखन सों तन बिदारि, मुँह दियो लगाई,

बोरि रक्त में दाँत मांस सब गई चबाई।

हिंसातप्त कराल, श्वास वा पशु की जाई

प्रभु के अंतिम प्रेम उसासन माहिं समाई।

 

रह्यो प्रभु को सदा याही भाँति हृदय उदार।

बरजि पशुबलि बुद्ध कीनो दयाधर्म प्रचार।

जानि प्रभु को राजकुल औ त्याग अमित अपार

बिंबसार नरेश कीनी विनय यों बहु बार-

 

'राजकुल पलि, रहे ऐसे कठिन नियम निबाहि।

धारत जो कर राजदंड न भीख सोहति ताहि।

रहौ मेरे पास चलि, नहिं मोहिं कोउ संतान।

जिऔं जब लौं तुम सिखाओ प्रजा को मम ज्ञान।

 

करौ तुम मम भवन सुंदरि बधू सहित निवास।'

कह्यो दृढ़ संकल्प निज सिद्धार्थ होय उदास-

'रही मोको वस्तु ये सब सुलभ, नृपति उदार!

सत्य पथ की खोज में हौं तज्यो सब घर बार।

 

खोज हौं और रहिहों ताहि की चित लाय,

नाहिं थमिहौं इंद्रहू को भवन जो मिली जाय।

लेन आवौ अप्सरा मोहिं रत्नमंडित द्वार

किंतु निज संकल्प तें ना टरौं काहु प्रकार।

जात हौं मैं धर्मभवन उठायबे हित जोहि

गया के घन बनन में जहँ बोध ह्नैहै मोहिं।

ऋषिन को करि संग देख्यो छानि शास्त्र पुरान,

किए नाना भाँति के व्रत और क्लेश विधन,

 

सत्य की पै ज्योति मोकों मिली अब लौं नाहिं,

ज्योति ऐसी है अवसि यह उठत है मन माहिं।

लह्यो जो मैं ताहि तो पुनि पलटि या थल आय

प्रेम को फल अवसि दैहौं तुम्हैं, हे नरराय!'

 

तीन बार प्रदक्षिणा प्रभु की करी नरपाल,

विदा दिनी फेरि सादर पाँव पै धारि भाल।

चले प्रभु उरुविल्व दिशि संतोष ना कछु पाय,

परो पीरो वदन तप सों, देह रही झुराय।

 

पंचवर्गी भिक्षु सुनि यह पास प्रभु के आय

बहुत चाह्यौ रोकिबो बहु भाँति यों समझाय-

'बात है सब लिखी क्यों नहिं पढ़त शास्त्र उठाय।

सुनौ, श्रुति के ज्ञान सों बढ़ि सकैं मुनिहुँ न जाय।

 

ज्ञान भाखत जो हमारो ज्ञानकांड महान्

क्षुद्र मानुष पायहै बढ़ि कहाँ तासों ज्ञान?

ब्रह्म निष्क्रिय, सर्वगत, सत् और चित् आनंद,

अपरिणामी, निर्विकार, निरीह, अज, निर्द्वंद्व।

 

कहत श्रुति यों, राग तजि औ कर्म को करि नाश,

अहंकार विमुक्त ह्नै निरुपाधि स्वयंप्रकाश,

जीव बंधन काटि क्रमश: ब्रह्म में मिलि जात।

ब्रह्मविद्या पढ़ौ तो तुम जानिहौं सब बात,

असत् ते सत् ओर कैसे जीव यह चलि जाय

लहत पुनि चिर शांति कैसे विषयद्वंद्व विहाय।'

सुनी तिन की बात प्रभु चुपचाप सीस नवाय

भयो पै परितोष नहिं, चट दिए पाँव बढ़ाय।

 


बुद्धचरित
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