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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7
 

बुद्धचरित -1


वक्तव्य


रामकृष्ण की इसी लीलाभूमि पर भगवान् बुद्धदेव भी हुए हैं जिनके प्रभाव से एशिया खंड का सारा पूर्वार्द्ध भारत को इस गिरी दशा में भी प्रेम और श्रद्धा की दृष्टि से देखता चला जा रहा है। रामकृष्ण के चरितगान का मधुर स्वर भारत की सारी भाषाओं में गूँज रहा है पर बौद्ध धर्म के साथ ही गौतम बुद्ध की स्मृति तक जनता के हृदय से दूर हो गई है। 'भरथरी' और 'गोपीचन्द' के जोगी होने के गीत गाकर आज भी कुछ रमते जोगी स्त्रियों को करुणार्द्र करके अपना पेट पालते चले जाते हैं पर कुमार सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण की सुधा दिलानेवाली वाणी कहीं भी नहीं सुनाई पड़ती है। जिन बातों से हमारा गौरव था उन्हें भूलते-भूलते आज हमारी यह दशा हुई।
यह 'बुद्धचरित' अंग्रेजी के  ' Light of Asia' का हिन्दी काव्य के रूप में अवतरण है। यद्यपि ढंग इसका ऐसा रखा गया है कि एक स्वतन्त्र हिन्दी काव्य के रूप में इसका ग्रहण हो पर साथ ही मूल पुस्तक के भावों को स्पष्ट करने का भी पूर्ण प्रयत्न किया गया है। दृश्य वर्णन जहाँ अयुक्त या अपर्याप्त प्रतीत हुए वहाँ बहुत कुछ फेरफार करना या बढ़ाना भी पड़ा है। अंग्रेजी अलंकार जो हिन्दी में आने वाले नहीं थे वे खोल दिए गए हैं, जैसे मूल में यह वाक्य था -

..........Where the Teacher spake
wisdom and power,

इसमें Hendiadys नामक अलंकार था जिसमें किसी संज्ञा का गुणवाचक शब्द उसके आगे एक संयोजक शब्द डालकर संज्ञा बनाकर रख दिया जाता है, जैसे- ज्ञान और ओज= ओजपूर्ण ज्ञान। उक्त वाक्य हिन्दी में इस प्रकार किया गया है- ''ओजपूर्ण अपूर्व भाख्यो ज्ञान श्रीभगवान्।'' तात्पर्य यह कि मूल के भावों का भी पूरा ध्यान रखा गया है। शब्द बौद्ध शास्त्रो में व्यवहृत रखे गए हैं। उनकी व्याख्या भी फुटनोट में कर दी गई है। यदि काव्य परंपरा के प्रेमियों का कुछ भी मनोरंजन होगा तो मैं अपना श्रम सफल समझूँगा।
जिस वाणी में कई करोड़ हिन्दी भाषी रामकृष्ण के मधुर चरित का स्मरण करते आ रहे हैं उसी वाणी में भगवान् बुद्ध को स्मरण कराने का यह लघु प्रयत्न है। यद्यपि यह वाणी ब्रजभाषा के नाम से प्रसिद्ध है पर वास्तव में अपने संस्कृत रूप में यह सारे उत्तरपथ की काव्य भाषा रही है।

- रामचन्द्र शुक्ल
 


काव्यभाषा

प्राकृतकाल
प्राचीन आर्यभाषा की भिन्न-भिन्न स्थानों की बोलियों को थोड़ा बहुत समेटकर, पर पश्चिमोत्तर की 'भाषा' का ढाँचा आधारवत् रखकर, जिस प्रकार संस्कृत खड़ी हुई उसी प्रकार पीछे से यह काव्यभाषा भी पछाहँ की बोली (ब्रज से लेकर मारवाड़ और गुजरात तक की) का आधार रखकर और और बोलियों को भी थोड़ा बहुत समेटती हुई चली और बहुत दिनों तक केवल अपभ्रंश या भाषा ही कहलाती रही। काव्यभाषा में पश्चिमी बोली की प्रधनता का कारण यह है कि कविता राजाश्रय पाकर हुआ करती थी और इधर हजा़र बारह सौ वर्ष से राजपूतों की बड़ी-बड़ी राजधानियाँ, राजपूताने, गुजरात, मालवा, दिल्ली आदि में ही रहीं। हेमचन्द ने जिस अपभ्रंश का उल्लेख अपने व्याकरण में किया है वह पछाहीं भाषा है जिसका व्यवहार ब्रजमंडल से लेकर राजपूताने और गुजरात तक था। इस बात को उन्होंने 'शेषं शौरसेनीवत्' कहकर स्पष्ट कर दिया है। अपभ्रंश के जो दोहे उन्होंने दिए हैं वे पछाहीं भाषा के हैं। प्रबन्धा चिन्तामणि और कुमारपाल प्रतिबोध आदि ग्रंथों में भी जो पद्य हैं, उनका ढाँचा पश्चिमी हिन्दी का है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं-
(1) अम्मणिओ संदेसडओ तारय कन्ह कहिज्ज
जग दालिद्दहि डुब्बिऊं बलिबंधाणह मुहिज्ज।
अर्थ- हमारा संदेसा तारक (तारनेवाले) कान्ह को कहना। जगत् दारिद्रय में डूबा है, बलि के बंधन को छोड़ दीजिए।
(2) जेह आसावरि देहा दिन्हउ। सुस्थिर डाहररज्जा लिन्हउ
अर्थ- जिसने आसावरि देश दिया, सुस्थिर डाहर राज्य लिया।
(3) सउचित हरिसट्ठी मम्मणह बत्तीस डीहियाँ
हियम्मि ते नर दङ्ढ सीझे जे बीससइ थियाँ।
अर्थ- सब चिंताओ को हरने के लिए काम की बातों में दक्ष स्त्रियों पर जो विश्वास करते हैं वे नर हृदय में बहुत सीझते (संताप सहते) हैं।
(4) जइ यह रावण जाइयउ दहमुह इक्कु सरीर।
जणणि वियंभी चिंतवइ कवणु पियावउँ खीर।
अर्थ- जब यह दस मुँह और एक शरीरवाला रावण उत्पन्न हुआ, (तब) माता अचंभे में आई हुई सोचती है कि किसको दूध पिलाऊँ।
(5) उड्डावियउ वराउ।
अर्थ- उड़ा दिया (गया) बेचारा।
(6) माणुसडा दस दस दसा सुनियइ लोय पसिद्ध।
मह कंतह इक्कज दसा अवरि ते चोरिहि लिद्ध।
अर्थ- मध्य की दस दशाएँ लोक में प्रसिद्ध सुनी जाती हैं, (पर) मेरे कन्त की एक ही दशा (दारिद्रय) है और जो थी वे चोरों ने हर ली।
(7) राणा सब्बे वाणिया जेसलु बड्डउ सेठि।
अर्थ- सब राणा बनिये हैं, जैसल बड़ा सेठ है।
(8) एहुँ जाणेवउँ जइ मणसि तो जिण आगम जोइ।
अर्थ- यह जानना यदि मन में है तो जिनागम देख।
(9) एकला आइबो, एकला जाइबो हाथ पग वे झाड़ी।
अर्थ- अकेले आना, अकेले जाना दोनों हाथ पैर झाड़ कर।
(10) झाली तुट्टी किं न मुउ किं न हुयउ छार पुंज।
हिंडइ दोरी बंधीअउ जिम मक्कड़ तिम मुंज।
अर्थ- जल कर या टूटकर क्यों न मरा, राख क्यों न हो गया?
जैसे बन्दर वैसे मुंज डोरी में बाँधा घूमता है।
इन पद्यों में हम ब्रजभाषा के भूतकाल और पुं. कर्ता और कर्मकारक के रूपों के बीज पाते हैं, जैसे- संदेसडओ(आधुनिक संदेसड़ो), बड्डउ (बड्डो=बड़ो), दिन्हउ, लिन्हउ(दीन्हो, लीन्हो), डुब्बिउ(डूब्यो), जाइयउ(जायो), उड्डावियउ(गुजराती उड़ावियो=ब्रज. उड़ायो), हुयउ (हुओ), बंधीअउ (बँधयो)। क्रिया के पुरुषकालवर्जित साधारण रूप 'जाणेवउँ' (पुराना), 'आइबो', 'जाइबो' भी मौजूद हैं। संज्ञा के बहुवचन रूप भी हैं जो अवधी आदि पूर्वी भाषाओं में बिना कारकचि लगे नहीं होते, जैसे- डीहियाँ थियाँ =बढ़ी चढ़ी स्त्रियाँ। स्त्रीलिंग विशेषणों में भी विशेष्य बहुवचन के अनुसार विशेषण का बहुवचन रूप होना अभी थोड़े दिनों पहले था और वली आदि उर्दू के पुराने शायरों में क्या इंशा की 'ठेठ हिन्दी की कहानी' तक में बराबर मिलता है। इक्कज (एक ही) तो शुद्ध मारवाड़ी और गुजराती है।
काव्य की यह भाषा बहुत प्राचीन काल में बन चुकी थी। यही हिन्दी की काव्यभाषा का पूर्वरूप है। ढाँचा पश्चिमी होने पर भी यह काव्य की सामान्य भाषा थी जिसका प्रचार सारे उत्तरपथ में था। इसका प्रमाण इसी बात से मिलता है कि प्राकृतों के समान इसमें देशभेद करने की आवश्यकता नहीं समझी गई। प्राकृत व्याकरणों में जिसका उल्लेख अपभ्रंश के नाम से हुआ है काव्यभाषा रूप में उसका प्रचार ब्रज, मारवाड़ और गुजरात तक ही नहीं था एक प्रकार से सारे उत्तरीय भारत में था। इस व्यापकत्व के लिए यह आवश्यक था कि उसमें अवध आदि मध्यदेश के शब्द और रूप भी कुछ मिलें। जिन स्थानों में ऊपर दिए हुए उदाहरण हैं उन्हीं में ऐसे रूपान्तरों के भी उदाहरण हैं जो अवधी और खड़ी बोली का आभास देते हैं।
(11) नव जल भरिया मग्गडा गयणि धाड़क्कइ मेहु,
इत्थतरि जरि आविसिइ तउ जाणीसिइ नेहु।
अर्थ- नए जल से भरा हुआ रास्ता, गगन में मेघ धाड़कता है। इस अन्तर में जो (तू) आएगा तो तेरा नेह जाना जाएगा।
(12) कसुकरु रे पुत्ता कलत्ता धी, कसुकरु रे करसण बाड़ी?
अर्थ- किसका रे पुत्र कलत्रा और कन्या, किसकी रे खेती बारी?
(13) सइ, सउ खंगारिहि प्राण कइ बइसानर होमीइ।
अर्थ- (मैं) सती खेगार के साथ प्राण को वैश्वानर में होमती हूँ।
(14) महिवीढह सचराचरह जिण सिर दिन्हा पाय।
अर्थ- पृथ्वी की पीठ पर जिसने सचराचर के सिर पर पाँव दिया।
(15) अड़विहि पत्ती नइहि जलु तो वि न बूहा हत्थ।
अर्थ- अटवी(जंगल) की पत्ती, नदी का जल (था) तो भी हाथ न हिलाया।
(16) एक्के दुन्नय जे कया तेहि नीहरिय घरस्स।
अर्थ- एक दुर्नय(अनीति) जो किया उससे निकली घर से।
(17) कुलु कलंकिउ, मलिउ माहप्पु मलिणीकय सयणमुह। दिन्न हत्थु नियगुण कडप्पह जगु ज्झंपियो अवजसिण।
अर्थ- कुल कलंकित किया, महात्म्य मल दिया, सज्जनों का मुँह मलिन किया, अपने गुण कलाप को हाथ दिया (धक्का देकर निकाल दिया), जगत् ढाक दिया अपयश से।
(18) भुवणि बसंत पयठ्ठ।
अर्थ- भुवन में वसन्त पैठा।
(19) मह सग्गगयस्स वि पिट्ठि लग्ग।
अर्थ- मुझ स्वर्ग गए की भी पीठ लगे।
(20) भल्ला हुआ जु मारिआ वहिणी महारा कंतु।
अर्थ- भला हुआ जो मारा गया, बहिन, हमारा कंत।
ऊपर के अवतरणों¹ के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं- क्रिया के भूतकालिक

¹ यहाँ तक अपभ्रंश के ये उदाहरण नं.2 को छोड़कर नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित श्रीयुत पण्डित चन्द्रधार जी गुलेरी, बी.ए. के पुरानी हिन्दी नामक लेख से लिए गए हैं।
रूप- 'भरिया' (खड़ी बोली और पंजाबी का पुराना रूप, जैसे, टपका लागा फूटिया कछु नहीं आया हाथ- कबीर। आधा. पंजाबी भरया, खड़ी और अवधी भरा) 'दिन्हा'=दिया, बूहा=हिलाया, ब्यूहित किया, कथा=किया (खड़ी और अवधी के रूप)। दिन्नु=दिया (अवधी 'दीन' का पूर्व रूप), पयट्ठु=पैठा (अवधी पैठ), लग्ग=लगा (अवधी 'लाग' का पूर्व रूप)। संबंधकारक सर्वनाम 'कसु करु'(खड़ी. किस का अवधी होकर केहि कर)। कर्मचि- 'प्राणकइ' अवधी 'प्राण के'=प्राण को।
ये उदाहरण विक्रम की 12वीं, 13वीं और 14वीं शताब्दी में बने ग्रंथों से लिए गए हैं पर इनमें से अधिकतर संगृहीत हैं और संग्रहकाल से बहुत पहले के हैं। कुछ तो मुंज और भोज के समय (सं 1036) के हैं। इस प्रकार हिन्दी की काव्यभाषा के पूर्व रूप का पता विक्रम की 11वीं शताब्दी से लगता है। जैसा पहले कहा जा चुका है यद्यपि इस भाषा का ढाँचा पश्चिमी (ब्रज का सा) था पर यह साहित्य की एक व्यापक भाषा हो गई थी। इस व्यापकता के कारण और प्रदेशों के शब्द और रूप भी इसके भीतर आ गए थे। ऊपर उद्धृत कविताएँ टकसाली भाषा की हैं और प्राय: पछाहँ के चारणों और कवियों की रची हैं इससे उनमें पंजाबी और अवधी ही तक के रूप मिलते हैं। पर 'प्राकृत पिंगलसूत्र' में और पीछे के काल तक की (हम्मीर के समय तक) तथा और पूर्वी प्रदेशों की कविताओं के नमूने भी हैं। नीचे दिए पद्यों में अलग अलग बोलियों के नमूने चुनिए-
(1) कोहे चलिअ हम्मीर बीर गअजुह संजुत्तो।
किअउ कट्ठ हाकंद मुच्छि1 मेच्छिअ2 के पुत्तो।
(2) चंचल जुव्वण जात ण जाणहि छइल्ल समप्पय काइँ णहीं?
(3) कासीसर राणा किअउ पआणा विज्जाहर3 भण मंतिवरे।
(4) ढोल्ला4 मारिअ ढिल्लि5 महँ मुच्छिम6 मेच्छ सरीर।
(5) हमिर बीर जब रण चलिआ। तुरअ तुरअहि जुज्झिया। अप्प पर णहि बुज्झिया।
(6) विणास करू। गिरि हत्थ धारू।
(7) तुम्हाण, अम्हाण। चंडेसो, रक्खे सो। गोरी रक्खो।
(8) भवाणी हसंती। दुरित्तां हरंती।
(9) सो हर तोहर। संकट सहर।
(10) पसण्ण होउ चंडिआ।
(11) सरस्सई7 पसण्ण हो।
(12) वित्ताक पूरल मुंदहरा8। बरिसा समआ सुक्खकरा।

मूर्छित होकर। (म्लेच्छो। (विद्याधार। (ढोलडंका।(दिल्ली। (मूछर्यो=मुर्च्छित हुआ। (सरस्वती। (मुंदहरा=मुँडगृह=मुँडेरा।
(13) अहि ललइ, महि चलइ मुअल जिकि उट्ठए।
(14) राजा जहा लुद्ध। पंडीअ1 हो मुद्ध।
(15) जे जे सेता वण्णीप्रा, तुम्हा कित्ताी जिण्णीआ।
(16) चल कमल- णअणिआ, खलइ थण- वसणिआ।
(17) मण मज्झ बम्मह2 तात्रा। णहु कंत अज्जु वि आव।
(18) णच्चे बिज्जू पिय सहिआ। आवे कंता, सहि, कहिआ?
(19) सोउ जुहिट्ठिर संकट पाआ। देवक लेखिअ केण मिटाआ।
(20) गज्जउ मेह कि अंबर सामर। फुल्लउ णीव3 कि बुल्लउ भम्भर एक्कउ जीअ पराहिण4 अम्मह। की लउ पाउस, की लउ बम्मह।
(21) कालिक्का संगामे...। णच्चंती संहारो। दूरित्ता हम्मारो।
(22) हत्थी जूहा। सज्जा हूआ।
(23) तरुण तरणि तवइ धारणि पवण बह खरा
लग णहि जल, बड़ मरुथल जणजिवणहरा।
दिसइ चलइ हिअअ डुलइ, हम इकलि बहू
घर णहि पिअ सुणहि पहिअ मण इछल कहूँ।
(24) णव मंजरि लिज्जिअ चूअह गाछे।
परिफुल्लिअ केसु णआवण आछे।
जए एत्थिं दिगंतर जाइहि कंता।
किअ मम्मह णच्छि, कि णच्छि वसंता।
(25) जो पुण पर- उअआर5 बिपुज्झइ6। तासु जणणि किं ण थक्कइ बँज्झई।
(26) आउ बसंत काह, सहि, करिहउँ कंत ण थक्कइ पासे।

ब्रज, मारवाड़ी- 'किअउ'=कियो। हम्मारो।

खड़ी, पंजाबी- चलिअ, मारिअ, चलिआ, जुज्झिया, बुज्झिया (=चल्या चला, मारया मारा, इत्यादि)। रक्खो, रक्खे, हो, ढोल्ला, पयाणा, सज्जा हुआ (ब्रज के समान ढोल्लो, पयाणो, सज्जउ हुयउ नहीं)। तुम्हाण अम्हाण=तुम्हें हमें। तुम्हा (पुराना रूप)=तुम्हारी। हसंती, हरंती (कृदंत रूप हँसती, हरती)।
बैसवाड़ी, अवधी- 'करू धारू'=किया, धारा (तुलसी का 'कर धार')। चल=चलती है, ताव=तपाता है, बह=बहता है (उ. उत्तर दिसि सरजू बह पावनि)।


(1) पण्डित। (2) मन्मथ। (3) नीप=कदम्ब। (4) पराधीन। (5) पर उपकार। (6) विरोध करता है।
आव=आया। आवे=आए=आवेगा। (जैसे, ऊ कब आए?)। पाआ, मिटाआ=पावा, मिटावा=पाया, मिटाया। बड़=बड़ा। लग=पास, निकट (ठेठ अवधी)। कहिआ=कब (ठेठ पूर्वी या अवधी उ.- कह कबीर किछु अछिलोन जहिया। हरि बिरवा प्रतिपालेसि तहिआ।)
भोजपुरी, मैथिली, बंगला- इछल=इच्छा की। पूरल, मुअल=पूरा, मरा। तोहर=तोहरा=तुम्हारा। णच्छि=नहीं है (मैथिलों की छि छि)। आछे, थक्कइ (बँगला)। गाछे=वृक्ष में (बिहारी, मैथिली, बँगला)।
सारांश यह कि अपभ्रंश के नाम से जिस भाषा के पद्य हेमचन्द्र के व्याकरण में तथा कुमारपाल प्रतिबोध, प्रबन्धा चिन्तामणि आदि काव्यों में मिलते हैं वह ज्यों की त्यों किसी एक स्थान की बोलचाल की भाषा नहीं है कवि समय सिद्ध सामान्य भाषा है। यह भाषा सामान्य दो प्रकार से बनाई गई-
(1) उदारतापूर्वक और प्रदेशों की बोलियाँ (अपभ्रंशों) को भी कुछ स्थान देने से।
ऊपर जो उदाहरण दिए गए हैं वे इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं। यदि हम कई स्थानों में प्रचलित शब्दों और रूपों को समेटकर एक भाषा खड़ी करें तो उसमें कृत्रिमता का आभास रहेगा। शब्दों में से कुछ कहीं और कुछ कहीं बोले जाते हों तो भी एक ही प्रदेश में सब के न बोले जाने के कारण सब जगह वह कुछ न कुछ कृत्रिम लगेगी- यहाँ तक कि उस स्थान पर भी जहाँ का उसका ढाँचा होगा। आज भी यदि हम पंजाब, ब्रज, अवध, बिहार इन सब स्थानों की चलती बोलियों को समेटकर ही- बिना किसी पुरानी भाषा का पुष्ट दिए- भाषा का एक हौवा खड़ा करें तो वह प्रगल्भता और प्रचुरता में संस्कृत और अरबी से टक्कर लेने लगे। इस प्रकार एक व्यापक और प्रकड भाषा तो बन जायगी पर उसमें जीवनी शक्ति उतनी न होगी।
(2) साहित्य की कृत्रिम प्राकृत के पुराने शब्दों को उसी प्रकार स्थान देने से जिस प्रकार पीछे हिन्दी कविता में तत्सम संस्कृत शब्दों को स्थान दिया जाने लगा।
उद्धृत कविताओं में स्वर्ग का 'सग्ग', विद्याधार का 'विज्जाहर', नीप का 'णीव', मन्मथ का 'बम्मह', लोक का 'लोय' प्राकृत की रूढ़ि के अनुसार है। इसी प्रकार प्राकृत से 'पयोहर' (पयोधर), 'महुअर' (मधुकर), रूप्र (रूप), कइ (कवि), मिअणअणी (मृगनयनी) आदि शब्द ज्यों के त्यों लेकर रखे जाते थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये बोलचाल के शब्द नहीं थे। बिना साहित्य की प्राकृत पढ़े न कोई कवि पण्डित कहलाता था, न उसकी कविता शिष्ट समझी जाती थी। इसी कारण अपभ्रंश की कविता में भी ऐसे वाक्य देखने में आते हैं- रे धाणि, मत्ता- मअंगज- गामिणि खंजन- लोअणि चन्द्रमुही। इसे उसी प्रकार उस समय की भाषा न समझना चाहिए। जिस प्रकार ''सुरम्यरूपे, रसराशिरंजिते!'' को आजकल की।
इस प्रकार देश की ठीक-ठीक बोलचाल की भाषा बराबर दबी सी रही, उभरकर भोजपत्र, तालपत्र, ताम्रपत्र या कागज पर न आने पाई। कवि लोगों की वाणी सर्वसाधारण की वाणी से भिन्न रही। अपभ्रंशकाल की प्राचीन हिंदी में सबसे अधिक ध्यान देने की बात यह है कि उसमें एक भी संस्कृत शब्द न मिलेगा। साहित्य की कृत्रिम प्राकृत के शब्द पढ़े लिखे लोगों के शब्द समझे जाते रहे और काव्यों में वही काम देते रहे जो पीछे संस्कृत के शब्द देने लगे। पृथ्वीराज रासो का यदि कुछ अंश भी असली माना जाय तो यह कहा जा सकता है कि उसके रचनाकाल में काव्यभाषा में संस्कृत शब्दों का मिलना प्रारम्भ हो चुका था। यद्यपि चारणों की परंपरा में प्राकृत मिली भाषा हम्मीरदेव के समय तक चलती रही और राजपूताने में शायद अब तक थोड़ी चली चलती है। पर यही कहना चाहिए कि चन्द कवि के पीछे प्राकृत के शब्द- जो संस्कृत की अपेक्षा कहीं ज्यादा नकली थे- क्रमश: निकलते गए और धाराऊ शब्दों का सजावटी काम संस्कृत शब्द ही देने लगे। प्राकृत का पठन-पाठन उठ गया। प्राकृत केवल साहित्य की भाषा थी। उसमें 'गत' का भी 'गय' और 'गज' का भी 'गय', 'मोक्ष' का भी 'मुक्ख' और मूर्ख का भी 'मुक्ख' होने से अर्थबोध में कठिनाई पड़ने लगी। इस प्रकार विचार करने से हिन्दी काव्यभाषा के दो बहुत ही स्पष्ट काल दिखाई पड़ते हैं- प्राकृतकाल और संस्कृतकाल, अर्थात् एक वह काल जिसमें भाषा की सजावट के लिए प्राकृत के शब्द लाए जाते थे, दूसरा वह काल जिसमें संस्कृत के शब्द लिए जाने लगे।
संस्कृतकाल
संस्कृतकाल की काव्यभाषा में भी परंपरागत प्राकृत के कुछ पुराने शब्दों को कवि लोग बराबर लाते रहे। भुवाल(भूपाल), शायर(सागर), दीह(दीर्घ), गय(गज), वसह(वृषभ), नाह(नाथ), ईछन(ईक्षण), लोय(लोक, लोग), लोयन(लोचन) आदि प्राकृत के शब्द सूर, तुलसी, बिहारी आदि के ग्रंथों में इधर-उधर मिलते हैं। इसे कहते हैं परंपरा का निर्वाह।
देश की बोलचाल की चलती भाषा से अपना रूप कुछ भिन्न रखकर किस प्रकार काव्य की भाषा अपनी शान बनाए रही और स्वाभाविक भाषा किस प्रकार दबी रही। यह पहले कहा जा चुका है। इसी बीच में देश में मुसलमानों का आना हुआ जो जरा ज़बान के तेज थे। उस समय तक दिल्ली की बोली (खड़ी) साहित्य या काव्य की भाषा नहीं थी। और प्रादेशिक बोलियों के समान वह भी एक कोने में पड़ी थी। पठानों की राजधानी जब दिल्ली हुई तब मुसलमानों को वहाँ की बोली ग्रहण करनी पड़ी। खुसरो ने उस बोली में कुछ पद्य कहे पर परंपरागत काव्यभाषा(ब्रजभाषा ) की झलक उनमें बराबर बनी रही। दो एक उदाहरण लीजिए-
उ.- (क) अति सुंदर जग चाहै जाको।मैं भी देख भुलानी वाको।
देख रूप भाया जो टोना। ए सखि! साजन, ना सखि सोना।

(ख) टट्टी तोड़ के घर में आया। अरतन बरतन सब सरकाया।
खागया,पीगया,देगयाबुत्ता। ए सखि! साजन, ना सखिकुत्ता।
पहले पद्य में ब्रजभाषा का पूरा ढाँचा है, दूसरा पद्य खासी खड़ी बोली में है। खुसरो में ब्रजभाषा का यही पुट देखकर उर्दूभाषा का इतिहास लिखनेवाले उर्दू लेखकों को यह भ्रम हुआ कि उर्दू अर्थात् खड़ी बोली ब्रजभाषा से निकल पड़ी। पर असल में ब्रजभाषा का मेल परंपरागत काव्यभाषा के प्रभाव के कारण था। इस बढ़ती हुई गज़लबाजी के जमाने में और खास दिल्ली में अब भी घरेलू गीतों, कहावतों आदि की भाषा कुछ और ही है, उसमें वह खड़ापन या अक्खड़पन नहीं है। खुसरो ही तक बात खत्म नहीं हुई, उर्दू के पुराने शायर बहुत दिनों 'नैन' 'जगत्' 'सों' आदि रसपरिपुष्ट शब्द लाते रहे। पीछे के शायरों ने प्रयत्नपूर्वक देश की परंपरागत काव्य भाषा से अपना पीछा छुड़ाया और खड़ी बोली को अनन्य भाव से ग्रहण कर और उसे अरब और फारस की पोशाक पहनाकर अपनी साहित्य भाषा एकबारगी अलग कर ली। कहने का तात्पर्य यह कि पुराने उर्दू कवियों में ब्रजभाषा का पुट केवल यह बतलाता है कि उर्दू कविता पहले स्वभावत: देश की काव्यभाषा का सहारा लेकर उठी, फिर जब टाँगों में बल आया तब किनारे हो गई। यह नहीं कि खड़ी बोली का अस्तित्व उस समय था ही नहीं और दिल्ली, मेरठ आदि में भी ब्रजभाषा बोली जाती थी।
प्राकृत के ग्रंथों में अपभ्रंश के जो नमूने मिलते हैं वे ठीक बोलचाल की भाषा में नहीं हैं, कवि परंपरासिद्ध भाषा में हैं इसका निश्चय खुसरो के पद्यों से हो जाता है। रणथंभौर के हम्मीरदेव अलाउद्दीन के समय में थे जिनके यहाँ खुसरो का रहना इतिहास प्रसिद्ध है। वि.सं. 1353 के लगभग अलाउद्दीन गद्दी पर बैठा था। अब हम्मीर के समय में या उनके कुछ पीछे बने हुए पद्यों की भाषा को खुसरो की भाषा से मिलाकर देखिए। हो सकता है कि खुसरो की कविता फारसी अक्षरों में लिखी जाने के कारण अपने ठीक रूप में न आ सकी हो, पर कहाँ तक फर्क पड़ा होगा।
पहली प्राणप्रतिष्ठा
अब बोलचाल की चलती बोलियाँ दबी न रह सकीं। मिथिला में विद्यापति ठाकुर ने अपने प्रदेश की बोलचाल की भाषा को आगे किया और उसमें सरस कविता करके वे मैथिल कोकिल कहलाए। इधर ब्रजभूमि के कवियों की कृपा से काव्यभाषा का ब्रजत्व बढ़ा। जो भाषा साहित्य की भाषा बनकर बोलचाल की भाषा से कुछ अलग अलग बड़ी ठसक से चल रही थी वह ब्रजमंडल की चलती हुई भाषा के प्रवाह में डुबाई गई जिससे उसमें नया जीवन आ गया, वह निखरकर जीती जागती भाषा के मेल में हो गई। पर इस बारे में भी काव्यभाषा के परंपरागत पुराने रूप कुछ न कुछ साथ लगे रहे, या यों कहिए कि जानबूझकर रख लिए गए। 'जासु', 'तासु', 'नाह', 'ईछन', 'दीह', 'लोयन' आदि बहुत से पुराने पड़े हुए, बोलचाल से उठे हुए या अप्रचलित प्राकृत साहित्य से आए हुए शब्द तथा शब्दों के कालवाचक और कारकसूचक रूप (जैसे, शोभिजै, कहियत, आवहिं, करहिं, रामहिं) परंपरा रक्षित रखने के लिए बराबर लाए जाते रहे। ये चलती हुई ब्रजभाषा के शब्द और रूप नहीं हैं, उस कविसम्मत भाषा के शब्द और रूप हैं जिसकी परंपरा बहुत पुरानी है। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि अवधी बोली (जो पूर्वी है) के कवियों ने भी इनका प्रयोग किया है। अवधी की कविता में 'जासु', 'तासु' बराबर मिलेंगे पर 'जाको', 'ताको' आदि चलती हुई ब्रजभाषा के रूप नहीं पाए जाएंगे, इनके स्थान पर उसमें 'जाकर' या 'जेकर', ताकर, 'तेकर' मिलेंगे।
इधर काव्यभाषा ने ब्रज का चलता रूप पूरा पूरा धारण किया उधर साहित्य की ओर अवध प्रदेश की भाषा भी अग्रसर हुई। पहले तो इसे लेकर वे लोग ही चले जिनका शिष्ट साहित्य से विशेष सम्पर्क न था। कबीरदास ने यद्यपि पँचरंगी मिली जुली भाषा का व्यवहार किया है जिसमें ब्रजभाषा उस खड़ी बोली या पंजाबी तक का पूरा पूरा मेल है जो ग्रंथवालों की सधुक्कड़ी भाषा1 हुई पर पूर्वी भाषा की झलक उसमें अधिक है। 'जहिया', 'तहिया', 'आउब', 'जाब' आदि पूर्वी प्रयोग भरे पड़े हैं। धीरे धीरे अवध में जब मुसलमानों की खासी बस्ती हो गई तब वहाँ की भाषा ने उन्हें आकर्षित किया। सहसराम के शासक हुसैनशाह के आश्रित कुतबन ने अवधी बोली में मृगावती लिखी। हुसैनशाह के पुत्र शेरशाह के जमाने में मलिक मुहम्मद जायसी ने 'पद्मावत' लिखकर हिन्दुओं के घरेलू भावों का जो माधुर्य दिखाया उससे अवधी भाषा की शक्ति का परिचय मिल गया। सूरदास आदि अष्टछाप के कवियों ने जिस प्रकार अपने उपास्य देव की जन्मभूमि की भाषा प्रेमपूर्वक ली उसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास ने अपने उपास्य की जन्मभूमि अयोध्या की भाषा में अपना रामचरितमानस लिखा। ऐसे महाकवि के हाथ में पड़कर अवधी भाषा पूर्व से पश्चिम तक ऐसी गूँजी कि काव्य की सामान्य भाषा ने अष्टछाप के कवियों द्वारा ब्रज का जो चलता विशुद्ध रूप पाया था उसमें बाधा पड़ने का सामान हुआ। रहीम ने अवधी भाषा की ओर विशेषरुचि दिखाई। 'बरवै नायिकाभेद' तो उन्होंने अवधी

1 खड़ी बोली मुसलमानों की भाषा हो चुकी थी। मुसलमान भी साधुओं की प्रतिष्ठा करते थे, चाहे वे किसी दीन के हों। इसमें खड़ी बोली दोनों धर्मों के अनपढ़े लोगों को साथ लगानेवाले और किसी एक के भी शास्त्रीय पक्ष से संबंध न रखनेवाले साधुओं के बड़े काम की हुई। जैसे इधर अंग्रेजों के काम की 'हिन्दुस्तानी' हुई।
भाषा में लिखा ही, अपने नीति के चुटीले दोहों में भी अवधी के भोलेपन का पूरा सहारा लिया। धीरे धीरे ब्रजभाषा की विशुद्धता की ओर बहुत से कवियों का ध्यान नहीं रहा और वे ब्रजभाषा की कविता में भी अवधी के शब्दों और रूपों का मनमाना व्यवहार करने लगे। अल्प शक्तिवाले कवियों को इसमें सुबीता भी बहुत दिखाई दिया- एक ही अर्थ सूचित करने के लिए शब्दों की एक खासी भीड़ उन्हें मिल गई। कीनो, किन्यो, कर्यो, कर, किय, किन, आवैं, आवहिं (मौका पड़ने पर 'आवहीं' भी), आवत, थोरो, थोर, मेरो, मोर, तेरो, तोर- जो छन्द में बैठा रख दिया। प्राकृत आदि के पुराने शब्द बने ही थे। इस प्रकार काव्यभाषा को फिर एक सामान्य और किंचित् कृत्रिम रूप प्राप्त करने की आशंका हुई।
इसमें अवध और बुन्देलखंड के कवियों ने विशेष योग दिया। कृत्रिम प्राकृत का षट्भाषा वाला लक्षण (संस्कृतं प्राकृतं चैव शूरसेनी तदुद्भवा। ततोऽपि मगधी प्राग्वत् पैशाची देशजापि च।) नए रूप में फिर से ताजा किया गया। 'दास' जी ने 'काव्यनिर्णय' में भाषानिर्णय भी कर डाला-
ब्रजभाषा भाषा रुचिर कहैं सुमति सब कोय।
मिलै संस्कृत पारस्यौ पै अति प्रगट जु होयड्ड
ब्रज मगधी मिलै अमर नाग यवन भाखानि।
सहज पारसीहू मिलै षड विधि कहत बखानिड्ड
सुनते हैं आजकल बिहारवाले भी 'भाषानिर्णय' के उद्योग में हैं और क्रियापदों से लिंगभेद का झंझट उठवाना चाहते हैं। 'हिन्दी रचनाप्रणाली' पर पुस्तकें भी बिहार ही में अधिक छपती हैं। एक दिन एक पुस्तक मैंने उठाई। आरंभ में ही लक्षण के उदाहरण में मिला 'तुम गधा हो'। मैंने 'आकाशे लक्ष्यं बद्धवा' वाक्य को ठीक तौर से दुहराकर पुस्तक रख दी। दास जी ने 'ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही न अनुमानो' कहकर मिली-जुली भाषा के लिए प्रमाण ढूँढ़ा कि-
तुलसी गंग दुऔ भए सुकविन के सरदार।
इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार
इस प्रकार भाषा की दृष्टि से उर्दू की तरह हिन्दी में भी दो टाट हो गए- एक विशुद्ध भाषा का ब्रजस्कूल, दूसरा मिली-जुली भाषा का अवधस्कूल।
अपभ्रंश या प्राकृत काल की काव्यभाषा के उदाहरणों में आजकल की भिन्न-भिन्न बोलियों के मुख्य-मुख्य रूपों के बीज या अंकुर दिखा दिए गए हैं। इनमें से ब्रज और अवधी के भेदों पर कुछ विचार करना आवश्यक है क्योंकि हिन्दी काव्य में इन्हीं का व्यवहार हुआ है। इन दोनों भाषाओं की सीमा कानपुर और इटावे के आसपास ठहरती है। पश्चिमी भाषाओं में जिस प्रकार ब्रज सबसे पूर्वी है उसी प्रकार पूर्वी भाषाओं में अवधी सबसे पश्चिम की है। कुछ बातों में ब्रजभाषा अपने से उत्तर की खड़ी बोली के साथ मेल खाती है और कुछ बातों में अवधी के साथ।
खड़ी बोली के साथ मेल और अवधी से भेद
खड़ी बोली के समान सकर्मक भूतकाल के कर्ता में ब्रजभाषा में भी 'ने' चिह्न होता है चाहे काव्य में सूरदास आदि की परंपरा के विचार से उसके नियम का पालन पूर्ण रूप से न किया जाय। यह 'ने' वास्तव में कारण का चिह्न है जो हिन्दी में गृहीत कर्मवाच्य रूप के कारण आया है। हेमचन्द्र के इस दोहे से इस बात का पता लग सकता है- जे महु दिण्णा दिअहड़ा दइएँ पवसंतेण। जो मुझे दिए गए दिन प्रवास जाते हुए दयित (पति) से। इसी अनुसार सक. भूत. क्रिया का लिंग वचन भी कर्म के अनुसार होता है। पर और पूर्वी भाषाओं के समान अवधी में भी यह 'ने' नहीं है। अवधी के सकर्मक भूतकाल में जहाँ कृदन्त न निकले हुए रूप लिए भी गए हैं वहाँ भी न तो कर्ता में करण का स्मारक रूप 'ने' आता है और न कर्म के अनुसार क्रिया का लिंग वचन बदलता है। वचन के संबंध में यह बात है कि कारक चिह्नग्राही रूप के अतिरिक्त संज्ञा के बहुवचन का भिन्न रूप अवधी आदि पूर्वी बोलियों में होता ही नहीं, जैसे- 'घोड़ा' और 'सखी' का ब्रजभाषा बहुवचन 'घोड़े' और 'सखियाँ' होगा पर अवधी में एकवचन का सा ही रूप रहेगा, केवल कारक चिह्न लगने पर 'घोड़न' और 'सखिन' हो जायगा। इस पर एक कहानी है। पूरब के एक शायर जबाँदानी के पूरे दावे के साथ दिल्ली जा पहुँचे। वहाँ किसी कुँजड़िन की टोकरी से एक मूली उठाकर पूछने लगे ''मूली कैसे दोगी?'' वह बोली ''एक मूली का क्या दाम बताऊँ?'' उन्होंने कहा ''एक ही नहीं और लूँगा।'' कुँजड़िन बोली ''तो फिर मूलियाँ कहिए।''
अवधी में भविष्य की शिक्षा केवल तिङ्न्त ही है जिसमें लिंगभेद नहीं है पर ब्रज में खड़ी बोली के समान 'गा' वाला कृदन्त रूप भी है, जैसे- आवैगो, जाएगी इत्यादि।
खड़ी बोली के समान ब्रज की भी दीर्घान्त पदों की ओर (क्रियापदों को छोड़) प्रवृत्ति है। खड़ी बोली की अकारान्त पुं. संज्ञाएँ, विशेषण और संबंधकारक के सर्वनाम ब्रज में ओकारान्त होते हैं, जैसे- घोड़ो, फेरो, झगड़ो, ऐसो, जैसो, वैसो, कैसो, छोटो, बड़ो, खोटो, खरो, भलो, नीको, थोरो, गहरो, दूनो, चौगुनो, साँवरो, गोरो, प्यारो, ऊँचो, नीचो, आपनो, मेरो, तेरो, हमारो, तुम्हारो इत्यादि। इसी प्रकार आकारान्त साधारण क्रियाएँ और भूतकालिक कृदन्त भी ओकारान्त होते हैं, जैसे- आवनो, आयबो, करनो, देनो, दैबो, दीबो, ठाढ़ो, बैठो, उठो, आयो, गयो, चल्यो, खायो इत्यादि। पर अवधी का कुछ लघ्वन्त पदों की ओर झुकाव है जिससे लिंगभेद का भी कुछ निराकरण हो जाता है। लिंगभेद से अरुचि अवधी ही से कुछ कुछ आरंभ हो जाती है। अस, जस, तस, कस, छोट, बड़, खोट, खर, भल, नीक, थोर, गहिर, दून, चौगुन, साँवर, गोर, पियार, ऊँच, नीच इत्यादि विशेषण, आपन, मोर, तोर, हमार, तुम्हार सर्वनाम और केर, कर, सन तथा पुरानी भाषा के कहँ, महँ, पहँ कारक के चिह्न इस प्रवृत्ति के उदाहरण हैं। साधारण क्रिया के रूप भी अवधी में लघ्वन्त ही होते हैं, जैसे- आउब, जाब, करब, हँसब इत्यादि। यद्यपि खड़ी बोली के समान अवधी में भूतकालिक कृदन्त आकारान्त होते हैं। पर कुछ अकर्मक कृदन्त विकल्प से लघ्वन्त भी होते हैं, जैसे- ठाढ़, बैठ, आय, गय, उ.- बैठ हैं= बैठे हैं।
(क) बैठ महाजन सिंहलदीपी।- जायसी
(ख) पाट बैठि रह किए सिंगारू।- जायसी
इसी प्रकार कविता में कभी-कभी वर्तमान की अगाड़ी खोलकर धातु का नंगा रूप भी रख दिया जाता है-
(क) सुनत बचन कह पवनकुमारा।- तुलसी
(ख) उत्तर दिसि सरजू बह पावनि। - तुलसी।
उच्चारण- दो से अधिक वर्णों के शब्द के आदि में 'इ' के उपरान्त 'आ' के उच्चारण से कुछ द्वेष ब्रज और खड़ी दोनों पछाहीं बोलियों को है। इससे अवधी में जहाँ ऐसा योग पड़ता है वहाँ ब्रज में सन्धि हो जाती है, जैसे- अवधी के सियार, कियारी, बियारी, बियाज, बियाह, पियार (कामिहिं नारि पियारि जिमि- तुलसी), नियाव इत्यादि ब्रजभाषा में ल्यार क्यारी, ब्याज, ब्याह, प्यारो, न्याव इत्यादि बोले जाएंगे। 'उ' के उपरान्त भी 'आ' का उच्चारण ब्रज को प्रिय नहीं है, जैसे- पूर्वी- दुआर, कुवाँर। ब्रज- द्वार, क्वारा। इ और उ के स्थान पर य और व की इसी प्रवृत्ति के अनुसार अवधी इहाँ उहाँ (1. इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा। 2. उहाँ दसानन सचिव हँकारे।- तुलसी) के ब्रजरूप 'यहाँ' 'वहाँ' और 'हियाँ' 'हुवाँ के 'ह्याँ' 'ह्वाँ' होते हैं। ऐसे ही 'अ' और 'आ' के उपरान्त भी 'इ' नापसन्द है, 'य' पसन्द है, जैसे- अवधी के पूर्वकालिक आइ, जाइ, पाइ, कराइ, दिखाइ इत्यादि और भविष्य आइहै, जाइहै, कराइहै, दिखाइहै (अथवा अइहै, जइहै, पइहै, करइहै, दिखइहै) आदि न कहकर ब्रज में क्रमश: आय, जाय, पाय, दिखाय तथा आयहै, जायहै, पायहै, करायहै, दिखायहै (अथवा अयहै=ऐहै, जयहै=जैहै आदि) कहेंगे। इसी रुचिवैचित्रय के कारण 'ऐ' और 'औ' का संस्कृत उच्चारण (अइ, अउ के समान) पश्चिमी हिन्दी (खड़ी और ब्रज) से जाता रहा, केवल 'य'कार 'व'कार के पहले रह गया। जहाँ दूसरे 'य' 'व' की गुंजाइश नहीं, जैसे- गैया, कन्हैया, भैया, कौवा, हौवा इत्यादि में। 'और', 'ऐसा', 'भैंस' आदि का उच्चारण पश्चिमी हिन्दी में 'अवर', 'अयसा', 'भयँस' से मिलता जुलता और पूर्वी हिन्दी में 'अउर', 'अइसा', 'भइँस' से मिलता जुलता होगा।
ब्रज के उच्चारण के ढंग में कुछ और भी अपनी विशेषताएँ हैं। कर्म के चिह्न 'को' का उच्चारण 'कौ' से मिलता जुलता करते हैं। 'माहिं, नाहिं, याहि, वाहि' आदि के अन्त का 'ह' उच्चारण में घिस सा गया है। इससे उनका उच्चारण 'मायँ', नायँ', याय', 'वाय' के ऐसा होता है। 'आवैंगे', 'जावैंगे' का उच्चारण सुनने में 'आमैंगे' 'जामैंगे' सा लगता है। पर मेरी समझ में लिखने में इनका अनुसरण करना ठीक नहीं होगा।
अवधी के साथ मेल और खड़ी बोली से भेद
खड़ी बोली में काल बतानेवाले क्रियापद ('है' को छोड़) भूत और वर्तमान कालवाची धातुज कृदन्त अर्थात् विशेषण ही हैं इसी से उनमें लिंगभेद रहता है, जैसे- आता है=आता हुआ है=सं. आयान् (आयान्त)। उपजता है=उपजता हुआ है=प्राकृत 'उपजन्त'=सं. उत्पद्यन्त, उत्पद्यन्। करता है=करता हुआ है=प्रा. करन्त=सं. कुर्वन्त, कुर्वन्। आती है=आती हुई है=प्रा. आयन्ती=सं. आयान्ती। उपजती है=उपजती हुई है=प्रा. उपजन्ती=सं. उत्पद्यन्ती। करती है=करती हुई है=प्रा. करन्ती=सं. कुर्वन्ती। इसी प्रकार वह गया=स: गत:, उसने किया=तेन कृतम् इत्यादि। पर ब्रजभाषा और अवधी में भविष्य के तिङ्न्त रूप भी हैं जिनमें लिंगभेद नहीं है। ब्रज के वर्तमान में यह विशेषता है कि बोलचाल की भाषा में तिङन्त प्रथम पुरुष क्रियापद के आगे पुरुष विधन के लिए 'है' और 'हौ' जोड़ दिए जाते हैं। सं. चलति=प्रा. चलइ=ब्रज. चलै, उत्पद्यते=प्रा. उपजै। सं. पठन्ति=प्रा. पढंति, अप. पढइं, ब्रज. पढूँ। उत्तम पुरुष, सं. पठाम:=प्रा. पठामो, अप. पढउँ, ब्रज पढौं या पढूँ। अब ब्रज में ये क्रियाएँ 'होना' के रूप लगाकर बोली जाती हैं, जैसे- चलै है, उपजै है, पढ़ै हैं, पढ़ौ हौं या पढ़ईँ हूँ। इसी प्रकार मध्यम पुरुष 'पढ़ौ हौ' होगा। वर्तमान के तिङन्त रूप अवधी के बोलचाल से अब उठ गए हैं पर कविता में बराबर आए हैं उ.- (क) पंगु चढैं ग़िरिवर गहन, (ख) बिनु पद चलै सुनै बिनु काना। भविष्य के तिङन्त रूप अवधी और ब्रज दोनों में एक ही हैं, जैसे- करिहै, चलिहै, होयहै=अप. करिहइ, चलिहइ, होइहइ=प्रा. करिस्सइ, चलिस्सइ, होइस्सइ=सं. करिष्यति, चलिष्यति, भविष्यति। अवधी में उच्चारण अपभ्रंश के अनुसार ही हैं पर ब्रज में 'इ' के स्थान पर 'य' वाली प्रवृत्ति के अनुसार करिहय=करिहै, होयहय=होय है, इत्यादि रूप हो जाएंगे। 'य' के पूर्व के 'आ' को लघु करके दोहरे रूप भी होते हैं, जैसे- अयहै=ऐहै, जयहै=जैहै, करयहै=करैहै इत्यादि। उत्तम पुरुष- खयहौं, खैहौं=जयहौं=जैहौं।
ब्रजभाषा में बहुवचन के कारक चिह्नग्राही रूप में खड़ी बोली के समान 'ओं' (जैसे लड़कों को) नहीं होता, अवधी के समान 'न' होता है, जैसे- घोड़ान को, घोड़न को, छोरान को, छोरन को इत्यादि। अवधी में केवल दूसरा रूप होता है, पहला नहीं। उ.- देखहु बनरन केरि ढिठाई।- तुलसी।
खड़ी बोली में कारक के चिह्न विभक्ति से पृथक् हैं। विलायती मत कहकर हम इसका तिरस्कार नहीं कर सकते। इसका स्पष्ट प्रमाण खड़ी बोली के संबंधकारक के सर्वनाम में मिलता है, जैसे- किसका=सं. कस्य=प्रा. नपुं. किस्सकारक चिह्न 'का'। काव्यों की पुरानी हिन्दी में संबंध की 'हि' विभक्ति (माग. 'ह', अप. 'हो') सब कारकों का काम दे जाती है। अवधी में अब भी सर्वनाम में कारक चिह्न लगने के पहले यह 'हि' आता है, जैसे- 'केहिकाँ' (पुराना रूप केहि कहँ), 'केहि कर' यद्यपि बोलचाल में अब यह 'हि' निकलता जा रहा है। ब्रजभाषा से इस 'हि' को उड़े बहुत दिन हो गए, उसमें 'काहि को' 'जाहि को' आदि के स्थान पर 'काको' 'जाको' आदि का प्रयोग बहुत दिनों से है। यह उस भाषा के अधिक चलतेपन का प्रमाण है। खड़ी बोली में सर्वनामों (जैसे, मुझे, तुझे, हमें, मेरा, तुम्हारा, हमारा) को छोड़ विभक्ति से मिले हुए सिद्ध रूप व्यक्त नहीं हैं, पर अवधी और ब्रजभाषा में हैं, जैसे- पुराना रूप 'रामहिं, 'बनहिं', 'घरहिं', नए रूप, 'रामै' 'बनै' 'घरै' (अर्थात् राम को, घर को), अवधी या पूर्वी 'घरै'=घर में।
जैसा पहले कहा जा चुका है ब्रज की चलती बोली से पदान्त के 'ह' को निकले बहुत दिन हुए। ब्रजभाषा की कविता में 'रामहिं', 'आवहिं', 'जाहिं', 'करहिं', 'करहु' आदि जो रूप देखे जाते हैं वे पुरानी परंपरा के अनुसरण मात्र हैं। खड़ी के समान कुछ सर्वनामों में (जाहि, वाहि, तिन्हैं, जिन्हैं) यह 'ह' रह गया है। चलती भाषा में 'रामै', 'बानै', 'आवै, जायँ', 'करै', 'करौ' ही बहुत दिनों से- जब से प्राकृत काल का अन्त हुआ तब से हैं। सूरदास में ये ही रूप बहुत मिलते हैं। कविता में नए पुराने दोनों रूपों का साथ-साथ पाया जाना केवल परंपरा का निर्वाह ही नहीं कवियों का आलस्य और भाषा की उतनी परवा न करना भी सूचित करता है। 'आवै', 'चलावै' के स्थान पर 'आवहिं', 'चलावहिं' क्या 'आवहीं, 'चलावहीं' तक लिखे जाने से भाषा की सफाई जाती रही। शब्दों का अंगभंग करने का 'कविंदों' ने ठेका सा ले लिया। समस्यापूर्ति की आदत के कारण कविता के अन्तिम चरण की भाषा तो ठिकाने की होती थी शेष चरण इस बात को भूलकर पूरे किए जाते थे कि शब्दों के कुछ नियत रूप और वाक्यों के कुछ निर्दिष्ट नियम भी होते हैं। पर भाषा के जीते जागते रूप को पहचानने वाले रसखान और घनानन्द ऐसे कवियों ने ऐसे सड़े गले या विकृत रूपों का प्रयोग नहीं किया है- किया भी है तो बहुत कम। 'आवहिं', 'जाहिं', 'करहि', 'करहु' न लिखकर उन्होंने बराबर 'आवैं', 'जायँ', 'करै', 'करौ' लिखा है। इसी प्रकार 'इमि', 'जिमि', 'तिमि' के स्थान पर वे बराबर चलती भाषा के 'यों', 'ज्यों','त्यों' लाए हैं। ब्रज की चलती भाषा में केवल सर्वनामों के कर्म में 'ह' कुछ रह गया है, जैसे- जाहि, ताहि, वाहि, जिन्हैं, तिन्हैं। पर 'जाहि', 'वाहि' के उच्चारण में 'ह' घिसा जा रहा है। लोग 'जाय' 'वाय' के समान उच्चारण करते हैं।
हिन्दी की तीनों बोलियों में (खड़ी, ब्रज और अवधी) व्यक्तिवाचक सर्वनाम कारक चिह्न के पहले अपना कुछ रूप बदलते हैं। ब्रजभाषा में विकार अवधी का सा होता है, खड़ी बोली का सा नहीं।
खड़ी अवधी ब्रज
मैं, - तू- वह। मैं- तैं- वह, सो, ऊ। मैं- तू या तैं- वह, सो।
मुझ- तुझ- उस। मो- तो- वा, ता, ओ। मो- तो- वा- ता।

'ने' चिह्न तो अवधी में आता ही नहीं। ब्रज में उत्तम पुरुष कर्ता का रूप ने' लगने पर 'मैं' ही रहता है। ऊपर अवधी में प्रथम पुरुष का तीसरा रूप पूर्वी अवधी का है। ब्रज में एकवचन उत्तम पुरुष 'हौ' भी आता है जिसमें कोई कारक चिह्न नहीं लग सकता। वास्तव में इसका प्रयोग कर्ता कारक मैं होता है पर केशव ने कर्म में भी किया है, यथा- पुत्र हौं विधावा करी तुम कर्म कीन्ह दुरन्त।
'जाना' 'होना' के भूतकाल के रूप (गवा, भवा) में से 'व' उड़ाकर, जैसे- अवधी में 'गा' 'भा' रूप होते हैं वैसे ही ब्रज में भी 'य' उड़ाकर 'गो' 'भो' (बहुवचन गे,मे) रूप होते हैं। उ.- (क) इत पारि गो को, मैया! मेरी सेज पै कन्हैया को?- पर कर। (ख) सौतिन के साल भो, निहाल नन्दलाल भो।- मतिराम।
खड़ी बोली करण का चिह्न 'से' क्रिया के साधारण रूप में लगाती है, ब्रज और अवधी प्राय: भूतकालिक कृदन्त में ही लगाती हैं, जैसे- ब्रज. 'किए तें' अवधी 'किए सन' करने से। कारक चिह्न प्राय: उड़ा भी दिया जाता है, केवल उसका सूचक विकार क्रिया के रूप में रह जाता है, जैसे- किए, दीने।
क्रिया का वर्तमान कृदन्त रूप ब्रजभाषा खड़ी के समान दीर्घान्त भी रखती है। जैसे- आवतो, जातो, भावतो, सुहातो (उ.- जब चहिहैं तब माँगि पठैहैं जो कोउ आवत जातो।- सूर) और अवधी के समान लघ्वन्त भी, जैसे- आवत, जात, भावत, सुहात। कविता में सुबीते के लिए लघ्वन्त का ही ग्रहण अधिक है। जिन्हें ब्रज और अवधी के स्वरूप का ज्ञान नहीं होता वे 'जात' को भी 'जावत' लिख जाते हैं।
खड़ी बोली में साधारण क्रिया का केवल एक ही रूप 'ना' से अन्त होनेवाला (जैसे, आना, जाना, करना) होता है पर ब्रजभाषा में तीन रूप होते हैं- एक तो 'नो' से अन्त होनेवाला, जैसे- आवनो, करनो, लेनो, देनो, दूसरा 'न' से अन्त होनेवाला, जैसे- आवन, जान, लेन, देन, तीसरा 'बो' से अन्त होनेवाला, जैसे- आयबो, करिबो, दैबो या लैबो इत्यादि। करना, देना और लेना के 'कीबो', 'दीबो' और लीबो रूप भी होते हैं। ब्रज के तीनों रूपों में से कारक के चिह्न पहले रूप (आवनो' जानो) में नहीं लगते। पिछले दो रूपों में ही लगते हैं, जैसे- आवन को, जान को, दैबे को इत्यादि शुद्ध अवधी में कारक चिह्न लगने पर साधारण क्रिया का रूप वर्तमान तिङन्त का हो जाता है, जैसे- आवइ के, जाइ के, आवइ में, जाइ में अथवा आइव काँ, जाइ काँ, आवइ माँ, जाइ माँ। उ.- जात पवनसुत देवन देखा। जानइ कहँ बल बुद्धि बिसेखा॥ सुरसा नाम अहिन कै माता। पठइन आइ कही तेइ बाता॥- तुलसी।
पूर्वी या शुद्ध अवधी में साधारण क्रिया के अन्त में 'ब' रहता है, जैसे- आउब, जाब, करब, हँसब इत्यादि। इस 'ब' की असली जगह पूर्वी भाषाएँ ही हैं जो इसका व्यवहार भविष्य काल में भी करती हैं, जैसे- पुनि आउब यहि बेरियाँ काली।- तुलसी। उत्तम पुरुष (हम करब, मैं करबौं) और मध्यम पुरुष (तू करबौं, तैं करबे) में तो यह बराबर बोला जाता है पर साहित्य में भी बराबर इसका प्रयोग मिलता है, यथा- (क) तिन निज और न लाउब भोरा।- तुलसी। (ख) घर पइठत पूछब यहि हारू। कौन उतरु पाउब पैसारू॥ जायसी। पर ऐसा प्रयोग सुनने में नहीं आया। मध्यम पुरुष में विशेषकर आज्ञा और विधि में 'ब' में 'ई' मिलाकर ब्रज के दक्षिण से लेकर बुन्देलखण्ड तक बोलते हैं, जैसे- आयबी, करबी इत्यादि। उ.- (ख) ए दारिका परिचारिका करि पालिबी करुनामई।- तुलसी। यह प्रयोग ब्रजभाषा के ही अन्तर्गत है और साहित्य में प्राय: सब प्रदेशों के कवियों ने इसे किया है- सूर, बोधा, मतिराम, दास यहाँ तक कि रामसहाय ने भी। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है जब साहित्य की एक व्यापक और सामान्य भाषा बन जाती है तब उसमें कई प्रदेशों के प्रयोग आ मिलते हैं। साहित्य की भाषा को जो व्यापकत्व प्राप्त होता है वह इसी उदारता के बल से। इसी प्रकार 'स्यो' (=सह, साथ) शब्द बुन्देलखण्ड का समझा जाता है जिसका प्रयोग केशवदास जी ने, जो बुन्देलखंड के थे, किया है, यथा- ''अलि स्यो सरसीरुह राजत है।'' बिहारी ने तो इसका प्रयोग किया ही है, पर उन्होंने जैसे 'करिबी' और 'स्यो' का प्रयोग किया है वैसे ही अवधी 'कीन', 'दीन', 'केहि' (किसने) का प्रयोग भी तो किया है। 'स्यो' का प्रयोग दास जी ने भी किया है, जो खास अवध के थे, यथा- स्यो धवनि अर्थिन वाक्यनि लै गुण शब्द अलंकृत सों रति पाकी। अत: किसी के काव्य में स्थान विशेष के कुछ शब्दों को पाकर चटपट यह निश्चय न कर लेना चाहिए कि वह उस स्थान ही का रहनेवाला था। सूरदास ने पंजाबी और पूर्वी शब्दों का व्यवहार किया है। अब उन्हें पंजाबी कहें या पुरबिया? उदाहरण लीजिए- ''जोग मोट सिर बोझ आनि कै कत तुम घोष उतारी। ऐतिक दूर जाहु चलि काशी जहाँ बिकति है प्यारी''॥ महँगा के अर्थ में 'प्यारा' पंजाबी है। अब पूर्वी के नमूने लीजिए- (क) नेकु गोपालै मोको दै री। देखौं कमलवदन नीके करि ता पाछे तू कनिया लैरी (ख) 'गोड़' चापि लै जीभ मरोरी। 'कनिया' (गोद) और गोड़ (पैर) खास पूर्वी हैं। डर है कि कहीं हिन्दीवालों में लोग अपने गाँव के पास पुराने प्रसिद्ध कवियों की मूर्तियाँ खोद खोद कर न निकालने लगें।
ब्रजभाषा की कुछ विशेषताएँ
खड़ी बोली की आकारान्त पु. संज्ञाओं, विशेषणों और भूत कृदन्तों का (विकल्प से वर्तमान कृदन्तों का भी) ओकारान्त होना ब्रजभाषा का सबसे प्रत्यक्ष लक्षण है। यह संस्कृत के पुं. कर्ता कारक के स् (=सु) का विकार है जो शौरसेनी से आकर ब्रज के कर्ता और कर्म में देखा जाता है। संस्कृत में आकारान्त पुं. शब्द तो इने गिने हैं। हिन्दी में जो शब्द आकारान्त हैं वे अधिकतर संस्कृत में आकारान्त थे, जैसे- घोड़ा, पासा सं. घोटक, पाशक। कर्ता का रूप घोटक:=प्रा. (घोड़ अउ) घोड़ओ, पाशक:=प्रा. (पासअउ) पास ओ=ब्रज. घोड़ो, पासो। इस प्रकार भूत और वर्तमान कृदन्त शब्दों के अन्तिम 'त' का 'अ' हुआ और फिर उसमें 'उ' जुड़कर 'ओ' हो गया, जैसे- चलित:=चलियउ=चलिअउ=चल्यो। कृत:=किअउ=किअउ=कियो। गत:=गउ या गयउ =गयउ=गयो। कहने की आवश्यकता नहीं जिसे भूत- कृदन्त- मूलक सकर्मक क्रियाओं का कर्म कहते हैं वह भी वास्तव में कर्ता ही है अत: उसका भी ओकारान्त होना ठीक है। भाषा के इतिहास की दृष्टि से (चलते व्याकरण की दृष्टि से नहीं) ऐसी क्रियाओं के कर्म में 'को' चिह्न लगाना ठीक नहीं है। स्वर्गीय बाबू बालमुकुन्द गुप्त को यह 'को' नापसन्द था।
इस 'ओ' के नियम का अपवाद भी है। जैसे संस्कृत में स्वार्थे 'क' आता है वैसे ही हिन्दी में 'डा', 'रा', 'ना', 'वा' आदि आते हैं, जैसे- खड़ी- मुखड़ा, बछड़ा, ब्रज और अवधी- हियरा, जियरा, अधारा, बदरा, ऍंचरा, ऍंसुवा, बटा (बाट), हरा (हार), लला (लाल), भैया (भाईआ),- कन्हैया (कन्हाईआ), पूर्वी या अवधी- करेजवा, बदरवा1 सुगना, बिधन। ऐसे शब्द न तो ओकारान्त होते हैं और न कारक चिह्न लगने के पहले उनका रूप एकारान्त होता है।
उ.- (क)क्यों हँसि हेरि हरयौ हियरा अरु क्यों हित कै चित चाह बढ़ाई?- घनानन्द।
(ख) वहै हँसि दैन हियरा तें न टरत है।- घनानन्द।
(ग) जान मेरे जियरा बनी को कैसो मोल है।- घनानन्द।
(घ) बदरा बरसैं ऋतु में घिरि कै, नित ही ऍंखियाँ उघरी बरसैं।- घनानन्द।
(च) बारि फुहार भरे बदरा सोइ सोहत कुंजर से मतवारे।- श्रीधर पाठक।
(छ) हे विधन! तो सो ऍंचरा पसारि माँगौं जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो।- छीत स्वामी।
(ज) जैहै जो भूषन काहू तिया को तो मोल छला के लला न बिकैहौ।- रसखान।
(झ) कुच दुंदन को पहिराय हरा मुख सोंधी सुरा महकावति हैं।
- श्रीधर पाठक।
(ट) बूझिहैं चवैया तक कैहौं कहा, दैया! इत पारि गो को, मैया! मेरी सेज पै कन्हैया को।- पद्माकर।
कारक के कुछ चिह्न भी ब्रजभाषा के निज के हैं-
कर्ता- ने
कर्म- को (कौं)
करण- सो, ते
सम्प्रदान- को (कौं)
अपादान- तें

1 ऐसे शब्दों की बहार रहीम के बरवै नायिकाभेद में देखिए जो अवधी या पूर्वी भाषा में है।
संबंध- को
अधिकरण- में, मों, पै ( 'पर' भी)।
'यह', 'वह', 'सो', 'को' या 'कौन' और 'जो' इन सर्वनामों के रूप कारक चिह्न लगने के पहले क्रमश: 'या', 'वा', 'ता', 'का' और 'जा' (जैसे, याने, वाको, तासों काको, जाको) होते हैं, अवधी के समान 'यहि, वहि, तेहि, केहि, जेहि' नहीं। अत: 'यहि को', 'यहि विधि' आदि रूप शुद्ध ब्रज नहीं हैं।
खड़ी बोली में कीजिए, दीजिए करिए, धारिए आदि रूप आज्ञा और विधि के हैं। 'इज्ज' और 'इज्जा' प्राकृत में भी मिलते हैं, जैसे- अप. पढ़िज्जहि, पढ़ीयहिं=हिं. पढ़ीजै,पढ़िए। ब्रजभाषा में आज्ञा और विधि के अतिरिक्त वर्तमान और भविष्य में भी चाहे कोई पुरुष हो इनका प्रयोग मिलता है। यह स्वच्छन्दता प्राकृत में भी थी। हेमचन्द्र ने (3- 178) 'हो' धातु तथा और धातुओं में भी सब कालों के इन रूपों का प्रयोग किया है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं-
(क) पुंज कुंजर शुभ्र स्यंदन शोभिजै सुठि सूर।- केशव।
(ख) रस प्याय कै ज्याय बढ़ाय कै आस बिसास में यों विष घोरिये जू।- घनानन्द।
(ग) जो कछु है सुख सम्पति सौंज सो नैसुक ही हँसि देन में पैये।- घनानन्द।
'ए' निकालकर और वर्तमान का चिह्न 'त' लगाकर भी इसका प्रयोग हुआ है-
'कहा चतुराई ठानियत प्राणप्यारी तेरो मान जानियत रूखे मुँह मुसकान सों।'- मतिराम।
उत्तम पुरुष के साथ सम्भाव्य भविष्य काल का उदाहरण-
(क) ज्ञान निराश कहा लै कीजै ?- सूर।
(ख) नेकु निहारे कलंक लगै यहि गाँव बसे कहु कैसक जीजै। ह्नै बनमाल हिए लगिये अरू ह्नवै मुरली अधारारस पीजै।- मतिराम।
'दीजिए', 'कीजिए' का जैसा पुराना प्रयोग ऊपर दिखाया गया है, वैसे ही पुराने कुछ और भी प्रयोग कवियों ने किए हैं। अपभ्रंश प्राकृत के जो अवतरण आरंभ में दिए गए हैं उनके भूत (कृदन्त) के 'मारिअ', 'चालिअ, 'जाईयउ' इत्यादि रूप देखने में आते हैं। इन्हीं रूपों से पंजाबी मारया, खड़ी और अवधी- मारा, ब्रज- मारयो, चल्यो, जायो आदि रूप बने हैं। कहीं कहीं हिन्दी के कवियों ने अपभ्रंश के पुराने रूप ज्यों के त्यों रख दिए हैं। केशवदास जी ने ऐसा बहुत किया है-
(क) पूजि रोचन स्वच्छ अच्छत पट्ट बाँधिय भाल। (=बाँधा)।
(ख) भूषि भूषण सत्रुदूषण छाँडियों तिहि काल। (=छोड़ा)।
(ग) बन माँझ टेर सुती कहूँ कुश आइयो अकुलाय (=आया)।
(घ) तब और बालक आनि। मग रोकियो तजि कानि। (=रोका)।
'हो' धातु का भूतकाल खड़ी बोली में 'था' होता है पर ब्रज में 'हुतो' 'हतो' या 'हो' होता है। ब्रज की चलती बोलचाल में 'हुतो', और 'हुते' को 'हो' और 'हे' प्राय: हो जाता है, जैसे-
(क) बिनु पावस तो इन्हें थ्यावस हो न, सु क्यों करि ये अब सोपरसैं?- घनानन्द।
(ख) एक दिवस मेरे घर आए मैं ही महति दही।- सूर
(ग) तबतौ छवि पीवत जीवत हे अब सोचन लोचन जात जरे।- घनानन्द।
(घ) तब हार पहार से लागत हे अब आय कै बीच पहार परे।- घनानंद।
इस 'हतो' का प्रयोग बुन्देलखण्ड में अधिक है। काल ज्ञापन के अर्थ जहाँ यह किसी क्रिया के साथ संयुक्त होता है वहाँ प्राय: 'ह' निकल जाता है केवल 'तो' रह जाता है। यह शुद्ध बुन्देलखण्डी है-
(क) छोड़ोइ चाहत ते तब तें तन। पाय निमित्ता करयो मन पावन। - केशव।
(ख) अंगद जो तुम पै बल होतो। तो वह सूरज को सुत को तो ? - केशव।
(ग) जल भरन जानकी आई तीं। गोद ललन लै आईं तीं। - गीत।
इसी 'भू' धातु से बने भूत कृदन्त को करणकारक का रूप देने से प्राकृत की 'हिंतो' (=से) विभक्ति बनी है। इस बात का स्पष्ट आभास केशवदास जी ने दिया है-
सीतापद सम्मुख हतें गयो सिंधु के पार।
विमुख भए क्यों जाऊँ तरि सुनो, भरत, एहि बार-
हुतें=हुए से=होने से। सूरदास जी ने इसका प्रयोग 'ओर से', 'तरफ से' के अर्थ में किया है-
श्रीदामा आदिक सब ग्वालन मेरे हतो भेंटियो।
प्राकृत की 'सुंतो, विभक्ति की प्रतिनिधि 'सेंती' (=से) पुरानी खड़ी बोली में खुसरो और कबीर के बहुत पीछे तक थी-
तोहि पीर जो प्रेम की पाका सेंती खेल।- कबीर।
'ओर से', 'बदले में' के अर्थ में भी 'संती' अवधी में अब तक बोला जाता है।
खड़ी बोली में आज्ञा और विधि में जहाँ क्रिया का साधारण रूप रखा जाता है (जैसे, तुम आना) वहाँ ब्रजभाषा धातु में 'इयो' लगती है, जैसे- आइयो, जाइयो, करियो इत्यादि।
कारक के कुछ प्रयोग भी ब्रजभाषा के निज के हैं जो न खड़ी बोली में होते हैं, न अवधी में। जैसे, अधिकरण चिह्न 'पै' का प्रयोग करण और अपादान के अर्थ में। उ.- (क) शेष शारदा पार न पावैं मोपै किमि कहि जैहै? (ख) तू अलि! कापै कहत बनाय?- सूर।
साहित्य की जो भाषा होगी वह ऐसे सामान्य शब्दों को ही व्यवहार में लाएगी जिनका प्रचार दूर दूर तक होगा। किसी भूखण्ड के एक कोने का प्रयोग, चाहे वह कोना वहीं का क्यों न हो जहाँ की भाषा टकसाली मानी जाती है, शिष्ट प्रयोग में नहीं आएगा। शीघ्र के अर्थ में 'सिदौसी' मथुरा वृन्दावन में बराबर बोला जाता है पर साहित्य में नहीं लिया गया है। इसी प्रकार जहाँ कर्म लुप्त होता है या नियत लिंग का नहीं होता वहाँ भूत. क्रिया 'कहा' को स्त्रीलिंग बोलने की प्रवृत्ति ब्रज में अधिक है, जैसे- 'वाने कह्यो' के स्थान पर 'वाने कही,। स्वीकृति सूचक शब्द 'अच्छा!' के स्थान पर भी 'अच्छी'! बोलते हैं। पर ऐसे प्रयोग साहित्य से प्राय: अलग रखे गए हैं।
अवधी की कुछ विशेषताएँ
पहले जो कुछ कहा जा चुका है उससे अवधी के स्वरूप का भी बहुत कुछ परिचय हो गया होगा। यद्यपि अवधी पूर्वी हिन्दी के अन्तर्गत है पर उसके भीतर भी हम दो प्रकार के रूप पाते हैं- एक पश्चिमी, दूसरा पूर्वी। पश्चिमी अवधी ब्रजभाषा से पूरब की अपेक्षा कुछ अधिक मिलती हैं। अयोध्या और गोंडे के आस पास जो भाषा बोली जाती है वह पूर्वी या शुद्ध अवधी है। लखनऊ, कानपुर से लेकर कन्नौज के पास तक जो भाषा बोली जाती है वह पश्चिमी अवधी है जिसके अन्तर्गत बैसवाड़ी है। कन्नौज और इटावा के पास पहुँचते पहुँचते यह भाषा ब्रजभाषा से यहाँ तक मिल जाती है कि ओकारान्त रूप भी आ जाते हैं। तीन सर्वनाम ऐसे हैं जिन्हें पकड़ने से दोनों के स्थान का पता बहुत जल्दी लग सकता है। खड़ी बोली के 'कौन' 'जो' और 'वह' के हमें अवधी के क्षेत्र के भीतर ही दो रूप मिलते हैं- 'को', 'जो', 'सो' और 'के', 'जे', 'से', या 'ते'। पश्चिमी अवधी में हमें 'को', 'जो', 'जो', 'सो', मिलेंगे और पूर्वी में 'के', 'जे', 'से', या 'ते'। जैसे- पश्चिमी- को आय?, पूर्वी- के है?=कौन है? पश्चिमी- 'जो जइहै सो पइहै', पूर्वी- 'जे जाई से पाई'=जो जायगा वह पाएगा। 'को' 'जो' 'सो', शौरसेनीपन है और के, जे, से मगधी या अर्ध्दमगधीपन।
'को', 'जो', 'सो' के कारक चिह्नग्राही रूप ब्रजभाषा के समान क्रमश: 'का', 'जा', 'ता' होंगे, जैसे- काकर, जाकर, ताकर (पर 'केर' के योग में पश्चिमी अवधी में भी पूर्वी का रूप सामान्य विभक्ति (हि) के साथ कारक चिह्न लगने पर भी नहीं बदलते, जैसे- केहिकर या केकर), जेहि महँ (बोलचाल) जेहि माँ, 'तेहि सन' इत्यादि। ब्रज और खड़ी के समान पश्चिमी अवधी में भी साधारण क्रिया का नान्त रूप रहता है, जैसे- आवन, जावन, करन इत्यादि पर पूर्वी अवधी की साधारण क्रिया के अन्त में 'ब' रहता है, जैसे- आउब, जाब, करब, हँसब इत्यादि। आगे कारक चिह्न या दूसरी क्रिया लगने पर खड़ी और ब्रज के समान पश्चिमी अवधी में नान्त रूप रहता है, जैसे- आवन का (पुराना रूप- आवन कहँ), करन माँ (पु. करन महँ), आवन लाग इत्यादि। पर पूर्वी अवधी में कारक चिह्न या दूसरी क्रिया संयुक्त होने पर साधारण क्रिया का रूप ही नहीं रहता वर्तमान का तिङन्त रूप हो जाता है, जैसे- 'आवै काँ', 'जाय माँ' (या आवै के, जाय में), 'करै कर', आवै लाग, करै लाग, 'सुनै चाहौ' इत्यादि। कारक के चिह्न के पहले पूर्वी और पश्चिमी दोनों अवधी भूतकृदन्त का रूप कर लेती हैं जैसे- आए से, चले से, आए सन, दिए सन। संयुक्त क्रिया प्रयोग में तुलसीदास जी ने यह विलक्षणता की है कि एकवचन में तो पूर्वी अवधी का रूप रखा है और बहुवचन में पश्चिमी अवधी का, जैसे- कहइ लाग, कहन लागे। पश्चिमी अवधी में ब्रजभाषा के समान प्रथम पुरुष एकवचन भविष्य क्रिया के अन्त में 'है' होता है। (जैसे- करिहै, सुनिहै, मिलिहै) पर पूर्वी अवधी में पहले अन्त में 'हि' था (जैसे- होइहि, आइहि, जाइहि) परन्तु अब 'ह' के घिस जाने और बचे हुए 'इ' के पूर्व 'इ' के साथ मिल जाने से ईकारान्त रूप हो गया है, जैसे- आई, जाई, करी, खाई। तुलसीदास जी ने भविष्य में पूर्वी या शुद्ध अवधी का ही प्रयोग अधिक किया है। उ.- (क) होइहि सोइ जो राम रचि राखा। (ख) जस बर मैं बरनउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहिं तस संसय नाहीं।
अवधी भाषा के साहित्य में दो ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं- जायसी की परिवर्तित और गोस्वामी तुलसीदास जी का 'रामचरितमानस'। इन दोनों ग्रंथों में पूर्वी और पश्चिमी दोनों (अवधी) के रूप मिलते हैं-
(क) भयउ सो कुम्भकरन बलधामा।- तुलसी।
(ख) तेइ सब लोक लोकपति जीते।- तुलसी।
(ग) जाकर चित अहिगति सम भाई।- तुलसी।
(घ) जेहि कर जेहि पर सत्य सनेहू।
सो तेहि मिलत न कछु संदेहू।- तुलसी।
(च) तेहि कर वचन मानि बिस्वासा।- तुलसी।
(छ) जो जाकर सो ताकर भयऊ।- जायसी।
(ज) जेहि कइ अस पनिहारी से रानी केहि रूप।- जायसी।
(झ) लागी सब मिलि हेरइ।- जायसी।
(ट) लाग से कहइ रामगुनगाथा।- तुलसी।
(ठ) लगे चरन चाँपन दोउ भाई।- तुलसी।
(ड) बन्धु बिलोकि कहन अस लागे।- तुलसी।
भूतकालिक क्रिया का आकारान्त रूप विशुद्ध अवधी में या तो सकर्मक उत्तम पुरुष बहुवचन में (विकल्प से) या अकर्मक प्रथम पुरुष एकवचन में होता है, जैसे- हम पावा- ऊ चला। पर साहित्य की अवधी में आकारान्त भूतकालिक रूपों का पश्चिमी हिन्दी के समान पुरुषभेदयुक्त स्वच्छन्द प्रयोग भी बराबर मिलता है, जैसे- (क) कृपानिधन राम सब जाना। (ख) रहा बालि बानर मैं जाना। (ग) का पूछहु तुम अबहुँ न जाना।- तुलसी। ठेठ अवधी में क्रिया का रूप सदा कर्ता के पुरुष (और लिंग वचन भी) के अनुसार होता है कभी कर्म के अनुसार नहीं, अत: उक्त तीनों उदाहरणों में 'जानना' क्रिया के रूप बोलचाल की अवधी के अनुसार क्रमश: 'जानिन', 'जान्यो' और 'जान्यो' होंगे।
भूतकालिक रूपों में जहाँ खड़ी बोली में अन्त में 'या' होता है वहाँ अवधी में 'वा' होता है, जैसे- आवा, लावा, बनावा। 'जाना' 'होना' के भूतकाल के रूप 'व' निकालकर भी होते हैं, जैसे- 'गा', 'भा'।
भूतकालिक क्रिया के सर्वनाम कर्ता के प्रयोग में दोनों ग्रंथों में एक विलक्षणता देखने में आती है। अकर्मक के कर्ता के रूप तो पश्चिमी जो, सो, को मिलते हैं, जैसे- भयउ सो कुम्भकरन बलधामा, पर सकर्मक के कर्ता के रूप केहि, जेहि, तेहि याकेई जेई, तेइ (बहुव. किन, जिन, तिन) मिलते और उनकी क्रियाओं के लिंग वचनकर्म के अनुसार (जैसा पश्चिमी हिन्दी में होता है) होते हैं जो अवधी की चाल के विरुद्ध है।
उ.- (क) बंदनीय जेहि जग जस पावा।
(ख) मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई।
(ग) पारबती निरमयउ जेइ सो करिहै कल्यान।
(घ) तेहि धारि देह चरित कृत नाना।
(च) तेहि सब लोक लोकपति जीते।
(छ) जेइ यह कथा सुनी नहिं होई।
(ज) जिन हरिभगति हृदय नहिं आनी।
(झ) दुइ जग तरा प्रेम जेइ खेला।- जायसी।
(ट) केइ सुकृत केहि घरी बसाए।
कर्ता के पुरुष के अनुसार नियत अपने सकर्मक भूतकालिक रूपों के अतिरिक्त सुबीते के लिए पश्चिमी हिन्दी का पुरुषभेद युक्त रूप भी साहित्य में रख लिया गया यह बात तो समझ में आ जाती है पर कर्ता का रूप अपभ्रंश प्राकृत या पूर्वी अवधी का क्यों रखा गया यह भेद नहीं खुलता। अवधी पूर्वी भाषा है अत: उसमें भूतकालिक सकर्मक क्रिया कारक चिह्न रहित कर्म के अनुसार नहीं होती, सदा कर्ता के अनुरूप होती है। जायसी ने शुद्ध अवधी का प्रयोग अधिक किया है। अत: उन्होंने क्रिया का रूप पुरुष भेदमुक्त रखकर भी उसे अक्सर कर्म के लिंग वचन के अनुसार नहीं बदला है-
(क) भूलि चकोर दिहिटि तहँ लावा।
(ख) कित तीतर बन जीभ उघेला।
गोस्वामी तुलसीदास जी 'लावा' और 'उघेला' के स्थान पर 'लाई' और 'उघेलो' लिखते हैं। गोस्वामी जी साहित्य के पण्डित थे और उनका परंपरागत काव्यभाषा से अधिक संबंध था इससे उन्होंने जहाँ क्रिया का पुरुषभेद वर्जित पश्चिमी रूप लिया वहाँ उसे नियमानुसार कर्म से लिंग वचन के बंधन में रखा पर जायसी बेचारे से वहाँ कहीं कहीं अवधीपन रह ही गया। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस को छोड़ अपने और सब ग्रंथ प्राय: देश की सर्वमान्य काव्यभाषा ब्रजभाषा में ही लिखे यद्यपि उनमें भी जगह जगह अपनी मातृभाषा अवधी के शब्द (जैसे विनयपत्रिका में 'रोटी लूगा') वे बिना लाए न रह सके। साहित्य के कारण ही रामचरितमानस में भी कहीं इधर-उधर ब्रजभाषा की झलक दिखाई पड़ जाती है-
(क) अस कहि चरण गहे वैदही (कर्म के अनुसार बहुव. क्रिया)
(ख) सुमन पाय मुनि पूजा कीन्हीं (कर्म के अनुसार स्त्री. क्रिया)
(ग) जनक विनय तिन्ह आनि सुनाई (वही)
(घ) मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की (पश्चिमी संबंध चिह्न)
(च) अगम सनेह भरत रघुबर को (ब्रज का संबंध चिह्न)
(छ) बंदउँ राम नाम रघुबर को (वही)
(ज) मन जाहि राचेउ मिलेउ सो वर सहज सुंदर साँवरो (ब्रज का ओकारान्त)
(झ) बधयो चहत यहि कृपानिधन (ब्रज का ओकारान्त कृन्दत)
अवधी में क्रिया का रूप सदा कर्ता के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार होता है। सकर्मक भूतकालिक क्रियाओं के रूप भी कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार नियत होते हैं- उत्तम पुरुष एकवचन 'मैं' (क) जानेउँ मरम राउ हँसि कहई- तुलसी।
'मैं' बहुव. 'हम' (ख) अब भा मरन सत्य हम जाना।- तुलसी।
मध्यम पुरुष एकव. 'तै' (क) प्रथमहिं कस न जगायसि आई।- तुलसी।
मध्यम पुरुष बहुव. 'तुम या तूँ' (ख) देन कहेहु बरदान दुई तेउ पावत संदेह- तुलसी। प्रथम पुरुष एक व. 'उ' या 'वह' (क) प्रगटेसि तुरत रुचिर ऋतुराजा।
मध्यम पुरुष बहुव. 'वै' या 'तिन'
(ख) जात पवनसुत देवन देखा।
जानइ कहँ बल बुद्धि बिसेखाड्ड
सुरसा नाम अहिन कै माता।
पठइन आइ कही तेइ बाताड्ड
जैसा पहले कहा जा चुका है अवधी की रुचि लघ्वन्त पदों की ओर रहती है इसी से वह भूतकालिक क्रियाओं के कुछ लघ्वन्त रूप भी रखती है जिनमें लिंग, वचन और पुरुष के विचार की गुंजाइश नहीं होती, जैसे- कीन्ह, दीन्ह, लीन्ह, दीख, बैठ, लाग इत्यादि।
उ.-
(क) मैं सब कीन्ह तोहि बिनु पूछे।
(ख) मैं सब समुझि दीख मन माहीं।
अवधी के कारक चिह्न इस प्रकार हैं-
कर्ता- ....
कर्म- के, काँ (पुराना रूप कहँ)
करण- से, सन।
सम्प्रदान- के, काँ (पुराना रूप कहँ)
अपादान- से, ते।
संबंध- कै, कर (बोलचाल- 'क') और केर।
अधिकरण- मैं, माँ (पुराना रुप महँ) और पर।
अवधी में संबंध के चिह्न तीन हैं, 'कै', 'कर' और 'केर'। इनमें से 'कै' और 'कर' में लिंगभेद नहीं है यद्यपि तुलसी जी ने 'कै' या 'कइ' को स्त्रीलिंग के संबंध में नियत सा कर दिया है, जैसे- जिन्ह कइ रही भावना जैसी। पर बोलचाल में इस प्रकार का कोई भेद नहीं है। इतना है कि कर का प्रयोग सर्वनामों के आगे अधिकतर करते हैं, जैसे- एकर, ओकर, या यहिकर, इनकर, उनकर इत्यादि। अवधी के रूप लघ्वन्त हैं इससे 'आपन', 'हमार', 'तुम्हार' आदि के स्त्री रूपों में भी (आपनि, हमरि, तुम्हारि) 'इ' कार उतना स्पष्ट नहीं रहता। 'केर' केवल पश्चिमी अवधी में है और इसमें लिंगभेद साफ है। इसी का बैसवाड़ी रूप 'क्यार' है जैसे, 'मनियादेउ महोबे क्यार'। 'केर' का ब्रज रूप यद्यपि 'केर', 'केरो' है पर खास ब्रजमण्डल के भीतर यह अब सुनने में नहीं आता। प्राकृत में भी यह संबंध चिह्न अपने पूरे लिंगभेद के साथ मिलता है। पुं. केरओ, स्त्री. केरिया, न. केरअं या केरउँ। पुं. केरो, केरु, स्त्री केरी, न. केरं। 'केरओ' आदि रूप पुराने हैं, उ. एसोक्खु अलंकारओ अज्जाए केरओ (मृच्छ.) यह अलंकार आर्य्या का है। पिछले पुं. रूप 'केरो' और 'केरु' हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि दीर्घान्त रूप 'केरो' ब्रज और लघ्वन्त रूप 'केरु' अवधी है। यह 'केर' या 'केरो' सं. 'कृत' से निकला हुआ माना गया है।
व्यक्तिवाचक के अतिरिक्त और सर्वनामों के रूप अवधी में इस प्रकार हैं। यह=यह (पश्चिमी अवधी), ई (पूर्वी), (बहु. ये- ए)। वह=वह (पश्चिमी अवधी), ऊ (पूर्वी), 'सो' (पश्चिमी अवधी), से, तौन, ते (पूर्वी), (बहु. जो, जे ) कौन=को (पश्चिमी अवधी), के कौन (पूर्वी अवधी), (बहु. को, के)। इनमें से पूर्वी 'जौन', 'तौन' और 'कौन' जड़ पदार्थों के लिए अथवा व्यक्ति के संबंध में लघुत्व सूचित करने के लिए आते हैं, जैसे- जौन कुछ पावा तौन दै दीन। साहित्य की अवधी में 'ई' और 'उ' के स्थान पर 'यह' 'वह' अथवा 'सो' का प्रयोग अधिकतर मिलता है, उ. (क) मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। (ख) तुइँ सुरंग सूरत वह कही- जायसी। पश्चिमी अवधी कारक चिह्न ग्रहण करने के पूर्व ब्रज के समान इनके रूप क्रमश: 'या', 'वा', 'जा' और 'का' कर लेती है, जैसे- जितिहहिं राम न संसय या महँ। पर पूर्वी या शुद्ध अवधी पुराने सामान्य विभक्ति युक्त रूप एहि, ओहि, तेहि, जेहि, केहि रखती है, जैसे, एहि कर, ओहि कर, एहि काँ, ओहि काँ, जेहि काँ, तेहि काँ इत्यादि।
रामायण, परिवर्तित आदि में विभक्ति के रूप में अथवा वर्तमान, भविष्य और आज्ञा विधिसूचक क्रियापदों के अन्त में 'हि' 'हिं' या 'हु' 'हूँ' रामहिं, उनहिं, तिनहिं, जाहिं, करहिं, करिहहि, करिहि, करहु, चलहु देखकर लोग इन्हें अवधी का चिह्न समझा करते हैं। पर ये रूप न तो बोलचाल की अवधी के हैं, न ब्रज के। ये प्राकृत या अपभ्रंश काल के रूप हैं जिनको कवि परंपरा रक्षित रखती आई है। संज्ञा शब्दों से तो 'हि' विभक्ति के 'ह' को घिसे बहुत दिन हुए, सर्वनामों में यह कुछ बनी हुई है, जैसे- कारकचिह्नों के योग में 'एहि सन, ओहि माँ, जेहि कर, आदि में और ब्रज के जाहि, ताहि, वाहि में प्रत्यक्ष रूप में और ब्रज और अवधी के इन्हें, जिन्हें तथा खड़ी बोली के इन्हें, उन्हें, जिन्हें में परोक्ष रूप में। इसी प्रकार 'आवै' 'जाय' 'करै' 'करिहै' 'चलौ' जैसे आज ब्रज और अवधी दोनों में बोले जाते हैं, वैसे ही सूर और तुलसी के समय में भी बोले जाते थे- 'आवहिं' 'जाहिं' 'करहिं' 'करिहहि' 'चलहु' कोई नहीं बोलता था। जब कि एक ही कवि ने अपनी कविता में एक ही शब्द को दो रूपों में लिखा है जिनमें से एक रूप तो आजकल भी ज्यों का त्यों है और दूसरा रूप अब नहीं है पर उस कवि से बहुत पहले भी मिलता है तब यह एक प्रकार से निश्चित है कि उसके समय की बोलचाल में पहला ही रूप था दूसरा रूप उसने प्राचीनों के अनुकरण में लिखा है।
इसी प्रकार 'गयउ', 'भयउ', 'दीन्हेउ', 'लीन्हेउ', 'कियउ' इत्यादि अवधी के रूप नहीं हैं, पश्चिमी अपभ्रंश के पुराने रूप हैं जिनसे ब्रजभाषा के 'गयो', 'भयो', 'दीन्हों', 'लीन्हों', 'कियो' इत्यादि रूप बने हैं।
प्रथम पुरुष की भूतकालिक क्रियाएँ 'ओ' या 'औ' (अउ) कारान्त अवधी में नहीं हैं। अवधी में बहुवचन उत्तम पुरुष सकर्मक भूतकालिक क्रिया और प्रथम पुरुष एकवचन की अकर्मक भूतकालिक क्रिया आकारान्त होती है, जैसे- हम जाना, हम सुना, ऊ चला, घोड़ा दौरा, रावण हँसा इत्यादि। जहाँ पश्चिमी हिन्दी की सकर्मक भूतकालिक क्रिया ली गई है वहाँ भी खड़ी बोली की तरह 'आकारान्त' रूप रखा गया है ब्रज की तरह ओकारान्त नहीं, जैसे- रामकृपा करि चितवा जबहीं।- तुलसी।
आज्ञा और विधि में जहाँ खड़ी बोली में क्रिया का साधारण रूप आता है (जैसे, तुम आना) वहाँ अवधी में धातु में 'यो' लगता है, ब्रजभाषा के समान 'इयो' नहीं जैसे, तुम (या तू) आओ, जायो कह्यो, दिह्यो चल्यो इत्यादि।
अवधी भाषा के काव्यों पर टीका लिखने का प्रयत्न उन्हीं लोगों को करना चाहिए जो उसके स्वरूप को पहचानते हैं और उसके शब्दों से परिचित हैं। नहीं तो 'रोटी लूंगा' (रोटी=कपड़ा, पंजा. लुंगी, राज. लूगड़ी लूगड़ा) का अर्थ 'रोटी लूँगा' लिखने की नौबत आ जाती है। अवधी काव्य की परंपरा बहुत पुरानी है पर अवधी वैसी व्यापक काव्यभाषा न बन सकी जैसी ब्रज। आख्यान काव्य लिखने में जो सफलता अवधी के कवियों को हुई है वह ब्रजभाषा के कवियों को नहीं। रामचरितमानस और परिवर्तित ये दो काव्य तो बहुत प्रसिद्ध हैं पर इनके पहले के और पीछे के काव्य भी हैं, जैसे- मधुमालती, चित्रवली, इन्द्रावती, मृगावती। रहीम का 'बरवै नायिकाभेद' भी ठेठ अवधी में है। कबीर की भाषा मिलीजुली होने पर भी अधिकांश पूर्वी ही है। अयोध्या के आसपास की पूर्वी या शुद्ध अवधी का नमूना देखना हो तो बाबा रघुनाथदास का विश्रामसागर देखना चाहिए।
अवधी और ब्रजभाषा के बीच जो थोड़े से भेद दिखाए गए वे पहचान के लिए बहुत हैं। इनके सहारे हम देख सकते हैं कि किस कवि ने भाषा के जीते- जागते रूप को पहचान कर चलती ब्रजभाषा का प्रयोग किया है और किसने अवधी के और कुछ पुराने रूपों को मिलाकर एक कृत्रिम सामान्य भाषा का आश्रय लिया है। अवधी और ब्रज में स्वरूप भेद देखकर हम समझ सकते हैं कि दोनों का सौन्दर्य अलग अलग है। एक में दूसरे का पुट देने से भाषा के स्वाभाविक सौन्दर्य में कुछ विघात पड़ता है। यद्यपि अवध और बुन्देलखंड में ब्रजभाषा पर पूर्ण अधिकार रखनेवाले अच्छे-अच्छे कवि हुए हैं पर उन्होंने मिश्रभाषा का आश्रय जगह जगह लिया है। बुन्देलखण्ड की भाषा यद्यपि ब्रजभाषा ही है पर उसका लगाव उन प्रदेशों से बहुत दूर तक है जिनमें अवधी बोली जाती है। बघेलखण्ड की भाषा तो अवधी है ही इधर फतेहपुर और बाँदे तक अवधी चली गई है। नीचे ब्रजभाषा की कविता में अवधी या पूर्वी प्रयोगों के कुछ उदाहरण दिए जाते हैं-
(1) कहा रन मंडन मो सन आयो।- केशव।
(2) धिक तो कहँ जो अजहूं तू जियै।- केशव।
(3) माता पिता कवन कौनहि कर्म कीन?
विद्याविनोद सिख, कौनहि अस्त्रा दीन?- केशव।
(4) पुत्र! हौं विधावा करी तुम कर्म कीन दुरंत।- केशव।
(5) रामहि राम कहै रसना, कस ना तु भजै रस नाम सही को।- पद्माकर।
(6) सावनी तीज सुहावनी को सजि सूहे दुकूल सबै सुख साधा।- पद्माकर।
(7) जो बिहँसै मुख सुंदर तौ मतिराम बिहान को बारिज लाजै।- मतिराम
(8) बसननि तानि के वयारि वारियतु है।- मतिराम
(9) जा कहँ जासह हेतु नहीं कहिए सु कहा तिहिकी गति जानै।- दास।
(10) हिम्मत यहाँ लगि है जाकी भट- जोट में।- भूषण।
(11) जमुना जल को जात ही डगरी गगरी जाल।- दास। (ब्रज 'गागर' होगा)।
(12) दौरि दौरि जेहि तेहि लाल करि डारति है।- दास।
(13) तिकस्यो झरोखा ह्वै कै विगस्यौ कमलसम।- कालिदास। (ब्रज में 'झरोखे' होगा)।
(14) छंद भरे में एक पद धवनि प्रकाश करि देइ।- दास।
(15) भालु कपि कटक अचंभा जकि ज्वै रह्यो।- दास (ब्रज 'अचंभो' होगा)।
(16) आलम जौन से कुंजन में करी केलि तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।- आलम।
यह तो अवधी का मेल हुआ, अब खड़ी बोली की शान देखिए-
मंद मंद गति सों गयंद गति खोने लगी, बोने लगी विष सो अलक अहि छोने सी। लंक नवला की कुच भारत दुनौने लगी, होने लगी तनु की चटक चारु सोने सी। तिरछी चितौनि में बिनोदनि बितौने लगी, लगी मृदु बातन सुधारस निचोने सी।- दास। (खड़ी, गँवारों के मुँह की)।
बिहारी ने चलती ब्रजभाषा का ध्यान बहुत रखा है। उनकी भाषा सुन्दर है। पर पूर्वी या अवधी प्रयोग उनकी सतसई में भी हैं-
(1) किती न गोकुल कुलबधू काहि न केइ सिख दीन?
(2) नूतन विधि हेमंत ऋतु जगत जुराफा कीन।
(3) देखि परे यौं जानिबी दामिनी घन ऍंधियार।
(4) त्यों त्यों निपट उदार हू फगुआ देत बनै न (ब्रज रूप 'फाग' है।)
इसी प्रकार बिहारी का 'सोनकिरवा' शब्द भी नितान्त पूर्वी है। शायद ग्राम्यत्व प्रदर्शित करने के लिए बिहारी यह शब्द लाए हों। पर ग्राम पूरब में ही नहीं होते, पच्छिम में भी होते हैं। दास के भाषा लक्षण के अनुसार कवियों ने 'खुसबोयन' 'दराज' आदि द्वारा भाषा कविता को गँवारू सा बना दिया। ब्रजभाषा का कोई व्याकरण न होने से तथा अशिष्ट और अशिक्षित लोगों के कविता सवैया कह चलने से वाक्य रचना और भी अव्यवस्थित तथा भाषा और भी बिना ठीक ठिकाने की हो गई। कवियों का ध्यान भाषा के सौष्ठव और सफाई पर न रह गया। शब्दालंकार की धुन रही। इससे च्युत संस्कृति और ग्राम्यत्व दोष बहुत कुछ आ गया। भूषण कवि तक 'भूखन पियासन हैं नाहन को निंदते' भनने में कुछ भी न हिचके। 'अपि माषं मषं कुर्यात् छन्दोभंग न कारयेत्' का भी उचित से अधिक लाभ उठाया गया। 'सु' की भारती का तो कहना ही क्या है! इधर सौ वर्षों से हिन्दी गद्य में खड़ी बोली चल रही है पर उसकी भी कई बार वही दशा होते होते बची है। अभी बहुत दिन नहीं हुए बनारस के एक ज्योतिषी ने अपने गाँव में खूँटा गाड़कर उसे हिन्दी भाषा का केन्द्र ठहराया था और 'ने' के प्रयोग पर चकपकाकर 'सूतते हैं' की हवा बहानी चाही थी।
पर यह न समझना चाहिए कि भाषा की परवा करनेवाले कवि हुए ही नहीं। रसखान और घनानन्द ऐसे जीती जागती वाणी के कवियों को देखते कौन ऐसा कह सकता है? ब्रजभाषा के कवियों में जबान का अगर किसी ने दावा किया है तो घनानन्द 'ने'। यह दावा दुरुस्त भी है-
नेही महा ब्रजभाषा- प्रवीन औ सुंदरता के भेद को जाने।
भाषा प्रवीन सुछंद सदा रहै सो घन जू के कविता बखाने।
दूसरी प्राणप्रतिष्ठा
काव्यभाषा या ब्रजभाषा का दूसरा संस्करण राजा लक्ष्मणसिंह द्वारा हुआ जिसमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी कुछ योग दिया। पर जिस प्रकार इन महानुभावों से यह काम अनजाने में हुआ उसी प्रकार किसी ने इसके महत्व की ओर ध्यान भी नहीं दिया। राजा साहब ने बहुत पुराने पड़े हुए, व्यवहार से उठे हुए और आजकल के कानों को भद्दे लगनेवाले सड़े गले शब्दों को छाँटकर ब्रज की बोलचाल का निखरा हुआ माधुर्य दिखाया। उन्होंने ब्रजभाषा की कविता को फिर जीता जागता रूप दिया। उनका मेघदूत हाथ में लेकर जो-
''थक जायगी दामिनि तेरी तिया बड़ी बेर लौं हास विलास करे। टिक लीजियो रात में काहू अटा जहँ सोवत होयँ परेवा परे''- पढ़ेगा वह उनकी भाषा की सफाई और सजीवता पर मोहित होगा।
पण्डित श्रीधर जी पाठक विद्यमान हैं जिनकी वाणी में ब्रजभाषा की जीती जागती कला जो चाहे वह प्रत्यक्ष देख सकता है- थोड़ा उनका ऋतुसंहार का अनुवाद ऑंखों के सामने लाइए। ऐसी भाषा को देखते ब्रजभाषा को जो ऐतिहासिक या मरी हुई कहे उसे अपना अनाड़ीपन दूर करने के लिए दिल्ली भाड़ झोंकने न जाना होगा, मथुरा की एक परिक्रमा से ही काम चल जाएगा।

काशी, रामचन्द्र शुक्ल
रामनवमी 1979 (वि.)

रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 7
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