रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
7
शशांक
भाग
- 1
भूमिका
यह उपन्यास श्रीयुत राखालदास वंद्योपाध्याय महोदय के बँगला उपन्यास का
हिन्दी भाषान्तर है। राखाल बाबू का सम्बन्ध पुरात्तव विभाग से है। भारत के
प्राचीन इतिहास की पूरी जानकारी के साथ साथ दीर्घ कालपटल को भेद अतीत के
क्षेत्रा में क्रीड़ा करने वाली कल्पना भी आपको प्राप्त है। अपना स्वरूप
भूले हुए हमें बहुत दिन हो गए। अपनी प्रतिभा द्वारा हमारे सामने हिन्दुओं
के पूर्व जीवन के माधुर्य का चित्र रखकर आपने बड़ा भारी काम किया। सबसे बड़ी
बात तो यह हुई कि आपने यह स्पष्ट कर दिया कि प्राचीनकाल की घटनाओं को लेकर
उन पर नाटक या उपन्यास लिखने के अधिकारी कौन हैं। प्राचीनकाल में कैसे कैसे
नाम होते थे, कैसा वेश होता था, पद के अनुसार कैसे सम्बोधान होते थे,
राजकर्मचारियों की क्या क्या संज्ञाएँ होती थीं, राजसभाओं में किस प्रकार
की शिष्टता बनती जाती थी इन सब बातों का ध्यान रखकर इस उपन्यास की रचना हुई
है। यही इसका महत्तव है। मुसलमानी या फारसी तमीज के कायल इसमें यह देख सकते
हैं कि हमारी भी अलग शिष्टता थी, अलग सभ्यता थी, पर वह विदेशी प्रभाव से
लुप्त हो गई। वे राजसभाएँ न रह गईं। हिन्दू राजा भी मुसलमानी दरबारों की
नकल करने लगे; प्रणाम के स्थान पर सलाम होने लगा। हमारा पुराना शिष्टाचार
अन्तर्हित हो गया और हम समझने लगे कि हम में कभी शिष्टाचार था ही नहीं।
इस उपन्यास में जो चित्र दिखाया गया है वह गुप्तसाम्राज्य की घटती के दिनों
का है जब श्रीकंठ (थानेश्वर) के पुष्पभूति वंश का प्रभाव बढ़ रहा था।
प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्तवंश उन प्रतापी राजवंशों में है जिनके
एकछत्र राज्य के अन्तर्गत किसी समय सारा देश था। कामरूप से लेकर गान्धार और
वाधीक तक और हिमालय से लेकर मालवा, सौराष्ट्र, कलिंग और दक्षिणकोशल तक
पराक्रान्त गुप्त सम्राटों की विजय पताका फहराती थी। इस क्षत्रिय वंश के
मूल पुरुष का नाम गुप्त था। इन्हीं गुप्त के पुत्र घटोत्कच हुए जिनके
प्रतापी पुत्र प्रथम चन्द्रगुप्त लिच्छवी राजवंश की कन्या कुमारदेवी से
विवाह कर सन् 321 ई में मगध के सिंहासन पर बैठे और गुप्तवंश के प्रथम
सम्राट हुए। उनके पुत्र परम विजयी समुद्रगुप्त (सन् 350 ई ) ने अपने
साम्राज्य का विस्तार समुद्र से समुद्र तक बढ़ाया। प्रतिष्ठान (झूँसी) इनके
प्रधान गढ़ों में से था जहाँ अब तक इनके कीर्ति चिह्न पाए जाते हैं।
समुद्रकूप इन्हीं के नाम पर है। इलाहाबाद के किले के भीतर अशोक का जो
स्तम्भ है उसे मैं समझता हूँ कि इन्हीं ने कौशाम्बी से लाकर अपने
प्रतिष्ठानपुर के दुर्ग में खड़ा किया था। पीछे मोगलों के समय में झ्रूसी से
उठकर वह इलाहाबाद के किले में आया। इसी स्तम्भ पर हरिषेण कृत समुद्रगुप्त
की प्रशस्ति अत्यन्त सुन्दर श्लोकों में अंकित है। समुद्रगुप्त के पुत्र
द्वितीय चन्द्रगुप्त (विक्रमादित्य) हुए (सन् 401 से 413 ई ) जिन्हें अनेक
इतिहासज्ञ कथाओं में प्रसिद्ध विक्रमादित्य मानते हैं। चन्द्रगुप्त
विक्रमादित्य के पुत्र प्रथम कुमारगुप्त ने 415 से 455 ई तक राज्य किया।
कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त के समय में हूणों का आक्रमण हुआ और
गुप्तसाम्राज्य अस्त व्यस्त हुआ। स्कन्दगुप्त ने 455 से 467 ई तक राज्य
किया। जान पड़ता है कि हूणों के साथ युद्ध करने में ही इनके जीवन का अन्त
हुआ। इनकी उपाधि भी विक्रमादित्य थी।
स्कन्दगुप्त के पीछे, जैसी कि कुछ लोगों की धारणा है, गुप्तसाम्राज्य
एकबारगी नष्ट नहीं हो गया। ईसा की छठी और सातवीं शताब्दी तक गुप्तसाम्राज्य
के बने रहने के अनेक प्रमाण पाए जाते हैं। गुप्त संवत् 199 (518 ई ) के
परिव्राजक महाराज संक्षोभ के शिलालेख से1 यह स्पष्ट हो जाता है कि गुप्तों
की अधीनता दभाला तक, जिसके अन्तर्गत त्रिपुर विषय (जबलपुर के आसपास का
प्रदेश) था, मानी जाती थी। इसी प्रकार का संक्षोभ का एक और शिलालेख जो
नागौद (बघेलखंड) में मिला है मधयप्रदेश के पूर्व की ओर गुप्तों का
साम्राज्य सन् 528 ई. में सूचित करता है। श्रीकण्ठ (थानेश्वर) के बैस
क्षत्रिय वंश के अभ्युदय के समय में भी मालवा में एक गुप्त राजा का होना
पाया जाता है जिसके पुत्र कुमारगुप्त और माधवगुप्त थानेश्वर के कुमार
राज्यवर्ध्दन और हर्षवर्ध्दन के सहचर कहे गए हैं (हर्षचरित)। हर्षवर्ध्दन
के समय में अवश्य गुप्तसाम्राज्य का प्रताप मन्द पड़ गया था पर हर्ष के मरते
ही माधवगुप्त के पुत्र परम प्रतापी आदित्यसेन ने गुप्तसाम्राज्य को फिर से
प्रतिष्ठित करके अश्वमेधा यज्ञ किया और परमभट्टारक महाराजाधिराज की उपाधि
धारण की। गया के पास अफसड़ गाँव में जो उनका शिलालेख मिला है उसमें कामरूप
के राजा सुस्थित वर्म्मा को पराजित करनेवाले उनके दादा महासेनगुप्त के
सम्बन्धा में लिखा है कि उनकी विजयकीर्ति लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) नदी के
किनारे बराबर गाई जाती थी। इससे प्रकट है कि सन् 600 ई में भी, जब
प्रभाकरवर्ध्दन (हर्षवर्ध्दन के पिता) थानेश्वर में राज्य करते थे, गुप्तों
का अधिकार मालवा से लेकर ब्रह्मपुत्रनद के किनारे तक था।
यहाँ पर स्कन्दगुप्त के पीछे होनेवाले गुप्त सम्राटों का थोड़ा बहुत उल्लेख
आवश्यक है। स्कन्दगुप्त के पीछे उनके छोटे भाई (अनन्ता देवी से उत्पन्न)
पुरगुप्त
1 श्रीमत्प्रवर्ध्दमानविजयराज्ये संवत्सरशते नवनवत्युत्तारे
गुप्तनृपराज्यभुक्तौ ।
ने थोड़े दिनों तक राज्य किया। इनका विरुध भी विक्रमादित्य था। कुछ
इतिहासज्ञों का अनुमान है कि ये वही अयोधया के विक्रमादित्य हैं जो बौद्ध
आचार्य वसुबन्धु के बड़े भारी भक्त थे। इससे सूचित होता है कि गुप्तों का
साम्राज्य मौखरीवंश के अभ्युदय तक पश्चिम में अयोधया तक था। पुरगुप्त के
पुत्र नरसिंहगुप्त वालादित्य थे। जिन्होंने सन् 473 ई तक राज्य किया। ये वे
वालादित्य नहीं हैं जिन्होंने हुएन्सांग के अनुसार मिहिरगुल (मिहिरकुल) को
धवस्त किया। वे वालादित्य कुछ पीछे हुए हैं। नरसिंहगुप्त के पीछे उनके
पुत्र द्वितीय कुमारगुप्त (क्रमादित्य) ने तीन ही चार वर्ष राज्य किया।
उसके पीछे हमें सिक्कों में बुधागुप्त का नाम मिलता है जो सम्भवत:
कुमारगुप्त (प्रथम) के ही सबसे छोटे पुत्र थे। बुधागुप्त ने बीस वर्ष
तक-सन् 477 से 496 ई तक-राज्य किया। उस समय के प्राप्त शिलालेखों और
ताम्रपत्रो मे पाया जाता है कि बुधागुप्त के साम्राज्य के अन्तर्गत
पुंड्रवर्ध्दनभुक्ति (उत्तर-पूर्व बंगाल), काशी, अरिकिण विषय (सागर जिले
में एरन नामक स्थान) आदि प्रदेश थे।
हुएन्सांग के अनुसार बुधागुप्त के पुत्र तथागतगुप्त हुए जिनके पुत्र
वालादित्य के समय में हूणों का फिर प्रबल आक्रमण हुआ और उनके राजा
तुरमानशाह1 (सं तोरमाण) ने मधयप्रदेश पर अधिकार किया। पर तोरमाण का अधिकार
बहुत थोड़े दिनों तक रहा, क्योंकि सन् 510-11 ई में अरिकिण (एरन) के गोपराज
को हम गुप्तसम्राट की ओर से युद्ध में प्रवृत्ता पाते हैं। इसी प्रकार
दभाला के राजा संक्षोभ को भी हम सन् 518 और 528 ई में गुप्तसम्राट के
सामन्त के रूप में पाते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि त्रिपुरविषय वा
मधयप्रदेश पर उस समय हूणराज का अधिकार नहीं था। वह प्रदेश गुप्तों की ही
अधीनता में था। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि पालादित्य ने तोरमाण के पुत्र
मिहिरकुल को अच्छी तरह धवस्त किया। पीछे मन्दसोर के जनेन्द्र यशोधार्मन् ने
सन् 533 ई के पहले ही उसे उत्तर की ओर (काश्मीर में) भगा दिया। इस प्रकार
हूणों का उपद्रव सब दिन के लिए शान्त हुआ। संक्षोभ के दोनों लेखों से हम
मधयप्रदेश में सन् 528 ई तक गुप्तों का आधिपत्य पाते हैं। इसके उपरान्त जान
पड़ता है कि यशोधार्मन् प्रबल हुए और उन्होंने वालादित्य के पुत्र वज्र को
अधिकारच्युत किया। हुएन्सांग ने भी लिखा है कि मगध और पुंड्रवर्ध्दन में
वज्र के पीछे मधयप्रदेश के एक राजा का अधिकार हुआ। गुप्तों के सामन्त
दत्तावंशवालों का
1 हूण यद्यपि आरम्भ में चीन की पश्चिम सीमा पर बसनेवाली एक बर्बर तातारी
जाति थी पर पीछे जब वह वंक्षु नद (आक्सस नदी) के किनारे फ़ारस की सीमा पर आ
बसी तब उसने बहुत कुछ फ़ारसी सभ्यता ग्रहण की। सन् 450 के पहले से ही वे
पारसी नाम रखने लगे थे। हूणों को फ़ारसवाले हैताल कहते थे। हूणों पर विजय
प्राप्त करनेवाले फ़ारस के प्रसिद्ध बादशाह बहरामगोर के पौत्रा फीरोज़ को
हरानेवाले हूण बादशाह का नाम खुशनेवाज़ था। तुरमालशाह और मिहिरगुल भी फ़ारसी
नाम हैं।
2 विष्णुवर्ध्दन ने शिलालेख का संवत् जिसमें जनेन्द्र यशोधार्मन् की विजय
का वर्णन है।
अधिकार उस समय हम पुंड्रवर्ध्दन में नहीं पाते हैं। पर यह स्पष्ट है कि
यशोधार्मन् का अधिकार बहुत थोड़े दिनों तक रहा, क्योंकि सन् 533-34 ई (गुप्त
संवत् 214) में हम फिर पुण्ड्रवर्ध्दन (उत्तर पूर्व बंगाल) को किसी
''गुप्तपरमभट्टारक महाराजाधिराज पृथ्वीपति'' के एक सामन्त के अधिकार में
पातेहैं।
इस काल के पीछे हमें माधवगुप्त के पुत्र परम प्रतापी आदित्यसेन के पूर्वजों
के नाम मिलते हैं। आदित्यसेन का जो शिलालेख अफसड़ गाँव (गया जिले में) में
मिला है उसके अनुसार उनके पूर्वजों का क्रम इस प्रकार है
महाराज कृष्णगुप्त, उनके पुत्र श्रीहर्षगुप्त, उनके पुत्र जीवितगुप्त
(प्रथम) और उनके पुत्र कुमारगुप्त (तृतीय) हुए जिन्होंने मौखरिराज
ईशानवर्म्मा को पराजित किया। कुमारगुप्त के पुत्र श्रीदामोदरगुप्त भी मौखरी
राजाओं से लड़ते रहे। दामोदरगुप्त के पुत्र महासेनगुप्त ने कामरूप के राजा
सुस्थितवर्म्मा को पराजित किया। महासेनगुप्त के पुत्र माधवगुप्त हुए जो
श्री हर्षदेव के सहचर थे। इन्हीं माधवसेन के पुत्र आदित्यसेन हुए।
उपर्युक्त राजाओं में कुमारगुप्त (तृतीय) के काल का पता ईशानवर्म्मा के
हड़हावाले शिलालेख से लग जाता है जिसके अनुसार ईशानवर्म्मा सन् 554 ई में
राज्य करते थे। माधवगुप्त के पूर्वजों के सम्बन्धा में यह ठीक ठीक नहीं
निश्चित होता कि वे मगध में राज्य करते थे या मालवा में। बाण के हर्षचरित
में मालवा के दो राजकुमारों, कुमारगुप्त और माधवगुप्त का, थानेश्वर के
राज्यवर्ध्दन और हर्षवर्ध्दन का सहचर होना लिखा है-
मालवराजपुत्रौ भ्रातरौ भुजाविव मे शरीरादव्यतिरिक्तौ कुमारगुप्तमाधवगुप्त-
नामानावस्माभिर्भवतोरनुचरत्वार्थमिमौ निर्दिष्टौ। (हर्षचरित, चतुर्थ
उच्छ्वास)
माधवगुप्त हर्षवर्ध्दन के अत्यन्त प्रिय सहचर थे। अपने बहनोई कान्यकुब्ज के
राजा ग्रहवर्म्मा के मालवराज द्वारा और अपने बड़े भाई राज्यवर्ध्दन के
गौड़ाधिपति द्वारा मारे जाने पर जब हर्षवर्ध्दन अपनी बहिन राज्यश्री को
ढूँढते ढूँढते 'विन्धयाटवी' में बौद्ध आचार्य दिवाकरमित्र के आश्रम पर गए
थे तब वे अपना दाहिना हाथ माधवगुप्त के कन्धो पर रखे हुए थे-
अवलंब्य दक्षिणेन हस्तेन च माधवगुप्तमंसे (अष्टम उच्छ्वास)A माधवगुप्त के
हर्ष के सहचर होने का उल्लेख अफसड़ के लेख में भी इस प्रकार
है-श्रीहर्षदेवनिजसङ्मवाछया च।
सारांश यह कि हर्षचरित के अनुसार माधवगुप्त के पिता महासेनगुप्त मालवा में
राज्य करते थे। बाणभट्ट हर्षवर्ध्दन के सभा पण्डित थे अत% उनकी बात तो ठीक
माननी ही पड़ती है। हो सकता है कि महासेनगुप्त पहले स्वयं मालवा में ही रहते
रहे हों और मगध में उनका कोई पुत्र या सामन्त रहता हो। यह भी सम्भव है कि
जिस समय बुधागुप्त, भानुगुप्त (वालादित्य) आदि मगध में राज्य करते थे उस
समय गुप्तवंश की दूसरी शाखा, माधवगुप्त के पूर्वज, मालवा में राज्य करते
रहे हों। पीछे मौखरियों के यहाँ राज्यवर्ध्दन की बहिन राज्यश्री का
सम्बन्धा हो जाने पर महासेनगुप्त मगध में अपना अधिकार रक्षित रखने के लिए
पाटलिपुत्र में रहने लगे हों और उन्होंने मालवा को देवगुप्त के अधिकार में
छोड़ दिया हो। पर कुछ इतिहासवेत्ता माधवगुप्त के पूर्वज कृष्णगुप्त को
वज्रगुप्त का भाई मान कर सम्राटों की शृंखला जोड़ कर पूरी कर देते हैं।
हर्षचरित में राज्यवर्ध्दन के बहनोई ग्रहवर्म्मा को मार कर कान्यकुब्ज पर
अधिकार करनेवाले और राज्यश्री को कैद करनेवाले मालवराज का नाम स्पष्ट नहीं
मिलता। उसमें इस प्रकार इस घटना का उल्लेख है-
देवो ग्रहवर्म्मा दुरात्मना मालवराजेन जीवलोकमात्मन: सुकृतेन सह त्याजित:।
भर्तृदारिकापि राज्यश्री: कालायसनिगड़युगलचुम्बितचरणा चौराङ्गनेव संयता
कान्यकुब्जे कारायां निक्षिप्ता।
दूसरे स्थल पर भंडि ने कान्यकुब्ज पर अधिकार करनेवाले को 'गुप्त' कहा
है-''देव! देवभूयं गते देवे राज्यवर्ध्दने गुप्तनाम्नाचगृहीते कुशस्थले।''
हर्षवर्ध्दन के एक ताम्रपत्र में राज्यवर्ध्दन का देवगुप्त नामक राजा को
परास्त करना लिखा है। इससे यह अनुमान ठीक प्रतीत होता है कि ग्रहवर्म्मा को
मारनेवाले राजा का नाम देवगुप्त था। यह घटना महासेनगुप्त के पाटलिपुत्र चले
आने के पीछे हुई होगी, क्योंकि जिस समय वे मालवा में थे उस समय उनके दो
कुमार कुमारगुप्त और माधवगुप्त राज्यवर्ध्दन और हर्षवर्ध्दन के सहचर थे।
श्रीयुत हेमचन्द्र रायचौधारी, एम ए , ने अपने लेख में (J.A.S.B. New
Series, Vol. XVI. 1920, No.7) देवगुप्त को महासेनगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र
मान लिया है। इस प्रकार उन्होंने महासेनगुप्त के तीन पुत्र माने
हैं-देवगुप्त, कुमारगुप्त और माधवगुप्त। इस मत से कुछ और इतिहासज्ञ भी सहमत
हैं।
अब इस उपन्यास के नायक शशांक की ओर आइए। हर्षचरित में राज्यवर्ध्दन को धोखे
से मारनेवाले गौड़ के राजा का इस प्रकार उल्लेख है-
तस्माच्च हेलानिर्जितमालवानीकमपि गौड़ाधिपेन मिथ्योपचारोपचितविश्वासं
मुक्तशस्त्रामेकाकिनं विश्रब्धां स्वभवन एव भ्रातरं व्यापादितमश्रौषीत्।
इसमें गौड़ाधिप के नाम का कोई उल्लेख नहीं है। फिर यह शशांक नाम मिला कहाँ?
हर्षचरित की एक टीका शंकर नाम के एक पंडित की है जो ईसा की बारहवीं शताब्दी
से पहले हुए हैं। उन्होंने अपनी टीका में गौड़ाधिप का नाम शशांक लिखा है। इस
नाम का समर्थन हुएन्सांग के विवरण से भी हो गया है। उसने लिखा है कि
राज्यवर्ध्दन को शे-शंग-किय ने मारा था। शशांक की राजधानी का नाम
कर्णसुवर्ण भी हुएन्सांग के कि-ए-लो-न-सु-फ-ल-न से निकाला गया है।
मुर्शिदाबाद जिले के राँगामाटी नामक स्थान में जो भीटे हैं उन्हीं को
विद्वानों ने कर्णसुवर्ण का ख़डहर माना है।
यह सब तो ठीक, पर शशांक गुप्तवंश के थे यह कैसे जाना गया? बूलर साहब को
हर्षचरित की एक पुरानी पोथी मिली थी जिसमें गौड़ाधिप का नाम 'नरेन्द्रगुप्त'
लिखा था। प्राचीन कर्णसुवर्ण (मुर्शिदाबाद जिले में) के ख़डहरों में
रविगुप्त, नरेन्द्रादित्य, प्रकटादित्य, विष्णुगुप्त आदि कई गुप्तवंशी
राजाओं की जो मुहरें मिली हैं उनमें नरेन्द्रादित्य के सिक्के
नरेन्द्रगुप्त या शशांक के ही अनुमान किए गए हैं। इनमें एक ओर तो धवजा पर
नन्दी बना रहता है और राजा के बाएँ हाथ के नीचे दो अक्षर बने होते हैं और
दूसरी ओर 'नरेन्द्रादित्य' लिखा रहता है। पर इस विषय में धयान देने की बात
यह है कि ऐसे सिक्के भी मिले हैं जिनमें 'श्री शशांक:' लिखा हुआ है। इन पर
एक ओर तो बैल पर बैठे शिव की मूर्ति है; बैल के नीचे 'जय' और किनारे पर
'श्री शशांक ' लिखा मिलता है। दूसरी ओर लक्ष्मी कीर् मूर्ति है जिसके एक
हाथ में कमल है। लक्ष्मी के दोनों ओर दो हाथी अभिषेक करते हुए बने हैं।
बाएँ किनारे पर 'श्रीशशांक' लिखा है। रोहतासगढ़ के पुराने किले में मुहर का
एक साँचा मिला है जिसमें दो पंक्तियाँ हैं-एक में 'श्रीमहासामंत' और दूसरी
में 'शशांकदेवस्य' लिखा है। रोहतासगढ़ में यशोधावलदेव का भी लेख है जो इस
उपन्यास में महासेनगुप्त और शशांक के सामन्त महानायक माने गए हैं। शशांक
गुप्तवंशी होने का उल्लेख प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विंसेंट स्मिथ ने भी किया है-
The king of Central Bengal, who was probably a scion of the Gupta
dynasty, was a worshiper of Shiva.
इस प्रकार ऐतिहासिक अनुमान तो शशांक को गुप्तवंश का मान कर ही रह जाता है।
पर इस उपन्यास के विज्ञ और प्रयत्नतत्तवदर्शी लेखक शशांक को महासेनगुप्त का
ज्येष्ठ पुत्र और माधवगुप्त का बड़ा भाई मानकर चले हैं। यदि और कोई उपन्यास
लेखक ऐसा मान कर चलता तो उसे हम कोरी कल्पना कहते-जिसे उपन्यास या नाटक
लिखनेवाले प्राय: अपने अधिकार के भीतर समझते हैं-पर राखाल बाबू ऐसे
पुरातत्तव व्यवसायी के इस मानने को हमें अनुमान कोटि के भीतर ही रखना पड़ता
है। भारत के इतिहास में वह काल ही ऐसा है जिसमें अनुमान की बहुत जगह है।
देवगुप्त किस प्रकार महासेनगुप्त के पुत्र अनुमित हुए हैं इसका उल्लेख पहले
हो चुका है।
सन् 606 ई में राज्यवर्ध्दन मारे गए और हर्षवर्ध्दन थानेश्वर के राजसिंहासन
पर बैठे। इस काल में हम शशांक को गौड़ या कर्णसुवर्ण का अधीश्वर पाते हैं।
अपने बड़े भाई के वधा का बदला लेने के निमित्ता हर्ष के चढ़ाई करने का उल्लेख
भर बाण ने अपने हर्षचरित में किया है। यहीं पर उनकी आख्यायिका समाप्त हो
जाती है। इससे निश्चय है कि मगध और गौड़ पर अधिकार तो उन्होंने किया पर
शशांक को वे नहीं पा सके। गंजाम के पास सन् 619-20 का एक दानपत्रा मिला है
जो शशांक के एक सामन्त सैन्यभीति का है। इससे जान पड़ता है कि माधवगुप्त के
मगध में प्रतिष्ठित हो जाने पर वे दक्षिण की ओर चले गए और कलिंग, दक्षिण
कोशल आदि पर राज्य करते रहे। सन् 620 में हर्षवर्ध्दन परम प्रतापी
चालुक्यराज द्वितीय पुलकेशी के हाथ से गहरी हार खाकर लौटे थे। सन् 620 के
कितने पहिले शशांक दक्षिण में गए इसका ठीक ठीक निश्चय नहीं हो सकता। सन्
630 ई में चीनी यात्री हुएन्सांग भारतवर्ष में आया और 14 वर्ष रहा। उस समय
शशांक कर्णसुवर्ण में नहीं थे। शशांक कब तक जीवित रहे इसके जानने का भी कोई
साधान नहीं है। हर्षवर्ध्दन से अवस्था में शशांक बहुत बड़े थे। हर्षवर्ध्दन
की मृत्यु सन् 647 या 648 में हुई। इससे पहले ही शशांक की मृत्यु हो गई
होगी क्योंकि हर्षवर्ध्दन ने अनेक देशों को जय करते हुए सन् 643 में गंजाम
पर जो चढ़ाई की थी उसके अन्तर्गत शशांक का कोई उल्लेख नहीं है। यदि अपने परम
शत्रु शशांक को वे वहाँ पाते तो इसका उल्लेख बड़े गर्व के साथ होता। शशांक
मारे नहीं गए और बहुत दिनों तक राज्य करते रहे इसे सब इतिहासज्ञों ने माना
है। विंसेंट स्मिथ अपने इतिहास में लिखते हैं-
The details of the campaign against Sasanka have not becen recorded, and
it seems clear that he escaped with little loss, He is known to have
been still in power as late as the year 619 but his kingdom probably
became subject to Harsha at a later date.
इतिहास में शशांक कट्टर शैव, घोर बौद्ध विद्वेषी और विश्वासघाती प्रसिद्ध
है। पर यइ इतिहास है क्या? हर्ष के आश्रित बाणभट्ट की आख्यायिका और
सीधोसादे पर कट्टर बौद्धयात्री (हुएन्सांग) का यात्रा विवरण। इस बात का
धयान और उस समय की स्थिति पर दृष्टि रखते हुए यही कहना पड़ता है कि इस
उपन्यास में शशांक जिस रूप में दिखाए गए हैं वह असंगत नहीं है। उपन्यासकार
का काम ही यही है कि वह इतिहास के द्वारा छोड़ी हुई बातों का अपनी कल्पना
द्वारा आरोप करके सजीव चित्र खड़ा करे। बौद्ध धर्म वैराग्य प्रधान धर्म था।
देश भर में बड़े बड़े संघ स्थापित थे। बहुत भारी भारी मठ और विहार थे जिनमें
बहुत सी भूसम्पत्ति लगी हुई थी और उपासक गृहस्थों की भक्ति से धन की कमी
नहीं रहती थी। इन विशाल मठों और विहारों में सैकड़ों, सह भिक्षु बिना काम
धन्धो के भोजन और आनन्द करते थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि इनमें सच्चे
विरागी तो बहुत थोड़े ही रहते होंगे, शेष आज कल के संडे मुसंडे साधुओं के
मेल के होते होंगे। महास्थविर आदि अपने सुदृढ़ विहारों में उसी प्रकार धन जन
से प्रबल और सम्पन्न होकर रहते होंगे जिस प्रकार हनुमानगढ़ी के महन्त लोग।
ये हिन्दू राजाओं के विरुद्ध षडयन्त्र में अवश्य योग देते रहे होंगे।
हिन्दुओं में उस समय संन्यासियों का ऐसा दल नहीं था, इस प्रकार की संघ
व्यवस्था नहीं थी। यही देख शंकराचार्य ने संन्यासियों के संघ का सूत्रापात
किया जिसके पल्लवित रूप आजकल के बड़े बड़े अखाड़े और संगते हमारे सामने हैं।
एक बात और भी कही जा सकती है। बौद्ध धर्म का प्रचार भारतवर्ष के बाहर शक,
तातार, चीन, भोट, सिंहल आदि देशों में पूरा पूरा था। कनिष्क आदि शक राजाओं
से बौद्ध धार्म को बड़ा भारी सहारा मिला था। इससे जब विदेशियों का आक्रमण इस
देश पर होता तब ये बौद्ध भिक्षु उसे उस भाव से नहीं देखते थे जिस भाव से
भारतीय जनता देखती थी। अपने मत की वृध्दि के सामने अपने देश का उतना धयान
उन्हें नहीं रहता था। इसी कारण भारतीय प्रजा का विश्वास उन पर से क्रमश:
उठने लगा। बौद्ध धर्म के इस देश से एक बार उच्छिन्न होने का यह राजनीतिक
कारण भी प्रतीत होता है। जैन मत के समान बौद्ध मत हिन्दू धार्म का द्वेषी
नहीं है, उसमे हिन्दुओं की निन्दा से भरे हुए पुराण आदि नहीं हैं, बल्कि
स्थान स्थान पर प्राचीन ऋषियों और ब्राह्मणों की प्रशंसा है। पर जैन मत
भारत में रह गया और बौद्ध धर्म अपना संस्कार मात्रा छोड़ सब दिन के लिए विदा
हो गया।
मैंने इस उपन्यास के अन्तिम भाग में कुछ परिवर्तन किया है। मूल लेखक ने
हर्षवर्ध्दन की चढ़ाई में शशांक की मृत्यु दिखाकर इस उपन्यास को दु:खान्त
बनाया है। पर जैसा कि सैन्यभीति के शिलालेख से स्पष्ट है शशांक मारे नहीं
गए, वे हर्ष की चढ़ाई के बहुत दिनों पीछे तक राज्य करते रहे। अत: मैंने
शशांक को गुप्तवंश के गौरवरक्षक के रूप में दक्षिण में पहुँचा कर उनके
नि:स्वार्थ रूप का दिग्दर्शन कराया है। मूल पुस्तक में करुणरस की पुष्टि के
लिए यशोधावल की कन्या लतिका का शशांक पर प्रेम दिखाकर शशांक के जीवन के साथ
ही उस बालू के मैदान में उसके जीवन का भी अन्त कर दिया गया है। कथा का
प्रवाह फेरने के लिए मुझे इस उपन्यास में दो और व्यक्ति लाने पड़े
हैं-सैन्यभीति और उसकी बहिन मालती। लतिका का प्रेम सैन्यभीति पर दिखा कर
मैंने उसके प्रेम को सफल किया है। शशांक के नि:स्वार्थ जीवन के अनुरूप
मैंने मालती का अद्भुत और अलौकिक प्रेम प्रदर्शित किया है। कलिंग और दक्षिण
कोशल में बौद्ध तान्त्रिकों के अत्याचार का अनुमान मैंने उस समय की स्थिति
के अनुसार किया है। बंग और कलिंग में बौद्ध मत की महायान शाखा ही प्रबल थी।
शशांक के मुख से माधवगुप्त के पुत्र आदित्यसेन को जो आशीर्वाद दिलाया गया
है वह भी आदित्यसेन के भावी प्रताप का द्योतक है।
काशी, रामचन्द्र शुक्ल
12 फरवरी, 1922
पहला खंड
उदय
पहला परिच्छेद
सोन के संगम पर
हजार वर्ष से ऊपर हुए जब कि पाटलिपुत्र नगर के नीचे सोन की धारा गंगा से
मिलती थी। सोन के संगम पर ही एक बहुत बड़ा और पुराना पत्थर का प्रसाद था।
उसका अब कोई चिह्न तक नहीं है। सोन की धारा जिस समय हटी उसी समय उसका खडहर
गंगा के गर्भ में विलीन हो गया।
वर्षा का आरम्भ था; सन्धया हो चली थी। प्रसाद की एक खिड़की पर एक बालक और एक
वृद्ध खड़े थे। बालक का रंग गोरा था, लम्बे लम्बे रक्ताभ केश उसकी पीठ पर
लहराते थे। सन्धया का शीतल समीर रह-रह कर केशपाश के बीच क्रीड़ा करता था।
पास में जो बुङ्ढा खड़ा था उसे देखते ही यह प्रकट हो जाता था कि वह कोई
योध्दा है। उसके लम्बे लम्बे सफेद बालों के ऊपर एक नीला चीर बँधा था। उसके
लम्बे चौड़े गठीले शरीर के ऊपर एक मैली धोती छोड़ और कोई वस्त्र नहीं था।
बुङ्ढा हाथ में बरछा लिए चुपचाप लड़के के पास खड़ा था। पाटलिपुत्र के नीचे
सोन की मटमैली धारा गंगा में गिरकर ऊँची ऊँची तरंगें उठाती थी। वर्षा के
कीचड़ मिले जल के कारण गंगा की मटमैली धारा बड़े वेग से समुद्र की ओर बह रही
थी। बालक धयान लगाए यही देख रहा था। पश्चिम को जानेवाली नावें धीरे धीरे
किनारा छोड़कर आगे बढ़ रही थीं। सोन के दोनों तटों पर बहुतसी नावें इकट्ठी
थीं। उस घोर प्रचंड जलधारा में नाव छोड़ने का साहस माझियों को नहीं होता था।
वृद्ध सैनिक खड़ा खड़ा यही देख रहा था। इतने में बालक बोल उठा ''दादा! ये लोग
आज पार न होंगे क्या?'' वृद्ध ने उत्तर दिया ''नहीं, भैया! वे अंधेरे के डर
से नावें तीर पर लगा रहे हैं''। बालक कुछ उदास हो गया; वह खिड़की से उठकर
कमरे में गया। वृद्ध भी धीरे धीरे उसके पीछे हो लिया।
अब चारों ओर अंधेरा फैलने लगा; सोन संगम पर धुधलापन छा गया। तीर पर जो
नावें बँधी थीं उनपर जलते हुए दीपक दूर से जुगनुओं की पंक्ति के समान दिखाई
पड़ते थे। कमरे के भीतर चाँदी के एक बड़े दीवार पर रखा हुआ बड़ा दीपक सुगन्धा
और प्रकाश फैला रहा था। कमरे की सजावट अनोखी थी; संगमरमर की बर्फ सी सफेद
दीवारों पर अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र टँगे थे। दीपक के दोनों ओर
हाथीदाँत जड़े दो पलंग थे। एक पलंग पर सोने का एक दण्ड रखा था। दोनों पलंगों
के बीच सफेद फ़र्श थी। बालक जाकर पलंग पर बैठ गया; वृद्ध भी एक किनारे बैठा।
कुछ काल तक तो बालक चुप रहा, फिर बालस्वभाव की चपलता से उठ खड़ा हुआ और
सुवर्णदण्ड को उलटने पलटने लगा। वृद्ध घबराकर उसके पास आया और कहने लगा
''भैया, इसे मत उठाना, महाराज सुनेंगे तो बिगड़ेंगे''। बालक ने हँसते हँसते
कहा ''दादा, अब तो मैं सहज में समुद्रगुप्त का धवज उठा सकता हूँ, अब वह
मेरे हाथ से गिरेगा नहीं''। बालक ने क्रीड़ावश पाँच हाथ लम्बे उस भारी
हेमदण्ड को उठा लिया। वृद्ध ने हँसते हँसते कहा ''भैया''! वह दिन आएगा जब
तुम्हें घोड़े की पीठ पर गरुड़धवज को लेकर युद्ध में जाना होगा''। बुङ्ढे की
बात बालक के कानों तक न पहुँची, वह उस समय बड़े धयान से सुवर्णदण्ड के ऊपर
अनेक प्रकार के बेलबूटों के बीच कुछ अक्षर लिखे थे बालक उन्हें पढ़ने की
चेष्टा कर रहा था। दण्ड के शीर्ष पर एक सुन्दर गरुड़, बैठा था जिसकी परछाईं
नाना अस्त्रा शस्त्रो के बीच संगमरमर की दीवार पर पड़कर विलक्षण विलक्षण
आकार धारण करती थी। बालक ने वृद्ध से कहा ''दादा! मुझे पढ़ना आता है; यह
देखो इस दण्ड पर कई एक नाम लिखे हैं। यह सब क्या आर्य समुद्रगुप्त का लिखा
है?'' वृद्ध ने उत्तर दिया ''गरुड़धवज पर कुछ लिखा है। यह तो मैंने कभी नहीं
सुना''।
बालक कुछ कहना ही चाहता था इतने में एक बालिका झपटी हुई आई और उसके गले से
लग कर हाँफती हाँफती बोली ''कुमार! माधव मुझसे कहते है कि तुम्हारे साथ
ब्याह करूँगा। मैं उसके पास से भागी आ रही हूँ, वे मुझे पकड़ने आ रहे हैं''।
इतना कह कर वह बालक की गोद में छिपने का यत्न करने लगी। बालक और वृद्ध
दोनों एक साथ हँस पड़े। उनकी हँसी की गूँज पुराने प्रासाद के एक कक्ष से
दूसरे कक्ष तक फैल गई। इतने में एक और बालक दौड़ता हुआ उस कमरे की ओर आता
दिखाई दिया, पर अट्टहास सुनकर वह द्वार ही पर ठिठक रहा। बालिका ने जिसे
'कुमार' कहकर सम्बोधान किया था उसे देखते ही आनेवाले बालक का मुँह उतर गया।
पहले बालक ने इस बात को देखा और वह फिर ठठाकर हँस पड़ा। दूसरा बालक और भी
डरकर द्वार की ओर हट गया। बालिका अब तक अपने रक्षक की गोद में मुँह छिपाए
थी। दूसरा बालक काला, दुबला पतला और नाटा था। देखने में वह पाँच बरस से
अधिक का नहीं जान पड़ता था, पर था दस बरस से ऊपर का। बालिका अत्यन्त सुन्दर
थी। उसका वयस् आठ वर्ष से अधिक नहीं था। उसका रंग कुन्दन सा और अंग गठीले
थे। छोटे से मस्तक का बहुत सा भाग काले घुँघराले बालों से ढँका था पहले
बालक ने दूसरे बालक से कहा ''माधव! तू चित्रा से ब्याह करने को कहता था?
चित्रा का तो बहुत पहले से स्वयंवरा हो चुकी है''। दूसरा बालक बोला
''चित्रा मुझे काला कहकर मुझसे घिन करती है। क्या मैं राजा का पुत्र नहीं
हूँ? बुङ्ढे सैनिक ने हँस कर कहा ''माधव! तुम क्या जिस किसी को सुन्दर
देखोगे उसी से ब्याह करने को तैयार हो जाओगे?'' जेठा भाई हँस पड़ा, बालक
मर्माहत होकर धीरे धीरे वहाँ से चला गया।
ईसा की छठीं शताब्दी के शेष भाग में गुप्तवंशी महासेनगुप्त मगध में राज्य
करते थे। उस समय गुप्तसाम्राज्य का प्रताप अस्त हो चुका था, समुद्रगुप्त के
वंशधार सम्राट की उपाधि किसी प्रकार बनाए रखकर मगध और बंगलादेश पर शासन
करते थे। गुप्तसाम्राज्य का बहुत सा अंश औरों के हाथ में जा चुका था।
आर्यर्वत्ता में मौखरीवंश के राजाओं का एकाधिपत्य स्थापित हो गया था।
ब्रह्मर्वत्ता और पंचनद स्थाण्वीश्वर का वैसक्षत्रिय राजवंश धीरे धीरे अपना
अधिकार बढ़ा रहा था। कामरूप देश तो बहुत पहले से स्वाधीन हो चुका था। बंग और
समतट प्रदेश कभी कभी अपने को साम्राज्य के अधीन मान लेते थे, पर सुयोग पाकर
राज कर भेजना बन्द कर देते थे। पिछले गुप्तसम्राट अपने वंश की प्राचीन
राजधानी पाटलिपुत्र में ही निवास करते थे। भारतवर्ष की वह प्राचीन राजधानी
धवंसोन्मुख हो रही थी, उसकी समृध्दि के दिन पूरे हो रहे थे। धीरे धीरे
कान्यकुब्ज का गौरव रवि उदित हो रहा था। आगे चलकर फिर कभी मगध की राजधानी
भारतवर्ष की राजधानी न हुई।
पाटलिपुत्र के पुराने खडहर में बैठकर पिछले गुप्तसम्राट केवल साम्राज्य का
स्वाँग करते थे पर आसपास के प्रबल राजाओं से उन्हें सदा सशंक रहना पड़ता था।
कुमारगुप्त और दामोदरगुप्त बड़ी बड़ी कठिनाइयों से मौखरी राजाओं के हाथ से
अपनी रक्षा कर सके थे। थोड़े ही दिनों में मौखरी राज्य नष्ट करके और पश्चिम
प्रान्त में हूणों को परास्त करके महासेनगुप्त के भांजे प्रभाकरवर्ध्दन
उत्तारापथ में सबसे अधिक प्रतापशाली हो गए थे। गुप्तवंश में सम्राट की पदवी
अभी तक चली आती थी। पाटलिपुत्र में महासेनगुप्त को अपने भांजे का सदा डर
बना रहता था। वे यह जानते थे कि प्रभाकरवर्ध्दन के पीछे उत्तारापथ से
गुप्तवंश का रहा सहा अधिकार भी जाता रहेगा।
महासेनगुप्त के दो पुत्र थे। पुस्तक के आरम्भ में जो बालक सोन की धारा की
ओर धयान लगाए तरंगों की क्रीड़ा देख रहा था वह महासेनगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र
गुप्तसाम्राज्य का उत्ताराधिकारी शशांक था। दूसरा बालक उसका छोटा भाई था।
माधवगुप्त शशांक की विमाता से उत्पन्न था और अपने बूढ़े पिता का बहुत ही
दुलारा तथा अत्यन्त उग्र और निष्ठुर स्वभाव का था। शशांक धीर, बुध्दिमान्,
उदार और बलिष्ठ था। युवराज बाल्यकाल से ही सैनिकों का प्रियपात्रा था।
बालिका चित्रा मंडला के दुर्गपति मृत तक्षदत्ता की कन्या और शशांक के सखा
नरसिंहदत्ता की भगिनी थी। तक्षदत्ता के मरने पर जब बर्बरों ने मंडला दुर्ग
पर अधिकार कर लिया तब उनकी विधावा पत्नी अपने पुत्र और कन्या को लेकर
पाटलिपुत्र चली आईं। नरसिंहदत्ता का पैतृक दुर्ग सम्राट ने अपने दूसरे
सेनापति को भेजकर किसी प्रकार फिर अपने अधिकार में किया। उस समय मण्डला,
गौड़, मगध और वंग में गुप्त साम्राज्य के दुर्जय दुर्ग थे।
वृद्ध सैनिक और कुमार शशांक अस्त्रागार में बैठे बातचीत कर रहे थे इतने में
पास के घर में बहुत से मनुष्यों के पैरों की आहट सुनाई दी। सैनिक चौंक पड़ा
और बरछा हाथ में लेकर द्वार पर जा खड़ा हुआ। कुमार भी उठ खड़ा हुआ। सबके आगे
दीपक के प्रकाश में श्वेत वस्त्र धारण किए बूढ़े भट्ट (भाँट) की मूर्ति
दिखाई पड़ी, उसके पीछे राजभवन के बहुत से परिचारक और परिचारिकाएँ थीं। कुमार
को देख वृद्ध भट्ट ने जयध्वनि की । देखते देखते सब के सब उस घर में आ
पहुँचे। बात यह थी कि दोपहर से ही कुमार अस्त्रागार में आ बैठा था, इससे
दोपहर के पीछे किसी ने उसे नहीं देखा। चारों ओर खोज होने लगी। जब माधवगुप्त
और चित्रा से पता मिला कि सन्धया समय कुमार और कोल सेनानायक लल्ल
अस्त्रागार में थे तब लोग इधर आए। सम्राट और पट्टमहादेवी कुमार को न देखकर
अधीर हो रही थीं। महादेवी मन ही मन सोचती थीं कि चंचल बालक कहीं बढ़े हुए
सोननदी की धारा में न जा पड़ा हो। भट्ट कुमार को गोद में उठाकर अस्त्रागार
के बाहर ले चला। बालक किसी तरह नहीं जाता था। वह बूढ़े भट्ट से हाथापाई करने
लगा और कहने लगा ''मैं लल्ल से आर्यसमुद्रगुप्त का हाल सुनता था, मैं इस
समय न जाऊँगा''। इस पर लल्ल भी समझाने बुझाने लगा। पर कुछ फल न हुआ। अन्त
में भट्ट ने वचन दिया कि मैं कल आर्यसमुद्रगुप्त की कथा गाकर सुनाऊँगा।
कुमार शान्त हुआ और परिचारक उसे लेकर चले। बूढ़ा लल्ल भी उनके पीछे पीछे हो
लिया।
जो वृद्ध सन्धया समय कुमार के पास खड़ा था वह मगध सेना का एक नायक था। वह
बर्बर जातीय कोलसेना का अधयक्ष था और आप भी कोल जाति का था। उसका नाम था
लल्ल। लल्ल ने बहुत से युध्दों में साम्राज्य की मर्य्यादा रखी थी। बुढ़ापे
में लड़का पाकर महासेन गुप्त ने लल्ल को उसका रक्षक नियुक्त किया था। वही
उसका लालन पालन करता था। शशांक लल्ल से बहुत हिल गया था और उसे 'दादा' कहा
करता था।
दूसरा परिच्छेद
पुरानी कथा
कड़कड़ाती धूप से धरती तप रही थी। राजप्रासाद के नीचे की अधेरी कोठरी में
वृद्ध यदुभट्ट भूमि पर एक बिस्तर डाल खा पीकर विश्राम कर रहा था। वह पड़ापड़ा
गुप्त वंश के अभ्युदय की कथा कह रहा था। उसका गम्भीर कण्ठस्वर उस सूनी
कोठरी के भीतर गूँज रहा था। सम्राटों की दशा के साथ प्रासाद की दशा भी पलट
गई थी। बहुत पहले पाटलिपुत्र के लिच्छवि राजाओं ने गंगा और सोन के संगम पर
एक छोटा सा उद्यान बनवाया था। जब गुप्तराजवंश का अधिकार हुआ तब प्रथम
चन्द्रगुप्त नगर के बीच का राजप्रासाद छोड़ बाहर की ओर उद्यान में आकर रहने
लगे। प्रासाद का यह भाग उसी समय बना था। भारी भारी पत्थरों की जोड़ाई से बनी
हुई ये छोटी कोठरियाँ बहुत दिनों तक यों ही पड़ी रहीं, उनमें कोई आता जाता
नहीं था। मगध राज्य जब सारे भारतवर्ष का केन्द्रस्थल हुआ तब समुद्रगुप्त और
द्वितीय चन्द्रगुप्त के समय में सोन के किनारे अपरिमित धान लगाकर एक परम
विशाल और अद्भुत राजप्रासाद बनवाया गया। प्रथम कुमारगुप्त ने उस बृहत्
प्रासाद को छोड़ अपनी छोटी रानी के मनोरंजन के लिए गंगातट पर श्वेत संगमरमर
का एक नवीन रम्य भवन उठवाया। गिरती दशा में गुप्तवंश के सम्राट कुमारगुप्त
के बनवाए भवन में ही रहने लगे थे। प्रासाद के शेष भाग में कर्मचारी लोग
रहते थे। लगभग कोस भर के घेरे में फैले हुए प्रासाद, उद्यान और ऑंगन के
भिन्न भिन्न भाग भिन्न भिन्न नामों से परिचित थे। जिस घर में यदुभट्ट रहता
था उसे लोग 'चन्द्रगुप्त का कोट' कहते थे। इसी प्रकार 'धा्रुवस्वामिनी का
उद्यान', 'समुद्रगुप्त का प्रासाद', 'गोविन्दगुप्त का रंगभवन' इत्यादि
नामों से प्रासाद के भिन्न-भिन्न प्रान्त नगरवासियों के बीच प्रसिद्ध थे।
गुप्तसाम्राज्य के धवस्त होने पर यह विस्तीर्ण राजप्रासाद भी ख्रडहर सा
होने लगा। पिछले सम्राटों में उसे बनाए रखने की भी सामर्थ्य नहीं थी। दिनों
के फेर से विस्तीर्ण सौधामाला गिर पड़कर रहने के योग्य नहीं रह गई थी।
मगधराज के परिचारक और छोटे कर्मचारी इन पुराने घरों में रहते थे। लम्बे
चौड़े उद्यान और भारी भारी ऑंगन जंगल हो रहे थे। पाटलिपुत्रवासी रात को इन
स्थानों में डर के मारे नहीं जाते थे। प्रासाद का यदि कोई भाग अच्छी दशा
में था तो कुमारगुप्त का श्वेत पत्थरवाला भवन, जो सबके पीछे बनने के कारण
जीर्ण नहीं हुआ था। उसी श्वेत प्रासाद में मगधोश्वर महासेनगुप्त रहते थे।
समुद्रगुप्त के लाल पत्थरवाले विस्तृत प्रासाद में सम्राट की शरीररक्षक
सेना रहती थी। पुस्तक के आरम्भ में पाठक ने इसी प्रासाद के एक भाग में
कुमार शशांक और सेनापति लल्ल को देखा था।
वृद्ध भट्ट पुरानी कथा इस प्रकार कह रहा था-''इस सुन्दर पाटलिपुत्र नगर में
शकराज निवास करते थे। प्राचीन मगध देश अधीन होकर उनके पैरों के नीचे पड़ा
हुआ था। तीरभुक्ति के राजा पाटलिपुत्र में आकर उन्हें सिर झुकाते थे और
सामान्य भूस्वामियों के समान प्रतिवर्ष कर देते थे। वैशाली के प्राचीन
लिच्छविराजवंश ने दुर्दशाग्रस्त होकर पाटलिपुत्र में आश्रय लिया था। उस
प्रतापी वंश के लोग साधारण भूस्वामियों के समान शकराज की सेवा में दिन
काटते थे।
कुमार का मुँह लाल हो गया। क्रोधाभरे शब्दों में बालक बोल उठा-''भट्ट! क्या
उस समय देश में मनुष्य नहीं थे? सारे मगध और तीरभुक्ति के राजाओं ने शकों
का आधिपत्य कैसे स्वीकार किया?''
भट्ट बहुत बूढ़ा हो गया था, कान से भी कुछ ऊँचा सुनता था। बालक की बात उसके
कानों में नहीं पड़ी। वह अपनी कहता जाता था-
''शकों के अत्याचार से मगध की भूमि जर्जर हो गई, देश में देवताओं और
ब्राह्मणों का आदर नहीं रह गया। प्रजा पीड़ित होकर देश छोड़ने लगी। मगध और
तीरभुक्ति के ब्राह्मण निराश्रय होकर लिच्छविराज के द्वार पर जा पड़े।
किन्तु परम प्रतापी विशाल के वंशज लिच्छविराज आप घोर दुर्दशा में थे। उस
समय वे शकराज के वेतनभोगी कर्मचारी मात्रा थे। उन्हें ब्राह्मणों को अपने
यहाँ आश्रय देने का साहस न हुआ। ब्राह्मणमण्डली को आश्रय देना शकराज के
प्रति प्रकाश्य रूप में विद्रोहाचरण करना था। किन्तु जिसे करने का साहस
लिच्छविराज को न हुआ उसे उनके एक सामन्त चन्द्रगुप्त ने बड़ी प्रसन्नता से
किया। उन्होंने ब्राह्मणों को अपने यहाँ आश्रय दिया।''
वृद्ध पुरुष परम्परा से चली आती हुई कथा लगातार कहता चला-''आश्रय पाकर
ब्राह्मण लोग पाटलिपुत्र की गली गली, घर घर देवद्वेषी बौध्दों और शकों के
अत्याचार की बातें फैलाने लगे। शकराज की सेना ने महाराज चन्द्रगुप्त का घर
जा घेरा। नगरवासियों ने उत्तोजित होकर शकराज का संहार किया। चन्द्रगुप्त को
नेता बनाकर पाटलिपुत्रवालों ने शकों को मगध की पवित्रा भूमि से निकाल दिया।
धीरे धीरे विद्रोहाग्नि मगध के चारों ओर फैल गई। तीरभुक्ति और मगध दोनों
प्रदेश बौद्ध शकों के हाथ से निकल गए। पाटलिपुत्र में गंगा के तट पर धूमधाम
से चन्द्रगुप्त का अभिषेक हुआ। पुत्रहीन लिच्छविराज अपनी एक मात्रा कन्या
कुमारदेवी का महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त को पाणिग्रहण कराकर तीर्थाटन को चले
गए। देश में शान्ति स्थापित हुई।''
''पाटलिपुत्र नगर में फिर वासुदेव के चक्रधवज और महादेव के त्रिशूलधवज से
सुशोभित मन्दिर चारों ओर आकाश से बातें करने लगे। अत्याचार पीड़ित प्रजा देश
में धीरे धीरे लौटने लगी। मगध और तीरभुक्ति की भूमि फिर धानधान्य से पूर्ण
हुई। अनेक सामन्तचक्र सेवित महाराजाधिराज परमभट्टारक प्रथम चन्द्रगुप्त के
बाहुबल से मगध की राजलक्ष्मी ने गुप्तवंश में आश्रय लिया।''
वृद्ध जब तक लड़ाई भिड़ाई की बात कहता रहा तब तक बालक एकाग्रचित्ता होकर
सुनता रहा। उसके उपरान्त वृद्ध का कण्ठस्वर सुनते सुनते बालक को झपकी आने
लगी। उसी सीड़ में पड़े हुए बिस्तर के ऊपर मगध का युवराज सो गया। श्रोता बहुत
देर से सो रहा है वृद्ध को इसकी कुछ भी खबर नहीं थी। वह बिना रुके हुए अपनी
कथा कहता जाता था-
''पूरी आयु भोग कर यथासमय सम्राट प्रथम चन्द्रगुप्त ने गंगालाभ किया। कुल
की रीति के अनुसार पट्टमहिषी लिच्छविराजकन्या कुमारदेवी स्वामी की सहगामिनी
हुईं। गुप्तवंश के माधयाद्दर्मात्तांड परम प्रतापी महाराजाधिराज
समुद्रगुप्त पाटलिपुत्र के सिंहासन पर सुशोभित हुए''। इतने में पास के घर
से कोई आता दिखाई पड़ा। वृद्ध को उसके पैरों की कुछ भी आहट न मिली। वह
व्यक्क्ति सहसा कोठरी में आ पहुँचा। देखने से ही वह कोई बहुत बड़ा आदमी जान
पड़ता था। पहिरावा तो उसका साधारण ही था-धोती के ऊपर महीन उत्तारीय अंग पर
पड़ा था। किन्तु पैर के जोड़े जड़ाऊ थे-उनमें रत्न और मोती टँके थे। घर में
आकर उसने सोते हुए बालक और लेटे हुए वृद्ध को देखा। देखते ही उसने ऊँचे
स्वर से भट्ट को पुकार कर कहा ''यदुभट्ट! पागलों की तरह क्या बक रहे हो?''
कण्ठस्वर सुनते ही वृद्ध चौंककर उठ खड़ा हुआ। आनेवाले को देखते ही वृद्ध का
चेहरा सूख गया। वह ठक सा रह गया। आनेवाले पुरुष ने कहा ''तुमसे मैं न जाने
कितनी बार कह चुका कि कुमार के सामने चन्द्रगुप्त और कुमारगुप्त का नाम न
लिया करो। तुम अभी शशांक से क्या कह रहे थे? कई बार मैंने तुम्हें
समुद्रगुप्त का नाम लेते सुना''। वृद्ध के मुँह से एक बात न निकली। वह डरकर
दीवार की ओर सरक गया।
आगन्तुक पुरुष के ऊँचे स्वर से बालक की नींद टूट गई। वह उसे सामने देख घबरा
कर उठ खड़ा हुआ। आगन्तुक ने पूछा ''शशांक! तुम इस जीर्ण कोठरी में क्या करते
थे?'' बालक सिर नीचा किए खड़ा रहा, कुछ उत्तर न दे सका। आगन्तुक वृद्ध की ओर
फिर कर बोला ''यदु! तुम अब बहुत बुङ्ढे हुए, तुम्हारी बुध्दि सठिया गई है,
तुम्हें उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रह गया है। तुम मेरे आदेश के विरुद्ध
बेधाड़क कुमार को बुरी शिक्षा दे रहे थे। यदि तुम्हें फिर कभी समुद्रगुप्त
का नाम मुँह पर लाते सुना तो समझ रखना कि तुम्हारा सिर मुँड़ा कर तुम्हें
नगर के बाहर कर दूँगा''। फिर कुमार की ओर फिर कर कहा ''देखो शशांक! तुम कभी
इधर अकेले मत आया करो। यदु बुङ्ढा हुआ; अभी यहाँ कोई साँप निकले या बाघ आ
जाय तो वह तुम्हें नहीं बचा सकता।'' बालक के कानों तक पहुँचते हुए विशाल
नेत्रो में जल भर आया। वह सिर नीचा किए चुपचाप कोठरी के बाहर निकला। कुछ
दूर पर दूसरे घर में लल्ल खड़ा था। उसने दौड़कर कुमार को गोद में उठा लिया और
बाहर ले चला। बालक वृद्ध सैनिक की गोद में मुँह छिपाए सिसकता जाता था।
कोई दु:संवाद पाकर सम्राट महासेनगुप्त व्यग्रता के साथ प्रासाद के ऑंगन में
टहल रहे थे। धीरे धीरे वे नए प्रासाद से इस पुराने प्रासाद की ओर बढ़ आए।
जिस कोठरी में यदुभट्ट रहता था उसकी ओर सम्राट क्या कोई राजपुरुष भी कभी
नहीं जाता था। इसी से यदुभट्ट निश्चिन्त होकर कुमार को वह कथा सुना रहा था
जिसका निषेध था। आगन्तुक पुरुष सम्राट महासेनगुप्त थे, इसे बताने की अब
आवश्यकता नहीं। बहुत दिन हुए सम्राट ने मधयदेश के एक ज्योतिषी के मुँह से
सुना था कि शशांक के हाथ से ही गुप्तराज्य नष्ट होगा और पाटलिपुत्र पर नाती
के वंशवालों का अधिकार होगा। तभी से वृद्ध सम्राट ने भाटों और चारणों को
गुप्तवंश के लुप्त गौरव की कथा, चन्द्रगुप्त और समुद्रगुप्त का चरित, कुमार
के आगे कहने का निषेधा कर दिया था। कुमार के चले जाने पर सम्राट फिर चिन्ता
में पड़ गए। वे भट्ट की कोठरी से निकल इधर टहलने लगे। सम्राट के कोठरी से
निकलते ही वृद्ध भट्ट कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर जा पड़ा।
तीसरा परिच्छेद
पाटलिपुत्र के मार्ग पर
दोपहर को गहरी वर्षा हो गई है। आकाश अभी स्वच्छ नहीं हुआ है। सन्धया
होतेहोते गरमी बढ़ चली। पाटलिपुत्र से कुछ दूर वाराणसी की ओर जाते हुए
निर्जन पथ पर धीरे धीरे अन्धकार छा रहा था। पर्वतों की चोटियों और पेड़ों के
सिरों पर डूबते हुए सर्ूय्य की रक्ताभ किरणें अब भी कहीं कहीं झलकती हुई
दिखाई देती थीं किन्तु पूर्व की ओर घने काले बादलों की घटा छाई हुई थी।
चौड़े राजपथ पर वर्षा का जल नदी की तरह बह रहा था। चार जीव धीरे धीरे उस पथ
पर पाटलिपुत्र की ओर आ रहे थे। सब के आगे लम्बी लाठी लिए एक बुङ्ढा था,
उसके पीछे बारह वर्ष की एक लड़की थी। सबके पीछे एक बुङ्ढा गदहा था जिसकी पीठ
पर एक छोटा-सा बालक बैठा था। वृद्ध चलते चलते बहुत थककर भी चुपचाप चला जाता
था। पर लड़की रह रहकर विश्राम की इच्छा प्रकट करती जाती थी।
वृद्ध बोला ''थोड़ी दूर और चलने पर किसी के घर में या किसी गाँव में ठहरने
का ठिकाना मिलेगा। यहाँ रास्ते में रुकने से अंधेरा हो जाएगा, फिर चलना
कठिन हो जाएगा।'' बालिका कहती थी ''बाबा! अब मैं और नहीं चल सकती; मेरे पैर
कटे जा रहे हैं, मैं तो अब बैठती हूँ''। बालक बोला ''बहिन, तू गदहे की पीठ
पर आ जा, मैं पाँव पाँव चलूँ''। बालक की बात सुनकर बालिका और वृद्ध दोनों
हँस पड़े। बालक चुप हो रहा। कुछ दूर जाते जाते बालिका सचमुच बैठ गई। सड़क से
हटकर एक ऊँची जगह देख वह ठहर गई। बुङ्ढे ने कहा ''बेटी! बैठ गई?'' उत्तर न
सुनकर वृद्ध भी उसके पास जा बैठा। गदहा भी बालक को पीठ पर लिए आ खड़ा हुआ।
अब चारों ओर घोर अन्धकार छा गया।
कुछ क्षण के उपरान्त बालक बोल उठा ''बाबा! बहुत से घोड़ों की टाप सुनाई देती
है।''
बुङ्ढा चौंककर उठ खड़ा हुआ। राजपथ के किनारे धान के खेतों के बीच आम का एक
पुराना पेड़ था। उसके नीचे अन्धकार चारों ओर से घना था। बुङ्ढा कन्या और
पुत्र को लेकर वहीं जा छिपा। घोड़ों की टाप अब पास ही सुनाई देने लगी। उस
अधेरे में सैकड़ों अश्वारोही पाटलिपुत्र की ओर घोड़े फेंकते जाते दिखाई पड़े।
रह रहकर बिजली का प्रकाश पड़ने से उनकीर् मूर्तियाँ और भी भीषण दिखाई दे
जाती थीं। बुङ्ढा अपने पुत्र और कन्या को गोद में दबाए पेड़ से लगकर सिमटा
जाता था। आधो दंड के भीतर जितने अश्वारोही थे सब श्रेणीबद्ध होकर उस आम के
पेड़ के सामने से होकर निकले। अश्वारोहियों के बहुत दूर निकल जाने पर भी
वृद्ध को सड़क पर आने का साहस नहीं होता था। धीरे धीरे वर्षा भी होने लगी।
सारा आकाश मेघों से ढककर काला हो गया। वृद्ध पुत्र और कन्या को पेड़ के धाड़
के खोखले में खिसका कर आप बैठ कर भीगता था। एक पहर रात बीतने पर घोड़ों की
टाप फिर सुनाई पड़ी। वृद्ध बहुत डरकर सड़क की ओर ताकने लगा। देखते देखते चार
पाँच अश्वारोही वृक्ष के सामने आकर खड़े हो गए। उनमें से एक बोला, ''पानी
बहुत बरस रहा है, चलो पेड़ के नीचे खडे हो जायँ''। यह सुनकर सब सड़क से उतरकर
धान के खेत की ओर बढ़े। वृद्ध के दुर्भाग्य से बिजली चमकी और उसका लम्बा डील
अश्वारोहियों की दृष्टि के सामने पड़ा। जो व्यक्ति आगे था वह बोला ''देखो तो
पेड़ के नीचे शूल हाथ में लिए कौन खड़ा है''। उसकी बात सुनकर सब पेड़ की ओर
बढ़े। वृद्ध डर कर पेड़ के नीचे से हटकर धान के खेत में हो रहा। एक सवार ने
डपटकर उसे आगे बढ़ने से रोका। उसकी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि पीछे से
एक भाला आकर वृद्ध की छाती विदीर्ण करता हुआ गिरा। वृद्ध एक बार चिल्लाकर
धान के गीले खेत में प्राण हीन होकर गिर पड़ा। पेड़ के नीचे से बालिका बड़े
जोर से चिल्ला उठी। गदहा भड़क कर भागने लगा। बालक अपने बल भर उसे थामे रहा।
अश्वारोहियों ने पास जाकर देखा कि मृत पुरुष निरस्त्रा और वृद्ध था। जिसे
उन्होंने शूल समझा था वह उसके टेकने की लकड़ी थी। सब के सब मिलकर बरछा चलाने
वाले को बुरा भला कहने लगे। किन्तु वह लड़की का चिल्लाना सुन कर, अपने
साथियों की बातों की ओर बिना कुछ धयान दिए, पेड़ की ओर लपका। कौंधो की चमक
में उसने पेड़ से सटी हुई बालिका को देख पाया। देखते ही वह उल्लास के मारे
साथियों को पुकार कर कहने लगा ''देख जा! बूढ़े को मार कर मैंने क्या पाया।
इसमें किसी का साझा नहीं रहेगा''। सुनते ही सब के सब दौड़ आए और बालिका को
देखकर कहने लगे ''चन्द्रेश्वर ने सचमुच रत्न पाया''। बालिका शोक और भय से
चिल्ला रही थी। बालिका पर अधिकार जतानेवाला सवार उसे उठाकर घोड़े की पीठ पर
जा बैठा। पानी के कुछ थमने पर अश्वारोहियों ने फिर अपना मार्ग लिया।
बालक को पीठ पर लादे हुए गदहा बहुत दूर तक न जा सका। आधाकोस के लगभग जाकर
वह एक ताड़ के पेड़ के नीचे रुक गया। बालक कुछ देर तक तो व्याकुल होकर रोता
रहा, पर धीरे धीरे उसका शरीर ढीला पड़ने लगा और वह गदहे की पीठ पर ही सो
गया। दूसरे दिन सबेरे बालक के रोने का शब्द एक तेली के कान में पड़ा। वह एक
पगडण्डी से होकर सौदा बेचने के लिए नगर की ओर जा रहा था। उसे दया आई और
उसने लड़के और गदहे दोनों को अपने साथ ले लिया। दोपहर होने पर जिस समय नगर
के तोरणों पर मंगलवाद्य हो रहा था लड़के को लिए हुए तेली पाटलिपुत्र के
पश्चिम तोरण से होकर घुसा।
तोरण का बाहरी फाटक खोलकर प्रतीहार दूसरे फाटक पर बैठे ऊँघ रहे थे। तेली को
उन्हें पुकारने का साहस न हुआ। वह बालक के साथ कुछ दूर पर बैठा रहा।
द्वारपालों ने उसकी ओर ऑंख उठाकर देखा तक नहीं। दोपहर बीतने पर रथ के पहिये
की घरघराहट सुनकर उनकी नींद टूटी। रथ नगर के भीतर से आकर फाटक के पास
पहुँचा। भीतर से एक व्यक्ति ने डाँटकर फाटक खोलने के लिए कहा। पहरेवाले
घबराकर चारपाई से उठ खड़े हुए। एक उनमें से तब भी पड़ा खर्राटा ले रहा था।
उसके पास जाकर एक ने एक लात जमाई। वह ऑंख मलकर उठ बैठा और उससे भिड़ने के
लिए तैयार हो गया। एक तीसरे ने आकर चारपाई सहित उसे एक कोठरी में डाल दिया।
पहरेवालों मे से एक कुछ दूर पर बैठा नीम की दातून दाँतों पर रगड़ रहा था, और
बीचबीच में खखार खखार कर थूकता जाता था। उसने वहीं से पूछा-''क्यों रे! कौन
आया है?'' एक ने उत्तर दिया ''तेरा बाप''। उसने कहा ''मेरे बाप को तो यहाँ
से गए न जाने कितने दिन हुए'' और फिर निश्चिन्त होकर दातून करने लगा। यह
देखकर एक ने उसका लोटा उठा कर खाई में डाल दिया। वह अपना लोटा निकालने के
लिए खाई के जल में कूदा। प्रतीहारों ने अपनीअपनी चारपाइयाँ फाटक के पास से
हटा दीं। नगर के भीतर से जिसने फाटक खोलने की आज्ञा दी थी वह अधीर होकर
फाटक पर जोर जोर से लात मार रहा था। सब पहरेवालों ने मिलकर जब बल लगाया तब
चारों अर्गल हटे और तोरणद्वार के दोनों भारी भारी पल्ले अलग होकर द्वार के
प्राचीर से जा लगे। फाटक खुलने पर प्रतीहारों और द्वारपालों ने देखा कि एक
काला ठेंगना वृद्ध अत्यन्त क्रुद्ध होकर उनके सामने खड़ा है। उसे देखते ही
जो पगड़ी तक न बाँध पाए थे वे तो साँस छोड़कर भागे। जो प्रतिहार और द्वारपाल
रह गए वे घुटने टेक कर बैठ गए और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगे। पर उस वृद्ध ने
उनकी एक न सुनकर मारे कोड़ों के उनके धुर्रे उड़ा दिए। चार घोड़ों का रथ
धाड़ाधाड़ाता हुआ तोरणद्वार के बाहर निकल गया।
तेली लड़के और गदहे को लेकर चलने के लिए उठा। उसे देखते ही पहरेवालों का
पराक्रम लौट आया वे उसे तंग करने लगे। अन्त में बेचारे तेली ने कोई उपाय न
देख अपने सौदे में से थोड़ा थोड़ा सब को दिया और अपना पीछा छुड़ाया। लड़के को
साथ लिए वह नगर में घुसा। देखा तो राजपथ जनशून्य सा हो रहा है; दूकानें
बन्द हैं। जो दो चार आदमी आते जाते भी थे वे डरे हुए दिखाई देते थे और जहाँ
कोई गली पड़ती थी सड़क छोड़कर उसमें हो रहते थे। रह रहकर विदेशी सैनिकों के दल
के दल कोलाहल करते हुए निकलते थे। उन्हें देखते ही पाटलिपुत्र वाले दूर हट
जाते थे और अपने घरों के किवाड़ बन्द कर लेते थे। दुकानदार दुकान छोड़छोड़ कर
भाग जाते थे। नगर की यह अवस्था देख तेली के प्राण सूख गए और वह झट राजपथ
छोड़ एक पतली गली में हो रहा। उस अधेरी गली में चलते चलते वह एक झोपड़ी के
सामने पहुँचा और किवाड़ खटखटाए। कुछ काल तक वह खड़ा रहा पर जब उसने देखा कि
किवाड़ नहीं खुलता है तब वह फिर किवाड़ खटखटाने लगा। इस प्रकार दो घड़ी के
लगभग बीत गए। बालक गदहे पर बैठा बैठा थककर ऊँघने लगा।
नगर मे सन्नाटा छा गया। दिन ढलने पर गली में और भी अधेरा छा गया। तेली घबरा
कर किवाड़ पीटने लगा। उसके धाक्कों से किवाड़ टूटा ही चाहता था कि भीतर से
किसी स्त्री कण्ठ का अस्फुटर् आत्तानाद सुनाई पड़ा। रोने के साथ जो शब्द
मिले थे उन्हें ठीकठीक कहना असम्भव है। उनका भावार्थ यह था ''घर में डाकू आ
पड़े हैं नगर में कहीं कोई प्रतिवेशी है या नहीं? आकर मेरी रक्षा करे। राजा
के भांजे के साथ थानेश्वर से जो दुष्ट सैनिक आए हैं वे मुझे अनाथ, असहाय और
विधवा देखकर मुझपर अत्याचार कर रहे हैं। आकर बचाओ, नहीं तो मैं मरी। मेरी
जाति, कुल, मान मर्यादा सब गई''। कुछ प्रतिवेशियों के कान में उस स्त्री का
चिल्लाना पड़ चुका था। वे खिड़की हटाकर देखना चाहते थे कि भीतर क्या हो रहा
है। दो एक अपने वचनों से अभयदान भी दे रहे थे।
एक पड़ोसी की दृष्टि द्वार पर खड़े गदहे पर पड़ी। वह चिल्ला उठा ''अरे, देखते
क्या हो? थानेश्वर के सवार आ पहुँचे''। सुनते ही पाटलिपुत्र के वीर निवासी
अपने अपने किवाड़ बन्दकर भीतर जा घुसे। स्त्री का रोना चिल्लाना बढ़ने लगा।
तेली को अधेरे में और कुछ न सूझा, उसने पैर के धाक्कों से किवाड़ खोल दिए और
घर के भीतर घुसा। स्त्री बड़े जोर से चिल्ला उठी, चिल्लाकर मूर्च्छित हो गई
या क्या कुछ समझ में न आया। तेली ने अपने बैल, गदहे और बालक को भीतर करके
किवाड़ बन्द कर लिए। उसके पीछे स्त्री का चिल्लाना किसी ने न सुना।
चौथा परिच्छेद
नूतन और पुरातन
सबेरे ही परिचारक लोग पुराना सभामण्डप साफ करने में लगे हैं। सभामंडप काले
पत्थरों का बना हुआ और चौकोर था। उसकी छत एक सौ आठ खम्भों पर थी। फर्श भी
काले चौकोर चिकने पत्थरों की थी। सभा प्रांगण् में सबसे भीतर चारों ओर गया
हुआ, हरे पत्थरों का चबूतरा या अलिंद था जो सुन्दर पतलेपतले खम्भों पर पटा
था। अलिंद पर सोनेचाँदी का बहुत सुन्दर काम था। छत पर पत्थर की मनोहरर्
मूर्तियाँ थीं, स्थानस्थान पर रामायण और महाभारत के चित्रा बने थे। अलिंद
के पीछे सभामंडप के खम्भे पड़ते थे। सभामंडप के किनारे चारों ओर पत्थर का
बना हुआ चौड़ा घेरा था। पाटलिपुत्र के बड़े बूढ़े कहते थे कि पुराने सम्राटों
के समय में इस घेरे के भीतर दस सह अश्वारोही सुसज्जित और श्रेणीबद्ध होकर
खड़े होते थे। सभामण्डप में हाथीदाँत की बनी हुई कम से कम एक सह सुन्दर
चौकियाँ बैठने के लिए रखी थीं जो बहुत दिनों तक यत्न और देखभाल न होने के
कारण मैली हो रही थीं। इन पर राजकर्मचारी और नगर के प्रतिष्ठित जन बैठते
थे। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि मुसलमानी दरबारों के समान खड़े रहने की
प्रथा प्राचीन हिन्दू सम्राटों की सभा में न थी। राजा के आने पर सब लोग
अपने आसनों पर से उठ खड़े होते थे और फिर राजाज्ञा से बैठ जाते थे। अलिंद
में चाँदी की गद्दीदार चौकियों की दो श्रेणियाँ थीं जिनपर राजवंश के लोग
तथा युवराजपादीय1 और कुमारपादीय2 अमात्यगण बैठते थे। इन वर्गों में जिनकी
गिनती नहीं थी वे अलिंद में आसन नहीं पा सकते थे। मत्स्य देश से आए हुए
दूधा से श्वेत सग़मरमर पत्थर की ऊँची वेदी के ऊपर सम्राट का सिंहासन रहता
था। वेदी के तीन ओर सीढ़ियाँ थीं। वेदी के ऊपर सोने के चार डण्डों पर झलकता
हुआ चँदवा तनता था। चन्द्रातप के नीचे राजसिंहासन सुशोभित होता था।
परिचारक मरमर की वेदी धोकर और उसपर पारस्य देश का गलीचा
बिछाकर सोने के दो सिंहासन रख रहे थे। कुछ परिचारक चँदवें में मोती की
झालरें लटकाने में लगे थे, कुछ दोनों सिंहासनों के पीछे चाँदी के उज्ज्वल
छत्रा लगा रहे थे। वेदी के एक किनारे बैठा एक कर्मचारी परिचारकों के काम की
देखरेख कर रहा था।
कई दिन पहले जो पिंगलकेश बालक सोन गंगा के संगम पर पुराने राजप्रासाद की
खिड़की पर खड़ा जलधारा की ओर देख रहा था वह सभामंडप में आकर इधर
1. युवराजपादीय = वे अमात्य या राजकर्मचारी जिन्हें युवराज के बराबर सम्मान
प्राप्त था।
2. कुमारपादीय = वे अमात्य या राजपुरुष जिनका सम्मान अन्य राजकुमारों के
समान था।
उधार घूम रहा था। घूमता घूमता वह वेदी के सामने आ खड़ा हुआ। उसे देखते ही
परिचारक थोड़ी देर के लिए काम बन्द करके खड़े हो गए। बालक ने पूछा ''यह नया
सिंहासन किसके लिए है?'' एक परिचारक बोला ''थानेश्वर के सम्राट के लिए''।
बालक चौंक पड़ा। उसका सुन्दर मुखड़ा क्रोध से लाल हो गया और उसने हाथीदाँत की
एक चौकी उठा ली। हाथ के झटके से चौकी उखड़ गई। परिचारक डर के मारे दो हाथ
पीछे हट गए। रोषरुद्ध कंठ से बालक ने फिर पूछा ''क्या कहा''? किसी से कुछ
उत्तर न बन पड़ा। जो कर्मचारी परिचारकों के काम की देखरेख करता था वह वेदी
के पास आया और बालक को अभिवादन करके सामने खड़ा हो गया। बालक ने पूछा ''तुम
किसकी आज्ञा से वेदी पर नया सिंहासन रख रहे हो?'' कर्मचारी उत्तर देने में
इधर उधार करने लगा, फिर बोला ''मैंने सुना है''-। उसकी बात भी पूरी न हो
पाई थी कि बालक एक फलांग में वेदी के ऊपर जा पहुँचा और पैर से ठुकराकर नए
सिंहासन को दस हाथ दूर फेंक दिया। सिंहासन काले पत्थर की फर्श पर धाड़ाम से
गिरकर खंड हो गया। परिचारक डर के मारे मंडप से भाग खड़े हुए। कर्मचारी भी
बालक की आकृति देख भागने ही को था इतने में थोड़ी दूर पर एक द्वार पर का हरा
पर्दा हटा और एक लम्बा अधोड़ योध्दा और एक दुबली पतली बुढ़िया बहुत से विदेशी
सैनिकों से घिरी आ पहुँची। वृध्दा ने पूछा ''यह कैसा शब्द हुआ?'' सब चुप
रहे। कुमार शशांक और उसके अमात्य को छोड़ वहाँ और कोई उत्तर देनेवाला था भी
नहीं। अमात्य तो उन दोनों को देख इतना सूख गया था कि उसके मुँह से एक शब्द
तक न निकला। कुमार कुछ कहना ही चाहता था पर मुँह फेर कर रह गया। वृध्दा ने
फिर पूछा। कर्मचारी ने उत्तर देने की चेष्टा की पर उसकी घिग्घी सी बँधा गई,
मुँह से स्पष्ट शब्द न निकले। बालक ने तब अवज्ञा से मुँह फेरकर कहा
''परिचारकों ने पिताजी के सिंहासन के पास थानेश्वर के राजा का सिंहासन रख
दिया था। मैंने उसे पैरों से ठुकराकर चूर कर दिया''। बालक के ये तेजभरे
वाक्य उस पुराने सभामंडप में गूँज उठे। सुनते ही उस अधोड़ योध्दा का मुँह
लाल हो गया। उसके साथ के सैनिकों की तलवारें म्यानों में खड़क उठीं।
कर्मचारी तो वह झनकार सुनते ही साँस छोड़कर भागा। वृध्दा वेदी के पास बढ़ आई
और बालक का हाथ थाम उसे नीचे उतार लाई। इधर अधोड़ योध्दा म्यान से आधी तलवार
निकाल चुका था। इतने में सादा श्वेतवस्त्र डाले नंगे पैर एक वृद्ध सभामंडप
में घबराए हुए आ पहुँचे। उन्हें देखते ही विदेशी सैनिकों ने भी झुककर
अभिवादन किया। हम लोग भी उन्हें पहले देख चुके हैं। वे गुप्तवंशीय सम्राट
महासेनगुप्त थे।
उन्हें देखते ही वृध्दा हँसकर आगे बढ़ी। प्रौढ़ योध्दा का सिर कुछ नीचा हो
गया। वृद्ध सम्राट एक विशेष विनयसूचक भाव से उस वृध्दा की ओर देख रहे थे
जिससे यही लक्षित होता था कि वे बालक के अपराध के लिए क्षमा चाहते थे,
किन्तु प्राचीन साम्राज्य का अभिमान उनका कंठ खुलने नहीं देता था। वृध्दा
हँसती हँसती बोली 'भैया! शशांक की बात मत चलाना। प्रभाकर कुछ ऐसे पागल नहीं
हैं जो बालक की बात मन में लाएँगे''। प्रौढ़ योध्दा सिर नीचा किए भीतरहीभीतर
दाँत पीस रहा था। वृध्दा के पहनावे से जान पड़ता था कि वह पंचनद की रहनेवाली
थी। अब तक पंजाब की स्त्रियाँ प्राय: वैसा ही पहनावा पहनती हैं। कपिशा और
गान्धार की स्त्रियों के पहनावे के समान उस पहनावे मे भी स्त्री सुलभ
रमणीयता और कोमलता का अभाव था। दूर से पहनावा देखकर स्त्री पुरुष का भेद
करना तब भी कठिन था। किन्तु ठण्डे पहाड़ी देशों के लिए वैसा पहनावा उपयुक्त
था।
वृध्दा के बाल सन की तरह सफेद हो गए थे। गालों पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थीं।
शरीर पर एड़ी के पास तक पहुँचता हुआ चोल या ऍंग रखा था, सिर पर भारी पगड़ी
थी। पैरों में जड़ाऊ जूतियाँ थीं। पीठ पर बाल खुले हुए थे। वे सम्राट
महासेनगुप्त की सगी बहिन, स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) के महाराज आदित्यवर्ध्दन
की विधवा पटरानी, महादेवी महासेनगुप्ता थीं। उनके साथ में जो अधोड़ पुरुष था
वह आदित्यवर्ध्दन का ज्येष्ठ पुत्र, स्थाण्वीश्वर के राजवंश का प्रथम
सम्राट, प्रभाकरवर्ध्दन था। जिस समय आदित्यवर्ध्दन वर्तमान थे उसी समय से
महासेनगुप्त स्वामी के नाम से सब राज काज चलाती थीं। जब प्रभाकरवर्ध्दन
स्थाण्वीश्वर के सिंहासन पर बैठे तब भी महादेवी सिंहासन के पीछे परदे में
बैठी बैठी पुत्र के नाम से अपना प्रचण्ड शासन चलाती थीं। अस्सी वर्ष की
होने पर भी थानेश्वर में उनका आतंक वैसा ही बना था। आर्यावर्त के सब लोग
जानते थे कि स्थाण्वीश्वर के सिंहासन पर बैठे हुए, पंचनद का उध्दार
करनेवाले, हूणों, आभीरों और गुर्जरों का दमन करनेवाले सम्राट पदवीधारी
प्रभाकरवर्ध्दन महादेवी के हाथ की कठपुतली मात्रा हैं। उन्हीं की उँगलियों
पर सारा थानेश्वर और उत्तारापथ का समस्त राजचक्र नाचता था।
महादेवी हँसती हँसती अपने भतीजे और पुत्र का हाथ पकड़े सभागृह से बाहर
निकलीं। वृद्ध सम्राट सिर नीचा किए उनके पीछे पीछे चले। अब एक एक करके सब
परिचारक आने लगे। टूटा हुआ सिंहासन हटा दिया गया। सभामण्डप सुसज्जित हुआ।
वेदी के ऊपर केवल सम्राट का एक सिंहासन रहा।
पाँचवाँ परिच्छेद
परचूनवाली
दूकान पर बैठी काली भुजंग एक प्रौढ़ा स्त्री आटे, चावल, दाल, नमक, तेल, घी
आदि के साथ साथ अपनी मन्द मुसकान बेच रही थी। इतने बड़े पाटलिपुत्र नगर में
जिस प्रकार चावल दाल के ग्राहक थे उसी प्रकार उसकी मन्द मुसकान के ग्राहकों
की भी कमी नहीं थी। दूकान के बीच में बैठा हमारा वही पूर्वपरिचित तेली
बिकती हुई मुसकान की मात्रा की ओर कड़ी दृष्टि लगाए था। उसके साथ जो बालक
आया था वह दूकान के सामने राजपथ पर कई धूलधूसर काले लड़कों के साथ खेल रहा
था। इसी बीच में लम्बे डील का एक गोरा आदमी चावल और घी लेने दूकान पर आया।
घी और चावल के साथ उस रमणी ने और न जाने कितनी वस्तुएँ बेच डालीं। सब सौदा
हो चुकने पर जब उस पुरुष ने चावल, दाल, घी, नमक आदि सामग्री कपड़े के छोर
में बाँधी तब उसने देखा कि सब सामान एक आदमी से न जाएगा। यह देख सदयहृदया
रमणी उसकी सहायता करने के लिए दूकान से उठी।
तेली यह देख घर से निकल आया और उस आदमी से कहने लगा ''मैं आप का सब सामान
आप पहुँचाने के लिए तैयार हूँ अथवा अपने इस लड़के को आप के साथ किए देता
हूँ। मैं अपनी स्त्री को एक बिना जाने सुने आदमी के साथ घर से बाहर नहीं
जाने देना चाहता''। धीरे धीरे बात बढ़ चली और मुठभेड़ की नौबत दिखाई देने
लगी। अन्त में उस शान्तिप्रिय रमणी ने बीच में पड़कर निबटारा कर दिया। यह
स्थिर हुआ कि बालक उस पुरुष के साथ सब सामान लेकर जाएगा।
बालक सिर पर भारी गठरी रखे उस आदमी के पीछे धीरे धीरे चला। वह आदमी लम्बे
लम्बे डग मारता आगे आगे चलता जाता था और पीछे फिर फिर कर देखता जाता था कि
लड़का कितनी दूर है। बीच बीच में लड़के को पीछे न देख उसे लौटना भी पड़ता था।
वह आदमी जो मार्ग पकड़े जाता था वह अब नगर के बाहर होकर नदी तट की ओर जाता
दिखाई पड़ा। उसके दोनों ओर वृक्षश्रेणी छाया डाल रही थी। एक ओर तो गंगा की
चमकती हुई बालू दूर तक फैली थी, दूसरी ओर हरी हरी घास से ढकी भूमि थी। बालू
के मैदान के बीच उत्तर की ओर दूर पर भागीरथी की क्षीण जलरेखा दिखाई देती
थी। उस पथ पर सन्धया सबेरे को छोड़ और कभी कोई आता जाता नहीं दिखाई पड़ता था।
आज कोई विशेष बात थी जो उस पर लोगों की भीड़ भाड़ दिखाई देती थी। बालक कभी
कभी भीड़ में मिल जाता था और वह पुरुष बड़ी कठिनता से उसे ढूँढ़कर निकालता था।
मार्ग के दक्षिण ओर बहुत से लोग एकत्र थे जो देखने में युध्दा व्यवसायी जान
पड़ते थे। घास के मैदान में बहुत से शिविर (डेरे) पड़े थे जिनके सामने सैनिक
इधर उधर आते जाते दिखाई पड़ते थे। उनमें से अधिकतर लोग खाने और रसोई बनाने
में लगे थे। कुछ लोग नित्य के सब कामों से छुट्टी पाकर पेड़ों की छाया के
नीचे लेटे थे। मार्ग से थोड़ा उतर चलकर पेड़ों के नीचे यहाँ से वहाँ तक एक
पंक्ति में घोड़े बँधे थे। उनके सामने स्थानस्थान पर साज और शस्त्रा-भाले,
बरछे, तलवारें और धानुर्बाण इत्यादि-ढेर लगाकर रखे हुए थे। सड़क के दोनों ओर
थोड़ी थोड़ी दूर पर सजे हुए विदेशी सैनिक रक्षा के लिए नियुक्त थे। दल के दल
सैनिक नदी से स्नान करके आ रहे थे। बालक लोग गदहों पर बड़ेबड़े लोहे के कलसे
लाद कर अश्वारोहियों के पीने के लिए पानी ला रहे थे। छकड़ों और रथों के मारे
सड़क पर चलने की जगह न थी। छकड़े अश्वारोहियों और घोड़ों के खाने पीने की
सामग्री नगर से लाद कर लाते थे और बोझ ठिकाने उतार कर फिर नगर की ओर लौटते
थे। कभी कभी छकड़ों के दोनों ओर सवार भी चलते थे और उन्हें शिविर तक ले जाकर
सामग्री उतरवाकर छोड़ देते थे।
नगर से कोस भर पर एक बड़े पीपल के पेड़ की छाया के नीचे कई आदमी बैठे बातचीत
कर रहे थे। उनके सामने कई एक भाले जुटा कर रखे हुए थे। एक ओर भूमि पर एक
बालिका या स्त्री पड़ी थी। उसके दोनों हाथ चमड़े के बन्धान से कसे थे। और
दोनों पैर एक रस्सी द्वारा खूँटे से बँधो थे। वह बीचबीच में सिर उठा कर
आनेजाने वालों की ओर ताकती और फिर हताश होकर पड़ जाती थी। जो मनुष्य वृक्ष
के तले बैठे थे वे देखने मे विदेशी और विशेषत:पंचनद के जान पड़ते थे। उनमें
से एक रह रह कर चमड़े के छोटे कुप्पे में से मद्य ढालढाल कर पीता और अपने
साथियों को देता जाता था। उनमें से कोई बालिका की ओर कुछ धयान न देता था।
बालक चावलदाल की गठरी सिर पर लिए उसी पेड़ के नीचे आकर खड़ा हो गया, फिर बोझ
उतारकर थोड़ा बैठ गया और इधरउधार ताकने लगा। उस समय बालिका टक लगाए सड़क की
ओर देख रही थी। रंगबिरंगे परिच्छेदों से सुसज्जित होकर बाजा बजाती हुई मगध
की पदातिक सेना उस समय उस मार्ग से निकल रही थी। बालक की गठरी जहाँ की तहाँ
पड़ी रही। वह धीरे धीरे बालिका की ओर बढ़ा और पास जाकर उसने पुकारा ''बहिन!''
बालिका ने चकपका कर उधार मुँह फेरा। देखते ही बालक उसके गले से लग गया। भाई
और बहिन दोनों एकदूसरे के गले से लगकर सिसक सिसक कर रोने लगे। कुछ काल
बीतने पर विदेशी सैनिकों की दृष्टि उन दोनों पर पड़ी। उन्होंने देखा कि एक
से दो बन्दी हो गए। व्यक्ति मद्य ढाल-ढाल कर पी रहा था वह चकित होकर बालिका
के पास उठ कर आया और थोड़ी देर ठग मरासा खड़ा रहा, फिर बोला ''अरे तू ने इसे
कहाँ से ला जुटाया''। बालिका बिलखती बोली 'यह मेरा भाई है''। इतना सुनते ही
वह कर्कश स्वर से बोला ''यहाँ तेरे भाईसाई का कुछ काम नहीं। उससे कह कि चला
जाय''। उसकी बात सुनकर बालिका चिल्ला उठी। बालक ने भी उसके सुर में सुर
मिलाया। सैनिक ने उसका हाथ पकड़ कर खींचा। वह और भी चिल्लाने लगा ''बहिन,
मैं तुम्हें छोड़ कर न जाऊँगा।''। एक एक दो दो करके लोग इकट्ठे होने लगे। एक
ने पूछा ''क्या हुआ?'' दूसरे ने पूछा ''इन्हें क्यों मारते हो?'' तीसरा
आदमी चौथे से कहने लगा ''देखो तो, उस बेचारी बालिका को कैसा बाँधा रखा
है''।
देखते देखते एक शान्तिरक्षक वहाँ आ पहुँचा और पूछने लगा ''क्या हुआ''? एक
साथ दस आदमी उत्तर देने लगे ''मद्य पीकर ये कई विदेशी इस बालिका को मार रहे
हैं, इसका भाई आकर इसे छुड़ा रहा है''। छुड़ाने वाले का डीलडौल देखकर
शान्तिरक्षक हँस पड़ा। पूछने पर सैनिक ने उत्तर दिया ''बालिका मेरी बन्दी
है। मैंने उसे मार्ग में पकड़ा है। यह बालक कौन है, मैं नहीं जानता। मैं
किसी को मारता पीटता नहीं हूँ''। इतने में दूकान पर सौदा लेनेवाला वह आदमी
लड़के को ढूँढ़ता पेड़ के पास भीड़ इकट्ठी देख वहाँ आ पहुँचा। चारों ओर घूमघूम
कर देखने पर भी जब उसे किसी बात का पता न चला तब वह धीरे धीरे भीड़ हटा कर
घुसा। घुसते ही पहले तो उसने देखा कि उसका मोल लिया हुआ सारा सामान एक
किनारे पड़ा है और बालक उस बालिका की गोद में बैठा है?'' उसने लड़के से पूछा
''अरे! तू यहाँ इस तरह आ बैठा है?'' लड़का उसे देख और भी रोने लगा और बोला
''मैं बहिन को छोड़ कर कहीं न जाऊँगा।''
वह चकपका उठा। चारों ओर जो लोग खड़े थे वे उससे अनेक प्रकार की बातें पूछने
लगे। उसने बताया कि ''मैं भी थानेश्वर की सेना में ही हूँ, रात भर प्रासाद
में प्रतीहार के रूप में रक्षा पर नियुक्त था, सबेरे छुट्टी पाकर रसोई की
सामग्री लेने नगर की ओर गया था। बोझ अधिक हो जाने पर बनिये ने अपने लड़के को
साथ कर दिया था। इस लड़की को मैंने कभी नहीं देखा था।'' जिन लोगों ने मार्ग
में लड़की को पकड़ा था वे एक साथ बोल उठे कि लड़की पाटलिपुत्र की नहीं है।
देखते देखते शिविर के शान्तिरक्षक वहाँ आ पहुँचे, पर भीड़ बराबर बढ़ती ही
जाती थी। उन्होंने बहुत चेष्टा की पर हुल्लड़ शान्त न हुआ। नगरवासियों की
संख्या क्रमश: बढ़ने लगी। देखते देखते दोनों पक्षों में झगड़ा बढ़ चला।
गालीगलौज से होतेहोते मारपीट की नौबत आई। मुट्ठी भर शान्तिरक्षकों ने जब
देखा कि झगड़ा शान्त नहीं होता है तब वे किनारे हट गए। पूरा युद्ध छिड़ गया।
थानेश्वर के सैनिक तो झगड़े के लिए सन्नद्ध होकर आए ही थे, अस्त्र शस्त्र
उनके साथ थे। पर पाटलिपुत्र वाले लड़ाई के लिए तैयार होकर नहीं आए थे। किसी
के हाथ में छकड़े का बल्ला था, कोई सोटा लिए था, कोई लोटा। पर संख्या में वे
विदेशियों के तिगुने थे। थानेश्वर के सैनिक पहले तो दोचार कदम पीछे हटे, पर
पीछे उनके भालों और तलवारों के सामने नागरिकों का ठहरना कठिन हो गया। किसी
का माथा फूटा, किसी के हाथपैर कटे, किसी की पीठ में चोट आई, पर कोई मरा
नहीं। रक्तपात देखते ही नागरिक पीछे हटने लगे, पर भागे नहीं, डेरों और
पेड़ों की ओट में होकर दूर से वे लगातार पत्थर बरसाने लगे।
उसी समय गंगातट के मार्ग से पाटलिपुत्र की सेना का एक दल शिविर की ओर आता
दिखाई पड़ा। किन्तु उसे देख नागरिक कुछ विशेष उत्साहित न हुए और एक एक दो दो
करके भागने लगे। उन्होंने समझ लिया कि उनकी स्वदेशी सेना झगड़े की बात सुनकर
उनका साथ तो देगी नहीं, उलटा भलाबुरा कहेगी। इसी बीच में नदी तट के मार्ग
से एक रथ अत्यन्त वेग से नगर की ओर जाता था। युद्धक्षेत्रा के पास पहुँचते
ही एक बड़ासा पत्थर सारथी के सिर पर आ पड़ा और वह चोट खाकर नीचे गिर पड़ा।
उसके गिरने से जो धामाका हुआ उससे चौंक कर घोड़े प्राण छोड़कर नगर की ओर भाग
चले। यह देख रथारूढ़ व्यक्ति झट से नीचे कूद पड़ा। उतरते ही पहले वह सारथी के
पास गया। जाकर देखा तो वह जीता था, पर उसका सिर चूर हो गया था। क्रोधा के
मारे उसका चेहरा लाल हो गया। इतने में पाटलिपुत्र के नागरिकों का फेंका हुआ
एक पत्थर उसके कान के पास से सनसनाता हुआ निकल गया और सड़क के किनारे एक
शिविर पर जा पड़ा। रथवाला व्यक्ति यह देखकर चकित हो गया। वह क्रोध से खड्ग
खींचकर जिस ओर से पत्थर आते थे उसी ओर को लपका। जो लोग पेड़ की आड़ से पत्थर
फेंक रहे थे वे सिर निकाल कर झाँकने लगे। पत्थरों की वर्षा कुछ धीमी पड़ी।
नगर की ओर जाती हुई सेना अब पास पहुँच गई थी, इससे नागरिकों में से जिसे
जिधार रास्ता मिला वह उधार भागने लगा। पेड़ की ओट से जो कई आदमी पत्थर चला
रहे थे रथ पर के मनुष्य को अपनी ओर आते देख सरकने का डौल करने लगे। इतने
में एक उनमें से बोल उठा ''अरे! ये तो हमारे युवराज हैं।'' एक ने सुनकर कहा
''अरे, बावला हुआ है? युवराज अभी लड़के हैं, वे यहाँ क्या करने आएँगे?''
प्रथम व्यक्ति-क्यों, क्या युवराज घूमनेफिरने नहीं निकलते?
द्वितीय व्यक्ति-युवराज को इस इतने बड़े पाटलिपुत्र नगर में और कहीं घूमने
की जगह नहीं है जो वे इस दोपहर की धूप में इस रेत में आएँगे?
प्रथम व्यक्ति-अरे तू क्या जाने, युवराज के मन की मौज तो है।
द्वितीय व्यक्ति-अच्छा तू जाकर अपने युवराज को देख, मैं तो चला।
पहले व्यक्ति ने पेड़ की ओट से निकलकर ''युवराज की जय हो'' कहकर रथ पर के
मनुष्य का अभिवादन किया। वह विस्मित होकर उसे देखता रह गया। दूसरा व्यक्ति
पेड़ के पास से भाग रहा था। रथ पर के मनुष्य ने उसे खड़े रहने के लिए कहा। वह
भी कण्ठस्वर सुनते ही बोल उठा ''युवराज की जय हो''। अब तो जितने नागरिक
इधरउधार लुकेछिपे थे आआकर अभिवादन करने लगे। देखते देखते उस पेड़ के पास
बहुतसे लोग इकट्ठे हो गए। नागरिकों को तितरबितर होते देख थानेश्वर के सैनिक
निश्चिन्त हो रहे थे। पेड़ के नीचे कुछ भीड़ जमी देख वे भी पत्थर फेंकने लगे।
ईंट का एक टुकड़ा आकर रथ पर के मनुष्य के शिरस्त्राण में लगा। यह देख नागरिक
फिर खलबला उठे। इतने में मगध सेना का वह दल आ पहुँचा और भीड़ भाड़ देख
अधिनायक की आज्ञा से रुक गया। रथ पर के मनुष्य ने झट आगे बढ़कर अधिनायक से
पूछा ''तुम मुझे पहचानते हो?'' सेनानायक बोला ''नहीं''। रथ पर के मनुष्य ने
सिर पर से शिरस्त्राण हटा दिया। बन्धानमुक्त, पिंगलवर्ण, कुंचित केश उसके
कन्धो और पीठ पर छूट पड़े। सेनानायक ने झट विनीत भाव से अभिवादन किया।
मगधसेना ने जयध्वनि की। नागरिकों ने भी एक स्वर से जयनाद किया। रथ पर से
कूदनेवाले सचमुच कुमार शशांक ही थे। लौहवर्म से अंगप्रत्यंग आच्छादित रहने
के कारण चौदह वर्ष के कुमार कोई छोटे डील के योध्दा जान पड़ते थे। कुमार ने
ज्योंही पूछा कि ''क्या हुआ? '' त्यों ही एक साथ कई नागरिक बोल उठे कि
विदेशी सैनिक एक बालिका को पकड़े लिए जाते थे, जब उनसे छोड़ने के लिए कहा गया
तब वे नागरिकों पर टूट पड़े और उन्हें मारने लगे। जिन्होंने चोट खाई थी वे
अपनी अपनी चोंटे दिखाने लगे। अस्त्राहीन प्रजा पर अस्त्र के आघात देख मगध
की सेना भी भड़क उठी। सारथी का प्राणहीन शरीर जब सैनिकों ने देखा तब तो
उन्हें शान्त रखना अत्यन्त कठिन हो गया।
कुमार की आज्ञा से सेनानायक स्थाण्वीश्वर के पड़ाव की ओर चले। पर जब
थानेश्वरवाले अपनेअपने डेरों में से पत्थर फेंकने लगे तब विवश होकर वे लौट
आए। अब कुमार की आज्ञा से मागध सेना ने श्रेणीबद्ध होकर शिविरों पर आक्रमण
किया। स्थाण्वीश्वर के अधिकांश सैनिक उस समय मद्य पीकर मतवाले हो रहे थे।
वे तो बात की बात में पराजित हो गए। जिन्हें अपने तन की सुधा थी वे भाग खड़े
हुए। जो उन्मत्ता थे वे भूमि पर पड़ेपड़े प्रहार सहते रहे। बहुत से बन्दी बना
लिए गए। कुमार के आदेश से बालिका अपने भाई सहित बन्धान से छुड़ा कर लाई गई।
कुमार दोनों को रथ पर बिठाकर नगर की ओर चल पड़े। सेना भी अपने ठिकाने आ
पहुँची।
सन्धया हो चली थी। झगड़े की बात नगर भर में फैल गई। उत्पाती दुष्ट दल
बाँधबाँधाकर लोगों को भड़काने लगे। सेनादल को लौटते देर नहीं कि नागरिक
शिविर लूटने में लगे। मुट्ठी भर शान्तिरक्षक उन्हें किसी प्रकार न रोक सके।
अन्त में नगरवासियों ने शान्तिरक्षकों को मार भगाया। लूटपाट कर चुकने पर
उन्होंने डेरों में आग लगा दी। दूर तक जलते हुए डेरों की आकाश तक उठती हुई
लपट देखकर थानेश्वर के सेनानायकों ने जाना कि शिविर में कुशल नहीं। नगर में
एक सहò से कुछ अधिक शरीररक्षक अश्वारोही थे। उन्हें लेकर सेनानायक पड़ाव पर
पहुँचे। उस समय अग्नि जलाने के लिए और कुछ न पाकर बुझ चुकी थी। उन्होंने
शिविरों के आसपास जाकर देखा कि उन्मत्ता और बन्दी सैनिकों की भीषण हत्या
करके नागरिकों ने डेरों में आग लगाकर सब कुछ भस्म कर डाला है।
शशांक
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