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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7

शशांक

 भाग - 4

सत्रहवाँ परिच्छेद
तरला का संवाद

''तरला! तू कल कहाँ थी? मैं तेरे आसरे में रात भर सोई नहीं, रात भर जँगले के पास बैठी रही। माँ ने पूछा, कह दिया बड़ी उमस है। तू कल आई क्यों नहीं?''
जिसने यह बात पूछी वह पूर्ण युवती थी, अवस्था बीस वर्ष से कुछ कम होगी। तपाए हुए सोने का सा रंग और गठीला शरीर था। सौ बात की एक बात यह कि वह असामान्य सुन्दरी थी, उसका सा रूप संसार में दुर्लभ समझिए। सूर्योदय से दो दण्ड पीछे तरला घर लौटकर आई। आते ही वह सीधे अपने प्रभु की कन्या के पास गई जिसने देखते ही यही कहना आरम्भ किया। तरला ने कुछ हँसकर उत्तर दिया ''कल मैं अभिसार को गई थी। तुम्हारा दूतीपन करते करते मैंने भी अपने लिए एक नवीन नगर ढूँढ़ लिया''।
''तेरे मुँह में आग लगे। पहले यह बता कि तू क्या कर आई।''
तरला-करूँगी और क्या? अपने मन का नवीन नगर मिलने पर जो सब करते हैं वही मैंने भी किया। रात भर कुंज में रहकर सबेरे ऑंख मलती मलती घर आ रही हूँ। तुममें यही तो बुराई है कि सच सच बात कहने से चिढ़ जाती हो। मैं दासी हूँ तो क्या मेरी रक्त मांस की देह नहीं है, मेरे मन में उमंग नहीं है? भगवान् ने क्या प्रेम तुम्हीं लोगों के लिए बनाया है? रास्ते में कुँवर कन्हैया मिल गए, तब उनकी बात टाल कर कैसे चली आती? मेरा वस भी अभी कुछ अधिक नहीं है। बहुत हूँगी, तुमसे दो एक बरस बड़ी हूँगी। अभी न मेरे दाँत टूटे हैं, न बाल पके हैं।
युवती-अरे! तू मर जा। यमराज के यहाँ जा। न जाने यमराज क्यों कहाँ भूले हुए हैं? यदि तुझे नगर ही मिल गया तो फिर लौटकर आई क्या करने? मुझे खबर देने? तरला, अब इधर उधर की बात छोड़ ठीक ठीक कह कि क्या कर आई। मुझसे अब विलम्ब नहीं सहा जाता।
तरला-तुम्हारे ही लिए तो मैं लौट आई। बहुत उतावली न करो। चलो, भीतर चलो।
युवती तरला के कन्धो पर हाथ रखे घर के भीतर गई। एक कोठरी में पहुँचकर तरला ने उसके किवाड़ भीतर से बन्द कर लिए। युवती ने उसके गले में हाथ डालकर पूछा ''उनसे भेंट हुई?''
''हुई।''
युवती ने उसे हृदय से लगा लिया। तरला ने कहा ''क्या यही मेरा पुरस्कार है?'' युवती ने उत्तर दिया ''और पुरस्कार तेरे नगर आकर देगे।''
''मेरा नहीं, तुम्हारा।''
''मेरा क्यों, तेरा; जिसके लिए तू अभिसारिका होकर गई थी''।
''अरे वह तो एक बुङ्ढा बन्दर है। कल रात को उसके गले मे रस्सी डाल आई हूँ; किसी दिन जाकर नचाऊँगी।
''यह सब तो तेरी बात है। सच सच बता, उनसे भेंट हुई थी''?
''सच नहीं तो क्या झूठ''?
युवती ने तरला का हाथ पकड़ उसे खिड़की के पास बैठाया और आप भी वहीं जा बैठी। तरला धीरे धीरे गुनगुनाने लगी-
जोगी बने पिय पन्थ निहारत भूलि गई चतुराई।
युवती ने झुँझला कर तरला के गाल पर एक चपत जमाई। तरला हँस पड़ी और बोली ''और मैं क्या बताऊँ?'' युवती रूठ गई और मुँह फेरकर अलग जा बैठी। तरला मनाने लगी ''यूथिका देवी! इधर देखो। अच्छा लो, अब कहती हूँ''। युवती का मन चट से पिघल गया। उसने तरला की ओर मुँह किया। तरला कहने लगी ''आज सचमुच उनसे भेंट हुई। पहले तो मैंने उनके पिता के पास जाकर कहा कि मेरी सेठानीजी ने सेठ वसुमित्र के पास कुछ रत्न परीक्षा के लिए भेजे थे, वे रत्न कहाँ हैं। आप कुछ बता सकते हैं? बुङ्ढा चकपका उठा और बोला कि मैं कुछ भी नहीं जानता; वसुमित्र तो मुझसे कुछ भी नहीं कह गया है। बुङ्ढा एक प्रकार से स्वभाव का अच्छा है, उसके मन में छल कपट नहीं है। उसे मेरी बात पर विश्वास आ गया और उसने चट वसुमित्र का ठिकाना बता दिया। बुङ्ढा मेरे साथ एक आदमी किए देता था। मैंने देखा, यह तो भारी विपत्ति लगी। किसी प्रकार बुङ्ढे से अपना पल्ला छुड़ाकर मैं चली आई। पता तो जान ही चुकी थी; मैं चल पड़ी। नगर के बाहर एक पुराने विहार में वे रखे गए हैं। वे पूरे बन्दी तो नहीं हैं, पर किसी प्रकार भाग नहीं सकते। भिक्खु उन पर बराबर दृष्टि रखते हैं।
यूथिका-तूने उनसे कुछ कहा?
तरला-न जाने कितनी बातें कहीं। तुमने जो कुछ कहा था वह तो मैंने कहा ही; उसके ऊपर और दस बातें अपनी ओर से बढ़ाकर कह आई हूँ। मैंने कहा 'सेठजी! मैं सागरदत्ता की कन्या यूथिका की दूती होकर तुम्हारे पास आई हूँ। तुम्हारे
विरह में वह सूखती चली जा रही है, टहनी से टूटकर गिरना चाहती है। और यह भी कहा कि यदि तुम उससे मिलना चाहते हो तो चैत की चाँदनी में वर के वेश में-
युवती ऑंख निकाल कर बोली ''फिर!''
तरला-देखो, तुहारा रसज्ञान दिन दिन कम होता जा रहा है।
युवती-तरला! तेरे पैरों पड़ती हूँ, यह सब रहने दे। और क्या कहा, यह बता।
तरला-पहले जाते ही तो मैंने पूछा कि भैयाजी! क्या इसी प्रकार दिन काटोगे? उत्तर मिला 'जान तो ऐसा ही पड़ता है'।
युवती के दोनों ओठ कुछ फरक उठे। तरला कहने लगी ''पहले तो मैंने उन्हें देखकर पहचाना ही नहीं। पहचानती कैसे? न वे काले भँवर से कुंचित केश हैं, न वह वेश है। जिन्हें मैं वसुमित्र कहा करती थी, उनका सिर मुँड़ा हुआ है; अनशन करते करते चेहरा पीला पड़ गया है; शरीर काषाय वस्त्र से ढका है। नाम तक बदल गया है। अब वसुमित्र कहने से उनका पता नहीं लग सकता। अब उनका नाम है जिनानन्द।'' युवती तरला की गोद में मुँह छिपाकर सिसक सिसक रोने लगी। तरला उसे समझा बुझाकर फिर कहने लगी-
''तुम्हें जिस बात का डर था, वह बात नहीं है। वसुमित्र तुम्हारे साथ विवाह करना चाहते थे, इसलिए उनके पिता चारुमित्रा ने उन्हें संसार से अलग नहीं किया है। चारुमित्रा के मरने पर वसुमित्र ही उनकी अतुल सम्पत्ति के अधिकारी होते। इसलिए बौद्ध संन्यासियो ने उन्हें वसुमित्र को बौद्ध संन्यासी बना देने का उपदेश दिया। भिक्खु हो जाने पर फिर सम्पत्ति पर अधिकार नहीं रह जाता, सम्पत्ति बौद्ध संघ की हो जाती है। बौद्ध संघ की इसी सहायता के लिए ही चारुमित्रा ने अपने एकमात्र पुत्र का बलिदान कर दिया है।
यूथिका-तो अब उपाय?
तरला-उपाय वही भगवान् हैं। मठ से लौटती बार मैंने बड़ी बिनती से भगवान् को पुकारा था। जान पड़ता है, भगवान् ने पुकार सुन ली और मार्ग में ही उन्होंने एक उपाय खड़ा कर दिया। मठ में बहुत से दुष्ट भिक्खु हैं। उनमें एक अधोड़ या बूढ़ा भिक्खु है। वहाँ से लौटते लौटते दिन ढल गया और अधेरा हो गया। मैं जल्दी जल्दी बढ़ी चली आ रही थी। इतने में मुझे जान पड़ा कि कोई पीछे पीछे आ रहा है। पहले तो मैं बहुत डरी। कई बार अधेरे में छिप रही कि वह निकल जाय; पर उसने किसी प्रकार पीछा न छोड़ा। घड़ी भर तक मैं ऑंख मिचौली खेलती रही। अन्त में मैंने उसका मुँह देख पाया। देखते ही शरीर में गुदगुदी लगी, मैंने अपने भाग्य को सराहा। मठ का वही बुङ्ढा बन्दर मेरे पीछे लगा आ रहा था।
यूथिका-मुँहजला कहीं का!
तरला-तुम वसुमित्र के मुँह की ओर क्यों ताकती रह जाती थीं, क्यों तुम्हारी पलकें नहीं पड़ती थीं, अब जाकर मुझे समझ पड़ा है।
यूथिका ने कोई उत्तर न दिया, धीरे से तरला के गाल पर एक चपत जमाई। तरला कहने लगी ''तुम मेरी बात का विश्वास तो मानोगी नहीं, व्यर्थ क्यों अपने कुँवर कन्हैया का रूप वर्णन करके सिर खपाऊँ। तुम्हारी ही बात कह सकती हूँ। मैंने बाहर निकलकर नागर के साथ बातचीत की। प्रेम का पन्थ ही कुछ निराला है, तुम जानती ही हो। उस रसालाप का आनन्द मैं क्या कहूँ? सेठ के बेटे के मुँह में मुँह डालकर किस आनन्द से बातचीत करती थीं, है स्मरण? बस उसी से समझ लो। ऐसी सुहावनी चाँदनी में नागर कहीं नगरी को छोड़ सकता है? अग्नि के अभाव में चन्द्र को साक्षी बनाकर हम दोनों ने गान्धार्व विवाह कर लिया...''।
यूथिका-चल तू बड़ी दुष्ट है। तेरा यह सब रस रंग मुझे इस समय नहीं सुहाता है, मेरे सिर की सौगन्धा, सच सच कह क्या हुआ।
तरला-कहती हूँ न, भला यह कौन सी बात है कि तुम मेरी प्रेमकथा न सुनो। यही न कि तुम्हारा यौवन मुझसे अभी कुछ नया है, इससे क्या हुआ?
यूथिका चिढ़कर उठा ही चाहती थी कि तरला ने उसका हाथ थाम कर बैठाया और बोली ''सुनो, कहती हूँ, इतनी उतावली न करो। वह बुङ्ढा भिक्खु सचमुच मेरे लिए पागल होकर मेरे पीछे लगा था। ज्यों ही मैं ओट से निकल कर उसके सामने आई वह मेरे पैरों पर लोट गया। मैं भी उसे बढ़ावा देकर स्वर्ग का स्वप्न दिखाने लगी। मैं वसुमित्र से कह आई हूँ कि जिस प्रकार से होगा उस प्रकार से मैं तुम्हें छुड़ाऊँगी। रास्ते में सोचती आती थी कि कहने को तो मैंने कह दिया पर छुड़ाऊँगी किस उपाय से, इतने में भगवान ने एक उपाय खड़ा कर दिया। उस बुङ्ढे से मैं कह आई हूँ कि कल फिर मिलूँगी। उसकी सहायता से मैं मठ के भीतर जाऊँगी और वसुमित्र को छुड़ाऊँगी। किस उपाय से छुड़ाऊँगी यह अभी तक मैं नहीं स्थिर कर पाई हूँ। अब इस विषय में और कुछ बातचीत न करना। सेठानी जी पूछें तो कह देना कि तरला अपनी मौसी की लड़की के ब्याह में कहीं बाहर गई है, पाँच सात दिन में आवेगी। मेरी मौसेरी बहिन का नाम यूथिका है।''
यूथिका-तेरे मुँह में लगे आग!
तरला-अब इस बार आग नहीं, घी गुड़।
यही कह कर तरला हँसती हँसती चली गई।


अठारहवाँ परिच्छेद
देशानन्द का अभिसार

तरला अपने सेठ के घर से निकलकर राजपथ पर आई और तीन दूकानों पर से उसने पुरुषों के व्यवहार योग्य वस्त्र, उत्तरीय, उष्णीश और एक जोड़ा जूता मोल लिया। इन सबको अपने वस्त्र के नीचे छिपा कर वह अपने घर की ओर गई। नगर के बाहर तरला की मासी की एक झोपड़ी थी, यही तरला का घर था। वह प्राय: रात को सेठ ही के घर रहती थी। बीच बीच में कभी कभी अपने प्रभु से आज्ञा लेकर दो तीन दिन आकर मासी के घर भी रह जाती थी। मासी झगड़ालू थी, इससे वह अधिक दिन उसके यहाँ नहीं ठहरती थी। तरला की मासी में अनेक गुण थे। वह अन्धी, बहरी और झगड़ालू थी। घर में आकर उसने सब सामान एक कोठरी में छिपाकर रख दिया और खा पीकर सो रही। तीसरे पहर उठकर वह बड़ी सावधानी से अपने कार्य साधन के लिए चली। जाते समय वह अपनी मासी से कहती गई कि ''मैं सेठ से दो दिन की छुट्टी लेकर आई हूँ। बहुत रात बीते घर लौटूँगी। साथ में अपनी एक सखी को भी लाऊँगी''।
घर से निकलकर वह नगर के दक्षिण की ओर चली। दिन ढल चला था, सन्धया पहुचना ही चाहती थी। चलते हुए राजपथ को छोड़ तरला नगर के छोर पर पहुँची। उस दिन जिस रास्ते से होकर वह पुराने मठ से लौटी थी, वही रास्ता पकड़े धीरे धीरे चली। कुछ दूर जाने पर उसने देखा कि मार्ग से थोड़ा हटकर एक बावली के किनारे ताड़ के पेड़ों की आड़ में खड़ा कोई मनुष्य चलने वालों की ओर एकटक देख रहा है। उसे देखते ही तरला तालबन में घुसी और दबे पाँव धीरे धीरे उसके पीछे पहुँच उसने अपने दोनों हाथों से उसकी ऑंखें ढाँप लीं। वह व्यक्ति तरला का हाथ टटोलकर हँस पड़ा और बोला ''तरला! मैं पहचान गया। ऐसा कोमल हाथ पाटलिपुत्र में और हो किसका सकता है?'' तरला ने हँसकर हाथ हटा लिए और बोली ''बाबाजी! बावली के किनारे खड़े खड़े तुम क्या करते थे?''
देशानन्द-तृषित चकोर के समान तुम्हारे मुखचन्द्र का आसरा देखता था। अच्छा, अब चलो।
तरला-कहाँ चलोगे?
देशा -कुंज में।
तरला-बाबाजी! तुम तो संन्यासी हो। तुम्हारा कुंज कहाँ है?
देशा -क्यों? संघाराम में।
तरला-यह कैसी बात? संघाराम क्या कोई निर्जन स्थान है? अभी उस दिन मैंने कुछ नहीं तो पचीस मुण्डी तो देखे होंगे। वे सब तुम्हें पकड़कर तुम्हारे सिर का सनीचर उतारने लगेंगे।
देशा -संघाराम में निर्जन स्थान भी है। तुम चलो तो।
तरला-अच्छा, तुम आगे चलो।
देशानन्द आगे बढ़ा, तरला कुछ दूर पर उसके पीछे पीछे चली। उस समय सन्धया हो गई थी। नगर के बाहर के राजपथ पर कोई आता जाता नहीं दिखाई देता था। देशानन्द नित्य के अभ्यास के कारण अधेरे में ही चलते चलते उस पुराने मन्दिर के सामने पहुँच गया। वस्त्र के एक कोने से कुंजी निकाल कर उसने ताला खोला और मन्दिर का किवाड़ खोल कर तरला से कहा ''भीतर आओ''। तरला बड़े संकट में पड़ी? उसने देखा कि सचमुच निर्जन स्थान है। वह सोचने लगी कि अब क्या करूँ। किस प्रकार अपना कार्य सिद्ध करूँ। अथवा कम से कम इसके हाथ से छुटकारा पाऊँ। देशानन्द उसे विलम्ब करते देख अधीर हो उठा और बोला ''भीतर निकल आओ, भीतर। बाहर खड़ी खड़ी क्या करती हो? कहीं कोई देख लेगा तो ''। तरला कोई उपाय न देख सीढ़ी पर चढ़ी और चौखट पर जाकर बैठ गई। देशानन्द ने यह देख घबराकर कहा ''द्वार पर क्या बैठ गई? झट से भीतर निकल आओ, मैं किवाड़ बन्द करूँगा''। तरला ने धीरे धीरे कहा ''मुझे डर लगता है, दीया जलाओ''।
देशा -दीया जलाने से सब लोग देखेंगे।
तरला-यहाँ है कौन जो देखेगा?
देशानन्द अधेरे में दीया टटोलने लगा। तरला द्वार का कोना पकड़े बाहर खड़ी रही। इतने में कुछ दूर पर मनुष्य का कण्ठस्वर सुनाई पड़ा। तरला ने उसे सुनते ही धीरे से कहा ''बाबाजी, जल्दी आओ। देखो किसी के बोलने का शब्द सुनाई पड़ रहा है''।
देशानन्द झट द्वार पर आया और सिर निकालकर झाँकने लगा। अधेरे में दो मनुष्य मन्दिर की ओर आते दिखाई पड़े। देशानन्द ने और कुछ न कहकर तरला का हाथ पकड़ कर उसे भीतर खींच लिया और उसे प्रतिमा के पीछे ले जाकर वहीं आप भी छिप रहा।
दोनों मनुष्य मन्दिर के द्वार पर आ पहुँचे। उनमें से एक बोला ''चक्रसेन! मन्दिर का द्वार तो खुला दिखाई पड़ता है''। दूसरे व्यक्ति ने सीढ़ी पर चढ़कर देखा और कहा ''हाँ, द्वार तो सचमुच खुला पड़ा है। बन्ुईगुप्त! देशानन्द दिन पर दिन विक्षिप्त होता जाता है। अब तुरन्त किसी दूसरे को मन्दिर की रक्षा पर नियुक्त करो''।
दोनों ने मन्दिर के भीतर घुसकर किवाड़ बन्द कर लिए। बन्धुगुप्त ने दीयट पर से दीया उठाकर जलाया। दोनों आसन लेकर बैठ गए। प्रतिमा के पीछे अन्धकार रहने पर भी देशानन्द बेंत की तरह काँप रहा था। शक्रसेन ने पूछा ''संघस्थविर! तुम्हारा मुँह इतना सूखा हुआ क्यों है?''
बन्धुगुप्त-केवल यशोधावल के डर से।
शक्रसेन-यशोधावल से तुम इतना डरते क्यों हो?
बन्धु-क्या तुम सारी बातें भूल गए? यशोधावल मर गया, यह समझकर मैं इतने दिन निश्चिन्त था।
शक्र -पहले तो तुम मरने से इतना नहीं डरते थे।
बन्धु-मरने से तो मैं अब भी नहीं डरता हूँ और किसी के हाथ से मरना हो तो कोई चिन्ता नहीं, पर यशोधावल का नाम सुनते ही मैं थर्रा उठता हूँ। जिस समय उसे सब बातों का ठीक ठीक पता लगेगा, वह असह्य यन्त्रणा दे देकर मेरी हत्या करेगा-बड़ी साँसत से मेरे प्राण निकलेंगे। एक एक बोटी काट काटकर वक मेरा तड़पना देखेगा। सोचते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
शक्र -तुमने कीर्तिधावल को किस प्रकार मारा था?
बन्धु-यह क्या तुम जानते नहीं, जो पूछते हो?
शक्र -तुमने तो मुझसे कभी कहा नहीं।
बन्धु-ठीक है, मैंने किसी से भी नहीं कहा है। अच्छा सुनो, कहता हूँ।
बहुत देर तक चुप रहकर बन्धुगुप्त बोला ''न, वज्राचार्य्य! इस समय न कहूँगा। मुझे बहुत डर लग रहा है''। उसकी बात सुनकर शक्रसेन हँस पड़ा और बोला ''बन्धु! मैं देखता हूँ कि तुम्हारी बुध्दि लुप्त होती जा रही है। मन्दिर का द्वार बन्द है मन्दिर के भीतर की बात बाहर सुनाई नहीं पड़ सकती, सामने दीपक जल रहा है। तुम अपनी ऑंख से देख रहे हो कि मन्दिर में हमें, तुम्हें और इस देवप्रतिमा को छोड़ और कहीं कोई नहीं है। इतने पर भी तुम्हें इतना भय घेरे हुए है!''
बन्धु -''ठीक है, मैं व्यर्थ डर रहा हूँ। कीर्तिधावल जिस समय बंगदेश में कर संग्रह करने गए थे, उस समय वहाँ के संघ पर बड़ी विपत्ति थी। धावल वंशवाले सबके सब बड़े ही नीतिकुशल और युद्ध विद्याविशारद होते आए हैं। बार बार पराजित होकर जब विद्रोही प्रजा ने सन्धि की प्रार्थना की तब उसने बिना किसी प्रकार का दण्ड दिए उसे छोड़ दिया जिससे सब लोग उसके वश में हो गए। मैं उस समय बंगदेश में ही था। लाख चेष्टा करने पर भी मैं सद्धर्मियों (बौध्दों) को कीर्तिधावल के विरुद्ध न भड़का सका। उस समय मैंने विचार किया कि यशोधावल के पुत्र के वध के अतिरिक्त संघ की कार्यसिध्दि का और कोई उपाय नहीं है। बंगदेश का कोई मनुष्य उस पर हाथ छोड़ने को तैयार न हुआ। वह भी सदा रक्षकों से घिरा रहता था, उससे मुझे भी दाँव न मिलता था। बहुत दिनों पीछे मुझे पता लगा कि वह नित्य सन्धया को तारादेवी के मन्दिर में दर्शन करने जाता है। तब से मैं बराबर सन्धया को उसके पीछे पीछे जाता, पर उस पर आक्रमण न कर सकता। एक दिन देवयात्रा के समय सद्धर्मियों और ब्राह्मणों के बीच झगड़ा हुआ। उसी हुल्लड़ में मैंने दूर से छिप कर उस पर बाण चलाया। वह गिर पड़ा। उस भीड़भाड़ में किसी ने मुझको या उसको न देखा। वह तारा मन्दिर के सामने अचेत पड़ा था। अधेरे में जब उसके अनुचर उसे चारों ओर ढूँढ़ रहे थे, तब मैंने उसके पास जाकर देखा कि वह जीता है, और चोट ऐसी नहीं है कि वह मर जाय। मैंने झट देवी के हाथ का खंग लेकर उसके हाथ और पैर की नस काट दी। असह्य पीड़ा से वह छटपटाने लगा, घोर यन्त्रणा और रक्त से व्याकुल होकर वह क्षीण कण्ठ से बार बार जल माँगने लगा। उसका रुधिर देख देखकर मैं आनन्द से उन्मत्ता हो रहा था। उसकी बात पर मैंने कुछ भी धयान न दिया। इस प्रकार एक महाशत्रु का मैंने वध किया''।
इस भीषण हत्या की बात सुनकर तरला प्रतिमा के पीछे बैठी बैठी काँप उठी। बहुत देर तक चुप रह कर शक्रसेन ने कहा 'बन्धुगुप्त! तुम मनुष्य नहीं राक्षस हो। किसने बौद्धसंघ में लेकर तुम्हें धर्म की दीक्षा दी?''
बन्धु -वज्राचार्य्य! अब उस बात को मुँह पर न लाओ। बहुत दिनों तक मैं बराबर यही स्वप्न देखता कि तारा मन्दिर के सामने पड़ा वह बालक मृत्युयन्त्रणा से तड़प और चिल्ला रहा है और मैं रक्त देख देख कर नाच रहा हूँ। पर जब से सुना है कि यशोधावल फिर आया है, तब से इधर नित्य रात को देखता हूँ कि मैं इसी मन्दिर पर पड़ा मृत्यु की घोर यन्त्रणा से छटपटा रहा हूँ और रक्त से डूबी तलवार हाथ में लिए यशोधावल आनन्द से नाच रहा है।
आधो दण्ड तक तो दोनों चुपचाप रहे। फिर बन्धुगुप्त बोला 'वज्राचार्य्य! चलो संघाराम लौट चलें, मन्दिर का यह सन्नाटा देख मेरा जी दहल रहा है।'' दीया बुझा कर दोनों मन्दिर के बाहर निकले।
प्रतिमा की ओट में देशानन्द अब तक थरथर काँप रहा था। बन्धुगुप्त और शक्रसेन के चले जाने पर तरला बोली। ''बाबाजी! अब बाहर निकलो।'' हाथ पर सिर पटक कर देशानन्द बोला ''तरला, अब प्राण बचता नहीं दिखाई देता, तुम्हारे प्रेम में मेरे प्राण गए''।
तरला-तो क्या यहीं बैठे बैठे प्राण दोगे?
देशानन्द हताश होकर बोला ''चलो, चलता हूँ।'' दोनों मन्दिर के बाहर आ खड़े हुए। तरला ने देखा कि बुङ्ढा बेतरह डरा हुआ है। उसे ढाँढ़स बँधााने के लिए उसने कहा ''तुम इतना डरते क्यों हो? ये सब तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकते। तुम यहाँ से भाग चलो, तुम्हें मैं ऐसे स्थान में ले जाकर छिपाऊँगी जहाँ ये जन्म भर ढूँढ़ते मर जायँ तो भी न पा सकें।'' देशानन्द का जी कुछ ठिकाने आया। वह अधीर होकर कहने लगा ''तब फिर यहाँ ठहरने का अब काम नहीं, चलो भागें''। तरला ने कहा ''घबराओ न, मेरा थोड़ा सा काम है, उसे करती चलूँ।
देशा -तुम्हारा अब कौन सा काम है?
तरला-जिनानन्द से एक बार मिलकर कुछ कहना है।
देशा -जिनानन्द तो इस समय संघाराम में बन्द होगा। वहाँ तुम्हारा जाना ठीक न होगा। यहीं रहो, मैं अभी उसे बुलाए लाता हूँ''।
देशानन्द गया, तरला ने मन ही मन सोचा, चलो अच्छा हुआ। वह मन्दिर की ओट में अधेरा देख छिप रही। थोड़ी ही देर में जिनानन्द को लिए देशानन्द आ पहुँचा और तरला से बोला ''जो कुछ काम हो जल्दी निबटा लो। जिनानन्द देर तक बाहर रहेगा। तो भिक्खुओं को सन्देह होगा''।
तरला-बाबाजी! तुम थोड़ा मन्दिर के भीतर ही रहो। कुछ गुप्त बात है।
देशानन्द मन्दिर के भीतर गया। तरला ने किवाड़ बन्द कर दिए और जिनानन्द से कहा ''भैयाजी! मुझे पहचाना? मैं वही तरला हूँ। तुम्हें छुड़ा ले चलने के लिए आई हूँ। अब और कोई बात न पूछो। चुपचाप जो मैं कहती हूँ, करते चलो।''
जिनानन्द वा वसुमित्र मुँह ताकता रह गया। तरला ने मन्दिर के द्वार पर जाकर धीरे से पुकारा ''बाबाजी!'' उत्तर मिला ''क्या है।''
''अपने वस्त्र बाहर निकाल दो, मैं उन्हें पहनूँगी। यदि तुम भिक्खु के वेश में रात को बाहर निकलोगे तो लोग तुम्हें पहचान जायँगे''।
देशानन्द ने एक एक करके सब वस्त्र मन्दिर के बाहर फेंक दिए। तरला ने वसुमित्र से वेश बदल डालने के लिए कहा। वसुमित्र ने देशानन्द के वस्त्र पहन लिए और अपने वस्त्र उतारकर तरला के हाथ में दे दिए। तरला ने अधेरे में भिक्खु का वेश धारण किया और अपने वस्त्र मन्दिर के भीतर फेंक दिए और देशानन्द से उन्हें पहनने को कहा। देशानन्द ने मन्दिर के भीतर ही भीतर तरला के सब वस्त्र पहन लिए। मन्दिर के भीतर जाकर तरला ने अपने सब गहने भी उसे पहना दिए और कहा ''तुम यहीं चुपचाप बैठे रहो, मैं अभी आती हूँ।'' देशानन्द अधेरे में बैठा रहा। तरला ने बाहर आकर मन्दिर के किवाड़ लगा दिए और कुण्डी भी चढ़ा दी। यह सब कर चुकने पर वसुमित्र को लेकर वह चल खड़ी हुई और देखते देखते अधेरे में बहुत दूर निकल गई।

उन्नीसवाँ परिच्छेद
साम्राज्य का मन्त्रागृह

नए प्रासाद के अलिंद में खड़े महाप्रतीहार विनयसेन किसी चिन्ता में हैं। दोपहर का समय है, प्रासाद के ऑंगन में सन्नाटा है। दो एक द्वारपाल इधर उधर छाया में खड़े हैं। अलिंद के भीतर खम्भों के बीच दो चार दण्डधार भी दिखाई पड़ते हैं। एक पालकी ऑंगन में आई और अलिंद के सामने खड़ी हुई। कहारों ने पालकी रखी, उसमें से वृद्ध ऋषिकेशशर्म्मा उतरे। जान पड़ता है, विनयसेन उन्हीं का आसरा देख रहे थे, क्योंकि उन्हें देखते ही वे अलिंद से नीचे आए और प्रणाम करके बोले ''प्रभो! आपको बहुत विलम्ब हुआ। सम्राट और यशोधावलदेव आपके आसरे बहुत देर से बैठे हैं।'' वृद्ध ने क्या उत्तर दिया, विनयसेन नहीं समझे। वे उन्हें लिए सीधो प्रासाद के अन्त:पुर में घुसे। विनयसेन ज्यों ही अलिंद से हटे, एक दण्डधार आकर उनके स्थान पर खड़ा हो गया। चलते चलते ऋषिकेशशर्म्मा ने पूछा ''और सब लोग आ गए हैं?''
विनय -महाधार्म्माधयक्ष और महाबलाधयक्ष के अतिरिक्त और किसी को संवाद नहीं दिया गया है।
ऋषि -क्यों?
विनय -महाराज की इच्छा।
अन्त:पुर के द्वार पर जाकर विनयसेन ने एक परिचारिका को बुलाया और महामन्त्री को सम्राट के पास पहुँचाने की आज्ञा देकर वे लौट आए। अलिंद के सामने एक और पालकी आई थी जिस पर से उतर कर नारायणशर्म्मा दण्डधार से कुछ पूछ रहे थे। विनयसेन ने ज्योंही जाकर उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने पूछा ''क्यों भाई विनय! आज यह असमय की सभा कैसी? कुछ कारण ऐसे आ पड़े कि मुझे आने में बहुत विलम्ब हो गया''।
विनय -सम्राट और यशोधावलदेव दो घड़ी से बैठे आसरा देख रहे हैं और अब तक सब लोग नहीं आए। क्षण भर हुआ कि महामन्त्रीजी आए हैं और अब आप आ रहे हैं। महाराजाधिराज की आज्ञा से सब लोगों को संवाद नहीं दिया गया।
नारायण -और कौन कौन आवेंगे?
विनय -महाबलाधयक्ष हरिगुप्त।
नारायण -रामगुप्त भी नहीं?
विनय -मैं तो समझता हूँ नहीं, पर ठीक कह नहीं सकता।
नारायण-अच्छा, चलो।
दोनों प्रासाद के भीतर घुसे। इतने में एक भिखारी आकर द्वारपाल से पूछने लगा 'क्यों भाई! प्रासाद में आज भिक्षा मिलेगी?' द्वारपाल ने कहा ''नहीं।''
भिखारी-तो फिर कहाँ मिलेगी?
द्वार -आज न मिलेगी।
भिखारी इस उत्तर से कुछ भी उदास न होकर ऑंगन से होता हुआ धीरे धीरे चला गया। अलिंद के एक खम्भे की आड़ से एक दण्डधार उसे देख रहा था। उसने चट बाहर आकर पूछा ''वह कौन था और क्या कहता था?''
द्वार -एक भिखमंगा था, भिक्षा के लिए आया था।
दण्ड.-कुछ पूछता था?
द्वार -नहीं।
दण्ड.-देखने में वह भिक्खु ही सा लगता था।
द्वार -अच्छी तरह देखा नहीं।
दण्ड.-कोई आकर कुछ पूछे तो बहुत समझ बूझकर उत्तर देना।
द्वारपाल ने अभिवादन किया। इसी बीच में एक अश्वारोही ऑंगन में आ पहुँचा। उसे देखते ही एक दण्डधार जाकर विनयसेन को बुला लाया। द्वारपालों और दण्डधारों ने प्रणाम किया। विनयसेन अभिवादन करके घोड़े पर से उतरे हुए व्यक्ति को अन्त:पुर के भीतर ले गए।
इतने में एक द्वारपाल उसी भिखारी का हाथ पकड़े हुए अलिंद के नीचे आ खड़ा हुआ और अलिंद के एक द्वारपाल से पूछने लगा ''महाप्रतीहार जी कहाँ हैं?'' द्वारपाल बोला ''महाबलाधयक्ष के साथ अन्त:पुर में गए हैं''।
पहला द्वार -अच्छा किसी दण्डधार को बुला दो।
दूसरा द्वार -क्यों, क्या हुआ?
पहला द्वार -यह मनुष्य आड़ में छिप कर राज कर्मचारियों की गतिविधि देख रहा था, इसी से इसे पकड़ कर लाया हूँ।
एक दूसरा द्वारपाल जाकर पूर्वोक्त दण्डधार को बुला लाया। उसने आते ही पूछा ''यही न भिक्षा माँगने के लिए आया था?''
दूसरा द्वार -हाँ
दंड -इसे क्यों पकड़ लाए हो?
दूसरा द्वार -यह छिप कर महाधार्माधयक्ष और महाबलाधयक्ष की गतिविधि देख रहा था, इसी से इसे पकड़ रखा है।
दंड.-बहुत अच्छा किया। इसे बाँध रखो; मैं अभी जाकर महाप्रतीहार को संवाद देता हूँ।
दूसरे द्वारपाल ने भिखारी की पगड़ी खोलकर उसके हाथ पैर कसकर बाँधो। पगड़ी खुलते ही भिखारी की मुँड़ी खोपड़ी देख दण्डधार बोल उठा ''अरे! यह तो बौद्ध भिक्खु है! निश्चय यह कोई गुप्तचर है।'' यही कहता हुआ वह अन्त:पुर की ओर दौड़ा और थोड़ी देर में विनयसेन को लिए लौट आया। विनयसेन ने आते ही भिक्षुक से पूछा ''तू यहाँ क्या करने आया था?''
भिक्षुक-भिक्षा माँगने।
विनय -अन्त:पुर में भिक्षा कहाँ मिलती है?
भिक्षुक-बाबा! मैं परदेसी हूँ, नया नया आया हूँ। यहाँ की रीतिनीति नहीं जानता।
विनयसेन-तेरा सिर क्यों मुँड़ा है?
भिक्षुक-मुझे सँबलबाई का रोग है।
एक दंडधार ने आकर विनयसेन से कहा 'महाराज आपको स्मरण कर रहे हैं।' विनयसेन ने भिक्षुक को प्रासाद के कारागार में रखने की आज्ञा दी और द्वारपाल से कहा 'देखो! अब मेरी आज्ञा बिना कोई प्रासाद के ऑंगन तक भी न आने पावे।' इतना कह कर वे दण्डधार के साथ अन्त:पुर में गए।
अन्त:पुर के एक छोटे से घर में एक पलंग के ऊपर सम्राट महासेनगुप्त बैठे हैं। कुछ दूर पर एक आसन लेकर ऋषिकेशशर्म्मा और नारायणशर्म्मा बैठे हैं।
कोठरी के द्वार पर हरिगुप्त खड़े हैं। द्वार से कुछ दूर पर कई दण्डधार खड़े हैं। विनयसेन ने आकर हरिगुप्त से पूछा ''महाराजाधिराज ने मुझे स्मरण किया है?'' हरिगुप्त ने कहा ''हाँ, भीतर जाओ।'' विनयसेन ने कक्ष में जाकर अभिवादन किया। सम्राट ने उन्हें देख कर भी कुछ नहीं कहा। तब यशोधावल ने सम्राट को सम्बोधान करके कहा ''महाराजाधिराज! विनयसेन आ गए हैं। अब कुमार क्यों न बुलाए जायँ?'' वृद्ध सम्राट ने झुका हुआ सिर उठा कर कहा ''यशोधावलदेव! गणना का फल कभी झूठ नहीं हो सकता। तुम शशांक को अभी से साम्राज्य के कार्य में न फँसाओ।''
यशो -महाराजाधिराज! युवराज को राजकाज में दक्ष करने को छोड़ साम्राज्य की रक्षा का और कोई उपाय नहीं है। वृद्ध महामन्त्ीज ऋषिकेशशर्म्मा, पुराने धार्माधयक्ष नारायणशर्म्मा, युद्ध क्षेत्रा में दीर्घजीवन बितानेवाले महाबलाधयक्ष और मैं महाराजाधिराज के चरणों में यह बात कई बार निवेदन कर चुका। इस समय साम्राज्य की जो दुर्दशा हो रही है, वह महाराज से छिपी नहीं है। होराशास्त्रा की बातों को लेकर राज्य चलाना असम्भव है। यदि कुमार के हाथों से साम्राज्य का नाश ही विधाता को इष्ट होगा तो उसे कौन रोक सकता है? विधि का लिखा तो मिट नहीं सकता। किन्तु यही सोचकर हाथ पर हाथ रखे बैठे रहना, अपनी रक्षा का कुछ उपाय न करना कहाँ तक ठीक है? कहीं कुमार का राष्ट्रनीति न जानना ही आपके पीछे साम्राज्य के धवंस का प्रधान कारण न हो जाय।
सम्राट चुपचाप बैठे रहे। उन्हें निरुत्तार देख ऋषिकेशशर्म्मा धीरे धीरे बोले ''महाराजाधिराज! महानायक का प्रस्ताव बहुत उचित जान पड़ता है। हम सब लोग अब बुङ्ढे हुए। हम लोगों का समय अब हो गया। अब ऐसा कुछ करना चाहिए जिसमें महाराज के पीछे युवराज को राजनीति के घोर चक्र में पड़कर असहाय अवस्था में इधर उधार भटकना न पड़े। यदि विधााता की यही इच्छा होगी कि युवराज के हाथ से यह प्राचीन साम्राज्य नष्ट हो तो कोई कहाँ तक बचा सकेगा? किन्तु विधााता की यही इच्छा है, पहले से ऐसा मान बैठना बुध्दिमानी का काम नहीं है''। सम्राट फिर भी कुछ न बोले। यह देख नारायणशर्म्मा ने कहा ''महाराजाधिराज !'' उनका कण्ठस्वर कान में पड़ते ही सम्राट का धयान टूटा और वे बोले ''अच्छा, यशोधावल! तो फिर यही सही। विधााता का लिखा कौन मिटा सकता है?''
यशो -महाराजाधिराज ! विनयसेन आज्ञा के आसरे खड़े हैं।
सम्राट-महाप्रतीहार! तुम युवराज शशांक को चुपचाप यहाँ बुला लाओ।
विनयसेन प्रणाम करके बाहर निकले। सम्राट ने यशोधावलदेव से कहा ''यशोधावल! अच्छा अब बताओ, क्या क्या करना चाहते हो''।
यशो -मेरे चार प्रस्ताव हैं जिन्हें मैं महाराज की सेवा में पहले ही निवेदन कर चुका हूँ। इस समय साम्राज्य के संचालक यहाँ एकत्रा हैं, उनके सम्मुख भी उपस्थित कर देना चाहता हूँ।
सम्राट-तुम्हारे प्रस्तावों को मैं ही सुनाए देता हूँ। महानायक ने मेरे सामने चार प्रस्ताव रखे हैं। प्रथम-प्रान्त1 और कोष्ठ2 की रक्षा; द्वितीय-अश्वारोही, पदातिक और नौसेना का पुनर्विधाान; तृतीय-राजस्व और राजषष्ठ के संग्रह का उपाय; चतुर्थ-बंगदेश पर फिर अधिकार। ये चारों प्रस्ताव, मैं समझता हूँ, सबको मनोनीत होंगे। अब विचारने की बात है उपयुक्त कर्म्मचारियों का निर्वाचन और अर्थसंग्रह। राजकोष तो, आप लोग जानते ही हैं, शून्य हो रहा है। आवश्यक व्यय भी बड़ी कठिनता से निकलता है। रहे कर्म्मचारी, सो पुराने और नए दोनों अयोग्य हैं। उनमें न अनुभव है न कार्यतत्परता।
यशो -इन चारों प्रस्तावों के अनुसार जब तक व्यवस्था न होगी तब तक साम्राज्य की रक्षा असम्भव समझिए। प्रान्त और कोष्ठ की रक्षा के लिए सुशिक्षित सेना और बहुत सा धान चाहिए। सेना और अर्थसंग्रह के लिए राजस्व और राजषष्ठ संग्रह की सुव्यवस्था आवश्यक है।
सम्राट-यशोधावल! तुम्हारी एक बात इस समय मेरे लिए एक एक विकट समस्या है। मैं देखता हूँ कि मेरे किए इनमें से एक बात भी नहीं हो सकती।
यशो -महाराजाधिराज के निकट मैंने जिस प्रकार ये समस्याएँ उपस्थित कीं, उसी प्रकार इनकी पूर्ति का उपाय भी पहले से सोच रखा है। कुमार आ जायँ तो मैं निवेदन करूँ। तीन कार्य तो इस समय हो सकते हैं, पर उनके लिए बहुत धान की आवश्यकता है।
ऋषिकेश-यशोधावल! इसी अर्थाभाव के कारण ही तो हाथ पैर नहीं चल सकता। तुम इतना धान कहाँ से लाओगे?
हरिगुप्त द्वार पर खड़े थे। वे बोल उठे ''कुमार आ रहे हैं।'' विनयसेन युवराज शशांक को साथ लिए कोठरी में आए। युवराज अपने पिता के चरणों में प्रणाम करके और समादृत पुरुषों को प्रणाम करके खड़े रहे। सम्राट ने उन्हें बैठने की आज्ञा दी। यशोधावल ने बढ़कर उन्हें अपनी गोद में बैठा लिया।
सम्राट बोले ''यशोधावल! क्या कहते थे, अब कहो।'' महानायक कहने लगे ''युवराज! साम्राज्य की बड़ी दुर्दशा हो रही है। प्राचीनगुप्त साम्राज्य का दिन दिन पतन होता चला जा रहा है। उसकी रक्षा का यत्न सबका सब प्रकार सेर् कत्ताव्यहै। अब तक साम्राज्य की रक्षा का धयान छोड़कर सब लोग चुपचाप बैठे थे, आज चेतरहे हैं। इस प्राचीन साम्राज्य के साथ करोड़ों प्रजा का धान, मान और प्राण गुथा हुआ

1. प्रान्त = सीमा। सरहद।
2. कोष्ठ = प्राचीर से घिरे हुए नगर, दुर्ग आदि।
है। इसका धवंस होते ही पूर्व देश में महाप्रलय सी आ पड़ेगी। इधर सैकड़ों वर्ष से पाटलिपुत्र की ऐसी दशा कभी नहीं हुई थी। शकों के समय की दुर्दशा की बात जनपदवासी भूल गए हैं। हूणों के प्रबल प्रवाह में पड़ कर पुरुषपुर और कान्यकुब्ज धवस्त हो गए, किन्तु पाटलिपुत्र के दुर्ग प्राकार की छाया तक वे स्पर्श न कर सके। साम्राज्य का धवंस होते ही देश का सर्वनाश हो जायगा। तुम्हारे पिता वृद्ध हैं, तुम दोनों कुमार अभी बालक हो। पूर्व में सुप्रतिष्ठित वर्म्मा और पश्चिम में प्रभाकरवर्ध्दन घात लगाए केवल सम्राट की मृत्यु का आसरा देख रहे हैं। कोई उपाय न देख तुम्हारे पिता चुपचाप बैठ गए थे। पर क्या इस प्रकार हाथ पर हाथ रख कर बैठ रहना पुरुषोचित कार्य है? जो आत्मरक्षा में तत्पर न रह भाग्य के भरोसे पर बैठे रहते हैं मैं समझता हूँ, उनके समान मूर्ख संसार में कोई नहीं। यत्न के बिना साम्राज्य की क्या दशा हो रही है, थोड़ा सोचो तो। सीमा पर के जितने दुर्ग हैं, संस्कार और देखरेख के बिना निकम्मे हो रहे हैं। सेना और अर्थ के अभाव से वे शत्रु का अवरोधा करने योग्य नहीं रह गए हैं। नियमित रूप से राजस्व राजकोष में नहीं आ रहा है। भाूमि के जो साम्राज्य प्रतिष्ठित अधिाकारी थे वे अधिकारच्युत हो रहे हैं, उनके स्थान पर जो नए अधिाकारी बन बैठे हैं वे राजकर्म्मचारियों की आज्ञा पर धयान नहीं देते। फल यह है कि राजकोष शून्य हो रहा है। बहुत दिनों से इधर पाटलिपुत्र के दुर्गप्राकार और नगरप्राकार का संस्कार नहीं हुआ है। खाइयों में जल नहीं रहता है, कुछ दिनों में वे पटकर खेत हुआ चाहती हैं। इस समय यदि कहीं से कोई चढ़ आवे तो हम लोगों की पराजय निश्चय है।
''मैं सम्राट के पास पितृहीना लतिका के लिए अन्न की भिक्षा माँगने आया था। किन्तु मैंने आकर देखा कि जो अन्नदाता हैं, उन्हीं के यहाँ अन्न का अभाव हो रहा है। बहुत दिन पहले जब तुम्हारे पिताजी राजसिंहासन पर बैठे थे, तब एक बार मैंने साम्राज्य का कार्य चलाया था। आज फिर साम्राज्य की दुर्दशा देखकर कार्य का भार अपने ऊपर लेता हूँ। किन्तु हम सब लोग अब वृद्ध हुए, अधिक दिन इस संसार में न रहेंगे। अपने पिता के पीछे तुम्हीं इस सिंहासन पर बैठोगे। तुम्हारे ही ऊपर राज्यभार पड़ेगा; इसलिए तुम्हें अभी से राज्यकार्य की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। तुम्हारी सहायता से हम लोगों का परिश्रम भी बहुत कुछ हलका रहेगा। आज से तुम्हें राज्यकार्य का व्रत लेना पड़ेगा।''
महानायक की गोद में बैठे बैठे युवराज बोले 'यदि पिताजी आज्ञा देंगे तो क्यों न करूँगा?'' इतना कहकर वे पिता का मुँह ताकने लगे। सम्राट ने कुछ उदास होकर कहा ''शशांक! सबकी यही इच्छा है कि आज से तुम साम्राज्य के कार्य की दीक्षा लो। अत: बालक होकर भी तुम्हें यह भार अपने ऊपर लेना पड़ेगा। यशोधावल ही तुम्हें दीक्षित करेंगे, तुम सदा इन्हीं की आज्ञा में रहना।''
यशोधावल का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने फिर कहना आरम्भ किया-''साम्राज्य की रक्षा के लिए मैंने चार प्रस्ताव किए थे, प्रथम-राजस्व संग्रह की व्यवस्था; द्वितीय प्रान्त और कोष्ठ संरक्षण; तृतीय-अश्वारोही, पदातिक और नौसेना का पुनर्विधान और चतुर्थ-बंगदेश का अधिकार। जब पहले तीन कार्य सुसम्पन्न हो लेंगे तब चौथे में हाथ लग सकता है, उसके पहले नहीं। पर इन तीनों काय्र्यों के लिए बहुत धान चाहिए और राजकोष इस समय शून्य हो रहा है। अभी कार्य के आरम्भ कर देने भर के लिए जितने धान की आवश्यकता होगी, उतने के संग्रह का एक उपाय मैंने सोचा है। नगर और राज्य के भीतर जो बहुत से लखपती श्रेष्ठी (सेठ) और स्वार्थवाह (महाजन) हैं उनसे ऋण लेकर कार्य आरम्भ कर देना चाहिए, यही मेरी समझ मे ठीक होगा''।
ऋषिकेश-हम लोगों की इस समय जैसी अवस्था हो रही है, उसे देखते कोई कैसे ऋण देगा?
यशो -अवश्य देंगे। राज्य में श्रेष्ठियों का काम अर्थसंचय मात्रा है। पुरुष परम्परा से उन्हें इसका अभ्यास रहता है, इसी से राज्य की ओर से उन्हें इसके लिए पूरापूरा सुबीता कर दिया जाता है। अत: वे अपने धान का कुछ अंश राज्य की सेवा में देकर अपना परम गौरव समझेंगे। साम्राज्य की छत्राछाया के नीचे ही उनका पालन होता है, साम्राज्य की रक्षा के पीछे उनकी रक्षा है, साम्राज्य के नाश के आरम्भ के साथ ही साथ उनका सर्वनाश है, यह वे जानते हैं, और उन्हें इसकी सूचना भी दे दी जायगी। इस प्रकार कार्य आरम्भ कर देने भर के लिए धान उनसे सहज में निकल सकता है।
सम्राट-अच्छी बात है। तुमने आज से राज्य के कार्य का भार अपने ऊपर लिया है, इसकी सूचना साम्राज्य के सब कर्म्मचारियों को तो देनी होगी न?
यशो -नहीं महाराजाधिराज! इससे सारा काम बिगड़ जायगा। मैं चुपचाप महामन्त्रीजी की ओट में सब काय्र्यों की व्यवस्था करूँगा।
सम्राट-एवमस्तु।


बीसवाँ परिच्छेद
तरला और यशोधावल

तरला उसी रात वसुमित्र को लिए अपनी मासी के घर लौटी। द्वार पर खड़ी खड़ी वह घण्टों चिल्लाई, तब जाकर कहीं बुङ्ढी की ऑंख खुली। वह न जाने क्या क्या बड़बड़ाती हुई उठी और आकर किवाड़ खोला। तरला वसुमित्र को लिए घर के भीतर गई। वे दोनों किस वेश में थे, बुङ्ढी अधेरे में कुछ भी न देख सकी। वसुमित्र को एक कोठरी में सोने के लिए कह कर तरला अपनी मासी की खाट पर जाकर पड़ रही। बुढ़िया बहुत चिड़चिड़ाई। बुढ़ापे मे एक तो नींद यों ही नहीं आती, उस पर से यदि बाधा पड़ी तो फिर जल्दी नींद कहाँ? बुढ़िया बकने लगी ''तू न जाने कैसी है; इतनी रात को एक आदमी को साथ लाई और उसे एक कोठरी में ढकेल कर आप मेरे सिर पर आ पड़ी। अपने घर किसी को लाकर उसके साथ ऐसा ही करना होता है?'' तरला ने धीरे से कहा ''उस घर में मच्छड़ बहुत हैं, ऑंख नहीं लगती।'' बुङ्ढी यह सुनते ही झल्ला उठी और चिल्ला चिल्लाकर कहने लगी ''अब तू ऐसी बड़ी ठकुरानी हो गई कि मच्छड़ लगने से तुझे नींद नहीं आती? तब तू किसी के घर का कामधन्धा कैसे करती होगी? तेरे बाप दादा तेरे लिए राज न छोड़ गए हैं; जो तू पैर पर पैर रखे रानी बनी बैठी रहेगी।'' बुढ़िया मनमाना बर्राती रही, तरला चुपचाप खाट के किनारे पड़ी रही। पर बुढ़िया की बातों की चोट और चिन्ता से उसे रात भर नींद नहीं आई।
सूर्योदय के पहिले ही चिड़ियों की चहचह सुनकर तरला उठ बैठी और अपनी मासी को सोते देख धीरे से चारपाई के नीचे उतरी। रात भर पड़े उसने सोचा था कि वसुमित्र की रक्षा तभी हो सकती है जब सम्राट तक किसी प्रकार उसकी पहुँच हो जाय। यों तो दिन मे जब कभी भिक्खु उसे देख पावेंगे, तुरन्त पकड़ ले जायँगे। और किसी को कुछ बोलने का साहस न होगा। उसने मन ही मन स्थिर कर रखा था कि सबेरा होते ही उसे लेकर मैं प्रासाद में जाऊँगी और अन्त:पुर के द्वार पर बैठी रहूँगी। वहाँ से उसे कोई पकड़ कर नहीं ले जा सकेगा। तरला ने अपना भेस बदला और जो कपड़े वह उस दिन मोल लाई थी उन्हें वसुमित्र को देकर पहनने के लिए कहा। भिक्खुओं का जो पहिनावा था उसे घर के एक कोने में छिपा कर रख दिया। यह देख कि मासी अभी पड़ी सो रही है, वह दबे पाँव घर के बाहर निकली।
राजपथ पर अभी तक लोग आते जाते नहीं दिखाई देते थे। पूर्व की ओर प्रकाश की कुछ कुछ आभा दिखाई पड़ रही थी, पर मार्ग में अंधेरा ही था। दोनों जल्दी जल्दी चल कर प्रासाद के तोरण पर पहुँचे। तोरण पर अभी तक प्रकाश जल रहा था। चारों ओर प्रतीहार पड़े सो रहे थे। उनमें से केवल एक भाला टेककर खड़ा नींद में झूम रहा था। तरला चुपचाप उसकी बगल से होकर निकल गई और उसे कुछ आहट न मिली। तोरण के इधर उधार कई कुत्तो पड़े सो रहे थे। वे आदमी की आहट पाकर भाँव भाँव करने लगे। प्रतीहार जाग पड़े। उन्होंने सामने वसुमित्र को देख उसका हाथ पकड़ कर पूछा ''कहाँ जाता है?'' इतने में तरला प्रतीहार का पैर पकड़कर रो रो कर कहने लगी 'हम लोगों पर बड़ी भारी विपत्ति है, हम लोगों को जाने दो। मैं अपने भाई की प्राण रक्षा के लिए महाराजाधिराज के पास जा रही हूँ। दिन को जहाँ भिक्खु इसे देख पावेंगे पकड़ ले जायँगे और मार डालेंगे। हम लोग और कुछ न करेंगे, अन्त:पुर के द्वार पर जाकर बैठे रहेंगे। जब सम्राट बाहर निकलेंगे तब उनसे इसके प्राण की भिक्षा माँगूँगी''। बातचीत सुनकर और प्रतीहार भी जाग पड़े। उनमें से एक तरला के पास आकर बोला ''तुम लोगों को क्या हुआ है?''
तरला-यह मेरा भाई है। भिक्खु इसे जबरदस्ती पकड़ ले गए और सिर मूँड़ कर भिक्खु बना दिया। कल रात को यह किसी प्रकार उनके चंगुल से निकल कर भाग आया है। इसी से आज इसे लेकर महाराजाधिराज की शरण में आई हूँ। दिन को यदि इसे भिक्खु कहीं देख पावेंगे तो पकड़ ले जायँगे और मार डालेंगे। अब महाराज यदि शरण देंगे तभी इसकी रक्षा हो सकती है। नगर में किसी की सामर्थ्य नहीं है जो भिक्खुओं के विरुद्ध चूँ कर सके।
जो पुरुष खड़ा पूछ रहा था वह एक दण्डधार था। प्रतीहारों ने उससे पूछा 'तो इसे जाने दें?' दण्डधार ने तरला से पूछा ''तुम दोनों कहाँ जाओगे?''
तरला-बाबा! हम लोग कहीं न जायँगे, कुछ न करेंगे, केवल अन्त:पुर के द्वार पर खड़े रहेंगे। जब महाराज निकलेंगे तब उनसे अपना दु:ख निवेदन करेंगे।
यह कहकर तरला ऑंसू गिराने लगी। रमणी के, विशेषत: किसी सुन्दर रमणी के, कपोलों पर ऑंसू की बूँदें देख पत्थर भी पिघल सकता है, सामान्य प्रतीहारों और दण्डधारों के हृदय में यदि करुणा का उद्रेक हो तो आश्चर्य क्या? तरला ने उन्हें चुप देख रोने की मात्रा कुछ बढ़ा दी। दण्डधार का हृदय अन्त में पसीजा। वह बोला ''ये दोनों कोई बुरे आदमी नहीं जान पड़ते, इन्हें जाने दो''। प्रतीहार रास्ता छोड़कर अलग खड़ा हो गया। तरला वसुमित्र को लेकर प्रासाद के भीतर घुसी।
पहले तोरण के आगे विस्तृत ऑंगन पड़ता था जिसके उत्तर दूसरा तोरण था। जब वे दूसरे तोरण के सामने पहुँचे तब उजाला हो चुका था। दूसरे तोरण पर के प्रतीहारों ने उनकी बात सुनते ही रास्ता छोड़ दिया। यहाँ पर भी तरला को दो चार बूँद ऑंसू टपकाने पड़े थे। द्वितीय तोरण के आगे ही सभामण्डप पड़ता था। क्रमश: धर्माधिकरण, अस्त्रशाला आदि को पार करके तरला और श्रेष्ठिपुत्र तीसरे तोरण पर पहुँचे। वहाँ के प्रतीहारों ने उन्हें किसी प्रकार आगे न बढ़ने दिया, कहा कि सम्राट की आज्ञा नहीं है। अन्त में विवश होकर वे दोनों तोरण के पास बैठ रहे। धीरे धीरे दिन का उजाला फैल गया। ऑंगन के लोगों से भर गया। एक एक करके राजकर्म्मचारी आने लगे। दिन चढ़ते चढ़ते प्रतीहाररक्षी सेना का एक दल तोरण पर आ पहुँचा और रात के प्रतीहार अपने अपने घर गए। तरला को अब भीतर जाने की आज्ञा मिल गई। तीसरे तोरण के भीतर जाकर नए और पुराने प्रासाद पड़ते थे। पश्चिम की ओर तो पुराना प्रासाद था जो संस्कार के अभाव से जीर्ण हो रहा था, चारों ओर घास पात से ढक रहा था। उत्तर ओर गंगा के तट पर नया प्रासाद था। नए प्रासाद के अन्त:पुर के द्वार पर जाकर तरला के जी में जी आया, उसका उद्वेग दूर हुआ। यहाँ से अब कोई वसुमित्र को पकड़कर नहीं ले जा सकता। वह निश्चिन्त बैठकर सम्राट का आसरा देखने लगी।
तृतीय तोरण के बाहर का ऑंगन अब लोगों से खचाखच भर गया। नए और पुराने प्रासाद की निद्रा अभी नहीं टूटी थी। जो दो एक आदमी आते जाते दिखाई भी देते थे वे बहुत धीरे धीरे सँभाल सँभाल कर पैर रखते थे। तरला बैठी बैठी बहुतसी बातें सोच रही थी। सम्राट के सामने क्या कहकर शरण माँगूगी, यही अपने मन में बैठा रही थी। यदि कहीं सम्राट ने आश्रय न दिया तो फिर क्या होगा? वसुमित्र को लेकर मैं कहाँ जाऊँगी? सेठ की बेटी से क्या कहूँगी? इन्हीं सब बातों की चिन्ता से वह अधीर हो रही थी। रात भर की वह जागी हुई थी, इससे बीच बीच में उसे झपकी भी आ जाती थी। एक बार झपकी लेकर जो उसने सिर उठाया तो देखा कि पुराने प्रासाद के सामने कुछ दूर पर लम्बे डील का वृद्ध पुरुष इधर उधर टहल रहा है। उसने घबराकर वसुमित्र से पूछा ''सम्राट निकले क्या?'' वसुमित्र ने कहा ''अभी तो नहीं''। तरला ने फिर पूछा ''तो वह टहल कौन रहा है?'' वसुमित्र ने कहा ''मैं नहीं जानता''।
तरला अब चुपचाप बैठी न रह सकी। वह उठकर धीरे धीरे उस दीर्घकाय वृद्ध पुरुष की ओर बढ़ी और उसने दूर से उसे प्रणाम किया। वृद्ध ने पूछा ''तुम कौन हो? क्या चाहती हो?'' तरला सचमुच रो पड़ी और सिसकती सिसकती बोली ''धर्म्मावतार! आप कौन हैं, यह तो मैं नहीं जानती। पर यह देखती हूँ कि आप पुरुष हैं और निस्सन्देह कोई ऊँचे पदाधिकारी हैं। मैं बड़ी विपत्ति में पड़कर सम्राट की शरण में आई हूँ।'' सम्राट यदि रक्षा न करेंगे तो किसी प्रकार रक्षा नहीं हो सकती। मैं इस नगर के एक सेठ की दासी हूँ। मेरे सेठ की लड़की के साथ सेठ चारुमित्रा के एकमात्र पुत्र वसुमित्र के विवाह की बातचीत थी। चारुमित्रा बौद्ध हैं, इससे वे यह सम्बन्ध नहीं होने देना चाहते थे। मेरे सेठ वैष्णव हैं। चारुमित्रा ने द्वेष के वशीभूत होकर और बौद्ध भिक्खुओं की लम्बी चौड़ी बातों में आकर अपने एकमात्र पुत्र को बलि चढ़ा दिया। उन्होंने जन्म भर की संचित सारी सम्पत्ति बौद्ध संघ को दान करने का संकल्प करके अपने पुत्र को भिक्खु हो जाने के लिए विवश किया, क्योंकि भिक्खु हो जाने पर फिर सम्पत्ति पर अधिकार नहीं रह जाता। वसुमित्र के वियोग में अपने सेठ की कन्या को प्राण देते देख मैं उनकी खोज में निकली। नगर के बाहर एक बौद्ध मठ में वसुमित्र का पता पाकर मैं कल रात को उन्हें वहाँ से बड़े बड़े कौशल से निकाल लाई। पर अब कहीं शरण ढूँढ़ती हूँ तो नहीं पाती हूँ। मैं इस समय सम्राट के सामने खड़ी हूँ या और किसी राजपुरुष के, यह नहीं जानती; पर इतना श्रीमान् के मुखारविन्द को देख समझ रही हूँ कि श्रीमान् दया-माया-शून्य नहीं हैं, अपने चरण में स्थान देकर तीन तीन जीवों की रक्षा करेंगे। दिन में जहाँ कहीं भिक्खु लोग हम दोनों को देख पावेंगे, मठ में पकड़ लें जायँगे और मार डालेगे। नगर में अब भी बौध्दों की प्रधानता है। ऐसा कोई नहीं है जो हम लोगों को भिक्खुओं के हाथ से बचा सके।'' यह कहकर तरला रोने लगी और उसने उस पुरुष के दोनों पैर पकड़ लिए। उन्होंने उसे आश्वासन देकर कहा ''कुछ डर नहीं है, सेठ का लड़का कहाँ है?'' तरला ने हाथ उठाकर वसुमित्र की ओर दिखाया। उस पुरुष ने उसे निकट बुलाया। वसुमित्र ने सामने आकर झुककर प्रणाम किया। वृद्ध पुरुष ने तरला से पूछा ''तुमने इन्हें किस प्रकार संघराम के बाहर निकाला?'' तरला ज्यों ही उत्तर देने को थी कि किसी ने पीछे से पुकारा ''आर्य! पिताजी आपको स्मरण कर रहे हैं।'' उस दीर्घाकार पुरुष ने पीछे फिरकर देखा कि कुमार शशांक खड़े हैं। कुमार को देख वृद्ध ने पूछा ''सम्राट ने मुझे क्यों स्मरण किया है?''
शशांक-जान पड़ता है, नगरप्राकार के संस्कार के लिए।
दीर्घाकार पुरुष-नगरप्राकार के संस्कार से बढ़कर भारी बात इस समय सामने है। किसी दण्डधार को भेज दो।
कुमार का संकेत पाते ही तोरण से एक दण्डधार आकर सामने खड़ा हो गया। वृद्ध पुरुष ने कहा ''सम्राट की सेवा में जाकर निवेदन करो कि मैं एक काम में फँसा हूँ, थोड़ी देर में आऊँगा। कुमार! सामने जो ये स्त्री और पुरुष खड़े हैं दोनों तुम्हारी प्रजा हैं। ये दुर्बल हैं, प्रबल के अत्याचार से पीड़ित होकर सम्राट की शरण में आए हैं।'' फिर तरला की ओर फिर कर वे बोले ''ये युवराज शशांक हैं। तुमने जो जो बातें मुझसे कही हैं, सब इनके सामने निवेदन करो।'' परिचय पाते ही दोनों ने कुमार को साष्टांग प्रणाम किया और तरला ने जो जो बातें कही थीं, उन्हें वह फिर कुमार के सामने कह गई। वृद्ध पुरुष ने फिर पूछा ''तू किस प्रकार सेठ के लड़के को संघाराम से छुड़ा लाई?'' तरला ने देशानन्द के साथ प्रथम परिचय से लेकर उसके स्त्री वेश धारण तक की सब बातें एक एक करके कह सुनाईं। जिस समय उसनेर् कीत्तिधावल की मृत्यु का वृत्तान्त कहा, वृद्ध पुरुष का मुँह लाल हो गया और वह चौंककर बोल उठा ''क्या कहा? फिर तो कह।'' मन्दिर में मूर्ति के पीछे छिपकर तरला जो वृत्तान्त बन्धुगुप्त के मुँह से सुन चुकी थी, सब ज्यों का त्यों कह गई। उसकी बात पूरी होने पर वृद्ध पुरुष ने एक लम्बी साँस भरकर वसुमित्र से पूछा ''जो बात यह कहती है, सत्य है?''
वसुमित्र-सब सत्य है।
वृद्ध पुरुष-तुम लोगों को कोई भय नहीं; भिक्खु तुम लोगों का एक बाल तक बाँका नहीं कर सकते। हमारे साथ आओ, हम तुम्हें आश्रय के स्थान पर पहुँचाए देते हैं।
तरला कृतज्ञता प्रकट करती हुई वृद्ध के चरणों पर लोट पड़ी। वसुमित्र के मुँह से कोई बात न निकल सकी, वह रो पड़ा। वृद्ध ने कुमार की ओर दृष्टि फेरी, देखा तो वे क्रोध के मारे काँप रहे थे, अपने को किसी प्रकार सँभाल नहीं सकते थे; खड़े दाँत पीस रहे थे। वृद्ध पुरुष बोले ''कुमार!''
शशांक-आर्य!
वृद्ध पुरुष-अपने को सँभालो, कोई बात मुँह से न निकालो।
युवराज जब अपने मन का वेग न रोक सके तब रोने लगे। वृद्ध ने उन्हें अपनी गोद में खींचकर शान्त किया और कहा ''पुत्र! स्मरण रहेगा?'' कुमार ने कहा ''जब तक जीऊँगा तब तक स्मरण रहेगा।'' वृद्ध पुरुष के पीछे पीछे कुमार, वसुमित्र और तरला अन्त:पुर में गए।
बताने की आवश्यकता नहीं कि वृद्ध पुरुष महानायक यशोधावलदेव थे।

इक्कीसवाँ परिच्छेद
देशानन्द की दशा

जिस समय तरला वसुमित्र के मंगल के लिए अन्त:पुर के द्वार पर बैठी थी पाटलिपुत्र नगर के बाह्य प्रान्त के बौद्ध मन्दिर में एक और ही लीला हो रही थी। सबेरे उठकर भिक्खुओं ने देखा कि मन्दिर के किवाड़ बन्द हैं, बाहर से कुण्डी चढ़ी हुई है, और भीतर से न जाने कौन किवाड़ ठेल रहा है। यह अद्भुत व्यापार देख एक एक दो दो करके धीरे धीरे सैकड़ों भिक्खु आकर मन्दिर के द्वार पर इकट्ठे हो गए। देखते देखते संघस्थविर और वज्राचार्य्य भी वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखते ही प्रणाम करके भिक्खु लोगों ने मार्ग दे दिया। वज्राचार्य्य ने पूछा ''क्या हुआ?'' एक तरुण भिक्खु सामने आकर बोला ''प्रभो! मन्दिर का द्वार बाहर से बन्द है पर भीतर से न जाने कौन किवाड़ ठेल रहा है।'' बन्धुगुप्त और शक्रसेन ने किवाड़ के पास खड़े होकर देखा कि सचमुच भीतर से कोई किवाड़ खींच रहा है। शक्रसेन ने आज्ञा दी ''ताला तोड़कर किवाड़ खोल लो।'' आज्ञा होते ही ताला तोड़कर फेंक दिया गया। किवाड़ खुले-सबने विस्मित होकर देखा कि मन्दिर के भीतर आचार्य देशानन्द स्त्रीवेश धारण किए खड़े हैं।
शक्रसेन ने आगे बढ़कर पूछा ''देशानन्द! यह क्या हुआ?'' देशानन्द समझे था कि किवाड़ खुलते ही मैं भाग खड़ा हूँगा, किन्तु इतनी भीड़ सामने देख उसे भागने का साहस न हुआ। वह हताश होकर बैठ रहा। उसे चुपचाप देख बन्धुगुप्त ने आगे बढ़कर पूछा ''क्यों आचार्य्य! कुछ बोलते क्यों नहीं? यह वेश तुम कहाँ से लाए?'' देशानन्द को फिर भी चुप देख शक्रसेन पुकारने लगे ''देशानन्द, ओ देशानन्द!'' देशानन्द ने वस्त्र से सिर ढाँक स्त्री का सा महीन स्वर बनाकर कहा ''मैं तरला हूँ।'' इस बात पर क्रुद्ध होकर शक्रसेन ने सिर का वस्त्र हटा दिया और कहा ''तरला तेरी कौन है?'' देशानन्द रो पड़ा और बोला ''तरला ने मेरा सर्वनाश किया।'' इस पर शक्रसेन और भी क्रुद्ध होकर पूछने लगा ''तरला कौन?''
देशा -''तरला मेरी मेरी ''
शक्र -तुम्हारी कौन है, वही तो पूछता हूँ।
देशा -तरला मेरा सर्वस्व है।
इतने में पीछे से कोई बोल उठा ''प्रभो! जिनानन्द कल रात को आचार्य्य के साथ बाहर गया, और फिर लौटकर संघाराम में नहीं आया।'' बन्धुगुप्त घबरा कर बोले 'देखो तो जिनानन्द मन्दिर के भीतर तो नहीं है।'' कई भिक्खु जिनानन्द को ढूँढ़ने मन्दिर के भीतर घुस पड़े और एक एक कोना ढूँढ़ डाला। अन्त में सबने आकर कहा कि नए भिक्खु जिनानन्द का कहीं पता नहीं है। रोष और क्षोभ से संघस्थविर का मुँह लाल हो गया। वे देशानन्द का गला पकड़ कर पूछने लगे ''जिनानन्द को कहाँ रख छोड़ा है, बोल, नहीं तो अभी तेरे प्राण लेता हूँ।'' देशानन्द डर के मारे रोने लगा। यह देख वज्राचार्य्य ने संघस्थविर का हाथ थाम लिया और कहा 'संघस्थविर! तुम भी पागल हुए हो? इस प्रकार भय दिखाने से कहीं किसी बात का पता लग सकता है?'' बन्धुगुप्त कुछ ठण्ढे पड़कर पीछे हट गए। शक्रसेन ने भिक्खुओं को सम्बोधन करके कहा ''तुम लोग इसे पकड़कर संघाराम में ले चलो, हम लोग पीछे पीछे आते हैं।'' भिक्खु लोग स्त्री वेशधारी देशानन्द को लिए हँसी ठट्ठा करते मन्दिर के बाहर निकले। केवल शक्रसेन और बन्धुगुप्त खड़े रह गए।
सबके चले जाने पर बन्धुगुप्त ने कहा 'वज्राचार्य्य! बात क्या है कुछ समझे? जिनानन्द क्या सचमुच भाग गया। कितने कितने उपायों से चारुमित्रा को वश में करके उसके पुत्र को संघ में लिया था वह सब परिश्रम क्या व्यर्थ जायगा?''
शक्र -क्या हुआ कुछ भी समझ में नहीं आता। पर सेठ वसुमित्र भागकर हम लोगों के हाथ से जा कहाँ सकता है? जो कोई सुनेगा कि उसने प्रव्रज्या ग्रहण की है उसे अपने यहाँ ठहरने न देगा। पर देशानन्द ने क्या किया, किसने उसे स्त्री का वेश धारण कराके मन्दिर के भीतर बन्द कर दिया यह सब कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। देशानन्द पर इस समय बिगड़ना मत, नहीं तो उससे किसी बात का पता न चलेगा। जिनानन्द किस प्रकार भागा, देशानन्द का किसने स्त्री वेश बनाया, तरला उसकी कौन होती है इन सब बातों का पता उसी से लेना चाहिए।
बन्धु -वज्राचार्य्य! कल रात को जिस समय हम लोग यहाँ आए थे मन्दिर का द्वार खुला पड़ा था और देशानन्द मन्दिर के भीतर नहीं था।
शक्र -ठीक है। तुम जिस समयर् कीत्तिधावल की हत्या का वृत्तान्त कह रहे थे उस समय मन्दिर में कोई नहीं था। मन्दिर का द्वार भी खुला था।
बन्धु -तो क्या कोई छिपकर हम लोगों की बातें सुन रहा था।
शक्र-ऐसा तो नहीं जान पड़ता।
बन्धुगुप्त-वज्राचार्य्य! अब तो मुझे बड़ा भय हो रहा है, अब मैं यहाँ नहीं ठहर सकता। तुम यहाँ रहकर देशानन्द की बातों का पता लगाओ, मैं तो अब इसी समय बंगदेश का रास्ता लेता हूँ। यशोधावल इस समय नगर में है, यदि कहीं किसी ने हम लोगों की बातें सुनकर उससे कह दीं तो फिर रक्षा का कोई उपाय नहीं।
शक्र -बात तो बहुत कुछ ठीक कहते हो। यहाँ से हम लोगों का चला जाना ही ठीक है। यदि किसी प्रकार यशोधावल को अपने पुत्र की हत्या की बात विदित हो गई तो फिर वह बिना प्रतिशोधा लिए कभी नहीं रह सकता। पर तुम्हारे बंगदेश चले जाने से नहीं बनेगा, सब काम बिगड़ जायगा। चलो हम लोग देशानन्द को लेकर कपोतिक संघाराम में चले चलें। वहाँ बुद्ध घोष हम लोगों की पूरी रक्षा कर सकेंगे।
बन्धु -तो फिर चलो, अभी चलो।
शक्र -मन्दिर और संघाराम का कुछ प्रबन्धा करता चलूँ।
बन्धु -भगवान् का मन्दिर है, वे अपनी व्यवस्था आप कर लेंगे। तुम इसकी चिन्ता छोड़ो, बस अब यहाँ से चल ही दो।
शक्र -देखता हूँ कि तुम डर के मारे बावले हो रहे हो।
बन्धु -जिस समय मेरा सिर काट कर नगर तोरण के सामने लोहे की छड़ पर टाँगा जायगा उस समय बुद्ध, धार्म और संघ कोई रक्षा करने नहीं जायगा।
शक्र -अच्छा तो चलो, संघाराम से देशानन्द को साथ ले लें।
दोनों मन्दिर से निकल कर संघाराम की ओर चले। वहाँ जाकर देखा कि भिक्खुओं ने देशानन्द का स्त्री वेश उतारकर उसे एक स्थान पर बिठा रखा है। शक्रसेन ने देशानन्द से कहा 'आचार्य्य! तुम्हें कपोतिक संघाराम चलना होगा।'' देशानन्द ने रोते रोते पूछा ''क्यों?'' वज्राचार्य्य ने कहा ''कोई डर की बात नहीं है। महास्थविर ने भोजन का निमन्त्राण दिया है।' देशानन्द को विश्वास न पड़ा, वह छोटे बच्चे के समान चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा। उसने मन में समझ लिया कि मेरी हत्या करने के लिए ही मुझे कपोतिक संघाराम ले जा रहे हैं। शक्रसेन ने एक भिक्खु को बुलाकर कहा ''जिनेन्द्र बुध्दि?'' तुम यहाँ मन्दिर और संघाराम की रखवाली के लिए रहो, हम लोग एक विशेष कार्य से कपोतिक संघाराम जा रहे हैं। तुम दो भिक्खुओं के साथ देशानन्द को तुरन्त वहाँ भेज दो।'' बन्धुगुप्त और शक्रसेन संघाराम के बाहर निकले। भिक्खु लोग आचार्य्य के साथ बुरे बुरे शब्दों में हँसी ठट्ठा करने लगे। उसने किसी की बात का कोई उत्तर न दिया, चुपचाप रोने लगा और मन ही मन कहने लगा ''तरला। तेरे मन में यही था?''
आधी घड़ी भी न बीती थी कि सहò से अधिक अश्वारोहियों ने आकर मन्दिर और संघाराम को घेर लिया। वसुमित्र को साथ लेकर महाबलाधयक्ष हरिगुप्त और स्वयं यशोधावलदेव बन्धुगुप्त को ढूँढ़ने लगे। जब बन्धुगुप्त कहीं नहीं मिला तब वे लोग भिक्खुओं से पूछने लगे; पर किसी ने ठीक ठीक उत्तर न दिया। उसी समय वसुमित्र देशानन्द को देख बोल उठा ''प्रभो! इस व्यक्ति ने मेरे छुड़ाने में सहायता दी थी, इससे पूछने से कुछ पता चल सकता है।'' देशानन्द को ज्यों ही छोड़ देने का लोभ दिखाया गया उसने तुरन्त कह दिया कि बन्धुगुप्त कपोतिक संघाराम को गए हैं। क्षण काल का भी विलम्ब न कर यशोधावलदेव अश्वारोही सेना लेकर कपोतिक संघाराम की ओर दौड़ पड़े। हरिगुप्त की आज्ञा से दो सवार देशानन्द और जिनेन्द्रबुध्दि को बाँधकर प्रासाद की ओर ले चले।


बाईसवाँ परिच्छेद
बन्धुगुप्त की खोज

तरला के मुँह से कीर्तिधावल की हत्या का ब्योरा सुनकर यशोधावलदेव आपे से बाहर हो गए थे। बहुत कष्ट से अपने को किसी प्रकार सँभालकर वे वसुमित्र और तरला को प्रासाद के भीतर सम्राट के पास ले गए। वृद्ध सम्राट हत्या का पूरा ब्योरा सुनकर बालकों की तरह रोने लगे। महाबलाधयक्ष हरिगुप्त वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने और यशोधावलदेव ने मिलकर किसी प्रकार सम्राट को शान्त किया। उसके पीछे हरिगुप्त बोले ''जहाँ तक मैं समझता हूँ बन्धुगुप्त को अभी तक यह पता न होगा कि कीर्तिधावल की हत्या की बात फैल गई है। हम लोग यदि इसी समय अश्वारोही सेना लेकर पुराने मन्दिर और संघाराम को जा घेरें तो वह अवश्य पकड़ा जायगा। वह यदि भागा भी होगा तो कितनी दूर गया होगा, हम लोग उसे पकड़ लेंगे।'' सम्राट ने बड़े उत्साह के साथ इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और कहा ''तुम लोग सेठ के लड़के को साथ लेकर अभी जाओ, इसके द्वारा सब स्थानों का ठीक ठीक पता लगेगा।'' यशोधावलदेव ने वसुमित्र से पूछा ''तुम घोड़े पर चढ़ सकते हो?''
वसु -हाँ, मुझे घोड़े पर चढ़ने का अभ्यास है।
यशो -संघाराम में फिर लौटकर जाने में तुम डरोगे तो नहीं?
वसु -प्रभो! मैं अकेला, निरस्त्रा, असहाय और निरुपाय होकर तो संघाराम में रहता ही था, अब महाराजाधिराज की छत्राछाया के नीचे मुझे किस बात का भय है?
यशो -तुम शस्त्रा चला सकते हो?
वसु -मेरी परीक्षा कर ली जाय।
यशो -बहुत अच्छी बात है, आओ, तुम्हें मैं अस्त्रा देता हूँ।
वसुमित्र और यशोधावल प्रासाद के भीतर गए। तरला भय से व्याकुल होकर उसी स्थान पर खड़ी रही। उसकी ऑंखों में ऑंसू देख सम्राट ने उसे धीरज बँधाने के लिए कहा ''कोई डर की बात नहीं है। सेठ के लड़के के साथ एक सहस्त्रा अश्वारोही रहेंगे, कोई उसे बल से पकड़ नहीं सकता। फिर विनयसेन से उन्होंने कहा ''इसेले जाकर अन्त:पुर में महादेवी के यहाँ कर आओ।'' इतना धीरज बँधाने पर भी तरला के जी का खटका न मिटा। वह चुपचाप विनयसेन के साथ अन्त:पुर के भीतरगई।
दूसरे तोरण के बाहर सुसज्जित शरीर रक्षी अश्वारोही सेना आसरे में खड़ी थी। फाटक के सामने ही तीन अश्वपाल तीन सजे सजाए घोड़े लिए खड़े थे। बात क्या है कुछ न समझकर बहुत से लोग फाटक के बाहर खड़े आपस में बातचीत कर रहे थे। इतने ही में यशोधावलदेव युवराज शशांक और वसुमित्र को लिए फाटक के बाहर आए। उन्हें देख सैनिकों ने सामरिक प्रथा के अनुसार अभिवादन किया। तीनों पुरुष अश्वपालों से घोड़े लेकर उन पर सवार होकर तीसरे तोरण से होकर निकले। सह अश्वारोही सेना भी उनके साथ साथ चली। तोरण पर इकट्ठे लोगों ने चकित होकर देखा कि महाबलाधयक्ष हरिगुप्त स्वयं सेना का परिचालन कर रहे हैं। उन लोगों की समझ में कुछ भी नहीं आया कि सेना कहाँ जा रही है। वे खड़े ताकते रह गए।
अश्वारोही सेना लिए यशोधावलदेव ने उस पुराने बौद्ध मन्दिर में जाकर क्या किया यह पहले कहा जा चुका है। संघाराम में वसुमित्र को किसी ने नहीं पहचाना। बात यह थी कि प्रासाद से प्रस्थान करते समय यशोधावल ने उसे सिर से पैर तक लौहवर्म्म से मढ़ दिया था। उस पुराने मन्दिर में बन्धुगुप्त को न पाकर युवराज और यशोधावलदेव सेना सहित कपोतिक संघाराम की ओर चले। मन्दिर से दो कोस पर, नगर के बीचोबीच, कपोतिक संघाराम था। हरिगुप्त की आज्ञा से सेनादल ने बड़े वेग से नगर की ओर घोड़े फेंके। घोड़ों की टाप से उठी हुई धूल से नगर तटस्थराजपथ पर अधेरा सा छा गया।
संघाराम से निकलकर शक्रसेन और बन्धुगुप्त बहुत दूर न जा पाए थे कि वे एकबारगी चौंक पड़े। शक्रसेन ने कहा ''बन्धुगुप्त! पीछे बहुत से घोड़ों की टाप सी सुनाई देती है।'' बन्धुगुप्त ठिठककर खड़े हो गए। शब्द सुनकर दोनों ने जाना कि बहुत से अश्वारोही वेग से उनकी ओर बढ़ते चले आ रहे हैं। बन्धुगुप्त ने कहा ''हाँ! यही बात है?''
शक्रसेन-तो अब छिप रहना ही ठीक है। वसुमित्र ने भागकर क्या अनर्थ किया देखते हो न।
बन्धु -वज्राचार्य्य! जान पड़ता है यशोधावलदेव को मेरा पता लग गया है और वह मुझे पकड़ने आ रहा है, अब क्या होगा?
शक्र -भाई, घबराओ मत। बड़ी भारी विपत्ति है। धर्य्य छोड़ने से सचमुच मारे जाओगे और तुम्हारे साथ मुझे भी मरना होगा। वह जो सामने ताड़ों का जंगल सा दिखाई पड़ता है चलो उसी में छिप रहें। बढ़ो, जल्दी बढ़ो।
उस स्थान से थोड़ी दूर पर एक छोटे ताल के किनारे से होता हुआ राजपथ चला गया था। ताल के किनारे छोटे बड़े बहुत से ताड़ के पेड़ थे। दोनों दौड़ते हुए जाकर उन ताड़ों की ओट में छिप रहे। देखते देखते सवार पास पहुँच गए। सब के आगे सिन्धुदेश के एक काले घोड़े पर युवराज शशांक थे। उनका सारा शरीर स्वर्ण खचित लौहवर्म्म से आच्छादित था; चमकते हुए रुपहले शिरस्त्राण के बाहर इधर उधर सुनहरे घुँघराले बाल लहरा रहे थे। सर्य्य के प्रकाश में लौहवर्म्म आग की लपट के समान झलझला रहा था। उनके पीछे महानायक यशोधावलदेव थे, वे भी सिर से पैर तक लौहवर्म्म से ढके थे, पर धावलवंश का चिद्द ऊपर दिखाई देता था। उसे देखते ही बन्धुगुप्त काँप उठे। उन्होंने धीरे से पूछा ''जान पड़ता है यही यशोधावल है।'' शक्रसेन ने कहा ''हाँ''। यशोधावल के पीछे दो और वर्म्मावृत अश्वारोही थे जिन्हें बन्धुगुप्त और शक्रसेन न पहचान सके। ताल के किनारे पहुँचने पर उनमें से एक का शिरस्त्रााण हट गया। पेड़ की आड़ से बन्धुगुप्त और शक्रसेन ने भय और विस्मय के साथ देखा कि वह श्रेष्ठपुत्र वसुमित्र था। क्रमश: पाँच पाँच सवारों की अनेक पंक्तियाँ निकल गईं। वसुमित्र ने घोड़े को थोड़ा रोक टोप पहना और फिर वेग से घोड़ा छोड़ता हुआ वह सेनादल में जा मिला। पेड़ों की झुरमुट में बैठे ही बैठे बन्धुगुप्त बोले ''वज्राचार्य्य! अब क्या उपाय हो?''
शक्र-तुम तो इसी समय बंगदेश की ओर चल दो। पाटलिपुत्र में रहना अब तुम्हारे लिए अच्छा नहीं।
बन्धु -तुम क्या करोगे?
शक्र -मैं यही नगर में रहूँगा।
बन्धु -तो फिर मैं भी यहीं मरूँगा।
शक्र -क्यों?
बन्धु -मैं अकेला अब कहीं नहीं जा सकता।
शक्रसेन ने बन्धुगुप्त के मुँह की ओर देखा। वह एकबारगी पीला पड़ गया था। उन्होंने यह निश्चय करके कि अब इसे समझाना बुझाना व्यर्थ है, कहा ''तो फिर चलो, इसी समय चल दें।'' दोनों ताल वन से निकलकर गंगा के किनारे किनारे चले।
सबेरे ही से संघाराम के ऑंगन में बैठे महास्थविर बुद्धघोष गुप्तचरों से संवाद सुन रहे थे। गुप्तचर सबके सब बौद्ध भिक्खु थे। एक आचार्य्य महास्थविर के सामने खड़े होकर उन सबका परिचय दे रहे थे और महास्थविर चुपचाप धयान लगाए सब बातें सुनते जाते थे। एक गुप्तचर कह रहा था ''उस दिन मगध में सम्राट गंगा किनारे घाट पर बैठे थे, इसी बीच में यशोधावलदेव ने आकर राजकाज का सारा भार अपने ऊपर लेने की इच्छा प्रकट की। मैं एक पेड़ की आड़ में छिपा सब बातें सुनता रहा।'' गुप्तचर इसके आगे कुछ और कहा ही चाहता था कि संघाराम के तोरण पर से एक भिक्खु घबराया हुआ आया और कहने लगा ''प्रभो! बहुत से अश्वारोही वेग से संघाराम की ओर बढ़ते चले आ रहे हैं।'' सुनते ही महास्थविर ने कहा ''संघाराम का फाटक तुरन्त बन्द करो।'' भिक्खु आज्ञा पाकर तुरन्त फाटक पर लौट गया। महास्थविर उठकर फाटक की ओर चले। कपोतिक संघाराम एक प्राचीन गढ़ी के तुल्य था। लोग कहते थे कि वह महाराज अशोक का बनवाया हुआ था। नीचे ऊपर तक वह पत्थर का बना था। उसके चारो ओर बहुत ही दृढ़ पत्थर का ऊँचा परकोटा था। इस बृहत् संघाराम के भीतर पाँच सह से ऊपर भिक्खु सुख से रह सकते थे और उस समय भी एक हजार से अधिक भिक्खु उसमें निवास करते थे। संघाराम के चारों ओर चार फाटक (तोरण) थे जो सदा खुले रहते थे। विप्लव के समय कई बार नागरिकों ने संघाराम को तोड़ा था इससे लोहे के असंख्य कीलों से जड़े हुए भारी भारी किवाड़ तोरणों पर लगा दिए गए थे। जब तक कोई भारी आशंका नहीं होती थी महास्थविर किवाड़ों को बन्द करने की आज्ञा नहीं देते थे, क्योंकि नगरवासी बराबर संघाराम में दर्शन के लिए आते जाते रहते थे। महास्थविर ने फाटक पर जाकर देखा कि असंख्य अश्वारोही संघाराम को चारों ओर से घेरे हुए हैं। तोरण के सामने खड़े तीन वर्म्मधारी पुरुष उनकी व्यवस्था कर रहे हैं। एक अश्वारोही उनके घोड़ों को थामे कुछ दूर पर खड़ा है।
तोरण के ऊपर चढ़कर महास्थविर ने उन तीनो वर्म्मधारी पुरुषों को सम्बोधान करके कहा ''तुम लोग कौन हो? किसलिए देवता का अपमान कर रहे हो? किसकी आज्ञा से इतने अधिक अधारी अश्वारोही लेकर शान्तिसेवी निरीह भिक्खुओं के आश्रम को आ घेरा है?'' वर्म्मधारी पुरुषों में से एक ने उनकी ओर अच्छी तरह देखा और कहा ''तुम कौन हो?'' महास्थविर ने उत्तर दिया। ''भगवान् बुद्ध के आदेश से मैं इस संघाराम का प्रधान हूँ, मेरा नाम बुद्धघोष है।'' वर्म्मावृत पुरुष हँसकर बोला ''अच्छा, तब तो आप मुझे पहचान सकते हैं। मेरा नाम यशोधावल है। मैं रोहिताश्वगढ़ का हूँ। मैं इस साम्राज्य का महानायक हूँ। इस समय अपने पुत्रघातक की खोज में यहाँ आया हूँ। फाटक खोलने की आज्ञा दीजिए। हम लोग संघाराम में नरघाती बन्धुगुप्त को ढूँढेंगे।'' कोठे के ऊपर रहने पर भी यशोधावलदेव का नाम सुनते ही महास्थविर डर के मारे दहल गए, पर अपने को सँभालकर धीरे धीरे बोले ''महानायक! पाटलिपुत्र में ऐसा कौन होगा जिसने यशोधावल की विमल कीत्ति न सुनी हो? आप भ्रम में पड़कर ही इस कपोतिक संघाराम में हत्यारे का पता लगाने आए हैं। संघाराम संसार त्यागी निरीह भिक्खुओं का आश्रम है। यहाँ कभी नरघाती पिशाच को ठिकाना मिल सकता है? पुत्रहन्ता कहकर आपने जिनका नाम लिया है वे उत्तरापथ के बौद्धसंघ के एक स्थविर हैं। आर्यर्वत्त में बन्धुगुप्त का नाम कौन नहीं जानता? भला, ऐसे बोधिसत्तवपाद ऋषिकल्प पुरुष कभी नरघाती हो सकते हैं? आप कहते क्या हैं?''
यशोधावल-महास्थविर! आप मेरे इन पके बालों पर विश्वास कीजिए। बिना विशेष प्रमाण पाए यशोधावल देवस्थान में आकर उत्पात करने का साहस कभी नहीं कर सकता। बन्धुगुप्त यदि संघाराम में कहीं छिपा हो तो आप तुरन्त उसे हम लोगों के हाथ में दीजिए, हम लोग उसे सम्राट के सामने ले जायँगे।
बुद्धघोष-संघस्थविर बन्धुगुप्त ने आज इस संघाराम में पैर ही नहीं रखा। आप मेरी बात का विश्वास कीजिए। यदि उन्हीं की खोज में आप आए हों, और कोई बात न हो, तो जाकर कहीं और देखिए।
यशो -बन्धुगुप्त यदि संघाराम में नहीं है तो आपने फाटक क्यों बन्द कराए?
बुद्ध -अस्त्रधारी अश्वारोहियों के भय से।
यशो -हम लोग सम्राट की आज्ञा से बन्धुगुप्त का पता लगाने के लिए संघाराम में आए हैं। हम लोगों को भीतर जाने देने में आपको कुछ आपत्ति है?
बुद्ध -रत्ती भर भी नहीं।
यशो -तो फिर द्वार खोलने की आज्ञा दीजिए।
महास्थविर की आज्ञा से द्वार खोल दिया गया। पाँच सौ सवार लेकर यशोधावलदेव, युवराज शशांक और हरिगुप्त ने संघ के भीतर प्रवेश किया, शेष पाँच सौ सवार संघाराम को घेरे रहे। एक एक कोना ढूँढ़ने पर भी जब बन्धुगुप्त न मिला तब हताश होकर यशोधावलदेव प्रासाद को लौट गए।
उस समय गंगा की बीच धारा में एक छोटी सी नाव बड़े वेग से पूरब की ओर जा रही थी। उसमें बैठे बैठे शक्रसेन बन्धुगुप्त से कह रहे थे ''भाई! न जाने किस जन्म का पुण्य उदय हुआ कि आज रक्षा हुई।''


 
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