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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7

शशांक

 भाग - 5

दूसरा खंड
विकास


पहला परिच्छेद
स्कन्दगुप्त का गीत

पूर्वोक्त घटना हुए तीन वर्ष हो गए। इन तीन वर्षों के बीच मगध राज्य और पाटलिपुत्र में अनेक परिर्वतन हुए हैं। प्राचीन नगरी की शोभा मानो फिर लौट आई है। नगरप्राकार का पूर्ण संस्कार हो गया है, पुराने प्रासाद का जीर्णोध्दार हो गया है, राज्यकार्य सुव्यवस्थित रूप से चल रहा है, मगध साम्राज्य में फिर से नई शक्ति सी आ गई है, सीमा पर के सब दुर्ग सुदृढ़ और सुरक्षित हैं, साम्राज्य के दारिद्रग्रस्त होने से जो सेना पहले विशृंखल हो रही थी वह अब पूर्ण सुशिक्षित और सुसज्जित हो गई है, उसे अब वेतन के लिए या अन्न के लिए गौल्मिकों का घर नहीं घेरना पड़ता। घोर नींद में सोए हुए मगधवासी अब जाग गए हैं। उनके मन में अब आशा के अंकुर दिखाई पड़ने लगे हैं। जान पड़ता है चन्द्रगुप्त और समुद्रगुप्त का समय फिर आया चाहता है, फिर पाटलिपुत्र के नागरिकों की जयध्वनि गान्धार के तुषारधावल गिरिशृंगों के बीच सुनाई देगी, फिर मगध का गरुड़धवज वक्षु1 के तट पर दिखाई देगा, फिर केरल देश तक के शत्रुओं की स्त्रियाँ अकाल वैधव्य के सन्ताप से कोसेंगी। इस कायापलट के प्रत्यक्ष कारण हैं युवराज शशांक और परोक्ष कारण हैं वृद्ध महानायक यशोधावलदेव।
यशोधावलदेव फिर लौटकर रोहिताश्वगढ़ नहीं गए। वे तब से अपनी पौत्री को लेकर बराबर प्रासाद ही में रहते हैं। सम्राट महासेनगुप्त अब बहुत वृद्ध हो गए हैं, किन्तु अब तक वे दिन में एक बार सन्धया के समय सभामंडप में आ जातेहैं।

1. आक्सस नदी या सर दरिया जो मधय एशिया में है।
सभा का सारा कार्य युवराज शशांक और महानायक यशोधावलदेव करते हैं। शशांक के संगी साथी अब ऊँचे ऊँचे पदों पर हैं। नरसिंहदत्ता इस समय प्रधान सेनानायकों में हैं। माधववर्म्मा नौसेना के अधयक्ष हुए हैं और अनन्तवर्म्मा युवराज के शरीररक्षी हैं। युवराज किशोरावस्था पार कर अब युवावस्था को प्राप्त हुए हैं। कैशोर की चपलता अब उनमें नहीं है, अब युवराज धीर, शान्त और चिन्ताशील हैं।
यशोधावलदेव के तीनों प्रस्ताव तो कार्य रूप में परिणत हो चुके-दुर्ग सुदृढ़ हो गए, सेना सुशिक्षित हो गई और राजस्वसंग्रह की व्यवस्था हो गई। अब बंगदेश पर अधिकार करने का आयोजन हो रहा है। किस प्रकार उक्त तीनों बातों की व्यवस्था हुई इसे बहुत दिनों तक राजकर्म्मचारी भी न समझ सके। वृद्ध महानायक ने अपने और युवराज के हस्ताक्षर से एक सूचनापत्र राज्य के सब धनिकों, श्रेष्ठियों और भूस्वामियों के पास भेजकर उन्हें साम्राज्य की सहायता के लिए उत्साहित किया। साम्राज्य की रक्षा से अपनी रक्षा समझ सब ने प्रसन्न चित्ता से साम्राज्य को ऋण दिया। इस प्रकार बहुत सा धन एकत्र हो गया। उसी धन से उक्त तीन प्रस्ताव कार्य रूप में परिणत हुए। एक बड़ी सेना खड़ी करके यशोधावल ने चरणाद्रिगढ़ पर फिर से अधिकार किया। मण्डला और गौड़ पर साम्राज्य की सेना ने अधिकार स्थापित किया। सरयू नदी से लेकर करतोया नदी तक के विस्तृत प्रदेश के सामन्त सिर झुकाकर राजकर भेजने लगे। सब सीमाएँ सुरक्षित हो गई थीं। इससे तीन ही वर्ष में यशोधावलदेव ने सारा ऋण चुका दिया। पर बड़े बड़े नदों से घिरा हुआ बंगदेश अब तक अधीन नहीं हुआ था। बौध्दाचाय्र्यों की कुमन्त्रणा में पड़कर बंगदेशवासियों ने यशोधावलदेव के भेजे हुए सन्देशों पर कुछ भी धयान नहीं दिया। पूर्व में कामरूप के राजा औरपश्चिम में स्थाण्वीश्वर के राजा चकित नेत्रा से प्राचीन साम्राज्य में फिर से इस नई शक्ति के संचार को देख रहे थे। उन्हीं के संकेत से उद्धत बंगवासी राजस्व देना बन्द किए हुए थे। इसी से यशोधावलदेव बंगदेश पर चढ़ाई करने की तैयारी कर रहे हैं।
सन्धया के पहले गंगा किनारे घाट की सीढ़ी पर बैठे यशोधावलदेव अनेक बातों की चिन्ता कर रहे थे, कुछ दूर पर बालू के बीच चित्रा और लतिका घूम रही थीं। शशांक नीचे की सीढ़ी पर खड़े गंगा के जल पर पड़ती हुई डूबते सूर्य्य की लाल और सुनहरी किरणों की छटा देख रहे थे। घाट पर दो वृद्ध बैठे थे-एक तो लल्ल था, दूसरा यदुभट्ट। यशोधावल कहने लगे 'भट्ट! बहुत दिनों से तुम्हारा गीत नहीं सुना। युवावस्था में युद्ध यात्रा के समय तुम्हारा मांगलिक गीत सुनकर प्रासाद से प्रस्थान करता था। अब तक मेरे कानों में तुम्हारा वह मधुर स्वर गूँज रहा है। भट्ट! आज पचास वर्ष पर एक बार फिर गीत सुनाओ।'' वृद्ध भट्ट का चमड़ा झूल गया था, दाँत गिर गए थे और बाल सन हो गए थे। वह ऑंखों में ऑंसू भरकर बोला ''प्रभो! भट्टचारणों का अब वह दिन नहीं रहा। साम्राज्य में अब तो भट्टचारण कहीं ढूँढ़े नहीं मिलते। नागरिक अब मंगल गीत भूल गए। अब तो कवि लोग विधुवदनी नायिकाओ के चंचल नयनों का वर्णन करके उनका मनोरंजन करते हैं। अब युद्ध के गीत उन्हें नहीं अच्छे लगते। जब मेरे गाने के दिन थे तब तो मैं गाने ही नहीं पाता था। अब वे दिन चले गए; न तो शरीर में अब वह बल रहा, न अब वह गला है। अब मैं क्या गाऊँ?''
यशो -भट्ट! मैं भी तो अपनी युवावस्था कभी का खो चुका हूँ। तरुण कण्ठ अब मुझे अच्छा न लगेगा। मैं भी अपने जीवन अस्ताचल के निकट आ चुका हूँ। अहा! यौवन की स्मृति क्या मधुर होती है? युवावस्था के गीत एक बार फिर गाओ। गला अब वैसा नहीं है तो क्या हुआ? अमरकीर्ति तो अमर ही है, जब तक स्मृति रहेगी तब तक अमर रहेगी।
यदु -प्रभु, क्या गाऊँ?
वृद्ध गुनगुनाने लगा। लल्ल के कानों से अब सुनाई नहीं पड़ता था, वह भट्ट के पास सरक आया। सीढ़ी के नीचे से कुमार ने पूछा ''यदु दादा! कौन सा गीत गा रहे हो?''
यशो -शशांक! यहाँ आओ। भट्ट स्कन्दगुप्त के गीत गावेंगे।
युवराज इतना सुनते ही सीढ़ियों पर लम्बे लम्बे डग रखते हुए भट्ट के पास आ बैठे। वृद्ध भट्ट बहुत देर तक गुनगुनाता रहा, फिर उसने गाना आरम्भ किया। पहले तो गीत का स्वर अस्फुट रहा, फिर धीमा चलता रहा, देखते देखते घी पाकर उठी हुई लपट के समान वह एकबारगी गगनस्पर्श करने लगा।
''नागर वीरो! आलस्य छोड़ो, हूण फिर आते हैं। गान्धार की पर्वतमाला भेदकर हूणवाहिनी आर्यर्वत्त में फिर घुस आई है। नागर वीरो! व्यसन छोड़ो, वर्म्म धारण करो, हूण फिर आते हैं। अब स्कन्दगुप्त नहीं हैं, कुमार सदृश पराक्रमी कुमारगुप्त के कुमार अब नहीं हैं जो तुम्हारी रक्षा करेंगे।''
''दूर गंगा जमुना के संगम पर प्रतिष्ठान दुर्ग में सम्राट ने तुम्हारे लिए अपना शरीर त्याग किया। जिन्होंने वितस्ता के तट पर, शतद्रु के पार, मथुरा के रक्तवर्ण दुर्ग कोट पर ब्रह्मर्वत्त के भीषण युद्ध क्षेत्र में साम्राज्य का मान, ब्राह्मण और देवता का मान, आर्यर्वत्त का मान रखा था, अब वे भी नहीं हैं। स्कन्दगुप्त की सेना भीरु और कायर नहीं थी, कृतघ्न और विश्वासघातिनी नहीं थी जो लौटकर चली आती। उनके सहचर प्रभु के पास प्राण्ा रहते तब तक जमे रहे, अपने रक्त से कालिंदी की काली धारा उन्होंने लाल कर दी, वे घर लौटकर नहीं आए। प्रतिष्ठान के भीषण दुर्ग के सामने उन्होंने तोरण को रोका था। वे स्कन्दगुप्त के चिर सहचर थे, इस जीवन में अन्त तक साथ देकर परलोक में भी उन्होंने साथ दिया। हूण आते हैं, नागर वीरो! उठो, कटिबन्ध कसो, हूण आ रहे हैं।
''वृद्ध सम्राट तरुणी के रूप पर मुग्धा होकर जब अपना मंगल, राज्य का मंगल और प्रजा का मंगल भूल रहे थे उस समय आर्यर्वत्त की रक्षा किसने की? ब्राह्मणों और श्रमणों, स्त्रियों और बच्चों, मठों और मन्दिरों, नगरों और खेतों को किसने बचाया था, जानते हो? बालू की भीत उठाकर किसने महासमुद्र की बढ़ती हुई गति को रोका था? नगर वीरो! जानते हो? कुमार सदृश पराक्रमी स्कन्दगुप्त ने। नागर वीरो उठो, आलस्य छोड़ो, हूण आ रहे हैं।
''हूण आ रहे हैं, आत्मरक्षा के लिए कटिबद्ध हो, नहीं तो हूणों की प्रबल धारा में देश डूब जायगा। स्त्री, बालक और वृद्ध किसी की रक्षा न होगी। घर का झगड़ा छोड़ो, देवता और ब्राह्मण की रक्षा करो। घर के झगड़े से ही साम्राज्य की यह दशा हुई है। कुमारगुप्त यदि सचेत रहते तो साम्राज्य का धवंस न होता। वितस्ता के तट पर यदि सेना रहती तो हूण हार मानकर कुरुवर्ष लौट जाते। कटिबन्ध कसो, अपना कल्याण सोचो, हूण आ रहे हैं।
''जिन्होंने शतद्रु के किनारे केवल दस सह सेना लेकर सौ सह को रोका था, उनका नाम था स्कन्दगुप्त। जिन्होंने केवल एक सह सेना लेकर शौरसेन दुर्ग में लाखों को शिथिल कर दिया था, उनका नाम स्कन्दगुप्त था। कोशल में जिसकी पाँच सह सेना का मार्ग हूणराज न रोक सके उनका नाम स्कन्दगुप्त था। नगर वीरो! उठो, अपने नामों को चिरस्मरणीय करो, कोष से खड्ग खींचो, हूण आ रहेहैं।''
''ऑंख उठाकर देखो, सूर्य्य को छिपानेवाले मेघ छँटे दिखाई पड़ते हैं। वृद्ध सम्राट शरीर छोड़ चुके हैं। अब जिन गोविन्दगुप्त और स्कन्दगुप्त ने खंग धारण किया है उनके हाथ निर्बल नहीं हैं। राजश्री फिर लौटती दिखाई देती है। हूणधारा रुकी जान पड़ती है, ब्रह्मर्वत्त में गंगा की श्वेतसैकतराशि के बीच हूणसेना की श्वेत अस्थिराशि इसका आभास दे रही है, गोपाचल के नीचे नासिकाविहीन हूणों की मुण्डमाला इसका आभास दे रही है। उत्तरापथ में अब शान्ति स्थापित हो गई है, हूण देश से बाहर कर दिए गए हैं, स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठे हैं। हूण फिर आ रहे हैं, उत्तर कुरु की विस्तृत मरुभूमि हूणधारा में मग्न हो गई है, गान्धार की पर्वतमाला अब उस धारा को नहीं रोक सकती। हूण फिर आ रहे हैं, कोई भय नहीं, स्कन्दगुप्त ने फिर खंग उठाया है। उनका नाम सुनकर हूण काँप रहे हैं। पर स्कन्दगुप्त रहकर ही क्या करेंगे? उत्तरापथ में विश्वासघात है, आर्यर्वत्त में कृतघ्नता है। हूण फिर आ रहे हैं। नगर वीरो! अपनी रक्षा के लिए उठो, देवों और ब्राह्मणों, स्त्रियों और बच्चों, मठों और मन्दिरों, नगरों और खेतों की रक्षा करो''।
''विश्वासघात ही के कारण आर्यर्वत्त का बहुत दिनों से नाश होता आ रहा है। ऑंख उठा कर देखो, साम्राज्य का सर्वनाश हो गया; भीरु और कायर पुरगुप्त सिंहासन पर जा बैठा है। हूणों ने प्रतिष्ठान दुर्ग घेर लिया है, सम्राट सेना सहित दुर्ग के भीतर घिर गए हैं, इस इतने बड़े आर्यर्वत्त में ऐसा कोई नहीं है जो उनकी सहायता के लिए जाय, अग्नि की लपट आकाश में उठ रही है, हूणों ने सौराष्ट्र, र्आनत्ता, मालव, मत्स्य और मधयदेश में आग लगा दी है। छोटे से मगध देश का राजसिंहासन पाकर ही पुरुगुप्त सन्तुष्ट बैठा है। समुद्रगुप्त का विशाल साम्राज्य तिनके के समान बाढ़ में डूब गया। प्रतिष्ठान दुर्ग के भीतर दस सह सेना है, पर दो दिन से अधिक के लिए पीने का जल नहीं है। वृद्ध सम्राट जल लाने के लिए आप निकल खड़े हुए हैं, श्वेत बालू की भूमि रक्त से रंग गई है। हूण सेना ने उन पर आक्रमण किया है, अब रक्षा नहीं है। एक भारी बाण सम्राट की दाहिनी ऑंख में आकर लगा है। साम्राज्य की सेना स्वामी की रक्षा के लिए लौट पड़ी है; पर जिन्होंने बितस्ता और शतद्रु के तट पर, शौरसेन, ब्रह्मर्वत्त और आर्यर्वत्त में मान रखा था, वे अब लौटने के लिए नहीं हैं''।
बुङ्ढे का गला भर आया, ऑंसुओं से उसकी छाती भींग गई। उसके पास बैठा वृद्ध लल्ल भी चुपचाप ऑंसू गिरा रहा था। यशोधावल के नेत्रा भी गीले थे। सीढ़ी के नीचे चित्रा और लतिका पड़ी रो रही थी। गीत बन्द हुआ। आधो दण्ड तक किसी के मुँह से कोई बात न निकली। पूर्व की ओर अधेरा छा जाता था। देखते देखते चारों दिशाएँ अन्धकारमय हो चलीं। यशोधावल ने कुमार की ओर दृष्टि फेरी, देखा तो उनका मुखमंडल पीला पड़ गया है, दोनों ऑंखें डबडबाई हुई हैं। वे स्थिर दृष्टि से अन्धकार की ओर देख रहे हैं। यशोधावलदेव ने पुकारा पुत्र,-शशांक!'। कोई उत्तर नहीं। लल्ल घबरा कर उठा। उसने कुमार के कन्धो पर हाथ रखकर पुकारा ''कुमार!'' जैसे कोई नींद से जाग पड़े उसी प्रकार चौंक कर वे बोले 'क्या?' यशोधावलदेव ने पूछा 'पुत्र! क्या सोच रहे हो?'
शशांक-स्कन्दगुप्त की बात! आप जिस दिन पाटलिपुत्र आए थे-
यशो -उस दिन क्या हुआ था?
शशांक-मैंने तो सोचा था कि किसी से न कहूँगा। उस दिन एक व्यक्ति ने मुझे स्कन्दगुप्त की बात सुनाई थी।
यशो -वह कौन था?
शशांक-शक्रसेन।
लल्ल-यह कैसा सर्वनाश! उसने तुम्हें कैसे देख पाया?
शशांक-तुम उस दिन कहीं चले गए थे। मैंने तुम्हें जब कहीं न देखा तब माधव और चित्रा के साथ बालू में जाकर खेलने लगा। ठीक है न चित्रा?
चित्रा उठकर सीढ़ी के ऊपर आ बैठी थी। उसने सिर हिलाकर कहा 'हाँ।' यशोधावलदेव ने पूछा 'शक्रसेन ने तुम से क्या कहा था?'
शशांक-उसकी सब बातों का तो मुझे स्मरण नहीं है, केवल उसका यही कहना अब तक नहीं भूला है कि शशांक, तुम कभी सुखी न रहोगे। तुम जिस पर विश्वास करोगे वही विश्वासघात करेगा। तुम बिना किसी संगी साथी के अकेले विदेश में मरोगे।
यशो -पुत्र! वज्राचार्य्य शक्रसेन बौद्धसंघ का एक प्रधान नेता और साम्राज्य का घोर शत्रु है। तुम कभी उसकी बात का विश्वास न करना और न कभी उसके पास जाना।
लल्ल-प्रभो! पर वज्राचार्य्य ज्योतिष की विद्या में पारदर्शी प्रसिद्ध है।
यशो -लल्ल! स्वार्थ के लिए बौद्ध जो न करें सो थोड़ा है।
देखते देखते घोर अन्धकार चारों ओर छा गया। दीपक हाथ में लिए एक परिचारक ने कहा 'युवराज! महाराजाधिराज आपको स्मरण कर रहे हैं।' सब लोग घाट पर से उठ कर प्रासाद के भीतर गए।

दूसरा परिच्छेद
जलविहार

चारों ओर नदियों से घिरे हुए बंगदेश पर चढ़ाई करने के लिए अश्वारोही या पदातिक सेना की अपेक्षा नौसेना अधिक आवश्यक है, यशोधावलदेव इस बात को जानते थे। उन्होंने जल सेना खड़ी करने का भार अपने ऊपर लिया। मगध देश मे ऐसी नदियाँ बहुत कम थीं जिनमें सब ऋतुओं में नावें चल सकती हों, इससे मगध देश के नाविकों को लेकर पूर्व की ओर चढ़ाई करने में सफलता की कम आशा थी। यह सोचकर यशोधावलदेव ने गौड़ देश से माझी बुलवा कर नौसेना खड़ी की। गौड़ देश के काले और नाटे नाटे माझियों की नाव चलाने में फुरती देख पाटलिपुत्र के नागरिक दंग रह जाते थे। प्रतिदिन सर्य्योदय से लेकर सर्य्यास्त तक नई नई नौसेना गंगा की धारा में नाव चलाने और युद्ध करने का अभ्यास करती थी। मगधवासी नागरिक तीर पर खड़े होकर उनकी अद्भुत क्रीड़ा और शिक्षा देखते थे। शशांक, यशोधावलदेव, अनन्तवर्म्मा, नरसिंहगुप्त और लल्ल तीसरे पहर नौसेना की शिक्षा में योग देते थे। कभी कभी सम्राट भी रनिवास की स्त्रियों को साथ लेकर नौका पर भ्रमण करने निकलते थे। कुमार भी कभी कभी अपने संगी साथियों के साथ चित्रा, लतिका और गंगा को लेकर चाँदनी रात में जलविहार करने जाते थे। उस समय नाव पर तरुण कोमल कण्ठ के साथ मधुर संगीत ध्वनि सुनाई देती थी। कुमार की बालसंगिनी भी अब तरुणावस्था में पैर रख चुकी थी। महादेवी अब उन्हें बिना किसी सहचरी के अकेले नहीं जाने देती थीं। प्राय: तरला उनके साथ रहती थी। इन कई वर्षों के बीच तरला प्रासाद के अन्त:पुर में सबको अत्यन्त प्रिय हो गई थी। घर के काम काज में चतुर, आलस्य शून्य, हँसमुख तरुणी तरला दासियों में प्रधान हो गई थी। वसुमित्र को छुड़ाने के पीछे यशोधावल ने उसे अपने सेठ के घर न जाने दिया। तब से बराबर वह प्रासाद ही में बनी हुई है। श्रेष्ठि पुत्र वसुमित्र, संघाराम से छूटने पर बराबर तन मन से यशोधावलदेव की सेवा में ही रहते हैं। इस समय वे नौसेना के एक प्रधान अधयक्ष हैं। यशोधावल के आदेशानुसार जलविहार के समय कुमार वसुमित्र को सदा साथ रखते थे।
वर्षा के अन्त में गंगा बढ़कर करारों से जा लगी है। नावों का बेड़ा तैयार हो चुका है। नौसेना सुशिक्षित हो चुकी है। हेमन्त लगते ही बंगदेश पर चढ़ाई होगी। सामान्य सैनिक से लेकर यशोधावल तक उत्सुक होकर जाड़े का आसरा देख रहे थे। वर्षा काल में तो सारा बंगदेश जल में डूबकर महासमुद्र हो जाता था, शरद ऋतु में जल के हट जाने पर सारी भूमि कीचड़ और दलदल से ढकी रहती थी। इससे हेमन्त के पहले युद्ध के लिए उस ओर की यात्रा नहीं हो सकती थी। बंगदेश की इसी चढ़ाई पर ही साम्राज्य का भविष्य बहुत कुछ निर्भर था। यही सोचकर यशोधावलदेव बहुत उत्सुक होते हुए भी उपयुक्त समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
शरत् के प्रारम्भ में शुक्लपक्ष की चाँदनी रात में कुमार शशांक अपने संगी साथियों सहित जलविहार के लिए निकले हैं। नरसिंहदत्ता, अनन्तवर्म्मा, माधवगुप्त, चित्रा, लतिका और गंगा के साथ कुमार एक नौका पर चन्द्रातप (चँदवा) के नीचे बैठे हैं। चन्द्रातप के बाहर तरला, लल्ल और वसुमित्र बैठे हैं। सैकड़ों गौड़ माझी एक स्वर से गीत गाते हुए नावें छोड़ रहे हैं। उज्ज्वल निखरी हुई चाँदनी चारों ओर छिटककर आभा सी डाल रही है। गंगा की विस्तृत धारा के हिलोरों के बीच चन्द्रमा की उज्ज्वल निर्मल किरनें पड़कर झलझला रही हैं। कुमार की नाव धारा में पड़कर तीर की तरह सन सन बढ़ती चली जाती थी। चित्रा का मुँह उदास था, वह प्रसन्न नहीं थी। सब लोग मिलकर उसे प्रसन्न करने की चेष्टा कर रहे हैं, पर कुछ फल नहीं हो रहा है। चित्रा ने सुन पाया था कि युद्ध में जाने से मनुष्य मारना पड़ता है।
कुमार भी जायँगे, इसकी चिन्ता में वह दिन दिन सूखती जाती थी, पर पीछे यह सुनकर कि वे शीघ्र लौट आवेंगे उसका जी कुछ ठिकाने आ गया था। पर आज न जाने किसने उससे कह दिया कि युद्ध में मनुष्य मारे जाते हैं, रक्त से धारती लाल हो जाती है। जो युद्ध यात्रा में जाता है वह लौटने की आशा छोड़कर जाता है। यही बात सुनकर वह रोती रोती कुमार के पैरों के नीचे लोट पड़ी और कहने लगी, मैं तुम्हें युद्ध में न जाने दूँगी। तरुणावस्था लगने पर भी चित्रा अभी बालिका ही थी। उसकी बाल्यावस्था का भोलापन और चपलता जरा भी नहीं दूर हुई थी। उसकी इस बात पर सब लोग हँस रहे थे, इसी से वह रूठकर मुँह फुलाए बैठी थी।
कुछ काल तक इस प्रकार चुप रहकर वह एकबारगी पूछ उठी ''तुम लोग क्यों युद्ध करने जाओगे?'' अनन्तवर्म्मा अवस्था में छोटे होने पर भी गम्भीर स्वभाव के थे। उन्होंने धीरे से उत्तर दिया ''देश जीतने।''
चित्रा-देश जीतकर क्या होगा?
शशांक-देश जीतने से राज बढ़ेगा, राजकोष में धन आवेगा।
चित्रा-मनुष्य भी तो मरेंगे?
शशांक-दो तीन सौ मरेंगे।
चित्रा-जो लोग मरेंगे उन्हें पीड़ा न होगी?
शशांक-होगी।
चित्रा-तब फिर उन लोगों को क्यों मारोगे?
शशांक-वे सम्राट की प्रजा होकर उनकी आज्ञा नहीं मानते इसीलिए मारे जायँगे।
चित्रा-क्या ऐसे मनुष्य नहीं हैं जो सम्राट की प्रजा नहीं हैं?
शशांक-हैं क्यों नहीं, बहुत से हैं।
चित्रा-तो उन्हें भी समझ लो कि सम्राट की प्रजा नहीं हैं।
शशांक-यह नहीं हो सकता। चित्रा! विद्रोही प्रजा का शासन करना राज धर्म है। विद्रोह का दमन न करने से राजा का मान नहीं रह जाता। आर्य यशोधावलदेव कहते हैं कि आत्मसम्मानहीन राजशक्ति कभी स्थिर नहीं रह सकती।
चित्रा अब और आगे न चल सकी, मुँह लटकाए बैठी रही। उसे देख नरसिंह बोल उठे 'अच्छा होता, इन्हीं लोगों के हाथ में राज्य का भार सौंप दिया जाता। हम लोग झंझट से बचते।' सब लोग हँस पड़े, पर चित्रा ने कुछ धयान न दिया। वह गहरी चिन्ता में डूबी हुई थी। वह सोच रही थी कि जिसे इतना बड़ा राज्य है वह राज्य और बढ़ाना क्यों चाहता है? राज्य लेने में यदि इतने मनुष्यों को मारना पड़ता है तो राज्य लेने की आवश्यकता ही क्या है? इतनी नरहत्या, इतना रक्तपात करके नया राज्य लेने की आवश्यकता क्या है, यह बात चित्रा की समझ में न आई।
अकस्मात् न जाने कौनसी बात सोचकर वह एकबारगी चिल्ला उठी। 'कुमार ने घबराकर पूछा क्या हुआ ?' चित्रा की दोनों ऑंखें डबडबाई हुई थीं। रुँधो हुए कण्ठ से वह बोल उठी 'तुम जिन लोगों को मारोगे वे भी तुम लोगों को मारेंगे?'
शशांक-मारेगे ही।
चित्रा-तुम्हारी ओर के लोग भी मरेंगे?
शशांक-न जाने कितने लोग मरेंगे, कोई ठिकाना है। शत्रु के अस्त्र शस्त्र की चोट से न जाने कितने सैनिक लँगड़े लूले हो जायँगे।
चित्रा-तो फिर तुम लोग क्यों जाते हो?
शशांक-क्यों जाते हैं, यह बतलाना बड़ा कठिन है। सनातन से ऐसी प्रथा मनुष्य समाज में चली आ रही है, यही समझ कर जायँगे। सैकड़ों मारे जायँगे, हजारों लँगड़े लूले होगे, पीड़ा से तड़पेंगे, न जाने कितने लोग अनाथ हो जायँगे, इतना सब होने पर भी हम लोग जायँगे।
लतिका अब तक चुपचाप बैठी थी। वह बोल उठी 'कुमार! तुम लोग जिन्हें मारने जाओगे वे लोग भी तुम्हें मारेंगे। क्या तुम लोगों को भी वे मार सकेंगे?'
शशांक-सुयोग पावेंगे तो अवश्य मारेंगे, क्या छोड़ देंगे?
लतिका और कुछ न बोली। चित्रा का रोने का रंग ढंग दिखाई पड़ा। कुमार की बात सुन लतिका की गोद में मुँह छिपाकर चित्रा सिसकने लगी। कुमार और नरसिंह उसे शान्त करने लगे। इस बातचीत में जलविहार का सारा प्रमोद भूल गया, मृत्यु के प्रसंग ने सारा आनन्द किरकिरा कर दिया। बहुत देर तक यों ही चुपचाप रहकर कुमार ने माझियों को नगर लौट चलने की आज्ञा दी। नाव लौट पड़ी।
धार में पड़कर नाव बहुत दूर निकल आई थी, चढ़ाव पर प्रासाद तक आने में उसे बहुत विलम्ब लगा। चित्रा के प्रश्न पर कुमार के मन में एक नया भाव उठ रहा था। इसके पहिले उनके मन में और कभी मृत्यु का धयान नहीं आया था। युद्ध में मृत्यु की भी सम्भावना है, यह बात अब तक किसी ने उनके सामने नहीं कही थी। कुमार सोचते थे कि युद्ध में जय और पराजय दोनों सम्भव है, यह बात तो आर्य यशोधावलदेव कई बार कह चुके हैं; पर जय और पराजय के साथ मृत्यु की सम्भावना भी लगी हुई है, यह उन्होंने कभी नहीं कहा। मरने पर तो सब बातों का अन्त हो जाता है। जीवन की जितनी आशाएँ हैं उन सबकी जीवन के साथ ही इतिश्री हो जाती है। जो लोग युद्ध में जायँगे, हो सकता है कि उनमें से अधिकतर लोग लौट कर न आवें, उनके आत्मीय और घर के प्राणी उन्हें फिर न देखें। युद्ध क्षेत्र में न जाने कितने असहाय अवस्था में प्राण छोड़ेंगे, बहुतों को एक घूँट जल भी मरते समय न मिलेगा।
सम्भव है मुझे भी मरना पड़े। मैं भी घायल होकर गिरू और सेना दल मुझे छोड़कर चल दें। मैं तड़पता पड़ा रहूँ और विजयोल्लास में उन्मत्ता सह अश्वारोहियों के घोड़ों की टापों से टकरा कर मेरी देह खण्ड खण्ड हो जाय, कोई मुझे उठाने के लिए न आवे। फिर तो यह सुन्दर पाटलिपुत्र नगर सब दिन के लिए छूट जायगा, बाल्यकाल के क्रीड़ा स्थल, बन्ु बान्धाव, इष्ट-मित्र देखने को न मिलेंगे। मृत्यु कितनी भयावनी है! कुमार की दोनों ऑंखों में जल आ गया, पर किसी ने देखा नहीं।
एक पहर रात बीते नाव पाटलिपुत्र पहुँची। गंगा द्वार पर पहुँचते पहुँचते दो दण्ड और बीत गए। गंगा द्वार के चारों ओर बहुत सी नावें लगी थीं। ये सब नावें बंगदेश की चढ़ाई के लिए ही बनी थीं। नावों के जमघट से थोड़ी दूर पर एक नाव लंगर डाले खड़ी थी। उस पर से एक प्रतीहार ने पुकार कर पूछा 'किसकी नाव है?' वसुमित्र ने चिल्लाकर उत्तर दिया-'साम्राज्य की नौका है।'
प्रतीहार-नाव पर युवराज हैं?
वसुमित्र-हाँ।
प्रतीहार-युवराज से निवेदन करो कि स्वयं महाराजाधिराज और महानायक यशोधावलदेव उन्हें कई बार पूछ चुके।
युवराज अब तक चिन्ता में ही डूबे हुए थे। वे सोच रहे थे कि यदि कहीं युद्ध में मैं मारा गया तो वृद्ध पिता की क्या दशा होगी? साम्राज्य की क्या दशा होगी? जिन्होंने मेरे ही भरोसे पर इस बुढ़ापे में राजकाज का जंजाल अपने ऊपर ओढ़ा है, उन पितृतुल्य यशोधावलदेव का क्या होगा? और भी लोग हैं-माता हैं, वे भी मुझे देखकर ही जीती हैं। चित्रा -
वसुमित्र धीरे से आकर कुमार के सामने खड़ा हो गया, पर उन्हें चिन्ता में देख कोई बात न कह सका। अनन्तवर्म्मा ने पूछा ''क्यों सेठ! प्रतीहार ने क्या कहा है?''
वसुमित्र-कहा है कि सम्राट और महानायक कुमार को पूछ रहे हैं।
कुमार मानो सोते से जाग पड़े। उन्होंने पूछा ''क्या हुआ?''
वसुमित्र-प्रभो! गंगाद्वार के प्रतीहार ने कहा है कि स्वयं महाराजाधिराज और महानायक यशोधावलदेव कुमार को कई बार पूछ चुके।
अब नाव गंगाद्वार के घाट की सीढ़ियों पर आ लगी। कुमार नाव पर से उतरे। नरसिंहदत्त बोले ''चित्रा रोते रोते सो गई है।'' पीछे से माधववर्म्मा बोल उठे ''लतिका भी सो गई है।'' इसी बीच में लल्ल कहने लगा ''कुमार! महाराजाधिराज बुला रहे हैं। आप चलें, हम लोग पीछे से आते हैं।''
कुमार धीरे धीरे प्रासाद के भीतर गए।

तीसरा परिच्छेद
दु:संवाद

नए प्रासाद के भीतर एक सुसज्जित भवन में सम्राट महासेनगुप्त, महानायक यशोधावलदेव, महामन्त्री ऋषिकेशशर्म्मा, प्रधान विचारपति नारायणशर्म्मा, महाबलाधयक्ष हरिगुप्त, महानायक रामगुप्त प्रभृति प्रधान राजपुरुष बैठे हैं। सब उदास और चिन्तामग्न हैं। महाप्रतीहार विनयसेन चुपचाप भवन के द्वार पर खड़े हैं। वे भी उदास हैं। कुछ दूर पर दण्डधार और प्रतीहार चुपचाप खड़े हैं। अन्त:पुर से रह रहकर थोड़ा थोड़ा रोने का शब्द भी आता है। कुमार गंगाद्वार से एक दण्डधार के साथ अन्त:पुर में आए। दुश्चिन्ता से वे सन्न हो गए थे, रोने का शब्द सुनकर वे और भी दहल उठे। दण्डधार से उन्होंने पूछा ''सब लोग रोते क्यों हैं? क्या हुआ, कुछ कह सकते हो''? दण्डधार बोला ''प्रभो! मैं कुछ भी नहीं जानता''।
उन्हें दूर ही से देख विनयसेन भीतर जाकर बोले 'महाराजाधिराज! युवराज आ रहे हैं।'' सम्राट हाथ पर सिर रखे रखे ही बोले ''भीतर बुलाओ''। विनयसेन बाहर निकलकर कुमार को लिए फिर भीतर आए। कुमार पिता के चरणों में प्रणाम करके खड़े रहे। सम्राट के मुँह से कोई शब्द नहीं निकला। यह देख ऋषिकेशशर्म्मा बोले ''महाराजाधिराज! युवराज आए हैं''। सम्राट फिर भी चुप। कुमार उनकी उदासी और मौन का कुछ कारण न समझ भौंचक खड़े रहे। अन्त में यशोधावलदेव ने सम्राट को सम्बोधान करके कहा ''महाराजाधिराज! युवराज शशांक बहुत देर से खड़े हैं, उन्हें बैठने की आज्ञा हो''। सम्राट सिर नीचा किए ही बोले ''पुत्र! बैठ जाओ। हम लोगों का सर्वनाश हो गया। स्थाण्वीश्वर में तुम्हारी बुआ का परलोकवास हो गया''। समाचार सुनकर युवराज सिर नीचा करके बैठ रहे। बहुत बिलम्ब के उपरान्त यशोधावलदेव बोले ''महाराजाधिराज! अब शोक में समय खोना व्यर्थ है। पाटलिपुत्र से थानेश्वर कई दिनों का मार्ग है, पर थानेश्वर की सेना चरणाद्रिगढ़ के पास ही है। प्रभाकरवर्ध्दन यदि साम्राज्य पर आक्रमण करना चाहें तो बहुत सहज में कर सकते हैं। महाराजाधिराज अब शोक परित्याग कीजिए, साम्राज्य की रक्षा का उपाय कीजिए''। सम्राट ने कहा ''यशोधावल! साम्राज्य की रक्षा का तो मुझे कोई उपाय नहीं सूझता थानेश्वर के साथ युद्ध करने में तो पराजय निश्चय है। बालक और वृद्ध कभी लड़ कर विजयी हो सकते हैं?''
यशो -उपाय न सूझने पर भी कोई उपाय करना ही होगा। जो अपनी रक्षा का उपाय नहीं करता वह आत्मघाती है।
सम्राट-महादेवी की मृत्यु के पहले मैं ही क्यों न मर गया? अपनी ऑंखों से साम्राज्य का धवंस तो न देखता।
रामगुप्त-प्रभो! विलाप करने का कुछ फल नहीं। इस समय जहाँ तक शीघ्र हो सके, चरणाद्रिदुर्ग में सेना भेजनी चाहिए।
यशो -रामगुप्त! सेना कै दिन में चरणाद्रिदुर्ग पहुँचेगी?
राम -अश्वारोही सेना तो तीन दिन में पहुँच सकती है, किन्तु पदातिक सेना दस दिन से कम में नहीं पहुँच सकती।
सम्राट-चरणाद्रिगढ़ कितनी सेना भेजना चाहते हो?
यशो -कम से कम दस सह; पाँच सह पदातिक और पाँच सह अश्वारोही।
सम्राट-चरणाद्रिगढ़ गंगा के तट पर है, गढ़ की रक्षा के लिए कुछ नौसेना भी चाहिए।
यशो -बंगदेश की चढ़ाई के लिए जो नौसेना इकट्ठी की गई है, उसका कुछ अंश भेज देने से कोई विशेष हानि न होगी।
सम्राट-शिविर में कितनी सेना होगी?
हरिगुप्त-पन्द्रह सह अश्वारोही, पचीस सह पदातिक और पाँच सह नौसेना।
सम्राट-नई नावें कितनी होंगी?
हरिगुप्त-पाँच सौ से कुछ कम। इनमें से दो सौ के माँझी तो मगधदेश के ही हैं।
सम्राट-बंगदेश में अश्वारोही सेना ले जाना तो व्यर्थ होगा, अत: चरणाद्रिदुर्ग पर दस सह अश्वारोही भेज देने से इधर कोई हानि न होगी। पर नौसेना अधिक नहीं भेजी जा सकती, क्योंकि बंगदेश में नौसेना ही लड़ेगी।
यशो -प्रभो! कम से कम दो सह अश्वारोही बंगदेश में भी रहने चाहिए क्योंकि कामरूप के राजा क्या करेंगे, नहीं कहा जा सकता।
सम्राट-तो ठीक है। आठ सह अश्वारोही, पाँच सह पदातिक और दो सौ नावें इसी समय चरणाद्रिगढ़ भेज दी जायँ। मगध के माँझियों को बंगयुद्ध में ले जाना व्यर्थ ही होगा। अच्छा, चरणाद्रिगढ़ सेना लेकर जायगा कौन।
यशो -हरिगुप्त और रामगुप्त को छोड़ और तीसरा कौन जा सकता है? पर दो में से किसी एक का पाटलिपुत्र में रहना भी आवश्यक है।
सम्राट-अच्छा तो हरिगुप्त को ही भेजो।
हरिगुप्त-महाराजाधिराज की आज्ञा सिर माथों पर है। पर मैं इस बात का बहुत आसरा लगाए था कि एक बार फिर यशोधावलदेव के अधीन युद्ध यात्रा करूँगा।
यशो -हरिगुप्त! तुम्हारी यह आशा थोड़े ही दिनों में पूरी होगी।
हरि -किस प्रकार, प्रभो!
यशो -अभी कई युद्ध यात्राएँ होंगी।
सम्राट-हरिगुप्त! यशोधावल ठीक कहते हैं। बहुत शीघ्र इतनी अधिक चढ़ाइयाँ करनी पड़ेंगी कि उपयुक्त सेनापति ढूँढ़े न मिलेंगे।
वृद्ध ऋषिकेशशर्म्मा अब तक चुपचाप बैठे थे। बुढ़ापे के कारण उन्हें अब बहुत कम सुनाई पड़ता था। जो बातें हुईं, अधिकांश उन्होंने नहीं सुनीं। वे बैठे बैठे बोल उठे ''यशोधावल! तुम लोगों ने क्या स्थिर किया, मुझे बताया नहीं''। यशोधावलदेव ने उनके कान के पास मुँह ले जाकर चिल्लाकर कहा ''महाराज ने स्थिर किया है कि आठ सह अश्वारोही, पाँच सह पदातिक और दो सौ नावें लेकर हरिगुप्त इसी समय चरणाद्रिगढ़ की ओर प्रस्थान करें और रामगुप्त नगर की रक्षा के लिए रहें। बंग की चढ़ाई में दो सह अश्वारोही भी जायँगे, क्योंकि कामरूप के राजा क्या भाव धारण करेंगे, नहीं कहा जा सकता''। वृद्ध ने कई बार सिर हिला कर कहा 'बहुत ठीक, बहुत ठीक! पर स्थाण्वीश्वर जाने के सम्बन्ध में क्या व्यवस्था की गई?'
सम्राट-हरिगुप्त चरणाद्रिगढ़ जाते ही हैं, जो व्यवस्था उचित समझेंगे, करेंगे।
ऋषि -प्रभो? वृद्ध की वाचलता क्षमा की जाय। स्थाण्वीश्वर की सेना के आक्रमण से देश की रक्षा करने के अतिरिक्त एक कर्तव्य और भी है। स्थाण्वीश्वरराज आपके भांजे हैं, उन्होंने आपकी भगिनी की मृत्यु का संवाद दूत द्वारा भेजा है। यद्यपि दूत के पाटलिपुत्र पहुँचने के पहिले ही श्राद्ध आदि कृत्य हो चुके होगे, पर सम्राट वंश के किसी व्यक्ति का इस समय वहाँ जाना परम आवश्यक है।
प्रधान सचिव का यह प्रस्ताव सुन यशोधावलदेव, नारायणशर्म्मा और रामगुप्त आदि राज पुरुष धन्य धन्य कहने लगे। सम्राट बोले ''अमात्य! आपका प्रस्ताव बहुत ही उचित है, पर स्थाण्वीश्वर किसको भेजूँ। यदि कोई दूर का सम्बन्धी या आत्मीय भेजा जायगा तो प्रभाकरवर्ध्दन अपना अपमान समझेंगे''।
ऋषि -किसी सम्बन्धी को भेजना किसी प्रकार ठीक नहीं; ऐसा करने से तुरन्त झगड़ा खड़ा हो जायगा। युवराज शशांक से प्रभाकरवर्ध्दन मन ही मन बुरा मानते हैं, इसलिए उन्हें भेजना तो बुध्दिमानी का काम नहीं। कुमार माधवगुप्त ही भेजे जा सकते हैं, और कोई उपाय मैं नहीं देखता।
सम्राट-माधव तो अभी निरा बच्चा है।
यशो -महाराजाधिराज! ऐसे स्थान पर बच्चे को भेजना ही ठीक है, क्योंकि इससे किसी प्रकार के विवाद आदि की उतनी सम्भावना नहीं रहती।
सम्राट-तो फिर माधव का जाना ही ठीक है, पर उनके साथ जायगा कौन?
यशो -कुमार माधवगुप्त के साथ किसी बड़े चतुर मनुष्य को भेजना चाहिए। नारायणशर्म्मा यदि जाते तो बहुत ही अच्छा होता, पर
नारायण -यदि महाराजाधिराज की आज्ञा हो तो इस वृध्दावस्था में भी मैं शास्त्रा छोड़कर अभी शस्त्रा धारण करने को प्रस्तुत हूँ, स्थाण्वीश्वर जाना तो कोई बड़ी बात नहीं है।
सम्राट-बहुत अच्छी बात है। अच्छा तो महाधार्माधिकार ही कुमार के साथ जायँगे।
ऋषिकेशशर्म्मा सब बातें नहीं सुन सके थे। वे पूछने लगे ''यशोधावल, क्या स्थिर किया?''
यशो -कुमार माधवगुप्त ही स्थाण्वीश्वर जायँगे। महाधार्म्माधिकार नारायणशर्म्मा उनके साथ जायँगे।
ऋषि -साधु! साधु! किन्तु यशोधावलदेव, एक बात तो बताओ। हरिगुप्त तो चरणाद्रि जायँगे, नारायण स्थाण्वीश्वर जाते हैं, रामगुप्त नगर की रक्षा के लिए रहते हैं, मैं वृद्ध हूँ, किसी काम का ही नहीं हूँ। तुम युद्ध में किसे लेकर जाओगे?
यशो -प्रभो! सेनापति का क्या अभाव है? नरसिंह, माधव, युवराज शशांक यहाँ तक कि अनन्तवर्म्मा भी अब युद्ध विद्या में पूर्ण शिक्षित हो चुके हैं। बंगदेश की चढ़ाई में ये ही लोग हमारी पृष्ठरक्षा करेंगे। यदि साम्राज्य की रक्षा होगी, यदि बंगदेश पर अधिकार होगा, तो इन्हीं लोगों के द्वारा। हम लोग अब वृद्ध हुए, कर्मक्षेत्र से अब हम लोगों के छुट्टी लेने का समय है। यदि आगे का सब कार्य इन लोगों के हाथ में देकर हम लोग छुट्टी पा जायँ तो इससे बढ़कर भगवान् की कृपा क्या होगी?
ऋषि -साधु! यशोधावल, साधु! आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारा यह साधु उद्देश्य सफल हो।
यशो -महाराजाधिराज! अब विलम्ब करने का काम नहीं। आज रात को ही सेना सहित हरिगुप्त को प्रस्थान करना होगा।
सम्राट-अच्छी बात है। हरिगुप्त! प्रस्तुत हो जाओ और आज रात को ही सेना सहित नगर परित्याग करो।
हरिगुप्त प्रणाम करके बिदा हुए। सम्राट ने विनयसेन को बुलाकर कहा ''तुम इसी समय शिविर में जाओ। अंग और तीरभुक्ति की अश्वारोही सेना को आज रात को ही हरिगुप्त के साथ चरणाद्रिगढ़ जाना होगा। आठ सह अश्वारोही और पाँच सह पदातिक दो पहर रात बीते ही प्रस्थान करेंगे, शेष सेना नगर में ही रहेगी। तुम जाकर सेनानायकों को तैयार होने के लिए कहो''। विनयसेन अभिवादन करके चले गए। सम्राट ने फिर कहा ''रामगुप्त! जिन दो सौ नावों पर मगधके माझी हैं वे हरिगुप्त के साथ चरणाद्रि जायँगे।, उन्हें तैयार होने के लिए कहो।'' रामगुप्त प्रणाम करके गए।
रात का तीसरा पहर बीता चाहता है, यह देख ऋषिकेशशर्म्मा और नारायणशर्म्मा सम्राट से विदा होकर अपने अपने घर गए। यशोधावलदेव और कुमार शशांक भी बाहर निकल आए। यशोधावलदेव ने कहा ''पुत्र मैं शिविर में जा रहा हूँ। तुम भी सेना की यात्रा देखने चलोगे?'' युवराज ने कहा ''आर्य! मैं बहुत थका हुआ हूँ।'' यशोधावलदेव उन्हें विश्राम करने के लिए कहकर चले गए। उनके ऑंखों की ओट होते ही चित्रा दौड़ी दौड़ी आई और कुमार के गले लगकर कहने लगी ''कुमार! तो फिर क्या तुम युद्ध में न जाओगे?'' कुमार ने चकित होकर पूछा ''क्यों?''
चित्रा-हरिगुप्त न जा रहे हैं।
शशांक-तुमने कैसे सुना?
चित्रा-मैं कोठरी के उधार कोने में छिपी छिपी सब सुन रही थी।
शशांक-चित्रा! तुम अभी सोई नहीं?
चित्रा-मुझे नींद नहीं आती। तुम भी युद्ध में जाओगे, यह सुनकर मेरा जी न जाने कैसा करता है।
शशांक-मैं युद्ध में जाऊँगा, यह बात तो तुम बहुत दिनों से सुनती आतीहो।
चित्रा-युद्ध में मनुष्य मारे जाते हैं, यह तो तुमने कभी कहा नहीं था।
मन्त्रणा-सभा में आकर कुमार को मृत्यु की बात भूल ही गई थी। चित्रा की बात से फिर उन्हें दुश्चिन्ता ने आ घेरा। वे चित्रा की बात का कोई उत्तर न देकर सोच विचार में डूब गए। उन्हें चुप देखकर चित्रा ने पुकारा-''कुमार!''
शशांक-क्या है चित्रा?
चित्रा-कहो कि मैं युद्ध में न जाऊँगा।
शशांक-पिताजी की बात भला कैसे टाल सकता हूँ?
चित्रा-तुम्हारे पिता क्या तुम्हें जानबूझकर मरने देंगे?
शशांक-वे जानबूझकर मुझे कैसे मरने देंगे?
चित्रा-तो फिर!
शशांक-तो फिर क्या?
चित्रा-तो फिर तुम्हें मरना न होगा?
कुमार हँस पड़े और बोले ''मरना भी क्या किसी के हाथ में रहता है''?
चित्रा ने कुछ सुना नहीं, वह बार बार कहने लगी ''अच्छा, कहो कि मैं न मरूँगा''। कुमार ने हँसते हँसते कहा ''अच्छा, लो न मरूँगा''।
चित्रा-यह नहीं, तुम मेरी शपथ खाकर कहो।
शशांक-अच्छा तुम्हारी शपथ खाकर कहता हूँ, चित्रा! कि मैं बंगदेश के इस युद्ध में न मरूँगा।
चित्रा-कहो कि लौटकर आऊँगा।
शशांक-कहाँ?
चित्रा-मेरे पास, और कहाँ? नहीं, नहीं, इस पाटलिपुत्र नगर में।
शशांक-तुम्हारे सिर की सौगन्धा खाकर कहता हूँ कि बंगदेश के युद्ध से मैं लौटकर तुम्हारे पास पाटलिपुत्र नगर में आऊँगा।
चित्रा ने अपने मन की बात होने पर कुमार के गले पर से हाथ हटा लिया और दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े महादेवी के शयनागार की ओर गए।

चौथा परिच्छेद
संवाद प्रेरणा

दो पहर रात बीत गई है। नगर के तोरणों पर दूसरे पहर का बाजा बज रहा है। राजधानी में बिलकुल सन्नाटा है। एक पतली गली में एक छोटी सी दूकान पर तेल का एक दीया जल रहा है। दूकान पर बैठी सहुवानी पान चबा रही है और एक पुरुष के साथ धीरे धीरे बातचीत भी करती जाती है। पुरुष कह रहा है ''अब मैं यहाँ और अधिक न रहूँगा, देश को जाऊँगा। बहुत दिन हो गए; अब और विलम्ब करूँगा तो प्रभु रुष्ट होंगे''। रमणी रूठने का भाव बना कर कह रही है 'पुरुष जाति ऐसी ही होती है। यदि देश का ऐसा ही प्रेम था तो परदेश में आए क्यों? मुझसे इतनी बातचीत क्यों बढ़ाई?''
पुरुष मल्लिका! तुम रूठ गई। मैं क्या तुम्हारा विरह बहुत दिनों तक सह सकूँगा? कभी नहीं। एक बरस के भीतर ही लौट आऊँगा।
रमणी-तुम्हारी बात का कोई ठिकाना नहीं।
पुरुष-मैं तुम्हारे सिर की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि अगली शरद पूर्णिमा तक आ जाऊँगा। इसमें रत्ती भर भी झूठ न समझना।
रमणी उसकी बात को अनसुनी करके दूसरी ओर मुँह फेरे बैठी थी। पुरुष काठ के एक पाटे पर बैठा था। मान दूर होता न देख वह आसन पर से उठा और रमणी की ओर बढ़ा। इतने में गली में किसी के चलने का शब्द सुनाई पड़ा। पुरुष सहमकर अपने आसन पर आ बैठा। रमणी भी अपना मुँह पुरुष की ओर फेर कर बैठी। एक सैनिक ने दूकान पर आकर रमणी से कहा ''मल्लिका! मेरे यहाँ तुम्हारा जो कुछ निकलता हो उसे चुकाने आया हूँ। तुम्हारी दूकान अब तक खुली हुई है। मैं तो समझता था कि तुम दूकान बन्द करके सोई होगी, मुझे बहुत पुकारना पड़ेगा''। रमणी ने हँसते हँसते कहा ''देखना मल्लिका को एकबारगी भूल न जाना, कभी कभी स्मरण करना। उधार चुकाने की इतनी जल्दी क्या थी, सबेरे आकर चुकाते''।
सैनिक-मुझे रात को ही नगर छोड़ कर जाना होगा। सेनापति आकर हम लोगों को तैयार होने के लिए कह गए हैं। दो पहर रात गए ही जाने की बातचीत थी, पर कई कारणों से विलम्ब हो गया। अब तीन पहर रात बीतने पर प्रस्थान होगा।
रमणी-खड़े ही रहोगे? थोड़ा बैठ न जाओ।
सैनिक-बैठने का समय नहीं है, अभी और कई दूकानों पर जाना है।
रमणी-तब फिर यहाँ आने का क्या प्रयोजन था? जब लौटकर आते तब उधार चुकाते।
सैनिक-न, न मल्लिका, रूठो मत, मैं आज बहुत हड़बड़ी में हूँ, बैठ नहीं सकता। तुम्हारा कितना निकलता है, बतलाओ।
रमणी-अरे, कितना क्या? सब मिलाकर पन्द्रह सोलह द्रम्म1 होगा।
सैनिक ने अपने टेंट से एक स्वर्णमुद्रा निकालकर फेंक दी। रमणी ने उसे दीपक के उजाले के पास ले जाकर देखा और चकित होकर बोली ''अरे, यह तो दीनार2

1. द्रम्म प्राचीन काल का चाँदी का सिक्का है।
2. दीनार स्वर्णमुद्रा, जिसका मूल्य 15 से 20 द्रम्म तक होता था।
है। नया दीनार। तुम कहाँ से पा गए?''
सैनिक-किसी बात की चिन्ता न करो, जाली नहीं है, राजकोष से मिला है। यात्रा की आज्ञा के साथ ही तीन मास का वेतन सब को मिल गया है।
रमणी-कहाँ जाना होगा?
सैनिक-यह नहीं बता सकता, बताने का निषेधा है।
रमणी अपना मुँह फेरे हुए सैनिक के आगे चार द्रम्म फेंककर बोली ''अच्छा तो जाओ''। सैनिक ने कहा ''जाऊँ कैसे? तुम तो रूठी जाती हो''।
रमणी-मेरे रूठने से तुम्हारा क्या बनता बिगड़ता है। जब तुम इतना तक नहीं बता सकते कि कहाँ जाते हो तब मेरे रूठने की तुम्हें क्या चिन्ता?
सैनिक-मुझ पर इतना कोप न करो। स्थान बताने का बहुत कड़ा निषेध है, पर तुमसे तो किसी बात का छिपाव नहीं है, तुम्हारे कान में कहे जाता हूँ।
सैनिक ने रमणी के कान के पास मुँह ले जाकर कुछ कहा। पास बैठे हुए पुरुष ने कुछ भी न सुना। अन्त में रमणी ने 'जाओ' कहकर सैनिक को ढकेल दिया। वह रुपए उठा कर हँसता हँसता चला गया। पुरुष चुपचाप अपने आसन पर बैठा रहा। जब सैनिक चला गया तब रमणी फिर पहिले की तरह मुँह फेर कर बैठी। पुरुष यह देख हँसकर बोला 'हैं! फिर वही बात''।
स्त्री चुप रही। पुरुष फिर उठकर स्त्री के पास पहुँचा और उसका माथा छूकर शपथ खाने लगा। वह प्रसन्न होकर उसकी ओर मुँह करके बैठी। सहुवानी पाठकों की पूर्व परिचिता वही परचूनवाली है जिसके यहाँ यज्ञवर्म्मा के पुत्र अनन्तवर्म्मा ने आश्रय लिया था। महादेवी जिस समय प्रासाद में विचार करने बैठी थीं तब महाप्रतीहार विनयसेन इसी को पकड़ लाए थे। रमणी का मानभंजन हो चुकने पर दोनों वात्तर्लाप में प्रवृत्ताहुए। पुरुष ने ढंग से उस सैनिक की बातचीत चला कर उसका परिचय जान लिया; किन्तु वह सैनिक कहाँ जायगा, इस विषय में कुछ न पूछा। सैनिक के चले जाने के प्राय: दो दण्ड पीछे वह पुरुष भी अपने आसन से उठा। रमणी ने पूछा ''अब तुम कहाँ चले?''
पुरुष-दक्षिण तोरण के पास मैं अपने एक मित्र के घर एक बहुमूल्य वस्तु भूल आया हूँ। यदि इसी समय जाकर पता न लगाऊँगा तो फिर न मिलेगी।
रमणी-अब इतनी रात को जाना ठीक नहीं।
पुरुष-क्यों?
रमणी-मार्ग में चोर डाकू मिलेंगे।
पुरुष-मेरे पास अस्त्र है।
रमणी-बहुत सावधान होकर जाना। रात को लौटोगे न?
पुरुष-अवश्य लौटूँगा।
दुकान से उठकर वह पुरुष एक पतली गली से होता हुआ राजपथ पर आ निकला और दक्षिण की ओर जल्दी जल्दी चलने लगा। कुछ दूर चलने पर जब उसने अच्छी तरह समझ लिया कि कोई पीछे पीछे नहीं आ रहा है, तब वह पश्चिम की ओर मुड़ा। कई पतली अधेरी गलियों से होता हुआ वह पश्चिम तोरण पर पहुँचा। उसने देखा कि फाटक अभी खुला है, मार्ग के किनारे बहुत से दीपक जल रहे हैं और अश्वारोही सेना के दल पर दल तोरण से होकर नगर के बाहर निकल रहे हैं। उसने यह भी देखा कि प्रतीहार लोग और किसी को नगर के बाहर नहीं जाने देते। तोरण के इधर उधर बहुत से नागरिक सेना की यात्रा देख रहे हैं। उस पुरुष ने भीड़ में से एक व्यक्ति से पूछा ''भाई, कह सकते हो कि ये लोग कहाँ जा रहे हैं''? उसने कहा ''न, यह कोई नहीं जानता''। वह भी भीड़ में मिलकर सेना की यात्रा देखने लगा। अश्वारोहियों का एक दल निकल गया, उसके पीछे कई सेनानायक धीरे धीरे जाते दिखाई पड़े। उनमें से एक नवयुवक ने पास के एक पुराने सेनानायक से पूछा ''इस समय चरणाद्रि दुर्ग में सेना भेजने की क्या आवश्यकता है, कुछ समझ में नहीं आता''। वह प्रवीण सेनानायक कुछ हँसकर बोला ''इसी से लोग कहते हैं कि बालकों के सामने कोई गुप्त बात नहीं कहनी चाहिए। इतनी ही देर में सेनापति की आज्ञा भूल गए?'' वह पुरुष अधेरे में तोरण के एक कोने में छिपा हुआ यह बात सुन रहा था। सेनानायकों के निकल जाने पर अश्वारोहियों का दूसरा दल आया। उसके आते ही वह व्यक्ति अधेरा पकड़े हुए पूर्व की ओर जाने लगा।
तीन पहर रात जाते जाते वह पुरुष कपोतिक संघाराम के तोरण के भीतर घुसा। पहर बीतने पर नगर के तोरणों पर से बाजे की ध्वनि सुनाई देने लगी। संघाराम के भीतर विहारों में भी पूजा के शंख और घण्टे की ध्वनि हो रही थी। संघाराम में दल के दल भिक्खु और उपासिकाएँ एकत्र हो रही थीं। उस पुरुष को एक भिक्खु ने पहचाना और पूछा ''क्यों नयसेन! इतनी रात को कहाँ से आ रहे हो?'' उसने कोई उत्तर न देकर पूछा ''महास्थविर कहाँ है?'' भिक्खु ने धीरे से कहा ''वज्रतारा के मन्दिर में''। वह पुरुष उसे छोड़कर भीड़ में मिल गया।
संघाराम के बीचो बीच बुद्धदेव का बड़ा मन्दिर था। उसके दक्खिन लोकनाथ का मन्दिर था। लोकनाथ विहार के ईशान कोण पर वज्रतारा का मन्दिर था। मन्दिर के भीतर अष्टधातु के एक अष्टदल पद्म के ऊपर देवी की एक धातुप्रतिमा थी। कमल के प्रत्येक दल पर धूप घण्टा, वज्रघण्टा आदि देवियों की मूर्ति थीं। बड़ी धूमधाम से इन नवों देवियों की पूजा हो रही थी। एक भिक्खु धूप तारा की आरती कर रहा था। मन्दिर के एक कोने में कुशासन पर बैठे महास्थविर बुद्धघोष पूजन की विधि बोल रहे थे। मन्दिर के द्वार पर उपासक उपासिकाओं की भीड़ खड़ी थी। वह पुरुष द्वार पर मार्ग न पाकर झाँकी के पास गया। वहाँ से उसने देखा कि महास्थविर खिड़की के पास हीबैठे हैं। उस पुरुष ने झाँककर देखा कि पूजन में श्वेत पुष्प ही चढ़ रहे हैं, केवल दोचारलाल देवीफूल (रक्त जवा) इधर उधर दिखाई पड़ते हैं। वह खिड़की पर से हटकर फिर मन्दिर

1. विहार = बौद्ध मन्दिर।
के द्वार पर आया और उसने एक भक्त से एक देवीफूल लिया। खिड़की के पास फिर जाकर उसने फूल महास्थविर के ऊपर फेंका। महास्थविर ग्रन्थ पढ़ पढ़कर पूजन की विधि बोल रहे थे। पोथी पर लाल फूल पड़ते देख उन्होंने सिर उठाकर देखा। खिड़की पर एक मनुष्य खड़ा देख उन्होंने फूल फिर खिड़की की ओर फेंका। इसके पीछे एक भिक्खु को बुलाकर वे बोले ''पाठ में कुछ व्याघात पड़ गया, तुम बैठकर पाठ करो''। वह भिक्खु आसन पर आ जमा और महास्थविर मन्दिर के बाहर निकले। महास्थविर को उठते देख वह व्यक्ति खिड़की के पास से हट गया और भीड़ में जा मिला।
महास्थविर को बाहर आते देख उपासक उपासिकाओ ने मार्ग छोड़ दिया। वे किसी ओर न देख धीरे धीरे चले। भीड़ में से निकल उस पुरुष ने महास्थविर को प्रणाम किया। वे आशीर्वाद देकर फिर चलने लगे। इसी बीच उस पुरुष ने उनके कान में न जाने क्या कहा। उन्होंने कहा ''तितल्ले की कोठरी में चलो''। वह पुरुष फिर भीड़ में मिल गया। महास्थविर संघाराम के भीतर गए।
संघाराम के तीसरे तले की एक कोठरी में महास्थविर बुद्धघोष आसन पर बैठे हैं। कोठरी का द्वार बन्द है। भीतर घृत का एक दीपक जल रहा है। देखने से तो जान पड़ता है कि महास्थविर जप कर रहे हैं, पर सच पूछिए तो वे उत्सुक होकर उस पुरुष का आसरा देख रहे हैं। आधी घड़ी पीछे कोठरी का किवाड़ किसी ने खटखटाया। महास्थविर ने उठकर किवाड़ खोले, वह पुरुष भीतर आया। महास्थविर ने सावधानी से किवाड़ फिर भिड़ाकर उससे पूछा ''नयनसेन! इतनी रात को क्यों आए? कोई नया समाचार है?''
नय -विशेष समाचार न होता तो इतनी रात को कष्ट न देता। अभी बहुतसी अश्वारोही सेना पश्चिम तोरण से होकर चरणाद्रि गई है।
महा -कितने अश्वारोही रहे होंगे?
नय -मैं अच्छी तरह देख न सका, पर पाँच सह से ऊपर जान पड़ते थे।
महा -सेनापति कौन था?
नय -इसका पता तो नहीं लगा सका।
महा -संवाद कहाँ भेजना चाहिए?
नय -कान्यकुब्ज या प्रतिष्ठानपुर।
महा -अच्छी बात है।
नय -पर संवाद भेजना सहज नहीं है, क्योकि इस समय नगर से कोई बाहर नहीं निकलने पाता।
महा -तब तो चिन्ता की बात है। अच्छा तुम बैठो, मैं उपाय सोचता हूँ।
महास्थविर के सामने एक वेदी के ऊपर एक घण्टा रखा था। उसे उठाकर उन्होंने दो बार बजाया। क्षण भर भी नहीं हुआ था कि बाहर से किसी ने किवाड़ खटखटाया। नयनसेन ने उठकर किवाड़ खोला। एक वृद्ध भिक्खु ने कोठरी में आकर वृद्ध को प्रणाम किया। महास्थविर बोले ''जाकर देखो तो मृगदाव के आचार्य्य बुद्धश्री चले गए कि अभी हैं''। भिक्खु प्रणाम करके बाहर गया और फिर थोड़ी देर में लौटकर बोला ''आचार्य्य बुद्धश्री अभी संघाराम में ही हैं''। महास्थविर ने उन्हें बुला लाने के लिए कहा।
भिक्खु के कोठरी से बाहर चले जाने पर महास्थविर ने नयनसेन से कहा ''चरणाद्रिगढ़ क्यों जा रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आता''।
नय -मैंने तो संयोग से एक सैनिक के मुँह से यह बात सुनी। सुनते ही मैं पश्चिम तोरण की ओर दौड़ा। वहाँ जाकर देखा कि सचमुच बहुत से अश्वारोही जा रहे हैं। वहीं से मैं सीधो आपके पास संवाद देने आ रहा हूँ।
महा -जब से यशोधावल आए हैं तब से इधर कोई संवाद मुझे नहीं मिल रहा है। नगर में, शिविर में, राजभवन में हमारे सैकड़ों गुप्तचर हैं, पर उनमें से एक भी कोई संवाद लेकर मेरे पास नहीं आया। सम्राट1 के पास भी मैंने एक निवेदन भेजा है कि संघ के कार्य में बड़ी बाधा पड़ रही है, उसका भी कुछ फल नहीं। बात यह है कि महादेवी अभी जीवित हैं।
महास्थविर की बात पूरी भी न हो पाई थी कि पूर्वोक्त भिक्खु एक और बुङ्ढे और दुबले पतले भिक्खु को साथ लिए कोठरी में आया। साथ आए हुए भिक्खु ने महास्थविर को प्रणाम किया। उन्होंने कहा ''आचार्य्य! तुम्हें एक विशेष कार्य से इसी समय बाहर जाना होगा। एक संवाद है जिसे प्रतिष्ठानपुर या कान्यकुब्ज पहुँचाना होगा। आज रात को बहुत-से अश्वारोही चरणाद्रि की ओर गए हैं, यह बात स्थाण्वीश्वर के किसी सेनानायक के कान में डालनी होगी। प्रतीहार आज रात को किसी को नगर के बाहर नहीं जाने देते हैं, पर संवाद लेकर आज रात को ही जाना चाहिए। तुम किसी युक्ति से रात ही को प्रस्थान कर सकते हो?''
आचार्य्य-मैं चेष्टा करके देखता हूँ।
महा -किस मार्ग से जाओगे?
आचार्य्य-स्थल मार्ग से जाना तो सम्भव नहीं, नदी के मार्ग से निकलने का प्रयत्न करूँगा।
महा -बहुत ठीक। नयसेन! तुम गंगातट तक आचार्य्य को पहुँचा आओ।
आचार्य्य बुद्धश्री और नयसेन महास्थविर को प्रणाम करके कोठरी से बाहर निकले।

1. थानेश्वर के प्रभाकरवर्ध्दन।

पाँचवाँ परिच्छेद
सखी-संवाद

एक पहर दिन चढ़ चुका है। शरद ऋतु की धूप अभी उतनी प्रचण्ड नहीं हुई है। पाटलिपुत्र के राजपथ पर ओहार से ढकी एक पालकी वेग से पूर्व की ओर जा रही है। नगर के जिस भाग में सेठ और महाजन बसते थे वहाँ की सड़क बहुत पतली थी। राजभवन की पालकी और आगे पीछे दण्डधार देखकर नागरिक सम्मान दिखाते हुए किनारे हट जाते थे। फिर भी कभी कभी पालकी को रुक जाना पड़ता था क्योंकि रथ, छकड़े और घोड़े आते जाते मिल जाते थे। बीच बीच में पालकी के भीतर बैठी हुई स्त्री कहारों को मार्ग भी बताती जाती थी। इस प्रकार कुछ दूर चलने पर स्त्री की आज्ञा से पालकी रखी गई। पालकी के भीतर से घूँघट डाले एक स्त्री बाहर निकली। उसे देख दो दण्डधार पास आ खड़े हुए। उनमें से एक बोला ''आप उतर क्यों पड़ीं? महाप्रतीहार ने तो आज्ञा दी थी कि सेठ के अन्त:पुर के द्वार पर पालकी ले जाना''।
स्त्री-इसका कुछ विचार न करो और न यह बात महाप्रतीहार से कहने की है। मैं सेठ के घर पालकी पर बैठ कर न जाऊँगी। एक बार जिसकी मैं दासी रह चुकी हूँ अब राजभवन मे दासी हो जाने के कारण उसके यहाँ राजरानी बनकर पालकी पर तो मुझसे जाते नहीं बनेगा। पालकी और कहार यहीं रहें, हाँ, तुम में से कोई दो आदमी मेरे साथ चले चलें।
इतना कहकर वह स्त्री आगे बढ़ी। कुछ दूर जाकर वह एक अट्टालिका के भीतर घुसी, और दोनों दण्डधारों को द्वार पर ठहरने के लिए कहती गई। घर के ऑंगन में एक दासी हाथ में झाड़ई लिए खड़ी थी। वह स्त्री को भीतर आते देख पास आकर पूछने लगी ''बहूजी! कहाँ से आ रही हो?'' स्त्री ने हँसकर घूँघट हटा दिया और कहा ''अरे वाह, बसन्तू की माँ! इतने ही दिनों में मनुष्य मनुष्य को भूल जाता है? इस घर में कितने दिन एक साथ रही, तीन ही बरस में ऐसी भूल गई मानो कभी की जान पहचान ही नहीं''। दासी के हाथ से झाड़ई छूट पड़ी, वह चकपका कर आनेवाली स्त्री का मुँह ताकती रह गई, फिर बोली ''अरे कौन, तरला? पहचानूँ कैसे, भाई, तू जिस ठाट बाट से आई है उसे देख तुझे कौन पहचान सकता है? मैं तो समझी कि कोई सेठानी यहाँ मिलने के लिए आई है। तेरे सम्बन्ध में तो बड़ी बड़ी बातें यहाँ सुनने में आती हैं। तू इस समय बड़े लोगों में हो गई है, राजभवन की दासी हो गई है; तेरा इस समय क्या कहना है! रूप यौवन का गर्व कहीं समाता नहीं है। अब अपने पुराने मालिक का घर तेरे धयान में क्यों आने लगा?''
तरला-बसन्तू की माँ! देखती हूँ कि झगड़ा करने की तेरी बान अब तक नहीं गई। अरे! तेरा रूप यौवन नहीं रहा तो क्या किसी का न रहे?
बसन्तू की माँ-अरे बाप रे बाप! मुँहजली राजभवन में जाकर दासी क्या हुई है कि धारती पर पाँव ही नहीं पड़ते हैं। मेरा रूप यौवन रहा या न रहा, तुझको क्या?
तरला-रहा या नहीं रहा, यह तो तू आप पानी में अपना मुँह देखकर समझ सकती है।
बसन्तू माँ -तू ही अपना मुँह जाकर पानी में देख, मुझे क्या पड़ी है? मुँहजली घर छोड़कर गई फिर भी स्वभाव न छूटा। सबेरे सबेरे यहाँ लड़ने आई है।
ज्यों ज्यों बसन्तू की माँ का क्रोध बढ़ता गया त्यों त्यों उसका स्वर भी ऊँचा होता गया। उसे सुनकर अन्त:पुर से किसी युवती ने पूछा ''बसन्तू की माँ! किसके साथ झगड़ा कर रही है?'' बसन्तू की माँ ने सुर सप्तम तक चढ़ा कर उत्तर दिया ''यह है, तुम्हारी तरला, बड़ी चहेती तरला''। फिर प्रश्न हुआ ''क्या कहा?'' बसन्तू की माँ गला फाड़ कर बोली ''अरे तरला, तरला'' सदा यौवन के उमंग में रहने वाली तरला। अब सुना?''
अन्त:पुर से एक कृशांगी रमणी ने आकर तरला का हाथ थाम लिया और कहने लगी ''अरी वाह री, राजरानी! इतने दिनों पीछे सुधा हुई''। तरला ने प्रभुकन्या को प्रणाम करके कहा ''बहिन! ऐसी बात न कहो''। युवती ने उदास स्वर से कहा ''तू इस घर का मार्ग ही भूल गई थी क्या, तरला?''
तरला-बहिन! जो कुछ हुआ सब तुम्हारे ही लिए तो!
युवती ने ऑंचल से ऑंसू पोंछे और तरला का हाथ पकड़कर अन्त:पुर के भीतर ले गई। बसन्तू की माँ ने अपना गर्जन क्रमश: धीमा करते करते झाड़ई फिर हाथ में लिया और वह अपने काम में लग गई। तरला ने अपने पुराने अन्नदाता के घर में जाकर सबको यथायोग्य प्रणाम किया और फिर उनसे बातचीत करने लगी। यूथिका कुछ काल तक तो चुपचाप बैठी रही, फिर तरला का हाथ पकड़कर उसे अपनी कोठरी में ले गई और किवाड़ भिड़ा लिए। तरला भूमि पर ही बैठने जाती थी पर सेठ की बेटी ने उसे जोर से खींचकर पलंग पर बिठाया और उसके गले में हाथ डालकर बोली ''तरला! अब मेरा क्या होगा?'' तरला ने हँसकर कहा ''विवाह''। यूथिका उसका मुँह चूमकर पूछा ''कब?''
तरला-अभी।
यूथिका-किसके साथ?
तरला-क्यों? मेरे साथ।
यूथिका-तेरे साथ ब्याह तो न जाने कब का हो चुका है।
तरला-तो फिर अब और क्या होगा? क्या दो के साथ करोगी?
यूथिका-तेरे मुँह में लगे आग, तुझे जब देखो रसरंग ही सूझा रहता है। बोल! क्या मैं अब यों ही मरूँगी?
तरला-मरे तुम्हारा बैरी। तुम मर जाओगी तो सेठ के कुल में रासलीला कौन करेगा ?
यूथिका-रासलीला करेंगे यमराज। तरला, सच कहती हूँ अब मैं मरा ही चाहती हूँ। मैं देखती हूँ कि मेरे दिन अब पूरे हो गए। तीन बरस बीत गए; इस बीच में एक क्षण के लिए भी उनके साथ देखा देखी नहीं हुई। अब अन्तिम बार देख लेती, यही बड़ी भारी इच्छा है।
यूथिका से और आगे कुछ बोला न गया, उसका गला भर आया। वह अपनी बाल्यसखी की गोद में मुँह छिपाकर रोने लगी। तरला ने किसी प्रकार उसे समझाकर शान्त किया और कहा ''छि: बहिन, इतनी अधीर क्यों होती हो? वे छूट गए हैं, कुशल आनन्द से हैं। तुम्हारे ही लिए इतना सब करके मैंने उन्हें छुड़ाया है। इस समय वे श्रीयशोधावलदेव के सबसे अधिक विश्वास पात्र हैं। महानायक उन्हें बहुत चाहते हैं। यह सब समाचार मैं तुम्हारे पास पहिले भेज चुकी हूँ''।
यूथिका-ये सब बातें तो मैं सुन चुकी हूँ। पर उनका छूटना तो इस समय विष हो रहा है। पिताजी कहते हैं कि स्त्री के लिए जिसने संघ का आश्रय छोड़ दिया, पवित्र कषाय वस्त्र त्याग दिया उसे मैं कन्यादान नहीं दे सकता।
तरला-यह मैं सुन चुकी हूँ।
यूथिका-तब फिर क्या होगा?
तरला-घबराओ न।
यूथिका-तुझे पता नहीं है, पिताजी भीतर ही भीतर मेरे सर्वनाश का उपाय कर रहे हैं। वे मेरे विवाह की कई जगह बातचीत कर रहे हैं। यदि उन्होंने मेरा विवाह और कहीं कर दिया तो मैं प्राण दे दूँगी। अब फिर मैं उन्हें देख सकूँगी या नहीं, नहीं कह सकती। पर इतनी बात जाकर उनसे कह देना कि यह शरीर अब दूसरे का नहीं हो सकता, दूसरा इसे छूकर कलंकित नहीं कर सकता। प्राण रहते तो पिताजी इसे दूसरे को अर्पित नहीं कर सकते। एक बार उन्हें देखने की बड़ी इच्छा है। तरला! यदि मैं मर जाऊँ तो उनसे कहना कि तुम्हें देखने का अभिलाष हृदय में लिए ही यूथिका मर गई।
चित्ता के वेग से सेठ की कन्या का गला भर आया। तरला से भी कुछ कहते सुनते न बना। वह यूथिका का सिर अपनी गोद में लेकर उसके लम्बे लम्बे केशों पर अपना हाथ फेरने लगी। बहुत देर पीछे तरला के मुँह से शब्द निकला। उसने कहा ''यह बात भी मैं सुन चुकी हूँ। इसके भीतर बन्धुगुप्त का चक्र भी चल रहा है, इसका पता यशोधावलदेव को गुप्तचरों से लग चुका है। उन्होंने मुझे तुम्हारे पास भेजा है''। यूथिका ने सिर उठाकर कहा ''मैं क्या कर सकती हूँ?''
तरला-भाग सकती हो?
यूथिका-किसके साथ? बड़ा डर लगता है।
तरला-डरो न, मेरे साथ नहीं भागना होगा, तुम्हारे साथ रास रचनेवाले ही तुम्हें आकर ले जायँगे।
यूथिका-दुत!
लज्जा से यूथिका के मुँह पर ललाई दौड़ गई। तरला हँसती हँसती बोली ''तो क्या करोगी, न जाओगी?''
यूथिका-पिताजी क्या कहेंगे?
तरला-अब दोनों ओर बात नहीं रह सकती। बोलो, तुम्हारे केवट से जाकर क्या कह दूँ। कह दूँ कि तुम्हारी नाव दलदल में जा फँसी है और दूसरे माझी ने उस पर अधिकार कर लिया है?
यूथिका-तेरा सिर।
तरला-क्या करोगी, बोलो न।
यूथिका-जाऊँगी।
तरला-मैं भी यही उत्तर पाने की आशा करके आई थी।
यूथिका अपनी सखी को हृदय से लगाकर बार बार उसका मुँह चूमने लगी। अवसर पाकर तरला बोली ''अरे उस बेचारे के लिए भी कुछ रहने दो, सब मुझको ही न दे डालो''। यूथिका ने हँसकर उसे एक घूँसा जमाया। तरला बोली ''तो फिर अब विलम्ब करने का काम नहीं''।
यूथिका-क्या आज ही जाना होगा?
तरला-हाँ! आज ही रात को।
यूथिका-किस समय?
तरला-दो पहर रात गए।
यूथिका-वे किस मार्ग से आयँगे?
तरला-अन्त:पुर के उद्यान का द्वार खोल रखना , मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी। बाहर वे घोड़ा लिए खड़े रहेंगे। घोड़े पर चढ़ सकोगी न?
यूथिका-घोड़े पर मैं कैसे चढ़ईँगी।
तरला-तब तो फिर तुम जा चुकी।
यूथिका-अच्छा तो उनसे जाकर कह दो कि वे जो जो कहेंगे मैं करूँगी।
तरला-अच्छा, तो फिर मैं आऊँगी।
तरला यूथिका को गले लगा और सेठ के घर के और लोगों से बिदा हो अट्टालिका के बाहर निकली।
सेठ के घर के द्वार से निकल तरला ने देखा कि बसन्तू की माँ कहीं से लौटकर आ रही है। वह उसे देखते ही हँसकर बोली ''बसन्तू की माँ, मुझसे रूठ गई हो क्या?'' बसन्तू की माँ तो पहले से ही खलबलाई हुई थी। जब तक झगड़े में उसकी पूरी जीत न हो जाय तब तक वह चुप बैठनेवाली नहीं थी। वह तरला की बात सुन गरज कर बोली ''अरे तेरा सत्यानाश हो, सबेरे सबेरे तुझे कोई काम धन्धा नहीं जो तू घर घर झगड़ा मोल लेने निकली है?'' तरला ने देखा कि बसन्तू की माँ के समान कलहकलाकुशल स्त्री से पार पाना सहज नहीं है, व्यर्थ समय खोना ठीक नहीं। उसने बहुत सी मीठी मीठी बातें कहकर बसन्तू की माँ को अपने पराजय का निश्चय करा दिया। इसके पीछे वह दोनों दण्डधारों के साथ पालकी की ओर चली गई। बसन्तू की माँ भी गर्जन तर्जन छोड़ कुछ बड़बड़ाती हुई सेठ के घर में घुस गई।
 
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