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रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 7
शशांक तीसरा खंड उपराग पहला
परिच्छेद जाड़े के आरम्भ में सूर्य्योदय के पहले मंडला की विकट घाटी पार करके एक अश्वारोही मंडलादुर्ग के सिंहद्वार के सामने आ खड़ा हुआ। पिपीलिकाश्रेणी के समान बहुतसे अश्वारोही और पदातिक उसके पीछे पीछे आते थे। अश्वारोही ने गढ़ के फाटक पर खड़े होकर पुकारा ''गढ़ में कोई है?'' परकोटे पर से एक पहरे वाला बोला ''तुम कौन हो?'' अश्वारोही ने कहा ''हम लोग अतिथि हैं''। पहरे‑-तो यहाँ क्यों आए? अतिथिशाला में जाओ। अश्वारोही ने हँसकर कहा ''हम लोग गढ़ के अतिथि हैं, अतिथिशाला में क्या करने जायँ?'' पहरे वाले ने चकित होकर कहा ''गढ़ का अतिथि तो आज तक मैंने कभी नहीं सुना। यह एक नई बात है''। अश्वारोही-तुम गढ़पति से जाकर कहो कि गढ़ के एक अतिथि आए हैं, वे गढ़ के भीतर आना चाहते हैं। पहरे‑-गढ़पति अभी सो रहे हैं, मैं अभी उनके पास नहीं जा सकता। तुम्हारे पीछे बहुत से लोग दिखाई पड़ते हैं, वे सब क्या तुम्हारे ही साथ हैं? अश्वारोही-हाँ। पहरे‑-तो फिर उन्हें यहाँ से हट जाने को कहो, नहीं तो अच्छा न होगा। अश्वा‑-अतिथि होकर हटेंगे कैसे? इतने में अश्वारोही के पास बहुत से अश्वारोही और पदातिक आ खड़े हुए। पहरेवाले ने तुरही बजाई। देखते देखते दुर्ग का परकोटा सशस्त्रा सैनिकों से भर गया। अश्वारोही ने पूछा ''तुम्मारा स्वामी कौन है?'' उत्तर मिला ''महाराज अनन्तवर्म्मा''। अश्वा‑-उन्हें बुला लाओ। पहरे‑-अपने दल के लोगों को हटाओ नहीं तो हमलोग आक्रमण करते हैं। अश्वारोही की आज्ञा से उसके साथ के लोग दूर हट गए। थोड़ी देर में एक वर्म्मधारी पुरुष ने परकोटे पर आकर पूछा ''तुम कौन हो?'' अश्वा‑-मैं अतिथि हूँ। तुम क्या यज्ञवर्म्मा के पुत्र अनन्तवर्म्मा हो? ''हाँ, पर तुम कौन हो? तुम्हारा कण्ठस्वर तो परिचित सा जान पड़ता है। ''कण्ठस्वर से नहीं पहचान सकते?'' ''नहीं''। ''मुझे पाटलिपुत्र में कभी देखा है?'' ''देखा होगा, पर इस समय तो नहीं पहचानता''। ''एक दिन थानेश्वर की सेना के शिविर में बन्दी होकर पाटलिपुत्र में गंगा के तट पर खड़े थे, धयान में आता है?'' ''हाँ आता है। कौन, नरसिंह?'' अश्वारोही ठठाकर हँस पड़ा और उसने धीरे धीरे अपना शिरस्त्राण हटाया। पीठ और कन्धो पर भूरे भूरे केश छूट पड़े जो उदय होते हुए सूरज की किरणें पड़ने से झलझल झलकने लगे। गढ़ के परकोट पर वर्म्मधारी योध्दा चिल्ला उठा ''पहचान गया युवराज-महाराजाधिराज ‑‑‑''। उस समय नरसिंहदत्ता, वीरेन्द्रसिंह, माधववर्म्मा और वसुमित्र आदि प्रधान सेनानायक आकर सम्राट के आसपास खड़े हो गए। तुरन्त दुर्ग का द्वार खुल गया और सब लोग दुर्ग के भीतर गए। दिन भर दुर्ग के भीतर सेना जाती रही। सन्धया होने के कुछ पहले विद्याधरनन्दी शेष सेना लेकर पहुँचे। वसुमित्र की बात ठीक निकली। पचास सह से ऊपर सेना शशांक के साथ पाटलिपुत्र की ओर चली थी। ज्यों ही शशांक बंगदेश से बाहर हुए थे कि समतट से माधववर्म्मा आकर उनके साथ मिल गए थे। केवल तीन आदमी थोड़ी सी सेना लेकर भागीरथी के किनारे अब तक गए थे। इससे यह किसी ने न जाना कि शशांक पाटलिपुत्र लौट रहे हैं। भागीरथी के तट पर नरसिंह सेना लिए पड़े थे। उनके साथ इतनी सेना देखकर किसी को कुछ आश्चर्य न हुआ। माधवगुप्त जब शपथ भंग करके सिंहासन पर बैठ गए तब साम्राज्य के सब प्रधान अमात्यों की श्रध्दा उनकी ओर से हट गई। उसके पीछे जब स्थाण्वीश्वर के अमात्य द्वारा वृध्द नायक यशोधावलदेव का बात बात में अपमान होने लगा तब अभिजातवर्ग के लोग अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे। भीतर भीतर अत्यन्त विरक्त होने पर भी उन्होंने समुद्रगुप्त के वंशधार के प्रति स्पष्ट रूप से अपना असन्तोष नहीं प्रकट किया। महासेनगुप्त की मृत्यु के एक वर्ष के भीतर ही साम्राज्य में बहुत कुछ उलटफेर हो गया है। गौड़ और बंग में शशांक के साथी विद्रोही हुए। अनन्तवर्म्मा ने दक्षिण मगध को अपने हाथ में करके मण्डलागढ़ पर अधिकार जमाया। प्रभाकरवर्ध्दन के अनुरोधा से माधवगुप्त ने चरणाद्रि और वाराणसी को अवन्तिवर्म्मार् को प्रदान किया। यशोधावलदेव चुपचाप सब अपमान सहते रहे। शशांक के लौटने की आशा दिन दिन उनके चित्ता से दूर होती जाती थी। बुध्दघोष, बन्धुगुप्त आदि बौध्दसंघ के नेताओं ने खुल्लमखुल्ला ब्राह्मणों पर अत्याचार करना आरम्भ किया। उनके अत्याचारों से पाटलिपुत्र के नागरिक एकबारगी घबरा उठे। सैकड़ों देवमन्दिरों की सम्पत्ति छीन ली गई, सह देवालयों में महादेव और वासुदेव के स्थान पर बुध्द और बोधिसत्वों की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हुईं। अत्याचार से पीड़ित प्रजा ने वृध्द महानायक की शरण ली, पर वे उसकी रक्षा न कर सके। धीरे धीरे राजकोष भी खाली हो चला। चारों ओर से राजस्व का आना बन्द हो गया था। वेतन न पाने के कारण सेना अन्न बिना मरने लगी। धीरे धीरे अभाव असह्य हो गया और वह सेनानायकों की बात पर कुछ भी धयान न दे गाँव पर गाँव लूटने लगी। प्रजा भी अपनी रक्षा के लिए उनसे लड़ने लगी। देश में अराजकता छा गई। यशोधावलदेव कठपुतली बने पाटलिपुत्र में बैठे बैठे साम्राज्य की यह सब दुर्दशा देखने लगे। प्रभाकरवर्ध्दन के पास संवाद पहुँचा कि मगध में विद्रोह हुआ ही चाहता है। वे तो यह चाहते ही थे। समुद्रगुप्त के वंश के रहते आर्यर्वत्ता में कोई उन्हें चक्रवरत्ती राजा नहीं मानता था। इसीलिए वे अपने ममेरे भाई की सम्राट पदवी लुप्त करने की युक्ति निकाल रहे थे। प्रभाकरवर्ध्दन मगध की अवस्था सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा कि घर की लड़ाई से जब मगध राज्य निर्बल हो जायगा, पराजित होकर जब माधवगुप्त आश्रय चाहेंगे उस समय मैं उन्हें करद सामन्त राजा बनाकर गुप्तवंश से सम्राट की पदवी सदा के लिए दूर कर दूँगा। मगध की जिस समय यह दशा हो रही थी ठीक उसी समय शशांक बंगदेश से मगध को लौटे। मंडलागढ़ में नए सम्राट ने मन्त्राणा सभा बुलाकर स्थिर किया कि यशोधावलदेव को बिना जताए पाटलिपुत्र में घुसना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो नगर पर आक्रमण करना चाहिए। अनन्तवर्म्मा ने सूचित किया कि अगहन शुक्ल त्रायोदशी को माधवगुप्त का विवाह है। नरसिंहदत्ता और माधववर्म्मा की सम्मति हुई कि उसी दिन पाटलिपुत्र पर आक्रमण करना चाहिए। शशांक ने सोचा कि पाटलिपुत्र ऐसा ही कोई वर्णाश्रमधार्मी होगा जो मेरे विरुध्द अस्त्रा उठाएगा। उन्होंने उनकी बात काटकर स्थिर किया कि गुप्तवेश में अपने को वीरेन्द्रसिंह के साथ आए हुए गौड़ीय सामन्त बतला कर सब लोग नगर में प्रवेश करें और नरसिंहदत्ता अधिकांश सेना लेकर नगर के बाहर रहें। केवल दस सह सेना उत्सव में सम्मिलित होने के लिए नगर में प्रवेश करे। वीरेन्द्रसिंह ने गौड़ से यशोधावलदेव को सूचना दे दी थी कि मैं शीघ्र पाटलिपुत्र आऊँगा इससे उनके आने पर किसी को कुछ आश्चर्य्य न हुआ। दस सह सेना देखकर भी किसी को कुछ सन्देह न हुआ। बात यह थी कि सम्राट के विवाह के उपलक्ष में निमन्त्रित भूस्वामी और सामन्त लोग अपने दलबल के साथ नगर में आ रहे थे। दस सह सेना एक पक्ष के भीतर नगर में पहुँच गई। अधिकांश सेना नगर के बाहर आसपास के गाँवों में इधर उधार छिप रही। माधवगुप्त उस समय मन का खटका छोड़ उत्सव और नाचरंग में डूबे थे। किसी विघ्न या विपत्ति की आशंका उनके मन में नहीं थी। वे जानते थे कि किसी प्रकार की लड़ाई भिड़ाई होने पर प्रभाकरवर्ध्दन मेरी रक्षा करेंगे। प्रजा यदि बिगड़ जायगी तो वे पूरी सहायता देंगे और यदि आवश्यक होगा तो स्वयं लड़ने के लिए आएँगे।
दूसरा परिच्छेद चित्रा का दिन पाटलिपुत्र नगर में आज बड़ी चहलपहल है। तोरण तोरण पर मंगल वाद्य बज रहे हैं। राजपथ रंग बिरंग की पताकाओं और फूल से सजाया गया है। दलकेदल नागरिक रंग बिरंगे और विचित्र विचित्र वस्त्र पहने ढोल, झाँझ आदि बजाते और गाते निकल रहे हैं। पहर पहर भर पर नगर में तुमुल शंखध्वनि हो रही है। पौरांगना ऊपर से लावा और श्वेत पुष्प बरसा रही हैं। धूप के सुगन्धित धुएँ से छाए हुए मन्दिरों में से नगाड़ों और घंटों की ध्वनि ध्वनि आ रही है। आज सम्राट माधवगुप्त का विवाह है।
दोपहर के समय एक वर्म्मावृत
पुरुष
प्रधान
राजपथ पकडे राजप्रासाद की ओर जा रहा है। उसे देख मद्य से मतवाला एक नागरिक
बोल उठा ''यह
देखो!
गौड़ की सेना वर्म्म से ढकी हुई
विवाह में जा रही है।''।
उसकी बात पर उसके साथी तालियाँ पीट पीट कर हँसने लगे। सैनिक उसकी ओर फिर कर
उससे पूछने लगा
''राजभवन
का यही मार्ग है?''
नागरिक बोला
''हाँ!
सीधो
उत्तर
चले जाओ''।
सैनिक बढ़ ही रहा था कि इतने में वह नागरिक बोल उठा
''भाई!
ये चित्रादेवी कौन हैं?''
दूसरे नागरिक ने कहा
''अरे,
तू नहीं जानता। वही
मण्डलागढ़ के तक्षदत्ता की
''कौन? वही जिसके साथ युवराज शशांक के विवाह की बातचीत थी?'' सैनिक ठिठक कर खड़ा हो गया और पूछने लगा ''चित्रादेवी का क्या हुआ?'' नागरकि ने कहा ''तुम नगर में कब आए हो? चित्रादेवी के साथ ही तो सम्राट माधवगुप्त का विवाह है, तुम क्या अब तक नहीं जानते?'' सैनिक के सिर में चक्कर सा आ गया, वह गिरते गिरते बचा। पहले नागरिक ने कहा ''गौड़ का वीर तो यहीं गिर रहा है''। दूसरा नागरिक बोला ''भाई निमन्त्रण है। बिना पैसा कौड़ी के चोखा मद्य मिला, चढ़ा लिया''। सैनिक ने उनकी बात न सुनी। वह मतवाले के समान चलतेचलते सड़क से लगी हुई एक बावली के किनारे बैठ गया। जान पड़ता है कि उसे तनमन की सुधा न रही। दिन तो बीत गया, सन्धया हो चली, पर वह सैनिक वहाँ से न उठा। उसे मद में चूर समझ कोई उसके पास न गया। रात का पहला पहर बीता। प्रासाद में बड़ी धूमधाम और बाजेगाजे के साथ सम्राट का विवाह हो गया। उसके पीछे सैनिक को चेत हुआ। उसने शरीर पर से वर्म्म उतारकर बावली में फेंक दिया और एक दूकान से श्वेत वस्त्र मोल लिया। बावली के किनारे एक घने पेड़ की छाया के नीचे अंधेरे ही में बैठेबैठे उसने अपना वेश बदला और फिर प्रासाद की ओर चलने लगा। प्रासाद में घुसकर वह भीड़ में मिल गया और धीरे धीरे अन्त:पुर की ओर बढ़ा। उसने एक ऐसा मार्ग पकड़ा जिसे और लोग नहीं जानते थे। इस प्रकार वह नए प्रासाद के अन्त:पुर के दूसरे खण्ड में जा पहुँचा। उत्सव के आमोद प्रमोद में उन्मत्ता स्त्रियों और अन्त:पुररक्षियों ने उसे न देखा। गंगाद्वार के पास प्रासाद के जिस भाग के नीचे से गंगाजी बहती थीं सैनिक उसी भाग के दूसरे खण्ड की छत पर चढ़कर अंधेरे में छिप रहा। अन्त:पुर के उस भाग में उस समय सन्नाटा था, कोई कहीं नहीं दिखाई देता था। उज्ज्वल चाँदनी छिटकी हुई थी। कभी कभी विवाहोत्सव का कोलाहल वहाँ तक पहुँचकर गहरे सन्नाटे में भंग डाल देता था। एक युवती अन्त:पुर में एक भवन से निकलकर छत पर आ खड़ी हुई। युवती की अवस्था अभी बहुत थोड़ी थी, दूर से देखने से वह बालिका जान पड़ती थी। उसका सौन्दर्य अनुपम था। उसके बहुमूल्य रत्नालंकार थे जो निर्मल चाँदनी पड़ने से जगमगा उठे। उसके केश छूटे हुए थे। जान पड़ता था कि वह अभी स्नान किए चली आ रही है। उसके शरीर पर अत्यन्त बहुमूल्य महीन श्वेत वस्त्र था जो भूमि पर लोटता था। एक दासी ने आकर उसे सँभाला और फिर वह बाल सुखाने चली। युवती अनमनी सी होकर बोली ''बाल हवा में सूख जायँगे, तू यहाँ से जा''। दासी चली गई। रमणी छत पर इधर उधर टहलने लगी। थोड़ी देर में एक और दासी ने आकर कहा ''महादेवी! सोने का समय हो गया''। रमणी ने पूछा ''कितनी रात हो गई होगी?'' दासी ने उत्तर दिया ''दोपहर के लगभग''। रमणी ने कहा ''मैं अभी न सोऊँगी, तू जा''। दासी विवश हो चली गई। थोड़ी देर में छिपा हुआ सैनिक अंधेरे में से निकलकर छत पर आ खड़ा हुआ और उसने दूर से पुकारा ''चित्रा!'' रमणी चौंक पड़ी, फिरकर जो देखती है तो कुछ दूर पर निखरी चाँदनी में श्वेतवस्त्रधारी एक पुरुष खड़ा है। पुरुष ने फिर पुकारा ''चित्रा!'' रमणी को कण्ठस्वर कुछ परिचित सा जान पड़ा। उन्होंने पूछा ''तुम कौन हो?'' पुरुष ने उत्तर दिया ''चित्रा! मैं हूँ''। रमणी को कुछ डर सा लगने लगा, उसने सकपकाकर कहा ''तुम कौन हो? मैं तो नहीं पहचानती''। पुरुष ने कहा ''कण्ठस्वर से भी नहीं पहचानती, चित्रा! अब मैं क्या धयान से इतना उतर गया?'' उसने सिर पर से उष्णीष उतार दिया। इतने में एक छोटे से बादल के टुकड़े ने आकर चन्द्रमा को ढाँक लिया। उसके हटते ही फिर चाँदनी छिटक गई। चित्रा देवी ने देखा कि पुरुष सुन्दर गौर वर्ण है, लम्बे लम्बे पिंगल केश उष्णीष से छूटकर वायु के झोंकों से इधर उधार लहरा रहे हैं। देखते ही वह कुछ कहती हुई चिल्ला उठी। पुरुष ने उसके निकट आकर कहा ''कोई डर नहीं है, चित्रा! मैं मनुष्य ही हूँ, प्रेत होकर नहीं आया हूँ''। भय, विस्मय और हृदय की दारुण यन्त्राणा से चित्रादेवी का जी घुटने लगा। बड़ी कठिनता से अपने को सँभालकर उन्होंने कहा 'तुम-कुमार-शशांक‑‑‑''। पुरुष ने कुछ हँसकर कहा ''पट्टमहादेवी! मैं वही शशांक हूँ। कभी कुमार भी कहलाता था, पर तुम्हारा बाल्य सखा था''। ''युवराज-तुम‑‑‑''। ''हाँ, चित्रा! मैं ही हूँ। तुमने लौटने के लिए कहा था इसी से आया हूँ। मेरी बात तो रह गई''। चित्रादेवी घुटने टेककर बैठ गई और रोते रोते बोली ''युवराज-युवराज-क्षमा करो‑‑‑''। ''क्षमा किस बात की, चित्रा? तुमने कहा था इसी से आया हूँ। बाल्यसखी की बात रखने के लिए मरा हुआ भी जी उठा है। क्षमा किस बात की चित्रा?'' ''युवराज, एक बार और क्षमा करो, बस एक बार। न जाने कितनी बार क्षमा किया है, एक बार और क्षमा करो''। ''क्षमा कैसी, चित्रा? नगर में सुना कि तुम्हारा विवाह है; बस विवाह का उत्सव देखने के लिए मैं भी चला आया‑‑‑'' चित्रादेवी रोते रोते शशांक के पैर पकड़ने जा रही थीं, पर वे दो हाथ पीछे हटकर कहने लगे ''छि: छि: चित्रा! यह क्या करती हो? तुम मेरे छोटे भाई की स्त्री हो, मुझे छूना मत। आज तुम मगध की पट्टमहादेवी हो, एक भिखारी के पैरों पर पड़ना क्या तुम्हें शोभा देता है? उठो! बाल्यबन्धु का कुशल समाचार पूछो‑‑‑''। ''युवराज! मैंने अपनी इच्छा से विवाह नहीं किया है। मैं कभी ऐसा कर सकती थी? तुम्हें विश्वास है?'' ''विश्वास करने की इच्छा तो नहीं होती। किन्तु, चित्रा! अब तुम माधव की अंकलक्ष्मी हो, अब तुम मेरी नहीं हो। तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष मेरा है-मेरे भाग्य का है''। चित्रादेवी उठ खड़ी हुई। छ:वर्ष पर आज दोनों एक दूसरे के सामने हुए हैं। चाँदनी में डूबा हुआ जगत स्थिर और सन्नाटे में था। झलकते हुए आकाश में बादल के छोटे छोटे टुकड़े वेग से दौड़े जा रहे थे। उत्सव का रंग अब धीमा पड़ गया है, कलरव मन्द हो गया है, दीपमाला बुझा चाहती है। चित्रादेवी ने कहा ''कुमार! मेरी बात मानो। मुझे एक बार और क्षमा करो। मैं तक्षदत्ता की बेटी हूँ, मेरी बात पर विश्वास करो''। ''विश्वास करता हूँ तभी न आया हूँ, चित्रा! नहीं तो क्यों आता? मैं क्षमा क्या करूँ। तुम रमणी हो, अनुपम रूपवती हो। तुमने यदि बिना ठौर ठिकाने के मनुष्य का व्यर्थ आसरा न देख एक राजराजेश्वर के गले में वरमाला डाली तो इसमें बुरा क्या किया?'' ''युवराज! तुमने क्या मुझे ऐसी वैसी ही समझ रखा है?'' ''ऐसी वैसी नहीं समझता था, तभी न यह फल...''। ''बस, युवराज! क्षमा करो। मैंने अपनी इच्छा से विवाह नहीं किया है। ''विवाह भी कहीं बाँधाकर हुआ है, चित्रा?'' ''महादेवी ने बलपूर्वक मेरा विवाह करा दिया''। ''सुनो महादेवी! अब तुम भी महादेवी हो, बालिका नहीं हो, युवती हो, किसी का हृदय भी कभी कोई बल करके छीन सकता है? नश्वर शरीर पर बल चल सकता है, पर बल से क्या किसी का मन वश में हो सकता है?'' ''अब एक बार और क्षमा करो, युवराज!'' ''क्षमा तो मैं कर चुका हूँ, चित्रा! यदि क्षमा न करता तो देखनेदिखाने नआता''। ''तब फिर?'' ''तब फिर क्या, चित्रा?'' ''एक बार और...'' ''अब हो नहीं सकता, चित्रा?'' ''मैंने-मैंने सुना-युवराज! मेरा कोई अपराध नहीं है''। ''छि: चित्रा! तुम तक्षदत्ता की कन्या हो, तुम गुप्तकुल की वधू हो, तुम्हारे मुँह से ऐसी बात नहीं सोहती। कोई सामान्य क्षत्रिय वधू यदि आचार भ्रष्ट हो जाय तो हो जाय, पर तुम तक्षदत्ता की कन्या हो, महासेनगुप्त की पुत्रवधू हो, मगध की राजराजेश्वरी हो-तुम्हारे लिए ऐसी बात उचित नहीं है''। ''तब फिर'' ''तब फिर क्या? मैं अपनी बात रखने के लिए तुम्हारे पास आया। बात अब पूरी हो गई। अब हे देवी! शशांक को भूल जाओ, समझ लो कि शशांक सचमुच मर गया। मैं जल के बुलबुले के समान अनन्त जलराशि में मिल जाऊँगा, इस अपार जगत में कोई मुझे ढूँढ़े न पाएगा। आशीर्वाद करता हूँ कि तुम सुख से रहो। अब बड़े सुख से मैं मरने जाता हूँ, मन में कोई दु:ख नहीं है। दूर देश में ज्ञान शून्य होकर मैंने इतने दिन अज्ञातवास किया, जब ज्ञान हुआ तब सुना कि पिताजी नहीं हैं, फिर भी दौड़ा दौड़ा मैं पाटलिपुत्र आया। क्योंकि जानती हो, चित्रा! मन में बड़ी भारी आशा लिए हुए था कि तुम्हें देखूँगा तब कितना सुखी हूँगा। सोचता था कि तुम वैसे ही दौड़ी दौड़ी मेरे पास आओगी, तुम्हारी हँसी से संसार खिल उठेगा, तुम्हें लेकर मैं अपना सब दु:ख शोक भूल जाऊँगा। देखो चित्रा! इस चाँदनी में बालू का मैदान कैसा सुन्दर लगता है! इसमें तुम्हारे साथ कितनी बार खेलने निकला हूँ-अब मैं तुम्हें खेलते नहीं देखूँगा। चित्रा! देखो, वही तुम्हारी फुलवारी है। तुम्हारा समझ कर उसकी मैं कितनी सेवा, कितना यत्न करता था। चित्रा! उस दिन की बात का स्मरण है जिस दिन लतिका पहिले पहिल आई थी। उसे फूल तोड़कर दिया था इस पर तुम कितनी रूठी थी?'' ''आज आनन्द के दिन मैं भी थोड़ा आनन्द करने आ गया, चित्रा! अब और तुम्हारा सिर न दुखाऊँगा। बात देकर गया था, वही पूरी करने आ गया। अच्छा, अब जाओ। शशांक को भूल जाओ, बाल्यकाल की स्मृति दूर करो, आशीर्वाद करता हूँ''। ''युवराज!'' ''चित्रा!'' ''और एक बार पुकारो''। ''क्या कहकर पुकारूँ, चित्रा?'' ''जो कहकर पुकारा करते थे''। ''चित्रा, चित्रो, चित्रा, चित्रिता, चिती। अब और माया न बढ़ाऊँगा, तुम जाओ।'' ''कहाँ जाऊँ, युवराज?'' ''अपनी सेज पर''। ''यही तो मेरी सेज है''। ''छि: चित्रा! ऐसी बात मुँह से न निकालो। अब मैं जाता हूँ। तुम अपने को सँभालो''। युवराज कई पग हटे। चित्रादेवी उनकी ओर एकटक देखकर बोली ''युवराज, शशांक! तो क्या अब बिदा है?'' भरे हुए गले से शशांक ने उत्तर दिया ''हाँ, चित्रा! सब दिन के लिए बिदा''। देखते देखते नीचे गंगा में किसी भारी वस्तु के गिरने का शब्द हुआ। शशांक ने पीछे फिरकर देखा कि छत पर कोई नहीं है। गंगा के जल में मंडल सा बँधाकर फैल रहा है, बीच में बुलबुले उठ रहे हैं। महाराज शशांक की ऑंखों के आगे अंधेरा सा छा गया। वे भी छत पर से गंगा में कूद पड़े। ईशान कोण पर बादल चढ़ रहे थे। देखते देखते वे चारों ओर घिर आए। वर्षा होने लगी। जगत् अन्धकार में मग्न हो गया।
तीसरा परिच्छेद पुनरुत्थान सम्राट माधवगुप्त उदास मन सभा में बैठे हैं। सभासद भी उदास और सिर नीचा किए हैं। कल ही विवाह हुआ था और आज ही आमोद प्रमोद की कौमुदीरेखा पर विषाद के घने मेघ छाए हुए हैं। क्या हुआ? पट्टामहादेवी चित्रा का विवाह की रात से ही कहीं पता नहीं है। जो कभी राजसभा नहीं आते थे वे भी आज आए हैं। वेदी के नीचे पूर्व अमात्य ऋषिकेशशर्म्मा, महानायक यशोधावलदेव आदि बैठे हैं। स्थाण्वीश्वर का राजदूत प्रधान अमात्य के आसन पर बैठा है। सब लोग चिन्तामग्न और चुपचाप हैं। महाप्रतीहार विनयसेन सभामण्डप के तोरण पर खड़े हैं। उनके पास दो चार दंडधार और प्रतीहार भी खड़े हैं। अकस्मात विनयसेन चौंक पड़े; उन्हें जान पड़ा कि एक श्वेतपरिच्छदधारी पुरुष के साथ माधववर्म्मा, वसुमित्र, विद्याधारनन्दी इत्यादि विद्रोही नायक सभामंडप की ओर आ रहे हैं। विनयसेन ने अच्छी तरह दृष्टि की, देखा तो सामने वीरेन्द्रसिंह! वीरेन्द्रसिंह ने अभिवादन के उपरान्त कहा ''महाप्रतीहार! एक गौड़ीय सामन्त महानायक से मिलना चाहते हैं''। विनयसेन ने विस्मित होकर पूछा ''कौन? अरे तुम कब आए?'' वीरेन्द्र‑-मैं अभी आ रहा हूँ। विवाह के उत्सव पर पहुँचने के लिए चला था, पर मार्ग में विलम्ब हो गया इससे कल न पहुँच सका। इतने में श्वेतवस्त्रधारी पुरुष विनयसेन के सामने आ खड़े हुए और पूछने लगे ''विनयसेन! मुझे पहचानते हो?'' विनयसेन चकित होकर उनके मुँह की ओर ताकते रह गए। आनेवाले पुरुष ने फिर पूछा ''विनयसेन! इतने ही दिनों में भूल गए?'' विनयसेन ने पूछा ''तुम-आप कौन हैं?'' पीछे से अनन्तवर्म्मा ने उस पुरुष के सिर का उष्णीष हटा दिया। लम्बे लम्बे घुँघराले भूरे केश पीठ और कन्धों पर बिखर पडे। देखते ही विनयसेन के पैर हिल गए। महाप्रतीहार घुटने टेक हाथ जोड़कर बोले ''युवराज-महाराजाधिराज ...''। शशांक ने विनयसेन को उठाकर गले से लगा लिया। दण्डधारों और द्वारपालों ने सम्राट को देखते ही जयध्वनि की। ''महाराजाधिराज की जय'', ''युवराज शशांक की जय'' आदि शब्दों से सभामंडप काँप उठा। यशोधावलदेव बैठे एकाग्रचित्ता चित्रा की बात सोच रहे थे। दो एक बूँद ऑंसू भी उन्होंने चुपचाप तक्षदत्ता की एकमात्रा कन्या के लिए गिराए। अकस्मात् शशांक का नाम सुनकर वे चौंक पड़े और उठ खड़े हुए। फिर शब्द हुआ ''महाराजाधिराज की जय'', ''महाराजाधिराज शशांक की जय''। वृध्द महानायक उन्मत्ता के समान तोरण की ओर दौड़ पड़े। तोरण पर नंगे सिर एक युवक खड़ा था। वह उनके पैरों पर लोट गया। वे शशांक को हृदय से लगाकर मूर्च्छित हो गए। हरिगुप्त, रामगुप्त और नारायणशर्म्मा तोरण की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने देखा कि सामने शशांक खड़े हैं। शशांक ने सबके चरण छुए। जयध्वनि से बार बार सभामण्डप गूँजने लगा। माधवगुप्त भी सिंहासन छोड़ उठ खड़े हुए। वीरेन्द्रसिंह और विनयसेन यशोधावल की अचेत देह लेकर चले; पीछे पीछे शशांक, नारायणशर्म्मा, रामगुप्त, हरिगुप्त, अनन्तवर्म्मा और वसुमित्र सभामण्डप में आए। सभासद लोग अपने अपने आसनों पर से चकित होकर उठ खड़े हुए। सबको खड़े होते देख वृध्द ऋषिकेशशर्म्मा भी उठ खड़े हुए। सामने शशांक को देख वे चकपका उठे और तुरन्त झपट कर उन्हें गले से लगा कहने लगे ''पहचान लिया-तुम्हें पहचान लिया-तुम शशांक हो। शशांक लौट आए हैं-अरे, कोई है? जाकर तुरन्त महादेवी को बुला लाओ। मधुसूदन, नारायण, अनाथों के नाथ! धान्य हो! तुम जो चाहे सो करो, तुम्हारी महिमा कौन जान सकता है, प्रभो! नारायण, हरिगुप्त! महाराजाधिराज की बात ठीक निकली-शशांक लौट आए। दामोदरगुप्त की बात कभी झूठ हो सकती थी?'' वे शशांक को बड़ी देर तक हृदय से लगाए रहे, उन्हें प्रणाम तक करने न दिया। चारों ओर जयध्वनि हो रही थी, पर बहरे के कान में एक शब्द भी नहीं पड़ता था। धीरे धीरे यशोधावल को चेत हुआ। उन्होंने खड़े होकर कहा ''ऋषिकेश! नारायण कहाँ हो भाई? शशांक आ गए। महासेनगुप्त की बात पूरी हुई। महादेवी कहाँ हैं? उन्हें झट से जाकर बुला लाओ...''। वृध्द महामन्त्री की श्रवणशक्ति कुछ अधिक हो पड़ी थी, वे बोल उठे ''सुना है, देखा है, यशोधावलदेव! शशांक सचमुच आ गए''। यशो‑-ऋषिकेश! अब वचन का पालन करो। ऋषि‑-हाँ! विलम्ब किस बात का है? दोनों वृध्द ने माधवगुप्त का हाथ पकड़कर उन्हें सिंहासन से उतारा, और वेदी के नीचे खड़ा कर दिया। बिना कुछ कहे सुने चुपचाप माधवगुप्त मगध के सिंहासन पर से उतर रहे थे। यह देख थानेश्वर का राजदूत कड़ककर बोला ''महाराजाधिराज ! किसके कहने से सिंहासन छोड़ रहे हैं, बूढ़ों और बावलों के? युवराज शशांक की तो मृत्यु हो गई। आप इस सिंहासन के एकमात्रा अधिकारी हैं। झूठी माया में पड़कर आप अपने को न भूलें''। इतना सुनते ही अनन्तवर्म्मा भूखे बाघ की तरह झपट कर वेदी पर आ पहुँचे और उन्होंने जोर से लात मारकर राजदूत को गिरा दिया। इतने में सभामंडप के चारों ओर दंडधार लोग चिल्ला उठे ''हटो, रास्ता छोड़ो, महादेवी आ रही हैं''। सभासद सम्मानपूर्वक किनारे हट गए। माधवगुप्त वेदी के नीचे खड़े रहे। शोक से शीर्ण महादेवी उन्मत्ता के समान आकर सभामंडप के बीच खड़ी हो गईं। थोड़ी देर तक शशांक के मुँह की ओर देख उन्होंने झपटकर गोद में भर लिया। आनन्द में फूलकर जनसमूह जयध्वनि करने लगा। महादेवी के साथ गंगा, लतिका, तरला, यूथिका तथा और न जाने कितनी स्त्रियाँ सभामण्डप में आईं। उन्हें एक किनारे खड़े होने को कहकर यशोधावलदेव बोले ''महादेवीजी! शान्त हों, महाराजाधिराज को अब सिंहासन पर बिठाएँ''। थानेश्वर का राजदूत बड़ा विलक्षण और नीतिकुशल था। वह पदाघात का अपमान भूलकर फिर बोल उठा ''महानायक आप ज्ञानवृध्द और नीतिकुशल हैं। घोर माया में मुग्धा होकर आप किसे सिंहासन पर बिठा रहे हैं? युवराज शशांक अब इस लोक में कहाँ हैं? यह तो कोई धूर्थ्ता और भंड है''। बिजली की तरह कड़ककर महानायक सभामंडप को कँपाते हुए बोले ''सुनो, दूत! तुम अवधय हो, नहीं तो इसी क्षण धाड़ से तुम्हारा सिर अलग कर देता। मुझे इस संसार में आए नब्बे वर्ष हो गए। कौन है, कौन प्रतारक है यह सब मैं अच्छी तरह जानता हूँ। तुम अपने को सच्चे सम्राट के सामने समझो और झटपट अभिवादन करो। कौन है, पुत्र की माता से पूछो। ऋषिकेशशर्म्मा, नारायणशर्म्मा, रामगुप्त, हरिगुप्त, रविगुप्त आदि पुराने राजपुरुषों से पूछो। थोड़ा सोचो तो कि अनन्तवर्म्मा, वसुमित्र माधववर्म्मा आदि विद्रोही नायक किसके साथ पाटलिपुत्र आए हैं? अब व्यर्थ बकवाद न करो, चुप रहो''। हंसवेग चुप। ऋषिकेशशर्म्मा और यशोधावलदेव ने हाथ पकड़कर शशांक को सिंहासन के ऊपर बिठाया। पौरांगनाएँ मंगलगीत गाने लगीं। एकत्रा जनसमूह की जयध्वनि आकाश में गूँजने लगी। महादेवी की आज्ञा से एक परिचारिका सोने के कटोरे में दही, चन्दन, दूर्वा और अक्षत ले आई। ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन किया, बड़े बूढ़े अमात्यों ने नए सम्राट को आशीर्वाद दिया। जब सब लोग अपने अपने आसन पर बैठ गए तब विनयसेन ने सिंहासन के पास जाकर अभिवादन किया और कहा ''महाराजाधिराज ! आपका पुराना सेवक लल्ल तोरण पर खड़ा है। वह एक बार श्रीमान् को देखना चाहता है''। सम्राट ने तुरन्त सामने ले आने की आज्ञा दी। बहुत देर पीछे बुढ़ापे से झुका हुआ एक अत्यन्त जर्जर वृध्द लाठी टेकता सभामंडप में आया। शशांक उसकी आकृति देख चकित हो गए। वे सिंहासन से उठकर उसकी ओर बढ़े। सभा में जितने लोग थे सब जय जयकार करने लगे। शशांक को अपनी ओर आते देख लल्ल खड़ा हो गया। उसकी ऑंखों की ज्योति मन्द पड़ गई थी, सूखे हुए गालों पर ऑंसुओं की धारा बह रही थी। लल्ल ने रुक रुककर कहा ''तुम-भैया-तुम-शशांक!'' सम्राट ने दौड़कर वृध्द को हृदय से लगा लिया। वृध्द अपनी सूखी हुई बाँहों को सम्राट के गले में डाल बोला ''भैया! तुम सचमुच आ गए। महाराजाधिराज कह गए थे कि शशांक लौटेंगे, लौटेंगे। इसी से मैं अब तक बचा था, नहीं तो कब का अपने महाराज के पास पहुँच गया होता''। ऑंसुओं से सम्राट की ऑंखों के सामने धुन्ध सा छा गयी, उनका गला भर आया, उनके मुँह से केवल इतना ही निकल सका ''दादा...''। जनसमूह बार बार जयध्वनि करने लगा। सम्राट ने वृध्द को वेदी के ऊपर बिठाया, वह वहाँ किसी प्रकार बैठता नहीं था। वह लाठी टेककर उठा और कहने लगा ''भैया! तुम महाराज बनकर सिंहासन पर बैठो, मैं ऑंख भर देख लूँ। शशांक सिंहासन पर बैठ गए। उन्हें देखकर वृध्द बोला ''भैया! एक बार अपना पूर्ण रूप दिखलाओ-छत्रा, चँवर, दण्ड। विनयसेन ने गरुड़धवज लाकर शशांक के हाथ में दे दिया। यशोधावलदेव की आज्ञा से माधवगुप्त छत्रा लेकर सिंहासन के पास खड़े हुए। रामगुप्त के दोनों पुत्र चँवर लेकर ढारने लगे। यह दृश्य देख वृध्द की ऑंखें दमक उठीं। उसने खंग के स्थान पर अपनी लाठी को ही मस्तक से लगाकर सामरिक प्रथा के अनुसार अभिवादन किया। इसके पीछे वह थककर गिर पड़ा। उसकी यह अवस्था देख सम्राट झट सिंहासन से उतर कर उसके पास आए। वृध्द शशांक की गोद में सिर डाले पड़ा रहा। थोड़ी देर में वह बोला ''भैया! एक बार और, एक बार और तो पुकारो''। शशांक वृध्द के शरीर पर हाथ फेर बोले ''दादा! दादा! क्या है?'' वृध्द ऋषिकेशशर्म्मा आसन से उठकर ऊँचे स्वर में बोले ''है क्या, महाराज? लल्ल अब चले। बैकुण्ठ में महाराजाधिराज महासेनगुप्त की सेवा के लिए चले। अनाथों के नाथ, दुष्टों के दर्पहारी, मधुसूदन! मूढ़ जीव को अच्छी गति दो। भाई! सब लोग एक बार भगवान की जय बोलो''। हरिध्वनि से सभामण्डप गूँज उठा। लल्ल का अन्तकाल समझ सम्राट ने पुकारकर कहा ''लल्ल दादा! एक बार राम राम करो, कहो-राम-राम...''। वृध्द क्षीण कण्ठ से बोला ''राम-राम''। बोली बन्द हो गई, दो एक बार ऑंखों की पुतलियाँ ऊपर नीचे हिलीं। देखते देखते लल्ल ने परलोक की यात्रा की। प्रभुभक्त सेवक अब तक स्वामी के वियोग में इसी आशा पर दिन काट रहा था, आज चल बसा। सम्राट हाय मारकर रोते रोते उसके प्राणहीन शरीर पर गिर पड़े। चौथा परिच्छेद नरसिंहगुप्त का सन्धया के पीछे सम्राट चित्रासारी में विश्राम कर रहे हैं। रूप लावण्य से भरी तरुणीर् नत्ताकियाँ नाच गाकर उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा कर रही हैं। किन्तु नए सम्राट उदास हैं, उनके मुँह पर चिन्ता का भाव झलक रहा है। देखने से जान पड़ता है कि संगीत की ध्वनि उनके कानों में नहीं पड़ रही है,नरत्तकियों के हावभाव की ओर उनकी दृष्टि नहीं है। शशांक का जी आज न जाने किधार उड़ा हुआ है। उनका मन नाच रंग, राजकाज सब कुछ भूल कभी चाँदनी में चमकते हुए नए प्रासाद के अन्त:पुर में इधर उधार भटकता है, कभी गंगा की धावल धारा के भीतर किसी को ढूँढ़ता फिरता है। उनके पीछे वसुमित्र, माधववर्म्मा और अनन्तवर्म्मा बैठे हैं। वे भी उदास और खिन्न हैं। चित्रासारी के द्वार पर महाप्रतीहार विनयसेन दंड पर भार दिए खड़े हैं। एक दंडधर ने आकर उनके कान में धीरे से न जाने क्या कहा। विनयसेन घबराए हुए घर के भीतर गए। शशांक उसी प्रकार गहरी चिन्ता में डूबे थे, विनयसेन पर उनकी दृष्टि न पड़ी। महाप्रतीहार सहमते सहमते बोले ''महाराजाधिराज ! नरसिंहदत्ता आए हैं''। शशांक नरसिंह का नाम सुनते ही चौंककर बोल उठे ''क्या कहा? नरसिंह आए हैं। अच्छी बात है, मैं उन्हीं का आसरा देख रहा था। उन्हें यहीं ले आओ''। महाप्रतीहार अभिवादन करके चले गए। पीछे से वसुमित्र ने उठकर कहा ''महाराजाधिराज ! महानायक नरसिंहदत्ता ने चित्रादेवी की मृत्यु का समाचार अवश्य पाया होगा। उनसे मिलने पर महाराज को और दु:ख होगा''। वसुमित्र की बात काटकर शशांक ने कहा, ''नहीं, वसुमित्र, नरसिंह को यहीं आने दो। चित्रा अब नहीं है यह बात वे अवश्य सुन चुके होंगे। एक प्रकार से चित्रा की मृत्यु का कारण मैं ही हूँ। हृदय की भरी हुई वेदना से उन्हें जो कुछ कहना हो कह डालें। इससे मेरा जी बहुत कुछ हलका होगा''। वसुमित्र चुप होकर अपने आसन पर जा बैठे। अनन्तवर्म्मा उठकर द्वार के पास जा खड़े हुए। थोड़ी ही देर में महाप्रतीहार विनयसेन नरसिंहदत्ता को लेकर लौट आए। नरसिंहदत्ता ने अपने शरीर पर से वर्म्म तक न उतारा था। उनपर धूल पड़ी हुई थी, बाल भी बिखरे हुए थे। उन्हें आते देख शशांक उठ खड़े हुए। दूर ही से नरसिंह चिल्ला उठे ''युवराज-चित्र-युवराज...''। घर के भीतर आने पर सम्राट को देख वे बोले ''युवराज! चित्र क्या सचमुच...?'' शशांक कुछ भी विचलित न होकर धीरे से बोले ''सचमुच, नरसिंह! चित्र नहीं है''। हाँफते हाँफते नरसिंह ने कहा ''तो फिर सचमुच-युवराज तुमने...''। आगे और कुछ उनके मुँह से न निकल सका, वे भूमि पर गिर पड़े। शशांक का मुँह पीला पड़ गया। वे बोल उठे ''हाँ! नरसिंह मैंने ही। मैं ही चित्र की मृत्यु का कारण हूँ। मैंने उसे अपने हाथ से तो नहीं मारा, पर मरी वह मेरे ही कारण''। नरसिंह उठ खड़े हुए और कड़े स्वर से बोले ''युवराज शशांक! तुम्हारे सामने ही चित्रा मरी और तुम चुपचाप खड़े रहे, उसे बचाने का यत्न न किया?'' ''यत्न किया था, नरसिंह! पूर्णिमा का चन्द्रमा, गंगा की धारा, और आकाश के मेघ साक्षी हैं। वह कब जल में कूदी मैं देख न सका। उलटकर देखा तो छत पर चित्र न दिखाई पड़ी। मैं भी चट गंगा में कूद पड़ा। चन्द्रमा मेघों से ढक गया, पानी बरसने लगा, ऑंधी उठी, गंगा का जल बाँसों ऊपर उछलने लगा। इस धारा में मैं चित्रा को इधर उधर ढूँढ़ने लगा। नरसिंह! जब तक शरीर में बल रहा, जब तक चेत रहा तब तक ढूँढ़ता ही रहा, पर कहीं पता न लगा। नरसिंह! ज्ञान रहते मैं चित्रा को छोड़कर गंगा की धारा से बाहर नहीं निकला। मेरे अचेत हो जाने पर गंगा की तरंगों ने मुझे किनारे फेंक दिया''। नाच गाना बन्द हो गया। वसुमित्र का संकेत पाकरर् नत्ताकियों और गवैयों का दल चित्रासारी से निकलकर नौ दो ग्यारह हुआ। वहाँ सन्नाटा छा गया। नरसिंह फिर धीरे धीरे बोलने लगे ''शशांक! तुम उतनी रात बीते चुपचाप चोरों की तरह अन्त:पुर के कोने में चित्रा से मिलने क्यों गए? दिन को क्या तुम चित्रा से नहीं मिल सकतेथे?'' ''सुनो, नरसिंह! सोचा था कि एक बार एकान्त में जा उसे देख आऊँगा, फिर चला आऊँगा, फिर कभी न देखूँगा। तब तक पाटलिपुत्र वाले यही जानते थे कि शशांक मर गया है। मैंने सोचा था कि उसे देखकर मैं सचमुच ही मर जाऊँगा। जिस समय मैंने सुना कि आज उसका विवाह है, आज वह मगध की राजराजेश्वरी होगी उसी समय मेरी राज्य की आकांक्षा, जीने की आकांक्षा सब दूर हो गई। युध्दयात्रा के पहले मैंने चित्रा के सामने शपथ खाई थी कि मैं लौटकर आऊँगा-इसी मगध में, इसी पाटलिपुत्र नगर में फिर आकर मिलूँगा। इसीलिए एक बार और देखने दिखाने के लिए मैं अन्त:पुर में रात को ही पहुँचा। बाल्य, किशोर और युवावस्था की सब बातों को भूल जब वह माधव की अंकलक्ष्मी हुई तब मैंने विचारा कि अब एक क्षण भी यहाँ रहकर उसके जीवन में बाधा न डालूँगा-उसके सुख के मार्ग का कण्टक न रहूँगा। इसी से एक बार उसे ऑंख भर देखने गया था। मन के आवेग को वह न रोक सकेगी, अपना प्राण दे देगी, इसका मुझे कुछ भी धयान न था...''। ''माधव की अंकलक्ष्मी! शशांक, यह कैसी बात कहते हो?'' ''मैं ठीक कहता हूँ, नरसिंह! माधव का विवाह हुआ यह बात तो तुमने मार्ग में ही सुनी होगी। मैं भेष बदलकर नगर में आया और मैंने सब उत्सव देखा। समय दोपहर का था। मुझसे एक नागरिक ने कहा कि तक्षदत्ता की कन्या के साथ माधवगुप्त का विवाह हो रहा है। सारा संसार मुझे घूमता सा दिखाई पड़ने लगा, मेरी ऑंखों के सामने चिनगारियाँ सी छूटती दिखाई देने लगीं''। ''तब तक तो विवाह नहीं हुआ था। शशांक! तुम उसी समय प्रासाद में क्यों नहीं गए, उसी समय चित्रा से क्यों न जाकर मिले?'' ''मेरा अदृष्ट, नरसिंह! और क्या कहूँ? उस समय वर्म्म के भार से दबकर मैं धाँसने लगा, पैरों पर खड़ा न रह सका। मैं पुराने मन्दिर के पास की बावली पर जाकर पड़ गया। आते जाते नागरिक मुझे मद में चूर समझ हँसी ठट्ठा करते थे। चित्रा का विवाह माधव के साथ हो रहा है, बस यही बात मेरे मन में नाच रही थी। धीरे धीरे संसार मेरे सामने से हट सा गया, मुझे कुछ सुधा बुधा न रह गई। उसके पीछे अन्धकार छा गया, क्या क्या हुआ मैं नहीं जानता''। ''जब चेत हुआ तब देखा कि रात का सन्नाटा छाया हुआ है। उत्सव का कोलाहल धीमा पड़ गया है। विवाह उस समय हो चुका था। तब मेरे जी में आया कि एक बार जाकर चित्रा को देख आऊँ-बस एक ही बार-फिर उसके पीछे जल के बुलबुले के समान संसार सागर में विलीन हो जाऊँ। माधव सुख से राज्य करें, चित्रा के सुख के विचार से मैं माधव का कण्टक न रहूँगा''। ''जाकर देखा था? उसने क्या कहा?'' नरसिंह की ऑंखों में ऑंसू नहीं थे। उनका स्वर बादल की गरज की तरह गम्भीर हो गया था। शशांक हवा के झोंकों से हिलते हुए पर्पिंत्रा के समान काँप रहे थे। शशांक कहने लगे ''वह बार बार यही कहती थी कि युवराज, क्षमा करो, मैंने अपनी इच्छा से विवाह नहीं किया है। जब अन्त में वह मेरा पैर पकड़ने चली तब मैंने उसे दुतकार दिया। मैं समझा कि अब वह मेरी चित्रा नहीं है, वह माधवगुप्त की पत्नी है। नरसिंह! चित्रा मेरे छोटे भाई की स्त्री थी। वह बार बार मुझसे क्षमा माँगती थी और मैं उसकी हँसी करता था, उस पर व्यंग्य छोड़ता था। वह बार बार मेरा पैर पकड़ने दौड़ती थी, क्षमा चाहती थी। पर मैं क्षमा क्या करता? शास्त्र के दृढ़ बन्धन ने उसे माधव के साथ बाँधा दिया था, उसे छू जाना तक मेरे लिए पाप था। मेरे और उसके बीच शास्त्र और लोकाचार का भारी व्यवधान आ पड़ा था। उसे अधिक दु:खी करना ठीक न समझ मैं चट लौट पड़ा। चित्रा से सब दिन के लिए मैं विदा हुआ। दो पैर भी आगे न रखे थे कि किसी भारी वस्तु के जल में गिरने का शब्द कान में पड़ा। उलटकर देखा तो चित्रा कहीं नहीं है। नरसिंह! चित्रा की हत्या मैंने ही की है, मुझे मारो। दारुण यन्त्राणा से मुझे मुक्त करो। नरसिंह! तुम मेरे बाल्यसखा हो। इस समय मित्रा का कार्य करो। अब इस वेदना का भार हृदय नहीं सह सकता। तलवार खींचो, मेरा हृदय विदीर्ण करो। उसे ढूँढ़कर कहीं न पाया, वह अब नहीं है, पर मैं जीता हूँ, सिंहासन पर बैठा राज्य का स्वांग भरता हूँ। पर भीतर गहरी ज्वाला है, असह्य यन्त्राणा है। सच कहता हूँ, असह्य और अपार ज्वाला है। हृदय जल रहा है, कुछ दिखाई नहीं पड़ता है''। शशांक बैठने लगे, अनन्तवर्म्मा दौड़कर न थाम लेते तो वे भूमि पर गिर पड़ते। नरसिंहदत्ता पत्थर की अचलर् मूर्ति के समान खड़े रहे। आधा दंड इसी दशा में बीत गया। उसके पीछे नरसिंह ने धीरे से पुकारा ''शशांक!'' ''क्या है?'' ''युवराज! तुम अब महाराजाधिराज हो, अपना राजपाट भोगो। नरसिंह के लिए तो अब संसार सूना है। पितृहीना बालिका को लेकर मण्डला छोड़कर तुम्हारे पिता के यहाँ आश्रय लिया था। सोचा था कि कभी दिन फिरेंगे और वह राजराजेश्वरी होगी तब सबको लेकर मंडला जाऊँगा। पर वह चल बसी। उसे छोड़ मेरा कहीं कोई नहीं था। मेरी वह छोटी बहिन अब नहीं है। अब मण्डला में नरसिंह के लिए स्थान नहीं है। सिंहदत्ता का दुर्ग अब तक्षदत्ता के पुत्र के योग्य नहीं है। अब मुझे मण्डला न चाहिए। शशांक! अब मैं विदा चाहता हूँ, अब इस पाटलिपुत्र में एक क्षण नहीं रह सकता। यह विशाल नगर, यह राजप्रासाद मुझे चित्रामय दिखाई पड़ता है। यहाँ अब और नहीं ठहर सकता। तुम्हारे कार्य के लिए मैं अपना जीवन दे चुका हूँ, जब कभी कोई संकट का समय आएगा तब नरसिंह को अपने पास पाओगे''। इतना कहकर नरसिंहदत्ता वायु वेग से कोठरी के बाहर निकल गए। शशांक मूर्ति के समान भूमि पर बैठे रह गए। पाँचवाँ परिच्छेद भाग्य का पलटा पुराने मन्दिर के भुइँहरे में कुशासन पर बैठे महास्थविर बुध्दघोष और संघस्थविर बन्धुगुप्त बातचीत कर रहे हैं। भाग्यचक्र के अद्भुत फेर से वे आजकल हारे हुए हैं। जिस समय वे यह समझ रहे थे कि अब बौध्दसंघ निष्कण्टक हो गया, बौध्दराज्य की नींव अब दृढ़ हो गई उसी समय उन्होंने देखा कि बौध्दसंघ पर भारी विपत्ति आया चाहती है, बौध्दराज्य की आशा मिट्टी में मिला चाहती है। जिस दिन शशांक ने सभामण्डप में प्रकट होकर माधवगुप्त को सिंहासन से उतारा उसी दिन हंसवेग माधवगुप्त को लेकर पाटलिपुत्र से चलता हुआ। बुध्दघोष भी उस समय राजसभा में उपस्थित थे। वे भी सभा छोड़कर भागे, पर नगर में बने रहे। वे जानते थे कि पाटलिपुत्र के अधिकांश निवासी बौध्द हैं इससे शशांक मुझ पर सहसा कोई अत्याचार करने का साहस न कर सकेंगे। बन्धुगुप्त उस दिन राजसभा में नहीं गए थे। माधवगुप्त के राजत्वकाल में हंसवेग की मन्त्राणा के अनुसार यशोधावलदेव के हाथ से सब अधिकार ले लिए गए थे। उस समय बन्धुगुप्त भी कभी कभी राजसभा में आकर बैठते थे, पर डर के मारे यशोधावल के सामने कभी नहीं होते थे। अकस्मात् भाग्य ने पलटा खाया। कहाँ तो राज्य में उनकी इतनी चलती थी, उनकी मन्त्राणा के अनुसार कार्य होते थे कहाँ वे आज फिर डरे छिपे अपराधियों की दशा को प्राप्त हो गए। स्थाण्वीश्वर के सम्राट प्रभाकरवर्ध्दन कठिन रोग से पीड़ित चारपाई पर पड़े थे। उनके जेठे पुत्र पंचनद में हूणों का आक्रमण रोक रहे थे। शशांक के सिंहासन प्राप्त करने के दूसरे ही दिन बुध्दघोष और बन्धुगुप्त भागने की सलाह कर रहे थे। बन्धुगुप्त ने पूछा ''अब क्या उपाय है?'' बुध्द‑-बस एक भगवान शाक्यसिंह का भरोसा है- ये धार्म्मो हेतुप्रभवा हेतुस्तेषां तथागतोऽवदत्। तेषां च यो निरोधा एवं वादी महाश्रमण:ड्ड बन्धु.-इस समय अपना सूत्रापिटक रखो। धार्म कर्म की बात इस समय नहीं सुहाती है। बुध्द‑-संघस्थविर! तुम सदा धार्मशून्य रहे। अब तो त्रिारत्न का आश्रय ग्रहणकरो। बन्धु.-बाप रे बाप! त्रिरत्न का आश्रय तो इतने दिनों से लिए हूँ। त्रिरत्न क्या मुझे यशोधावल के हाथ से बचा लेगा? बुध्द‑-संघस्थविर! ऐहिक बातों को छोड़ परमार्थ की चिन्ता करो। बन्धु.-भाई! मुझसे तो अभी ऐहिक नहीं छोड़ा जाता। यह बताओ कि अब किया क्या जाय। बुध्द‑-शक्रसेन कहाँ होगा, कुछ कह सकते हो। बन्धु.-इधर तो उसका कुछ भी पता न लगा। उसी ने तो सब चौपट किया। वह न होता तो क्या शशांक कभी बचता? उसकी सहायता न होती तो क्या शशांक आज लौट आता? मेरे मन में तो आता है कि अब भी हम लोगों की खोज में होगा। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है, चटपट यहाँ से चल दो। बुध्द‑-ऐसे संकट के समय में संघ को निराधाार छोड़ पाटलिपुत्र से कैसे भागूँ? बन्धु.-तो क्या यहीं मरोगे? बुध्द.-मरने से मैं इतना नहीं डरता। बन्धु.-महास्थविर! बन्धुगुप्त भी मरने से नहीं डरता, पर यशोधावल के हाथों मरना-बाप रे बाप! बुध्द‑-तो फिर तुम भागो। बन्धु.-कहाँ जाऊँ? बुध्द‑-सीधो महाबोधि विहार में चले जाओ, वहाँ जिनेन्द्रबुध्दि होंगे। ''अच्छी बात है'' कहकर बन्धुगुप्त उठ खड़े हुए। बुध्दघोष ने हँसकर कहा ''इसी क्षण जाओगे?'' ''इसी क्षण''। ''अच्छी बात है। भगवान् तुम्हारा मंगल करें''। बन्धुगुप्त मन्दिर से निकल पड़े। बुध्दघोष अकेले रहे। आधाी घड़ी भी न बीती थी कि बाहर घोड़ों की टापें सुनाई पड़ीं। बुध्दघोष उठ खड़े हुए। इसी बीच हरिगुप्त, देशानन्द और कई नगररक्षी मन्दिर के भीतर घुस आए। देशानन्द ने बुध्दघोष को दिखाकर कहा ''यही महास्थविर बुध्दघोष है''। दो नगररक्षकों ने चट महास्थविर का हाथ पकड़ लिया। हरिगुप्त ने कहा ''महास्थविर बुध्दघोष! महाराजाधिराज की आज्ञा से राजद्रोह के अपराध में तुम बन्दी किए गए''। बुध्दघोष ने उत्तर न दिया। रक्षक उनके हाथ बाँधाकर उन्हें मन्दिर के बाहर ले गए। हरिगुप्त ने पूछा ''देशानन्द! बन्धुगुप्त कहाँ है?'' देशानन्द ने कहा ''संघाराम में होगा''। सब लोग मन्दिर के बाहर हुए। आधा दण्ड बीते भुइँहरे की एक गुप्त कोठरी से एक दुबला पतला बुङ्ढा भिक्खु निकला और मन्दिर के चारों ओर ढूँढ़कर मन्दिर के बाहर चला। थोड़ी देर में संघस्थविर बन्धुगुप्त फिर मन्दिर में आए और भुइँहरे में जाकर आसन मार भूमि पर रेखा खींचने लगे। आधी घड़ी के भीतर वही दुबला पतला भिक्खु फिर मन्दिर में आने लगा पर भुइँहरे में किसी की आहट पाकर खड़ा हो गया। मन्दिर के द्वार पर मनुष्य की छाया देख बन्धुगुप्त काँप उठे। लेखनी रखकर चट उठ खड़े हुए और द्वार की ओर बढ़े। वृध्द भिक्खु को इसकी कुछ आहट न मिली। बन्धुगुप्त ने एक फलांग में जाकर वृध्द का गला धार दबाया और पूछने लगे ''तुम कौन?'' वृध्द बहुत कुछ बल लगाकर छूटने का यत्न करने लगा। इस हाथापाई में उसके सिर की पगड़ी नीचे गिर पड़ी। बन्धुगुप्त उल्लास से चिल्ला उठा ''अच्छा! शक्रसेन! अब तो तेरा प्राण लिए बिना नहीं छोड़ता''। भूखे बाघ की तरह संघस्थविर वृध्द शक्रसेन के ऊपर चढ़ बैठा। वृध्द हाथ पैर पटकने लगा। इतने में कुछ दूर पर फिर घोड़ों की टाप का शब्द सुनाई पड़ा। बन्धुगुप्त पगड़ी से शक्रसेन के हाथ पैर बाँधा चट मन्दिर से भाग निकला। उसके भागने के कुछ देर पीछे हरिगुप्त ने आकर शक्रसेन का बन्धान खोला। शक्रसेन ने कहा ''अभी, अभी बन्धुगुप्त भागा है''। हरिगुप्त ने घबराकर पूछा ''कहाँ?'' शक्र‑-यह तो नहीं कह सकता। हरि‑-किस ओर गया है? शक्र‑-यह मैं नहीं देख सका। हरि‑-कितनी देर हुई?
शक्र‑-अभी,
अभी दो चार पल भी न हुए
होंगे। दोनों चट
बन्धुगुप्त की खोज में
बाहर निकले। छठा परिच्छेद बोधिदुरम का कटना राजपुरुष चारों ओर बन्धुगुप्त का पता लगाने लगे, पर वह पकड़ा न गया। एक नागरिक बन्धुगुप्त को पहचानता था। उसने बन्धुगुप्त को महाबोधि के पथ पर दक्षिण की ओर जाते देखा था। दो दिन पीछे राजपुरुषों को उससे पता लगा कि बन्धुगुप्त नगर से भाग गया है। सुनते ही स्वयं शशांक, यशोधावलदेव, वसुमित्र और अनन्तवर्म्मा पाटलिपुत्र से महाबोधि विहार की ओर चले। दोपहर का समय है। महाविशाल बोधिाद्रुम नामक पीपल के पेड़ की छाया में बैठे विहारस्वामी जिनेन्द्रबुध्दि और संघस्थविर बन्धुगुप्त बातचीत कर रहे हैं। उनके सामने ही वज्रासन था। कई भिक्खु आसपास खड़े हुए यात्रिायों से वज्रासन की पूजा करा रहे थे। बोधिद्रुम के पीछे के महाविहार से असंख्य शंख और घण्टों की ध्वनि तथा धूप की सुगन्धा आ रही थी। इतने में एक भिक्खु दौड़ा दौड़ा आया और कहने लगा ''प्रभो! विष्णुगया से एक अश्वारोही आवश्यक संवाद लेकर आया है, उसे यहाँ ले आऊँ?'' जिनेन्द्रबुध्दि ने सिर हिलाकर आज्ञा सूचित की। भिक्खु चला गया और थोड़ी देर में एक अश्वारोही योध्दा को लिए लौटा। उसने प्रणाम करके जिनेन्द्रबुध्दि से कहा ''प्रभो! कुछ गुप्त संवाद है''। जिनेन्द्रबुध्दि बोले 'ये संघस्थविर बन्धुगुप्त हैं। महासंघ की कोई बात इनसे छिपी नहीं है, तुम बेधाड़क कहो''। उसने फिर प्रणाम करके कहा ''सम्राट और महानायक यशोधावलदेव बहुत सी अश्वारोही सेना लेकर महाबोधि की ओर आ रहे हैं। हम लोगों के गुप्तचर ने कल रात को उन्हें प्रवरगिरि1 के नीचे शिविर में देखा था। बड़े तड़के मैं संवाद पाते ही चल पड़ा। अब वे विष्णुपदगिरि को पार कर चुके होंगे''। इतना सुनते ही बन्धुगुप्त घबराकर उठ खड़े हुए। यह देख जिनेन्द्रबुध्दि बोले ''संघस्थविर! कोई डर नहीं है, घबराओ मत। अश्वारोही को विदा करके वे बन्धुगुप्त को साथ लिए महाबोधि विहार में गए। उस समय भी महाबोधि विहार के ऊपर चढ़ने के लिए दो स्थान पर सीढ़ियाँ थीं, उस समय भी विहार के दूसरे खण्ड में भगवान् शाक्यसिंह की पत्थर की खड़ी मूर्ति थी। दोनों दक्षिण ओर की सीढ़ी से चढ़कर दूसरे खण्ड में पहुँचे और वहाँ से भुइँहरे में उतरे। वहाँ एक रक्ताम्बरधारी भिक्खु बैठा पूजा कर रहा था। जिनेन्द्रबुध्दि ने उसे बाहर जाने को कहा। उसे वहाँ से निकल जाना पड़ा। जिनेन्द्रबुध्दि ने गर्भगृह का द्वार बन्द करके बन्धुगुप्त के हाथ में एक दीपक देकर कहा ''मैं आपको ऐसे स्थान पर ले चलकर छिपा देता हूँ जहाँ सौ वर्ष ढूँढ़ता ढूँढ़ता मर जाय तो भी आपके पास तक कोई नहीं पहुँच सकता। विहार के चौड़े प्राकार के बीचोबीच सुरंग है जो बोधिद्रुम के नीचे से होकर गया है''। इतना कहकर जिनेन्द्रबुध्दि ने दीवार पर हाथ फेरा। हाथ रखते ही एक छोटासा द्वार खुल पड़ा। दोनों उसके भीतर घुसे। रक्ताम्बरधाारी भिक्खु गर्भगृह के द्वार पर आसन जमाए किवाड़ की ओर कान लगाए उन दोनों की बातचीत सुनता था। सुरंग बोधिद्रुम और वज्रासन के नीचे गयाहै इतना भर सुन पाया। इसके अनन्तर वह बहुत देर तक बैठा रहा, पर और कोई शब्द उसे सुनाई न पड़ा। वह धीरे-धीरे लोहे की सीढ़ी के सहारे मन्दिर के ऊँचे शिखर परचढ़ गया। वहाँ से उसने देखा कि दूर पर निरंजना नदी के किनारे किनारे बहुत सी अश्वारोही सेना घटा के समान उमड़ती महाबोधिविहार की ओर दौड़ी चली आ रही है। यह देख वह मन्दिर के शिखर पर से उतरा। उतर कर उसने देखा कि गर्भ गृह का द्वार खुला है और वहाँ सन्नाटा है। वह विहार से निकल कर राजपथ पर जा खड़ा हुआ। सुरंग का मार्ग पकड़े हुए जिनेन्द्रबुध्दि बन्धुगुप्त के साथ नीचे उतरे। जहाँ सुरंग का अन्त हुआ वहाँ लोहे का एक छोटा सा द्वार दिखाई पड़ा। उन्होंने बन्धुगुप्त को उसके खोलने का ढंग बताकर कहा ''आप बेखटके यहाँ छिपे रहें। महाबोधिविहार के अधयक्ष के अतिरिक्त और किसी को इस सुरंग का पता नहीं है। यदि किसी प्रकार किसी को इस सुरंग का पता लग जाय, और कोई ढूँढ़ता ढूँढ़ता यहाँ तक आने लगे तो आप चट यह लोहे का किवाड़ खोलकर आगे निकल जाइएगा। निरंजना
1. प्रवरगिरि = बराबर पहाड़। के उस पार आप निकलेंगे। वहाँ बीहड़ वन में होते हुए आप कुक्कुटपादगिरि1 पर चले जाइएगा।'' जिनेन्द्रबुध्दि ने ऊपर आकर गुप्त द्वार बन्द कर दिया और गर्भगृह के बाहर आकर उन्होंने देखा कि वहाँ कोई नहीं है। वे फिर आकर बोधिदु्रम के नीचे आसन जमाकर बैठ गए। आधा दण्ड बीतते बीतते कई सहò अश्वारोही सेना ने आकर महाबोधिविहार और संघाराम को घेर लिया। सम्राट शशांक और यशोधावलदेव ने आकर विहारस्वामी जिनेन्द्रबुध्दि से बन्धुगुप्त का पता पूछा। उन्होंने कहा ''बन्धुगुप्त तो इधर बहुत दिनों से नहीं दिखाई पड़े''। शशांक को उनकी बात पर विश्वास न आया। चारों ओर बन्धुगुप्त की खोज हुई, पर कहीं पता न लगा। यशोधावलदेव की आज्ञा से संघाराम के एक एक भिक्खु ने बोधिादु्रम के नीचे का वज्रासन स्पर्श करके शपथ खाई कि ''मैंने बन्धुगुप्त को नहीं देखा है''। सब भिक्खुओं ने झूठी शपथ खाई। केवल एक भिक्खु ने शपथ नहीं खाई। यह वही रक्ताम्बरधारी भिक्खु था। यशोधावलदेव ने जब बन्धुगुप्त का पता पूछा तब उसने कहा ''बन्धुगुप्त कहाँ हैं यह तो मैं नहीं कह सकता, पर वे किस मार्ग से गए हैं यह मैंने सुना है''। यशोधावल ने बड़े आग्रह से पूछा ''किस मार्ग से?'' भिक्खु बोला ''सुरंग के मार्ग से''। ''सुरंग कहाँ है?'' ''वज्रासन और बोधिदु्रम के नीचे''। क्रोधा से विहारस्वामी जिनेन्द्रबुध्दि का मुँह लाल हो गया; बड़ी कठिनता से अपना क्रोधा रोककर सम्राट ने कहा ''महाराजाधिराज ! बोधिदु्रुम के नीचे से सुरंग नहीं है''। शशांक-है या नहीं यह तो अभी देखा जाता है। जिनेन्द्र-सर्वनाश, महाराज! बोधिद्रुम पर हाथ न लगाएँ। शशांक-क्यों, क्या होगा? जिनेन्द्र-सृष्टि के आदि से बुध्दगण इसके नीचे बैठ बुध्दत्व प्राप्त करते आए हैं, इसका एक पत्ताा छूने से भी महाराज का मंगल न होगा। शशांक-अमंगल ही होगा न? सम्राट ने कई सैनिकों को बोधिद्रुम काटने की आज्ञा दी। भिक्खु लोग रोनेचिल्लाने लगे। बोधिाद्रुम की डालें और टहनियाँ कट कटकर गिरने लगीं। धीरे धीरे पेड़ी भी खोद डाली गई। वज्रासन का भारी पत्थर अपने स्थान से हट गया। नीचे सुरंग निकल आया, पर उसके भीतर बन्धुगुप्त का कहीं पता न लगा। दिन डूबतेडूबते सुरंग के छोर पर का लोहेवाला द्वार जब तोड़ा जाने लगा उस समय बन्धुगुप्त गगनस्पर्शी कुक्कुटपादगिरि के पास पहुँच गए थे। शशांक और यशोधावलदेव विफलमनोरथ
1. कुक्कुटपादगिरि = गुरपा पहाड़। होकर पाटलिपुत्र लौट गए। इस घटना के चवालीस वर्ष पीछे जब चीन देश से एक धार्म्मात्मा भिक्खु आया तब उससे विपथगामी भिक्खुओं ने कहा कि महाराज शशांक ने धार्मद्वेष के कारण परम पवित्रा बोधिाद्रुम को कटाया था इससे पृथ्वी फट गई और वह उसके भीतर समाकर घोर नरक में जा पड़ा। अन्त में अशोक के वंशधार पूर्णवर्म्मा की भक्ति और सेवा के प्रभाव से एक रात में ही बोधिद्रुम फिर ज्यों का त्यों हो गया। जड़ से उखाड़ा हुआ वृक्ष किस प्रकार एक ही रात में बढ़कर साठ हाथ का हो गया यह बताना इस आख्यायिका का विषय नहीं, पर धार्मप्राण चीनी परिव्राजक ने यह कहानी ज्यों की त्यों अपने भ्रमणवृत्तान्त में टाँक ली।
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