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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7

शशांक

 भाग - 9


 
सातवाँ परिच्छेद
यशोधावल की प्रतिहिंसा

बन्धुगुप्त का कहीं पता न लगा। महादण्डनायक रविगुप्त के सामने महास्थविर बुध्दघोष का विचार हुआ। महास्थविर को राजद्रोह के अपराध में प्राणदण्ड की आज्ञा हुई। विचार के समय बुध्दघोष ने स्पष्ट कह दिया कि जो बौध्दधार्मावलम्बी नहीं उसे बौद्धलोग कभी राजा नहीं मान सकते। उसे सिंहासन से उतारने में, उसकी हत्या करने में कोई पाप नहीं है, महापुण्य है। बौध्दों के निकट प्रभाकरवर्ध्दन ही देश के राजा हैं, प्रजापालक हैं, अत: राजद्रोह का अपराध मुझपर नहीं लग सकता। गंगाद्वार के सामने बुध्दघोष का कटा सिर सफेद बालू पर जा पड़ा। उत्तारापथ के बौध्दसंघ का कोई नेता न रह गया।
भागते गीदड़ के समान बन्धुगुप्त मगध के एक स्थान से दूसरे स्थान में छिपता हुआ अन्त में फिर पाटलिपुत्र लौट आया। राजपुरुष उसकी खोज बाहर बाहर कर रहे थे इससे वह समझा कि राजधानी में चलकर कुछ दिन शान्ति से रहूँगा। वह पाटलिपुत्र पहुँचकर उस पुराने मन्दिर के गर्भगृह में रहने लगा। दिन भर तो वह उसी ऍंधोरी कोठरी में पड़ा रहता, रात को खाने पीने की खोज में निकलता। यशोधावलदेव की छाया उसे सदा पीछे लगी जान पड़ती थी।
जिस पुराने मन्दिर के सामने तरला और जिनानन्द (वसुमित्र) की भेंट हुई थी एक दिन सन्धया के समय उसके पास दो अश्वारोही घूम रहे थे। दोनों अश्वारोही धीरे धीरे पुराने मन्दिर की ओर बढ़ रहे थे और धीरे धीरे बातचीत करते जाते थे। मन्दिर की ओर से एक पथिक उनकी ओर चला आ रहा था। वह उन दोनों को देखते ही जंगल में छिप गया। एक अश्वारोही बोला ''आर्य! बन्धुगुप्त का कोई पता न लगा''। दूसरा बोला ''पुत्र! कीर्तिधावल की हत्या का बदला लिए बिना मैं मरूँगा नहीं। जहाँ होगा, जिस प्रकार से होगा उसे पकड़िएगा अवश्य''।
इतने में पथ के किनारे का एक वृक्ष हिल उठा। उसे देख सम्राट बोल उठे। ''कौन?'' कोई उत्तर न मिला। सम्राट और यशोधावल झाड़ों में घुस पड़े। थोड़ी दूर बढ़कर उन्होंने देखा कि एक मनुष्य साँस छोड़कर जीर्ण मन्दिर की ओर भागा जा रहा है। पल भर में सम्राट ने उसके पास पहुँच उसकी पगड़ी खींची। वह पगड़ी छोड़कर भागने लगा। सम्राट ने चकित होकर देखा कि उसका सिर मुँड़ा हुआ है।
पीछे से यशोधावलदेव बोल उठे ''शशांक! अवश्य यह कोई बौद्धभिक्खु है। देखना, जाने न पाए''। वह मनुष्य जी छोड़कर मन्दिर की ओर भागा जाता था। मन्दिर के द्वार के पास पहुँचते पहुँचते यशोधावलदेव ने उसका वस्त्र जा पकड़ा। वह अपने को सँभाल न सका, भूमि पर गिर पड़ा और कहने लगा ''यशोधावल! मुझे मारना मत, प्राणदान दो, क्षमा करो''। वृद्धमहानायक चकपकाकर उसकी ओर ताकने लगे। थोड़ी देर में उन्होंने पूछा ''तू कौन है? तूने मुझे कैसे पहचाना?'' उसने कोई उत्तर न दिया।
इतने में सम्राट भी वहाँ आ पहुँचे। महानायक ने उनसे कहा ''पुत्र! देखो तो यह कौन है। मैं तो इसे नहीं पहचानता, पर यह मुझे पहचानता है। इसने अभी मेरा नाम लिया था''। सम्राट उसके पास गए और उसे देखते ही चौंक पड़े। उन्हें चट धयान आया कि मेघनादनद में इसी व्यक्ति ने मुझ पर ताक कर बरछा छोड़ा था। अस्त्रा॓ की झनकार और योध्दाओं की कलकल के बीच उसका गम्भीर कर्कश स्वर सुनाई पड़ा था कि ''यही शशांक है, मारो मारो'' सम्राट ने पहचाना कि यही बौध्दसंघ के बोधिसत्वपाद संघस्थविर बन्धुगुप्त हैं। सम्राट ने अस्फुट स्वर से कहा ''भट्टारक! य-य-यही व्यक्ति बन्धुगुप्त है।'' सुनते ही वृद्धमहानायक की आकृति बदल गई। पल भर में अस्सी वर्ष के बुङ्ढे के शरीर में जवानों का सा बल आ गया। हिंसावृत्ति ने प्रबल पड़कर बुढ़ापे को दूर कर दिया। वृद्धमहानायक का झुका हुआ शरीर तन गया। वे बोले ''पुत्र! अब इस बार...''। शशांक पत्थर की मूर्ति बने चुपचाप खड़े रहे। उन्हें देख बन्धुगुप्त बोल उठे ''सम्राट-शशांक-क्षमा-मुझे क्षमा करो-मारो मत-यदि मारना ही हो तो मुझे यशोधावल के हाथ से छुड़ाओ-बुध्दघोष के समान घातकों के हाथ में दे दो-पशु के समान खेला खेलाकर न मारो''।
यशोधावलदेव उन्मत्ता के समान ठठाकर हँसे और कहने लगे ''बन्धुगुप्त! तूने जिस समय कीर्तिधावल की हत्या की थी उस समय कितनी दया दिखाई थी?'' बन्धुगुप्त काँपकर बोला ''यशोधावल! तो तुम जानते हो...''।
यशो -मैं सब जानता हूँ। बन्धुगुप्त! जिस समय मेरा पुत्र घायल होकर अचेत पड़ा था उस समय तूने उस पर कितनी दया दिखाई थी?
बन्धु -महानायक! उस समय मेरे ऊपर भूत चढ़ा था-मैं-मैं-
यशो -जिस समय रक्त बहने के कारण प्यास से तलफकर उसने जल माँगा था उस समय तूने क्या किया था, कुछ स्मरण है?''
बन्धु -है क्यों नहीं, यशोधावल! उस समय मैं उनका गरम गरम रक्त शरीर में पोत कर प्रेत के समान नाच रहा था। पर तुम अब क्षमा करो, धावलवंश में धाब्बा मत लगाओ।
यशो -वह तो बाण लगने से घायल हुआ था, तुझे इतना रक्त कहाँ से मिला?
बन्धु -महानायक! मैंने उनके हाथ पैर की नसें काट दी थीं। उनके रक्त से देवी के मन्दिर का ऑंगन लाल हो गया था। वह अब तक मेरी ऑंखों के सामने नाच रहा है। महानायक! क्षमा करो।
यशो -उसी हत्या का बदला चुकाने के लिए तो यशोधावल अब तक जी रहे हैं। तेरे रक्त से भूमि को रँगे बिना उसकी प्रेतात्मा कभी तृप्त न होगी। पितर प्यासे हैं, वे मुझे शाप देंगे। बन्धुगुप्त! जिस प्रकार तूने बालक कीर्तिधावल की हत्या की थी उसी प्रकार आज तुझे भी मरना होगा।
इसी बीच शशांक काँपते हुए महानायक की ओर बढ़े और घुटने टेक हाथ जोड़कर बोले ''पिता...''। सारे वन को कँपाते हुए वृद्धमहानायक ने अकड़कर कहा ''पुत्र! इस समय यहाँ से चले जाओ। यशोधावल इस समय पिशाच हो गया है। पुत्रहन्ता की रक्तपिपासा ने उसे उन्मत्ता कर दिया है। महासेनगुप्त के पुत्र का वचन व्यर्थ होगा। चले जाओ''। अपने को किसी प्रकार सँभालकर शशांक फिर बोले ''भट्टारक! थोड़ा धर्ौय्य...''। उनकी बात पूरी भी न हो पाई थी कि यशोधावल ने बाएँ हाथ से उन्हें दूर हटा दिया और दाहिने हाथ से तलवार खींची। सम्राट दोनों हाथों से ऑंख मूँदकर वहाँ से हट गए।
घड़ी भर में सम्राट की आज्ञा से वसुमित्र और हरिगुप्त ने उस पुराने मन्दिर में जाकर देखा कि मन्दिर का ऑंगन रक्त में डूब गया है। वज्रासन बुध्ददेव की मूर्ति के सामने संघस्थविर बन्धुगुप्त का मृत शरीर पड़ा हुआ है। और रक्त लपेटे भीषण मूर्ति धारण किए महानायक उन्मत्ता॓ के समान ऑंगन में नाच रहे हैं। देखते ही दो के दोनों काँप उठे। बड़ी कठिनता से यशोधावलदेव को किसी प्रकार रथ पर बिठा कर वे प्रासाद की ओर ले गए।
 
आठवाँ परिच्छेद
विग्रह और विद्रोह

सिंहासनच्युत होकर महाकुमार माधवगुप्त कहाँ चले गए पाटलिपुत्र में कोई नहीं जानता। कुछ लोग कहते थे कि हंसवेग के साथ थानेश्वर चले गए। शशांक ने अपने छोटे भाई को ढूँढ़ने के लिए चारों ओर दूत भेजे, पर उनका कहीं पता न लगा।
बन्धुगुप्त के मारे जाने के पीछे यशोधावलदेव दिन दिन अशक्त होते गए, यहाँ तक कि वे उठकर चल फिर भी नहीं सकते थे। अपना अन्तकाल समीप जान वृद्धमहानायक ने सेठ की कन्या यूथिका और अनन्त की बहिन गंगादेवी का विवाह कर देने का अनुरोधा सम्राट से किया। शुभ मर्ुहूत्ता में वसुमित्र के साथ यूथिका का, माधववर्म्मा के साथ गंगा का और वीरेन्द्रसिंह के साथ तरला का विवाह हो गया। शशांक ने लतिका के विवाह के विषय में भी पूछा, पर वृद्धमहाशय ने कोई उत्तर न दिया।
विवाहोत्सव हो जाने पर एक दिन सम्राट गंगाद्वार के घाट पर बैठे थे। कुछ दूर पर द्वार के पास महाप्रतीहार विनयसेन और महानायक अनन्तवर्म्मा खड्ग लिए खड़े थे। ये लोग सदा सम्राट के पास रहते थे। भागीरथी के शान्त जलसमूह के ऊपर चाँदनी की शुभ्रधारा पड़ रही थी। सम्राट एकटक उसी ओर ताक रहे थे। वे मन ही मन सोच रहे थे कि इसी जलसमूह के नीचे बालुका कणों के बीच कहीं चित्रा छिपी होगी। एक बार भी उसे यदि देख पाते! उसकी श्वेत ठठरी कहीं सेवार से ढकी हुई नदीगर्भ में पड़ी होगी और मैं रत्नजड़ित सोने के सिंहासन पर बहुमूल्य वस्त्र आभूषण पहने बैठा हूँ। वही चित्रा, फूल चुनते समय जिसकी कोमल उँगलियों में एक छोटा सा काँटा चुभ जाने से कितनी पीड़ा होती थी, वह कितना व्याकुल होती थी! जिस समय मैं जल में कूदा था उस समय मुझे कितनी वेदना हुई थी! उसके हाथ दारुण मानसिक वेदना से शिथिल होकर जिस समय तैरने में अशक्त हो गए होंगे उस समय मृत्यु का आलिंगन करने में उसे कितनी यन्त्राणा हुई होगी! रुके हुए नाले के समान ऑंसुओं की धारा छूट पड़ी। शशांक की ऑंखों में धुन्ध सा छा गया। चाँदनी में डूबा हुआ जगत् सामने से हट गया।
इसी बीच एक दण्डधार दौड़ा दौड़ा आया और सम्राट का अभिवादन करके बोला ''देव! उत्तर मालव से महाराज देवगुप्त ने एक दूत भेजा है। वह इसी समय महाराजाधिराज का दर्शन चाहता है''। सम्राट कुछ अनमने से होकर बोले ''उसे यहीं ले आओ''। दंडधार प्रणाम करके चला गया।
दंडधार थोड़ी ही देर में एक वर्म्मधारी पुरुष को साथ लिए लौट आया। वहसम्राट को अभिवादन करके बोला ''महाराजाधिराज ! मालव से महाराज देवगुप्त ने मुझे भेजा है। मैं दिन रात घोड़े की पीठ पर ही चल कर आज दो महीने में यहाँ पहुँचा हूँ''।
''क्या संवाद लाए हो?''
''संवाद बहुत गोपनीय है''।
''तुम बेधाड़क कहो। यहाँ पर इस समय जितने लोग हैं सब साम्राज्य के विश्वस्त कर्म्मचारी हैं''।
''महाराज देवगुप्त ने महाराजाधिराज के पास यह कहला भेजा है कि दो महीने हुए कि थानेश्वर में विषमज्वर से महाराज प्रभाकरवर्ध्दन की मृत्यु हो गई''।
अनन्त- क्या कहा?
दूत-विषमज्वर से महाराज प्रभाकरवर्ध्दन की मृत्यु हो गई।
शशांक-इसके लिए देवगुप्त ने क्यों दूत भेजा है? स्थाण्वीश्वर से यथासमय संवाद आ ही जाता।
दूत-महाराजाधिराज ! और संवाद भी है। महाराज प्रभाकरवर्ध्दन की मृत्यु के समय महाकुमार राज्यवर्ध्दन वहाँ नहीं पहुँच सके। वे हूण देश की चढ़ाई पर गए हैं। वे नगरहार और पुरुषपुर से आगे गान्धार देश की घाटियों में जा पहुँचे। अब तक वे लौट कर नहीं आए हैं।
शशांक-तो क्या हर्ष ने अपने जेठे भाई के सिंहासन पर अधिकार कर लियाहै?
दूत-नहीं महाराजाधिराज! महादेवी यशोमती ने चितारोहण किया। राज्यवर्ध्दन अब तक लौटकर नहीं आए हैं। हर्ष, शोक के मारे अधामरे से हो रहे हैं। महाराज ने निवेदन किया है कि आर्य समुद्रगुप्त के विनष्ट साम्राज्य के उध्दार का यही समय है। वे कान्यकुब्ज पर आक्रमण करके थानेश्वर की ओर बढ़ रहे हैं। उन्होंने निवेदन किया है कि महाराजाधिराज इधर से प्रतिष्ठान दुर्ग पर चटपट अधिकार करें।
शशांक-दूत! मालवराज बावले तो नहीं हुए हैं? वे क्या नहीं जानते कि स्वर्गीय प्रभाकरवर्ध्दन सम्राट दामोदरगुप्त के दोहित्रा थे। उनसे कहना कि साम्राज्य के साथी स्थाण्वीश्वर राज्य का कोई विवाद नहीं है। दूसरी बात यह कि विपत्तिा में पड़े हुए पुराने बैरी पर भी आक्रमण करना क्षात्राधार्म्म के विरुद्धहै। हर्ष मेरे फुफेरे भाई हैं। तुम चटपट लौटो और मालवराज से मेरा नाम लेकर कहो कि वे मालवा लौट जायँ। अन्याय से समुद्रगुप्त के विनष्ट साम्राज्य का उध्दार नहीं हो सकता।
दूत-महाराजाधिराज ! थानेश्वर के राजा साम्राज्य के पुराने शत्रु हैं। महाराज देवगुप्त ने यज्ञवर्म्मा की हत्या, अवन्तिवर्म्मा के विद्रोह और पाटलिपुत्र में थानेश्वर की सेना के उध्दत व्यवहार की बात का स्मरण करने के लिए कहा है।
शशांक-उनसे कहना कि मुझे सब बातों का स्मरण है, फिर भी मैं अन्याय और अधार्म में प्रवृत्ता नहीं हो सकता।
दूत-महाराजाधिराज !
शशांक-क्या कहना चाहते हो? बेधड़क कहो।
दूत-महाराजाधिराज महासेनगुप्त के पुत्र हैं; समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त और कुमारगुप्त के वंशधार हैं। गुप्तवंश के पूर्व गौरव का धयान श्रीमान् के चित में सदा बना रहना चाहिए। साम्राज्य की असहाय अवस्था में विश्वासघातकों ने किस प्रकार एक नया राज्य खड़ा कर लिया यह बात किसी से छिपी नहीं है।
इतने में महाबलाधयक्ष हरिगुप्त दौड़े हुए गंगाद्वार से निकलकर आए और दण्डधार से पूछने लगे ''सम्राट कहाँ हैं?'' उसने उँगली उठाकर दिखाया। मालव के राजदूत, अनन्तवर्म्मा और शशांक चकपकाकर उनकी ओर ताकने लगे। उनके मुँह से कोई बात निकलने के पहले ही सम्राट ने पूछा-
''महानायक! क्या है?''
हरि -महाराजाधिराज ! भारी आपत्ति है।
शशांक-क्या हुआ?
हरि -चरणाद्रि दुर्ग की सारी सेना विद्रोही हो गई है।
शशांक-क्या अवन्तिवर्म्मा फिर आ गया?
दूत-महाराजाधिराज ! मौखरिराज अवन्तिवर्म्मा तो प्रतिष्ठान दुर्ग में हैं।
शशांक-दूत! मौखरिराज तो अनन्तवर्म्मा हैं जो हमारे पास खड़े हैं। अवन्तिवर्म्मा तो विद्रोही हैं।
हरि.-महाराजाधिराज! दूत का अपराध क्षमा हो। इस समय वाराणसीभुक्ति की सारी सेना विद्रोही होकर चरणाद्रि की सेना के साथ मिल गई है और नरसिंह नाम के एक व्यक्ति को सेनापति बनाकर उसने प्रतिष्ठान पर आक्रमण कर दियाहै।
शशांक-नरसिंह! नरसिंह कौन है?
हरि -यह तो मैं नहीं कह सकता। पर वह महानायक नरसिंहदत्ता नहीं हो सकता। तक्षदत्ता का पुत्र कभी विद्रोही नहीं हो सकता।
शशांक-संवाद लेकर कौन आया है?
हरि -विद्रोही सेना ने एक अश्वारोही को दूत बनाकर महाराजाधिराज के पास भेजा है।
शशांक-महानायक! उसे यहाँ बुलवाइए। वृद्धमहानायक कहाँ हैं?
हरि -यशोधावलदेव तो इस समय पाटलिपुत्र में नहीं हैं। पर महाराजाधिराज ! यहाँ गंगाद्वार पर मन्त्राणा होना ठीक है?
शशांक-क्या हानि है? पिताजी के समय में गंगाद्वार पर कई बार मन्त्राणा हुई थी।
हरिगुप्त दण्डधार को दूत को बुलाने के लिए भेज आप सीढ़ी पर बैठ गए। सम्राट ने अनन्तवर्म्मा से पूछा ''अनन्त! यह नरसिंह कौन है?''
''कुछ समझ में नहीं आता''।
''और भी कभी यह नाम सुना था?''
''महाराजाधिराज ! चित्रा के भाई नरसिंह को छोड़ मैं और किसी नरसिंह को तो नहीं जानता''।
इतने में माधववर्म्मा, वीरेन्द्रसिंह, दण्डधार और वर्म्मधाारी सैनिक गंगाद्वार से निकलकर आए। सैनिक सम्राट और नायकों का यथारीति अभिवादन करके बोला ''महाराजाधिराज , महाबलाधयक्ष ने अभी हम लोगों को विद्रोही कहा है। पर हम लोग विद्रोही नहीं हैं। जिन्होंने शंकरनद और मेघनाद के किनारे श्रीमान् की अधीनता में युद्धकिया है वे कभी विद्रोही नहीं हो सकते। वाराणसीभुक्ति की सारी सेना समतट, बंग और कामरूप की लड़ाई में महानायक यशोधावलदेव और सम्राट के अधीन अपना रक्त बहा चुकी है। वह महानायक नरसिंहदत्ता को नहीं भूली है। उन्हीं की आज्ञा से उसने विश्वासघातक सेनानायकों को बन्दी करके चरणाद्रिगढ़ को शत्रुओं के हाथ में पड़ने से बचाया है।
अनन्त -क्या कहा?
दूत-हम लोगों ने महानायक नरसिंहदत्ता की आज्ञा से महाकुमार माधवगुप्त और मौखरिकुमार अवन्तिवर्म्मा से धान पानेवाले विश्वासघाती नायकों को बन्दी करके चरणाद्रिगढ़ पर अधिकार कर लिया है। देव! उन्हीं के आदेश से बीस सह अश्वारोही प्रतिष्ठानदुर्ग की ओर दौड़े हैं। महाराजाधिराज को स्मरण हो या न हो, एक दिन बन्धुगुप्त की तलवार महाराज के सामने ही मेरे सिर पर पड़ी थी। उसका चिद्द अब तक है।
सैनिक ने घाव का चिद्द दिखाया। अनन्तवर्म्मा तुरन्त आलिंगन करके बोले ''मैं पहचान गया, तुम वही गौड़ीय नाविक हो''। नाविक ने तलवार मस्तक से लगाकर कहा ''महाराजाधिराज ! हम लोग पुराने विश्वस्त सेवक हैं। विद्रोही नहीं हैं, तक्षदत्ता के पुत्र की अधीनता में हम लोग बहुत युद्धकर चुके हैं, उन्हें हम लोग जानते हैं। उन्होंने कहला भेजा है कि सम्राट यदि सेना सहित बढ़ेंगे तो मैं थानेश्वर की ओर प्रस्थान करूँगा नहीं तो...
अनन्त -नहीं तो...
सैनिक-नहीं तो जब तक एक भी गौड़ सैनिक जीता बचेगा तब तक नरसिंहदत्ता, हर्ष और राज्यवर्ध्दन के साथ युद्धकरते रहेंगे।
शशांक-अच्छी बात है, तुम लोग बढ़ो, मैं आता हूँ। मालव राजदूत! तुम तात देवगुप्त से कहना कि सम्राट नरसिंहदत्ता की रक्षा के लिए जा रहे हैं, अन्याय युद्धकरने नहीं। नरसिंहदत्ता कह गए थे कि जब कोई भारी संकट उपस्थित होगा तभी फिर मैं दिखाई पड़ईँगा। इससे समझ लेना चाहिए कि साम्राज्य पर भारी संकट है, यदि ऐसा न होता तो नरसिंहदत्ता कभी प्रकट न होते। मैं आज ही पाटलिपुत्र की सेना लेकर आगे बढ़ता हूँ। वसुमित्र, अनन्तवर्म्मा और माधव हमारे साथ चलेंगे। वीरेन्द्र! महानायक से कहना वे चटपट अंग, बंग और गौड़ की सेना लेकर प्रतिष्ठानपुर आएँ। अनन्त! मैं कल सबेरे ही यात्रा करूँगा। नगर की सारी अश्वारोही सेना मेरे साथ चलेगी।

नवाँ परिच्छेद
प्रतिष्ठान का युद्ध

जिस स्थान पर कालिन्दी का श्यामल जल भागीरथी के मटमैले जल के साथ मिलता था-जहाँ गंगा और यमुना का संगम था-वहीं पर प्राचीन काल में प्रतिष्ठान का दुर्ग स्थित था। अब भी गंगा के किनारे प्रतिष्ठान के पुराने दुर्ग1 का भारी ढूह दिखाई पड़ता है। यह दुर्ग अत्यन्त प्राचीन था-न जाने कब से यह पुराना दुर्ग अन्तर्वेत की रक्षा का एक प्रधान अड्डा गिना जाता था। प्राचीन गुप्त राजवंश के समय में भी प्रतिष्ठान दुर्ग आर्यवत्ता के प्रधान दुर्गों में से था।
चौदह शताब्दी पूर्व अगहन के महीने में एक सेना दल प्रतिष्ठान दुर्ग को घेर रहा था। दुर्ग के तीन ओर दूर तक डेरे पड़े हुए थे। उनके बीच जो सबसे बड़ा डेरा था उसके ऊपर सोने का गरुड़धवज निकलते हुए सूरज की किरनों से अग्नि के समान दमक रहा था। उस सबसे बड़े शिविर के सामने काठ की एक चौकी पर एक युवा पुरुष बैठा है। उसके सामने सैनिकों से घिरे हुए दो और युवक खड़े हैं। पड़ाव के चारों ओर सेना दुर्ग के आक्रमण् की तैयारी कर रही है। पहला युवक कह रहा है ''माधव! तुम महासेनगुप्त के पुत्र और दामोदर गुप्त के पौत्र हो; तुमने प्रभाकरवर्ध्दन की अधीनता कैसे स्वीकार की समझ में नहीं आता। यदि तुमसे भूल हुई तो कोई बात नहीं, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। शशांक का हृदय बहुत उदार है, तुम्हें किसी बात का भय नहीं। माधव! शशांक आ रहे हैं, मैं उनके सामने नहीं होना चाहता। इससे आज ही या तो प्रतिष्ठान दुर्ग पर अधिकार करूँगा अथवा सन्धया होते होते तनुदत्ता और तक्षदत्ता के वंश का लोप करूँगा। तुम समुद्रगुप्त के वंशधार हो, सारा वैर विरोधा भूलकर यह गरुड़धवज हाथ में लो और आगे बढ़ो। सन्ध्या के पहले ही दुर्ग पर चन्द्रकेतु के स्थान पर अपना गरुड़धवज स्थापित करो। यदि ऐसा करोगे तो मगधवासी तुम्हारा सारा अपराध भूल जायँगे''।
रक्षकों से घिरे हुए युवक ने जब कोई उत्तर न दिया तब पहला युवक फिर कड़ककर बोला ''माधव! अभी तुम्हारा भ्रम दूर नहीं हुआ। अच्छी बात है, तुम शिविर में बन्दी रहो, मैं ही जाकर प्रतिष्ठान दुर्ग पर अधिकार करता हूँ''। सेनादल दोनों युवकों को बन्दी करके अन्यत्रा ले गया। पहले युवक ने आसन से उठकर एक परिचारक से वर्म्म लाने के लिए कहा। वर्म्म लाया गया। उसे धारण करते करते उसने कहा ''नायकों को यहाँ बुलाओ''। इतने में एक सैनिक ने आकर निवेदन किया कि चरणाद्रिगढ़ से कुछ संवाद लेकर एक अश्वारोही आया है। युवक शिरस्त्राण को हाथ में लिए हुए बोला ''उसे यहीं ले आओ''। सैनिक जाकर एक और वर्म्मावृत्ता योध्दा को साथ लिए आया। उस योध्दा ने आते ही कहा ''मैं परसों सन्धया को चरणाद्रिगढ़ से चला हूँ। उस समय सम्राट वाराणसी से चलकर वहाँ पहुँच चुके थे। कल सबेरे फिर वहाँ से चले होंगे। आज तीसरे पहर या सन्धया को यहाँ पहुँच जायँगे''। युवक ने शिरस्त्राण को सिर पर रखकर कहा ''अच्छी बात है, तुम जाकर विश्राम करो''।

1. प्रयाग के उस पार झूँसी में इस दुर्ग का ढूह अब तक है। गंगा के इस पार जो दुर्ग है वह अकबर का बनवाया हुआ है।
सैनिक अभिवादन करके चला गया।
देखते देखते सैकड़ों सेनानायकों ने शिविर के घेरे में आकर युवक को अभिवादन किया। युवक ने भी तलवार उठाकर सबके अभिवादन का उत्तर दिया और उनमें से एक को पुकारकर कहा ''सुरनाथ! केवल एक अश्वारोही चरणाद्रिगढ़ से आया है। उसने कहा है कि सम्राट परसों सन्धया को चरणाद्रिगढ़ पहुँचे हैं। वे कल सबेरे वहाँ से चले होंगे और आज तीसरे पहर तक यहाँ पहुँच जायँगे''। सुरनाथ ने कहा ''प्रभो! यह अच्छा ही हुआ। सम्राट के आ जाने से बिना युद्धके ही दुर्ग पर अधिकार हो जायगा''। पहले युवक ने सिर हिलाकर कहा ''यह नहीं होगा, सुरनाथ! आज ही जैसे हो वैसे दुर्ग पर अधिकार करना होगा। सम्राट अतिथि के रूप में दुर्ग में प्रवेश करेंगे''। सुरनाथ चकित होकर युवराज का मुँह ताकते रह गए। युवक ने सेनानायकों को सम्बोधान करके कहा ''वीर नायकगण! दूत के मुँह से केवल यही संवाद मुझे मिला है कि आज तीसरे पहर सम्राट यहाँ पहुँच जायँगे। मैंने यह स्थिर किया है कि आज ही दुर्ग पर अधिकार हो जाय। चाहे जिस प्रकार हो आज ही दुर्ग पर अधिकार करना होगा। जिस समय समुद्रगुप्त के वंशधार समुद्रगुप्त के दुर्ग में प्रवेश करें उस समय उन्हें रोकनेवाला कोई न रह जाय। नायकगण् मैं तक्षदत्ता का पुत्र हूँ। मैं खंग स्पर्श करके कहता हूँ कि आज सन्धया होने के पहले ही मैं सम्राट के लिए दुर्ग में प्रवेश करने का पथ खोल दूँगा। मेरे साथ कौन कौन चलता है?''
सैकड़ों कण्ठों से शब्द निकला ''मैं चलूँगा''। कोलाहल मिटने पर युवक ने कहा ''केवल चलूँगा कहने से नहीं होगा। वीरो! आज के युद्धसे लौटना नहीं है। या तो सन्धया के पहले दुर्ग पर अधिकार होगा अथवा प्राकार या खाईं के नीचे सब दिन के लिए विश्राम। जो जो आज हमारे साथ चलें वे खंग स्पर्श करके शपथ करें कि कभी पीछे न फिरेंगे''।
दो एक वृद्धसैनिक युवक की ओर बढ़े, पर युवक ने हाथ के संकेत से उन्हें लौट जाने की आज्ञा देकर कहा ''भाइयो, मेरा अपराध क्षमा करना। परामर्श और मन्त्राणा का समय अब नहीं है। युद्धकरते जिनके बाल पके हैं उनसे क्षमा माँगकर कहता हूँ कि आज रणनीति के विरुद्धमहानायक यशोधावलदेव के उपदेश पर चलूँगा। प्रतिष्ठान दुर्ग भीषण और दुर्जेय है, बहुत बड़ी सेना से रक्षित है, यह सब मैं जानता हूँ। पर आज दुर्ग पर अधिकार करना ही होगा। वीर नायको! आज का यह युद्धरणनीति के विरुद्धहै, आज के युद्धमें न लौटना है, न पराजय। कौन कौन मेरे साथ चलते हैं?'' सैकड़ों तलवारें म्यान से निकल पड़ीं। बालक, वृध्द, प्रौढ़, तरुण सब ने खंग स्पर्श करके एक स्वर से प्रतिज्ञा की कि 'आज ही दुर्ग पर अधिकार करेंगे, युद्धसे भी पीछे न फिरेंगे''।
प्रतिष्ठान दुर्ग आर्यवत्ता भर में अत्यन्त दुर्गम और दुर्जय प्रसिद्धथा। दुर्ग के चारों ओर की चौड़ी खाईं सदा गंगा के जल से भरी रहती थी। दुर्ग चारों ओर से तिहरे परकोटों से घिरा था जो पहाड़ ऐसे ऊँचे और ढालू थे। दिन में तो दुर्ग के प्राकारों पर चढ़ना असम्भव था इससे थानेश्वर की दुर्गरक्षी सेना रात को तो बहुत सावधान रहती थी, पर दिन को बेखटके विश्राम करती थी। इतिहास से पता चलता है कि जब जब प्रतिष्ठान दुर्ग पर शत्रुओं का अधिकार हुआ है तब तब अन्न जल के चुकने के कारण। बाहर से कोई शत्रु बल से दुर्ग के भीतर नहीं घुस सका है।
पहर दिन चढ़ते चढ़ते मागधा सेना को दुर्ग के आक्रमण की तैयारी करते देख स्थाण्वीश्वर के सेनानायक विस्मित हुए। उन्होने रात भर जागी हुई सेना को दुर्ग प्राकार पर नियत किया। तीसरे पहर मागधा सेना ने दुर्ग पर आक्रमण् कर दिया। स्थाण्वीश्वर के नायकों ने इसे बावलापन समझ दुर्ग रक्षा का कोई विशेष प्रबन्ध न किया। देखते देखते बाँस और लकड़ी की हजारों सीढ़ियाँ परकोटों पर लग गई। हजारों सैनिक उन पर से होकर प्राकार पर चढ़ने की चेष्टा करने लगे, पर खौलते तेल, गले सीसे और पत्थरों की वर्षा से अधिक दूर न चढ़ सके। सैकड़ों सैनिक घायल होकर नीचे खाईं में जा रहे। यह देखकर भी पीछे की सेना विचलित न हुई। एक बार, दो बार, तीन बार सीढ़ियों पर चढ़ती हुई मागधा सेना नीचे गिरी। खाईं मुर्दों से पट गई। इतना होने पर भी चौथी बार मागधा सेना ने आक्रमण किया। थानेश्वर के सेनानायक और भी चकित हुए। चौथी बार भी सैकड़ों सैनिक घायल होकर गिरने लगे, पर सेना बराबर चढ़ती गई। देखते देखते परकोटे के ऊपर युद्धहोने लगा। थानेश्वर की सेना हटने लगी।
सहसा यह आपत्ति देख थानेश्वर के सेनानायक सेना के आगे होकर युद्धकरने लगे। मागधा सेना पीछे हटने लगी। यह देखते ही चमचमाता हुआ वर्म्म धारण किए एक लम्बे डील का पुरुष हाथ में गरुड़धवज लिए शत्रुसेना के बीच जा कूदा और कड़ककर बोला ''आज समुद्रगुप्त के दुर्ग में समुद्रगुप्त के वंशधार प्रवेश करेंगे, कौन लौटता है?'' मागधा सेना लौट पड़ी। बिजली के समान गरुड़धवज आगे दौड़ता दिखाई पड़ा। प्रथम प्राकार पर अधिकार हो गया।
देखते देखते मागधा सेना ने दूसरे प्राकार पर धावा किया। सह सैनिक घायल होकर गिरे, पर सेना बार बार चढ़ने का उद्योग करती रही। सैनिकों को शिथिल पड़ते देख वर्म्मधारी पुरुष गरुड़धवज हाथ में लिए चट सीढ़ी पर लपकता हुआ परकोटे के ऊपर जा खड़ा हुआ। तीसरे पहर की सूरज किरणों से चमचमाती हुई वर्म्मावृत्ता मूर्ति और सुवर्णनिर्मित गरुड़धवज को ऊपर देख मागधा सेना जयध्वनि करने लगी। भय से थानेश्वर की सेना थोड़ा पीछे हटी। सह सैनिक प्राकार के ऊपर पहुँच गए। दूसरे प्राकार पर भी अधिकार हो गया।
दुर्ग को इस प्रकार शत्रु के हाथ में पड़ते देख रोष और क्षोभ से अपने जी पर खेल थानेश्वर के सेनानायक तीसरे प्राकार की रक्षा करने लगे। मागधा सेना कई बार पीछे हटी। सेनादल को हतोत्साह होते देख मागधा नायक सिर नीचा किए खड़े रहे। इतने में फिर वही वर्म्मधारी पुरुष अकेले प्राकार पर चढ़ने लगा। उसके ऊपर सैकड़ों पत्थर फेंके गए, पर उसे एक भी न लगा। उसने प्राकार पर खड़े होकर जयध्वनि की। उसे ऊपर देख सेनानायक गण लज्जित होकर अपनी सेना छोड़ प्राकार के ऊपर दौड़ पड़े। दुर्गरक्षकों ने उन मुट्ठी भर मनुष्यों को ऊपर देख उन्हें पीस डालना चाहा। इतने में बाहर सह सैनिकों ने एक स्वर से महाराजाधिराज शशांक नरेन्द्रगुप्त का नाम लेकर जयध्वनि की। प्राकार के नीचे खड़ी मागधा सेना को चेत हुआ। उसने देखा कि प्राकार पर चढ़ने का मार्ग निर्विघ्न है, प्राकार के ऊपर युद्धहो रहा है। भीषण जयध्वनि कर के सेना प्राकार पर चढ़ गई। सन्धया होने के पहले ही दुर्ग पर अधिकार हो गया।
प्रतिष्ठान दुर्ग के पूर्व तोरण पर खड़ा वर्म्मावृत्ता विश्राम कर रहा था। इसी बीच एक सैनिक ने आकर कहा ''महानायक! सम्राट दुर्ग में प्रवेश कर रहे हैं''। वर्म्मधारी पुरुष ने विस्मित होकर पूछा ''वे कब आए?''
''जिस समय शिविर की सेना ने जयध्वनि की थी उसी समय वे पहुँचे थे''।
''दुर्ग का फाटक खोलने के लिए कहो''।
सन्धया हो गई थी। सैनिकों ने तापने के लिए स्थान स्थान पर अलाव लगाए थे। वर्म्मधारी पुरुष ने अपने पास खड़े सेनानायक से कहा ''सुरनाथ! तुम इस गरुड़धवज को लिए रहो, मैं अभी आता हूँ''। नायक के हाथ में गरुड़धवज थमा कर देखतेदेखते यह पुरुष अदृश्य हो गया।
पल भर में सम्राट ने बड़े समारोह के साथ प्रतिष्ठान दुर्ग में प्रवेश किया। आते ही वे नरसिंहदत्ता को ढूँढ़ने लगे। किन्तु जिसके उँगली हिलाने से दस सहò सेना अपने जी पर खेल गई थी, जिसने प्रतिष्ठान दुर्ग पर अधिकार किया था, उसका कहीं पता न लगा-न दुर्ग में, न शिविर में। सम्राट ने तीसरे प्राकार पर खड़े होकर रुँधो हुए गले से अनन्तवर्म्मा को पुकारा ''अनन्त!''
''आज्ञा, महाराज''।
''यह उन्हीं का काम है''।
''किनका?''
''नरसिंह का। चित्रा के कारण वे मेरा मुँह अब न देखेंगे''।


दसवाँ परिच्छेद
द्वन्द्व युद्ध

प्रतिष्ठानपुर में आने पर शशांक ने सुना कि पिता की मृत्यु का संवाद पाकर राज्यवर्ध्दन गान्धार से लौट आए हैं; देवगुप्त ने कान्यकुब्ज पर अधिकार कर लिया है; मौखरि राजपुत्र ग्रहवर्म्मा युद्धमें मारे गए; उनकी रानी, प्रभाकरवर्ध्दन की कन्या राज्यश्री, अपनी उद्दण्डता के कारण कारागार में हैं। देवगुप्त कान्यकुब्ज पर अधिकार करके थानेश्वर की ओर बढ़ रहे हैं। शशांक को यह भी समाचार मिला कि देवगुप्त कान्यकुब्ज से चलते समय अनुरोधा कर गए हैं कि सम्राट भी अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्रा में आ मिलें।
प्रतिष्ठानदुर्ग में ठहर कर शशांक नरसिंह की खोज करने लगे, पर इधर उधार बहुत ढूँढ़ने पर भी उनका कहीं पता न लगा इसी बीच में संवाद आया कि हिमालय की तराई में गंगा के किनारे हार खाकर देवगुप्त मालवे की ओर भागे और राज्यवर्ध्दन सम्राट पर आक्रमण करने के लिए बड़े वेग से बढ़े चले आ रहे हैं। शशांक प्रतिष्ठान दुर्ग छोड़कर कान्यकुब्ज की ओर बढ़े। कान्यकुब्ज पहुँचने पर सम्राट को संवाद मिला कि थानेश्वर की सेना अभी बहुत दूर है। सम्राट ने नगर और दुर्ग पर अधिकार करके कान्यकुब्ज नगर के पश्चिम गंगा के किनारे प्राचीन शूकरक्षेत्रा में पड़ाव डाला। ऐसा प्रसिद्धहै कि सत्ययुग में भगवान् का वाराह अवतार यहीं हुआ था।
शूकरक्षेत्रा बड़ा पुराना तीर्थ है। कुरुक्षेत्रा के समान इसकी गिनती भी पुराने रणक्षेत्र में है। बहुत काल से मधयदेश के राजाओं के भाग्य का निबटारा यहाँ होता आया है। ईसा की बारहवीं शताब्दी में जब आर्यवत्ता के राजाओं का सौभाग्य सब दिन के लिए अस्त हो रहा था तब इसी शूकरक्षेत्रा में महाराज जयचन्द ने मुहम्मद गोरी की सेना का सामना किया था।
शूकरक्षेत्र ही में शशांक को पता लगा कि राज्यवर्ध्दन मालवे की ओर बढ़ रहे हैं; देवगुप्त लड़ाई में मारे गए और राज्यवर्ध्दन की चढ़ाई अब कान्यकुब्ज ही पर है। शशांक देवगुप्त की मृत्यु का संवाद पाकर बहुत दु:खी हुए पर शूकरक्षेत्र उन्होंने नहीं छोड़ा। इसी बीच मगध से संवाद आया कि यशोधावलदेव चारपाई पर पड़े हैं और उनकी दशा अच्छी नहीं है, गौड़ और बंग की सेना लेकर विद्याधरनन्दी आ रहे हैं। दूत पर दूत आकर राज्यवर्ध्दन के बढ़ते चले आने का समाचार कहने लगे। जब वे मथुरा पहुँचे तब सम्राट शशांक ने उनके पास दूत भेजा। दूत अपमानित होकर लौट आया और कहने लगा ''थानेश्वर के महाराज ने कहा है कि अब पाटलिपुत्र में ही चलकर शशांक से भेंट करेंगे''। अनन्तवर्म्मा और माधववर्म्मा ने यमुना के तट पर ही राज्यवर्ध्दन को रोकने का प्रस्ताव किया, पर शशांक सहमत न हुए। अन्त में राज्यवर्ध्दन अपनी सेना सहित शूकरक्षेत्र में आ पहुँचे। तब भी शशांक ने उनपर आक्रमण न किया। उन्होंने महाधार्माधयक्ष नारायणशर्म्मा को दूत बनाकर थानेश्वर के शिविर में भेजा। नारायणशर्म्मा स्वर्गीय महादेवी महासेनगुप्ता के श्राद्धके अवसर पर एक बार थानेश्वर हो आए थे और राज्यवर्ध्दन से परिचित थे। वे दोनों भाई महाधार्म्माधयक्ष पर बड़ी श्रध्दा रखते थे।
सम्राट ने नारायणशर्म्मा से कहला भेजा कि देवगुप्त ने बिना साम्राज्य की आज्ञा के ही कान्यकुब्ज पर आक्रमण किया था। महानायक नरसिंहदत्ता ने भी सम्राट की इच्छा के विरुद्धही प्रतिष्ठान दुर्ग पर आक्रमण और अधिकार किया है। थानेश्वर के सेनानायकों ने माधवगुप्त से मिलकर वाराणसीभुक्ति पर अधिकार जमाने का उद्योग किया इसी से नरसिंहदत्ता ने चढ़ाई की। स्थाण्वीश्वरराज मेरे सम्बन्धी हैं, उनके साथ लड़ाई करने की इच्छा मुझे नहीं है। आदित्यवर्ध्दन और प्रभाकरवर्ध्दन के समय में दोनों राज्यों के बीच जो मेल था उसे मैं बनाए रखना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि थानेश्वरराज्य और मगधसाम्राज्य के बीच जो सीमा है वह सब दिन के लिए निर्दिष्ट हो जाय। इसके लिए मैं राज्यवर्ध्दन से मिलना चाहता हूँ। सीमा पर कई छोटेछोटे खण्ड राज्य हैं, जिनके कारण समय समय पर झगड़ा उठा करता है। सीमा यदि निर्दिष्ट हो जायगी तो फिर आगे चलकर किसी प्रकार के झगड़े की सम्भावना न रह जायगी। देवगुप्त ने कान्यकुब्ज पर जो सहसा आक्रमण किया था उसका प्रायश्चित्ता उनके जीवन के साथ हो गया। उसके लिए अब झगड़ा बढ़ाना मैं नहीं चाहता।
दो घड़ी में नारायणशर्म्मा ने लौटकर कहा ''मेरा दौत्य व्यर्थ हुआ, राज्यवर्ध्दन ने बड़े उध्दत भाव से सम्राट का प्रस्ताव अस्वीकृत किया। पर राजमर्य्यादा की रक्षा के लिए दोनों शिविरों के बीच गंगा तट पर महाराजाधिराज से मिलना उन्होंने स्वीकार किया है''।
सन्धि असम्भव समझ शशांक युद्धके लिए प्रस्तुत होने लगे। नगर और दुर्ग पर आक्रमण करने की तैयारी उन्होंने की। विद्याधारनन्दी अभी बहुत दूर थे। दूसरे दिन दोपहर को दोनों शिविरों के बीच के क्षेत्रा में दोनों पक्षों के राजछत्रा स्थापित हुए। दोनों पक्षों की सेना युद्धके लिए खड़ी हुई। एक ही समय में शशांक और राज्यवर्ध्दन अपने अपने शिविर से निकले। शशांक के साथ माधव, अनन्त और पाँच शरीररक्षी थे। राज्यवर्ध्दन के साथ भी दो अमात्य और पाँच सैनिक थे।
दोनों ने अपने अपने छत्रा के नीचे खड़े होकर एक दूसरे को अभिवादन किया। उसके पीछे शशांक आगे बढ़कर बोले ''महाराज! आप युद्धकरने पर दृढ़ हैं यह बात मैंने सुनी। इससे आपको अपने विचार से हटाना क्षात्राधार्म के विरुद्धहै। इस सम्बन्ध में केवल एक बात मुझे कहनी है जो दूत के द्वारा नहीं कहलाई जा सकती थी। राज्य के लिए आपके और मेरे बीच झगड़ा है। इसके लिए मनुष्यों के प्राण नाश से क्या लाभ? आप अस्त्रविद्या में पारंगत हैं मैंने भी अपना सारा जीवन युद्धमें ही बिताया है। दोनों शिविरों के बीच आप तलवार लेकर मुझसे युद्धकरें। यदि मैं युद्धमें हारूँगा तो सम्राट की पदवी छोड़ अपनी सेना सहित चला जाऊँगा।'' यदि आप पराजित होंगे तो आपको अपना राज्य न छोड़ना होगा, केवल जमुना और चम्बल के पूर्व कभी पैर न रखने की प्रतिज्ञा करनी होगी। इससे भी यदि निबटारा न हो तो दोनों पक्षों की सेनाएँ लड़कर देख लें''।
शशांक की बात सुन कर राज्यवर्ध्दन सिर नीचा करके कुछ सोचने लगे, फिर अपने साथियों और अमात्यों से परामर्श करने लगे। अमात्यों की चेष्टा से प्रकट होता था कि वे राज्यवर्ध्दन को ऐसा करने से रोक रहे हैं। पर राज्यवर्ध्दन तरुण और उग्र स्वभाव के थे। उन्होंने उनकी बात न मानी। वे बोले ''महाराज! आप क्षत्रिय होकर जब युद्धकी प्रार्थना कर रहे हैं तब आपकी इच्छा पूर्ण न करना मेरे लिए असम्भव है। आप समय और स्थान निश्चित करें''।
''कल प्रात:काल, सूर्योदय के पहले, गंगा के तट पर''।
''अस्त्रों में केवल तलवार रहे?''
''हाँ, ढाल किसी के पास न रहे''।
''साथ में कौन रहें?''
''मेरे साथ माधव और अनन्तवर्म्मा रहेंगे''।
'मेरे साथ भण्डी और ईश्वरगुप्त''।
दोनों एक दूसरे से विदा होकर अपने अपने शिविर में गए। लौटते समय अनन्तवर्म्मा ने कहा ''महाराज! यह आपने क्या किया?''
''क्यों अनन्त?''
''कलियुग में कहीं कोई द्वन्द्वयुद्धकरता है?''
''हानि क्या है?''
''आप क्या कह रहे हैं मेरी समझ में नहीं आता''।
''इसमें न समझ में आने की कौन सी बात है?''
''प्रभो! यदि युद्धमें आप घायल हुए तो?''
''घायल छोड़ यदि मैं मारा भी जाऊँ तो इससे क्या?''
''सर्वनाश, महाराज! मगध देश फिर किसकी छत्राछाया के नीचे रहेगा?''
''अनन्त! सच पूछो तो मैं मरना चाहता हूँ। मृत्यु को बुलाने के लिए ही मैं अकेले राज्यवर्ध्दन के साथ युद्धकरने जा रहा हूँ''।
''आपको युद्धकरने का काम नहीं, चलिए पाटलिपुत्र लौट चलें। राज्यवर्ध्दन अपना कान्यकुब्ज और प्रतिष्ठान लें''।
''यह नहीं हो सकता, अनन्त! न जाने कौन ऐसा करने से रोक सा रहा है। राज्यवर्ध्दन यदि मुझे कायर ही समझकर सन्धि का प्रस्ताव मान लेते तो मैं बड़ी प्रसन्नता से उन्हें देश का अधिकार देकर लौट जाता। मेरे न स्त्री है, न लड़का बाला, राज्य से मुझे कोई प्रयोजन नहीं। माधव राज्य की रक्षा करने में असमर्थ है। वह कभी इतना बड़ा साम्राज्य नहीं सँभाल सकता''।
''तब फिर साम्राज्य को भी जाने दीजिए, माधवगुप्त को मगध का राज्य देकर आप वानप्रस्थ ले लें''।
''हँसी की बात नहीं है, अनन्त! कल मैं मरूँगा। मेरे मर जाने पर तुम लोग देश में जाकर माधवगुप्त को सिंहासन पर बिठा देना''।
''अच्छी बात है, तो फिर जैसे उस बार बंगदेश से हमलोग लौटे थे उसी प्रकार इस बार भी लौटेंगे''।
''देखो, अनन्त! जब मैं मरने लगूँ तब मरते समय...''
''हृदय पर उसका नाम लिख देंगे''।
''ठट्ठा न करो, उस समय नरसिंह को बुला देना''।
''उन्हें कहाँ पाऊँगा?''
''अनन्त! वे कहीं दूर नहीं हैं। मेरे सामने नहीं होना चाहते इसी से कहीं इधर उधार छिपे हैं''।
''आप निश्चय समझें कि आपके पीछे नरसिंह को बुलाने के लिए यज्ञवर्म्मा का पुत्र बचा न रहेगा''।
दूसरे दिन सूर्य्योदय के पहले भागीरथी के तट पर शशांक, अनन्त और माधववर्म्मा और दूसरे पक्ष में राज्यवर्ध्दन, भंडी और ईश्वरगुप्त इकट्ठे हुए। केवल हाथ में तलवार लेकर शशांक और राज्यवर्ध्दन द्वन्द्वयुद्धमें प्रवृत्ता हुए। शशांक तलवार से केवल अपना बचाव कर रहे थे। उनकी तलवार एक बार भी राज्यवर्ध्दन की तलवार पर न पड़ी। देखते देखते शशांक को कई जगह चोट आई, उनका श्वेत वस्त्र रक्त से रँग गया। फिर भी उन्होंने राज्यवर्ध्दन के शरीर पर वार न किया। सहसा उनकी तलवार राज्यवर्ध्दन की तलवार को हटा कर उनके गले पर जा पड़ी। झटके के कारण शशांक गिर पड़े। उनके साथ ही राज्यवर्ध्दन का धाड़ भी धूल पर लोट गया।
राज्यवर्ध्दन की मृत्यु सुनकर थानेश्वर की सारी सेना शिविर छोड़ कर भाग खड़ी हुई। भण्डी संवाद लेकर थानेश्वर गए। शशांक आगे न बढ़कर कान्यकुब्ज लौट आए।

ग्यारहवाँ परिच्छेद
यशोधावलदेव मृत्युशय्या पर

सन्धया होती आ रही है। सूरज देव पश्चिम की ओर विन्धयाचल की आड़ में छिपे जा रहे हैं। दूर पर पहाड़ की चोटियाँ और वृक्षों के सिरे अस्ताचलगामी सूर्य की तापरहित किरणों से सुनहरी आभा धारण किए हुए हैं। रोहिताश्वगिरि के सिरे पर एक लम्बा मेघखंड क्रमश: लाल होता जा रहा है। पर्वत के नीचे अब गहरा अंधेरा छा गया है। इसी समय गढ़ के पूरबी फाटक पर एक सैनिक बैठा मानो किसी की प्रतीक्षा कर रहा है।
इन कई वर्षों के बीच रोहिताश्वगढ़ की दशा एकदम पलट गई है। बूढ़े अमात्य विधुसेन और स्वर्णकार धानसुख के उद्योग से गिरे हुए परकोटे फिर ज्यों के त्यों खड़े हो गए हैं, खाईं में जल भरा हुआ है। जो दुर्ग कभी सुनसान पड़ा था वह सैनिकों से भर गया है। प्रत्येक फाटक पर सैनिक रक्षा पर नियत हैं। ऊपर ऊँचे दुर्ग पर बहुत से लोगों का शब्द सुनाई पड़ रहा है। गढ़पति का पुराना प्रासाद अब झाड़ जंगल से भरा नहीं है। कई दिन हुए रोहिताश्व के गढ़पति पीड़ित होकर पाटलिपुत्र से लौट आए हैं। महानायक की दशा अच्छी नहीं है, उनके बचने की आशा नहीं है। मरणकाल समीप जानकर ही वे अपनी जन्मभूमि को देखने की इच्छा से रोहिताश्वगढ़ आए हैं।
पाटलिपुत्र से सम्राट के पास दूत भेजा जा चुका है। महानायक समझ गए हैं कि अब मेरा अन्तिम समय निकट है। दूत से उन्होंने कह दिया था कि सम्राट यदि युद्धमें विजयी हो चुके हों तभी संवाद देना नहीं तो कुछ न कहना। मरने के पहिले वे चाहते थे कि रोहिताश्व दुर्ग और लतिका के सम्बन्धा में सम्राट से कुछ ठीक ठाक कर लेते। इसी से वे मन ही मन घबरा रहे थे। वीरेन्द्रसिंह विद्याधारनन्दी के साथ मधयदेश की ओर गए थे, पर महानायक की आज्ञा पाकर वे रोहिताश्व लौट आए हैं। सन्धया को वीरेन्द्रसिंह ही दुर्ग के फाटक पर बैठे प्रतीक्षा कर रहे हैं।
राज्यवर्ध्दन के मरने पर सम्राट को ज्यों ही यशोधावलदेव का समाचार मिला वे लौट पड़े। कान्यकुब्ज में वसुमित्र और प्रतिष्ठानपुर में विद्याधारनन्दी को छोड़कर वे चट घोड़े की पीठ पर मगध की ओर चल पड़े। थानेश्वर में राज्यवर्ध्दन की मृत्यु का संवाद पहुँचा। सिंहासन शून्य पड़ा रहा। अमात्यों और सेनापतियों ने बहुत दिनों तक हर्षवर्ध्दन को अभिषिक्त न किया। ऐसी दुरवस्था के समय में भी शशांक नरेन्द्रगुप्त ने थानेश्वर पर आक्रमण् न किया। अपने प्रदेशों की रक्षा का प्रबन्धा करके वे चट पितृतुल्य वृद्धमहानायक के अन्तिम दर्शन के लिए लौट पड़े। जिस दिन सन्धया के समय वीरेन्द्रसिंह फाटक पर प्रतीक्षा कर रहे थे उसी दिन सम्राट के रोहिताश्वगढ़ पहुँचने की बात थी। वे बीस दिन में दो सौ कोस चल कर उस दिन सोन के किनारे आ पहुँचे।
सन्धया हो गई और सम्राट न आए यह देखकर यशोधावलदेव ने वीरेन्द्रसिंह को बुलाया। वीरेन्द्रसिंह भवन में जाकर द्वार पर खड़े रहे। घर के भीतर यशोधावलदेव पलंग पर पड़े थे। उनके सिरहाने लतिका देवी और पैताने तरला बैठी थीं। महानायक अत्यन्त दुर्बल हो गए थे, अधिक बोलने की शक्ति उन्हें नहीं थी। जिस समय वीरेन्द्रसिंह कोठरी में आए उस समय उन्हें झपकी सी आ गई थी। थोड़ी देर में जब उनकी ऑंख खुली तब लतिका ने उनके कान में जोर से कहा ''बाबा! वीरेन्द्र आए हैं''। महानायक ने करवट ली और बड़े धीरे स्वर में न जाने क्या कहा। दूर रहने के कारण वीरेन्द्रसिंह कुछ सुन न सके। यह देख लतिका ने कहा ''बाबा पूछते हैं कि सम्राट आए या नहीं''।
''नहीं, अब तक तो नहीं आए हैं। मैं फाटक पर उनका आसरा देख रहाहूँ''।
यशोधावलदेव ने फिर न जाने क्या कहा। लतिका देवी ने कहा ''जापिल ग्राम के मार्ग में सौ पंसाखेवाले भेजने के लिए कहते हैं''। वीरेन्द्रसिंह अभिवादन करके कोठरी के बाहर गए। थोड़ी देर में सौ आदमी हाथों में मशाल लिए जापिल के पत्थर जड़े हुए मार्ग पर थोड़ी थोड़ी दूर पर खड़े हुए। सन्धया हो गई। दुर्ग के ऊपर बड़ा भारी अलाव जलाया गया। पहाड़ की घाटी में गाँव गाँव में दीपमाला जगमगा उठी। जापिल गाँव के पत्थर जड़े पथ पर बहुत से घोड़ों की टापें सुनाई पड़ीं। पंसाखेवाले जल्दी जल्दी गढ़ के फाटक की ओर बढ़ने लगे। यह देख दुर्गरक्षी सेना फाटक पर और ऑंगन में श्रेणी बाँधाकर खड़ी हो गई। वीरेन्द्र सिंह यशोधावलदेव को सम्राट के आने का संवाद दे आए। थोड़ी ही देर में सम्राट ने गढ़ के भीतर प्रवेश किया।
वीरेन्द्र सिंह के मुँह से महानायक की अवस्था सुनकर शशांक तुरन्त उन्हें देखने चले। उन्हें देखते ही बुझता हुआ दीपक एक बार जगमगा उठा। मृत्युशय्या पर पड़े वृद्धमहानायक के शरीर में बल सा आ गया। सम्राट को देखकर वे उठकर बैठ गए। सम्राट उनके चरण छूकर सिरहाने बैठ गए। उनके साथ साथ एक अत्यन्त सुन्दर युवक भी सैनिक वेश में आया था। वह पीछे खड़ा हो गया। तरला और लतिका बार बार उसकी ओर ताकने लगीं। उसे उन्होंने शशांक के साथ और कभी नहीं देखा था।
सम्राट को सम्बोधान करके महानायक कहने लगे ''पुत्र! तुम्हारी राह देखतेदेखते एक सप्ताह तक अपना प्राण रखता आया, पर अब अधिक दिन नहीं रह सकता। मैं अब चला। लतिका आपकी शरण में है। यदि हो सके तो इसका विवाह करके इसे रोहिताश्वगढ़ में बिठा दीजिएगा, और । वृद्धने तकिये के नीचे से एक जड़ाऊ कंगन निकाल कर कहा, ''जब इसका विवाह हो तब यह कंगन इसे देना। यह कंगन इसकी दादी का उपहार है। कई पीढ़ियों से यह रोहिताश्वगढ़ की स्वामिनी के हाथ में रहता चला आया है। सुना जाता है कि जब महाराज चन्द्रगुप्त ने मथुरा से शकराज को भगाया था तब रोहिताश्व के प्रथम गढ़पति ने शकराज के हाथ से यह कंगन छीना था''। वृद्धहृदय के आवेग से आगे कुछ न कह सके और लेट गए। थोड़ी देर में गरम दूध पीकर वृद्धमहानायक फिर कहने लगे ''पुत्र! अब मैं चारपाई से न उठूँगा। लतिका है, इसे देखना। यदि इसके वंश का लोप हो जाय तो रोहिताश्वगढ़ का अधिकार वीरेन्द्र सिंह को दे देना। इस गढ़ की रक्षा करनेवाला इस समय और कोई नहीं दिखाई देता। मैं तो आजकल में चला, तुम सावधान रहना। तुम्हें मैं निष्कण्टक करके न जा सका, यही बड़ा भारी दु:ख रह गया। बाहरी शत्रु का तो तुम्हें कोई भय नहीं है। यदि घर के भीतर या देश के भीतर कोई झगड़ा न हो तो बाहरी शत्रु तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकता। इस समय आर्यवत्ता में एक हर्षवर्ध्दन ही तुम्हारे शत्रु हैं। पर कामरूप के राजा को छोड़ और कोई तुम्हारे विरुद्धउनका पक्ष नहीं ग्रहण करेगा। राज्यवर्ध्दन तो मर गए, पर प्रभाकरवर्ध्दन के दूसरे पुत्र चुपचाप न रहेंगे। हर्षवर्ध्दन बदला लेने के लिए चढ़ाई करेंगे। उस समय तुम गौड़ और बंग की रक्षा का प्रबन्धा करना। यदि कभी किसी प्रकार की आपत्ति में पड़ना तो यह समझ लेना कि आर्यवत्ता में कोई सहायता करनेवाला नहीं है। उस समय दक्षिणापथ में जगद्विजयी चालुक्य राज मंगलेश के पास दूत भेजकर सहायता माँगना''।
बोलते बोलते वृद्धयशोधावलदेव को कुछ थकावट आ गई। वे ऑंख मूँद कर चुपचाप पड़े रहे। जब उन्होंने ऑंखें खोलीं तब उनकी दृष्टि कुमार के पीछे खड़े उस नए युवक पर पड़ी। उन्होंने सम्राट के मुँह की ओर देखा। शशांक समझ गए कि वृद्धमहानायक उस युवक का परिचय चाहते हैं। शशांक ने पूछा ''आर्य! समरभीति का आपको कुछ स्मरण है?'' वृद्धमहानायक चकित होकर बोले ''समरभीति तो मेरे बड़े भारी सुहृद थे। उनके सहसा देश छोड़कर कहीं चले जाने से मेरा दाहिना हाथ टूट गया। उसी दिन से मैं और हारकर बैठ गया''। शशांक बोले ''आर्य! उन्हीं के पुत्र सैन्यभीति आपके सामने खड़े हैं''। वृद्धमहानायक फिर उठ बैठे। युवक को अच्छी तरह देख वे बोले ''हाँ! आकृति तो उन्हीं की सी है। भैया! पास आओ''। युवक ने वृद्धके चरणों पर मस्तक रख दिया। महानायक आशीर्वाद देकर बोले ''क्या नाम बताया? सैन्यभीति। ठीक है, समरभीति के पुत्र सैन्यभीति''। वृद्धयुवक की पीठ पर हाथ फेरते फेरते बोले ''पुत्र ये तुम्हें कहाँ मिले?''
''कान्यकुब्ज में जब मैं राज्यवर्ध्दन के आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहा था उसी समय ये मेरे पास आए। प्रतिष्ठानपुर के युद्धमें भी वाराणसीभुक्ति की सेना के साथ ये मिलकर लड़ते रहे, पर किसी को इनका परिचय न था। कान्यकुब्ज में जाकर इन्होंने अपने को प्रकट किया। साम्राज्य की दुरवस्था के समय इनके पिता समरभीति चालुक्यराज मंगलेश के यहाँ दक्षिण चले गए थे''।
यशोधावल-सैन्यभीति! तुम्हारे पिता अभी हैं?
सैन्य -आर्य! उन्हें मरे आज आठ वर्ष हुए। उस समय मेरी अवस्था पन्द्रह वर्ष की थी। मरते समय जो कुछ उन्होंने कहा वह अब तक मेरे कानों में गूँज रहा है। पुत्र! गुप्तवंश को न भूलना। मैं अपने स्वामी महासेनगुप्त को दुरवस्था में छोड़ चला आया। तुम इसका प्रायश्चित्ता करना। महासेनगुप्त के वंश में जो कोई हो उसकी सेवा में अपना जीवन उत्सर्ग कर देना। तभी मेरी आत्मा को शान्ति मिलेगी। थानेश्वर से मगध साम्राज्य को बड़ा भारी भय है। तुम सदा समुद्रगुप्त के वंशधार का साथ देना।
यशो -धान्य! समरभीति धान्य! बेटा सैन्यभीति, तुम दक्षिण से यहाँ अकेले आए हो या तुम्हारे साथ कोई और भी है?
सैन्य-एक आदमी और है।
यशो -तुम्हारी स्त्री होगी?
सैन्य-नहीं, मेरी बहिन है। मेरा तो विवाह ही नहीं हुआ है।
यशो -उसे किसके यहाँ छोड़ा है?
सैन्य -आर्य! वह यहीं है। आज्ञा हो तो ले आऊँ।
यशोधावलदेव के कहने पर सैन्यभीति बाहर गए और थोड़ी देर में एक अत्यन्त रूपवती युवती को साथ लिए आ खड़े हुए। उसका रूप लावण्य और दक्षिणी पहिनावा देख सब मोहित से हो गए। शशांक भी उसकी ओर बड़ी देर तक ताकते रह गए। सैन्यभीति बोले-
''आर्य जिस समय पिताजी महाराजाधिराज समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त के प्रताप और पराक्रम की कहानियाँ कहते थे हम दोनों भाई बहिन बड़े धयान से सुनते थे। उस समय हम दोनों के मन में यही होता कि किसी प्रकार समुद्रगुप्त के किसी वंशधार का दर्शन करते। कुछ दिनों में समुद्रगुप्त वंशधार श्रीशशांक नरेन्द्रगुप्त के बल और पराक्रम की बातें दक्षिण में पहुँचने लगीं। मुझसे वातापिपुर में न रहा गया। मैं चल खड़ा हुआ। मेरे साथ मेरी बहिन मालती भी हो ली। उसकी उत्कण्ठा से मेरी उत्कण्ठा भी कहीं अधिक बढ़ी हुई थी''।
यशोधावलदेव बोले ''अच्छा, अब सब लोग जाकर विश्राम करो। मेरा जी अच्छा है। वीरेन्द्र! समरभीति के पुत्र को अपने साथ रखो, देखना किसी बात का कष्ट न हो। लतिका! तुम बेटी मालती को अपने साथ ले जाओ''। सब लोग कोठरी के बाहर हुए।

बारहवाँ परिच्छेद
प्रत्याख्यान

सम्राट को रोहिताश्वगढ़ आए आज बारह दिन हो गए। सन्धया का समय है। गढ़ के अन्त:पुर के प्रासाद के एक छज्जे पर लतिका, तरला और मालती बैठी हैं। मालती अब दोनों के साथ अच्छी तरह हिल मिल गई है। लतिका तो उसकी न जाने कब की पुरानी सखी जान पड़ती है। छज्जे पर बैठी तीनों युवतियाँ सोनपार के नीले पहाड़ों को देख रही हैं। लतिका बोली ''क्यों बहिन मालती! तुम्हारे भाई तो बड़े भारी अश्वारोही योध्दा हैं। उनके साथ साथ तुम कैसे इन पहाड़ों को लाँघती हुई आई हो?''
''मैं भी घोड़े पर अपने भाई के साथ साथ बराबर आई हूँ''।
''क्या इसी तरह काछा काछे हुए स्त्री के वेश में?''
''नहीं''।
''तुमने पुरुष का वेश क्यों धाारण किया?''
''एक युवती को साथ लेकर चलने में भैया को बाधा होती, एक कारण तो यह था और दूसरा...''।
''और दूसरा?''
मालती कुछ लज्जित सी हो गई। उसके मुँह से जो वह कहने जाती थी सहसा न निकल सका। यह देख लतिका बोली ''देखो बहिन! मुझसे भी छिपाव रखती
हो?''
''नहीं बहिन तुमसे क्या छिपाना है? बात यह थी कि मैं सम्राट शशांक को देखना चाहती थी''।
लतिका और तरला ठठा कर हँस पड़ीं। तरला बोली ''तो इसमें संकोच की क्या बात है? अच्छा, यह बताओ कि तुमने सम्राट को जी भर कर देखा कि नहीं। न देखा हो तो मैं जाकर उन्हें यहाँ बुलाए लाती हूँ''। यह कह कर वह चल पड़ी। मालती ने उसे दौड़ कर जा पकड़ा और अपनी ओर खींचने लगी। लतिका ने कहा ''तरला! तू सबको इसी प्रकार सताया करती है''। तरला ने कहा ''घबराओ न, मैं सैन्यभीति को भी अपने साथ लिए आती हूँ''। इस बात पर न जाने क्यों लतिका लजा गई और तरला को मारने दौड़ी। इसी धामाचौकड़ी के बीच एक परिचारिका ने आकर तरला से कहा ''आपको गढ़पति बुला रहे हैं''।
परिचारिका के साथ तरला धीरे धीरे वृद्धमहानायक की कोठरी में गई। यशोधावल आज कुछ अच्छे दिखाई देते हैं। कोठरी में और कोई नहीं है। तरला उनके पास जा खड़ी हुई। वृद्धमहानायक कहने लगे ''तरला! जबसे मैंने समरभीति के पुत्र को देखा है मेरे हृदय पर का एक बोझ सा हटा जान पड़ता है। स्वर्गीय समरभीति का वंश प्रतिष्ठा में धावल वंश के तुल्य है। वे मेरे बड़े सच्चे सुहृद थे। जब से मैंने उनका नाम सुना है उनकी वीर मूर्ति मेरी ऑंखों के सामने नाच रही है। थानेश्वर वालों का बढ़ता हुआ प्रभाव उन्हें असह्य हो गया। मगध साम्राज्य की दुर्दशा वे न देख सके। उन्होंने सोचा कि चालुक्यराज द्वारा ही अन्याय से बढ़ते हुए थानेश्वर का गर्व दूर हो सकता है। हाँ! अपना मनोरथ वे लिए ही चले गए''। वृद्धकी ऑंखें डबडबा आईं, बोलते बोलते वे शिथिल हो पड़े। थोड़ी देर में वे फिर कहने लगे ''मगध साम्राज्य को क्रमश: थानेश्वर की अधीनता में जाते देखना उन्होंने पाप समझा। जाते समय वे अपना हृदय अपने पुत्र को दे गए। तरला! जो प्रतिज्ञा लेकर मैं अपनी लतिका को किसी वीर को देना चाहता था उसी प्रतिज्ञा से बद्धमेरे परम सुहृद के पुत्र को अन्तिम समय में लाकर भगवान् ने मेरे सामने खड़ा कर दिया। उसकी महिमा अपार है। मेरे रहते यदि बात पक्की हो जाती तो मैं लतिका और रोहिताश्वगढ़ दोनों चिन्ताओं से छूट जाता''।
तरला-प्रभो! आप निश्चिन्त रहें। यह बात आपके सामने ही हो जायगी।
यशोधावल -एक बात का बड़ा भारी खटका और है। यदि सम्राट ने विवाह न किया तो फिर गुप्तवंश का क्या होगा?
तरला-प्रभो! इसकी चेष्टा भी मैं करती हूँ।
यशो -अभी इसकी चेष्टा क्या करोगी? पहले सम्राट के योग्य कन्या भी तो कहीं मिले।
तरला-कन्या तो मिली हुई है!
यशो -कन्या मिली हुई है?
तरला-हाँ! वह यहीं है। सैन्यभीति की बहिन, मालती।
वृद्धमहानायक का चेहरा खिल उठा। वे बोल उठे ''हाँ, हाँ! बहुत ठीक! रूप और गुण में तो अद्वितीय है''।
तरला-सम्राट पर उसका अनुराग भी वैसा ही अद्वितीय है। पर सम्राट के चित्ता की जो अवस्था है वह बेढब है। उनका मन फेरना सहज नहीं है। फिर भी मैं भरसक कोई बात उठा न रखूँगी।
यशो -हाँ, तरला! ये दोनों काम हो जाते तो मैं आनन्द से अपना जीवन समाप्त करता।
तरला वृद्धका आशीर्वाद ग्रहण करके बाहर निकली।
दो पहर रात बीत गई है। कृष्णपक्ष का टेढ़ा चन्द्रमा निकल कर पर्वतमालाओं पर धुँधली आभा डाल रहा है। सम्राट शशांक गढ़ के परकोटे पर अकेले टहल रहे हैं। वे खा पीकर सोने गए थे, पर उन्हें नींद न आई। वे शयनागार से निकल कर चाँदनी के प्रकाश में उज्ज्वल परकोटे पर इधर उधर टहलने लगे। उस समय रोहिताश्वगढ़ के भीतर सब लोग सो रहे थे। फाटक को छोड़ और स्थान के दीपक बुझ गए थे। सम्राट जब से रोहिताश्वगढ़ में आकर ठहरे हैं तब से आसपास के पहाड़ी, गाँवों में नित्य उत्सव होता है। किसी किसी गाँव से गाने बजाने के शब्द बीच बीच में आ जाता है। सम्राट को शयनागार से निकलते देख एक शरीररक्षी उनके पीछे पीछे चला, पर सम्राट के निषेधा करने पर वह दुर्गप्राकार के नीचे अंधेरे में खड़ा रहा।
शशांक परकोटे पर से ही तोरण की ओर बढ़ने लगे। सहसा किसी के पैर की आहट सुनकर वे खड़े हो गए। उन्होंने देखा कि कुछ दूर पर उज्ज्वल चाँदनी में श्वेत वस्त्र धारण किए एक स्त्री खड़ी है। सम्राट ठिठक कर खड़े हो गए। चट उनका हाथ तलवार की मूठ पर जा पड़ा। उस समय बौध्दसंघ किसी न किसी उपाय से सम्राट की हत्या करने के घात में रहता था। इसी से सम्राट का हाथ तलवार पर गया। उन्होंने धीरे से पूछा ''कौन है?'' उत्तर मिला ''मैं हूँ तरला''। शशांक ने हँसकर तलवार की मूठ पर से हाथ हटा लिया और पूछा ''तरला! इतनी रात को कहाँ?''
''महाराज यदि अभयदान दें तो कहूँ''।
''बेधाड़क कहो''।
''महाराज! अभिसार को निकली हूँ''।
''मार डाला! क्या वीरेन्द्रसिंह से जी भर गया?''
''वे तो अब बुङ्ढे हो गए। जैसा समय आया है उसके अनुसार और न सही तो परोपकार के लिए ही दो एक रसिक नागर अपने हाथ रहें तो अच्छा है''।
''तरले! बातों में मैं तुम से पार पा जाऊँ ऐसा वीर मैं नहीं हूँ। तुम्हारी बात कुछ समझ में न आई''।
''महाराज! जिन्हें भूख तो है पर लज्जा के मारे शिकार नहीं कर सकते ऐसों के लिए ही मुझे कभी कभी बाहर निकलना पड़ता है''।
''तुमने जिसका शिकार किया है क्या वह कुछ नहीं बोलता?''
''महाराज! उसकी कुछ न पूछिए''।
''बताओ तो किस पर लक्ष्य करके निकली हो?''
''आप पर?''
''मुझ पर?''
''हाँ महाराज!''
''यह कैसी बात, तरला?''
''महाराज...''।
''तरले! जान पड़ता है तुम कुछ भूलती हो''।
''नहीं महाराज! मैं भूलती नहीं हूँ''।
''तो फिर तुम क्या कहती हो?''
''मैं यही कहती हूँ कि कोई आपके ऊपर मर रहा है''।
''मेरे ऊपर? तरला, तुम क्या सब बातें भूल गईं?''
''नहीं महाराज!''
''तो फिर?''
''क्या कहूँ, महाराज! कौन किस पर क्यों मरता है, कौन कह सकता है?''
''उसे क्या सम्भव असम्भव का भी विचार नहीं होता?''
''महाराज! कहते लज्जा आती है, मन्मथ के राज्य में सम्भव असम्भव का विचार नहीं है। और फिर हमलोगों की-जो आपके अन्न से पल रहे हैं-सदा सर्वदा यही इच्छा रहेगी कि राजभवन में पट्टमहादेवी आएँ और हमलोग उनकी सेवा करके जन्म सफल करें''।
''अब असम्भव है, तरला!''
''महाराज! तो क्या...''।
''तो क्या, तरला?''
''तो क्या महाराज अपना जीवन इसी प्रकार बिताएँगे? आपके जीवन का अभी एक प्रकार से सारा अंश पड़ा हुआ है''।
''तरला! मैंने यही स्थिर किया है''।
''महाराज! फिर साम्राज्य का उत्ताराधिकारी...?''
''क्यों, माधव का पुत्र?''
''हार गई, महाराज! पर अबला की प्राणरक्षा कीजिए''।
''वह है कौन, तरला?''
''जब किसी प्रकार की आशा ही नहीं तब फिर और बातचीत क्या? महाराज एक बार उससे मिल ही लें''।
''वह कहाँ है?''
''यहीं है''।
''यहीं है? इसी रोहिताश्वगढ़ में?''
''हाँ महाराज! इसी गढ़ के परकोटे की छाया में''।
तरला आगे आगे चली। शशांक को एक स्वप्न सा जान पड़ा। वे उसके पीछेपीछे चले। दुर्ग के प्राकार की छाया में एक और रमणी खड़ी थी। सम्राट को अपनी ओर आते देख उसने सिर का वस्त्र कुछ नीचा कर लिया। सम्राट ने पास जाकर देखा कि सैन्यभीति की बहिन मालती है!
तरला ने मालती के कान में न जाने क्या कहा। फिर सम्राट की ओर फिर कर वह बोली ''महाराज! आपने जो कहा मैंने मालती से कह दिया, फिर भी ये आपसे कुछ कहना चाहती हैं। मैं हट जाती हूँ''। तरला इतना कह कर दूर चली गई। शशांक ने पूछा ''मालती! तुम्हें मुझसे क्या कहना है?''
मालती चुप।
''क्या कहती हो, कहो''।
कुछ उत्तर नहीं।
''तुम्हें कहने में संकोच होता है, तरला को बुलाऊँ?''
बहुत अस्फुट स्वर में धीरे से उत्तर मिला ''नहीं, प्रभो!''
''मुझसे क्या कहने आई हो?''
कोई उत्तर नहीं।
''मालती! मैंने सुना है कि तुम मुझे चाहती हो।''
मालती से फिर भी कोई उत्तर न बन पड़ा।
''तुमने तरला से तो सब सुना ही होगा। फिर जानबूझकर ऐसा क्यों करती हो? तुम परम प्रतिष्ठित भीतिवंश की कन्या हो। तुम्हारी सी सर्वगुणसम्पन्ना अनुपम रूपवती को पाकर मैं अपने को परम भाग्यवान् समझता। पर मेरे भाग्य में नहीं है''। शशांक ने ठण्डी साँस लेकर फिर कहा ''तुम अभी एक प्रकार से अनजान हो, यदि भूल से इस बखेड़े में पड़ गई हो तो अब से जाने दो। सैन्यभीति तुम्हारे लिए उत्ताम वर ढूँढ़कर तुम्हारा विवाह करेंगे''।
मालती सिर नीचा किए हुए धीरे से बोली ''असम्भव महाराज!'' चौंककर सम्राट ने पूछा ''क्या कहा?''
''असम्भव''।
''सुनो, मालती! मेरे लिए चित्रा ने प्राण दे दिया-मैं इस जीवन में उसे नहीं भूल सकता। मेरा शेष जीवन अब उसी पाप के प्रायश्चित्ता में बीतेगा। मैं तुम्हें किस प्रकार अपने जीवन का साथी बना सकता हूँ?''
अकस्मात् सिर का वस्त्र हट गया। उज्ज्वल चाँदनी चन्द्रमुख पर पड़ी। सम्राट ने देखा कि मालती धयान में मग्न है। बहुत देर पीछे उसने धीरे धीरे कहा-
''महाराज! बाल्यावस्था से ही समुद्रगुप्त के वंशधार की कीर्ति इन कानों में पड़ती आ रही है। जिस मूर्ति की अव्यक्त भावना से सारा जगत् सौन्दर्य्यमय दिखाई पड़ता था उसका साक्षात् दर्शन प्रतिष्ठानपुर में हुआ। जिन पिंगल केशों की चर्चा दक्षिण में मैं सुनती आ रही थी उन्हें प्रतिष्ठानपुर में आकर देखा। महाराज! चपलता क्षमा हो, जो मेरे हृदय के प्रत्येक भाव के साथ मिला हुआ है, जो हृदयस्वरूप हो रहा है, उसका धयान इस जीवन में किस प्रकार हट सकता है?''
''मालती! मेरे हृदय में जो भयंकर ज्वाला है उसका अनुभव दूसरा नहीं कर सकता। मैं सदा उसी ज्वाला में जला करता हूँ। मैं कभी उसे भूल नहीं सकता। इसके लिए मुझे क्षमा करो। जो तुम कहती हो वह इस जन्म में नहीं हो सकता, कभी नहीं हो सकता। तुम्हारे मन को मुझसे जो कष्ट पहुँचा उसके लिए क्षमा करो। मैं बड़ा भारी अभागा हूँ, मेरे जीवन में सुख नहीं है। बौध्दाचार्य्य शक्रसेन ने यह बात मुझसे बहुत पहले कही थी, पर उस समय मैंने कुछ धयान न दिया। जीवन मधुमय नहीं है, विषमय है। जो कुछ तुम्हारे हृदय में समा रहा है, उसे स्वप्नमात्र समझो, स्वप्न दूर करते क्या लगता है?''
''महाराज! वह स्वप्न अब प्रत्यक्ष हो गया है, अब किसी प्रकार हट नहीं सकता। मैं पट्टमहादेवी बनना नहीं चाहती, मुझे सिंहासन पर बैठने की आकांक्षा नहीं है, मैं महाराज के चरणों के नीचे रहकर सेवा में दिन बिताना चाहती हूँ''। यह कहकर वह शशांक के चरणों पर लोट गई। हृदय आवेग से व्याकुल होकर सारे आर्यवत्ता के चक्रवर्ती सम्राट शशांक नरेन्द्रगुप्त बैठ गए और अत्यन्त कातर स्वर से कहने लगे ''मालती! क्षमा करो। मैं ज्वाला से मरा जाता हूँ-विषम यन्त्रणा है-चित्रा ''।
सम्राट का गला भर आया। वे आगे और कुछ न कह सके। उनकी यह दशा देख मालती की ऑंखों से भी ऑंसुओं की धारा बहने लगी। उसने रोते रोते कहा ''महाराज! आपकी दशा देख मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जाता है। जिस मूर्ति का मैं रात दिन धयान करती थी उसे इस अवस्था में देखूँगी संसार की इस विचित्रा गति का अनुमान मुझे न था। यदि इस लोक में कहीं चित्रादेवी होतीं तो मैं अपने प्राणों पर खेल उन्हें ढूँढ़ लाती और महाराज का प्रसन्न मुख देख कृतकृत्य होती। महाराज! मैं पट्टरानी होना नहीं चाहती। राजभवन में दासियाँ होंगी, उन्हीं में मेरी गिनती भी हो। बस, मुझे और कुछ न चाहिए। मेरा जीवन स्वप्नमय है। इतनी ही विनती है कि इस स्वप्न को भंग न कीजिए। मैं महाराज के साथ छाया के समान फिर कर इस स्वप्न को चलाए चलूँगी। कोई मुझे रोक नहीं सकता''।
''यह नहीं हो सकता। कभी नहीं, मालती! यह सब स्वप्न है-भूल जाओ-क्षमा करो''।
यह कहकर मगधोश्वर वहाँ से भाग खड़े हुए। उनके पिंगल केश पीछे लहरा उठे। जब तक वे दिखाई पड़ते रहे मालती एकटक उनकी ओर ताकती रही।

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