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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7

शशांक

 भाग - 10

तेरहवाँ परिच्छेद
अभिशाप

आज यशोधावलदेव के जीवन का अन्तिम दिन है। पलंग के पास सम्राट शशांक, वीरेन्द्रसिंह, सैन्यभीति, लतिका तरला, मालती और गढ़ के पुराने भृत्य ऑंखों में ऑंसू भरे खड़े हैं। वृध्द महानायक निश्चेष्ट भाव से ऑंख मूँदे पड़े हैं। थोड़ी देर में उन्होंने ऑंख खोली और सम्राट को सम्बोधान करके क्षीण स्वर से कहने लगे ''पुत्र! मैं तो अब चला। वंशगौरव के उध्दार का जो व्रत तुमने लिया है उस पर दृढ़ रहना। हर्षवर्ध्दन तुम्हारा कुछ नहीं कर सकते। अन्याय से अर्जित थानेश्वर का साम्राज्य एक पीढ़ी भी न चलेगा। हर्ष के सामने ही वह छिन्न भिन्न होने लगेगा और हर्ष यह देखते हुए मरेंगे कि थानेश्वर का सिंहासन विश्वासघाती अमात्यों के हाथ में जा रहा है। यदि आजीवन मैंने क्षत्रधर्म का पालन किया होगा तो मेरा यह वचन सत्य होगा। जैसे लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं सम्भव है तुम्हारे कार्य में बाधा पड़े, पर निराश न होना। यदि मगध में रहना असम्भव हो जाय तो माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर छोड़ दक्षिण की ओर चले जाना। पर यह देखते रहना कि थानेश्वर का कोई राजपुत्र या राजपुरुष मगध में प्रवेश न करने पाए। दक्षिण में अपनी शक्ति बराबर बढ़ाते रहना। समुद्रगुप्त के वंश का प्रताप फिर चमकेगा''।
बोलते बोलते महानायक शिथिल हो पड़े। सम्राट के नेत्रों से अश्रुधारा छूट रही थी। यशोधावलदेव ने फिर ऑंखें खोलीं और कहने लगे ''पुत्र, मेरे लिए दु:खी न हो। मैं बहुत दिन इस संसार में रहा। लतिका कहाँ है?'' लतिका रोती हुई अपने दादा के पास आ खड़ी हुई। सैन्यभीत को अपने पास बुला लतिका का हाथ उन्हें थमा वृध्द महानायक सम्राट से बोले ''पुत्र! लतिका को मैंने समरभीति के पुत्र को अर्पित किया। शुभ मुहूर्त्त में इन दोनों का विवाह करा देना और विवाह के समय वह कंगन इसके हाथ में पहिना देना। मुझे अब और कुछ कहना नहीं है। मैं आनन्द से-पर एक बात-तुम अपना विवाह...''। सम्राट का गला भरा हुआ था। उनके मुँह से एक शब्द न निकला। वृध्द महानायक की चेष्टा भी क्रमश: मन्द होने लगी। दूसरे दिन यह संवाद फैल गया कि रोहिताश्वगढ़ के अधीश्वर का परलोकवास हो गया।
महानायक के जब सब कृत्य हो चुके तब प्रतिष्ठानपुर से दूत संवाद लेकर आया कि हर्षवर्ध्दन ने कान्यकुब्ज पर चढ़ाई की है। सम्राट ने पाटलिपुत्र की तैयारी की। वृध्द अमात्य विधुसेन की प्रार्थना पर सम्राट ने रोहिताश्वगढ़ की रक्षा का भार सैन्यभीति को प्रदान किया। विधुसेन और धानसुख के हाथ में दुर्ग सौंपकर वीरेन्द्रसिंह और सैन्यभीति सम्राट के साथ पाटलिपुत्र गए।
हर्ष की चढ़ाई का संवाद पाते ही सम्राट की आज्ञा का आसरा न देख सेनापति हरिगुप्त सेना सहित पश्चिम की ओर चल पड़े। राजधानी में लौटकर शशांक चरणाद्रि की तैयारी करने लगे। इधर महाधार्म्माधिकार नारायणशर्म्मा चाहते थे कि सम्राट राजधानी न छोड़ें। उधार माधववर्म्मा, अनन्तवर्म्मा और वीरेन्द्रसिंह युध्द में योग देने के लिए अधीर हो रहे थे। शशांक बड़े असमंजस में पड़े। इधर जब से शशांक रोहिताश्वगढ़ से आए हैं तब से शक्तिहीन से हो रहे हैं। वे सदा अनमने से रहते हैं, उनका जी ठिकाने नहीं रहता। प्रत्येक बात का उत्तर वे कुछ चौंककर देते हैं। सम्राट की यह अवस्था देख माधववर्म्मा और अनन्तवर्म्मा अत्यन्त विस्मित हुए। थानेश्वर की सेना एक बार हार चुकी थी सही पर हर्षवर्ध्दन का प्रभाव आर्यवत्ता में बहुत कुछ था। प्राचीन गुप्तवंश का गौरव फिर से स्थापित करने के लिए हर्षवर्ध्दन का प्रभाव नष्ट करना अत्यन्त आवश्यक है। इस बात को छोटे से बड़े तक सब जानते थे। नए सम्राट के नेतृत्व में कई बार विजय प्राप्त करके मागधा सेना उमंग में भरी किसी नए अवसर का आसरा देख रही थी। पाटलिपुत्र के क्षुद्र से क्षुद्र मनुष्य को यह निश्चय हो गया था कि समुद्रगुप्त के वंशधार समुद्रगुप्त के साम्राज्य पर फिर अधिकार करेंगे। जय और पराजय, सिध्दि और असिध्दि के इस सन्धिस्थल पर नए सम्राट कोर् कत्ताव्यविमूढ़ देख गुप्तराजवंश के जितने हितैषी थे सब भाग्य को दोष देने लगे।
अदृष्ट चक्र किधार से किधार घूमेगा यह उस चक्रधार के अतिरिक्त और कोई नहीं कह सकता। जिस समय गुप्तसाम्राज्य के सेनानायक नवीन रणक्षेत्रा के लिए अधीर हो रहे थे उस समय प्राचीन गुप्तसाम्राज्य का भाग्यचक्र दूसरी ओर मुड़ रहा था। बार बार के आघात से नए सम्राट का हृदय यदि जर्जर न हो गया होता, तरुणावस्था में ही चोट पर चोट खाते खाते शशांक का हृदय यदि दुर्बल न हो गया होता तो सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द का इतिहास और ही प्रकार से लिखा जाता। बहुत सम्भव था कि लाख विघ्न बाधाओं के रहते भी शशांक नरेन्द्रगुप्त अपने पूर्वपुरुषों का सब अधिकार फिर प्राप्त कर लेते। पर भावी प्रबल है, भीषण से भीषण पुरुषार्थ उसे नहीं हटा सकता। इस विषय में दार्शनिक पण्डितों के बीच चाहे मतभेद हो, पर अदृष्टवादियों के निकट तो यह धा्रुव सत्य है।
जिस समय नए सम्राट थानेश्वर के साथ युध्द करने की तैयारी कर रहे थे वृध्द धार्म्माधिकार सम्राट से राजधानी में ही रहने के लिए बार बार अनुरोधा कर रहे थे और युध्द व्यवसायी चटपट रणक्षेत्रा में उतरने का परामर्श दे रहे थे उसी समय पूर्णिमा के पूर्ण शशांक को ढाँकने के लिए, गुप्तसाम्राज्य की फिर से बढ़ती हुई कीर्तिकला को दृष्टि से ओझल करने के लिए, उत्तर पूर्व के कोने पर से एक काला मेघ उठता दिखाई पड़ा।
भगदत्तावंशीय कामरूप के राजा गुप्तवंश के सम्राटों के पुराने शत्रु थे। लौहित्या के किनारे कामरूपराज सुस्थितवर्म्मा महासेनगुप्त के हाथ से पराजित हो चुके थे। महावीर यज्ञवर्म्मा ने परशु का आघात अपने ऊपर लेकर सम्राट की जीवन रक्षा की थी। शंकरनद के तट पर विलक्षण संयोग से कुमार भास्करवर्म्मा शशांक नरेन्द्रगुप्त द्वारा हराए जा चुके थे। उस समय जो सन्धि हुई थी उसका पालन अब तक होता आया था। राज्यवर्ध्दन के मरने पर जब हर्षवर्ध्दन भाई की हत्या का बदला लेने और आर्यवत्ता से शशांक का अधिकार लुप्त करने निकले तब कामरूपवालों ने भी अच्छा अवसर देख युध्दघोषणा कर दी। पाटलिपुत्र में बैठे बैठे शशांक ने सुना कि कामरूप की सेना शंकरनद पार करके बंगदेश की ओर बढ़ी आ रही है। कामरूप के राजाओं के इस आचरण का संवाद पाकर तरुण सम्राट का मोह कुछ दूर हुआ। सोता हुआ सिंह जाग पड़ा। शशांक की नींद टूटी। सिर पर विपत्ति देखते ही उनका शैथिल्य हट गया। उन्होंने स्थिर किया कि वीरेन्द्रसिंह और माधववर्म्मा भास्करवर्म्मा के विरुध्द बंगदेश की ओर जायँ और वे आप अनन्तवर्म्मा को साथ लेकर कान्यकुब्ज की ओर यात्रा करें। पुराने नौवलाधयक्ष रामगुप्त और महाधार्म्माधिकार नारायणशर्म्मा पाटलिपुत्र में रह कर मगध की रक्षा करें।
यात्रा करने के पूर्व एक दिन सम्राट चित्रादेवी की फुलवारी में बैठे कान्यकुब्ज और प्रतिष्ठान दुर्ग से आए हुए दूतों के मुँह से युध्द का वृत्तान्त सुन रहे थे। लम्बा भाला लिए अनन्तवर्म्मा उनके पीछे खड़े थे। कान्यकुब्ज का दूत दुर्ग के भीतर घिरे हुए वसुमित्र की दुर्दशा का ब्योरा सुना रहा था। दूत कह रहा था ''महाराजाधिराज ! थानेश्वर की असंख्य सेना आकर नगर को घेरे हुए है। महानायक वसुमित्र सेना सहित दुर्ग के भीतर घिरे हुए हैं। दुर्ग में यद्यपि खानेपीने की सामग्री कम नहीं है पर यदि साम्राज्य की सेना चटपट महानायक की सहायता के लिए न पहुँचेगी तो दुर्गरक्षा किसी प्रकार नहीं हो सकती। कान्यकुब्जवाले बड़े विश्वासघाती हैं। वे धान के लोभ से चुपचाप दुर्ग का फाटक खोल दें तो आश्चर्य नहीं। अब तक तो खुल्लमखुल्ला उन्होंने कोई विरुध्द आचरण नहीं किया है, पर विद्रोह होने पर नगर की रक्षा असम्भव हो जायगी। नित्य थानेश्वर से नई नई सेना आकर दुर्ग पर धावा बोलती है। महानायक की सेना तो छीजती जा रही है पर शत्रु की सेना घटती नहीं दिखाई देती''।
शशांक-विद्याधारनन्दी कहाँ हैं?
दूत-वे भी प्रतिष्ठान दुर्ग में घिरे हुए हैं।
शशांक-हरिगुप्त कहाँ तक पहुँचे हैं?
अनन्त-प्रभो! उनकी अश्वारोही सेना चरणाद्रि के आगे निकल गई है।
शशांक-अनन्त! चलो हम लोग भी कल ही यात्रा कर दें। माधव और वीरेन्द्र यदि भास्करवर्म्मा को पराजित न कर सकेंगे तो भी उन्हें बढ़ने न देंगे। यदि इस समय हमलोग चलकर हर्षवर्ध्दन के पैर न उखाड़ेंगे तो साम्राज्य का मंगल नहीं है।
अनन्त-प्रभो! मुझे जो आज्ञा मिले तो मैं इसी क्षण चलने के लिए प्रस्तुत हूँ। सैन्यभीति भी तैयार हैं।
शशांक-रोहिताश्वगढ़ की सेना तो बंगदेश की ओर जायगी।
अनन्त-वे महाराज ही के साथ रहना चाहते हैं।
शशांक-अच्छी बात है। क्यों दूत! विद्याधारनन्दी प्रतिष्ठान दुर्ग में कैसे घिर गए?
दूत-महाराजाधिराज ! बौध्दाचाय्र्यों के भड़काने से सारे मधयदेशवासी विद्रोही हो गए हैं। बौध्दाचाय्र्यों ने घूम घूम कर उपदेश दिया है कि राजा बौध्द नहीं है इससे सधर्म्मियों को उसकी आज्ञा में रहना उचित नहीं।
यह बातचीत हो ही रही थी कि फुलवारी के पीछे के पेड़ों के बीच से एक आदमी दौड़ा दौड़ा आया और उसने सम्राट पर एक बरछा छोड़ा। चट दूसरे पेड़ की ओट से महाप्रतीहार विनयसेन निकलकर सम्राट के आगे खड़े हो गए। देखतेदेखते बरछा महाप्रतीहार की छाती को पार कर गया। विनयसेन का शरीर सम्राट के पैरों के नीचे धाड़ाम से गिर पड़ा। अनन्तवर्म्मा दौड़कर उस आततायी का सिर उड़ाना ही चाहते थे कि सम्राट उन्हें रोक कर विनयसेन का घाव देखने लगे। शशांक ने देखा कि बरछा वृध्द महाप्रतीहार के हृदय को चीरता हुआ पार हो गया है, पर वे अभी मरे नहीं हैं। थोड़ी देर में वृध्द महाप्रतीहार ने ऑंखें खोलीं। यह देख शशांक ने पुकारा ''विनय!'' क्षीण स्वर में उत्तर मिला ''महाराज''।
''यह क्या किया?''
''महाराज! पानी''।
अनन्तवर्म्मा ने जल लाकर महाप्रतीहार के मुँह में डाला। वृध्द कुछ स्वस्थ होकर बोला ''महाराज!-बौध्द चक्रान्त-भीषण षडयन्त्र-दो महीने से-ये सब-आपकी-हत्या करने की-चेष्टा में थे-जल-मेरे मारे-कुछ कर नहीं-पाते थे-यह बुध्दश्री है-जल''।
अनन्तवर्म्मा ने मुँह में फिर थोड़ा जल दिया। विनयसेन की छाती के घाव से रक्त की धारा छूट चली-धारती गीली हो गई। धीरे धीरे वृध्द की चेष्टा मन्द होने लगी-देह पीली पड़ चली। बड़े कष्ट से ये शब्द निकले ''महाराज, शशांक-अब भी-कड़ी आशंका है-तुरन्त-पाटलिपुत्र-परित्याग सब-बौध्द-शशा...''। वाक्य पूरा होने के पहले ही वृध्द ने मुँह से रक्त फेंका। प्राण निकल गया, सिर सम्राट के पैरों पर पड़ा रहा। शशांक की ऑंखों से ऑंसू की धारा बह रही थी। उनका गला भर आया था, उनके मुँह से इतना भर निकला अनन्त!-आज ही''।
''क्या महाराज?''
''आज ही-पाटलिपुत्र परित्याग...''।
''क्यों प्रभो?''
''अनन्त! चित्रा, पिता, लल्ल, वृध्द महानायक, अन्त में ये विनयसेन भी । आज ही मैं पाटलिपुत्र छोड़ता हूँ। रामगुप्त से कह आओ कि एक पक्ष के भीतर नगरवासी पाटलिपुत्र छोड़ दें। गीदड़, कुत्तों और चील कौवो को छोड़ पाटलिपुत्र में और कोई न रह जाय। मैं इसी क्षण पाटलिपुत्र छोड़ता हूँ। जो अपने को मेरी प्रजा समझता हो वह भी चटपट छोड़ दे। मैं शाप देता हूँ कि जो कोई यहाँ रहेगा उसका निर्वंश होगा, उसके कुल में कोई न रह जायगा, उसका मांस चील कौवे खायँगे। बुध्दश्री को आग में जलाओ''।
उसी क्षण तरुण सम्राट नंगे पैर नगर के बाहर हुए। एक पक्ष के भीतर प्राचीन पाटलिपुत्र नगर उजाड़ हो गया। कई सौ वर्ष तक शशांक के शाप के भय से कोई पाटलिपुत्र में न बसा।


चौदहवाँ परिच्छेद
आत्मोत्सर्ग

''क्या कहा?''
''सच कहता हूँ, महाराज! मैंने बंगदेश और प्रतिष्ठानपुर में उनका तलवार चलाना देखा था, उनका अद्भुत पराक्रम मैं देख चुका हूँ। वे तक्षदत्ता के पुत्र थे। नरसिंहदत्ता को छोड़ ऐसी अद्भुत वीरता और कोई नहीं दिखा सकता''।
''क्या यह सच है?''
''सच है, महाराज! बीस वर्ष इन्हीं हाथों में गरुड़धवज लेकर चला हूँ। जिन्होंने शंकरनद के किनारे और प्रतिष्ठानदुर्ग में नरसिंहदत्ता को युध्द करते देखा है वे क्या कभी उन्हें भूल सकते हैं? महाराज! इन्हीं हाथों में गरुड़धवज लिए हुए प्रतिष्ठानदुर्ग के परकोटे पर मैं चढ़ा हूँ, गौड़ वीरों की मृतदेह के ऊपर पैर रखता हुआ, सर्वांग में उष्ण रक्त लपेटे मैंने उनका अनुसरण किया है। मैं उन्हें कभी भूल नहीं सकता, महाराज। महाराज! मैं मण्डलागढ़ का पुराना सैनिक हूँ, लक्षदत्ता के समय का सेवक हूँ। इन्हीं हाथों से मैंने नरसिंहदत्ता को खेलाया है। उनके पिता के साथ भी मैं युध्द में गया हूँ। अन्त में इन्हीं हाथों से उनके पुत्र को चिता पर रखे चला आता हूँ''।
''तो अब नरसिंह भी इस संसार में नहीं हैं। नरसिंहदत्ता के जीते जी भला कब कान्यकुब्ज शत्रुओं के हाथ में जा सकता था? जब तक तक्षदत्ता के पुत्र के शरीर में प्राण रहा तब तक थानेश्वर की एक मक्खी भी कान्यकुब्ज नगर में नहीं घुसने पाई। महाराज! नरसिंहदत्ता वीर थे, वीर के पुत्र थे, वीर कुल में उत्पन्न थे। तक्षदत्ता के पुत्र ने एक वीर के समान मृत्यु का आलिंगन किया। सनातन से तनुदत्ता का वंश सम्राट की सेवा में, साम्राज्य के कार्य में, अपना जीवन विसर्जित करता आया था। तनुदत्ता के अन्तिम वंशधार ने, मण्डला के अन्तिम अधीश्वर ने, भी अपने वंश का गौरव अखण्डित रखा, अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया-और यह अकर्मण्य, वृध्द जीता जागता महाराज को संवाद देने आया है। रणनीति बड़ी कठिन है, जी में तो मृत्यु की कामना भरी हुई थी पर रणनीति के अनुसार मुझे युध्द क्षेत्र को छोड़कर मगध के निर्जन श्मशान में आना पड़ा''।
''और क्या क्या हुआ, कहो''।
''कहता हूँ, महाराज! कहता हूँ, सुनिए। जिस समय प्रतिष्ठानदुर्ग पर अधिकार हुआ था उस समय, महाराज! आप दुर्ग के फाटक तक ही पहुँच पाए थे। वृध्द के मुँह से यदि कुछ कठोर शब्द निकलें तो क्षमा करना। जब फाटक पर पहुँचे थे तब तक दुर्ग के तीसरे प्राकार पर अधिकार नहीं हुआ था। समुद्रगुप्त के वंशधार समुद्रगुप्त के दुर्ग में निर्विघ्न प्रवेश करेंगे यही कह कर देखते देखते वे एक फलांग में दुर्ग के प्राकार पर चढ़ गए, मृत्यु के सामने उन्होंने अपनी छाती कर दी-क्यों, इसको या तो आप जानते होंगे या वे ही जानते रहे होंगे। मृत्यु उन पर हाथ न लगा सकी, प्रतिष्ठानदुर्ग पर अधिकार हो गया। अपने दल बल सहित दुर्ग में प्रवेश किया। पर जिसने आपके लिए अपने प्राणों पर खेल दुर्ग का फाटक खोला उसका कहीं पता लगा? चित्रा-महाराज! चित्रा उनके बड़े आदर की वस्तु थी। चित्रा ही के कारण उन्होंने अपना मुँह न दिखाया। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि अब इस जीवन में आपको मुँह न दिखाएँगे। यही कारण है कि इतने बड़े राजराजेश्वर होकर भी आप उनका पता न पा सके। वे कहीं भागे नहीं थे, आपके साथ ही साथ रहते थे। भागना तो तनुदत्ता के वंश में कोई जानता ही न था। प्रत्येक युध्द में वे महाराज के साथ रहते थे, प्रत्येक रणक्षेत्रा में वे आपकी पृष्ठरक्षा करते थे, पर आप उनको नहीं देख पाते थे''।
''सैनिक! मैं यह सब जानता हूँ, मैं इसे भूला नहीं हूँ। तुम्हारा भी मनुष्य का चोला है, अब और निष्ठुरता न करो, मुझे अब और न जलाओ, दया करो। नरसिंह और चित्रा का धयान मुझे सदा जलाता रहता है, तुम ज्वाला और न बढ़ाओ। नरसिंह नहीं रहे, उन्होंने मेरे लिए अपना प्राण निछावर कर दिया-यही बात मेरे हृदय को बराबर बेधा करती है। पर तुम कहते चलो; जब तक मैं अन्त न सुन लूँगा तब तक मरूँगा भी नहीं।''
''सुनिए, महाराज! वृध्द का अपराध मन में न लाना। मेरे स्त्री पुत्र कोई नहीं है, कभी कोई था भी नहीं। इन्हीं हाथों से तक्षदत्ता के पुत्र और कन्या को मैंने पाला और इन्हीं से नरसिंहदत्ता को चिता पर रखा। मेर हृदय में भी बड़ी ज्वाला है। आपही तनुदत्ता के वंशलोप के कारण हैं, आप ही के कारण चित्रा मरी, महाराज! और आपही के कारण नरसिंह भी मरे। पर तुम हमारे महाराज हो, हमारे परमेश्वर हो, नहीं तो सारा संसार यदि एक ओर होता तो भी मेरे हाथ से आपको बचा नहीं सकता था''।
''पर महाराज! आप अवधय हैं, आप हमारे देवता हैं क्योंकि आप महाराजाधिराज समुद्रगुप्त के वंशधार हैं। अच्छा सुनिए, जब घूस पाकर कान्यकुब्जवाले विद्रोही हो गए तब महानायक वसुमित्र को विवश होकर नगर छोड़ना पड़ा। उस समय सारी सेना ने चुपचाप सिर झुका कर सेनापति की आज्ञा का पालन किया और कान्यकुब्ज छोड़ प्रतिष्ठान का मार्ग लिया। केवल दो सेना ने महानायक की आज्ञा न मानी। एक सामान्य पदातिक उसका नेता हुआ। महाराज! वे दो सैनिक विद्रोही हुए। पर किस प्रकार विद्रोही हुए यह भी सुनिए। उन्होंने महानायक की आज्ञा की ओर कुछ धयान न दे दुर्ग की रक्षा करने का दृढ़ संकल्प किया। उन्हीं लोगों के कारण कान्यकुब्ज दुर्ग के ऊपर गरुड़धवज चमकता रहा। यह नए ढंग का विद्रोह है, महाराज! आपके राज्य में एक बार और ऐसा विद्रोह हुआ था। कुछ स्मरण है? उस बार भी एक सामान्य पदातिक ने विद्रोह करके सामा्रज्य के सिंहद्वार की रक्षा की थी। महाराज! तक्षदत्ता के पुत्र को छोड़ और ऐसा कौन कर सकता है, और किसकी इतनी छाती है?''
''महाराज! साम्राज्य की सारी सेना प्रतिष्ठान लौट गई, पर दो गौड़ और मागधा वीर आपके लिए प्राण देने को कान्यकुब्ज के पत्थर के कारागार में रह गए। दो सह लाखों के साथ कब तक जूझते? पर जब तक उनके शरीर में प्राण रहा तब तक कान्यकुब्जदुर्ग के ऊपर गरुड़धवज खड़ा रहा। ऑंधी में उठी हुई तरंगों के समान जिस समय थानेश्वर की लाख लाख सेना क्षण क्षण पर दुर्ग पर धावा करती थी उस समय मुट्ठी भर वीरों ने मृत्यु की ओर अपनी छाती कर दी। कान्यकुब्ज दुर्ग के गंगा द्वार पर आघातों से जर्जर फाटक की रक्षा करते समय तक्षदत्ता के पुत्र चित्रा का सारा शोक भूल गए और अन्त में परम शान्ति को प्राप्त हुए। महाराजाधिराज ! उन्हीं की आज्ञा से मैं आपके निकट कान्यकुब्ज के युध्द का संवाद देने आया हूँ। गंगातट पर गरुड़धवज को छाती पर रखकर आपका नाम स्मरण करते करते नरसिंहदत्ता अमरलोक को सिधारे। उसके पीछे दो सह में से जो दस बीस बचे थे वे हाथ में खड्ग लेकर हँसते हँसते कान्यकुब्ज की समुद्र सी उमड़ती सेना के बीच कूद पड़े। महाराज! वे वीर थे, वे प्रात: स्मरणीय थे, उनमें से एक भी जीता न बचा''।
चरणाद्रिगढ़ के नीचे एक चट्टान पर बैठै शशांक वृध्द सैनिक के मुँह से कान्यकुब्ज दुर्ग के पतन का वृत्तान्त सुन रहे थे। अनन्तवर्म्मा पत्थर की मूर्ति बने उनके पीछे खड़े थे। कुछ दूर पर सैनिक मुग्ध होकर नरसिंहदत्ता के अपूर्व वीरत्व की कहानी सुन रहे थे। कहानी पूरी होते होते मागधा सेना गद्गद होकर बारबार जयध्वनि करने लगी। वृध्द सैनिक मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। सम्राट ठगमारे से पत्थर की चट्टान पर बैठे रहे।
थोड़ी देर में अनन्तवर्म्मा ने धीरे से पूछा ''सैनिक! क्या तुम महानायक नरसिंहदत्ता की देह को कान्यकुब्ज में यों ही छोड़ कर चले आए?'' वृध्द बोला ''नहीं प्रभो! मैं नरसिंहदत्ता का सब संस्कार करके तब कान्यकुब्ज से चला हूँ। उस समय भी युध्दहो रहा था। वसुमित्र के नगर छोड़कर चले जाने पर थानेश्वर की सेना ने नगर पर अधिकार कर लिया था जब नरसिंहदत्ता चिता पर गए तब गढ़ के भीतर जो योध्दा बचे थे वे फाटक खोलकर बाहर निकल आए और शत्रु की असंख्य सेना पर टूट पड़े''।
उनकी बात सुनकर शशांक को कुछ चेत हुआ। उन्होंने वृध्द से कहा ''भाई! तुम नरसिंहदत्ता की आज्ञा का पालन तो कर चुके, तुम्हारा काम तो पूरा हो गया। अब बताओ कहाँ जाओगे और क्या करोगे...?''
''कार्य तो हो चुका, महाराज! अब मुझे और कुछ करना नहीं है। अब मृत्यु की खोज में बाहर निकलना है''।
''भाई! इसके लिए तुम्हें दूर न जाना होगा। तुम मेरे साथ रहो, मृत्यु का नित्य सामना होगा''।
''कहाँ चलना होगा, महाराज?''
''बस सीधो प्रतिष्ठानपुर''।
शशांक अनन्तवर्म्मा के हाथ का सहारा लिए गढ़ के ऊपर चढ़ने लगे। सैनिक भी उनके पीछे पीछे चला।


पन्द्रहवाँ परिच्छेद
सहाय्य प्रार्थना

सम्राट की आज्ञा से प्राचीन पाटलिपुत्र नगर निर्जन हो गया। साम्राज्य की राजधानी कर्णसुवर्ण नगर में स्थापित हुई। कर्णसुवर्ण नदी से घिरे हुए एक टीले पर बसा था। स्थान सुरक्षित था और उसके चारों ओर का दृश्य अत्यन्त मनोरम था। उत्तर राढ़ में अब तक प्राचीन कर्णसुवर्ण नगर के ख्रड़हर फैले हुए हैं। नारायणशर्म्मा और रामगुप्त कर्णसुवर्ण आकर नया नगर निर्माण कराने में लगे। पाटलिपुत्र के नए और पुराने राजभवन गिरने पड़ने लगे।
शशांक पाटलिपुत्र छोड़ जल्दी पश्चिम की ओर बढ़े। चरणाद्रिगढ़ में पहुँच कर उन्होंने हर्षवर्ध्दन के कान्यकुब्ज पर अधिकार करने और नरसिंहदत्ता के मारे जाने का संवाद पाया यह पहले कहा जा चुका है। हरिगुप्त ने आगे बढ़ कर प्रतिष्ठान को तो शत्रुओं के हाथ से छुड़ाया पर वे और विद्याधारनन्दी मिलकर भी कान्यकुब्ज की ओर न बढ़ सके। पूर्व की ओर लौहित्या (ब्रह्मपुत्र) के किनारे जाकर वीरेन्द्रसिंह और माधववर्म्मा ने भास्करवर्म्मा को रोका। शशांक ने प्रतिष्ठानदुर्ग में पहुँचकर सेना का नेतृत्व अपने हाथ में लिया। अखण्ड युध्द चलने लगा। महीने पर महीने, वर्ष पर वर्ष बीत गए, पर युध्द समाप्त न हुआ। हर्षवर्ध्दन की प्रतिज्ञा पूरी न हुई। वे न तो राज्यवर्ध्दन की मृत्यु का बदला ले सके, न शशांक को सिंहासन पर से हटा सके। युध्द छिड़ने से पाँच, छ: वर्ष पर प्रवीण महाबलाधयक्ष हरिगुप्त की मृत्यु हुई। उनके स्थान पर अनन्तवर्म्मा नियुक्त हुए। कुछ दिन पीछे कर्णसुवर्ण नगर में महाधार्माधयक्ष नारायणशर्म्मा की भी मृत्यु हुई। एक एक करके पुराने राजकर्म्मचारियों के स्थान पर नए-नए लोग भरती होने लगे।
हर्षवर्ध्दन जब किसी प्रकार से शशांक को पराजित न कर सके तब उन्होंने एक नया उपाय निकाला। हर्ष राजनीति की टेढ़ी चालें चलने में बड़े कुशल थे। शशांक से युध्द आरम्भ होने के पहले ही कामरूप के राजा के साथ उन्होंने सन्धि कर ली थी। 'हर्षचरित' में बाणभट्ट ने हर्ष के शिविर में कामरूप राज के दूत हंसवेग के आने का जो विवरण लिखा है उसके देखने से जान पड़ता है कि कामरूप के राजा ने अपने आप हर्ष से सहायता माँगी थी। उसके पहले से शशांक और थानेश्वरराज के बीच युध्द चल रहा था पर हर्षचरित में कहीं शशांक और कामरूपराज सुप्रतिष्ठितवर्म्मा या उनके छोटे भाई भास्करवर्म्मा के बीच किसी प्रकार के विग्रह का आभास नहीं पाया जाता। हर्षवर्ध्दन का राज्य कामरूप के पास तक नहीं पहुँचा था अत: कामरूप के राजा आप से आप क्यों थानेश्वर के राजा के साथ सन्धि करने गए यह बात अब तक ऐतिहासिकों की समझ में नहीं आई है। जान पड़ता है कि यह राष्ट्रनीति कुशल हर्षवर्ध्दन की एक चाल थी।
हर्षवर्ध्दन ने जब किसी प्रकार युध्द समाप्त होते न देखा तब उन्होंने माधव गुप्त को पाटलिपुत्र भेजा और उन्हें ही मगध का प्रकृत राजा प्रसिध्द किया। बन्धुगुप्त और बुध्दघोष की मृत्यु के पीछे महाबोधि विहार के स्थविर जिनेन्द्रबुध्दि उत्तारापथ के बौध्द संघ के नेता हुए। उनकी उत्तोजना से गौड़, मगध, बंग और राढ़ देश की बौध्द प्रजा भड़क उठी। शशांक बड़े फेर में पड़े। उन्हें मगध की रक्षा के लिए सैन्यभीति को रोहिताश्वगढ़ और वसुमित्र को गौड़ नगर भेजना पड़ा। इसी बीच में कामरूपराज के भाई भास्करवर्म्मा ने बंगदेश के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। प्रतिष्ठानपुर में विद्याधरनन्दी और कर्णसुवर्ण में रामगुप्त की मृत्यु हो जाने से शशांक को विश्वासपात्र पुरुषों का बड़ा अभाव हो गया। जो नए-नए कर्म्मचारी हुए वे भीतरभीतर शत्रु की ओर मिलने लगे। हर्षवर्ध्दन धन देकर सबको मुट्ठी में करने लगे। शशांक ने विवश होकर माधववर्म्मा को कर्णसुवर्ण लौट जाने की आज्ञा दी-और वे आप प्रतिष्ठानपुर में ही जमे रहे। शशांक के बहुत दिन राजधानी से दूर रहने के कारण मगध में घोर अव्यवस्था फैल गई। बौध्दसंघ के नेताओं की सहायता से माधवगुप्त ने रोहिताश्व, मंडला, पाटलिपुत्र और चम्पा इत्यादि कुछ प्रधान दुर्गों को छोड़ मगध और तीरभुक्ति के और सब मुख्य मुख्य नगरों और ग्रामों पर अधिकार कर लिया। माधववर्म्मा के कर्णसुवर्ण चले आने पर भास्करवर्म्मा ने सारे बंगदेश को अपने हाथ में कर लिया। ऐसे समय में शशांक को नरसिंहदत्ता का अभाव बराबर खटकता और वे बार बार यशोधवलदेव, ऋषिकेशशर्म्मा, नारायणशर्म्मा और विनयसेन ऐसे विश्वस्त कर्म्मचारियों का नाम लेकर दु:खी होते।
बहुत दिनों तक युध्द चलते रहने से राजकोष भी खाली हो चला। जिन प्रदेशों पर माधवगुप्त का अधिकार हो गया था उन्होंने राजस्व देना बन्द कर दिया। सम्राट को विवश होकर राजधानी की ओर लौटना पड़ा। उनकी आज्ञा से सैन्यभीति और वीरेन्द्रसिंह विधुसेन के दोनों पौत्रों पर रोहिताश्वगढ़ की रक्षा का भार छोड़ प्रतिष्ठानपुर चले आए। शशांक अनन्तवर्म्मा को प्रतिष्ठानपुर में छोड़ आप कर्णसुवर्ण लौटना चाहते थे, पर नए महाबलाध्यक्ष ऐसे समय में सम्राट का साथ छोड़ने पर सम्मत न हुए। शशांक कर्णसुवर्ण लौट आए। माधववर्म्मा भास्करवर्म्मा को रोकने के लिए बढ़े। एक वर्ष के भीतर बंगदेश पर अधिकार हो गया। भास्करवर्म्मा शंकरनद के उस पार लौट गए। अनन्तवर्म्मा और वसुमित्र ने मगध और तीरभुक्ति के विद्रोहियों का दमन किया। माधवगुप्त भागकर कान्यकुब्ज पहुँचे। साम्राज्य के कार्य फिर व्यवस्थित रूप से चलने लगे। राजस्व भी बराबर आने लगा। स्थाण्वीश्वर में फिर से चढ़ाई लिए नई सेना भरती होने लगी। हर्षवर्ध्दन को बौध्दाचाय॔ से संवाद मिला कि सम्राट शीघ्र ही थानेश्वर पर चढ़ाई करनेवाले हैं।
इसी बीच जिनेन्द्रबुध्दि के कौशल से वाराणसी, चरणाद्रि और प्रतिष्ठान की प्रजा बिगड़ गई। थानेश्वर की सेना ने सैन्यभीति और वीरेन्द्रसिंह को प्रतिष्ठानदुर्ग में घेरकर श्रावस्ती, वाराणसी, चरणाद्रि और प्रतिष्ठानभुक्ति पर अधिकार कर लिया। शशांक और अनन्तवर्म्मा विवश होकर राजधानी से चल पड़े। भास्करवर्म्मा को परास्त करके माधववर्म्मा दक्षिण कोशल पर अधिकार करने गए थे। वे कलिंग, दक्षिण कोशल, उड्र और कोंकद मण्डल पर अधिकार करके लौट आए। उन्होंने आकर सुना कि सम्राट और महाबलाध्यक्ष ने प्रतिष्ठान की ओर यात्रा की है; अवसर पाकर भास्करवर्म्मा ने बंगदेश पर फिर अधिकार कर लिया है और वसुमित्र उनसे युध्द करने के लिए गए हैं; वृध्द महादण्डनायक रविगुप्त नगर की रक्षा कर रहे हैं। युध्द में जयलाभ करके माधववर्म्मा जल्दी जल्दी राजधानी की ओर बढ़ रहे थे, उनकी सेना पीछे धीरेधीरे आ रही थी। कर्णसुवर्ण पहुँचकर उन्होंने देखा कि नगरदुर्ग की रक्षा के लिए केवल पाँच सह सेना रह गई है। वृध्द महादण्डनायक उन्हें देख अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनके हाथ में राजधानी सौंप निश्चिन्त हुए। माधववर्म्मा ने राजधानी की इतनी थोड़ी सेना को चटपट कर्णसुवर्ण पहुँचने की आज्ञा दी। सम्राट के राजधानी छोड़ते ही मगध और तीरभुक्ति में विद्रोह खड़ा हुआ। वाराणसी और श्रावस्ती पर अधिकार कर चुकने पर शशांक ने सुना कि तीरभुक्ति अधिकार से निकल गया और मगध के बौध्दों ने रोहिताश्व और मण्डलागढ़ को घेर रखा है। बड़ी कठिनता से चरणाद्रि और प्रतिष्ठान का विद्रोह शान्त करके उन्होंने सैन्यभीति को मण्डलागढ़ की ओर दौड़ाया। थानेश्वर की चढ़ाई के लिए मगध, गौड़ और बंग से जो नई सेना इकट्ठी की गई थी उसे मगध और तीरभुक्ति का विद्रोह दमन करने में फँसी देख हर्षवर्ध्दन निश्चिन्त हुए।
अपने को चारों ओर विपज्जाल से घिरा देख एक दिन शशांक को वज्राचार्य्य शक्रसेन और उनकी भविष्यद्वाणी का स्मरण आया। बहुत पहले गंगा के तट पर वृध्द वज्राचार्य्य ने जो बातें कही थीं उनमें से अधिकांश सत्य निकलीं। शशांक सोचने लगे कि इसी प्रकार और आगे की बातें भी ठीक घटेंगी। सोचते सोचते वज्राचार्य्य से एक बार फिर मिलने की उन्हें बड़ी इच्छा हुई। बन्धुगुप्त की मृत्यु के पीछे फिर वज्राचार्य्य शक्रसेन दिखाई नहीं पड़े थे। शशांक ने उन्हें कपोतिक महाविहार का आधिपत्य देना चाहा था, पर उन्होंने स्वीकार नहीं किया था। सम्राट उनके दर्शन के लिए व्यग्र हो रहे थे। अकस्मात् एक दिन सबेरे वृध्द वज्राचार्य्य एक वृक्ष की शाखा को दोनों जाँघों के बीच से निकाले प्रतिष्ठानदुर्ग की ओर आ निकले। शशांक उस समय कान्यकुब्ज की ओर यात्रा करने की तैयारी में थे। उन्होंने दुर्ग के फाटक पर वज्राचार्य्य को देख चकित होकर पूछा ''आप कब आए? मैं तो इधर कई दिनों से आपकी खोज में हूँ''। वज्राचार्य्य ने हँसते हँसते कहा ''महाराज! आपने स्मरण किया तभी तो चला आ रहा हूँ।''
''आपने कैसे जाना?''
''गणना द्वारा। महाराज! इस समय की तैयारी रोक दीजिए। आप कान्यकुब्ज न जा सकेंगे। आपको बहुत शीघ्र पूर्व की ओर जाना पड़ेगा।''
''आप क्या कहते हैं मैंने नहीं समझा।''
''महाराज! जो कुछ मैं कहता हूँ उसे मैं ही अच्छी तरह नहीं समझता आपसे क्या बताऊँ...?''
''इस समय मैं बड़े संकट में पड़ा हूँ, इसी से इधर कई दिनों से दिन रात आपका स्मरण करता हूँ।''
''बाहरी शत्रु तो आपका बाल बाँका नहीं कर सकता। सम्मुख युध्द में हर्षवर्ध्दन कभी आपको परास्त न कर सकेंगे।''
''पर मैं भी तो हर्षवर्ध्दन को परास्त नहीं कर सकता हूँ।''
''वृध्द वृक्ष की शाखा दूर फेंक प्रतिष्ठानदुर्ग के पत्थर जड़े ऑंगन में बैठ गए और वस्त्र के भीतर से खरिया निकालकर पत्थर पर अंक लिखने लगे। थोड़ी देर पीछे वज्राचार्य्य बोले ''महाराज! आपके हाथ से हर्षवर्ध्दन का पराजय नहीं है। भारतवर्ष भर में केवल एक ही व्यक्ति है जो हर्षवर्ध्दन को ध्वस्त करेगा-दक्षिणपथ का अधीश्वर चालुक्यराज पुलकेशी।''
वज्राचार्य्य की बात पर शशांक को सहसा वृध्द महानायक यशोधवलदेव की मरते समय की यह बात याद आई कि ''विपत्ति पड़ने पर चालुक्यराज मंगलेश से सहायता माँगना।'' मंगलेश तो उस समय मर चुके थे, द्वितीय पुलकेशी दक्षिण के सम्राट थे। शशांक ने मन ही मन चालुक्यराज के पास दूत भेजने का निश्चय किया। इसी बीच वज्राचार्य्य सहसा बोल उठे ''महाराज! मैं स्वयं वातापिपुर जाने को तैयार हूँ।'' सम्राट ने विस्मित होकर कहा ''प्रभो! आप तो अन्तर्यामी जान पड़ते हैं।''
''महाराज! जगत् में कोई अन्तर्यामी नहीं है। भाषा जिस प्रकार लोगों के मन का भाव प्रकट करती है, आकृति भी अस्फुट रूप में मन का भाव प्रकट करती है।''
''तो आप स्वयं दक्षिण जाने के लिए तैयार हैं?''
''हाँ।''
''कब।''
''आज ही।''
उसी दिन सन्ध्या को वज्राचार्य्य शक्रसेन सम्राट शशांक नरेन्द्रगुप्त के दूत बनकर दक्षिण की ओर चल पड़े।


सोलहवाँ परिच्छेद
कर्णसुवर्ण अधिकार

एक दिन रात के समय कर्णसुवर्ण के नए प्रासाद के अलिंद में माधववर्म्मा और रविगुप्त भोजन के उपरान्त विश्राम कर रहे हैं। इतने में एक द्वारपाल ने आकर संवाद दिया कि कोशल से कुछ सैनिक आए हैं जो इसी समय महानायक माधववर्म्मा से मिलना चाहते हैं। माधववर्म्मा ने विरक्त होकर कहा, ''वे क्या कल सबेरे तक ठहर नहीं सकते?'' द्वारपाल ने कहा ''हम लोगों ने उन्हें बहुत समझाया पर वे किसी प्रकार नहीं मानते, कहते हैं कि अत्यन्त प्रयोजनीय संवाद है।'' ''उन्हें यहाँ ले आओ'' कहकर माधववर्म्मा पलंग पर ही उठकर बैठ गए। द्वारपाल तुरन्त एक प्रौढ़ सैनिक को लिए हुए आया। सैनिक माधववर्म्मा को अभिवादन करके बोला ''प्रभो! भयंकर संवाद है।'' माधववर्म्मा सैनिक को देख घबराकर उठ खड़े हुए और पूछने लगे ''नवीन! कहो क्या संवाद है।'' बताने की आवश्यकता नहीं सैनिक और कोई नहीं बंगदेश का माँझी नवीनदास है।
नवीन ने कहा ''प्रभो! हमारी सारी सेना अभी ताम्रलिप्ति तक भी नहीं पहुँची है। मैं अपनी नौ सेना लेकर अभी चला आ रहा हूँ। मार्ग में मैंने देखा कि गंगा के उस पार दूर तक न जाने किसके शिविर पड़े हैं। पश्चिम तट के सब गाँव उजाड़ पड़े हैं और घाट पर एक नाव भी नहीं है। आपको क्या अब तक इसका कुछ भी संवाद नहीं मिला?''
''कुछ भी नहीं।''
''प्रभो! तो फिर निश्चय है कि शत्रु सेना राजधानी पर आक्रमण करने आ पहुँची।''
''नवीन! तुम चटपट बाहर जाओ, नगर के सब फाटक बन्द करो और सैनिकों को युध्द के लिए सन्नध्द करो।''
नवीनदास अभिवादन करके चला गया। आधी घड़ी में नगर के भीतर स्थानस्थान पर शंखध्वनि हो उठी, नगर के प्राकार पर सैकड़ों पंसाखे दिखाई देने लगे। माधववर्म्मा ने रविगुप्त से सारी व्यवस्था कह सुनाई। रविगुप्त हँसकर बोले ''अच्छी बात है, बताओ मुझसे भी कुछ हो सकता है?''
माधव ने कहा ''हाँ हो सकता है।''
''क्या, बताओ।''
''आप पाँच सहस्रपुर रक्षियों को लेकर नगर की रक्षा करें। मेरी सेना के जितने लोग अब तक आ चुके हैं उन्हें लेकर मैं नदी के किनारे जाकर शत्रु सेना को देखता हूँ। तब तक आप नगर के फाटकों को दृढ़ करें।''
''अच्छी बात है। पर तुम लौटोगे कब?''
''चाहे जिस प्रकार होगा सबेरा होते होते मैं नगर में लौट आऊँगा।''
रविगुप्त और माधववर्म्मा प्रासाद के बाहर निकले।
भास्करवर्म्मा की बंगदेश पर फिर चढ़ाई सुनकर वसुमित्र अधिकांश सेना लेकर उन्हें रोकने के लिए गए थे। उन्हें पीछे छोड़ भास्करवर्म्मा सीधे कर्ण सुवर्ण पर आ धमकेंगे इस बात का उन्हें स्वप्न में भी ध्यान न था। वे राजधानी की रक्षा के लिए केवल पाँच सहस्र सेना छोड़ जल्दी जल्दी बंगदेश की ओर बढ़े जा रहे थे। कुमार भास्करवर्म्मा बंगदेश के विद्रोहियों की सहायता से चटपट बालवल्लभी होते हुए भागीरथी के तटपर आ निकले। वसुमित्र ने मेघनाद के तट पर पहुँचकर देखा कि बंगदेश में उनका सामना करने के लिए कहीं कोई शत्रु नहीं है। पीछे उन्होंने सुना कि कामरूप की सारी सेना पश्चिम की ओर बढ़ गई है और लौटते समय उन्हें रोकने के लिए डटी हुई है। वसुमित्र ने युध्द की तैयारी कर दी। युध्द के आरम्भ ही में उन्हें समाचार मिला कि भास्करवर्म्मा ने स्वयं पन्द्रह सह अश्वारोही लेकर कर्णसुवर्ण पर आक्रमण कर दिया है।
जिस दिन भास्करवर्म्मा ने कर्णसुवर्ण नगर पर धाावा किया उस दिन नगर में केवल वसुमित्र के दल के पाँच सह पदातिक और माधववर्म्मा के दल के एक सह अश्वारोही तथा दो सौ नौसेना नदी तट पर थी। माधववर्म्मा अश्वारोहियों को लेकर अंधेरे में शत्रु सेना को रोकने चले। नवीनदास अपने दो सौ माझियों को लेकर रविगुप्त के साथ नगर की रक्षा पर रहे। माधववर्म्मा दो पहर रात तक आसरा देखते रहे, जब शत्रु सेना का कहीं पता न लगा तब वे नगर को लौट आए। उनके नगर में घुसते ही कर्णसुवर्ण नगर चारों ओर से घेर लिया गया। भास्करवर्म्मा ने बहुत दूर जाकर नदी पार किया और चुपचाप अपनी सारी सेना लेकर वे नगर के किनारे आ पहुँचे।
सारी रात युध्द होता रहा। नगर पर शत्रु का अधिकार न हो सका। रात ढलने पर दोनों पक्ष की सेना थककर विश्राम करने लगी। उस समय माधववर्म्मा रविगुप्त के साथ परामर्श करने बैठै। पहली बात तो यह स्थिर हुई कि वसुमित्र के पास संवाद भेजा जाय, दूसरी बात यह कि मण्डला वा रोहिताश्वगढ़ सहायता के लिए दूत भेजा जाय। सम्राट उस समय प्रतिष्ठानदुर्ग में थे, अत: उनके पास संवाद भेजना व्यर्थ समझा गया। नवीनदास स्वयं वसुमित्र के पास संवाद लेकर गए। एक तरुण सेनानायक अपनी इच्छा से दूत होकर मण्डला की ओर गया।
पहर दिन चढ़ते चढ़ते कामरूप की सेना ने फिर नगर पर आक्रमण किया। पहर भर तक युध्द होता रहा। माधववर्म्मा और रविगुप्त ने कई बार शत्रु सेना को पीछे भगाया तब भास्करवर्म्मा की सेना ने नगर के चारों ओर पड़ाव डाल कर घेरा किया। भास्करवर्म्मा की सेना नित्य दो तीन बार नगर के प्राकार पर धावा करती, पर हार खाकर पीछे हटती। इसी तरह करते एक महीना बीत गया पर न तो वसुमित्र के शिविर से और न मण्डलागढ़ से दूत लौटकर आया। कामरूप की सेना बारबार पराजित होकर भी निरस्त और हतोत्साह न हुई। यह देख माधववर्म्मा और रविगुप्त बड़ी चिन्ता में पड़ गए। लगातार लड़ते लड़ते दिन दिन सेना घटती जाती थी, पर शत्रु के शिविर में नई नई सेना आती जाती थी। कर्णसुवर्ण का प्राकार नया तो अवश्य था, पर वह पाटलिपुत्र या मण्डला प्राकार के समान दृढ़ और स्थायी नहीं था। प्राकार जगह जगह से गिरता जाता था। आक्रमण भी रोकना और उसे ठीक भी करना कठिन हो गया। धीरे धीरे दुर्ग के भीतर सेना का अभाव हो गया। माधववर्म्मा ने देखा कि अब नगररक्षा नहीं हो सकती। वे बचे हुए लोगों को लेकर शत्रु सेना को चीरतेफाड़ते निकल पड़े। पास की शत्रु सेना मुट्ठी भर लोगों पर टूट पड़ी। रात अंधेरी थी। शेष शत्रु सेना को पता न चला कितने लोग बाहर निकल रहे हैं। जो जहाँ थे वहीं निकलनेवालों की खोज में व्यग्र हो उठे।
रात के सन्नाटे में केवल पाँच सात सैनिकों के साथ रविगुप्त और माधववर्म्मा शत्रु शिविर से बहुत दूर निकल आए। माधववर्म्मा बोले ''अब क्या करना चाहिए?'' नगर तो शत्रु ओं के हाथ में जा चुका, अब यही हो सकता है कि उनके बीच कूद कर वीरगति प्राप्त करें''।
रविगुप्त-इस समय ऐसा करना मैं नीतिविरुध्द समझता हूँ। जब साम्राज्य में सेनानायकों का इस प्रकार प्रभाव हो रहा है तब यश की कामना से मृत्यु का आश्रय लेना मैं उचित नहीं समझता। साम्राज्य के भीतर कई स्थानों पर युध्द ठना है। स्वयं सम्राट युध्द कर रहे हैं। इस समय उनके सहायकों की संख्या में कमी करना मैं धर्म नहीं समझता।
माधववर्म्मा-आप वृध्द हैं, जैसा उपदेश देंगे वैसा ही करूँगा।
रविगुप्त-अब हम लोगों को सम्राट के पास चलना चाहिए।
एक महीने में मेघनाद के तट पर अपने शिविर में वसुमित्र ने सुना कि भास्करवर्म्मा ने कर्णसुवर्ण पर अधिकार कर लिया, पर पुररक्षकों में से कोई बन्दी नहीं हुआ। दूर के रोहिताश्व और प्रतिष्ठानदुर्ग में कर्णसुवण् के पतन का समाचार जा पहुँचा। शशांक समझे कि नरसिंहदत्ता के समान माधववर्म्मा ने भी साम्राज्य की सेवा में अपना जीवन विसर्जित कर दिया। सम्राट प्रतिष्ठान छोड़ मगध को लौट आए। वसुमित्र भी लौटकर गौड़देश में पहुँचे।


सत्रहवाँ परिच्छेद
ऋण परिशोध का अन्तिम प्रयत्न

शशांक मगध लौट आए। सोन के किनोर सैन्यति और मण्डल में वसुमित्र और माधववर्म्मा उनके साथ मिले। भास्करवर्म्मा, माधवगुप्त और हर्षवर्ध्दन तीनों ने मिलकर उन्हें रोकने का उद्योग किया; पर मंडलादुर्ग के सामने उनकी सेना बार बार पराजित हुई। माधवगुप्त तीरभुक्ति की ओर भागे, भास्करवर्म्मा ने कर्णसुवर्ण में जाकर आश्रय लिया। शशांक ने कर्णसुवर्ण घेरने का संकल्प किया।
माधववर्म्मा और रविगुप्त जिस समय कर्णसुवर्ण में घिरे हुए थे उसी समय एक तरुण सैनिक अपनी इच्छा से शत्रु के शिविर को पार करके मण्डला और रोहिताश्व से सहायता भेजवाने के लिए गया था। वह तरुण सैनिक इस समय शशांक का बड़ा प्रियपात्र हो रहा है। कर्णसुवर्ण पर चढ़ाई करते समय सम्राट ने उसे अपनी शरीररक्षी सेना में रखा।
सैनिक का नाम है रमापति। रमापति युध्द के समय कभी सम्राट के पास से अलग नहीं होता था और महाबलाधयक्ष अनन्तवर्म्मा के समान सदा अपने प्राणों को हथेली पर लिए रहता था। रमापति देखने में बड़ा ही सुन्दर था। उसका रंग कुन्दन-सा था देह गठीली और कोमल थी, उसमें कर्कशता का लेश नहीं था। उसके लम्बे लम्बे काले घुँघराले बाल सदा पीठ और कन्धों पर लहराया करते थे। वह जिस समय उन बालों के ऊपर रंग बिरंग का चीरा बाँधाता था उस समय उसे देखने से ऐसा जान पड़ता था कि पाटलिपुत्र का कोई वीरांगनाविलासी नागर है, शरीररक्षी सैनिक नहीं है।
शशांक मंडला से कर्णसुवर्ण की ओर गंगातट के मार्ग से नहीं चले, उन्होंने जंगल पहाड़ का रास्ता पकड़ा। वसुमित्र और सैन्यभीति गंगातट के मार्ग से ही कर्णसुवर्ण की ओर चले। यह स्थिर हुआ कि शशांक तो अनन्तवर्म्मा और माधववर्म्मा को लेकर दक्षिण की ओर से कर्णसुवर्ण पर आक्रमण करें और सैन्यभीति और वसुमित्र उत्तर की ओर से धावा करें। मंडला से चलकर एक महीने में सम्राट जंगल पहाड़ लाँघते ताम्रलिप्ति में आ निकले।
सारी अश्वारोही सेना आगे आगे चलती थी। बीच में शरीररक्षी सेना सहित स्वयं सम्राट थे और पीछे पदातिक सेना थी। जाड़ा बीतने पर वसन्त के प्रारम्भ में एक दिन सन्धया के समय ताम्रलिप्ति नगर के पास सम्राट का शिविर स्थापित हुआ। अश्वारोही सेना ने दस कोस और आगे बढ़कर पड़ाव डाला और पदातिक सेना पाँच छ: कोस पीछे रही। दो पहर रात तक अनन्तवर्म्मा और रमापति के साथ बातचीत करके सम्राट अपने शिविर में सोए। सबेरे ही फिर उत्तर की ओर यात्रा करनी होगी, इससे शरीररक्षी सेना भी डेरों में जाकर सो रही। इधर उधार दस पाँच पहरेवाले ही जागते रहे। तीन पहर रात गए पहरेवाले बहुत से घोड़ों की टापों का शब्द सुनकर चौंक पड़े। उनके शंखध्वनि करने के पहले ही शिविर पर चारों ओर से आक्रमण हुआ।
सम्राट के साथ एक सह अश्वारोही सेना बराबर रहा करती थी। उस सेना में सबके सब सुशिक्षित, पराक्रमी और युध्द में अभ्यस्त रहा करते थे। जब तक कोई युध्द में अद्भुत पराक्रम नहीं दिखाता था तब तक शरीररक्षी सेना में भरती नहीं हो सकता था। इस प्रकार अकस्मात् आक्रमण होने पर भी शरीररक्षी सेना डरी या घबराई नहीं। सबके सब अस्त्रा लेकर सोए हुए थे। शंखध्वनि सुनते ही वे युध्द के लिए उठ खड़े हुए। सम्राट के डेरे में उनके पलंग के पास ही अनन्तवर्म्मा और रमापति सोए थे। वे जब वर्म्म धारण करके डेरे के बाहर निकले तब शिविर के चारों ओर युध्द हो रहा था। असंख्य शत्रु सेना ने अंधेरे में चारों ओर से आकर शिविर पर आक्रमण किया था। शरीररक्षी सेना अपने प्राणों पर खेल युध्द कर रही थी, पर किसी प्रकार इतनी अधिक सेना को हटा नहीं पाती थी। सम्राट को शिविर के बाहर देखते ही सबके सब जयध्वनि करने लगे। थोड़ी देर के लिए शत्रु सेना पीछे हटी, पर फिर तुरन्त सैनिक मरते कटते शिविर में घुस आए। शरीररक्षी सेना हटने लगी।
सम्राट के डेरे के सामने शशांक, अनन्तवर्म्मा और रमापति युध्द करने लगे। शत्रु सेना चारों ओर से शिविर में घुस आई थी। शरीररक्षी हटते हटते सम्राट के शिविर की ओर सिमटते आते थे। इतने में सौ से ऊपर सैनिक अंधेरे में दूसरी ओर से आकर सम्राट पर सहसा टूट पड़े। एक लम्बा तड़ंगा वर्म्मधारी योध्दा उनका अगुवा था। उसने सम्राट को ताक कर बरछा चलाया। रमापति ने तुरन्त सम्राट के आगे आकर बरछे को अपने ऊपर रोक लिया। बरछा रमापति की बाँह को छेदता निकल गया। रमापति मूर्च्छित होकर सम्राट के पैरों के पास गिर पड़े। इसी बीच अनन्तवर्म्मा ने उस लम्बे तड़ंगे योध्दा के मस्तक पर तलवार का वार किया। उसके माथे पर से शिरस्त्राण नीचे गिर पड़ा। उसका मुँह देखते ही अनन्तवर्म्मा उल्लास से चिल्ला उठे। शशांक ने पूछा ''अनन्त ! क्या हुआ?'' अनन्तवर्म्मा उस दीर्घाकार योध्दा के सिर पर तलवार तानकर बोले ''प्रभो! चन्द्रेश्वर!''
''कौन चन्द्रेश्वर, अनन्त !''
इसी बीच में चन्द्रेश्वर के पीछे से एक वर्म्मधारी योध्दा ने शशांक के ऊपर बरछा छोड़ा। सम्राट या अनन्तवर्म्मा किसी ने न देखा। बरछा वर्म्म के सन्धि स्थल को भेद कर सम्राट के कन्धो में जा लगा। इस भीषण आघात से सम्राट को मूर्च्छा सी आ गई, पर उन्होंने तुरन्त सँभलकर बरछे को निकाल कर फेंक दिया। इतने में अनन्तवर्मा चन्द्रेश्वर का कटा सिर हाथ में लेकर बोले ''महाराज! इसी चन्द्रेश्वर ने मेरे पिता को मारा था''। उनकी बात सम्राट के कान में न पड़ी क्योंकि अत्यन्त क्रुध्द होकर वे बरछा चलानेवाले की ओर लपके थे। शशांक की तलवार उसके कन्धो पर पड़ी। वह युध्द छोड़कर भाग खड़ा हुआ। इसी बीच चारों ओर से शत्रु सेना सम्राट के शिविर में घुस आई। मुट्ठी भर शरीररक्षी कब तक खड़े रह सकते थे, एक एक करके वे गिरने लगे। इतने में पीछे से किसी ने चिल्ला कर कहा '' रत्नेश्वर! वही सामने शशांक है, आगे बढ़ो''। अकस्मात् पीछे से शशांक पर किसी ने खड्ग चलाया। अनन्तवर्म्मा का बायाँ हाथ ही बेकाम हुआ था, वे तलवार लेकर चिल्लाने वाले की ओर झपटे। इधर रत्नेश्वर और शशांक में खड्ग युध्द होने लगा। इतने में पीछे से एक और योध्दा ने शशांक पर तलवार चलाई। अनन्त ने वार को रोकना चाहा, पर तलवार उनके कन्धो पर पड़ी। वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े। अकेले शशांक रह गए। सहसा एक भाला उन्हें लगा। बहुत से घाव खाकर शशांक पहले ही शिथिल हो रहे थे। इस चोट को वे सँभाल न सके, मूर्च्छित होकर गिर पड़े।
इतने में कुछ योध्दाओं को लिए रमापति आते दिखाई पड़े। उन्होंने चट शशांक को अपनी पीठ पर लाद लिया और वहाँ से चलते हुए। रमापति के साथ आए हुए योध्दा कुछ देर तक लड़ते भिड़ते रहे। उनमें से एक अनन्तवर्म्मा को अपनी पीठ पर लाद अंधेरे में एक ओर निकल गया। अभी सबेरे का उजाला नहीं हुआ था। थानेश्वर की सेना शिविर को लूटने पाटने और जलाने में लगी हुई थी।

अठारहवाँ परिच्छेद
अन्तिम निर्णय

चारों ओर दूर तक बालू का मैदान चला गया है। दूर पर समुद्र की नीली रेखा दिखाई पड़ रही है और मेघगर्जन के समान गम्भीर शब्द सुनाई पड़ रहा है। रात बीत गई है, उषा की उज्ज्वल आभा पूर्व की ओर दिखाई पड़ रही है। बालू पर एक घायल योध्दा पड़ा हुआ है। एक अल्पवयस्क युवक बीच बीच में उसका नाम ले लेकर पुकारता है और फिर स्त्रियों के समान रोता हुआ उसके घायल शरीर पर सिर रख देता है।
''सम्राट-महाराज-शशांक-एक बार और उठो''।
घायल पुरुष अचेत पड़ा है। युवक ने फिर पुकारा ''शशांक!'' अन्त में हारकर अपने साथी के पैरों पर सिर रखकर वह रोते रोते बोला ''तो क्या अब न उठोगे-अब ऑंख न खोलोगे? एक बार ऑंख खोलकर देखो, मैं सैनिक नहीं हूँ-मैं रमापति नहींहूँ- मैं वही मालती हूँ''। युवक या युवती सम्राट के पास भूमि पर लोटकर विलाप करनेलगी।
थोड़ी देर में सूर्य्योदय हुआ। सूर्य की किरणों के ऊपर पड़ने से शशांक को कुछ चेत हुआ। मालती ने इस बात को न देखा। वह भूमि पर पड़ी विलाप कर रही थी। सम्राट ने उसके सिर पर हाथ रखकर पुकारा ''अनन्त!'' मालती चकपकाकर उठ बैठी ''कौन?'' शशांक ने अत्यन्त क्षीण स्वर से पूछा ''तुम कौन हो?''
मालती ने कहा ''अहा जाग गए, सचमुच जाग गए महाराज-महाराज! मैं हूँ, मालती। मैं रमापति नहीं हूँ-मैं सचमुच मालती हूँ। रोहिताश्वगढ़ से मैं बराबर साथ हूँ। एक दंड के लिए भी मैंने आपका साथ नहीं छोड़ा। पुरुष का वेश धारण करके मैंने जो जो किया वह किसी स्त्री से नहीं हो सकता। सदा तुम्हारे साथ रहने के लिए ही मैं रमापति के नाम से शरीररक्षी सेना में भरती हुई''।
''क्या कहा? मालती, तुम रमापति! कुछ समझ में नहीं आता-अनन्त कहाँ हैं!'
''प्रभो! मुझे पता नहीं है''।
''अनन्त-नहीं-नरसिंह-चित्रा। युध्द में क्या हुआ?''
''प्रभो! युध्द हो गया, माधवगुप्त की जीत हुई''।
माधवगुप्त की जीत की बात सुनते ही घायल सम्राट उठ बैठे और बोले ''माधवगुप्त की जीत? हर्षवर्ध्दन की जीत कहो; कभी नहीं। यशोधावलदेव चले गए, नरसिंह चले गए, अनन्त का पता नहीं। क्या हुआ? मैं तो हूँ, वीरेन्द्र हैं, वसुमित्र हैं, माधववर्म्मा भी होंगे। प्राचीन गुप्त साम्राज्य का गौरव फिर स्थापित करूँगा। पर-तुम कौन हो? तुम तो रमापति हो? नहीं-नहीं-तुम हो मालती। मालती तुम कहाँ? नहीं तुम तो रमापति हो-तुम्हें इतने दिन तो मैंने नहीं पहचाना था...''।
''महाराज, प्रभो, स्वामिन! मैं मालती ही हूँ। तुम्हें सदा देखते रहने के लिए ही अब तक रमापति बनी थी''।
''मालती-मालती-चित्रा! यह नहीं हो सकता''।
''न होने की कोई बात ही नहीं है, प्रभो! तुम्हें देखने की आशा से मैं दक्षिण से जंगल पहाड़ लाँघती इस देश में आई। लोक लज्जा आदि सब कुछ छोड़ बराबर साथ साथ फिर रही हूँ और फिरूँगी। मुझे और कुछ न चाहिए, इतना ही अधिकार मेरा रहने दीजिए। मैं और कुछ नहीं चाहती। आपके हृदय पर चित्रा का जो अधिकार है उसमें मैं कुछ भी न्यूनता नहीं चाहती। समुद्रगुप्त के वंश का जो गौरव उनके परम प्रतापी वंशधार के हृदय में विराज रहा है वही एक अबला के हृदय में भी जगा हुआ है। इसी नाते मुझे चरणों के समीप रहने का अधिकार दीजिए''।
''तुम अपना जीवन क्या इसी प्रकार नष्ट करोगी, कहीं विवाह न करोगी?''
''नहीं, महाराज! मुझसे विवाह करके संसार में कोई सुखी नहीं हो सकता, मैं देखती हूँ आप भी सुखी नहीं हो सकते। जिस बात से महाराज को दु:ख होता है उसे कभी मैं अपने मुँह पर न लाऊँगी। जंगल जंगल, पहाड़ पहाड़ महाराज के साथ फिरकर पहाड़ की चोटियों पर से, वृक्ष की शाखाओं पर से, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त और शशांकनरेन्द्रगुप्त के विजयगीत गाऊँगी। मेरी वाणी से महाराज के मुख पर कुछ भी प्रफुल्लता दिखाई देगी, महाराज की सेना को कुछ भी उत्साह मिलेगा, तो मैं अपना जन्म सफल समझूँगी। बस, महाराज! मुझे और कुछ न चाहिए''।
बोलते बोलते मालती का मुख आवेश से रक्तवर्ण हो गया, सुनते सुनते शशांक को तन्द्रा सी आ गई, उनकी ऑंखें झपकने लगीं। उन्होंने क्षीण स्वर से कहा ''रमापति-नहीं, नहीं-मालती-मैं तो देखता हूँ कि मेरे जीवन का अन्त-अब...''।
''महाराज! यह क्या कहते हैं? तो फिर मेरे जीवन का भी आज यहीं अन्त होगा''। मालती फिर विलाप करने लगी। सम्राट फिर मूर्च्छित से हो गए। थोड़ी देर में ऑंख खोलकर बोले ''चित्रा-नरसिंह-बड़ी प्यास-जल।''
मालती सम्राट को उस दशा में छोड़ कहीं नहीं जाना चाहती थी। पास में कहीं पीने योग्य जल मिलना भी कठिन था। उस बालू के मैदान में समुद्र के खारी जल के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखाई देता था। शशांक को प्यास से व्याकुल देख मालती बड़ी चिन्ता में पड़ गई। अन्त में ''अच्छा मैं जल लाने जाती हूँ कहकर वह एक ओर गई। परमेश्वर परमभट्टारक महाराजधिराज शशांकनरेन्द्रगुप्त तपती बालू में प्यास से तलफते अकेले पड़े रहे।
इतने में वृक्ष की एक शाखा पर सवार वज्राचार्य्य शक्रसेन सम्राट के सामने आ खड़े हुए और पुकारने लगे ''महाराज-महाराज शशांक!'' सम्राट ने ऑंखें खोलकर जल मुँह में डालने का संकेत किया। वृध्द वज्राचार्य्य बोले ''महाराज! अदृष्टचक्र पूरा हुआ''। वृध्द आचार्य्य चट एक बूटी का रस शशांक के मुँह में डाल और घावों पर लगाते लगाते बोले ''महाराज! यह बोधिसत्व नागार्जुन का लटका है। यह कभी व्यर्थ नहीं हो सकता''।
औषधा मुँह में पड़ते ही सम्राट का शैथिल्य हट गया, पीड़ा में भी बहुत कमी हो गई। वे सँभलकर बोले ''प्रभो! यह आपने क्या किया? मुझे अब और क्या दिखाना चाहते हैं? हर्षवर्ध्दन की कामना तो पूरी हुई''।
''नहीं महाराज! माधवगुप्त का अपराध क्षमा कीजिए''।
''माधवगुप्त! आपकी बात समझ में नहीं आती है''।
''महाराज! समझ में तो मुझे भी नहीं आती है, अदृष्ट न जाने क्या क्या कहलाताहै''।
रमापति के वेश में मालती जल लिए आ पहुँची। जल मुँह में पड़ते ही सम्राट और भी स्वस्थ हुए। इतने में बहुत से अश्वारोहियों का शब्द कुछ दूर पर सुनाई पड़ा। देखते देखते सम्राट के साथ की सारी अश्वारोही सेना उस बालू के मैदान में आ पहुँची। अनन्तवर्म्मा ने आकर सम्राट को अभिवादन किया। दो सैनिकों ने नि:शस्त्र माधवगुप्त को लाकर शशांक के सामने खड़ा कर दिया। माधवगुप्त सिर नीचा किए चुपचाप खड़े रहे। शशांक ने बहुत दिनों से माधवगुप्त को नहीं देखा था। देखते ही स्नेह से उनका जी भर आया। वे बोल उठे ''माधव!''
माधवगुप्त दौड़कर सम्राट के चरणों पर गिर पड़े, उनकी ऑंखों से ऑंसुओं की धारा छूट चली। शशांक ने कहा ''माधव! तुम मगध के अधीश्वर और महाराज महासेनगुप्त के पुत्र होकर इतने कातर क्यों होते हो?''
''भैया! माधव-भिखारी-चरणों में स्थान नहीं-महाराजाधिराज ! इस कृतघ्न का शीघ्र दण्डविधान...''।
''क्या हुआ, माधव! तुम निर्भय होकर कहो''।
माधवगुप्त के मुँह से एक शब्द न निकला।
वज्राचार्य्य बोले ''महाराज! माधवगुप्त का भ्रम दूर हो गया है। हर्षवर्ध्दन मगध के सिंहासन पर समुद्रगुप्त के किसी वंशधार को नहीं रखना चाहते। वे अपना कोई सामन्त वहाँ भेजना चाहते हैं। माधवगुप्त को अपने साथ थानेश्वर और कान्यकुब्ज में रखना चाहते हैं''।
शशांक-सेवा कराने के लिए-समुद्रगुप्त के वंशधार से?
सम्राट की ऑंखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं। वे उठ बैठे और कड़क कर बोले ''माधव! तुम समुद्रगुप्त के वंशधार हो। तुम्हारा मोह छूट गया, अब तुम मगध सिंहासन के अधिकारी हो। तुम्हीं से यदि समुद्रगुप्त का वंश चलेगा तो चलेगा। मेरे स्त्री पुत्र कोई नहीं, और न कभी होंगे। मैंने अब तक विवाह नहीं किया है और न कभी करूँगा। मैं राज भोगने के लिए युध्द नहीं कर रहा हूँ, मुझे राज्य की आकांक्षा नहीं है। मगध में गुप्तवंश का अधिकार स्थिर रखने के लिए ही मैंने शस्त्र उठाया है। मेरे जीते थानेश्वर राजवंश का कोई पुरुष या सामन्त मगध के सिंहासन पर पैर नहीं रख सकता। अनन्त!''
अनन्त-महाराज!
शशांक-जिस प्रकार से हो माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करना होगा।
सम्राट के मुँह से इतना निकलते ही अश्वारोही सेना जयध्वनि करने लगी। सम्राट की पदातिक सेना भी पास आ गई थी। उसने भी शशांक का नाम लेकर भीषण जयध्वनि की। जयध्वनि के बीच उस बालू के मैदान में रमणी के अत्यन्त मधुर और कोमल कण्ठ से निकला हुआ गुप्तवंश के गौरव का गीत कहीं से आकर कान में पड़ने लगा। सब लोग मन्त्रा मुग्धा के समान चकित खड़े रहे। किसी को यह रहस्य समझ में न आया। सब यही समझे कि वनदेवी प्रसन्न होकर गा रहीहैं।
सम्राट ने पूछा ''अनन्त! वसुमित्र और सैन्यभीति कहाँ हैं?''
वज्राचार्य्य-महाराज के घायल होने का संवाद उन्हें भी मिल चुका है, वे भी पहुँचा चाहते हैं। महाराज! यशोधावलदेव की बात का स्मरण है?
शशांक-प्रभो! कौन सी बात?
वज्रा -दक्षिण चले जाने की।
शशांक- प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं।
वज्रा -महाराज! सर्वज्ञ कोई नहीं-मैं तो लोकचर मात्रा हूँ, एक स्थान पर कभी नहीं रहता। वसुमित्र और अनन्तवर्म्मा अपनी सेना के साथ माधवगुप्त को ले जाकर मगध के सिंहासन पर बिठाएँ। हर्षवर्ध्दन नहीं रोक सकते, उन्हें शीघ्र ही अपनी सेना पूर्व से हटानी पड़ेगी। आप माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर निर्विघ्न रखने के लिए कलिंग और दक्षिण कोशल के दुर्गम पहाड़ी प्रदेश में गुप्तवंश के गौरवरक्षक के रूप में अवस्थान करें। अदृष्ट चक्र की गति यही कह रही है। बस, महाराज!''
देखते देखते वृध्द वज्राचार्य्य वृक्षशाखा पर सवार होकर बालू के मैदान में न जाने किधार निकल गए। फिर वे वहाँ दिखाई न पड़े। इतने में घोड़ों की टापें फिर सुनाई पड़ीं। एक दूत ने आकर सैन्यभीति, वीरेन्द्रसिंह और माधववर्म्मा के आने का समाचार दिया।
समुद्र के तट पर फिर शिविर स्थित हो गए। एक बड़े शिविर के भीतर सम्राट शशांक, माधवगुप्त, अनन्तवर्म्मा, माधववर्म्मा, सैन्यभीति और वीरेन्द्रसिंह बैठकर मन्त्रणा कर रहे हैं। स्थिर हुआ कि वसुमित्र, अनन्तवर्म्मा और माधववर्म्मा माधवगुप्त को साथ लेकर मगध पर चढ़ाई करें। जब तक वे माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर बिठाकर न लौटें तब तक सम्राट वहीं अवस्थान करें। उनके लौट आने पर दक्षिण की यात्रा हो। सैन्यभीति ने कहा-
''महाराजाधिराज! मैं वातापिपुर से कई बार दक्षिणकोशल और कलिंग की ओर गया हूँ। मैं उन प्रदेशों से पूर्णतया परिचित हूँ। गुप्तवंश का स्मरण वहाँ की प्रजा में अब तक बना हुआ है। बौध्दसंघ के अत्याचारों से दु:खी होकर कलिंगवाले अब तक गुप्तवंश का नाम लेते हैं। कलिंग में पुष्पगिरि आदि संघाराम बड़े प्रबल हैं। बौध्द आचार्य्य बालकों को पकड़ ले जाते हैं और संघ में भरती करते हैं। तान्त्रिक बौध्द बालकों को चुराकर बलि चढ़ा देते हैं। यह दशा वहाँ सैकड़ों वर्ष से है। प्राचीन वर्णाश्रम धार्म की रक्षा के लिए बहुत से लोग समुद्रपार द्वीपान्तरों में चले गए हैं। महाराज! आप धार्मरक्षक हैं, आपके ही हाथ उनका उध्दार हो सकता है।
शशांक-मैं अवश्य चलूँगा। बौध्दसंघ राजद्रोही है। इसी राजद्रोह के पाप से बौध्द मत का चिद्द तक इस देश में न रह जायगा।
डेढ़ महीने तक सम्राट शशांक ताम्रलिप्ति में रहे। अनन्तवर्म्मा, माधववर्म्मा और वसुमित्र जिस समय अपनी सेना सहित माधवगुप्त को लेकर मगध में पहुँचे उस समय थानेश्वर की सेना देश छोड़कर जल्दी जल्दी दक्षिण पश्चिम की ओर जा रही थी। यह देख कामरूप की सेना भी अपने देश को लौट पड़ी। माधवगुप्त निर्विघ्न मगध के सिंहासन पर प्रतिष्ठित किए गए। थोड़े दिनों में सुनाई पड़ा कि दक्षिणापथ के सम्राट द्वितीय पुलकेशी के हाथ से नर्मदा के तट पर हर्षवर्ध्दन ने गहरी हार खाई। इसके उपरान्त फिर हर्षवर्ध्दन ने माधवगुप्त को मित्रा छोड़ कभी सामन्त आदि कहने का साहस न किया।
माधवगुप्त के सिंहासन पर बैठने के थोड़े ही दिनों पीछे कलिंग और दक्षिण कोशल में ''परमेश्वर परमभट्टारक परम भागवत महाराजाधिराज श्री शशांक नरेन्द्रगुप्त'' की जयध्वनि गूँज उठी। प्राचीन वर्णाश्रम धार्म्म की मर्य्यादा वहाँ फिर स्थापित हुई। सम्राट शशांक और उनके सामन्त राजाओं की ओर से शास्त्राज्ञ ब्राह्मणों को बहुत सी भूमि मिली। इससे बौध्दसंघ का प्रभाव कम हुआ और तान्त्रिकों का अत्याचार दूर हुआ।


उपसंहार


सम्राट शशांक को कलिंग आए अठारह वर्ष हो गए। एक ऊँचे पहाड़ी दुर्ग के प्रासाद में राजर्षि शशांक पलंग पर लेटे हैं। उनके पास सोलह सत्राह वर्ष का एक बालक बैठा है। गुप्तवंश के गौरवगीत की मधुर ध्वनि दूर से किसी रमणी के कण्ठ से निकलकर आ रही है। सम्राट कह रहे हैं-
''पुत्र, आदित्यसेन! अब तुम सयाने हुए। तुम सम्राट महासेनगुत के पौत्रा हो। गुप्तवंश के गौरव की रक्षा अब तुम्हारे हाथ है। तुम्हारे पिता माधवगुप्त को मित्रा कहकर हर्षवर्ध्दन उत्तारीय भारत के सम्राट बने हुए हैं। यह मित्राता एक मायाजाल मात्रा है। मगध में गुप्तवंश के पूर्ण प्रताप की घोषणा के लिए यह आवश्यक है कि थानेश्वर से किसी प्रकार का सम्बन्धा न रखा जाय। तुम्हारे पिता के किए यह न होगा। यह तुम्हारे हाथ से होगा। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ, तुम गुप्तवंश के परमप्रतापी सम्राट होगे''।


 भाग-1 // भाग -2 // भाग-3 // भाग- 4 //  भाग - 5 //  भाग -6  //  भाग - 7 // भाग - 8 //  भाग - 9 //  भाग - 10 //  बुद्धचरित //आदर्श जीवन 


 

 

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