रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
7
शशांक
भाग
- 7
ग्यारहवाँ परिच्छेद
अदृष्ट गणना
पाटलिपुत्र के नए राजभवन के ऑंगन की फुलवारी में एक पुराना शिव मन्दिर
था। एक दिन प्रात:काल मन्दिर के बाहर बैठकर एक युवती गीली धोती पहने महादेव
की पूजा कर रही थी। युवती तन्वी थी और उसका वर्ण तपाए सोने का सा था। उसके
भींगे कपड़े से होकर उसकी गोराई फूटी पड़ती थी। कटि के नीचे तक पहुँचते हुए
घने घुँघराले काले भँवर केश हवा के झोंकों से लहराकर माथे पर से वस्त्र
हटाहटा देते थे। युवती एक हाथ से वस्त्र थामे हुए एकाग्रचित्ता से पूजा कर
रही थी। अर्घ्य, चन्दन, पुष्प, बिल्वपत्र और नैवेद्य विधिपूर्वक चढ़ा कर
सुन्दरी घुटना टेक और हाथ जोड़ मनाने लगी-
''भगवन्! युद्धमें जय प्राप्त हो। महानायक कुशलपूर्वक लौट आएँ, युवराज
शशांक युद्धमें विजय प्राप्त करके कुशल मंगल से राजधानी में आएँ, और और ''
पीछे से न जाने कौन बोल उठा ''और सेठ वसुमित्र कुशल मंगल से पूर्ण यौवन
सहित आकर यूथिका को गले लगाएँ। कैसी कही? न कहोगी''।
युवती ने चकपकाकर पीछे ताका, देखा तरला खड़ी है। वह कब धीरे धीरे दबे पाँव
आई युवती को पता न लगा। उसकी बात सुनकर उसके मुँह पर लाली झलक पड़ी। देखते
देखते गोल कपोलों पर की ललाई सारे शरीर में दौड़ गई। छवि देखकर तरला मोहित
हो गई। वह बोल उठी ''हाय! हाय! इस समय नायक पास नहीं है। उसके भाग्य में ही
नहीं कि यह अपूर्व शोभा देखे''। युवती ने कुन्दकली से दाँतों से लाल लाल ओठ
दबाकर घूँसा ताना और फिर महादेव को प्रणाम किया। तरला फिर बोल उठी ''हे
महादेव बाबा! मेरे मन में जो है उसे लाज के मारे कह नहीं सकती हूँ। मेरे
हृदय का रत्न कुशल मंगल से लौट आए तो हम दोनों एक साथ कृष्ण चतुर्दशी को
विधिपूर्वक तुम्हारी पूजा करेंगे''।
यूथिका ने महादेव को प्रणाम कर तरला की ओर ताक कर कहा ''तू मर भी''। तरला
हँसते हँसते बोली ''तुम्हारा शाप यदि लगता तो मैं नित्य न जाने कितनी बार
मरती। पर मैं मर जाऊँगी तो नायक पकड़ कर कौन लाएगा?''
''देख तरला! तू अब बहुत बढ़ती चली जा रही है। भला, महादेवी सुनेंगी तो मन
में क्या कहेंगी?''
''महादेवी मानो तुम्हारी सब करतूत नहीं जानती''।
''जानें या न जानें। तू बार बार यह सब बकती है, मुझे बड़ी लाज आतीहै''।
''मन की बात खोलकर कहने ही में इतना पाप लग गया। तुम्हारी बात तो अब घर घर
फैल गई है। मैं तुम्हें एक बड़ा अच्छा तमाशा देखने के लिए बुलाने आई थी, पर
तुम्हारी छवि देखकर सब कुछ भूल गई। क्या कहें, इस समय सेठ का लड़का न जाने
कहाँ है। बेचारा कहीं शिविर में पड़ा होगा''।
तरला की बात पर यूथिका की ऑंखें भर आईं, पर वह अपनी अवस्था छिपाने के लिए
बोली ''क्या दिखाएगी? बोल''। तरला ने कहा ''जल्दी आओ। श्यामामन्दिर में एक
और कोई तुम्हारे ही समान पूजा करने बैठा है''। दोनों फुलवारी के बाहर
निकलीं।
गंगाद्वार पर भागीरथी के किनारे श्यामा देवी का मन्दिर था। पत्थर के पुराने
मन्दिर के भीतर पुजारी बैठा पूजा कर रहा है। बाहर महादेवी हाथ जोड़े खड़ी
हैं। मन्दिर के द्वार के सामने चित्रा विचित्रा खम्भों का मण्डप है जिसमें
पट्टवस्त्र धारण किए कई युवती और किशोरी स्त्रियाँ खड़ी हैं। मण्डप के एक
कोने में एक युवती बैठी देवी फूल में लाल चन्दन लगा लगाकर एकाग्रचित्ता से
पूजा कर रही थी। उसके सामने जया के फूलों का ढेर लगा हुआ था। यूथिका और
तरला ने श्यामामन्दिर के ऑंगन में आकर उसको देखा। दोनों धीरे धीरे दबे पाँव
जाकर उसके पीछे खड़ी हो गईं। युवती उस समय पूजा समाप्त करके हाथ जोड़कर मना
रही थी ''हे देवि! कुमार कुशलक्षेम से लौट आएँगे तो मैं अपना रक्त निकाल कर
तुम्हें चढ़ाऊँगी। यही माँगती हूँ कि कुमार कुशल मंगल से विजयी होकर लौटें
और उनके साथ भैया, अनन्तवर्मा, माधववर्मा, यशोधावलदेव और वीरेन्द्रसिंह
सबके सब भले चंगे लौटें। कोई मरे न, यदि किसी का मरना आवश्यक ही हो तो मैं
तुम्हारे चरणों में अपने को बलि चढ़ाने के लिए तैयार हूँ। अब मुझे मरने से
डर नहीं लगता है। बार बार यही भिक्षा चाहती हूँ कि कुमार शीघ्र घर लौटें''।
तरला पीछे से बोल उठी ''चित्रादेवी! किसको कुमार कुमार कहकर पुकार रही
हो?'' चित्रा चौंककर उठ खड़ी हुई और उसने देखा कि तरला और यूथिका पीछे खड़ी
हैं। लज्जा से दबकर चित्रा भाग खड़ी हुई। उसके पैरों की आहट सुनकर महादेवी
ने पूछा ''कौन है?'' तरला ने उत्तर दिया ''चित्रादेवी हैं''।
महादेवी-चित्रा तो बैठी पूजा कर रही थी, उठकर भागी क्यों?
तरला-वे पूजा समाप्त करके देवी से कुछ मना रही थीं इतने में हम लोग पहुँच
गईं। उनका मनाना हम लोगों ने कुछ सुन लिया, इसी पर वे भागीं।
महा -क्यों? वह क्या मना रही थी?
तरला-वे मना रही थीं कि कुमार यदि कुशलक्षेम से लौट आएँगे तो मैं अपना रक्त
चढ़ाकर महाकाली की पूजा करूँगी।
तरला की बात सुनकर महादेवी हँस पड़ीं। गंगा, यूथिका आदि भी हँसते हँसते लोट
गईं। महादेवी की आज्ञा से लतिका चित्रा को ढूँढ़ने गई। महादेवी ने पूछा
''यूथिका कहाँ है? वह आज मेरे पास नहीं आई''। चित्रा की मनौती सुनकर यूथिका
की ऑंखें डबडबा आई थीं। वह अपने प्रिय के धयान में मग्न हो रही थी। वह अपनी
मनौती की बात मन में सोच रही थी और भीतर ही भीतर अपने प्रिय के मंगल की
प्रार्थना कर रही थी। तरला और महादेवी की एक बात भी उसके कान में नहीं पड़ी।
हँसीठट्ठा सुनकर सेठ की बेटी का धयान भंग हुआ। महादेवी के फिर पूछने पर
यूथिका लज्जा से दब गई। तरला ने उत्तर दिया ''यहीं तो बैठी हैं''।
यूथिका ने धीरे से उठकर महादेवी को जाकर प्रणाम किया। उसको लजाई देख
महादेवी ने पूछा। ''तुम आज आई क्यों नहीं, क्या हुआ है?'' यूथिका कोई उत्तर
न देकर पैर के अगूठे की ओर देखने लगी। तरला आगे बढ़कर बोली ''देवि! श्रेष्ठि
कन्या महादेव के मन्दिर में पूजा कर रही थीं''।
महा -यूथिका, इतनी लजाई क्यों है?
तरला-चित्रा देवी की सी बात इनकी भी है।
यूथिका ने लजाकर और भी सिर झुका लिया। इतने में लतिका चित्रा का हाथ पकड़े
उसे खींचती हुई ले आई। महादेवी ने उससे पूछा ''चित्रा! तू क्या मना रही
थी?'' चित्रा लज्जा के मारे कुछ बोल न सकी। महादेवी उसे अपने पास खींचकर
बोली ''लजाने की क्या बात है? मुझसे धीरे से कह दो, कोई सुनेगा नहीं''।
चित्रा महादेवी की गोद में मुँह ढाँककर सिसकने लगी। महादेवी ने उसे शान्त
करके तरला से पूछा ''तरला! ये तो सबकी सब बड़ी भारी भक्तिन हो गईं तुम्हारा
साथ अब कौन देगा?'' तरला मुसकराती हुई बोली ''मेरा साथ अब कौन देगा? मेरा
साथ देंगे यमराज''। लतिका महादेवी के पास उनके कान में धीरे से बोली ''नहीं
माँ, इनका एक और साथी है, उसका नाम है वीरेन्द्रसिंह। तरला ने एक दिन अपनी
कोठरी की दीवार पर वीरेन्द्रसिंह का नाम लिखा था पर मुझे देखते ही उसे मिटा
दिया''। यद्यपि यह बात धीरे से कही गई थी पर सब ने सुन ली और बड़ी हँसी हुई।
तरला सकुचाकर पीछे जा खड़ी हुई। इतने में एक दासी ने आकर कहा ''महादेवी!
महाप्रतीहार विनयसेन श्रीमती का दर्शन चाहते हैं''। महादेवी ने कहा
''उन्हें यहीं बुला लाओ''।
क्षण भर में विनयसेन मन्दिर के ऑंगन में आ पहुँचे और उन्होंने सिर झुका कर
प्रणाम किया। महादेवी ने पूछा ''विनय, कहो क्या है?''
विनय ?-महादेवी की आज्ञा से महामन्त्रीजी ने एक ज्योतिषी भेजा है।
महादेवी-ज्योतिषीजी कहाँ हैं?
विनय -उन्हें मैं गंगाद्वार के बाहर बिठा आया हूँ।
महादेवी-उन्हें यहाँ ले आओ।
विनयसेन प्रणाम करके चले गए और थोड़ी देर में एक वृद्धब्राह्मण को साथ लिए
लौट आए। ब्राह्मण देवता श्यामामन्दिर के सामने एक कुशासन पर बैठे। महादेवी
ने सामने जाकर उन्हें प्रणाम किया। ब्राह्मण ने उन्हें अपना हाथ दिखाने के
लिए कहा। बहुत देर तक महादेवी का हाथ देखकर ब्राह्मण ने कहा ''देवी! आपको
थोड़े ही दिनों में कुछ कष्ट होगा, पर वह कष्ट बहुत दिनों तक न रहेगा''।
महादेवी-मेरा पुत्र तो कुशल मंगल से घर लौट आएगा न।
गणक ने भूमि पर कई रेखाएँ खींची, फिर थोड़ी देर पीछे वे बोले ''युवराज
युद्धमें विजय प्राप्त करके लौटेंगे। उन्हें गहरी चोट आएगी, पर उस चोट से
उनका कुछ होगा नहीं''।
''कितने दिनों में लौटेंगे?''
''अभी बहुत दिन हैं''।
''मेरे जीते जी तो लौट आएँगे न? मैं उन्हें देखूँगी न?''
''हाँ, हाँ! आप राजमाता होंगी''।
महादेवी सन्तुष्ट होकर ज्योतिषीजी की विदाई का प्रबन्ध करने के लिए
अन्त:पुर में गईं। अवसर पाकर तरला यूथिका का हाथ पकड़े उसे खींचती खींचती
ज्योतिषी के पास ले आई और कहने लगी ''महाराज! इस स्त्री का कहीं विवाह नहीं
होता है, देखिए तो इसका विवाह कभी होगा।
ज्योतिषी ने यूथिका का हाथ देखकर कहा ''होगा''।
''कब''
''पाँच बरस में''
यूथिका ने कण्ठ से बहुमूल्य जड़ाऊ हार उतारकर ज्योतिषीजी के सामने रख दिया।
ब्राह्मण देवता बहुत प्रसन्न होकर बोले ''बेटी! तुम राजरानी होगी''। इसके
उपरान्त चित्रा का हाथ देखकर ज्योतिषी ने कहा ''तुम एक रात के लिए राजरानी
होगी''। लतिका का हाथ देखकर उन्होंने कहा तुम्हारा विवाह किसी परदेसी के
साथ होगा। लतिका और चित्रा ज्योतिषी की बात ठीक ठीक न समझ उदास खड़ी रहीं।
यूथिका तरला का हाथ पकड़कर उसे ज्योतिषी के पास ले आई। ज्योतिषीजी बहुत देर
तक उसका हाथ देखकर बोले ''तुम्हें कुछ दिनों तक तो कष्ट रहेगा, पर आगे चलकर
तुम एक बड़े भारी सेनानायक की पत्नी होगी''। तरला हँसकर बोली ''महाराज! आप
कुछ पागल तो नहीं हुए हैं, भला मैं एक दासी होकर सेनानायक की पत्नी कैसे हो
जाऊँगी?''
इतने में महारानी विदाई लेकर आ पहुँची। ज्योतिषीजी आशा से कहीं अधिक द्रव्य
पाकर प्रसन्नमुख विदा हो रहे थे। इसी बीच गंगा, लतिका आदि मण्डप के एक कोने
में जा छिपीं। यूथिका ने भी सिर पर का वस्त्र नीचे सरका लिया। महादेवी ने
चकित होकर देखा कि पीछे प्रांगण के द्वार पर सम्राट खड़े हैं। महासेनगुप्त
ने पूछा ''देवि! क्या हो रहा है?''
महादेवी-ज्योतिषी से फल बिचरवा रही हूँ।
''क्या फल बताया?''
''शशांक युद्धमें विजय प्राप्त करके लौटेंगे''।
महासेनगुप्त ने आगे जाकर अपना हाथ बढ़ाया और ज्योतिषीजी से देखने के लिए
कहा। ज्योतिषीजी हाथ देख ही रहे थे कि सम्राट ने पूछा ''मेरे जीवनकाल में
शशांक लौटकर आ जायँगे या नहीं?'' ज्योतिषीजी सम्राट का हाथ देखते देखते कुछ
अधीर से हो पड़े और भूमि पर बैठकर रेखाएँ खींचने लगे। सम्राट ने फिर पूछा
''क्या हुआ?'' ज्योतिषीजी ने कुछ सहमकर उत्तर दिया ''कुछ समझ में नहीं आता
है''।
सम्राट सिर नीचा किए उदास मन मन्दिर के ऑंगन के बाहर गए।
बारहवाँ परिच्छेद
मेघनाद तट का युद्ध
शंकर के तट पर युवराज की दुरवस्था का संवाद पाकर यशोधावलदेव ने दो
अश्वारोहियों के साथ सुमित्रा को युवराज की सहायता के लिए भेजा। उन्होंने
स्वयं मेघनाद के उस पार आक्रमण किया और बिना किसी विघ्न बाधा के मेघनाद के
पूर्वीय तट पर शिविर स्थापन किया। पहले तो दो तीन लड़ाइयों मे विद्रोहियों
ने बड़े साहस के साथ यशोधावल का मार्ग रोका। जलयुद्धका अभ्यास न होने के
कारण मागधा सेना घबरा उठी। बड़ी कठिनता से गौड़ नाविकों ने मागधा सेना का मान
रखा। युद्धकी अवस्था देख यशोधावलदेव को कुछ आशंका हुई। पदातिक सेना को
शिविर में छोड़ तीन गौड़ीय सेना की सहायता से उन्होंने एक ग्राम पर अधिकार
किया। युद्धविद्या में अनभ्यस्त ग्रामवासी जिस प्रकार पग पग पर बाधा दे रहे
थे उससे यशोधावलदेव ने सोचा कि इस प्रकार तो सैकड़ों वर्ष में भी बंगदेश पर
अधिकार न हो सकेगा।
यशोधावल इधर इस संकट में पड़े थे कि उधार शंकरनद के युद्धका संवाद बंगदेश
में पहुँचा। विद्रोही सामन्त राजा कामरूप की सेना का आसरा देख रहे थे। जब
उन्होंने देखा कि अब इधर कामरूप से कोई सहायता नहीं मिल सकती तब वे सबके सब
महानायक की शरण में आए। अब रही उनकी प्रजा। बन्धुगुप्त, शक्रसेन और
जिनेन्द्रबुध्दि की उत्तोजना से बंगदेश के बौद्धनिवासियोें ने अधाीनता
स्वीकार नहीं की। यह देख सामन्त राजा बड़े असमंजस में पड़े। उन्होंने अपना
अपना प्रदेश और घरबार छोड़ यशोधावलदेव के शिविर में आकर आश्रय लिया।
युद्धछिड़ गया। भास्करवर्म्मा के पराजित होकर लौट जाने पर भी बन्धुगुप्त
स्थाण्वीश्वर से सहायता का वचन पाकर युद्धचलाने लगे। किन्तु नेताओं के अभाव
से अशिक्षित विद्रोही सेना बार बार पराजित होने लगी। मागधा सेना उत्साहित
होकर युद्धकरने लगी। गाँव पर गाँव, नगर पर नगर अधिाकृत होकर उजाड़ होने लगे।
पर बौद्धप्रजा वशीभूत न हुई। बहुदर्शी यशोधावलदेव ने सोचकर देखा कि इस
प्रकार के युद्धसे कोई फल न होगा। देश को उजाड़ने से न उनका और न सम्राट का
कोई लाभ होगा। तब वे सामन्त राजाओं की सहायता से सन्धि का प्रयत्न करने
लगे।
सन्धि न हो सकी। बन्धगुप्त के बहकाने से प्रजा ने कहला भेजा कि हम सब लोग
तो थानेश्वर की प्रजा हैं, पाटलिपुत्र की अधीनता नहीं स्वीकार कर सकते।
वसन्त के आरम्भ में फिर युद्धका आयोजन होने लगा। इसी बीच युवराज अपनी सेना
सहित आकर यशोधावलदेव के साथ मिले। महानायक का शिविर अब धावलेश्वर के तट पर
खड़ा हुआ। लम्बी यात्रा के पीछे युवराज की सेना विश्राम चाहती थी।
यशोधावलदेव की भी इच्छा थी कि कुछ दिन युद्धबन्द रख कर सेना को थोड़ा
विश्राम दिया जाय। पर गौड़ के सामन्तों ने कहा कि यदि ग्रीष्म के पहले
युद्धसमाप्त न हो जाएगा तो फिर एक वर्ष और बढ़ जायगा, क्योंकि वर्षाकाल में
बंगदेश में युद्धकरना असम्भव है।
युद्धचलने लगा। चैत बीतते बीतते सुवर्णग्राम पर अधिकार हो गया। महानायक और
युवराज ने विक्रमपुर पर आक्रमण किया। गौड़ीय सामन्तों की सहायता से छोटी बड़ी
बहुत सी नावों का बेड़ा इकट्ठा हो गया था। पदातिक सेना को भी धीरे धीरे जल
युद्धका अभ्यास हो गया था। अश्वारोही सेना को शिविर में रख कर महानायक,
युवराज, वीरेन्द्रसिंह, वसुमित्र और माधववर्म्मा ने नावों को बहुत से दलों
में बाँट कर विद्रोहियों पर चारों ओर से आक्रमण किया। विद्रोही सेना घबरा
कर पीछे हटने लगी।
वैशाख लगते ही युद्धप्राय: समाप्त हो चला था। विजय प्राप्त करके युवराज बड़े
वेग से दक्षिण की ओर बढ़ रहे थे। अकस्मात् विद्रोहियों की एक सह से अधिक
नौसेना मेघनाद के तट पर उन पर टूट पड़ी। युवराज के साथ बीस नावें और चार सौ
सैनिक थे। वीरेन्द्रसिंह की सेना उस समय वहाँ से पन्द्रह कोस पर थी और
यशोधावलदेव का शिविर वहाँ से दस दिन का मार्ग था। प्रस्थान के समय महानायक
ने विद्याधारनन्दी नाम के एक वृद्धसामन्त को युवराज के साथ कर दिया था।
उन्होंने कुमार से धीरे धीरे पीछे हटके चलने को कहा। पर उनके परामर्श पर
धयान नहीं दिया गया। युवराज और अनन्त युद्धकरने पर तुले हुए थे। उन्होंने
स्थिर किया कि पिछली रात को शत्रुसेना पर छापा मारा जाय क्योंकि जब तक किसी
उपाय से व्यूह का भेद न किया जायगा तब तक लौटना नहीं हो सकता।
सुनसान मैदान में जैसे मरते हुए पशु को देख दूर दूर से गिध्दों का झुण्ड
आकर उसके मरने की प्रतीक्षा में चारों ओर घेर कर बैठता है उसी प्रकार
विद्रोही सेना युवराज को चारों ओर से घेर कर आसरा देख रही थी। क्षण क्षण पर
उसकी संख्या बढ़ती जाती थी। गाँव गाँव से छोटी बड़ी नावों पर विद्रोहियों का
दल शत्रु की समाप्ति करने के उल्लास में उमड़ा चला आता था। विलम्ब करना
अच्छा न समझ युवराज ने सबेरा होते होते उन पर धावा कर दिया, पर उद्देश्य
सफल न हुआ-व्यूह का भेद न हो सका।
तीसरा पहर होते होते तट पर सेना इकट्ठी करके युवराज ने सबसे बिदा ली और कहा
''यदि व्यूह का भेद हो गया तब तो फिर देखा देखी होगी, नहीं तो नहीं''।
प्रत्येक नाव व्यूह भेदकर निकलने का प्रयत्न करे, कोई किसी का आसरा न
देखे'' युवराज के बहुत निषेधा करने पर भी अनन्त और विद्याधारनन्दी उनकी नाव
पर हो रहे। बीस रणदक्ष नाविक नौका लेकर चले। बड़े प्रचण्ड वेग से बीसों
नावों ने व्यूह पर धावा किया। उस वेग को न सँभाल सकने के कारण विद्रोहियों
का नौकादल पीछे हटा, पर व्यूहभेद न हुआ।
युवराज की आज्ञा से नौकादल लौट आया। सुशिक्षित अश्वारोहियों के समान मुट्ठी
भर मागधा सेना ने फिर व्यूह पर आक्रमण किया। सबके आगे युवराज की नाव थी जिस
पर खड़े होकर युवराज हाथ में परशु लिए युद्धकर रहे थे। इस बार व्यूहभेद हुआ।
प्रबल वेग न सह सकने के कारण अशिक्षित ग्रामवासी अपनी अपनी नावें लेकर भाग
खड़े हुए। बिजली की तरह युवराज की नाव व्यूह के चारों ओर घूम रही थी। परशु
की तीक्ष्ण धार खाकर सैकड़ों विद्रोही काल के मुख में जा पड़े। बाणों से
जर्जर होकर विद्याधारनन्दी नाव पर मर्च्छित पड़े थे। अनन्त और दस नाविक
युवराज की पृष्ठरक्षा पर थे।
युवराज जिधार विद्रोहियों की नौका देखते उधार ही टूट पड़ते। वे या तो नाव
सहित डुबा दिए जाते अथवा आत्मसमर्पण करते। इस प्रकार व्यूह भेद हो गया,
शत्रुपक्ष का बेड़ा तितर बितर हो गया, बहुत-सी नावें भाग खड़ी हुईं। सन्धया
होतेहोते युद्धप्राय: समाप्त हो चला। युवराज ने देखा कि एक स्थान पर
विद्रोहियों की कई नावें इकट्ठी होकर युद्धकर रही हैं और गौड़ीय नाविक
उन्हें किसी प्रकार पराजित नहीं कर सकते हैं। युवराज ने तुरन्त नाविकों को
उधार बढ़ने की आज्ञा दी। उन्हें देख गौड़ीय नाविक दूने उत्साह से युद्धकरने
लगे। एक के पीछे एक नावें डूबती जाती थीं, पर युवराज ने चकित होकर देखा कि
बचे हुए शत्रु किसी प्रकार आत्मसमर्पण नहीं कर रहे हैं।
युद्धके कलकल, अस्त्रों की झनकार, और घायलों की पुकार के बीच युवराज ने
सुना कि कोई चिल्ला कर कह रहा है ''शुक्र! युवराज की नाव अब पास आ रही
है''। युवराज ने भय और आश्चर्य्य से देखा कि नावों के जमघट के बीच एक छोटी
सी नाव पर दो बौद्धभिक्खु खड़े हैं। उनमें से एक को तो उन्होंने पहचाना। वह
वज्राचार्य्य शक्रसेन था। देखते देखते दूसरे भिक्खु ने एक शूल छोड़ा, जिसके
लगते ही कुमार का एक नाविक नदी के जल में गिर पड़ा। पीछे से अनन्त ने
चिल्लाकर कहा ''सावधान!''
उनकी बात पर कुछ धयान न देकर युवराज ने अपनी नाव बढ़ाने की आज्ञा दी।
उन्होंने नाव पर से देखा कि दूसरे भिक्खु ने उन पर ताक कर शूल फेंका।
उन्होंने अपने वर्म्म को सामने किया। पर शूल उन्हें छू तक न गया, नाव से दस
हाथ दूर पानी में जा पड़ा। इतने में बाणों से घायल होकर एक और नाविक मारा
गया। युद्धअब प्राय: समाप्त हो चुका था। केवल दो नावें प्राणों पर खेल
भिक्षुओं की रक्षा कर रही थीं। युवराज की आज्ञा से सब नावों ने एक साथ उन
पर आक्रमण किया। युवराज ने सुना कि दूसरा भिक्षु कह रहा है ''शक्र! तुम कर
क्या रहे हो?'' शक्रसेन बोला ''मेरे अंग वश में नहीं हैं, हाथ नहीं उठता
है''। सुनते ही दूसरे भिक्खु ने युवराज को ताककर शूल चलाया। पर शूल युवराज
को लगा नहीं। अनन्तवर्म्मा चट दौड़कर आगे हो गए और शूल के आघात से मूर्च्छित
होकर नाव पर गिर पड़े।
युवराज की नाव अब भिक्खुओं की नाव के पास पहुँच गई थी, इससे वे अनन्त को
जाकर देख न सके। हाथ में खंग लेकर दूसरा भिक्खु बड़े वेग से युवराज की ओर
झपटा। युवराज ने बचाव के लिए अपना परशु उठाया। परशु यदि भिक्खु के सिर पर
पड़ता तो वह वहीं ठण्डा हो जाता पर एक वर्म्मधारी सैनिक ने उसे अपने ऊपर रोक
लिया। परशु ने वर्म्म को भेदकर सैनिक का सिर उड़ा दिया। इतने में दूसरे
भिक्खु का खंग युवराज के शिरस्त्राण पर पड़ा जिससे वे अचेत होकर मेघनाद के
जल में गिर पड़े। उनके गिरने के साथ ही वज्राचार्य्य जल में धाड़ाम से कूद
पड़ा।
सन्धया के पहले ही से ईशान कोण पर बादल घेर रहे थे। जिस समय युवराज अचेत
होकर मेघनाद के काले जल में गिरे उसी समय बड़े जोर से ऑंधी और पानी आया।
दोनों पक्ष युद्धछोड़कर आश्रय ढूँढ़ने लगे। शत्रु और मित्रा की खोज करने का
समय किसी को न मिला।
तेरहवाँ परिच्छेद
धीवर के घर
शीतला नदी के किनारे आम और कटहल के पेड़ों की घनी छाया के बीच एक छोटासा
झोपड़ा है। झोपड़े के गोबर से लीपे हुए ऑंगन में बैठी एक साँवली युवती
जल्दीजल्दी जाल बुन रही थी। उसके सामने बैठा एक गोरा गोरा युवक चकित होकर
उसके हाथ को देख रहा था। झोपड़े को देखने से जान पड़ता था कि वह किसी मछुवे
का घर है। चारों ओर छोटे बड़े जाल पड़े थे। एक ओर सूखी मछलियों का ढेर लगा
था। नदी तट पर उजली बालू के बीच दो तीन छोटी छोटी मछली मारने की नावें पड़ी
थीं। आसपास और कोई बस्ती नहीं थी। चारों ओर जल ही जल था; बीचबीच में हरे
हरे पेड़ों का झापस था। युवती साँवली होने पर भी बड़ी सुन्दरी थी। उसके अंग
अंग साँचे में ढले से जान पड़ते थे। युवती बड़े बाँकपन के साथ गरदन टेढ़ी किए
दोनों हाथों से झट झट जाल बुनती जाती थी और बीच बीच में कुछ मुसकरा कर चाह
भरी दृष्टि से पास बैठे युवक की ओर ताकती भी जाती थी। उस दृष्टिपात का यदि
कुछ अर्थ हो सकता था तो केवल हृदय का अनिवार्य वेग, चाह की गहरी उमंग,
प्रेम की अवर्णनीय व्यथा ही हो सकता था। युवक की अवस्था बीस वर्ष से ऊपर न
होगी। उसका रूप अलौकिक था। वैसा रूप धीवर के घर कभी देखने में नहीं आ सकता।
धूप से तप कर उसका शरीर तामरस के समान हो रहा था। मैला वस्त्र लपेटे धूल पर
बैठा वह ऐसा देख पड़ता था जैसा राख से लिपटा हुआ अंगारा। सिर उसका मुँड़ा हआ
था, सारे अंगों पर अस्त्रों की चोट के चिद्द थे, माथे पर बाईं ओर जो घाव था
वह अभी अच्छी तरह सूखा तक न था। धीवर के घर ऐसा रूप कभी किसी ने नहीं देखा।
इसी से वह धीवर की बेटी रह रह कर टकटकी बाँधा उसकी ओर देखती रह जाती और वह
युवक अनजान बालक के समान भोलेपन के साथ उसकी हाथ की सफाई और फुरती देखता
था।
इतने में एक और युवक धीरे धीरे उनके पीछे आ खड़ा हुआ। उन दोनों को इसका कुछ
भी पता न लगा। आए हुए पुरुष के एक हाथ में लम्बा भाला और दूसरे हाथ में
भीगा हुआ जाल था। थोड़ी देर तक तो वह युवक युवती के हावभाव देखता रहा, फिर
पूछने लगा ''भव, क्या कर रही है?'' युवती ने चौंक कर ऊपर ताका और बोली
''तेरे क्या ऑंख नहीं है, देखता नहीं है कि मैं क्या कर रही हूँ?''उस पुरुष
ने भाले को अच्छी तरह थाम कर कहा ''देखता तो हूँ, पर समझता नहीं हूँ''।
भव-तब फिर खड़ा क्या है? चला जा।
पुरुष-मैं न जाऊँगा। बुङ्ढा कहाँ है?
''घर में सो रहा है''।
वह पुरुष झोपड़े की ओर बढ़ा। यह देख युवती उसे पुकार कर बोली ''नवीन! नवीन!
उधार कहाँ जाते हो?''
''बुङ्ढे को बुलाने।''
''वह बहुत थक कर सोया हुआ है, उसे जगाना मत।''
युवक लौट आया। पर युवती ने उसकी ओर ऑंख उठाकर देखा तक नहीं। वह चुपचाप अपना
जाल बुनती रही। थोड़ी देर आसरा देख अन्त में उसने युवती को पुकारा ''भव!''
कोई उत्तर नहीं।
''भव!''
''क्या है?''
''चलो नाव पर थोड़ा घूम फिर आएँ''।
''मुझे अच्छा नहीं लगता''।
''इतने दिन तो अच्छा लगता था''।
''मैं बहुत बकवाद करना नहीं चाहती''।
जाल बुनने में भूल पड़ गई। दो ओर चित्ता बँट जाने से उसका धयान उचट गया था।
नवीन ने पूछा ''तुझे नाव पर चढ़ कर घूमना बहुत अच्छा लगता है, इसी से मैं
तुझे बुलाने आया हूँ, चल न''।
''तेरे साथ बाहर निकलने से लोग भला बुरा कहेंगे, मैं न जाऊँगी''।
''इतने दिन भलाबुरा नहीं कहते थे, आज भला बुरा कहेंगे''।
''यह सब मैं कुछ नहीं जानती''।
यही कहकर और चिड़चिड़ाकर उसने जाल हाथ से फेंक दिया और वहाँ से चली गई। युवक
भी उदास होकर झोंपड़े के ऑंगन से चला गया।
जब युवती ने देखा कि वह युवक चला गया तब वह फिर लौट आई।
पहला युवक ज्यों का त्यों बैठा था। उसने युवती से पूछा ''भव! नवीन चला
क्यों गया?''
''वह रूठ गया''।
''रूठ गया क्या?''
भव हँसते हँसते उसकी देह पर लोट गई। युवक चकपकाकर इसकी ओर ताकता रह गया। भव
ने पूछा ''पागल! तू क्या कुछ भी नहीं जानता?''
''न''
''रूठना किसको कहते हैं?''
''मैं क्या जानूँ?''
''चाहना किसको कहते हैं?''
''मैं क्या जानूँ?''
''मैं तुझे चाहती हूँ''।
''मैं क्या जानूँ?''
''तब तू क्या जानता है?''
''मैं तो कुछ भी नहीं जानता''।
भव हँसते हँसते लोट पड़ी। थोड़ी देर पीछे उसने फिर पूछा ''पागल! तू इतने
दिनों तक कहाँ था?'' युवक ने उत्तर दिया ''मैं तो नहीं जानता''।
''तेरा घर बार कहाँ है? तेरा क्या कहीं कोई नहीं था?''
''था तो, भव! ऐसा जान पड़ता है मेरा कहीं कोई था। पर कहाँ किस अन्धकार में,
यह मुझे दिखाई नहीं पड़ता''।
''पागल! थोड़ा सोच कर देख-तो कि कहाँ''।
''मैं नहीं सोच सकता, सोचने से सिर चकराता है।''
''अच्छा, जाने दे''।
''भव! तुम नवीन के साथ घूमने क्यों नहीं गई?''
''मुझे अच्छा नहीं लगता''।
''पहले तो बहुत अच्छा लगता था''।
''तू तो पागल है। तेरे मुँह कौन लगे? अच्छा बोल, तू घूमने चलेगा''?
''चलूँगा''।
'तुझे नाव पर घूमना अच्छा लगता है?''
''हाँ, मुझे बहुत अच्छा लगता है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि नदी के जल में
मेरा कुछ खो गया है, यदि मैं जाकर ढूँढू तो मिल जायगा; इसी से और अच्छा
लगता है''।
''तब चलो''।
''नवीन को बुला लूँ''।
''क्या करने को?''
''वह तो नित्य जाता है''।
''अब न जायगा''।
''क्यों?''
''मैं तेरी सब बातों का कहाँ तक उत्तर दूँगी? चलना हो तो चल''।
युवक इच्छा न रहने पर भी उठा। युवती काछा काछकर बालू पर से एक नाव खींचकर
जल में ले गई। युवक नाव पर जा बैठा। भव दोनों हाथों से डाँड़ चलाने लगी। नाव
धारा की ओर चली। नाव के अदृश्य हो जाने पर आम के कुंज में से निकल कर नवीन
बाहर आया। जब तक नाव दिखाई पड़ती रही तब तक वह किनारे खड़ा रहा। नाव के
अदृश्य हो जाने पर वह धीरे धीरे झोपड़े की ओर लौटा। इतने में करार पर से
किसी ने पुकारा ''नवीन''। नवीन बोला ''कहिए''।
''भव कहाँ है?''
''नाव पर घूमने गई है''।
''तुम नहीं गए?''
''नहीं''।
''उसके साथ कौन गया है?''
''पागल''।
''अच्छा तुम इधर आओ। बाबाजी आए हैं''।
नवीन ने जल्दी जल्दी घाट के ऊपर चढ़ कर देखा कि कटहल के एक पेड़ के नीचे कषाय
वस्त्र धाारण किए एक वृद्धबैठे हैं। उसने उन्हें भक्तिभाव से प्रणाम किया।
वृद्धने पूछा ''वह कहाँ है?''
नवीन-कौन?
वृध्द-वही तुम्हारा अतिथि।
''भव के साथ नाव पर घूमने गया है।''
''वह कैसा है?''
''भला चंगा है''।
''पहले की बातों का कुछ उसे स्मरण है?''
''कुछ भी नहीं। वह ज्यों का त्यों पागल है''।
''अच्छी बात है। तो अब मैं जाता हूँ, फिर कभी आऊँगा''।
वृद्धचले गए। जिसने नवीन को पुकारा था वह पूछने लगा ''नवीन! तू क्यों नहीं
जाता है?'' नवीन बोला ''मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है''। दोनों बैठे बहुत
देर तक बातचीत करते रहे। दो घड़ी रात बीते भव गीत गाती पागल को लिए लौटी।
नवीन तब तक वहीं बैठा था, पर भव उससे एक बात न बोली। वह उठकर धीरे धीरे चला
गया।
चौदहवाँ परिच्छेद
अनन्तवर्म्मा का विद्रोह
मेघनाद के किनारे रेत पर दो सैनिक दिन डूबने के पहले बैठे बातचीत कर रहे
हैं। सामने दूर तक फैला हुआ पड़ाव है। डेरे नदी तट की भूमि छेके हुए हैं।
पेड़ों के नीचे आग जला जलाकर सैनिक रसोई बना रहे हैं।
पहला सैनिक बोला ''भाई! अब तो जी नहीं लगता। देश की ओर कब लौटना होगा?''
दूसरे सैनिक ने कहा ''कब देश की ओर लौटना होगा, नहीं कह सकता। युवराज यदि
बच गए होते तो लौटने की कोई बातचीत कही जा सकती''।
''हा! क्या सर्वनाश हुआ! अब गुप्तसाम्राज्य डूबा''।
''लक्षण तो ऐसे ही दिखाई पड़ते हैं। महानायक कहते हैं कि माधवगुप्त तो
प्रभाकरवर्ध्दन के क्रीतदास होकर रहेंगे, वे साम्राज्य न चला सकेंगे''।
''सम्राट के पास संवाद गया है?''
''अवश्य गया होगा''।
''तुमने युवराज की मृत्यु का वृत्तान्त सुना है?''
''हाँ सुना है। युवराज की नाव पर के माझी अनन्तवर्म्मा और विद्याधारनन्दी
को लेकर लौटे हैं, उन्हीं के मुँह से सुना है''।
''उन लोगों ने क्या कहा?''
''उन लोगों ने कहा कि एक दिन बहुत सी विद्रोही सेना ने आकर युवराज की सेना
को घेर लिया। विद्याधारनन्दी ने पीछे लौट चलने का परामर्श दिया। पर कुमार
ने एक न सुनी, उन्होंने अकस्मात् धावा कर दिया''।
''तब फिर? तब फिर?''
''बीस नावें और तीन चार सौ सैनिक लेकर युवराज ने सौ से अधिक नावों पर
आक्रमण किया। आश्चर्य की बात यह है कि विद्रोही पूर्ण रूप से पराजित होकर
भागे। युद्धप्राय: समाप्त हो चुका था। उस समय कुमार ने देखा कि कुछ दूर पर
विद्रोहियों की दस बारह नावें जमकर बराबर युद्धकर रही हैं और किसी प्रकार
पराजित नहीं होती हैं। उन्होंने उनपर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्ष के बहुत
से लोग मरे। विद्याधारनन्दी और अनन्तवर्म्मा घायल होकर गिर पड़े। इतने में
बड़े जोर से ऑंधी पानी आया। कौन किधार गया इसका किसी को पता न रहा। तभी से
युवराज नहीं मिल रहे हैं। कोई कहता है वे युद्धमें मारे गए, कोई कहता है जल
में डूब गए, जितने मुँह उतनी बातें हैं''।
''संवाद सुनकर यशोधावलदेव ने क्या कहा?''
पहले तो उन्हें संवाद देने का किसी को साहस ही नहीं होता था। युद्धके तीन
दिन पीछे जब विद्याधारनन्दी को चेत हुआ तब वे महानायक से मिले।
अनन्तवर्म्मा तब भी अचेत पड़े थे। आज तीन दिन हुए यशोधावलदेव ने जल तक नहीं
ग्रहण किया और न शिविर के बाहर निकले हैं। वीरेन्द्रसिंह, वसुमित्र,
माधववर्म्मा आदि सेनानायक भी उनसे भेंट नहीं कर सकते हैं। शंकरनद के किनारे
नरसिंहदत्ता के पास भी संवाद गया है, वे भी आते होंगे''।
''भाई, सम्राट सुनेंगे तो उनकी क्या दशा होगी? यशेधावल किस प्रकार अपना
मुँह पाटलिपुत्र मंद दिखाएँगे?''
धीरे धीरे अंधेरा फैल गया। दोनों सैनिकों के पीछे से न जाने कौन बोल उठा
''पाटलिपुत्र में क्या मुँह दिखाऊँगा यही तो समझ में नहीं आता''। दोनों
सैनिकों ने चौंककर पीछे ताका, देखा तो महानायक यशोधावलदेव! उनसे कुछ दूर पर
प्रधान सेनानायक सिर नीचा किए खड़े हैं। महानायक के सिर पर उष्णीष नहीं है,
वे नंगे सिर हैं। उनके लम्बे लम्बे श्वेत केश वायु के झोंकों से इधर उधार
लहरा रहे हैं। देखने से जान पड़ता था कि महानायक को आगे पीछे की कुछ भी सुधा
नहीं है, वे उन्मत्ता से हो गए हैं। बड़ी देर तक सन्नाटा छाया रहा। उसके
उपरान्त महानायक बोल उठे, सुनो वीरेन्द्र! अभी तक तो मैं पागल नहीं हुआ
हूँ, पर अब हो जाऊँगा। जब मैं उन्मत्ता हो जाऊँ, नंगा होकर नाचने लगूँ तब
मुझे पाटलिपुत्र ले जाना। अभागे महासेनगुप्त यदि तब तक जीते बचें तो उनसे
कहना कि यशोधावलदेव के पाप का प्रायश्चित्त हो गया। प्राचीन धावलवंश का
उच्छेद करके भी पाप से उसका पेट नहीं भरा था इससे वह अन्धों की लकड़ी और
बूढ़े के सहारे को लेकर भाग्य से जुआ खेलने गया था।
''सुनो वसुमित्र! मागधा सेना के सामान्य सैनिक भी कह रहे हैं कि
वृद्धयशोधावलदेव पाटलिपुत्र में कौन सा मुँह दिखाएँगे। ठीक है! मैं अपने
बाल्यसखा महाराजाधिराज से उनके पुत्र की मृत्यु की बात कैसे कहूँगा?
ज्योतिषियों के मुँह से अनिष्ट फल सुनकर वे सदा अपने पुत्र की चिन्ता में
दु:खी रहते थे। मैं उन्हें बहुत समझा बुझाकर उनके नयनों का तारा खींच लाया।
उस समय तो कुछ नहीं सूझता था पर अब मैं देख रहा हूँ कि यशोधावल युद्धकरने
नहीं आया था, भाग्य से खिलवाड़ करने आया था''।
वीरेन्द्रसिंह कुछ कहना ही चाहते थे कि यशोधावलदेव ने फिर कहना आरम्भ किया
''मुझे कोई समझाने बुझाने न आना। दुधामुँहे बालक को लेकर मैं मृत्यु के साथ
खेल करने आया था। उस समय मुझे नहीं सूझता था कि मैं क्या करने जा रहा हूँ,
मेरी ऑंखों पर परदा पड़ गया था। पुत्र प्रेम में व्याकुल सम्राट ने तोरण तक
आकर मेरे हाथ में कुमार को सौंपा था। बाईं ऑंख का फरकना देख उन्होंने मुझसे
कहा था कि युद्धका परिणाम चाहे जो हो, शशांक को लौटा लाना। वे समझते थे कि
मैं उनकी ऑंख की पुतली निकाले लिए जा रहा हूँ। मेरे निकट महासेनगुप्त
सम्राट नहीं हैं, मगध के महाराजाधिराज नहीं हैं बाल्यबन्धु हैं। पुत्रशोक
में मैं उन्हें भूल गया था। फिर जब अपने पुत्र का शोक भूला तब उनके पुत्र
की हत्या करने के लिए पाटलिपुत्र आया।
''शशांक की हत्या मैंने ही की। उन्हें इस बात का पूरा भरोसा था कि यशोधावल
के जीते जी मेरा एक बाल तक कोई बाँका नहीं कर सकता। शंकरनद के किनारे इसी
विश्वास पर उन्होंने एक लाख सेना का सामना किया, बंगदेश में मुट्ठी भर
सैनिक लेकर विद्रोह दमन करने गए। वे जानते थे कि यशोधावल सौ कोस पर भी
रहेगा तो भी किसी प्रकार की विपद आने पर झट से पहुँचकर मुझे अपनी गोद में
ले लेगा। अब शशांक नहीं हैं। मैं उनकी रक्षा न कर सका। मैंने उन्हें
युद्धकरने की शिक्षा तो दी, पर अपनी रक्षा करने की शिक्षा नहीं दी।
''युद्धसमाप्त हो गया, पर उसके साथ ही युवराज शशांक भी ''
काँपते काँपते वृद्धमहानायक बालू पर बैठ गए। नायक और सामन्त लोग उन्हें
सँभालने के लिए आगे बढ़े, पर महानायक ने उन्हें रोककर कहा ''अभी मुझे ज्ञान
है, जब मैं ज्ञान शून्य हो जाऊँगा तभी चुपचाप बैठूँगा। कीत्तिधावल को मैंने
खोया, उसे सह लिया; शशांक को खोया है, इसे भी सहूँगा। तब फिर तीन दिन तक
पड़ा मैं क्या सोचता रहा जानते हो? पुत्रहीन माता से क्या कहूँगा?
वृद्धमहासेनगुप्त से क्या कहूँगा? सबसे बढ़कर तो यह कि किस प्रकार
समुद्रगुप्त के सिंहासन पर प्रभाकरवर्ध्दन को बैठते देखूँगा?''
दोनों सैनिक कठपुतली बने उन्मत्ताप्राय महानायक की अवस्था देख रहे थे। दूर
पर रेत में खड़ी कई सह मागधा सेना चुपचाप ऑंखों में ऑंसू भरे वृद्धकी बात
सुन रही थी। अकस्मात् अन्धकार में करुणकंठ से किसी ने पुकारा ''युवराज!
कहाँ हो? मैं अभी बहुत अशक्त हूँ, ऑंखों से ठीक सुझाई नहीं पड़ता है। युवराज
शशांक! कहाँ जा छिपे हो? निकल आओ तुम्हारे लिए जी न जाने कैसा कर रहा है,
बड़ी व्याकुलता हो रही है''।
कंठस्वर सुनकर माधववर्म्मा बोल उठे ''कौन, अनन्त?'' क्षीण कण्ठ से कोई बोला
''कौन, युवराज? कहीं दिखाई नहीं पड़ते हो। अब तुम्हारे बिना एक क्षण नहीं रह
सकता। अब छिपे मत रहो, निकल आओ। एक बार मैं ऑंख भर देख लूँ, फिर चाहे छिप
जाना''।
अनन्तवर्म्मा धीरे धीरे महानायक की ओर बढे। महानायक स्थिर न रह सके। वे चट
बोल उठे ''अनन्त! कुमार कहाँ हैं?'' उनका स्वर पहचान कर अनन्त ने कहा
''कौन, महानायक? युवराज कहाँ हैं? मुझे अभी अच्छी तरह दिखाई नहीं पड़ता
है''। वृद्धने उन्हें अपनी गोद में भर लिया। अनन्त ने चकित होकर पूछा
''महानायक! युवराज कहाँ हैं?'' महानायक का गला भर आया, किसी प्रकार वे बोले
''मैं भी तो उन्हीं को ढूँढ़ रहा हूँ''। अनन्त ने और भी अधिक विस्मित होकर
कहा ''युवराज क्या आपको भी नहीं दिखाई पड़ते हैं?'' माधववर्म्मा ने धीरे
धीरे पास आकर अनन्त का हाथ थाम लिया और कहा ''अनन्त! यहाँ आओ''।
अनन्तवर्म्मा ने व्याकुल होकर पूछा ''माधव! युवराज कहाँ हैं?'' यशोधावल
बालकों की तरह रो पड़े और बोले ''अनन्त! तुम्हारे युवराज हम सबको छोड़ कर चले
गए। जान पड़ता है, अब फिर न आएँगे''।
अनन्त धीरे धीरे महानायक की गोद से उठे। एक बार चारों ओर उन्होंने ऑंख
दौड़ाई, फिर बोले ''तो अब युवराज नहीं हैं। इसी से कोई मुझसे युद्धकी ठीक
ठीक बात नहीं कहता था''। इतने में यशोधावलदेव बोल उठे ''तुम सब लोग
पाटलिपुत्र लौट जाओ। मैं यहीं बंगदेश में ही रहूँगा''। उनकी बात पूरी भी न
हो पाई थी कि अनन्तवर्म्मा गरजकर बोले ''महानायक ने क्या कहा? पाटलिपुत्र
लौट जायँ? सम्राट को कौन मुँह दिखाएँगे? महादेवी के आगे जाकर क्या कहेंगे?
श्यामा के मन्दिर में मैं प्रतिज्ञा करके आया था कि जीते जी युवराज का साथ
न छोडूँगा। किन्तु मैं जीता खड़ा हूँ, और युवराज नहीं हैं। अब कौन मुँह लेकर
पाटलिपुत्र जाऊँगा?''
युवक ने झट से तलवार खींचकर अपने मस्तक से लगाई और कहा ''मैं खड्ग छूकर
कहता हूँ कि जब कभी युवराज लौटेंगे तभी अनन्तवर्म्मा पाटलिपुत्र लौटेगा,
बीच में नहीं''। शपथ कर चुकने पर अनन्तवर्म्मा ने तलवार नीचे की और उस पर
पैर रखकर उसके दो खण्ड कर डाले। इसके उपरान्त वे घुटने टेक महानायक के
सामने बैठ गए और हाथ जोड़कर बोले ''देव! मौखरि विद्रोही हो गया है, आप
सेनापति हैं वह आपके आदेश का पालन न करेगा। उसे बन्दी करने की आज्ञा
दीजिए''। अकस्मात् सह कण्ठों से जयध्वनि हो उठी। मागधा सेना क्षुब्धा होकर
अपने शरीर तक की सुधा भूल इधर उधार जयध्वनि करने लगी, उन्मात के समान एक
दूसरे के गले मिलने लगी, और शपथ खाने लगी कि यदि युवराज न आएँगे तो कोई घर
लौटकर न जायगा।
उस समय एक एक करके माधववर्म्मा, वसुमित्र, वीरेन्द्रसिंह इत्यादि
सेनानायकों ने आगे बढ़कर कहा ''हम सबके सब विद्रोही हैं कोई पाटलिपुत्र न
लौटेगा''। वृद्धयशोधावलदेव चुप-उनकी ऑंखों से लगातार ऑंसुओं की धारा छूट
रही थी। अनन्तवर्म्मा के घाव से तनाव पड़ने के कारण रक्त की धारा बह चली
जिससे वे अचेत होकर महानायक के पैर के पास गिर पड़े।
पन्द्रहवाँ परिच्छेद
धीवर की बेटी
नदी के किनारे अमराई की छाया में भव बैठी गीत गा रही है और वही गोरा गोरा
पागल युवक उसके पास बैठा मुग्ध होकर सुन रहा है। सन्धया होती चली आ रही है।
दक्षिण दिशा से शीतल वायु मेघनाद की तरंगों को स्पर्श करती हुई तटदेश को
स्निग्ध कर रही है। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है। ऐसा जान पड़ता है कि सारा
संसार उस अप्सरा विनिन्दित कण्ठ से निकला हुआ संगीत सुधा पान करने में भूला
हुआ है।
गीत थम गया, जगत् के ऊपर से मोहजाल हटा, पेड़ों पर पक्षी बोल उठे। मेघनाद की
तरंगें किनारों पर थपेड़े मारने लगीं। युवक चौंक उठा और बोला ''बन्द क्यों
हो गई?'' युवती बोली ''गाना पूरा हो गया''।
''पूरा क्यों हो गया?''
''इसका तो कोई उत्तर नहीं''।
''क्यों?''
'तू तो बड़ा भारी पागल है''।
''भव! मुझे तुम्हारा गाना बहुत अच्छा लगता है''।
''क्या कहते हो? फिर तो कहो''।
''तुम्हारा गाना बहुत मधुर लगा है''।
''पागल! क्या तुम मुझे चाहते हो?''
''चाहता हूँ''।
''क्यों?''
''तुम्हारा गाना बहुत मधुर है''।
''बस, इसीलिए?''
''क्या जानूँ''।
युवती लम्बी साँस भरकर उठी। युवक ने चकित होकर पूछा ''अब आज क्या और गीत न
गाओगी?'' युवती बोली ''सन्धया हो गई है, अब घर चलें''।
''सन्धया तो नित्य होती है''।
''मैं भी तो नित्य गाती हूँ''।
''तुम्हारा गाना सुनने की इच्छा सदा बनी रहती है''।
युवती कुछ हँसकर बैठ गई और पूछने लगी ''पागल! अच्छा, बताओ तो तुम कौन हो''।
''मैं पागल हूँ''।
''तुम क्या सब दिन से पागल हो?''
''सब दिन क्या?''
''तुम तो बड़े भारी पागल हो। तुम्हारे धयान में क्या पहले की कुछ भी बातें
नहीं आती हैं?''
''बहुत थोड़ी सी, सो भी एक छाया के समान। ऐसा जान पड़ता है कि मेरा कहीं कोई
था, पर कहाँ, यह नहीं धयान में आता''।
''तुम यहाँ कैसे आए कुछ जानते हो?''
''न''।
''जानने की इच्छा होती है?''
''न, तुम गाओ''।
''क्या गाऊँ?''
''वही चन्दावाली गीत''।
युवती गुनगुनाकर गाने लगी। शुक्ल पंचमी की धुंधली चाँदनी उस सघन कुंज के
अन्धकार को भेदने का निष्फल प्रयत्न कर रही थी पर मेघनाद के काले जल तरंगों
पर से पलटकर वह उस साँवली सलोनी युवती को विद्युल्लता सी झलका रही थी। धीवर
कन्या का कण्ठ अत्यन्त मधुर था। जो गीत वह गा रही थी वह भी बड़ा सुहावना था।
युवक टकटकी बाँधो उसके मुँह की ओर ताक रहा था और मनहीमन एक अपूर्व सुख का
अनुभव कर रहा था। अकस्मात् गाना बन्द हो गया। युवती ने पूछा ''तुम्हें
चाँदनी अच्छी लगती है, पागल?''
''अच्छी लगती है''।
''तुम मुझे चाहते हो?''
''चाहता हूँ''।
''क्यों?''
''नहीं जानता, जिस दिन से तुम आई हो उसी दिन से चाहता हूँ''।
धीवर की बेटी उसपर मर रही थी। उस असामान्य रूप लावण्य की दीप्ति पर वह पतंग
की तरह गिरा चाहती थी। बूढ़े दीनानाथ ने बहुत दूर से अनाथ बालक नवीन को लाकर
इसलिए पाला पोसा था कि उसके साथ अपनी कन्या भव का ब्याह कर देगा। इससे इधर
भव को नवीन की अवज्ञा करते देख उसे बहुत दु:ख होता। वह बीच बीच में भव को
समझाता बुझाता, पर वह उसकी एक न सुनती थी। जिस दिन से पागल आया है उसी दिन
से वह एकदम बदल सी गई है। वह घर का काम धान्धा छोड़ दिन रात पिंजड़े से छूटे
हुए पक्षी के समान कभी जल में, कभी वन में इधर उधर फिरा करती है। बूढ़े धीवर
की वही एक सन्तान थी इससे वह उसे डाँट डपट नहीं सकता था। नवीन भी चुपचाप
सहकर रह जाता और घर का जो कुछ काम काज होता कर जाता था।
भव ने फिर पूछा ''पागल! अच्छा बताओ तो तुम कौन हो?'' उत्तर मिला ''क्या
जानूँ''।
''बाबाजी कहते थे कि राजपुत्र हो''।
''राजपुत्र क्या?''
''राजा का बेटा''।
''राजा क्या?''
''बाबाजी आवें तो पूछूँगी''।
''बाबाजी कौन?''
''जो तुमको यहाँ लाए हैं''।
''वे कौन हैं?''
''वे एक महात्मा हैं, पेड़ पर चढ़कर यहाँ आते हैं''।
''क्या वे ही हमको यहाँ लाए हैं?''
''हाँ! तुम लड़ाई में मारे गए थे। उन्होंने नाव पर लेकर तुम्हें बचाया था,
पर ऑंधी में नाव उलट गई और तुम फिर पानी में जा रहे। बाबा मछली मारने गए
थे, वे तुम्हें निकाल लाए''।
''मैं तो यह सब नहीं जानता''।
''जानोगे कैसे? तुम तो उस समय अचेत थे''।
''बाबाजी कहाँ गए?''
''तुम्हें मेरे घर रखकर वे पेड़ पर बैठकर आकाश में उड़ गए''।
''अब फिर कब आएँगे?''
''नहीं कह सकती। पर आएँगे अवश्य''।
''तब फिर क्या हुआ?''
''अपनी देह में देखो तो क्या है?''
''क्या है?''
''ये सब चित कैसे हैं?''
''मैं कुछ नहीं जानता''।
''बाबा जिस समय तुम्हें निकालकर लाए थे तुम्हारे शरीर भर में घाव ही घाव
थे। नवीन ने चिकित्सा करके तुम्हें अच्छा किया है''।
युवक कुछ काल तक चुप रहकर बोला ''मुझे किसी बात का स्मरण नहीं है''।
इतने में पीछे से नवीन ने पुकारा ''भव! बूढ़ा तुम्हें बुलाता है''। भव ने
पूछा ''किसलिए?''
नवीन-यह मैं नहीं जानता।
भव-तो फिर मैं नहीं आती।
युवक ने कहा ''भव! क्या तुम न जाओगी? नवीन दु:खी होगा, बुङ्ढा चिढ़ेगा''। भव
ने कहा ''चाहे जो हो, मैं न जाऊँगी''।
युवक-तब फिर क्या करोगी?
भव-गाना सुनोगे?
युवक-सुनूँगा।
युवती गाना छेड़ा ही चाहती थी कि पीछे से बुङ्ढे ने आकर पुकारा ''भव! इधर
आ''।
भव-मैं अभी न आऊँगी।
वृध्द-न आएगी?
भव-न।
वृध्द-गाना गाने ही से पेट भर जायगा?
भव-हाँ, भर जायगा।
वृद्धने चिढ़कर कहा 'अच्छा तो वहीं मर''। युवक उठकर बोला ''भव अब घर चलो''।
भव-गाना न सुनोगे?
युवक-नहीं, बुङ्ढा बहुत चिढ़ गया है।
भव और कुछ न कहकर युवक का हाथ थामे घर लौटी।
सोलहवाँ परिच्छेद
महासेनगुप्त की भविष्यवाणी
मेघनाद का युद्धहुए पाँच बरस हो गए। यशोधावलदेव और सामन्त लौटे नहीं।
वीरेन्द्रसिंह गौड़ देश में, वसुमित्र बंगदेश में, माधववर्म्मा समतट प्रदेश
में, नरसिंहदत्ता राढ़ि देश में तथा यशोधावलदेव और अनन्तवर्म्मा मेघनाद के
तट पर पड़ाव डाले पड़े थे। इसी बीच पाटलिपुत्र से संवाद आया कि सम्राट
महासेनगुप्त का अन्तकाल उपस्थित है, वे यशोधावलदेव को देखना चाहते हैं।
वृद्धमहानायक ने भिन्न-भिन्न स्थानों के नायकों के पास दूत भेजे, पर सबने
कहलाकर भेजा कि हम लोग अपनी इच्छा से पाटलिपुत्र न जायँगे, बन्दी बनाकर
भेजे जा सकते हैं। यशोधावलदेव बड़ी विपत्ति में पड़े। दूत बार बार कहने लगा
कि यदि विलम्ब होगा तो सम्राट से भेंट न होगी। कोई उपाय न देख यशोधावलदेव
लौटने को तैयार हुए।
सम्राट को युवराज की मृत्यु का संवाद बहुत पहले मिल चुका था। जिस समय
उन्होंने यह दारुण संवाद सुना था वे वज्राहत के समान मूर्च्छित होकर भूमि
पर गिर पड़े थे। तब से उन्हें किसी ने सभा में नहीं देखा। वे अन्त:पुर के
बाहर न निकले। धीरे धीरे जीवनी शक्ति वृद्धके जीर्ण शरीरपंजर से दूर होती
गई। मागध साम्राज्य के अमात्यों ने समझ लिया कि सम्राट अब शीघ्र इस लोक से
जाना चाहते हैं।
देखते देखते पाँच बरस बीत गए। माधवगुप्त स्थाण्वीश्वर से लौट आए हैं।
नारायणशर्म्मा ने कहा है कि नए युवराज (माधवगुप्त) प्रभाकरवर्ध्दन और उनके
दोनों पुत्रों के अत्यन्त प्रिय पात्र हैं। चरणाद्रिगढ़ में सेना का रखना
आवश्यक नहीं समझा गया इससे हरिगुप्त सेना सहित बुला लिए गए। यशोधावलदेव
बंगदेश में बैठे बैठे साम्राज्य का कार्य चला रहे थे। पाटलिपुत्र में
ऋषिकेषशर्म्मा, नारायणशर्म्मा और हरिगुप्त उनके आदेश के अनुसार काम करते
थे। माधवगुप्त धीरे धीरे बल और प्रभाव प्राप्त करते जाते थे। उनके व्यर्थ
हस्तक्षेप करने से कभी कभी बड़ी अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती थी। यह सब सुनकर
यशोधावलदेव बड़ी चिन्ता में दिन काटते थे।
बुझता हुआ दीपक सहसा भभक उठा। मरने से पहले महासेनगुप्त को चैतन्य प्राप्त
हुआ। उन्होंने यशोधावलदेव को देखना चाहा। पाँच बरस पर यशोधावलदेव
पाटलिपुत्र लौटे। महानायक बंगदेश पर विजय प्राप्त करके लौट रहे हैं यह
सुनकर पाटलिपुत्रवासियों ने बड़े उल्लास और समारोह से उनका स्वागत करना
चाहा, पर महानायक ने कहला भेजा कि महाराजाधिराज मृत्युशय्या पर पड़े हैं ऐसी
दशा में किसी प्रकार का उत्सव करना उचित न होगा। इतना सब होने पर भी नगर के
तोरणों और राजपथ पर सह नागरिकों ने इकट्ठे होकर जयध्वनि द्वारा उनका स्वागत
किया। यशोधावलदेव सिर नीचा किए चुपचाप प्रासाद के तोरण में घुसे।
तीसरे तोरण पर महाप्रतीहार विनयसेन उनका आसरा देख रहे थे। यशोधावलदेव को
उनसे विदित हुआ कि सम्राट के प्राण निकलने में अब अधिक विलम्ब नहीं है।
वृद्धयशोधावल के पैर थरथरा रहे थे। वे किसी प्रकार अन्त:पुर में पहुँचे।
लतिका उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ी, पर उनकी आकृति देख सहमकर पीछे हट गई।
महानायक ने सम्राट के शयनागार में प्रवेश किया।
उन्होंने द्वार ही पर से सुना कि महासेनगुप्त क्षीण स्वर से पूछ रहे हैं
''क्यों? यशोधावल कहाँ हैं?'' वृद्धमहानायक भवन के भीतर पहुँचे। वे अपने
बाल्यबन्धु का हाथ थामकर बैठ गए। ऑंसुओं के उमड़ने से उन्हें कुछ सुझाई नहीं
पड़ता था, आवेग से गला भरा हुआ था। सम्राट ने कहा ''छि! यशोधावल, रोते क्यों
हो? यह रोने का समय नहीं है। तुम्हें अब तक देखा नहीं था इसी से प्राण इस
जीर्ण पंजर को छोड़ निकलता नहीं था''। सम्राट के सिरहाने महादेवी पत्थर की
मूर्ति बनी बैठी थीं। उन्होंने सम्राट का गला सूखते देख उनके मुँह में थोड़ा
सा गंगाजल दिया।
महासेनगुप्त फिर बोलने लगे ''सुनो यशोधावल! शशांक मरे नहीं हैं। ज्योतिष की
गणना कभी मिथ्या नहीं हो सकती। मेरा पुत्र अंग, बंग और कलिंग का एकछत्र
सम्राट होगा। उसके बाहुबल से स्थाण्वीश्वर का सिंहासन काँप उठेगा।''
यशोधावलदेव कुछ कहा चाहते थे पर सम्राट फिर बोलने लगे ''सुनते चलो, तर्क
वितर्क का समय नहीं है। शशांक लौटेंगे, पर मेरे भाग्य में अब उनका मुँह
देखना नहीं लिखा है। शशांक के लौटने पर उन्हें सिंहासन पर बिठाना। विनय!''
महाप्रतीहार विनयसेन सामने आए। सम्राट ने कहा ''झटपट गरुड़धवज लाओ। ऋषिकेश
कहाँ हैं?'' विनयसेन ने उत्तर दिया ''दूसरे घर में हैं''। विनयसेन गरुड़धवज
लाने गए। सम्राट ने कहा ''यशोधावल अब मैं मरता हूँ। जब तक शशांक लौटकर न
आएँ तब तक राज्यभार न छोड़ना, नहीं तो माधव साम्राज्य का सत्यानाश कर
देगा''।
गरुड़धवज हाथ में लिए विनयसेन आ पहुँचे। सम्राट महादेवी की सहायता से उपाधान
का सहारा लेकर बैठे और बोले ''यशोधावल! गरुड़धवज छूकर शपथ खाओ कि जब तक
शशांक न आ जायँगे तब तक राज्य का भार न छोड़ेंगे''।
यशोधावलदेव ने गरुड़धवज छूकर शपथ खाई। सम्राट ने फिर कहा ''देवि! तुम सहमरण
का विचार कभी न करना। तुम्हारा पुत्र लौटकर आएगा। जब पुत्र सिंहासन पर बैठ
जाय तब चिता पर बैठना''। महादेवी ने सम्राट के चरण छूकर शपथ खाई। तब सम्राट
ने प्रसन्न होकर अमात्यों को बुलाने की आज्ञा दी। ऋषिकेश
थोड़ी देर में ऋषिकेश शर्म्मा, हरिगुप्त, रविगुप्त और
माधवगुप्त शयनागार में आए। महासेनगुप्त उस समय शिथिल पड़ गए थे। बुझने के
पहिले एक बार वृद्धका जीवनप्रदीप फिर जग उठा। वे बोले ''नारायण! मेरा
क्षीण् स्वर ऋषिकेश के कानों तक न पहुँचेगा। मैं जो कुछ कहता हूँ उन्हें
समझा दो। यह छत्र, दण्ड और सिंहासन तुम लोगों के हाथ सौंपता हूँ। शशांक
जीवित हैं और अवश्य लौटकर आएँगे। उनके लौटने पर उन्हें सिंहासन पर बिठाना।
जब तक वे न लौटें माधवगुप्त राजप्रतिनिधि होकर सिंहासन पर बैठें। तुम लोग
गरुड़धवज छूकर शपथ करो कि जो कुछ मैंने कहा है सबका पालन होगा''।
अमात्यों ने एक एक करके गरुड़धवज स्पर्श करके शपथ खाई। इसके उपरान्त सम्राट
ने माधवगुप्त से कहा ''माधव! तुम भी शपथ करो''। माधवगुप्त को इधर उधर करते
देख यशोधावलदेव ने कुछ कड़े स्वर से कहा ''कुमार! सम्राट आदेश कर रहे हैं''।
सम्राट बोले ''शपथ करो कि बड़े भाई के लौट आने पर तुम बिना कुछ कहे सुने झट
सिंहासन छोड़ दोगे। शपथ करो कि कभी बड़े भाई के साथ विरोध न करोगे''।
माधवगुप्त ने धीमे स्वर से सम्राट के मुँह से निकली हुई बात दोहराई।
यशोधावलदेव बोले ''महाराजाधिराज ! यशोधावल का एक और अनुरोध है। कुमार इस
बात की भी शपथ खायँ कि वे कभी स्थाण्वीश्वर के आश्रित न होंगे''।
सम्राट ने थोड़ा सिर उठाकर कहा ''माधव! शपथ करो''। काँपते हुए हाथों से
गरुड़धवज छूकर माधवगुप्त ने शपथ खाई ''आपत्काल में भी मैं कभी स्थाण्वीश्वर
का आश्रय न लूँगा''। इस बात पर मानो भवितव्यता अदृश्य होकर हँस रही थी।
सम्राट के आदेश से लोग उन्हें गंगा तट पर ले गए। तीसरे पहर आत्मीय जनों के
बीच, अभिजातवर्ग के सामने सम्राट महासेनगुप्त ने शरीर छोड़ा।
सत्रहवाँ परिच्छेद
नवीन का अपराध
देखते देखते पाँच बरस निकल गए। गौरवर्ण युवक धीवर के घर रहते रहते
धीवरों की चाल ढाल पर चलने लगा। वह अब बड़ी फुरती से नाव खेने लगा, पानी में
जाल छोड़ने लगा। उसके जी में डर या शंका का नाम न था इससे माझियों के बीच वह
बल और साहस के लिए विख्यात हो गया। पर उसका नाम ज्यों का त्यों रहा, उसमें
कुछ फेरफार न हुआ। सब लोग उसे 'पागल' ही कहकर पुकारते थे। दीनानाथ उसे बहुत
चाहता था। नवीन को छोड़ धीवरों में वह और सबका प्रेमपात्र हो गया। इन पाँच
बरसों के बीच कोई उसकी खोज खबर लेने न आया। अज्ञात कुलशील युवक धीरे धीरे
माझियों में मिल गया।
नवीन ने सेवा यत्न करके उसे अच्छा किया था अवश्य, पर भव का उस पर अनुराग
देख वह उससे बहुत जलता था। वह अपने पालन दीनानाथ के संकोच से कभी मुँह
फोड़कर कुछ कहता तो न था पर डाह के मारे भीतर ही भीतर जला करता था। बड़े कष्ट
से वह अपने हृदय की आग दबाए रहता था, पर वह इस बात को जानता था कि किसी न
किसी दिन वह आग भड़क उठेगी जिसमें पड़कर दीनानाथ का सब कुछ भस्म हो जायगा।
एक दिन नवीन ने देखा कि नदी के किनारे एक पेड़ की डाल पर बैठी भव पागल के
साथ बुलबुल बातचीत कर रही है। देखते ही उसके शरीर में आग लग गई। भव का ऐसा
व्यवहार वह न जाने कितने दिनों से देखता आता था, पर वह देखकर भी नित्य अपने
को किसी प्रकार सँभाल कर कामकाज में लग जाता था। पर आज वह आपे के बाहर हो
गया। सिर से पैर तक वह आगबबूला हो गया, उसके रोम रोम से चिनगारियाँ छूटने
लगीं। नवीन कहीं से लोहे का एक अंकुश उठा लाया था। उसे हाथ में लिए वह एक
पेड़ की आड़ में छिप रहा।
थोड़ी देर में दीनानाथ की पुकार सुनकर भव वहाँ से चली गई। पागल एक पेड़ की जड़
पर बैठा पानी थपथपाने लगा। नवीन ने पास जाकर पुकारा ''पागल!''
''क्या है?''
''इधर आ''।
पागल कुछ न कहकर पास आ खड़ा हुआ। नवीन बोला ''तू क्या करता था?''
''भव के साथ बैठा था''।
''क्यों बैठा था?''
''न बैठता तो भव रूठ जाती''।
''तू क्या भव को चाहता है?''
''हाँ! चाहता हूँ''।
''क्यों?''
''भव का गाना बड़ा अच्छा लगता है''।
''मैं तुझे मार डालूँगा''।
''क्यों मारोगे, नवीन?''
''तू भव को प्यार करता है इसीलिए''।
''मैं तो तुम्हें भी प्यार करता हूँ''।
''झूठ कहता है''।
''नहीं, नवीन! तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ''।
''तो फिर भव को क्यों प्यार करता है?''
''क्या एक को प्यार करके फिर दूसरे को नहीं प्यार करना होता?''
''नहीं''।
''मैं तो नहीं जानता''।
''तो फिर मैं तुझे मार डालूँगा''।
''मारोगे क्यों, नवीन?''
नवीन से कोई उत्तर न बन पड़ा, वह बहुत देर तक चुपचाप खड़ा रहा, फिर बोला-
''तो फिर तू अस्त्रा लेकर आ, मैं तेरे साथ लड़ूँगा''।
''क्यों?''
''हम दोनों में से किसी एक को मरना होगा''।
''और दोनों बचे रहें तो?''
''भव को दो आदमी नहीं प्यार कर सकते''।
''मैं तुमसे न लड़ूँगा''।
''क्यों?''
''तुमने मेरे प्राण बचाए हैं''।
''तो इससे क्या? मैं तुझे मारूँगा। तू न लड़ेगा?''
''न। तुमने मुझे बचाया क्यों था?''
''यह सब मैं कुछ नहीं जानता। मैं तुझे मारूँगा''।
''तो फिर मारो''।
नवीन बड़े फेर में पड़ा। मारने को तो उसने कहा, पर उसका हाथ न उठा। वह चुपचाप
खड़ा रहा। यह देख पागल बोला-
''नवीन! तुम मुझे मारो, मैं कुछ न कहूँगा''।
''क्यों?''
''तुमने मुझे बचाया है''।
''इससे क्या हुआ?''
''न जाने कौन मुझसे कहता है कि तुम्हें नहीं मारना चाहिए''।
नवीन और कुछ न कह सका। पागल उसका हाथ थामकर कहने लगा ''नवीन! भव को प्यार
करने से तुम इतना चिढ़ते क्यों हो?''
नवीन चुप।
होनहार टलता नहीं। उसी समय वन के भीतर से भव ने पुकारा ''पागल! पागल! कहाँ
हो?'' उसके पुकारने में चाहभरी आकुलता टपकती थी। उसे सुनते ही नवीन के हृदय
की दबती हुई आग एकबार भड़क उठी। उसने अपने को बहुत सँभालना चाहा, पर रोक न
सका। भव ने फिर पुकारा ''पागल! तुम कहाँ हो?'' आग में घी पड़ा। नवीन ने
अंकुश उठाकर पागल के सिर पर मारा। युवक पीड़ा से कराह कर भूमि पर गिर पड़ा।
नवीन भागा।
भव दूर पर थी, पर उसने पागल का कराहना सुना। वह दौड़ी हुई आई और देखा कि पेड़
के नीचे रक्त में सना पागल पड़ा है। वह जोर से चिल्लाकर पागल के ऊपर गिर
पड़ी। चिल्लाना सुन झोपड़े से दीनानाथ दौड़ा आया। दोनों ने युवक को चेत में
लाने की बड़ी चेष्टा की पर वह अचेत पड़ा रहा। अन्त में वे उसे उठाकर झोपड़े
में ले गए।
अठारहवाँ परिच्छेद
खोए हुए का पता
''तुम कौन हो?''
''पागल! मुझे नहीं पहचानते? मैं भव हूँ''।
''हाँ पहचानता हूँ, तुम भव हो। अनन्त कहाँ हैं?''
झोपड़े में एक मैले बिस्तर पर पड़ा पूर्वपरिचित युवक भव से यही पूछ रहा था।
आज तीन दिन पर उसे चेत हुआ है। भव ताड़ का पंखा लिए उसे हाँक रही थी। उसने
चकित होकर पूछा ''पागल! अनन्त कौन?''
''तुम नहीं जानती। विद्याधरनन्दी कहाँ हैं?''
भव समझी कि पागल यों ही बक रहा है। वह अपने पिता को पुकारकर कहने लगी कि
''बाबा, बाबा! देखो तो पागल क्या कह रहा है''।
दीनानाथ नदी के किनारे खड़ा देख रहा था कि बहुत बड़ी बड़ी नावें मेघनाद के उस
पार से उसके झोपड़े की ओर चली आ रही हैं। युवक ने फिर कहा ''तुम अनन्त को
बुला दो, मैं युद्धका संवाद जानने के लिए बहुत घबरा रहा हूँ''। इतने में
दीनानाथ के साथ एक वृद्धऔर एक युवक झोपड़े में आया झोपड़े के द्वार पर बहुत
से लोगों के आने का शब्द सुनाई पड़ा। भव ताकती रह गई।
युवा पुरुष बिस्तर पर पड़े युवक को देखते ही चारपाई के किनारे घुटने टेककर
बैठ गया और कोष से तलवार खींच सिर से लगाकर बोला ''महाराजाधिराज की जय हो!
प्रभु, मुझे पहचानते हैं?''
''क्यों नहीं पहचानता? तुम वसुमित्र हो। अनन्त कहाँ हैं?''
''वे कुशल से हैं। श्रीमान् का जी कैसा है?''
''अच्छा है। युद्धका क्या समाचार है?''
युद्धमें महाराज की विजय हुई। श्रीमान् उठ सकते हैं?''
शशांक के चापाई पर से उठने के पहले ही आए हुए वृद्धने पास आकर पूछा
''शशांक! मुझे पहचानते हो?'' उत्तर मिला ''पहचानता हूँ। तुम वज्राचार्य्य
शक्रसेन हो''। दीनानाथ ने आगे बढ़कर कहा ''इन्हीं ने तुमको-आपको-पाँच बरस
हुए नदी से निकालकर बचाया था''। शशांक ने विस्मित होकर पूछा ''वज्राचार्य्य
ने? पाँच बरस पहले? वसुमित्र! मैं कहाँ हूँ?''
''श्रीमान् इस समय बंगदेश में हैं''।
भव पत्थर बनी चुपचाप यह सब अद्-भुत लीला देख रही थी। शशांक को उठते देख वह
भी उठ खड़ी हुई। शशांक झोपड़े के द्वार पर आकर खड़े हुए। बाहर और नदी के
किनारे कई सह सैनिक खड़े थे। उनमें से प्रत्येक युवराज के आधीन किसी न किसी
युद्धमें लड़ा था। जिन्होंने उन्हें देख पाया वे देखते ही जयध्वनि करने लगे।
जो कुछ दूर पर खड़े थे और जो नाव पर थे वे भी जयध्वनि करने लगे। सह कण्ठों
से एक स्वर से शब्द उठा ''महाराजाधिराज की जय हो''। शशांक चौंक पड़े और
घबराकर वसुमित्र से पूछने लगे ''वसुमित्र! ये लोग मुझे महाराजाधिराज क्यों
कह रहे हैं?''
वसु -प्रभु! थोड़ा स्थिर होकर विराजें, मैं सारी व्यवस्था कहता हूँ।
शशांक-नहीं वसुमित्र! मैं शान्त नहीं रह सकता। बताओ, क्या हुआ है।
वसु -मेघनाद के युद्धमें आप घायल होकर नदी में गिर पड़े। वज्राचार्य्य
शक्रसेन आपको निकालकर इस धीवर के घर ले आए। वे बीच बीच में आपको देख जाते
थे। बन्धुगुप्त ने यह सुनकर उन्हें कारागार में बन्द कर दिया। वज्राचार्य्य
कारागार से भाग कर मेरे पास आए। इस प्रकार आज पाँच बरस पर श्रीमान् का पता
लगा। अब तक हम लोग देश लौटकर नहीं गए। केवल महानायक यशोधावलदेव
महाराजाधिराज के अन्तिम समय-
शशांक बोल उठे ''अन्तिम समय? क्या पिताजी अब नहीं हैं?''
वसु.-महाराजाधिराज महासेनगुप्त का परलोकवास हो गया।
शशांक-वसुमित्र! मरते समय पिजाती को मेरा धयान आया था? पिताजी क्या यह सुन
चुके थे कि मैं युद्धमें मारा गया?
वसु -प्रभु! लोगों के मुँह से सुना है कि महाराजाधिराज ने अन्तिम समय में
महानायक को पास बुलाकर कहा था कि आप जीवित हैं। गणना के अनुसार आपकी आयु
अभी बहुत है। महाराज को पूरा विश्वास था कि आप जीते जागते हैं और लौटेंगे।
इसी से उन्होंने महादेवीजी को सहमरण से रोक लिया। इस वृध्दावस्था में भी
महानायक सारा राजकाज चला रहे हैं-
शशांक-हाय! पिताजी।
पिता की मृत्यु का संवाद सुनकर शशांक बालकों के समान रोने लगे। थोड़ी देर
में शोक का वेग कुछ थमने पर उन्होंने वज्राचार्य्य शक्रसेन से पूछा
''वज्राचार्य्य! बन्धुगुप्त कहाँ है?''
शक्र -अब तो जहाँ तक समझता हूँ पाटलिपुत्र में होंगे।
शशांक-उन्हें मेरा कुछ पता लगा है।
शक्र -मैं तो समझता हूँ, नहीं। पर इतना वे अवश्य जानते हैं कि आप जीवित
हैं। इससे दाँव पाकर आपको मारने का विचार है।
शशांक-मुझे क्यों मारेंगे? वसुमित्र ! महानायक कहाँ हैं।
वसु -पाटलिपुत्र में। वे स्वर्गीय महाराजाधिराज की आज्ञा से सब राजकाज चला
रहे हैं। पर कुछ दिन हुए स्थाण्वीश्वर से एक अमात्य आए हैं। वे ही आजकल
माधवगुप्त के प्रधानमन्त्री हैं।
शशांक-तो क्या महानायक सब राजकाज छोड़ बैठे हैं?
वसु -उन्हें विवश होकर छोड़ना पड़ा है।
शशांक-तो क्या नरसिंह को भी मण्डल का अधिकार नहीं मिला?
वसु -वे पाटलिपुत्र इसलिए नहीं लौटै कि चित्रा को कौन मुँह दिखाएँगे।
शशांक-चित्रा-चित्रादेवी।
वसु.-प्रभु! चित्रादेवी कुशल मंगल से हैं।
शशांक-चित्रा का विवाह हुआ?
वसु -विवाह? यह श्रीमान् कैसी बात कहते हैं। वे तो विधावा के समान अपने दिन
काट रही हैं और आपका आसरा देख रही हैं।
शशांक-तुम्हारी यूथिका की तरह?
वसुमित्र ने लजाकर सिर नीचा कर लिया। शशांक ने फिर पूछा ''नरसिंह कहाँ
हैं?''
''वे राढ़ देश में हैं। उन्होंने भी माधवगुप्त की अधीनता नहीं स्वीकार की''।
''वसुमित्र! तुम बार बार माधवगुप्त का नाम क्यों लेते हो? क्या तुम उन्हें
सम्राट नहीं मानते?''
''प्रभु! मैं भी विद्रोही हूँ। जब से महाराजाधिराज का स्वर्गवास हुआ है तब
से मैंने एक कौड़ी पाटलिपुत्र नहीं भेजी है। आपके साथ जितने लोग यहाँ बंगदेश
में आए थे उनमें से एक महानायक यशोधावलदेव ही माधवगुप्त की आज्ञा में हैं
और कोई नहीं। राढ़ में नरसिंहदत्ता, समतट में माधववर्म्मा, बंगदेश में
मैं-ये सबके सब इस समय विद्रोही हैं। मण्डला में जमकर अनन्तवर्म्मा ने
जंगलियों की सहायता से माधवगुप्त की सेना पर खुल्लमखुल्ला आक्रमण किया है।
दक्षिण मगध भी उन्हीं के हाथ में है। मण्डला से लेकर रोहिताश्व तक का सारा
पहाड़ी प्रदेश उनके अधिकार में है। गौड़ देश में वीरेन्द्रसिंह केवल
वृद्धमहानायक का मुँह देखकर विद्रोह नहीं कर रहे हैं। रामगुप्त और हरिगुप्त
पाटलिपुत्र में पड़े स्थाण्वीश्वर के दास की आज्ञा का पालन कर रहे हैं''।
शशांक ने चुपचाप सारी बातें सुनीं। बहुत देर पीछे वे बोले ''वसुमित्र! अब
क्या करना चाहिए?''
वसु -पाटलिपुत्र चलिए।
''अकेले तुम्हारे साथ?''
''साम्राज्य में बन्धुगुप्त और बुध्दघोष को छोड़ ऐसा कोई नहीं है जो आपका
नाम सुनते ही दौड़ा न आएगा। प्रभु! मैं अभी चारों ओर संवाद भेजता हूँ, एक
महीने के भीतर पचास सह पदातिक इकट्ठे हो जायँगे''।
''वसुमित्र! घबराओ न। अभी माधव और नरसिंह के पास संवाद भेजो। माधव को
तुरन्त सेना लेकर चलने को कहो, और नरसिंह से कहो कि वे अपनी सेना लेकर गंगा
के किनारे रहें। वीरेन्द्र और अनन्त के पास संवाद भेजने की आवश्यकता नहीं
है''।
''क्यों श्रीमान्?''
''मुझे विश्वास है कि मेरे लिए वे सदा तैयार होंगे।''
''अच्छा तो मैं नाव पर जाता हूँ, आप कपड़े बदलें''।
वसुमित्र ने तलवार माथे से लगाकर नए सम्राट का अभिवादन किया और
वज्राचार्य्य के साथ नाव पर लौट गए।
भव अब तक चुपचाप खड़ी थी। वह धीरे धीरे शशांक के पास आई और पूछने लगी
''पागल! तुम कौन हो?''
''भव अब मैं पागल नहीं हूँ, अब मैं राजा हूँ''।
''तो क्या तुम चले जाओगे?''
''हाँ! अभी तो देश को जाऊँगा''।
''कब जाओगे?''
''मैं समझता हूँ, कल ही''।
''हाँ! आज न जाना, मैं तुम्हें ऑंख भर देखूँगी। फिर तो तुम लौटकर आओगे
नहीं''।
भव डबडबाई हुई ऑंखें लिए झोपड़े से बाहर निकली। शशांक व्यथित हृदय से झोपड़े
के सामने खड़े किए हुए डेरे में गए।
दोपहर रात बीते शशांक नदी तट पर डेरे के बाहर निकल कर बैठे हैं। दूर पर आग
जल रही है और डेरे के चारों ओर पहरे वाले खड़े हैं। ऍंधोरी रात में बैठे नए
सम्राट चिन्ता कर रहे हैं। चिन्ता की अनेक बातें हैं। इन छ: वर्षों के बीच
संसार में कितने परिवर्तन हो गए हैं, उसकी दशा में कितना उलट फेर हो गया
है। पिता नहीं हैं, माधवगुप्त मगध के सिंहासन पर विराजमान हैं,
स्थाण्वीश्वर के राजदूत ने आकर यशोधावलदेव को पदच्युत कर दिया है। थोड़ी देर
पीछे धयान आया कि वसुमित्र कहते थे कि चित्रा का अभी विवाह नहीं हुआ है।
देखते देखते मेघनाद के किनारे से एक व्यक्ति दौड़ा दौड़ा आया और शशांक के
पैरों पर लोट कर कहने लगा ''पागल! मुझे क्षमा करो। मैंने सुना है कि तुम
राजा हो, तुम्हारे हृदय में अपार दया है, तुम मेरा अपराध क्षमा करो''।
सम्राट ने विस्मित होकर देखा कि कीचड़ लपेटे, भीगा वस्त्र पहने नवीन भूमि पर
पड़ा है। उन्होंने ऑंखों में ऑंसू भरकर उसे उठा लिया और कहने लगे ''नवीन!
क्षमा कैसी, भाई! तुम उस समय पागल हो गए थे। मैं तो पागल था ही, तुम्हारे
हृदय की वेदना को न समझ सका। तुम भव के साथ विवाह करो, भव तुम्हारी है''।
गले से छूटकर नवीन बोला ''तुम सचमुच राजा हो, इतनी दया मैंने आज तक कहीं
नहीं देखी। राजा! मैंने सुना है तुम देश जा रहे हो। मैं भी तुम्हारे साथ
चलूँगा। मैंने तुम्हारा रक्त बहाया है। जब तक प्रायश्चित्ता न करूँगा मेरे
मन की आग न बुझेगी। नवीनदास आज से तुम्हारा क्रीतदास हुआ। जब तुम देश में
जाकर राजा हो जाआगे और मैं जीता रहूँगा तब लौटूँगा'। इतना कहकर नवीन सम्राट
का पैर पकड़कर बैठ गया। शशांक ने उसे उठाकर फिर गले से लगाया। उनका बहुमूल्य
वस्त्र कीचड़ कीचड़ हो गया।
दूसरे दिन सबेरे शशांक ने सेना सहित यात्रा की। यात्रा के समय दीनानाथ और
नवीनदास सह माँझी लेकर साथ हो लिए। रात को ही भव न जाने कहाँ चली गई, उसका
कहीं पता न लगा।
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