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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7

शशांक

 भाग - 6

छठा परिच्छेद
विरहलीला

तरला प्रासाद में लौटकर अन्त:पुर की ओर नहीं गई, सीधो यशोधावलदेव के भवन में घुसी। प्रतीहार और दण्डधार उसे पहचानते थे इससे उन्होंने कुछ रोक टोक न की। सम्मान दिखाते हुए वे किनारे हट गए। महानायक के विश्राम करने की कोठरी के द्वार पर स्वयं महाप्रतीहार विनयसेन हाथ में बेंत लिए खड़े थे। उन्होंने तरला का मार्ग रोककर पूछा ''क्या चाहती हो?'' तरला ने उत्तर दिया ''महानायक को एक बहुत ही आवश्यक संवाद देने जाती हूँ''। विनयसेन ने बेंत से उसका मार्ग रोककर कहा ''भीतर महाराजाधिराज हैं, अभी तुम वहाँ नहीं जा सकती''। तरला ने कहा ''संवाद बहुत ही आवश्यक है''। विनयसेन ने कहा ''तो संवाद मुझसे कह दो मैं जाकर दे आऊँ, नहीं तो थोड़ी देर ठहरो''। एक बार तो तरला के मन में हुआ कि विनयसेन अत्यन्त विश्वासपात्रा कर्म्मचारी हैं उनसे यूथिका की बात कह देने में कोई हानि नहीं। पर पीछे उसने सोचा कि ऐसी बात न कहना ही ठीक है। बहुत आगे पीछा करके वह महाप्रतीहार से बोली ''अपराध क्षमा करना। संवाद बहुत ही गोपनीय है, उसे प्रकट करने का निषेध है। मैं तब तक यहीं खड़ी हूँ। जब महाराज बाहर निकलें तो मुझे पुकार लीजिएगा''।
तरला एक खम्भे की ओट में जा बैठी और सोचने लगी कि किस उपाय से यूथिका को बाहर लाऊँगी और लाकर कहाँ रखूँगी। बहुत देर सोचते सोचते जब मन में कुछ ठीक न कर सकी तब वह उठ खड़ी हुई और उसने यही निश्चय किया कि ऐसी ऐसी बातें सुलझाना एक सामान्य दासी का काम नहीं, सिर खपाना व्यर्थ है। अपनी बुध्दि को धिक्कारती हुई वह महानायक के स्थान की ओर बढ़ी, पर दो ही चार कदम गई होगी कि उसने देखा कि द्वार पर सम्राट, यशोधावलदेव, युवराज, कुमार माधवगुप्त और महामन्त्ी ऋषिकेशशर्म्मा खड़े हैं। तरला उन्हें देख फिर एक खम्भे की आड़ में छिप गई।
सम्राट ने पूछा ''तो तुम लोग कब जाना चाहते हो?'' यशोधावलदेव बोले ''र्कात्तिक शुक्ला त्रायोदशी को''।
सम्राट-अच्छी बात है। माधव क्या तुम लोगों के पहिले ही जायँगे? मैं तो समझता हूँ कि जब तक चरणाद्रि से कोई संवाद न आ जाय तब तक माधव का प्रस्थान करना उचित नहीं है।
यशो -महाराज! प्रभाकरवर्ध्दन यदि खुल्लम खुल्ला लड़ाई ठान दें तो भी महादेवी के सांवत्सरिक श्राद्ध पर किसी सम्राट वंशीय पुरुष को जाना ही होगा। मार्ग बहुत दिनों का है। माधवगुप्त इतनी लम्बी यात्रा शीघ्र न कर सकेंगे, उन्हें थानेश्वर पहुँचने में 6-7 महीने लग जायँगे। इससे शीघ्र यात्रा करना ही उचित है। मैं चाहता हूँ बंगदेश की चढ़ाई पर जाने के पहले मैं कुमार को उधार भेज दूँ।
सम्राट ने लम्बी साँस भरकर कहा ''अच्छा, यही सही। यात्रा का कोई दिन स्थिर किया है?'' यशोधावलदेव ने उत्तर दिया ''आश्विन के शुक्लपक्ष की किसी तिथि को जाना ठीक होगा''। ऋषिकेशशर्म्मा कुछ न सुन सके थे। वे विनयसेन को पुकारकर पूछने लगे ''कहो भाई! क्या ठीक हुआ?'' विनयसेन के उत्तर देने के पूर्व ही यशोधावलदेव ने चिल्लाकर कहा ''अश्विन शुक्लपक्ष में कुमार माधवगुप्त को थानेश्वर भेजना स्थिर किया है''। महामन्त्रीजी हँसकर बोले 'साधु! साधु''! यह सब हो चुकने पर सब लोग सम्राट को अभिवादन करके चले गए, केवल यशोधावल सम्राट से कहने लगे ''महाराज! कल रात को एक गुप्तचर पकड़ा गया है, सुना है?''
सम्राट-न। कहाँ पकड़ा गया?
यशो -वह पिछली रात को नाव पर चढ़कर नगर से निकलने का यत्न कर रहा था, पर गौड़ीय नौसेना नाव समेत उसे पकड़ लाई।
सम्राट-वह क्या मगध का ही रहने वाला है ?
यशो -हमारे गुप्तचरों ने उसे पहचाना है। उसका नाम बुद्धश्री है। वह मगध का न होने पर भी साम्राज्य की प्रजा है। पिछली रात को जब महाराजाधिराज की आज्ञा से नौसेना प्रस्थान कर रही थी उसी समय साम्राज्य की नावों के साथ वह अपनी नाव मिलाकर नगर त्याग करने का प्रयत्न कर रहा था। पकड़े जाने पर बुद्धश्री कहने लगा कि मैं अंगदेश से वाराणसी जा रहा हूँ, वह मार्ग में ही पकड़ लिया गया है। गुप्तचरों ने संवाद दिया है कि वह इधर दो वर्ष से बराबर कपोतिक संघाराम में महास्थविर बुद्धघोष के पास रहता है। उसका क्या दण्डविधान किया जाय ?
सम्राट-क्या दण्ड देना चाहते हो?
यशो -वह गुप्तचर है इसमें तो कोई सन्देह नहीं। गुप्तचर न होता तो भेष बदलकर रात को चुपचाप नगर से निकलने की चेष्टा क्यों करता? मेरा अनुमान है कि बुद्धघोष ने किसी उपाय से यह पता पाकर कि सेना चरणाद्रिगढ़ जा रही है इस पुरुष के द्वारा थानेश्वर संवाद भेजा था। बुद्धश्री बड़ा भयंकर मनुष्य है। पकडेज़ाने के समय उसने दो मनुष्यों को घायल किया और कारागार में बड़ी साँसत सहकर भी अपना भेद नहीं दिया। मैं उसे वही दण्ड देना चाहता हूँ जो गुप्तचरों को देना चाहिए।
सम्राट-क्या, प्राणदण्ड?
यशो -महाराजाधिराज की जैसी आज्ञा हो।
सम्राट-क्या कोई और दण्ड देने से न होगा?
यशो -वह यदि जीता बचेगा तो आगे चलकर साम्राज्य का बहुत कुछ अनिष्ट करेगा।
सम्राट-अभी न जाने कितनी नरहत्या करनी होगी। व्यर्थ किसी का प्राण लेने से क्या लाभ?
यशो -तो फिर महाराजाधिराज की क्या आज्ञा होती है?
सम्राट-उसे छोड़ देना ठीक न होगा?
यशो -किसी प्रकार नहीं।
सम्राट-तो फिर कारागार में डाल दो।
सम्राट इतना कहकर चले गए। यशोधावलदेव फिर घर के भीतर जाना ही चाहते थे कि तरला खम्भे की ओट से निकलकर आई और उसने प्रणाम किया। महानायक ने पूछा ''तरला! क्या क्या कर आई?''
तरला ने हँसकर कहा ''प्रभु के आशीर्वाद से सब कार्य सिद्ध कर आई''।
यशो -अच्छी बात है। सेठ की लड़की घर से निकलना चाहती है?
तरला-इसी क्षण।
यशो -तब फिर विलम्ब किस बात का?
तरला-प्रभु की यदि आज्ञा हो तो आज रात को ही सेठ की कन्या को ले आऊँ।
यशो -अच्छा, तो फिर तुम्हारे साथ एक तो वसुमित्र जायगा, और कौन कौन जायँगे?
तरला-बहुत-से लोगों को ले जाने की क्या आवश्यकता है?
यशो -एक किसी और विश्वासी आदमी का साथ रहना अच्छा है।
तरला-तो फिर किसको जाना होगा?
यशो -तुम अपना किसी को ठीक कर लो।
तरला-भला, मैं आदमी कहाँ पाऊँगी?
यशोधावलदेव हँसते हँसते बोले ''ढूँढ़कर देखो, कोई न कोई मिल जायगा''। इतना कहकर वे कोठरी के भीतर चले गए।
तरला मन ही मन सोचने लगी कि यह क्या पहेली है, मैं आदमी कहाँ पाऊँगी? महानायक की बात का अभिप्राय न समझ वह ठगमारी सी खड़ी रही। अकस्मात् उसे आचार्य्य देशानन्द का धयान आया। वह हँस पड़ी। जब से देशानन्द संघाराम से छूटकर आया है तब से बराबर प्रासाद ही में रहता है। यशोधावलदेव ने उसे अभयदान देकर उसके निर्वाह का प्रबन्ध कर दिया है। देशानन्द अपने प्राण के भय से प्रासाद के बाहर कभी पैर नहीं रखता और किसी बौद्ध को देखते ही गाली देने लगता है। वह सदा अपने बनाव सिंगार में ही लगा रहता है। उसने सिर पर लम्बे लम्बे केश रखे हैं। कई पत्तियों का लेप चढ़ाकर वह सिर, मूँछ और दाढ़ी के बाल रँगे रहता है। जब कोई उससे उसका परिचय पूछता है तब वह कहता है कि महानायक यशोधावलदेव ने मेरी वीरता देख मुझे अपना शरीर रक्षी बनाया है, इसी से मैं प्रासाद के बाहर नहीं जाता। जब महानायक बंगदेश की चढ़ाई पर जायँगे तब मुझे भी जाना होगा। बहुत दिनों पर तरला को अपने पुराने सेवक का धयान आया। वह अपनी हँसी किसी प्रकार न रोक सकी। वह झट से यशोधावलदेव के वासस्थान से निकल तोरण की ओर चली। प्रासाद के दूसरे और तीसरे खंड को पार करती वह प्रथम खण्ड के तोरण पर पहुँची जहाँ प्रतीहारों और द्वारपालों का डेरा था।
तरला ने कई कोठरियों में जाकर देखा, पर देशानन्द का कहीं पता न लगा। उसे न पाकर वह कुछ चिन्ता में पड़ गई क्योंकि समय बहुत कम रह गया था। दो चार और कोठरियो में देखकर तरला प्रथम खंडवाले तोरण के बाहर निकल इधर उधार ताकने लगी। उसने देखा कि खाई के किनारे एक बड़े पीपल के नीचे देशानन्द बैठा है। उसके सामने एक बड़ा सा दर्पण रखा है और वह अपने बाल सँवार रहा है।
प्रासाद में आने के पीछे तरला और देशानन्द की देखादेखी कभी नहीं हुई थी। तरला को देखने की सदा उत्कण्ठा बनी रहने पर भी देशानन्द को यह भरोसा नहीं था कि कभी प्रासाद के अन्त:पुर में जाने का अवसर मिलेगा। बहुत दिनो पर तरला को आते देख देशानन्द आनन्द के मारे आपे से बाहर हो गया। तरला ने उसका स्त्री वेश बनाकर उसे मन्दिर में बन्द कर दिया था, उसके कारण उसका प्राण जातेजाते बचा था, यशोधावलदेव यदि समय पर न पहुँच जाते तो भिक्खु लोग उसे सीधे यमराज के यहाँ पहुँचा देते, ये सब बातें क्षण भर में वृद्ध देशानन्द भूल गया। तरला को देखते ही उसकी नस नस फड़क उठी। उसे तनमन की सुधा न रही। पहिले तो वह समझा कि तरला किसी काम से प्रासाद के बाहर जा रही है, पर तरला को अपनी ओर आते देख उसका भ्रम दूर हो गया। अब तो उसे मानलीला सूझने लगी। वह समझ गया कि तरला उसी की खोज में निकली है। वृद्ध सिर नीचा करके अपने पके बालों को सँवारने में लग गया।
तरला ने देशानन्द के पास आकर साष्टांग दंडवत की और मुसकराती हुई बोली ''बाबाजी! कैसे हैं? दासी को पहिचानते हैं?'' देशानन्द ने कोई उत्तर न दिया, मुँह फेरकर बैठ रहा। तरला समझ गई कि बाबाजी ने मान किया है, मान किसी प्रकार छुड़ाना होगा। वह हँसती हुई देशानन्द के और पास जा बैठी। अब तो वृद्ध का चित्ता डाँवाडोल हो गया, पर उसने अपना मुँह न फेरा। तरला ने देखा कि देशानन्द को मना लेना बहुत कठिन नहीं है। उसने एक ठण्ढी साँस भरकर कहा ''पुरुष की जाति ऐसी ही होती है, मैं तीन वर्ष से जिसे देखने के लिए मर रही हूँ वह मेरी ओर ऑंख उठाकर देखता तक नहीं है''। अब तो देशानन्द से न रहा गया, वह मुँह फेरकर बोला ''तुम-तुम-फिर कैसे?'' तरला ने वृद्ध की ओर कटाक्ष करके कहा ''अब क्यों न ऐसा कहोगे? तुम्हारे लिए मेरी जाति गई, मान गया, लोक लज्जा गई अब तुम ऐसा न कहोगे तो फिर कलिकाल की महिमा ही क्या रहेगी?'' देशानन्द चकित होकर कहने लगा ''तुम क्या कह रही हो, मेरी समझ में नहीं आता। अब क्या बन्धुगुप्त की गुप्तचर बनकर मुझे पकड़ाने आई हो?'' तरला ने देखा कि देशानन्द का मान कुछ गहरा है। अब तो उसने स्त्रियों का अमोघ अस्त्रा छोड़ा। अंचल से वह अपनी ऑंखें पोंछने लगी। देखते देखते उसके नीलकमल से नेत्रो में जल झलकने लगा। देशानन्द घबरा कर उठा और बार बार पूछने लगा ''क्या हुआ? क्या हुआ?''
तरला ने जाना कि इतनी देर पीछे अब मानभंग हुआ। वह देशानन्द की बात का कोई उत्तर न देकर रोने लगी। अब तो बुङ्ढा एकबारगी पिघल गया। एक दण्ड पीछे जब तरला ने रोने से छुट्टी पाई तब देशानन्द को उसने अच्छी तरह समझा दिया कि उसके मन्दिर में बन्द होने का कारण वह न थी, अदृष्ट था। तरला ने कहा ''मैंने ही तुम्हें छुड़ाने के लिए दूसरे दिन सबेरे यशोधावलदेव को भेजा था। देशानन्द को अपने भ्रम का पूर्ण निश्चय हो गया और वह खिल उठा। तरला ने अवसर देख धीरे से कहा ''बाबाजी! आज मैं एक बड़े काम के लिए तुम्हारे पास आई हूँ''।
देशा -कहो, कहो, क्या काम है?
तरला-बात बहुत ही गुप्त रखने की है, पर तुमसे कोई बात छिपाना तो ठीक नहीं। पर देखना किसी पर प्रकट न होने पावे।
देशा -न, न, भला ऐसा कभी हो सकता है?
तरला-देखो, आज राजकुमारी अभिसार को जायँगी। मेरे साथ किसी विश्वासपात्रा को चलना चाहिए। बोलो, चलोगे?
देशा -अकेले?
तरला-नहीं, नहीं, मैं साथ रहूँगी।
देशा -तब तो अवश्य चलूँगा।
तरला-राजकुमारी को कुंजकानन में पहुँचाकर हम दोनों को लौट आना होगा। समझ गए न?
देशानन्द बहुत अच्छी तरह समझ गया, कुछ समझना बाकी न रह गया। उसने हँसते हँसते तरला का हाथ पकड़ा। तरला हाथ छुड़ा दूर जा खड़ी हुई और बोली, ''तो मैं रात को आकर तुम्हें धीरे से बुला ले जाऊँगी, जागते रहना''। देशानन्द बोला ''बहुत अच्छा''।


सातवाँ परिच्छेद
समुद्रगुप्त का गीत

पुराने राजप्रासाद के निचले खण्ड की एक कोठरी में यदुभट्ट भोजन करके लेटा हुआ है। जान पड़ता है बुङ्ढे को झपकी आ गई है क्योंकि यशोधावलदेव कोठरी में आए और उसे कुछ पता न लगा। यशोधावलदेव ने उसकी चारपाई के पास जाकर ज्यों ही नाम लेकर पुकारा वह चकपकाकर उठ बैठा और महानायक को सामने खड़ा देख घबराकर नीचे खड़ा हो गया। महानायक ने पूछा ''तुम्हारा भोजन हो गया?'' यदु ने कहा ''हाँ, धार्मावतार! कभी का। प्रभु ने इतनी दूर आने का कष्ट ''।
यशो -हाँ! तुमसे कुछ काम है।
यदु -तो मैं बुला लिया गया होता।
यशो -बात बहुत गुप्त रखने की है, इसी से मैं ही टहलता टहलता इधर चला आया।
यदु -प्रभु! विराजेंगे?
यदु ने एक फटा सा आसन लाकर भूमि पर बिछा दिया। महानायक उस पर बैठ गए और भट्ट से बोले ''यदु! तुम्हें एक काम करना होगा''।
यदु -जो आज्ञा हो, प्रभु!
यशो -हम लोगों के युद्धयात्रा करने के पहले एक दिन तुम्हें समुद्रगुप्त का गीत सुनाना होगा। तुम्हें स्मरण होगा कि जब हम लोग युवा थे तब यात्रा के पहले तुम गीत सुनाया करते थे।
यदु -यह तो कोई इतनी बड़ी बात नहीं थी, प्रभु! समुद्रगुप्त की विजययात्रा के गीत मैं सैकड़ों बार गा चुका हूं।
यशो -सब कथा तो तुम्हें स्मरण है, न?
यदु -स्मरण कहाँ तक रह सकती है? अब तो महाराज की आज्ञा से भट्ट चारणों का गाना बन्द ही हो गया है; यदि भूल जाऊँ तो आश्चर्य ही क्या है? महाराजाधिराज समुद्रगुप्त की प्रशस्तियाँ तो बहुत लोगों ने लिखी हैं, किसकी गाऊँ?
यशो -मैं तो समझता हूँ कि हरिषेण की प्रशस्ति सब से अच्छी है। तुम्हें स्मरण है, न?
यदु -पूरी पूरी। इतने दिनों तक कोई सुनने वाला ही न था। महाराज के निषेध करने पर भी मैंने कई बार युवराज के बहुत कहने से उन्हें गुप्तवंश कीर् कीत्तिकथा गाकर सुनाई है। कभी कभी मैंने कहानी के बहाने बहुत सी बातें कह सुनाई हैं। पर महाराज इसके लिए भी एक दिन मुझपर बहुत बिगड़े थे।
यशो -वे सब दिन अब गए, यदु! अच्छा बताओ, कब गाओगे?
यदु -आज्ञा हो तो इसी समय सुनाऊँ।
यशो -केवल मुझे सुनाने से नहीं होगा, यदु! जो लोग अपने जीवन भर में पहले-पहले लड़ाई पर जा रहे हैं उन्हें सुनना होगा।
यदु -तो फिर जिन्हें जिन्हें सुनना हो उन्हें आप इकट्ठा करें।
यशो -अच्छी बात है, अभी लो।
यशोधावलदेव ने ताली बजाई। एक प्रतीहार बाहर खड़ा था, उसने कोठरी में आकर प्रणाम किया। यशोधावलदेव ने नरसिंहदत्त को बुलाने की आज्ञा दी। प्रतीहार के चले जाने पर महानायक ने भट्ट से पूछा ''यदु! तुम अकेले गा सकते हो न? गंगातट पर शिविर में चलकर गाना होगा''। यदु ने आनन्द में फूलकर कहा ''प्रभु किसी बात की चिन्ता न करें। यदु के कण्ठ में अब तक बल है, किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं''। थोड़ी देर में प्रतीहार नरसिंह को साथ लिए आ पहुँचा। नरसिंहदत्त के प्रणाम का उत्तर देकर महानायक ने पूछा ''कुमार कहाँ हैं?''
नर -महादेवी के मन्दिर में।
यशो -उनसे जाकर कहो कि अभी इसी समय शिविर में चलना होगा। यात्रा के पहले मंगलगीत सुनना है। आज यदुभट्ट समुद्रगुप्त की विजय यात्रा का गीत गायँगे; सब लोग तैयार रहें।
नर -हम सब लोग अभी युवराज के साथ शिविर में चलते हैं।
नरसिंहदत्ता चले गए। महानायक भट्ट से बोले ''यदु चलो अब हम लोग भी चलें''। यदुभट्ट ने अपना उत्तरीय लिया और दोनों पुराने प्रासाद से चलकर नए प्रासाद में पहुँचे।
तीसरे पहर जब महानायक यशोधावलदेव का रथ गंगातट पर शिविर के बीच पहुँचा उसके पहले ही युवराज शशांक और उनके साथी वहाँ पहुँच चुके थे। मैदान में सारी अश्वारोही और पदातिक सेना सशस्त्रा होकर कई पंक्तियों में खड़ी थी। सब मिलाकर बीस सह पदातिक और सात सह अश्वारोही नए नए अस्त्र शस्त्रो और नए नए परिधानों से सुसज्जित आसरे में खड़े थे। गंगा में गौड़ देश के माझियोंवाली तीन सौ नावें दस पंक्तियों में खड़ी थीं। महानायक को देखते ही तीस सह मनुष्यों ने एक स्वर से जयध्वनि की। महानायक यशोधावलदेव और यदुभट्ट रथ पर से उतरे। युवराज की आज्ञा से तीनों सह गौड़ीय नाविक भी नावों पर से उतर कर अलग श्रेणीबद्ध होकर खड़े हुए। रामगुप्त, यशोधावलदेव, युवराज शशांक, कुमार माधवगुप्त, नरसिंहदत्ता माधववर्म्मा और अनन्तवर्म्मा इत्यादि नायक सेनादल के बीच में खड़े हुए। वृद्ध भट्ट वीणा लेकर सबके सामने बैठा।
वीणा बजने लगी। पहले तो धीरे धीरे, फिर द्रुत, अतिद्रुत झनकार निकल कर एकबारगी बन्द हो गई। फिर झनकार उठी और उसके साथ साथ वृद्ध का गुनगुनाना सुनाई पड़ा। वीणा के साथ गीत का स्वर मिलकर क्रमश: ऊँचा होने लगा। एकत्रा जनसमूह चुपचाप खड़ा सुनने लगा। भट्ट गाने लगा।
''यह कौन चला है? आर्यर्वत्त और दाक्षिणात्य को कम्पित करता यह कौन चला है? सैकड़ों नरपतियों के मुकुटमणि जिसके गरुड़धवज को अलंकृत कर रहे हैं, समुद्र से लेकर समुद्र तक, हिमालय से लेकर कुमारिका तक सारा जम्बूद्वीप जिसकी विजय वाहिनी के भार से काँप उठा है वह कौन है? महाराजाधिराज समुद्रगुप्त''।
''मागधा वीरो! समुद्रगुप्त का नाम सुना है? खेत की घास के समान जिसने अच्युत और नागसेन को उखाड़ फेंका, जिसके पदचिद्द का अनुसरण करके सैकड़ों वर्ष पीछे तक मागधा सेना निरन्तर विजययात्रा के लिए निकलती रही वह समुद्रगुप्त ही थे।''
''सात सौ वर्ष पर मगधराज फिर विजययात्रा के लिए निकले हैं। आर्यर्वत्त में रुद्रदेव, मतिल, नागदत्ता, नन्दी, बलवर्म्मा प्रभृति राजाओं के अधिकार लुप्त हो गए, दिग्विजयाभिलाषी चन्द्रवर्म्मा छड़ी खाए हुए कुत्तो के समान भाग खड़े हुए, नलपुर में गणपतिनाग का ऊँचा सिर नीचा हुआ, आर्यर्वत्त फिर एक छत्रा के नीचे आया। आटविक राजाओं ने सिर झुकाकर सेवा स्वीकार की, सारा आर्यर्वत्त जीत लिया गया, अब समुद्रगुप्त की विजयवाहिनी दक्षिण की ओर यात्रा कर रही है''।
''महाकोशल में महेन्द्र का प्रताप अस्त हुआ, भीषण महाकान्तार में व्याघ्रराज ने कुत्तो के समान पूँछ हिलाते हुए दासत्व स्वीकार किया। पूर्व समुद्र के तट पर मेघमंडित महेन्द्रगिरि पर स्थित दुर्जय कोट्ट दुर्गाधिपति स्वामिदत्त, पिष्टपुरराज महेन्द्र, केरल के मंटराज, एरंडपल्ल के दमन ने अपना अपना सिंहासन छोड़ सामन्तपद ग्रहण किया।''
''मागध सेना दाक्षिणात्य की ओर चली है। सैकड़ों लड़ाइयाँ जीतने वाले पल्लवराज ने कांचीपुरी में आश्रय लिया, किन्तु कांची का पाषाणप्राचीर और शंकर का त्रिशूल भी विष्णुगोप की रक्षा न कर सका। नगर के तोरण पर गरुड़धवज स्थापित हो गया। अविमुक्तक्षेत्र में नीलराज, वेंगीनगर में हस्तिवर्म्मा और पलक्क में उग्रसेन ने दाँतों तले तृण दबाकर अपनी पगड़ी महाराजाधिराज के पैरों पर रख दी। पर्वतवेष्टित देवराष्ट्र में कुबेर और कुस्थलपुर में धानंजय राज्यच्युत हुए। डर के मारे समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल और कर्तृपुर के नरपतियों ने अधीनता स्वीकार करके कर दिया।''
''विजयवाहिनी अब मगध लौट रही है। अवन्तिका के मालव, आभीर और प्रार्जुन; आटविक प्रदेश के सनकानीक, काक और खरपरिक; सप्तसिन्धु के उर्जनायन, यौधोय और मद्रक गणों ने भी, जिन्होंने कभी राजतन्त्रा स्वीकार नहीं किया था, महाराजाधिराज के चरणों पर सिर झुकाया''।
''महाराजाधिराज पाटलिपुत्र लौट आए हैं। दैवपुत्रसाहि, साहानुसाहि, शक, मुरुण्ड आदि बर्बर म्लेच्छ राजाओं ने भयभीत होकर अनेक प्रकार के अलभ्य रत्न भेजे हैं। समुद्र पार सिंहलराज का सिंहासन भी काँप उठा है। शत्रु ओं की कुलांगनाओ ने सब लोक लज्जा छोड़ विजयी सेनादल की अभ्यर्थना की है। सैकड़ों राजाओं के मुकुटों से रत्न निकाल निकाल कर महाराजाधिराज पाटलिपुत्र नगर के राजपथ पर भिक्षुओं की झोली में फेंकते जा रहे हैं। नृग, नहुष, ययाति, अम्बरीष आदि राजाओ ने भी ऐसा दिग्विजय न किया होगा''।
''कलि में अश्वमेधा यज्ञ किसने किया? जिन्होंने दासीपुत्र के वंश को मगध के पवित्र राजसिंहासन पर से हटाया, जिसके भय से वायव्य दिशा के पर्वतों के यवन तक काँपते रहते थे उन्होंने किया। और दूसरा कौन करेगा? किसका अश्व दिगन्त से दिगन्त तक घूम कर आया है? किसके यज्ञ की दक्षिणा पाकर ब्राह्मण फिर ब्राह्मण हुए हैं? ऐसा कौन है? महाराजाधिराज समुद्रगुप्त''।
गीत की ध्वनि थम गई। सह कंठों से जयध्वनि उठी। भीषण नाद सुनकर कपोतिक संघाराम की गढ़ी में बैठे महास्थविर बुद्धघोष दहल उठे।
फिर गीत की ध्वनि उठी-
''भाइयो! दो सौ वर्ष बीत गए, पर मगध मगध ही है। फिर विजययात्रा के लिए मगधसेना निकला चाहती है। पूरा भरोसा है कि तुम प्राचीन मगध का मान, इस प्राचीन साम्राज्य का मान, अपने पुराने महानायक का मान रखोगे। समुद्रवत् मेघनाद के तट पर तुम्हारे बाहुबल की परीक्षा होगी, मेघनाद के काले जल को शत्रुओं के रक्त से लाल करना होगा, वैरियो की वधुओं की माँग पर की सिन्दूर रेखा मिटानी होगी। मागधा वीरो! सन्नद्ध हो जाओ''।
गीत बन्द हुआ। तीस सहò कण्ठों से फिर भीषण जयध्वनि उठी। सेनापति के आदेश से सेनादल शिविर की ओर लौटा। यशोधावलदेव धीरे धीरे भट्ट के पास जाकर बोले ''यदु! हरिषेण का गीत आज उतना अच्छा क्यों न लगा?'' यदु ने चकपका कर कहा '' मैंने तो भरसक चेष्टा की''। यशोधावलदेव ने कहा ''फिर न जाने क्यों नहीं अच्छा लगा?'' उस दिन स्कन्दगुप्त के गीत ने जैसा मर्मस्थल स्पर्श किया था वैसा आज यह गीत न कर सका''। भावी विपत्ति की आशंका से वृद्ध महानायक का हृदय व्याकुल हो उठा। सब लोग शिविर से नगर की ओर लौट पडे।


आठवाँ परिच्छेद
राजकुमारी का अभिसार

रात के सन्नाटे में तरला ने प्रासाद के बाहर निकल देशानन्द की कोठरी के किवाड़ खटखटाए। देशानन्द तो जागता ही था, उसने झट उठकर किवाड़ खोले और कहा ''भीतर आ जाओ''। तरला बोली ''विलम्ब बहुत हो गया है, अब भीतर आने का समय नहीं है। जल्दी तैयार होकर आओ''। देशानन्द बाहर आ खड़ा हुआ। उसका ठाट बाट देख तरला चकित हो गई। वह देर तक उसका मुँह ताकती रही। वृद्ध ने मजीठ में रँगा वस्त्र धारण किया था, सिर पर चमचमाती पगड़ी बँधी थी, कटिबन्धा में तलवार लटक रही थी और हाथ में शूल था। वृद्ध सोचने लगा कि तरला मेरे वीरवेश पर मोहित हो गई है। उसने धीरे से पूछा ''मैं कुछ अच्छा लग रहा हूँ?'' तरला बोली ''अच्छे तो तुम न जाने कितने दिनों से लग रहे हो। यह तो बताओ, यह सब पहिनावा तुम्हें मिला कहाँ?''
देशा -कुछ मोल लिया है, कुछ महानायक ने दिया है।
तरला-रुपया कहाँ मिला?
देशा -आते समय तुम्हारे लिए संघाराम के भण्डार से धन निकाल लाया था।
देशानन्द तरला के साथ साथ चलने लगा। अकस्मात् एक गहरी ठोकर खाकर गिर पड़ा। तरला ने पूछा ''क्या हुआ''? देशानन्द बोला ''कुछ नहीं, पैर फिसल गया था''। पर बात यह थी कि रात को देशानन्द को अच्छी तरह सुझाई नहीं पड़ता था। पर प्राण जाय तो जाय देशानन्द भला यह बात कभी तरला के सामने कह सकता था? कुछ दूर चलते चलते एक पेड़ की मोटी जड़ को न देख देशानन्द फिर टकरा कर गिरा। तरला समझ गई कि बुङ्ढे को रतौंधी होती है। उसने मन में सोचा, चलो अच्छी बात है। बुङ्ढा रात को कुछ देख न सकेगा, सेठ की लड़की को ही राजकुमारी समझेगा। तरला देशानन्द को साथ लिए प्रासाद के तोरण के बाहर हुई। यह देख देशानन्द बोला ''तुम अन्त:पुर में तो गई नहीं?'' तरला ने हँसकर कहा ''तुम्हारी बुध्दि तो चरने गई है। भला इतने लोगों के बीच मैं तुम्हें लेकर अन्त:पुर में जाऊँगी तो तुम्हारी तो जो दशा होगी वह होगी ही, मैं भी प्राण से हाथ धोऊँगी''। देशानन्द सिटपिटा गया, पर फिर भी उसने पूछा ''तो फिर राजकुमारी कैसे आएँगी?'' तरला ने वस्त्र के नीचे से रस्सियों की एक सीढ़ी निकाल कर दिखाई और बोली ''राजकुमारी इसी के सहारे नीचे उतरेंगी''। इतने में दोनों राजपथ छोड़कर सेठ की कोठी के पास पहुँचे। यूथिका के पिता के घर पहुँचते ही तरला पीछे की फुलवारी में घुसी वह यूथिका से फुलवारी की ओर का द्वार खोलने के लिए कह आई थी, पर पास जाकर उसने देखा कि किवाड़ भीतर से बन्द है।
देशानन्द के सहारे तरला दीवार पर चढ़ी और रस्सी की सीढ़ी लटका कर नीचे उतर गई। देशानन्द रस्सी का छोर पकड़े दीवार के उस पार ही खड़ा रहा। थोड़ी देर में तरला लौट आई और बोली ''बाबाजी! तुम इस पर आओ। फुलवारीवाले द्वार पर न जाने किसने ताला चढ़ा दिया है, वह किसी प्रकार खुलता नहीं है। देशानन्द दीवार पर चढ़कर तरला के पास गया। बहुत चेष्टा करने पर भी द्वार न खुल सका। अन्त में तरला बोली-''बाबाजी! तुम दीवार से लग कर उधर अधेरे में छिपे रहो, मैं राजकुमारी के नागर को बुलाने जाती हूँ''।
दो पहर रात बीते चन्द्रोदय हुआ। चाँदनी धुधली रहने पर भी देशानन्द की दृष्टि को बहुत कुछ सहारा था। तरला के आदेशानुसार वह उजाले से हटकर दीवार की छाया में छिपकर खड़ा हुआ। तरला फिर उसी प्रकार दीवार पर चढ़कर बाहर फुलवारी में उतरी। धीरे धीरे फुलवारी से निकलकर वह सेठ के घर से लगी हुई एक गली मेंर् गई। वहाँ अधेरे में एक आदमी पहले से छिपा था, उसने पूछा ''कौन, तरला?'' तरला बोली ''हाँ, जल्दी आइए''।
''घोड़ा लिए चलें?''
''डर क्या है?''
''क्या हुआ?''
''अभी मैं भीतर नहीं जा सकी हूँ। सेठ ने फुलवारी के द्वार पर ताला लगा रखा है''।
तरला फिर फुलवारी की ओर चली, वसुमित्र घोड़े पर पीछे पीछे चला। दोनों रस्सी के फन्दे के सहारे दीवार लाँघकर सेठ के घर में पहुँचे। वसुमित्र ने भी ताला खोलने का बहुत यत्न किया, पर वह न खुला। यह देख तरला बोली ''तो फिर सेठ की बेटी को भी दीवार लाँघनी पड़ेगी, अब और विलम्ब करना ठीक नहीं। रात बीत चली है। मैं अन्त:पुर में जाने का एक और मार्ग जानती हूँ''। वसुमित्र ने उसकी बात मान ली। तरला ने देशानन्द से कहा ''देखो! बाबाजी! तुम यहीं छिपे रहना, और किसी को आते देखना तो रस्सी की सीढ़ी हटा लेना''। देशानन्द ने उत्तर दिया ''तुम लोग बहुत देर न लगाना। रात को भूत प्रेत निकलते हैं, कहीं '' तरला ने हँसकर कहा ''तुम्हें कोई भय नहीं है, मैं अभी लौटती हूँ'' दोनों घर के भीतर घुसे। चलते चलते वसुमित्र ने पूछा तरला! तुम्हारे साथ वह कौन है?
''तरला-नहीं पहिचाना?''
वसु -न।
तरला-इतने दिन एक साथ रहे, फिर भी नहीं पहिचानते।
वसु -बताओ, कौन है?
तरला-देशानन्द।
वसु -तुम कहती क्या हो?
तरला-लौटते समय देख लेना।
दोनों धीरे धीरे पैर रखते सेठ की लड़की के शयनकक्ष में गए।
इधर तरला और वसुमित्र घर के भीतर गए उधार देशानन्द बड़े संकट में पड़ा। तरला जब वसुमित्र को बुलाने गई थी तभी से वह मन में डर रहा था। पर तरला के सामने वह यह बात मुँह से न निकाल सका। देशानन्द ने कोष से तलवार निकाल कर सामने रखी, बरछे का फल देखा भाला। इससे उसके मन में कुछ ढाँढ़स हुआ। पर थोड़ी देर में जो पीछे फिर कर देखा तो दो एक आम के पेड़ों के नीचे गहरा अधेरा दिखाई पड़ा। उसके जी में फिर डर समाया। वह धीरे धीरे अन्त:पुर के द्वार पर जा खड़ा हुआ। उसने फुलवारी की ओर उचक कर देखा कि वसुमित्र का घोड़ा ज्यों का त्यों चुपचाप खड़ा है। उसके मन में फिर ढाँढ़स हुआ। उसने सोचा कि कोई भूत प्रेत होता तो घोड़े को अवश्य आहट मिलती।
देखते देखते एक दण्ड हो गया, फिर भी तरला लौटकर न आई। उद्यान में ओस से भीगी हुई डालियाँ धीरे धीरे झूम रही थीं। पत्तो पर बिखरी हुई ओस की बूँदों पर पड़कर चाँदनी झलझला रही थी। देशानन्द को ऐसा जान पड़ा कि श्वेत वस्त्र लपेटे एक बड़ा लम्बा तड़ंगा मनुष्य उसे अपनी ओर बुला रहा है। उसका जी सन्न हो गया, उसे कुछ न सूझा। बरछा और तलवार दूर फेंक जिधार तरला और वसुमित्र गए थे एक साँस में उसी ओर दौड़ पड़ा। थोड़ी दूर पर एक गली थी जो सीधे अन्त:पुर तक चली गई थी। गली के छोर पर एक छोटा सा द्वार था जिसे वसुमित्र भीतर जाते समय खोलता गया था। देशानन्द उसी द्वार से भागा भागा सेठ के अन्त:पुर में जा पहुँचा। उसे कुछ सुझाई न पड़ा। अधेरे में वह इधर उधर भटकने लगा।
उधर चार वर्ष पर वसुमित्र और यूथिका का मिलन हुआ। पहले अभिमान, फिर मान, उसके पीछे मिलन का अभिनय होने लगा। तरला द्वार पर खड़ी खड़ी उन दोनों को झटपट बाहर निकलने के लिए बार बार कह रही थी। पर उसकी बात उन दोनों प्रेमियों के कानों में मानो पड़ती ही न थी। यूथिका बीचबीच में यह भी सोचती थी कि पिता का घर सब दिन के लिए छूट रहा है। वह कभी अपनी प्यारी बिल्ली को प्यार करने लगती कभी फिर प्रेमालाप में डूब जाती। कभी पिंजड़े में सोए हुए सुए को चुमकारने लगती, कभी तरला की फटकार सुनकर पिता का घर सब दिन के लिए छोड़ने की तैयारी करने लगती। इसी में तीन पहर रात बीत गई। नगर के तोरणों पर और देव मन्दिरों में मंगल वाद्य बजने लगा। उसे सुनते ही तरला यूथिका का हाथ पकड़ उसे कोठरी के बाहर खींच लाई। वसुमित्र पीछे पीछे चला। सेठ की बेटी ने ऑंसू गिराकर पिता का घर छोड़ा।
तरला ने फुलवारी की दीवार के पास आकर देखा कि देशानन्द नहीं हैं। अन्त:पुर के द्वार के पास उसका भाला और तलवार पड़ी है। वसुमित्र यूथिका को चुप कराने में लगा था। तरला ने उससे धीरे से कहा ''हमारे बाबाजी तो नहीं हैं!'' वसुमित्र बोला ''बड़ा आश्चर्य्य है, गया कहाँ?''
इसी समय सेठ के घर में किसी भारी वस्तु के गिरने का धामाका हुआ और उसके साथ बसन्तु की माँ 'चोर' 'चोर' करके चिल्ला उठी। उसे सुन तरला बोली ''भैयाजी! बड़ा अनर्थ हुआ। बुङ्ढा अवश्य हम लोगों को ढूँढ़ता ढूँढ़ता अन्त:पुर में जा पहुँचा। उसे रात को दिखाई नहीं पड़ता, वह निश्चय किसी के ऊपर जा गिरा। अब चटपट यहाँ से भागो''। तरला की बात पूरी भी न हो पाई थी कि यूथिका न जाने क्या कहकर मर्च्छित हो गई। यदि वसुमित्र उसे थाम न लेता तो वह गिर जाती। वसुमित्र ने पूछा ''तरला, अब क्या किया जाय?'' तरला ने कहा ''यूथिका को मैं थामे हूँ, आप चटपट दीवार पर चढ़ जाइए''। तरला ने अचेत यूथिका को थामा। वसुमित्र उछल कर दीवार पर चढ़ गया और उसने यूथिका को ऊपर खींच लिया। तरला भी देखते देखते यूथिका को थामने के लिए दीवार पर जा पहुँची। वसुमित्र धीरे से उस पार उतर गया और उसने यूथिका को हाथों पर ले लिया। तरला नीचे उतर कहने लगी ''भैयाजी! झट घोड़े पर चढ़ो और अपनी बहूजी को भी ले लो''। वसुमित्र घोड़े पर बैठा और उसने यूथिका को गोद में ठहरा लिया। तरला बोली ''अब चल दो, घर के सब लोग जाग पड़े हैं। सीधो महानायक की कोठरी में चले जाना, वहाँ सब प्रबन्ध पहले से है''। वसुमित्र कुछ आगे पीछा करने लगा और बोला ''और तुम?'' तरला ने कहा ''मेरी चिन्ता न करो। यदि मैं भागना चाहूँ तो पाटलिपुत्र में अभी ऐसा कोई नहीं जन्मा है जो मुझे पकड़ ले।'' वसुमित्र तीर की तरह घोड़ा छोड़कर देखते देखते अदृश्य हो गया।
इधर बसन्तु की माँ का चिल्लाना सुन घर और टोले के सब लोग जाग पड़े। यूथिका के पिता के आदमी दीया जलाकर चोर को ढूँढ़ने लगे। तरला यह रंग ढंग देख धीरे से खिसक गई। सचमुच अंधेरे में देशानन्द बसन्तू की माँ के ऊपर जा गिरा था। बसन्तू की माँ कोई ऐसी वैसी स्त्री तो थी नहीं। वह देशानन्द को दोनों हाथों से कस कर पकड़े रही और 'चोर' 'चोर' करके टोले भर का कान फोड़ती रही। घर के लोगों ने जाग कर देखा कि सचमुच एक नया आदमी घर में घुस आया है और बसन्तु की माँ उसे पकड़े हुए है। बिना कुछ पूछे पाछे पहले तो सबके सब मिलकर चोर को मारने लगे। मार खाते खाते घबरा कर देशानन्द कहने लगा ''भाई! मैं चोर नहीं हूँ, मुझे मत मारो। मैं महानायक यशोधावलदेव का शरीर रक्षी हूँ, मुझे मत मारो। राजकुमारी अभिसार को आई थीं इससे मुझे संग ले आई थीं''। उसकी बात सुनकर कई लोग पूछने लगे ''राजकुमारी कौन?'' देशानन्द ने कहा ''सम्राट महासेनगुप्त की कन्या और कौन?'' उसकी इस बात पर सबके सब हँस पड़े, क्योंकि सम्राट के कोई कन्या नहीं थी। किसी किसी ने कहा ''अरे यह पक्का चोर है इसे खूब पीटो और सबेरे ले जाकर नगररक्षकों के हाथ में दे दो''।
पाठक इतने ही से समझ लें कि देशानन्द पर कितने प्रकार की मार पड़ी होगी। सबेरा होते ही नगररक्षक आकर उसे कारागार में ले गए। सेठ के आदमी सब नींद से ऑंख मलते उठे थे, इससे वे फिर अपने अपने स्थान पर जाकर सो रहे। उस रात घरवालों में से किसी को यह पता न चला कि यूथिका घर में नहीं है।
वसुमित्र वेग से घोड़ा फेंकता प्रासाद में आ पहुँचा। मार्ग में शीतल वायु के स्पर्श से यूथिका को चेत हुआ। तोरण पर के रक्षक वसुमित्र को पहचानते थे, इससे उन्होंने कुछ रोक टोक न की। वसुमित्र नवीन प्रासाद के सामने पहुँच घोड़े से उतरा और सीधो यशोधावलदेव की कोठरी में गया। यशोधावलदेव सोए नहीं थे, जान पड़ता था कि उसका आसरा देख रहे थे। उनकी आज्ञा से एक दासी आकर सेठ की कन्या को अन्त:पुर में ले गई और वसुमित्र भी महानायक को प्रणाम करके अपने स्थान पर गया।


नवाँ परिच्छेद
विजययात्रा

आश्विन शुक्लपक्ष के प्रारम्भ में महाधार्म्माधयक्ष नारायणशर्म्मा ने कुमार माधवगुप्त को साथ लेकर स्थाण्वीश्वर की यात्रा की। चरणाद्रि से हरिगुप्त ने समाचार भेजा कि बिना युद्ध के ही दुर्ग पर अधिकार हो गया पर थानेश्वर की सेना अभी तक प्रतिष्ठानपुर में पड़ी हुई है। यशोधावलदेव निश्चिन्त होकर बंगदेश की चढ़ाई की तैयारी करने लगे। हेमन्त के अन्त में पदातिक सेना और नावों का बेड़ा बंग की ओर चला। यह स्थिर हुआ कि पदातिक सेना चलकर गिरिसंकट पर अधिकार जमाए, युवराज शशांक और यशोधावलदेव अश्वारोही सेना लेकर यात्रा करें। उस काल में गौड़ या बंग में घुसने के लिए मंडला के संकीर्ण पहाड़ी पथ पर अधिकार करना आवश्यक था। हजार वर्ष पीछे बंगाल के अन्तिम स्वाधीन नवाब कासिमअली खाँ इसी पहाड़ी प्रदेश में पराजित होकर, और अपना राजपाट खोकर भिखारी हुए थे। गुप्त सम्राटों के समय में जो अत्यन्त विश्वासपात्र सेनापति होता था उसी के हाथ में मंडलादुर्ग का अधिकार दिया जाता था। नरसिंहदत्त के पूर्व पुरुषों के अधिकार में बहुत दिनों से यह दुर्ग चला आता था। उनके पिता तक्षदत्ता की मृत्यु के पीछे जंगलियों ने मंडलादुर्ग पर अधिकार कर लिया था। सम्राट ने एक दूसरे सेनापति को दुर्ग की रक्षा के लिए भेजा था, क्योंकि नरसिंहदत्ता उस समय बहुत छोटे थे। नरसिंहदत्ता ने यशोधावलदेव की आज्ञा लेकर पदातिक सेना के साथ मंडलागढ़ की ओर यात्रा की। सम्राट कह चुके थे कि बंगदेश का युद्ध समाप्त हो जाने पर नरसिंहदत्ता को उनके पूर्व पुरुषों का अधिकार दे दिया जायगा।
यूथिका को यशोधावलदेव ने महादेवी के साथ अन्त:पुर में भेज दिया था। उन्होंने स्थिर किया था कि बंगदेश से लौट आने पर उसका विवाह वसुमित्र के साथ होगा, तब तक सेठ की कन्या राजभवन में ही रहेगी। तरला यशोधावलदेव के बहुत पीछे पड़ी थी कि युद्धयात्रा के पहिले ही वसुमित्र और यूथिका का विवाह हो जाय पर उन्होंने एक न सुनी। उन्होंने कहा ''नई ब्याही स्त्री घर में छोड़ युद्धयात्रा करना योध्दा के लिए कठिन बात है। एक ओर युद्धयात्रा की तैयारी हो रही है दूसरी ओर ब्याह की तैयारी करना ठीक नहीं है''। तरला चुप हो रही।
कुछ दिन पीछे संवाद आया कि गिरिसंकट पर अधिकार हो गया, पदातिक सेना ने पहाड़ियों और जंगलियों को मार भगाया। उस पहाड़ी प्रदेश में थोड़ी सी सेना रखकर नरसिंहदत्ता ने गौड़ देश की ओर यात्रा की। इतना सुन यशोधावलदेव ने भी शुभ दिन देख कुमार शशांक को साथ ले पाटलिपुत्र से प्रस्थान किया। महाराजाधिराज की आज्ञा से राजधानी अनेक प्रकार से सजाई गई। पूर्व तोरण से होकर दो सहò अश्वारोही सेना के साथ युवराज ने बंगदेश की यात्रा की। माधववर्म्मा और अनन्तवर्म्मा उनके पार्श्वचर होकर चले। वृद्ध सम्राट ने तोरण तक आकर अपने बाल्यसहचर यशोधावलदेव के हाथ में पुत्र को सौंपा। उनकी बाईं ऑंख फरक रही थी। यशोधावलदेव उन्हें ढाँढ़स बँधाकर विदा हुए।
युवराज ठीक समय पर मण्डलादुर्ग पहुँच गए। पदातिक सेना लेकर नरसिंहदत्ता गौड़देश में जा निकले। वे मार्ग में मण्डलादुर्ग को छोड़ते गए। गौड़ उस समय एक छोटा सा नगर था, एक प्रदेश मात्रा की राजधानी था। नावों का बेड़ा जब गौड़ पहुँचा तब गौड़ीय महाकुमारामात्य1 ने बड़े समारोह के साथ युवराज की अभ्यर्थना की। घाट की नावों पर रंग बिरंग की पताकाएँ फहरा रही थीं, नगर के मार्गों पर स्थान स्थान पर फूलपत्तो से सजे हुए तोरण बने थे। सन्धया होते होते दीपमाला से गौड़ नगर जगमगा उठा। गौड़ की बहुत सी सुशिक्षित सेना आपसे आप साम्राज्य की सेना के साथ हो गई। समुद्रगुप्त के वंशधार स्वयं विजययात्रा के लिए निकले हैं यह सुन दल के दल गौड़ीय अमात्य अपनी अपनी शरीररक्षी सेना लेकर गरुड़धवज के नीचे आ जुटे। युवराज जिस समय गौड़ देश से चले उस समय उनके साथ दो सह के स्थान पर दस सह अश्वारोही सेना हो गई।
पौंड्रवर्ध्दनभुक्ति की सीमा पार होने पर विद्रोही सामन्तों का शासन आरम्भ हुआ। निरीह प्रजा ने बड़े आनन्द से सम्राट के पुत्र की अभ्यर्थना की। पदातिक सेना गाँव पर गाँव अधिकार करती चली। दो एक स्थान पर कुछ भूस्वामियों ने मिट्टी के कोट के भीतर से साम्राज्य की सेना को रोकने का प्रयत्न किया, पर यशोधावल ने उनके गढ़ों पर अधिकार करके उन्हे ऐसा कठोर दण्ड दिया कि अधिकांश महत्तर2 और महत्व अधीन होकर महानायक की शरण में आए। इस प्रकार मेघनाद के पश्चिम तट तक सारा प्रदेश अधिकार में आ गया। पूस के अन्त में मेघनाद के तट पर सारी पदातिक, अश्वारोही और नौसेना इकट्ठी हुई। बहुदर्शी महानायक ने शरण मे आए हुए सामन्तों को फिर अपने अपने पदों पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से बहुत दिनों के संचित राजस्व का युवराज के सामने ढेर लगा दिया। लाख से ऊपर सुवर्णमुद्रा पाटलिपुत्र भेजी गई। पराजित सामन्तों की दशा सुनकर मेघनाद के उस पार के सामन्त भी धीरे धीरे महानायक के पास दूत भेजने लगे।
मेघनाद के पूर्व तट तथा समुद्र से लगे हुए समतट प्रदेश पर जिन सामन्त राजाओं का अधिकार था वे अधिकतर महायान शाखा के बौद्ध थे और ब्राह्मणों के घोर विद्वेषी थे। पश्चिम तट के आसपास के सामन्त राजा भी बौद्ध थे पर ब्राह्मणों से उन्हें द्वेष नहीं था क्योंकि वे बहुत काल से ब्राह्मणों के साथ रहते आए थे।

1. शासनकत्तरा की उपाधि।
2. महत्तार = जमींदार।
3. महत्ताम = उच्च वर्ग के भूपधामी, तअल्लुकेदार।
उनके भाव कुछ उदार थे। उस समय वज्राचार्य्य, शक्रसेन, संघस्थविर बन्धुगुप्त आदि बौद्ध संघ के नेता बंगदेश में पहुँच गए थे। उनके उद्योग से विद्रोहियों को थानेश्वर से बहुत कुछ धान और उत्साह मिलता था। कान्यकुब्ज में बुद्धभद्र और स्थाण्वीश्वर में अमोघरक्षित, शक्रसेन और बन्धुगुप्त आर्यर्वत्त में एक छात्र बौद्ध राज्य प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न कर रहे थे। बंग और समतट प्रदेश के सामन्तों को दूत भेजते देख युवराज ने सोचा कि अब बहुत सहज में बंगदेश पर अधिकर हो जायगा पर व्यवहारकुशल वृद्ध महानायक का ऐसा विश्वास नहीं था। वे जानते थे कि इधर मेघनाद के पश्चिम तट पर तो केवल सामन्त राजा ही विद्रोही हो गए हैं पर नद के उस पार के सामान्य किसान तक गुप्त साम्राज्य के विरोधी हैं।
मेघनाद के तट पर शिविर में यशोधावलदेव को संवाद मिला कि उत्तर में कामरूप के राजा खुल्लमखुल्ला विद्रोहियों की सहायता कर रहे हैं। कामरूप के भगदत्तावंशीय राजाओं के साथ गुप्तराजवंश का बहुत दिनों से झगड़ा चला आता था। इस झगड़े के कारण बंग और कामरूप की सीमा पर का बहुत सा उपजाऊ प्रदेश उजाड़ जंगल हो रहा था। सम्राट महासेन गुप्त ने युवावस्था में कामरूपराज सुस्थितवर्म्मा को पराजित करके कुछ काल के लिए शान्ति स्थापित की थी। सुस्थितवर्म्मा के पुत्र सुप्रतिष्ठितवर्म्मा के राजत्वकाल में इधर गुप्तसम्राट के साथ कोई झगड़ा न था। पर बंग में युद्ध छिड़ जाने पर कामरूपराज चुपचाप न बैठेंगे, यह बात यशोधावलदेव सम्राट से कह आए थे। मेघनाद के किनारे सारी सेना पड़ाव डाले यों ही दिन काट रही थी। यशोधावलदेव कामरूपराज की गतिविधि का ठीक ठीक पता पाए बिना मेघनाद के पार उतरना ठीक नहीं समझते थे। अत: कामरूपराज के प्रत्यक्ष शत्रुताचरण का संवाद पाकर वे एक प्रकार से निश्चिन्त हुए।
यशोधावलदेव ने गुप्तचरों के मुँह से सुना कि सुप्रतिष्ठितवर्म्मा के छोटे भाई महाराज पुत्र भास्करवर्म्मा बंगदेश के विद्रोहियों की सहायता के लिए ससैन्य बढ़ रहे हैं। अग्रगामी कामरूपसेना ब्रह्मपुत्र का पश्चिमी किनारा पकड़े जल्दी जल्दी बढ़ती आ रही है। भास्करवर्म्मा अपने द्वितीय सेनादल के साथ बंगदेश में आ पहुँचे हैं, फिर भी वहाँ के सामन्तगण दूत भेजकर सन्धि की प्रार्थना कर रहे हैं। यशोधावलदेव ने सेनापतियों के साथ परामर्श करने के लिए मन्त्रणा सभा बिठाई। मेघनाद के किनारे आम और कटहल के लम्बे चौड़े वन में सेना डेरा डाले पड़ी थी। एक बड़े भारी आम के पेड़ के नीचे एक नया पटमण्डप खड़ा किया गया। महानायक यशोधावलदेव, युवराज शशांक, नरसिंहदत्ता, माधववर्म्मा, वीरेन्द्रसिंह और अनन्तवर्म्मा उस स्थान पर इकट्ठे हुए। यशोधावलदेव ने सबको उपस्थित दशा समझा कर पूछा ''अब हम लोगों को क्या करना चाहिए?'' युवराज ने तुरन्त उत्तर दिया ''शत्रु की सेना आकर विद्रोहियों से मिले इसके पहले ही दोनों पर आक्रमण हो जाना चाहिए''। महानायक प्रसन्न होकर बोले ''साधु! साधु! पुत्र यही युद्धनीति है। पर यह तो बताओ कि दोनों दलों के मिलने के पूर्व किस उपाय से आक्रमण करके उन्हें पराजित किया जाय''।
''क्यों? आप सेना को दो दलों में बाँट दीजिए। बंगदेश के लिए कोई दो सह अश्वारोही और नावों का सारा बेड़ा रख कर शेष अश्वारोही और पदातिक सेना का आधा कामरूप की ओर भेज दिया जाय''।
''इस सेना का परिचालन कौन करेगा?''
''आपकी आज्ञा हो तो मैं कर सकता हूँ, अथवा नरसिंह या माधव कर सकतेहैं।
''पुत्र! इस युद्ध में तुम्हीं सेनापति होकर जाओ। भगदत्ता का वंश यद्यपि समुद्रगुप्त के वंश के जोड़ का नहीं है, पर बहुत प्राचीन राजवंश है। भास्करवर्म्मा भी अवस्था में तुम्हारे ही समान तरुण हैं। विद्रोह दमन में अर्थ का लाभ तो है, पर उतना यश नहीं है। तुम आगे बढ़कर यदि भास्करवर्म्मा को पराजित कर सकोगे तो युद्ध शीघ्र ही समाप्त हो जायगा। सबकी सब सेना यदि एक साथ बंगदेश पर आक्रमण करेगी तो विद्रोह का दमन करने में अधिक दिन न लगेंगे। यदि किसी कारण से तुम पराजित हुए तो तुम्हारी रक्षा के लिए मैं पहुँच जाऊँगा। तुम्हारे साथ कौन कौन जायगा?''
नरसिंह, माधव, वीरेन्द्र, वसुमित्र इत्यादि सबके सब एक स्वर से बोल उठे ''मैं जाऊँगा''। पीछे से नितान्त नवयुवक अनन्तवर्म्मा भी बोल उठे ''प्रभो! मैं भी जाऊँगा?'' यशोधावल ने हँसकर कहा ''भाई! तुम लोग सबके सब चले जाओगे तो फिर मेरे साथ यहाँ कौन रहेगा?''
महानायक की इस बात पर सब ने सिर नीचा कर लिया, कोई कुछ न बोला। यशोधावलदेव बोले ''सुनो, तुम सब लोग अभी नवयुवक हो। युवराज के साथ किसी पुराने और अनुभवी सैनिक को जाना चाहिए व उनके साथ वीरेन्द्रसिंह जायँगे। नरसिंह, माधव और अनन्त इन तीनों में से कोई एक और भी जा सकता है।''
बहुत तर्क वितर्क के पीछे स्थिर हुआ कि नरसिंहदत्ता ही कुमार के साथ यात्रा करें। उसी समय पीछे से अनन्तवर्म्मा बोल उठे ''प्रभो! मुझे भी आज्ञा दीजिए, मैं भी युवराज के साथ युद्ध में जाऊँगा''। यशोधावलदेव ने पूछा ''अनन्त! तुम जाकर क्या करोगे?'' उनका इतना आग्रह देख युवराज ने उन्हें भी साथ चलने के लिए कहा।
दूसरे दिन बड़े तड़के दस सह पदातिक, आठ सह अश्वारोही और पचास नावें लेकर युवराज ने यात्रा की।
नौसेना धीरे धीरे चलने लगी। युवराज नरसिंहदत्ता को शंकरनद के किनारे प्रतीक्षा करने के लिए कहकर अश्वारोही सेना लेकर आगे बढ़े। उस समय कामरूप की सेना सीमा लाँघकर बंगदेश के उत्तर प्रान्त के गाँवों में लूटपाट कर रही थी। पर भास्करवर्म्मा अब तक शंकरनद के इस पार तक नहीं पहुँच सके थे। इधर युवराज के साथ जो लोग आए थे उनमें से अधिकांश लोग गौड़ के थे और अपना सारा जीवन युद्ध में ही बिता चुके थे। शत्रुसेना को बेटक लूटपाट में लिप्त देख युवराज और वीरेन्द्रसिंह गौड़ीय सामन्तों के परामर्श के अनुसार सारी सेना लेकर उस पर टूट पड़े। कामरूप सेना इधर उधर कई खण्डों में होकर लूटपाट कर रही थी। उसके सेनापतियों को युवराज के चलने का संवाद मिल चुका था पर वे इतनी जल्दी सीमा पार करके आ धामकेंगे इस बात का उन लोगों को स्वप्न में भी धयान न था। अकस्मात् इतने अश्वारोहियों से घिरकर कामरूप सेना बार बार परास्त हुई। जो सेना बची वह लूट का सारा धान छोड़छाड़ कर भागी। सेनापतियों ने बहुत यत्न किया पर सेना एकत्र न हुई।
अन्त में परास्त कामरूप सेना शंकरनद के किनारे फिर इकट्ठी हुई। पर बार बार हार खाते खाते वह इतनी व्याकुल हो गई कि वीरेन्द्रसिंह केवल दो सह अश्वारोही लेकर उसे शंकरनद के पार भाग आए। भास्करवर्म्मा ने दूत के मुँह से सुना कि स्वयं युवराज शशांक बड़ी भारी सेना लेकर कामरूप पर चढ़ाई करने आ रहे हैं। वे जल्दी जल्दी बढ़ने लगे। मार्ग में भागते हुए सैनिकों के मुँह से उन्होंने अपनी सेना के हारने की बात सुनी। शंकरनद के किनारे पहुँचकर उन्होंने देखा कि जितने घाट हैं सब पर मागध सेना डटी हुई है, बिना युद्ध के पार जाना असम्भव है।
एक लाख से ऊपर सेना लेकर युवराज भास्करवर्म्मा ने शंकरनद के उत्तर तट पर स्कन्धवार स्थापित किया। वे वीर पुत्र थे। वे उसी समय जिस प्रकार से होकर नदी पार करना चाहते थे; पर युद्ध मे निपुण सेनापतियों के बहुत समझाने पर वे रुक गए। उन्होंने कहा कि बहुत दूर से चल कर आने के कारण सेना थकी हुई है। पराजित सेना ने आकर यह बात फैला रखी है कि मगध साम्राज्य की सेना दुर्जय है और युवराज शशांक में कोई अद्भुत दैव शक्ति है। शंकरनद बहुत चौड़ा न होने पर भी गहरा और तीव्र वेग का है। इसे पार करना सहज नहीं है। जबकि उस पार शत्रु सेना का अधिकार है तब अपनी सेना को बिना विश्राम दिए पार उतारने की चेष्टा करना ठीक नहीं है। युवराज भास्करवर्म्मा तरुण होने पर भी धीर, शान्त और युद्ध विद्या में दक्ष थे। वृद्ध सेनापतियों की बात मान उन्होंने शंकरनद के किनारे ही पड़ाव डाला।
उस पार डेरों को खड़े होते देख युवराज शशांक समझ गए कि भास्करवर्म्मा सुयोग देख रहे हैं। तीन दिन तीन रात दोनों पक्ष की सेनाएँ तट पर पड़ी एक दूसरे के आक्रमण का आसरा देखती रहीं। चौथे दिन बड़े सबेरे मगध सेना ने उठ कर देखा कि उस पार डेरों की संख्या कुछ कम हो गई है। शशांक समझ गए कि कामरूप की सेना नद उतरने की चेष्टा कर रही है, और युद्ध विद्याविशारद भास्करवर्म्मा अपनी सेना को बहुत से खण्डों में बाँटकर एक ही समय में अनेक स्थानों से उसे उतारने का यत्न करेगे। युवराज और वीरेन्द्रसिंह चिन्ता में पड़ गए। बात यह थी कि नरसिंहदत्ता सेना लेकर अब तक न पहुँच सके थे।
दोनों ने लेख लगाकर देखा कि घायल और निकम्मी सेना को छोड़ साढ़े सात हजार अश्वारोही बच रहे हैं। इस सेना को दो भागों में बाँट कर युवराज और वीरेन्द्रसिंह कामरूप की एक लाख सेना को रोकने के लिए तैयार हुए। वीरेन्द्रसिंह और गौड़ीय सामन्तों ने बहुतेरा समझाया पर युवराज शशांक ने युद्ध क्षेत्र से हटना स्वीकार न किया। वीरेन्द्रसिंह आदि ने समझ लिया कि मुट्ठी भर सैनिक लेकर कामरूप की इतनी बड़ी सेना का सामना करना पागलपन है और इसका परिणाम मृत्यु है। उन लोगों ने यशोधावलदेव के पास एक अश्वारोही और नरसिंहदत्ता के पास एक सामन्त को चटपट भेजा। नरसिंहदत्ता पदातिक सेना लिए अभी चालीस कोस पर थे और यशोधावलदेव का शिविर मेघनाद के तट पर था। शंकरनद से शिविर एक महीने का मार्ग था।
सामन्तों ने जब देखा कि युवराज किसी प्रकार युद्ध क्षेत्र से न हटेंगे तब वे भी उनके साथ मरने के लिए प्रस्तुत हुए। प्रधान सामन्त, नायकों के हाथ से सैन्य परिचालन का भार देकर, युवराज के शरीररक्षी दल में जा मिले। सौ शरीर रक्षियों के स्थान पर तीन सौ शरीररक्षी साथ लेकर युवराज शिविर से निकल पड़े। विदा होते समय ऑंख में ऑंसू भरे वीरेन्द्रसिंह युवराज का हाथ थामकर बोले ''कुमार! यदि लौटकर मुझे इस स्थान पर न देखना तो जान लेना कि वीरेन्द्रसिंह जीता नहीं है। यदि कभी देश लौटकर जाना तो महानायक से कहना कि महेन्द्रसिंह का पुत्र उनकी सेवा में जीवन देकर कृतार्थ हुआ। एक अश्वारोही भी प्राण रहते घाट पर से न हटेगा''।
युवराज चार हजार से भी कुछ कम सवार लेकर पर्वत की ओर चले। उस समय शंकरनद के दोनों ओर घना जंगल था। ब्रह्मपुत्र के संगम से लेकर दो तीन कोस तक के बीच केवल दो तीन स्थानों को छोड़ और कहीं से नद पार नहीं किया जा सकता था। युवराज के शिविर से निकलने पर आकाश बादलों से ढक गया। सेनादल धीर -धीरे नदी का किनारा पकड़े चलने लगा। शिविर से बारह कोस निकल आने पर कामरूप की सेना की आहट मिली। कुछ और बढ़ने पर दिखाई पड़ा कि प्राय: दस हजार सेना नद के उस पार एकत्र है। सेना के लोग वन से लकड़ी ला लाकर सेतु बाँधने का उद्योग कर रहे हैं। उस स्थान पर नद दो चट्टानों के बीच से होकर बहता था, इससे उसका पाट चौड़ा न था। युवराज ने सेना ठहराकर सामन्तों से परामर्श किया। सब ने एक स्वर से कहा ''इस स्थान पर तो बहुत थोड़ी सेना लेकर बहुत बड़ी सेना का मार्ग रोका जा सकता है''। उनके उपदेश के अनुसार युवराज उस स्थान पर एक हजार अश्वारोही रखकर शेष सेना को लेकर आगे बढ़े।
सन्धया हो जाने पर युवराज ने नदी तट पर विश्राम के लिए शिविर खड़ा कराया। साथ में डेरा केवल एक ही था। युवराज ने सामन्तों और नायकों सहित उसमें आश्रय लिया। सैनिक लोग पेड़ों के नीचे ठहर कर भीगने लगे। वन में कहीं सूखी लकड़ी भी न मिली कि आग जलाते। रात अधिक बीतने पर मूसलाधार पानी बरसने लगा। माघ का महीना था, टिकने का कहीं ठिकाना न पाकर सेना ने अत्यन्त कष्ट से रात काटी। सबेरा होते ही युवराज फिर आगे बढ़े। पानी अपनी धार बाँधकर बरस रहा था, सारा वन जल से भर गया था। तुषार सी ठण्डी वायु प्रचण्ड वेग से बह रही थी इससे घोड़ों को दौड़ाना असम्भव हो रहा था। इस प्रकार दो पहर तक चलकर युवराज की सेना जंगल के बाहर हुई। नायकों ने देखा कि सामने भारी मैदान है और हरे भरे खेत दूर तक फैले हुए हैं। नदी का पाट उस स्थान पर चौड़ा था, पर गहराई अधिक नहीं जान पड़ती थी। उस पार के हरे भरे मैदान में सेना का पड़ाव दिखाई पड़ता था। देखने से पचास हजार सेना का अनुमान होता था। युवराज के सेनानायकों ने थकी माँदी सेना को नदी तट पर एकत्र किया। भूख से व्याकुल और शीत से ठिठुरे हुए सैनिक घोड़ों पर से उतर युद्ध के लिए खड़े हुए। पर युद्ध करता कौन? उस पार शत्रु के शिविर में तो कहीं कोई मनुष्य दिखाई ही नहीं पड़ता था।
तीसरा पहर बीत जाने पर एक अश्वारोही ने आकर युवराज को संवाद दिया कि कई ग्रामीण उनसे मिलना चाहते हैं। युवराज ने उन्हें सामने लाने के लिए कहा। सैनिक तुरन्त कई नाटे और चपटी नाकवाले किसानों को सामने लाए। उन्होंने हाथ जोड़कर निवेदन किया ''हजारों घोड़े खेती का सत्यानाश कर रहे हैं। यदि दया करके उन्हें खेतों से हटाने की आज्ञा दी जाय तो हम लोग सैनिकों और घोड़ों के लिए पूरा पूरा भोजन और दाना चारा अभी पहुँचा जायँ''। युवराज की आज्ञा से भूखे घोड़े खेतों से हटा लिए गए। ग्रामवासी अनेक आशीर्वाद देते हुए बहुत सा अन्न और चारा लेकर आए। आहार मिलने से घोड़ों और सैनिकों की रक्षा हुई। सन्धया होते होते नद के दोनों तटों के हजार स्थानों पर अलाव जले। पानी लगातार बरस रहा था। उस दिन भी युद्ध न हुआ।
सैनिकों ने किनारे के जंगल से लकड़ी ला लाकर बहुत से झोपड़े खड़े किए। दो पहर रात गए युवराज और अनन्तवर्म्मा डेरे से निकल कर लकड़ी के घर में गए। आकाश में अब तक बादल घेरे हुए थे। वायु का वेग बढ़ गया था, पर पानी बहुत कुछ थम गया था। युवराज ने पूछा ''अनन्त! जान पड़ता है कि नदी बढ़ आया है''। अनन्तवर्म्मा देखकर आए और कहने लगे, ''हाँ, बहुत बढ़ आया है''। युवराज बोले ''अच्छी बात है, तुम यहाँ आओ''।
रात के पिछले पहर दृष्टि बन्द हुई, हवा भी रुकी और नदी का जल भी धीरे धीरे घटने लगा। युवराज ने सेनानायकों को युद्ध के लिए प्रस्तुत होने की आज्ञा दी। नद के किनारे रक्षा के लिए अश्वारोहियों का प्रयोजन नहीं था इससे युवराज की आज्ञा से पाँच सौ अश्वारोही शेष सेना के घोड़ों को लेकर वन के भीतर जा रहे। ढाई हजार सेना युद्ध के लिए प्रस्तुत होकर नदी के तट पर आ खड़ी हुई।
सबेरा होने के पहले ही कामरूप की सेना नद पार करने के लिए उठ खड़ी हुई। स्वयं भास्करवर्म्मा उस सेनादल का परिचालन करते थे। वे रात को आग जलती देख समझ गए थे कि उस पार शत्रु सेना पहुँच गई है। सर्य्योदय के पहले ही उन्होंने सेना को बढ़ने की आज्ञा दी। सह सैनिक जय ध्वनि करते हुए एक साथ नदी के शीतल जल में उतरे।

दसवाँ परिच्छेद
शंकरनद का युद्ध

दो दिन से आज सूर्य्यदेव ने पूर्व की ओर दर्शन दिए हैं। भास्करवर्म्मा की सेना का अधिकांश भाग नदी के बीच धारा में पहुँच चुका है। दूसरी ओर युवराज शशांक अपनी दो हजार सेना लिए पत्थर की चट्टान के समान शत्रु को रोकने के लिए निश्चल भाव से खड़े हैं। अश्वारोही सेना के पास धानुष बाण तो रहता नहीं कि वह दूर से शत्रु सेना की कुछ हानी कर सके। इससे वे चुपचाप डटे रहे। ज्योंही कामरूप की सेना पास पहुँची कि युवराज की सेना जय ध्वनि करती हुई वेग से आगे बढ़ी। जैसे मेघों के संघर्ष से घोर गर्जन होता है वैसी ही दो सेनादलों के संघर्ष से अस्त्र शस्त्रो की भीषण झनकार उठी। कामरूप की सेना आगे न बढ़ सकी, मागध सेना के आक्रमण के आघात से पीछे हटी। किन्तु पीछे खचाखच भरी हुई सेना ने उसे फिर आगे बढ़ाया। कामरूप सेना ने फिर पार उतरने का उद्योग किया, पर मागध सेना ने उसे फिर पीछे जल में ठेल दिया। किन्तु कामरूप के वीर सहज में हटनेवाले नहीं थे। बड़े तीव्र वेग से कई हजार सेना एक साथ मुट्ठी भर मागध सेना पर टूटी, पर फिर हार खाकर पीछे हटी। दो हजार मागध वीर चट्टान की तरह अड़े रहे। कई हजार सेना एक साथ आक्रमण करके भी उन्हें एक पग पीछे न हटा सकी। विजय की आशा छोड़ वे मरने मारने के लिए खड़े थे। उनके जीते जी उन्हें वहाँ से हटा दे, जान पड़ता था कि ऐसी सेना उस समय पृथ्वी पर न थी।
नदी के उस पार हाथी पर बैठे युवराज भास्करवर्म्मा सेना का परिचालन कर रहे थे। अपनी सेना को बार बार पीछे फिरते देख क्रोध और क्षोभ से अधीर होकर उन्होंने हाथीवान को हाथी बढ़ाने के लिए कहा। हाथी पानी में उतरा, पर पानी सुड़क कर ही वह अचल होकर खड़ा हो गया। हाथीवान ने बहुत चेष्टा की पर उसे आगे न बढ़ सका। हाथी अंकुश की चोट खा खाकर चिग्घाड़ने लगा, पर एक पैर भी आगे न रख सका। भास्करवर्म्मा हाथी की पीठ पर से कूद पड़े और एक सेनानायक से घोड़ा लेकर उस पर सवार हो गए। इतने ही में हजारो वज्रपात के समान ऐसा घोर और भीषण शब्द हुआ कि सब के सब सन्नाटे में आ गए। पक्षी अपने अपने घोंसलों को और पशु जंगल की झाड़ियों को छोड़ इधर उधर भागने लगे। युवराज भास्करवर्म्मा को पीठ पर लिए घोड़ा नदी का तट छोड़ एक ओर भाग निकला। लाख चेष्टा करके भी भास्करवर्म्मा उसे न फेर सके।
भयंकर शब्द सुनकर दोनों पक्षों की सेना खड़ी रही। उठे हुए खड्ग उठे ही रह गए, लम्बे लम्बे भाले लिए गौड़ीय सैनिक चकपकाकर चारों ओर ताकने लगे। युद्ध थम गया। सैनिकों ने चकित होकर देखा कि नदी में कुछ दूर पर पहाड़ के समान खड़ा जल वेग से बढ़ता चला आ रहा है, सैकड़ों पेड़, पशु, पक्षी धारा में पड़कर बहे चले आ रहे हैं। डर के मारे गौड़ीय सेना कगार पर जा खड़ी हुई। देखते देखते जलसमूह आ पहुँचा। क्षण भर में कामरूप की विशाल सेना न जाने क्या हो गई। गौड़ीय सेना ने जहाँ तक हो सका शत्रु के सैनिकों का उध्दार किया। जल बराबर बढ़ता हुआ देख युवराज ने सैनिकों को घोड़ों पर सवार हो जाने की आज्ञा दी। देखते देखते नदी के दोनों ओर की भूमि दूर तक जलमग्न हो गई। उस पार केवल दो या तीन हजार सेना बच गई थी, वह भी भाग खड़ी हुई। गौड़ीय सेना ऊँची भूमि पर जा टिकी।
पहले घाट पर युवराज जो हजार अश्वारोही छोड़ आए थे वे यथासाधय सेतु बाँधाने में बाधा दे रहे थे। इतने में बाढ़ आकर पुल को बहा ले गई। दोनों पक्षों की सेना ने ऊँची भूमि का आश्रय लेकर प्राण बचाए। दूसरे दिन सबेरे जब युवराज की सेना आकर उनके साथ मिली तब नदी के उस पार कोई नहीं दिखाई पड़ता था। बात यह थी कि भास्करवर्म्मा के साथ की सेना का भागना सुनकर उस स्थान पर जो सेना थी वह भी रात को ही भाग गई थी।
वीरेन्द्रसिंह शत्रु सेना के आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर कामरूप की सेना ने नदी पार करने का कोई प्रयत्न नहीं किया। बाढ़ का जल जिस समय अकस्मात् आकर फैल गया, और सैकड़ों सैनिकों की मृत देह आ आकर किनारे पर लगने लगी उस समय कामरूप की सेना अपने युवराज को इधर उधर ढूँढ़ने लगी। चौथे दिन सबेरे दूर पर कलरव और जयध्वनि सुनकर वीरेन्द्रसिंह युद्ध के लिए तैयार हुए। वे समझे कि युवराज की जो थोड़ी सी सेना थी वह खेत रही और भास्करवर्म्मा अब उन पर आक्रमण करने आ रहे हैं। पर जय ध्वनि जब और पास सुनाई पड़ी तब उन्होंने सुना कि सम्राट महासेनगुप्त के नाम पर जयध्वनि हो रही है। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। देखते देखते युवराज की सेना शिविर में आ पहुँची। साढ़े सात हजार कण्ठों की जयध्वनि नद के पार तक गूँज उठी। उस पार भास्करवर्म्मा का सेनापति समझा कि कामरूप की सेना हार गई। वह चटपट अपने साथ की सेना सहित भाग खड़ा हुआ। युवराज के मुँह से युद्ध की सारी व्यवस्था सुन वीरेन्द्रसिंह समझ गए कि जय नहीं हुई है, भगवान् ने रक्षा की है।
शंकरनद के युद्ध के एक सप्ताह पीछे संवाद आया कि नरसिंहदत्त पदातिक सेना लेकर पहुँच गए हैं और कल तक शिविर में आ जायँगे। नदी का जल थमते ही वीरेन्द्रसिंह ने उस पार के शत्रु शिविर पर अधिकार किया नरसिंहदत्ता के आगमन का समाचार पाकर युवराज ने अधिकांश सेना लेकर शंकरनद के उत्तर तट पर शिविर स्थापित किया।
दूसरे दिन पहर दिन चढ़ते चढ़ते पदातिक सेना आ पहुँची और नद पार करके उत्तर तट पर उसने पड़ाव डाला। बार बार के पराजय और आकस्मिक विपत्ति से घबराकर भास्करवर्म्मा की बची बचाई सेना तितर बितर होकर भागी। सेना का छत्रा भंग देख उन्होंने बहुत चेष्टा की पर फिर सेना एकत्र न हुई। शंकरनद के युद्ध के एक मास पीछे पचीस हजार सेना लेकर भास्करवर्म्मा युवराज शशांक पर आक्रमण करने के लिए चले। शशांक उस समय भी शंकरनद के तट पर ही जमे रहे। वे कामरूप राज्य पर चढ़ाई करने की तैयारी कर रहे थे पर सेना की संख्या बहुत थोड़ी बताकर नरसिंहदत्त और वीरेन्द्रसिंह ने उन्हें रोक रखा।
शिविर से थोड़ी ही दूर पर सेना ने अड्डा जमाया। नरसिंह की पदातिक सेना पर्वत की चोटियों और संकीर्ण पथों पर अधिकार जमाकर बैठी। वीरेन्द्रसिंह और शशांक अश्वारोही सेना लेकर पर्वत की घाटी में जा छिपे। भास्करवर्म्मा जब घाटी पार करने के लिए बढ़े नरसिंहदत्त ने अपनी पदातिक सेना लेकर उन्हें कई बार पीछे हटा दिया। कामरूप सेना हारकर पीछे हट रही थी इतने में शशांक और वीरेन्द्रसिंह के अश्वारोही उस पर बिजली की तरह जा पड़े। भास्करवर्म्मा की सेना ठहर न सकी, तितर बितर हो गई। कई प्रभुभक्त सामन्तों ने जब देखा कि युद्ध अब समाप्त हो गया तब वे भास्करवर्म्मा को जबरदस्ती हाथी पर बिठा कर रणभूमि छोड़कर भागे।
युवराज शशांक और वीरेन्द्रसिंह ने भागती हुई शत्रुसेना का पीछा करके हजारों सैनिकों को बन्दी किया। सैकड़ों वीर मारे गए। पचीस हजार की चौथाई सेना भी कामरूप लौटकर न गई। युद्ध समाप्त हो जाने पर कर्तव्य निश्चित करने के लिए युवराज ने मन्त्रणा सभा बुलाई। शंकरनद के किनारे भास्करवर्म्मा के शिविरों में युवराज, वीरेन्द्रसिंह, नरसिंहदत्त और गौड़ देश के सामन्त लोग एकत्र हुए। शशांक ने पूछा ''अब क्या करना चाहिए? कामरूप पर चढ़ाई करना उचित होगा या नहीं?''
वीरेन्द्र -यही मुट्ठी भर सेना लेकर? असम्भव!
नरसिंह -अठारह हजार सेना लेकर तो एक लाख सेना भगा दी गई और कामरूप पर चढ़ाई करना असम्भव है?
वीरेन्द्र -तुम लोग पागल हुए हो? पर्वतों से घिरे हुए कामरूप देश पर चढ़ाई एक लाख सेना लेकर भी नहीं हो सकती और नीलांचल पर आक्रमण करने के लिए तो नावों का बहुत बड़ा बेड़ा भी चाहिए।
शशांक-मैं यशोधावल को लिख भेजता हूँ, वे वसुमित्र के साथ सारी नौसेना भेज देंगे।
वीरेन्द्र -बंगदेश का क्या किया जायगा। पीछे शत्रु छोड़कर आगे दूर देश में बढ़ना रणनीति के विरुद्ध है।
गौड़ देश के सामन्तों ने एक स्वर से वीरेन्द्रसिंह की बात का समर्थन किया; उन्होंने कहा ''कामरूप पर चढ़ाई करने का मुख्य उद्देश्य तो सफल हो गया। जो सेना बंगदेश में विद्रोहियो को सहायता देने जाती थी वह तो एक प्रकार से निर्मूल हो गई। अब जब तक भास्करवर्म्मा फिर से नई सेना न खड़ी करेंगे वे युद्ध के लिए नहीं आ सकते। अब इस समय चटपट लौटकर बंगदेश के विद्रोह का दमन करना चाहिए।''
शशांक ने विवश होकर कामरूप की चढ़ाई का संकल्प त्याग दिया। यह स्थिर हुआ कि एक सेनानायक दो हजार अश्वारोही और दो हजार पदातिक लेकर भास्करवर्म्मा की गतिविधि पर दृष्टि रखने के लिए ब्रह्मपुत्र के तट पर रहे, शेष सेना लौट चले। मन्त्रणा सभा विसर्जित होने पर वीरेन्द्रसिंह ने कहा ''कुमार! मैंने भास्करवर्म्मा के शिविर में एक पेटी के भीतर कई रत्न पाए हैं, अब तक आपको दिखाने का अवसर नहीं मिला था''। युवराज और नरसिंहदत्त बड़ा आग्रह प्रकट करते हुए वीरेन्द्रसिंह के डेरे में गए। वीरेन्द्रसिंह ने कपड़े के एक बटन के भीतर से एक छोटासा चाँदी का डिब्बा निकालकर दिखाया और पूछा ''इसके भीतर क्या है कोई बता सकता है?'' युवराज बोले ''न। डिब्बे के ऊपर कुमार भास्करवर्म्मा का नाम तो दिखाई पड़ता है''। वीरेन्द्रसिंह ने डिब्बा खोलकर उसके भीतर से कई फटे हुए भोजपत्र बाहर निकाले। उन्हें देख कुमार बोल उठे ''ये तो चिट्ठियाँ जान पड़ती हैं। किसकी हैं?''
''पढ़कर देख लीजिए''।
युवराज पढ़ने लगे-
''आशा नहीं है। हमारी सेना शीघ्र चरणाद्रिगढ़ पर आक्रमण करेगी। माधव आजकल यहाँ आए हैं। देखना, यशोधावल और शशांक लौटकर न जाने पाएँ। मामा के जीते मैं प्रकाश्य रूप में शत्ु ताचरण नहीं कर सकता।
प्रभाकरवर्ध्दन''
पत्रा पढ़ते पढ़ते युवराज शशांक का रंग फीका पड़ गया। यह देख वीरेन्द्रसिंह बोले ''कुमार! अभी दो पत्र और हैं''। युवराज ने बड़ी कठिनता से अपने को सँभालकर दूसरा पत्र हाथ में लिया और पढ़ने लगे-
''महाराज ग्रहवर्म्मा
लाख सुवर्ण मुद्राएँ मिलीं
स्थाण्वीश्वर से महाराजाधिराज का एक पत्र आया है। यदि किसी उपाय से शशांक की हत्या करा सकें तो युद्ध अभी समाप्त हो जाय। फिर यशोधावल हम लोगो के हाथ से निकलकर नहीं जा सकता।
आशीर्वादक
महास्थविर बन्धुगुप्त''
''तो बन्धुगुप्त आजकल बंगदेश में है''।
''अवश्य। यह पत्र महानायक के हाथ में देना चाहिए''।
''अभी एक अश्वारोही भेजो''।
''न। हम लोग अपने साथ ले चलेंगे। और एक पत्रा है, देखिए''।
युवराज फिर पढ़ने लगे-
''इस समय पाटलिपुत्र में दो तीन हजार से अधिक सुशिक्षित सेना नहीं है। आप यदि युवराज को पराजित कर सकें तो चटपट पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दें। चरणाद्रि के उधर स्थाण्वीश्वर की सेना तैयार है।
आशीर्वादक
कपोतिक महाविहारीय महास्थविर बुद्धघोष''।
पत्रा पढ़कर कुमार उदास हो गए और चिन्ता करने लगे। वीरेन्द्रसिंह और नरसिंहदत्ता उन्हें समझा बुझाकर शिविर में ले गए। दूसरे दिन युवराज और वीरेन्द्रसिंह नरसिंहदत्ता को वहीं छोड़ मेघनाद तटस्थ शिविर की ओर लौट पड़े।

 
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