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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7

शशांक

 भाग - 3

दसवाँ परिच्छेद
तरला का दूतीपन

उस समय पाटलिपुत्र नगर के किनारे किनारे बहुत सी बस्ती हो गई थी। प्राचीन नगर के प्राचीर के भीतर स्थान की कमी होती जाती थी। स्थानाभाव के कारण नगर के दरिद्र श्रमजीवी बाहर बसते थे। बहुत दिनों से नगर प्राचीर के पूर्व और दक्षिण ओर कई टीले बस गए थे। नागरिक उस भाग को उपनगर कहा करते थे। नगर के उत्तर और पश्चिम भागीरथी और सोन की धारा बहती थी। बहुत से लोग इन नदियों के पार भी बसते थे और नित्य सबेरे काम करने नगर में आते और सन्ध्या को लौट जाते थे। दक्खिन के टोले में एक पुराने मन्दिर के सामने कई बौद्धभिक्खु घास के ऊपर बैठे बातचीत कर रहे थे। मन्दिर के पीछे कुछ दूर तक ऊँचा टीला सा चला गया था जिस पर नए पुराने पेड़ों का जंगल लगा था और कहीं कहीं पत्थर के पुराने खम्भे दिखाई पड़ते थे। पहले कभी वहाँ पत्थर का बहुत बड़ा बौद्धमन्दिर था। उसके गिर जाने पर बौद्धभिक्खुओं ने सामने एक छोटा सा मन्दिर उठाकर उसमें प्रतिमा स्थापित कर दी थी। घास पर बैठे जो भिक्खु बातचीत कर रहे थे वे सबके सब तरुण अवस्था के थे। उन्हें देखने से जान पड़ता था कि उन्हें गृहस्थाश्रम छोड़े बहुत दिन नहीं हुए हैं। गृहत्यागी भिक्खुओं में जैसी गम्भीरता होनी चाहिए वैसी उनमें अभी नहीं आई थी।
उनके बीच एक अधोड़ भिक्खु भी बैठा था। अवस्था में उनके जोड़ का न होने पर भी वह उनके साथ मिलकर हँसीठट्ठा करता था। इस भिक्षुमण्डली से थोड़ी दूर पर एक तरुण भिक्खु बैठा था। वह मन ही मन न जाने क्या सोच रहा था जिससे उसके साथियों का हँसीठट्ठा उसके कानों तक नहीं पहुँचता था। भिक्खु लोग उसकी ओर दिखा दिखाकर न जाने क्या क्या कहते और ठट्ठा मार मारकर हँसते थे। किन्तु जिस पर यह सब बौछार हो रही थी उसका धयान कहीं दूसरी ही ओर था, वह मानो कुछ सुनता ही न था।
इसी बीच एक युवती मन्दिर के सामने आ खड़ी हुई। उसे देखते ही भिक्खुओं की हँसी रुक गई। एक ने उस अधोड़ का हाथ दबाकर कहा ''आचार्य्य! जान पड़ता है कि यह युवती तुम्हारी ही खोज में आई है।'' दूसरा भिक्खु उसे रोककर बोला ''तू पागल हुआ है। आचार्य्य अब स्थविर हो गए हैं। युवती स्त्री बूढ़े को खोजकर क्या करेगी?'' पहले भिक्खु की बात तो बूढ़े को बहुत अच्छी लगी, उसका चेहरा खिल उठा पर दूसरे की बात सुनकर उसका मुँह लटक गया, वह मन ही मन जल उठा और बोला ''तू मुझे बूढ़ा कहता है, और एक स्त्री के सामने? मैं अभी तेरे प्राण लेता हूँ।''
पहला भिक्खु-आचार्य्य! बात तो इसने बड़ी बुरी कही। पर उस दिन संघ स्थविर भी मुझसे कहते थे कि आचार्य्य देशानन्द अब वृद्धहुए, वे तरुण भिक्खुओं को शिक्षा देने के योग्य हैं।
वृद्धभिक्षु-स्थविर तेरा बाप, तेरा दादा। तुम सबने क्या मुझे पागल समझ रखा है? अभी मैं उठकर बताता हूँ।
वृद्धदोनों भिक्खुओं की ओर झपटा। सबके सब उसे पकड़कर बिठाने लगे, पर वह किसी की नहीं सुनता था। अन्त में बड़ी बड़ी मुश्किलों से वह शान्त हुआ। युवक भिक्खुओं ने यह बात मान ली कि उन्हीं का वयस् अधिक है, आचार्य्य देशानन्द तरुण हैं। उनके बाल जो थोड़े बहुत पक गए हैं। वह अधिक अधययन से। जिस स्त्री को देखकर भिक्खुमंडली के बीच यह सब झगड़ा खड़ा हुआ था कपड़े लत्तो से वह अच्छी जाति की और किसी धानाढय नागरिक की परिचारिका जान पड़ती थी। गड़बड़ देखकर अब तक वह दूर खड़ी थी। भिक्खुओं को शान्त होते देख वह आगे बढ़कर कुछ पूछा ही चाहती थी कि आचार्य्य सामने आकर बोले ''तुम क्या मुझे ढूँढ़ने आई हो?'' रमणी ने कहा ''नहीं, यहाँ कहीं जिनानन्द भिक्खु रहते हैं?'' उसकी बात सुनकर वृद्धहताश होकर बैठ गया। रमणी फिर पूछने लगी ''यहाँ जिनानन्द भिक्खु रहते हैं?'' आचार्य्य को निरुत्तार देख एक भिक्खु ने उत्तर दिया ''हाँ, रहते हैं।''
रमणी-महाराज! थोड़ा उन्हें मेरे पास भेज देंगे।
भिक्खु-क्यों?
रमणी-काम है।
भिक्खु-क्या काम है, बताओ।
रमणी-बताने की आज्ञा मुझे नहीं है।
भिक्खु-हमारे संघाराम1 में कोई तरुण भिक्खु किसी युवती से एकान्त में नहीं मिल सकता।
रमणी-मैं एकान्त में मिलना नहीं चाहती।
भिक्खु-तो फिर गुप्त बात कहोगी कैसे?
रमणी-मैं पत्रा लाई हूँ।
भिक्खु-लाओ, दो।
रमणी-क्षमा कीजिएगा। जिनानन्द को छोड़ मैं पत्रा और किसी को नहीं दे सकती।
भिक्खु-जिनानन्द भिक्खु को पहचानोगी कैसे?
रमणी-मेरे पास संकेत चिद्द है।
इतने में पीछे से एक भिक्खु पुकार कर बोला 'अरे, ओ जिनानन्द! कुछ देखते सुनते भी हो? क्या एकबारगी समाधि लगा रखी है?''
और भिक्खुओं से दूर जो भिक्खु बैठा कुछ सोच रहा था उसने सिर उठाकर देखा। दूसरा भिक्खु फिर बोला ''यह रमणी तुमसे मिलने आई है। तुम क्या सारी बातें नहीं सुनते थे। इसे देखकर अभी क्या क्या रंग उड़े थे!'' जिनानन्द कुछ नबोला। रमणी को देखते ही वह घबराया हुआ उसके पास गया और बोला ''तरले! तुम कब

1. संघाराम = वह उद्यान या स्थान जहाँ बौध्दों का संघ रहता हो।
आई? क्या सामचार है? रमणी कुछ देर तक उसका मुँह ताकती रही फिर प्रणाम करके बोली ''भैयाजी! नए भेस के कारण मैं पहचान नहीं सकी थी। समाचार बहुत कुछ है, पर ये बाबा लोग भलेमानस नहीं जान पड़ते। चलिए उधर ओट में चलें।'' रमणी मन्दिर के पीछे पेड़ों के झुरमुट की ओर बढ़ी। तरुण भिक्खु भी पीछे पीछेगया।
वृद्धअब तक तो चुपचाप बैठा रहा। पर जिनानन्द और तरला के पेड़ों के झुरमुट में जाते ही उठा और उनकी ओर बढ़ा। उसकी यह लीला देख कई तरुण भिक्खु हँस पड़े। वृद्धने उन्हें घूरकर कहा ''तुम सब अभी बच्चे हो, स्त्री चरित्र क्या जानो। मैं इस कुमार्गी भिक्खु को ठिकाने पर लाने के लिए जाता हूँ।'' भिक्खु हँसते हँसते लोट पड़े। वृद्धने देखकर भी न देखा। वह बाघ की तरह दबे पाँव पेड़ों के बीच दबकता हुआ उन दोनों के पीछे पीछे चला जाता था।
वृद्धके अदृश्य हो जाने पर एक भिक्खु बोला ''यह जिनानन्द कौन हैं, तुम लोग कुछ कह सकते हो।''
दूसरा भिक्खु-रूप रंग तो राजपुत्रो का सा है। वह किसी धानी का पुत्र है इसमें तो कोई सन्देह नहीं।
पहला भिक्खु-जिनानन्द का कोई गूढ़ रहस्य है, जो किसी प्रकार खुलता नहींहै।
दू भिक्खु-यह कैसे कहते हो?
पं भिक्खु-संघस्थविर1 ने तुमसे कुछ कहा नहीं था?
दू भिक्खु-न।
पं भिक्खु-तुम थे नहीं, कहीं गए थे। जिनानन्द जिस दिन आया है उस दिन संघस्थविर ने सबको बुलाकर कहा है कि उस पर बराबर दृष्टि रखना, वह ऑंख की ओट न होने पाए। रात को भी उसकी कोठरी के बाहर दो भिक्खु सोते हैं। न जाने कितने नए भिक्खु आए पर ऐसी व्यवस्था किसी के लिए नहीं की गई थी।
दू भिक्खु-जान पड़ता है कि कोई भारी शिकार है। संघ के जैसे बुरे दिन आज हैं उन्हें देखते नए शिकार की इतनी चौकसी होनी ही चाहिए।
प भिक्खु-यह तो समझता हूँ, पर जिनानन्द का भेद नहीं खुलता। इसके पहले उसके पास और भी पत्र आ चुके हैं।
फूलों की शय्या पर एक भिक्खु लेटा हुआ था। वह घबराकर उठ बैठा और बोला ''अरे सावधान रहना! दूर पर वज्राचार्य्य2 दिखाई पड़ा है।'' उसकी बात सुनते ही सब उठकर खड़े हो गए। देखते देखते पेड़ की डाल कन्धो पर रखे, मैले औरफटे पुराने कपड़े पहने एक वृद्धमन्दिर के सामने आया। उसे देख भिक्खुओं ने साष्टांग

1. संघस्थविर = बौद्धमठाधयक्ष या सम्प्रदाय का नायक।
2. सिद्धभिक्षु = ये सदा हाथ में वज्र लिए रहते थे।
प्रणाम किया। गंगा के किनारे पाठक एक बार उसे देख चुके हैं। वही, जिसने युवराज के सम्बन्धा में भविष्यद्वाणी की थी। वृद्धने पूछा ''देशानन्द कहाँ हैं?''
भिक्षुगण-वन के भीतर गए हैं।
वृद्ध्-संघस्थविर कहाँ हैं?
भिक्षुगण-मन्दिर के भीतर।
वृद्धदेखते देखते वहाँ से चल दिया और दृष्टि के बाहर हो गया।
जंगल के भीतर एक टूटे खम्भे की आड़ में तरला और जिनानन्द खड़े धीरे धीरे बातचीत कर रहे हैं?
तरला-भैयाजी! अब क्या इसी प्रकार दिन काटोगे?
जिना -क्या करूँ? कुछ वश नहीं। इन्होंने मुझे बाँधा तो नहीं रखा है, पर बाँधा रखना इससे कहीं अच्छा था। सदा मेरे पीछे लोग लगे रहते हैं, वे मुझे बराबर दृष्टि के सामने रखते हैं। इससे भाग निकलने का भी कोई उपाय नहीं है।
तरला-तब क्या अब घर न लौटेंगे?
जिना -लौटना यदि मेरी इच्छा पर होता-तो मैं क्या अब तक यहाँ पड़ा रहता?
तरला-तुम्हें संन्यासी बनाकर इन सबों ने क्या पाया है मेरी समझ में नहीं आता। तुम अपने बाप के इकलौते बेटे थे, न जाने किस कलेजे से उन्होंने जीवन भर के लिए तुम्हें छोड़ दिया।
जिना -तरले! उन्होंने क्या लाभ समझकर मुझे भिक्खु बनाया है, यह क्या तुम नहीं जानती? पिता के मरने पर उनकी अतुल सम्पत्ति का उत्ताराधिकारी मैं ही हूँ। यदि मैं घर में रहता तो यूथिका के साथ विवाह करके गृहस्थ होता। पर जिस दिन मैंने संघ में प्रवेश किया, मैं भिक्खु हुआ, उसी दिन से मेरा सब अधिकार जाता रहा, उसी दिन से मानो यह संसार मैंने छोड़ दिया। अब पिता के मरने पर सम्पत्ति पर मेरा कोई अधिकार न रहेगा, ये संन्यासी ही वह सब सम्पत्ति पाएँगे। इसीलिए ये सब मुझे यहाँ ले आए हैं और मेरे ऊपर इतनी कड़ी दृष्टि रखते हैं।
तरला-भैया! हो तो तुम वही वसुमित्र ही!
जिना -अब वह नाम मुँह पर न लाओ, तरला! समझ लो कि सेठ वसुमित्र मर गया, अब तो मेरा नाम जिनानन्द है।
तरला-भैयाजी, ऐसी बात न कहो। यदि इस दासी के तन में प्राण रहेगा तो वसुमित्र यहाँ से निकलेंगे, फिर गृहस्थी में जायँगे और यूथिका से विवाह करके ।
जिना -कहाँ की बात तरला! यह सब दुराशा मात्रा है। दुराशा या दु:स्वप्नभी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार का स्वप्न देखना भी मेरे लिए इस समय पापहै।
तरला-भैयाजी! मक्खीचूस समझकर तुम्हारे पिता का नगर में सबेरे कोई नाम नहीं लेता। न जाने कितने गृहस्थों को तुम्हारे पिता ने राह का भिखारी कर दिया। पहले जब मैं तुम्हारे पिता की निठुराई की बातें सुनती तो मन ही मन कहती कि चारुमित्रा मनुष्य नहीं हैं, पशु हैं। पर अब देखती हूँ कि चारुमित्रा पशु नहीं, पत्थर हैं। पशु के हृदय में भी अपनी सन्तान का स्नेह होता है।
जिना -मेरे पिता एकबारगी हृदयहीन नहीं हैं। उन्हें धान की हाय हाय रहती है सही, पर उनके चित्ता में कोमलता है। तरला! उन्होंने बौद्धसंघ की उन्नति की अभिलाषा से मुझे उत्सर्ग कर दिया है। मेरे धन से बौद्धसंघ की उन्नति हो, यह उनका उद्देश्य है। राजा खुल्लमखुल्ला तो बौद्धविद्वेषी नहीं हैं, पर बौद्धधार्मावलम्बी नहीं हैं। उनके मरने पर कहीं मैं अपना उत्तराधिकार जताकर बौद्धसंघ के साथ कोई झगड़ा न करूँ, इसी डर से पिता ने मुझे मृतक कर दिया। अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि अपना एक मात्रा पुत्र तक, उन्होंने धर्म की उन्नति के लिए उत्सर्ग करके अक्षय पुण्य संचित किया है।
तरला-भैयाजी, मुझसे अब और न कहलाओ। तुम्हारा पिता समझकर मैं उनको कुछ नहीं कह सकती।
कुछ दूर पर सूखे पत्तो पर किसी के पैर की आहट सुनाई पड़ी। जिनानन्द डरकर कहने लगा ''अब चलता हूँ। कोई आ रहा है।''
तरला-कुछ डर नहीं, मैं जाकर देखती हूँ।
एक पेड़ के पीछे खड़ी होकर तरला ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, फिर आकर बोली ''कोई डर नहीं, वही मुँह जला बुङ्ढा है, यहाँ तक पीछे लगा आया है। अब मैं यहाँ न ठहरूँगी। तुम्हें यहाँ सड़ना नहीं होगा, मैं तुम्हें यहाँ से छुड़ा ले जाऊँगी।'' इतना कहकर तरला डग बढ़ाती हुई चली गई। जिनानन्द लम्बी साँस लेकर लौटा और उसने देखा कि कुछ दूर पर देशानन्द तरला के पीछे पीछे चला जा रहा है।



ग्यारहवाँ परिच्छेद
यशोधावल की बात

बौद्ध मन्दिर के भीतर घोर अन्धकार है। घृत का एक दीपक टिमटिमा रहा है, किन्तु उसके प्रकाश में देवप्रतिमा का आकार भर थोड़ा थोड़ा दिखाई पड़ रहा है। सामने पुष्प, गन्धा और नैवेद्य सजाकर रखा है। देखने से जान पड़ता है कि मन्दिर में कोई नहीं है। मन्दिर के एक कोने में एक लम्बे आकार का पुरुष बैठा है। वह न कुछ बोलता है, न हिलता डुलता है; जान पड़ता है कि ध्यानमग्न है। इतने में द्वार पर से किसी ने पुकारा ''स्थविर महाराज मन्दिर में हैं या नहीं?''
भीतर से उत्तर मिला ''कौन?''
''शक्रसेन।''
''भीतर चले आओ''
वही हमारा परिचित वृद्धकन्धो पर पेड़ की डाल रखे मन्दिर में घुसा। लम्बे डीलवाले पुरुष ने पूछा ''वज्राचार्य्य! यह पेड़ की डाल कहाँ पाई?''
''यह मेरा घोड़ा है, इसी के बल से यशोधावल के हाथ से बचकर मैं आ रहा हूँ। नहीं तो अब तक तुम यही सुनते कि वज्राचार्य्य का परिनिर्वाण हो गया।''
''तब क्या तुम कुछ कर न सके?''
''करना धारना तो मैं जानता नहीं, हाँ! शशांक अब तक जीवित है।
''तब तुम गए थे क्या करने?''
''बन्धुगुप्त! मैं क्या करने गया था, इसे जानबूझकर न पूछो। मैं शशांक को मारने गया था, पर मार न सका।''
''क्या दाँव नहीं मिला?''
''दाँव मिला था। शशांक, माधवगुप्त और चित्रा तीनों गंगा किनारे खेल रहे थे। उनके साथ कोई रक्षक भी नहीं था।''
''तब फिर?''
''तब फिर क्या? मार नहीं सका, और क्या? बन्धुगुप्त मेरा हाथ न उठ सका। तुमने जो वज्र मुझे दिया था, वह अब तक वस्त्र के भीतर छिपा है। मैं उसे बाहर न निकाल सका। स्थविर! नरहत्या करने से तुम्हारा हृदय पत्थर का हो गया है, तुम्हारे अन्त:करण की कोमल वृत्तियाँ सब लुप्त हो गई हैं। मैं क्यों लौट आया, यह तुम नहीं समझ सकते। तुम्हारा उपदेश सुनकर मैं शशांक को मारने का दृढ़ निश्चय करके यहाँ से चला था। जिस समय दूर से मैंने उनको असहाय अवस्था में गंगा के बालू पर बैठे देखा था, तब तक भी मैं विचलित नहीं हुआ था। पर जब मैं उनके पास गया तब ऐसा जान पड़ा मानो वज्र की मुट्ठी से किसी ने मेरा हाथ थाम लिया है। तुम्हारे उपदेश के अनुसार शशांक को मैंने उसके जीवन का भीषण भविष्य तो सुना दिया, पर उसकी हत्या न कर सका। स्थविर! भाग्यचक्र में सब बँधे हैं, ललाट में जो लिखा है वह कभी टलने का नहीं। तुम्हारे ऐसे सैकड़ों संघस्थविर, मेरे ऐसे हजारों वज्राचार्य्य मिलकर भी उस चक्र की गति तिल भर फेर नहीं सकते। स्थविर! गंगा की रेत में उस बालक का मुख देखकर समझ लिया कि शक्रसेन या बन्धुगुप्त से उसका एक बाल भी बाँका नहीं हो सकता।''
''तुम भीरु हो, तुम कायर हो, तुम पुरुष नहीं हो। तुम बालक का मनोहर मुखड़ा देखकर मोहित हो गए। मार1 की आसुरी माया ने तुम्हें घेर लिया, इसी से तुम उस बालक की हत्या न कर सके। वज्राचार्य्य! तुम मागधा संघ के मुखिया हो। उत्तरापथ का आर्यसंघ भी तुम जिधर उँगली उठाओ उधर चल सकता है। वज्राचार्य्य!

1. मार = संसार को मोह में फँसानेवाला, जिसने बुद्धभगवान् को सुखभोग के अनेक प्रकार के प्रलोभन दिखाए थे।
क्या तुम भी भाग्यचक्र की ओट लेकर बैठे रहना चाहते हो? शुक्रसेन! भोलेभाले बच्चों और बूढ़ी स्त्रियों को छोड़ इस युग में भाग्यचक्र और मानता कौन है? छि! छि! तुमसे एक सड़ा सा काम न हो सका! आर्यसंघ की उन्नति के लिए तुम एक सामान्य बालक की हत्या तक न कर सके! वज्राचार्य्य! तुम्हें अपना कलंकी मुँह छिपाने के लिए कहीं स्थान न मिलेगा। युग युगान्तर तक, जब तक बौद्धधर्म इस संसार में रहेगा, तुम्हारी अपकीर्ति बनी रहेगी। वृद्ध्! तुम वहीं समा क्यों न गए? कौनसा मुँह लेकर लौट आए?''
''स्थविर! तुम भी वृद्धहुए, बालक नहीं हो। संघ की सेवा करते तुम्हारे बाल पक गए। तुम्हें मैं अधिक क्या समझाऊँ? थोड़ा ऑंख खोलकर देखो, जीव मात्रा भाग्यचक्र में बँधो हैं। यदि भोलेभाले बच्चो और स्त्रियों को छोड़ और कोई भाग्यचक्र नहीं मानता, तो तुम इतनी देर तक गणना करके क्यों मरते रहे? अब तक तुम शशांक की जन्मपत्री फैलाए क्या बैठे हो? बन्धुगुप्त हम दोनों ने एक ही दिन प्रव्रज्या1 ग्रहण की, साथ रहकर आजन्म संघ की सेवा की, सुख दु:ख, संपद् विपद् में बराबर एक दूसरे के पास रहे, तुम क्या मेरा स्वभाव तक भूल गए? बच्चों के गिड़गिड़ाने और स्त्रियों के ऑंसू बहाने पर मुझे कभी विचलित होते देखा है? तुम मुझे व्यर्थ धिक्कारते हो। मुझे पूरा निश्चय है कि शशांक मेरे हाथ से नहीं मारा जा सकता। स्थविर! वह अब बच्चा नहीं है, युवावस्था के किनारे आ रहा है। मुझे उसके मुख पर राजसी गम्भीरता दिखाई दी। डर उसे छू नहीं गया है। वह सब प्रकार से मगध का राजा होने योग्य है। तुम वृथा चेष्टा करते हो। अंग, बंग, कलिंग, गौड़ और मगध में ऐसा कोई नहीं है जो उसकी गति रोक सके।''
इतना कहकर वृद्धबैठ गया। स्थविर के मुँह से कोई शब्द न निकला। बहुत देर पीछे स्थविर ने धीरे से पूछा ''तो क्या गणना मिथ्या है?''
''गणना को मिथ्या कैसे कहूँ! गणना में तुमसे कहीं भूल हुई होगी।''
''अच्छा ठहरो, मैं फिर से गणना करके देखता हूँ''-यह कह संघ स्थविर
ने दीपक की बत्ती उस काई और ताड़पत्र, लेखनी और मसि लेकर वह गणना करने लगा।
आधे दंड के उपरान्त किसी ने आकर बाहर से मन्दिर के द्वार की साँकल खटखटाई। वज्राचार्य्य ने पूछा ''कौन है?'' द्वार पर से वह व्यक्ति बोला ''मैं हूँ, बुद्ध्मित्र।'' कपोतिक संघाराम2 से एक बहुत ही आवश्यक संवाद लेकर दूत आया है, वह भीतर जाय?

1. बौद्धभिक्खुओं की दीक्षा, संन्यास।
2. कपोतिक संघाराम-पाटलिपुत्र नगर का एक प्राचीन बौद्धमठ जो सम्राट अशोक का बनवाया हुआ था।
वज्राचार्य्य-कह दो, थोड़ा ठहरे।
बन्धुगुप्त सिर उठाकर बोला 'गणना कभी मिथ्या होनेवाली नहीं। आज दोपहर तक शशांक का मृत्युयोग था, किन्तु नक्षत्र के प्रतिकूल होने पर भी सूर्य की दृष्टि अच्छी थी।''
वज्राचार्य्य-हाँ, एक बात कहना तो मैं भूल ही गया। मेरे वहाँ पहुँचने पर एक नई बाधा खड़ी हुई अर्थात् यशोधावलदेव-
बन्धु -क्या कहा?
वज्रा -युवराजभट्टारकपादीय महानायक यशोधावलदेव। बन्धुगुप्त! तुम उनके पुत्र की हत्या करने वाले हो। क्या इतने ही दिनों में रोहिताश्व के गढ़पति को भूल गए ?
बनुगुप्त अब तक बैठा था, यह बात सुनते ही वह घबराकर उठ खड़ा हुआ और कहने लगा ''शक्रसेन! हँसी न करना, ठीक ठीक कहो। क्या सचमुच यशोधावलदेव नगर में आए हैं? यदि ऐसा हुआ तो भारी विपत्ति समझो। केवल मेरे ही ऊपर नहीं सारे संघ पर विपत्ति आई समझो। ठीक ठीक बताओ, क्या सचमुच यशोधावल ही को तुमने देखा?''
वज्राचार्य्य-यह क्या कहते हो, क्या दस वर्ष मे ही मैं यशोधावल को भूल जाऊँगा? घबराओ न, देखो कपोतिक संघराम से कोई दूत आया है। बुद्ध्मित्र! दूत को भीतर ले आओ
एक तरुण भिक्खु एक वृद्धभिक्खु को साथ लिए मन्दिर के भीतर आया। दोनों ने प्रणाम किया। वज्राचार्य्य ने पूछा ''कहो, क्या संवाद है?'' वृद्धबोला ''महास्थविर को विश्वस्त सूत्रा से पता लगा है कि रोहिताश्व गढ़पति महानायक यशोधावलदेव आज बीस वर्ष पर फिर नगर में आए हैं। इसीलिए उन्होंने मन्त्रणा सभा करने का विचार किया है।''
वज्राचार्य्य-यशोधावल के आने का पता मुझे लग चुका है। कल प्रात:काल पुराने दुर्ग के मुँडेरे पर मन्त्रणासभा होगी। सूर्य की किरनों के दुर्ग के कलशों पर पड़ने के पहले सभा का सब कार्य समाप्त हो जाना चाहिए।
वज्राचार्य्य का आदेश सुनकर दोनों भिक्खुओं ने प्रणाम किया और वे मन्दिर के बाहर गए।
बन्धु -तो सचमुच यशोधावलदेव आ गया है। शक्रसेन! अब इसबार किसी की रक्षा नहीं। सोया हुआ सिंह जागा है। उसे इसका पता अवश्य लग गया है कि उसके पुत्र का मारनेवाला मैं ही हूँ। यह न समझना कि वह केवल मेरी ही हत्या करके शान्त हो जाएगा। वह सारे बौद्ध्संघ को उखाड़ने की चेष्टा करेगा।
वज्राचार्य्य-सचमुच भारी विपत्ति है।
बन्धु -तुम मेरी बात समझ रहे हो न? जान पड़ता है, यशोधावल के ही हाथ से मेरी मृत्यु है। अच्छा ठहरो, गणना करके भी देख लूँ।
वृद्धने फिर दीपक जलाया और ताड़पत्र पर अंक लिखकर गणना करने लगा। अकस्मात् उसके मुँह का रंग फीका पड़ गया। ताड़पत्र और लेखनी दूर फेंक वह उठ खड़ा हुआ और ऊँचे स्वर में बोल उठा ''सच समझो, वज्राचार्य्य यशोधावल मुझे अवश्य मारेगा। गणना का फल तो कभी मिथ्या होने का नहीं। अब किसी प्रकार मुझे बचाओ। यशोधावल की प्रतिहिंसा बड़ी भीषण होगी''।
वज्राचार्य्य हँसकर बोला ''स्थविर! इतने अधीर क्यों होते हो। यशोधावल तुम्हारे प्राण लेने अभी तो आता नहीं है। तुम तो भाग्यचक्र पर विश्वास नहीं करते न?''
बन्धु -सखा शक्रसेन! क्षमा करो। न समझ कर ही मैंने दो चार कड़ी बातें तुम्हें कही थीं। यशोधावल का बड़ा डर है। उसके निरस्त्रा शृद्मलाबद्धपुत्र को मैंने बकरे की तरह काटा है। अवश्य उसे इसका पता लग गया है। वह मुझे छोड़ नहीं सकता।
वज्राचार्य्य-अब भी तुम मृत्यु से इतना डरते हो?
बन्धु -तुम तो हो पागल, तुम्हें मैं क्या समझाऊँ? मैं अभी मरना नहीं चाहता। अभी मुझे बहुत कुछ करना है।
वज्रा -चित्ता स्थिर करो, घबराने से क्या होगा। यदि मृत्यु आनेवाली ही होगी तो व्याकुल होकर सिर पटकने से क्या बच जाओगे? बन्धुगुप्त! तुम आर्यसंघ के नेता हो। ऐसी अधीरता तुम्हें शोभा नहीं देती।
बन्धु-वज्राचार्य्य! जैसे हो वैसे अब मेरे प्राण बचाओ। मुझे कहीं छिपने का स्थान बताओ। ऐसा जान पड़ता है कि मन्दिर के एक एक खम्भे के पीछे अधेरे में एक एक यशोधावलदेव पुत्र की हत्या का बदला लेने के लिए तलवार खींचे खड़ेहैं।
वज्रा -अच्छा चलो, तुम्हें गुप्तगृह में छिपा आऊँ।
बन्धु -चलो।
वज्राचार्य्य ने बन्धुगुप्त का आसन लपेटकर उठा लिया। आसन उठाते ही उसके नीचे काठ की एक चौड़ी पटरी दिखाई दी जिसे हटाते ही एक गुप्तद्वार प्रकट हुआ। वज्राचार्य्य ने दीपक हाथ में ले लिया और सीढ़ियों से होकर वह नीचे उतरने लगा। बन्ु गुप्त भी डरता डरता साथ साथ चला। वह पीछे फिर फिर कर ताकता जाता था। मन्दिर में अधेरा छा गया।


बारहवाँ परिच्छेद
नायक समागम

सन्ध्या का अधेरा अब गहरा हो चला है। बाहरी टोले की एक पतली गली से एक युवती जल्दी जल्दी नगर की ओर लपकी चली जा रही है। मार्ग में बहुत कम लोग आते-जाते दिखाई देते हैं। जो दो एक आदमी मिल भी जाते हैं उन्हें पीछे छोड़ती वह बराबर बढ़ती चली जा रही है। अधेरा अब और गहरा हो गया; सामने का मार्ग सुझाई नहीं पड़ता। युवती विवश होकर धीरे धीरे चलने लगी। अकस्मात् पीछे के पैर की आहट सुनाई पड़ी। वह खड़ी हो गई, आहट भी बन्द हो गई। युवती इधर उधर देखकर फिर चलने लगी। कुछ देर में उसे जान पड़ा जैसे कोई उसके पीछे पीछे आ रहा है। वह फिर खड़ी हो गई, पैर का शब्द फिर थम गया। युवती इधर उधर ताककर एक अट्टालिका के कोने में छिप गई। वहाँ से उसने देखा कि सिर से पैर तक कपड़े से ढकी एक मनुष्यमूर्ति दबे पाँव धीरे धीरे गली में चली जा रही है। अधेरे में वह उसका मुँह न देख सकी। जब वह मनुष्य आगे निकल गया तब युवती निकलकर उसके पीछे पीछे चली।
वस्त्र से ढका हुआ जो मनुष्य चला जाता था वह कुछ दूर जाकर आप ही आप बोल उठा ''न, इधर नहीं गई। चलें, लौट चलें''। युवती ने सुन लिया और फिर एक घर की आड़ में अंधेरे में छिप गई। वह मनुष्य धीरे धीरे लौटने लगा। जब वह अधेरे में दूर निकल गया तब वह युवती फिर निकलकर जल्दी जल्दी चलने लगी। आधा दण्ड भी नहीं बीता था कि पीछे फिर वही पैरों की आहट सुनाई पड़ने लगी। अब तो वह कुछ डरी और मार्ग के झाड़ों और पेड़ों में जा छिपी। थोड़ी देर में वह कपड़ों से ढका हुआ मनुष्य फिर दिखाई पड़ा। वह कुछ दूर जाकर फिर लौट पड़ा और ठीक उसी स्थान से होकर चला जहाँ युवती छिपी थी। पास पहुँचते ही उसके मुँह से निकला ''न, इस बार वह निकल गई। तरला, तू ने गहरा झाँसा दिया''। जब वह कुछ दूर निकल गया तब युवती झाड़ों से निकल बीच रास्ते में आ खड़ी हुई और पुकारने लगी। ''अरे बाबाजी, ओ अचारी बाबा! उधार कहाँ जाते हो?'' कपड़ों से ढका हुआ वह मनुष्य चौंक कर खड़ा हो गया। युवती हँसकर बोली ''बाबाजी! कोई डर नहीं, मैं हूँ तरला।'' वह वस्त्र का आवरण हटा तरला के पास आया और उसने उसके मुँह को अच्छी तरह देखा। फिर मुसकराकर बोला ''क्या सचमुच तरल ही है? हे लोकनाथ! कृपा करो।''
तरला-बाबाजी! इतनी रात को किसके पीछे निकले थे?
देशा -बहुत ठण्ड है-थोड़ी आग लेने निकला था।
तरला-कहते क्या हो, बाबाजी! अरे, इतनी गरमी में तुम्हें जाड़ा लग रहा है? क्या वात ने जोर किया है?
देशानन्द चुप। तरल ने फिर पूछा ''यदि किसी के पीछे नहीं निकले थे तो कपड़े के भीतर सिर क्यों ढाक रखा था?''
देशानन्द-कोई पहचान लेता तो?
तरला-तो क्या किसी स्त्री से मिलने अभिसार को चले थे?
देशानन्द-न, न, हम लोग संसार त्यागी भिक्खु हैं। हम लोग क्या अभिसार करतेहैं?
तरला-बाबा! चलो उजाले में चलें।
देशा -क्यों तरला? यह स्थान तो अच्छा है।
तरला-कोई हम दोनों को यहाँ एक साथ देखेगा तो चारों ओर निन्दा करेगा।
देशा -यह तो ठीक है।
तरला-अच्छा तो मैं चलती हूँ, तुम यहीं रहो।
देशा -तुम अभी लौटोगी न?
तरला-सो कैसे? मैं तो जाती हूँ नगर की ओर, फिर इधर क्या करने आऊँगी?
देशा -अरे नहीं, तरला। तुम जाओ मत, थोड़ा ठहरो। मैं तुम्हें ऑंख भर देख तो लूँ। तुम्हारे ही लिए मैं दो कोस दौड़ा आया हूँ!
तरला-तुम तो कहते थे मैं आग लेने निकला था।
देशा -वह तो एक बात का बतक्कड़ था। बात कुछ और ही है।
तरला-क्या बात है, बताओ।
देशा -हृदय की पीड़ा।
तरला-किसके लिए?
देशा -तुम्हारे लिए।
तरला-देखती हूँ, इस बुढ़ाई में भी तुम्हारे हृदय में रस उमड़ा पड़ता है।
देशा.-छि! तरला! यह क्या कहती हो? मैं तो समझता था कि तुममें कुछ रसिकता होगी। पर
तरला-चिढ़ क्यों गए? क्या हुआ?
देशा -तुम्हारी बात सरासर अरसिकता की हुई।
तरला-कौन सी बात?
देशा -अब मैं अपने मुँह से क्या कहूँ?
तरला-यही जो मैंने तुम्हें बूढ़ा कहा?
देशा -अच्छा? अब तुम नगर की ओर जाओ।
प्रेम सेम का कुछ काम नहीं, मैं भी लौट जाता हूँ।
तरला-बाबाजी, रूठ क्यों गए? तुम्हारे ऐसे बहुदर्शी आचार्य्य के लिए थोड़ी थोड़ी बातों पर चिढ़ जाना ठीक नहीं।
देशा -तरला! अब तुम्हें सचमुच रस का बोधा हुआ। युवावस्था में जो प्रेम होता है वह प्रेम नहीं है, आभास मात्रा है। जब तक वयस् कुछ अधिक नहीं होता तब तक मनुष्य प्रेम की मर्य्यादा नहीं समझ सकता। जैसे
तरला-जैसे दूध पक कर खोया होता है, जो दूधा से अधिक मीठा होता है।
देशा -बहुत ठीक कहा। मेरे मन की बात तुमने खींच निकाली। तुम्हारी इन्हीं सब बातों पर न मैं लट्टू हूँ-मर रहा हूँ।
तरला ने देखा कि आचार्य्य की व्याधि धीरे धीरे बढ़ रही है। उसके प्रेम के बढ़ते हुए को रोकना चाहिए। वह आचार्य्य से बोली ''छि! छि! बाबाजी, आप करते क्या हैं? मैं एक सामान्य स्त्री हूँ, दासी हूँ। मुझसे आपको ऐसी बात कहनी चाहिए? आप परमपूज्य आचार्य्य हैं। आपने भगवान् बुद्धकी सेवा में अपना जीवन उत्सर्ग किया है। आपके मुँह से ऐसी बात नहीं सोचती।''
देशा -तरला! मैं मर रहा हूँ। चाहे मैं कोई हूँ, मेरा जीवन अब तुम्हारे हाथ है, चाहे रखो चाहे मारो। यदि तुम कृपा दृष्टि न करोगी तो प्राण दे दूँगा।
तरला मन ही मन हँसी, समझी कि रोग के सब लक्षण धीरे धीरे प्रकट हो गए। उसे चुप देख देशानन्द ने उसके दोनों पैर पकड़ लिए और बोला ''कहो तरला! मेरे माथे पर हाथ रख कर, शपथ खाकर कहो''। तरला अधीर होकर कहने लगी ''हैं हैं बाबाजी, यह क्या करते हो? छोड़ो, छोड़ो इस चलती सड़क के बीच...।'' उसने अपने दोनों पैर छुड़ा लिए। देशानन्द भी धूल झाड़ता उठ खड़ा हुआ और बोला-''तो शपथ करो।''
तरला-क्या शपथ करूँ?
देशा -यही कि मुझसे मुँह न मोड़ोगी।
तरला-बाबाजी, बात बड़ी भारी है। चटपट कुछ कह देना कठिन है। इस भरे यौवन में, इस मधुर वसन्त में, किसी एक पुरुष से कैसे मैं कोई प्रतिज्ञा कर सकती हूँ?
देशानन्द मन ही मन सोचने लगे कि स्त्री जाति का व्यवहार ही ऐसा है। किन्तु इस समय कुछ कहता हूँ तो सारा बना बनाया खेल बिगड़ जायगा। अच्छा कुछ दिन सोच विचार लेने दो। जायगी कहाँ? अब तो हाथ से निकल नहीं सकती। जिनानन्द के पास तो झख मारकर इसे आना ही होगा। उधर तरला सोच रही थी कि असहाय के सहाय भगवान् होते हैं। वसुमित्र को मैं बड़ी लम्बी चौड़ी आशा बँधा आई हूँ। उससे कह आई हूँ कि जैसे होगा वैसे छुड़ाऊँगी। पर किस उपाय से छुड़ाऊँगी, यह जब सोचती हूँ तब वार पार नहीं सूझता। पार लगाने वाले भगवान् ने यह अच्छा अवलंब खड़ा कर दिया है। इस बुङ्ढे बन्दर की सहायता से मैं वसुमित्र को छुड़ा सकूँगी। इसे यदि मैं नचाती रहूँगी तो मेरा कार्य सिद्धहो जायगा। इसकी सहायता से मैं सहज में संघाराम के भीतर जा सकती हूँ और वहाँ इसे लगवाकर वसुमित्र को छुड़ाने की युक्ति रच सकती हूँ। उसे चुप देख देशानन्द बोला ''क्या सोचती हो, बोलो''।
तरला-तुम किस धयान में हो?
देशा -तुम्हारे।
तरला-तो मैं भी तुम्हारे ही धयान मे हूँ।
देशानन्द ने तरला का हाथ पकड़ लिया और बोला ''सच कहो, तरला! एक बार फिर कहो। ''सच कहो''।
तरला-बाबाजी! क्या करते हो, हाथ छोड़ो, हाथ छोड़ो, कहीं कोई आ न जाय।
देशानन्द ने उदास होकर हाथ छोड़ दिया और कहा ''अच्छा तो मुझे कब उत्तर मिलेगा?''
तरला-कल।
देशा -निश्चय।
तरला-निश्चय?
देशा -तो चलो तुम्हें घर पहुँचा आऊँ।
तरला-अच्छा, आगे आगे चलो।
वृद्धआगे आगे चला। धीरे धीरे नगर का प्रकाश सामने दिखाई पड़ा। नगर में जाकर तरला निश्चिन्त हुई। घर के पास पहुँचकर तरला ने सोचा कि अब बुङ्ढे को लौटाना चाहिए। यदि वह मेरे सेठ का घर देख लेगा तो मेरे कार्य में बाधा पड़ सकती है। कुछ दूर आगे निकलकर वह वृद्धसे बोली ''अब तुम मत आओ, लौट जाओ। मेरा पति कहीं तुम्हारे ऐसे युवा पुरुष के साथ मुझे देख पाएगा तो अनर्थ कर डालेगा''। तरला उसे युवा पुरुष समझती है, बुङ्ढा तो इसी बात पर लहालोट हो गया, उसे अपने शरीर तक की सुधा न रही। तरला उसका धयान दूसरी ओर देख चलती बनी। बहुत ढूँढ़ने पर भी बुङ्ढे ने उसे कहीं न पाया।


तेरहवाँ परिच्छेद
राजद्वार


सम्राट महासेनगुप्त तीसरे पहर सभामण्डप में बैठे हैं। सम्राट के सामने नागरिक लोग अपना अपना दु:ख निवेदन कर रहे हैं। विशाल सभामण्डप के चारों ओर अपने अपने आसनों पर प्रधान प्रधान राजपुरुष और अमात्य बैठे हैं। प्रधान-प्रधान नागरिक और भूस्वामी उनके पीछे बैठे हैं। सब के पीछे नगर के साधारण नागरिक दल के दल खडे हैं।
सम्राट का मुख प्रसन्न नहीं है। वे चिन्ता में मग्न जान पड़ते हैं। स्थाण्वीश्वरराज के आगमन के पीछे उनके मुँह पर और भी अधिक चिन्ता छाई रहती थी। सिंहासन के दाहिने, वेदी के नीचे गुप्त साम्राज्य के प्रधान अमात्य ऋषिकेश शर्म्मा कुशासन पर बैठे हैं। उनके पीछे प्रधान विचारपति महाधार्म्माधयक्ष1 नारायणशर्म्मा सुखासन पर विराजमान हैं। उनके पीछे महादण्डनायक2 रविगुप्त, प्रधान सेनापति महाबलाधयक्ष3

1. महाधार्म्माधयक्ष = प्रधान विचारपति (Chief Justice)
2. महादण्डनायक = प्रधान दण्डविधानकत्तर। (Chief Magistrate)
3. महाबलाधयक्ष = प्रधान सेनापति।
हरिगुप्त, नौसेना के अधयक्ष महानायक रामगुप्त इत्यादि प्रधान राजपुरुष बैठे हैं। ये सब लोग अब वृद्धहो गए हैं, राजसेवा में ही इनके बाल पके हैं। ये सम्राट के वंश के ही हैं। सिंहासन के दूसरी ओर नवीन राजपुरुष बैठे हैं। अलिंद में अभिजात सम्प्रदाय के लिए जो सुखासन हैं वे खाली हैं। उत्सव आदि के दिनों में ही उस वर्ग के लोग राजसभा में दिखाई पड़ते हैं।
सभामण्डप के चारों द्वारों पर सेनानायक पहरों पर थे। उत्तर द्वार के प्रतीहार ने विस्मित होकर देखा कि युवराज शशांक के कन्धो का सहारा लिए एक वृद्धयोध्दा नदी तट से सभामण्डप की ओर आ रहा है। उसका दहिना हाथ पकड़े आठ नौ बरस की एक लड़की और पीछे पीछे एक युवा योध्दा आ रहा है। प्रतीहार के विस्मय का कारण था। बात यह थी कि नगर के साधारण लोग नदी के मार्ग से प्रासाद के भीतर नहीं आ सकते थे। उच्चपदस्थ कर्मचारियों और राजवंश के लोगों को छोड़ और कोई गंगाद्वार में नहीं प्रवेश करने पाता था। गंगाद्वार से होकर आने का जिन्हें अधिकार प्राप्त था, वे कभी अकेले और पैदल नहीं आते थे। वे बड़े समारोह के साथ हाथी, घोड़े या पालकी पर बैठकर और इधर उधार शरीररक्षक सेना के साथ आते थे। पर उनमें से भी कभी कोई वात्सल्यभाव से भी युवराज के ऊपर हाथ नहीं रख सकता था।
वृद्धसैनिक जो बातें कहते आ रहे थे युवराज उन्हें बडे धयान से सुनते आ रहे थे। प्रतीहार और उनके नायक बड़े आश्चर्य्य से उनकी ओर देख रहे हैं, इसका उन्हें कुछ भी धयान नहीं था। वृद्धकह रहे थे ''कामरूप से लौटने पर इस पथ से होकर मैं प्रासाद में गया था। अब मेरा वह दिन नहीं है। सुस्थितवर्म्मा1 को सीकड़ में बाँधकर मैं लाया था। उन्हें देखकर उल्लास से उछलकर नागरिक जयध्वनि करते थे। तुम्हारे पिता युद्धमें घायल हुए थे। वे पालकी पर आते थे। युवराज! यह तुम्हारे जन्म से पहले की बात है। उस समय साम्राज्य की ऐसी दशा नहीं हुई थी। उस समय मैं सचमुच महानायक था, एक मुट्ठी अन्न के लिए रोहिताश्व के गाँवगाँव नहीं घूमता था''। कहते कहते वृद्धका गला भर आया, शशांक के नीले नेत्रो में भी ऑंसू भर आए।
अब वे लोग सभामंडप के तोरण पर आ पहुँचे। प्रतीहार रक्षकों के नायक ने युवराज का अभिवादन किया और फिर बड़ी नम्रता से वृद्धका परिचय पूछा। वृद्धने कहा ''मेरा नाम यशोधावल है। मैं युवराज भट्टारकपादीय महानायक हूँ।'' सुनते ही प्रतीहार रक्षकों का नायक भय और विस्मय से दो कदम पीछे हट गया। मार्ग में विषधार सर्प को देख पथिक जैसे घबड़ाकर पीछे भागता है वही दशा उस

1. सुस्थिवर्म्मा-कामरूप के राजा। महासेनगुप्त ने उन्हें ब्रह्मपुत्र के किनारे पराजित किया था। वे भास्करवर्म्मा के पिता थे।
समय उसकी हुई। उसकी यह दशा देख वृद्धमहानायक हँस पड़े। इतने में प्रतीहार रक्षी सेनादल में से एक वृद्धसैनिक बढ़कर आगे आया, आनेवाले को अच्छी तरह देखा, फिर म्यान से तलवार खींच उसे सिर से लगाकर बोला ''महानायक की जय हो! मैंने मालवा और कामरूप में महानायक की अधीनता में युद्धकिया है।'' उसकी जयध्वनि सुनकर उत्तर तोरण पर की सारी सेना ऊँचे स्वर से जयध्वनि कर उठी। वृद्धने आगे बढ़कर सैनिक को हृदय से लगा लिया। फिर गहरी जयध्वनि हुई। युवराज और वृद्धने तोरण से होकर सभामण्डप में प्रवेश किया। प्रतीहाररक्षी सेना का नायक भौंचक खड़ा रहा। सभामण्डप में तोरण के सामने दो दण्डधार खडे थे। उन्होंने युवराज को देख प्रणाम किया और उनके साथी का परिचय पूछा। फिर उनमें से एक ने सभामण्डप के बीच में खड़े होकर पुकार कर कहा ''परमेश्वर परम वैष्णव युवराजभट्टारक1 महाकुमार शशांक नरेन्द्रगुप्तदेव उत्तर तोरण पर खड़े हैं और उनके साथ रोहिताश्व के महानायक युवराजभट्टारकपादीय यशोधावलदेव सम्राट से मिलने की प्रार्थना कर रहे हैं''।
सम्राट महासेनगुप्त आधे लेटे हुए एक नागरिक का आवेदन सुन रहे थे। सिंहासन की वेदी के नीचे एक करणिक2 सम्राट का आदेश लिख रहा था। यशोधावलदेव का नाम कान में पड़ते ही सम्राट चौंककर उठ बैठे। यह देख डर के मारे करणिक के हाथ से लेखनी और ताड़पत्र छूट पड़ा, मसिपात्र भी उलट गया। महाधर्माधयक्ष नारायणशर्म्मा ने उसकी ओर त्योरी चढ़ाई। बेचारा करणिक सन्न हो गया। सम्राट ने ऊँचे स्वर से पूछा ''क्या कहा?''
''परमेश्वर परण वैष्णव-''
''यह तो सुना, उनके साथ कौन आता है?''
''रोहिताश्वगढ़ के महानायक युवराजभट्टारकपादीय यशोधावलदेव।''
''यशोधवलदेव!''
दण्डधार ने सिर हिला कर 'हाँ' किया। महामन्त्री ने ऋषिकेशशर्म्मा से पूछा ''महाधार्माधयक्ष जी, कौन आया है? महाराज इतने आतुर क्यों हुए?'' नारायणशर्म्मा गरदन ऊँची किए बातचीत सुन रहे थे। उन्होंने महामन्त्री की बात न सुनी। सम्राट उस समय कह रहे थे ''यह कभी हो ही नहीं सकता। रोहिताश्व के यशोधावलदेव अब कहाँ हैं! रामगुप्त जाकर देखो तो जान पड़ता है कि किसी धूर्त ने रोहिताश्वगढ़ पर अधिकार कर लिया।'' रामगुप्त आसन से उठ उत्तर तोरण की ओर चले। दण्डधार उनके पीछे पीछे चला। वे थोड़ी दूर भी नहीं गए थे कि युवराज के कन्धो पर हाथ

1. 'परमेश्वर परम वैष्णव' आदि उपाधिा राजा और ज्येष्ठ राजपुत्र की होती थी। युवराजभट्टारक और महाकुमार ज्येष्ठ राजपुत्र के नाम के पहले लगता था। राजा या सम्राट के नाम के साथ 'परमभट्टारक महाराजाधिराज ' आता था।
2. करणिक = लेखक, मुंशी।
रखे वृद्धमहानायक धीरे धीरे आते दिखाई पड़े। रामगुप्त उन्हें देख खड़े हो गए। क्षण भर में वे पास आ गए और साम्राज्य के नौबलाधयक्ष1 महानायक रामगुप्त दीन हीन वृद्धके चरणों पर लोट गए। सभा में एकत्र नागरिकों ने कुछ न समझकर जयध्वनि की। दण्डधार उन्हें रोक न सके। सम्राट व्यस्त होकर उठ खड़े हुए, यह देख सभा के सब लोग खड़े हो गए। नए सभासदों और राजपुरुषों ने चकित होकर देखा कि एक लम्बे डीलडौल का वृद्धयुवराज शशांक के कन्धो का सहारा लिए चला आ रहा है और नौबलाधयक्ष महानायक रामगुप्त अनुचर के समान उसके पीछे आ रहे हैं।
इधर ऋषिकेशशर्म्मा बात ठीक ठीक समझ में न आने से बहुत चिड़चिड़ा रहे थे। इतने में वृद्धको उन्होंने सामने देखा और वे लड़खड़ाते हुए वेदी के सामने आ खड़े हुए और कहने लगे ''कौन कहता था कि यशोधावलदेव मर गए?'' वृद्धउन्हें प्रणाम कर ही रहे थे कि उन्होंने झपटकर उन्हें गले से लगा लिया। नागरिकों ने फिर जयध्वनि की। सब ने चकित होकर देखा कि वृद्धसम्राट महासेनगुप्त डगमगाते हुए पैर रख रखकर वेदी के नीचे उतर रहे हैं। पिता को देख युवराज ने दूर ही से प्रणाम किया, किन्तु सम्राट ने न देखा। छत्र और चँवरवाले सम्राट के पीछे पीछे उतर रहे थे, पर महाबलाधयक्ष हरिगुप्त ने उन्हें संकेत से रोक दिया। सम्राट को देखकर ऋषिकेश और रामगुप्त एक किनारे हट गए। वृद्धयशोधावलदेव अभिवादन के लिए कोष से तलवार खींच ही रहे थे कि सम्राट ने दोनों हाथ फैलाकर उन्हें हृदय से लगा लिया। यह देख राजकर्मचारी, सभासद और नागरिक सबके सब उन्मत्ता के समान बार बार जयध्वनि करने लगे। काँपते हुए स्वर में सम्राट ने कहा ''सचमुच तुम यशोधावल ही हो?'' वृद्धचुपचाप ऑंसू बहा रहे थे। ऋषिकेशशर्म्मा और रामगुप्त की ऑंखों से भी ऑंसुओं की धारा बह रही थी। हरिगुप्त चुपचाप जाकर सम्राट के पीछे खड़े थे। युवराज शशांक भी कुछ दूर पर खड़े एकटक यह नया सम्मिलन देख रहे थे।
सम्राट महासेनगुप्त यशोधावल को लिए वेदी की ओर बढ़े। युवराज ऋषिकेशशर्म्मा, रामगुप्त, हरिगुप्त और नारायणशर्म्मा प्रभृति प्रधान राजपुरुष उनके पीछे पीछे चले। सम्राट ने जब वेदी की सीढ़ी पर पैर रखा तब वृद्धयशोधावल नीचे ही खड़े रह गए और बोले ''महाराजाधिराज अब आसन ग्रहण करें और मैं अपना कर्तव्य करूँ।'' सम्राट ने बहुत चाहा पर वे वेदी के ऊपर नहीं गए। सम्राट के सिंहासन पर सुशोभित हो जाने पर वृद्धने हाथ थामकर युवराज को वेदी पर चढ़ाया। युवराज भी अपने सिंहासन पर बैठ गए। तब वृद्धने वेदी के सामने खड़े होकर कोश से तलवार
खींची और अपने मस्तक से लगाकर सम्राट के चरणों के नीचे रख दी। जयध्वनि से फिर सभामण्डप गूँज उठा। सम्राट ने तलवार उठाकर अपने मस्तक से लगाई और
1. नौबलाधयक्ष = नावों पर की सेना का नायक।
वृद्धके हाथ में फिर दे दी। वृद्धतलवार लेकर युवराज की ओर देख बोले 'महाकुमार! मैं सबसे पिछली बार जब सम्राट की सेवा में उपस्थित हुआ था तब भी यह सिंहासन खाली था। यशोधावल ने बहुत दिनों से साम्राज्य के महाकुमार का अभिवादन नहीं किया है। बाल्यकाल में जब आपके पिताजी महाकुमार थे तब एक बार इस सिंहासन के सामने अभिवादन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आज वृध्दावस्था में फिर प्राप्त हुआ है''। इतना कहकर वृद्धने तलवार मस्तक से लगाकर युवराज शशांक के पैरों तले रख दी। युवराज ने तलवार उठा ली और वेदी के नीचे उतरकर वृद्धको प्रणाम किया। चारों ओर सबके मुँह से 'जय जय' की ध्वनि निकल पड़ी। चिन्ता से विह्नल सम्राट का मुखमण्डल भी खिल उठा और वे भी 'धन्य धन्य' बोल उठे। वृद्धयशोधावल ने युवराज को गोद में लेकर बार बार उनका मस्तक चूमा और उन्हें ले जाकर उनके सिंहासन पर बिठाया।
सिंहासन के सामने खड़े होकर वृद्धयशोधावलदेव बोले ''महाराजाधिराज! आज बहुत दिनों पर मैं सम्राट की सेवा में क्यों आया हूँ, यही निवेदन करता हूँ। मेघनाद (मेघना नदी) के उस पार साम्राज्य की सेवा में कीर्तिधावल ने अपने प्राण निछावर किए। अब उसकी कन्या का पालन मैं नहीं कर सकता। उसके भरणपोषण की सामर्थ्य अब मुझ में नहीं है। जिस हाथ में साम्राज्य का गरुड़धवज लेकर विजय यात्राओं का नायक होकर निकलता था, जिस हाथ में सदा खड्ग लिए साम्राज्य की सेवा में सन्नद्धरहता था, अब उसी हाथ को रोहिताश्ववालों के आगे एक मुट्ठी अन्न के लिए फैलाते मुझसे नहीं बनता। अब इस अवस्था में नई बात का अभ्यास कठिन है। कीर्तिधावल ने सम्राट की सेवा में ही अपना जीवन उत्सर्ग किया है। सम्राट यदि उसकी कन्या के अन्न वस्त्र का ठिकाना कर दें तो यह बूढ़ा यशोधावल निश्चिन्त हो जाय। साम्राज्य में अभी अस्त्र शस्त्र की पूछ है, वृद्धकी भुजाओं में अभी बल है, खड्गधारण करने की क्षमता है, उससे वह अपना पेट भर लेगा, उसे अन्न का अभाव न होगा। वृद्धमृगमांस से भी अपना शरीर रख सकता है। पर महाराज! इस कोमल बालिका से पशुमांस नहीं खाया जाता। इसके लिए गेहूँ भीख माँगा, अन्नाभाव से दुर्गस्वामिनी का कंगन बेचा। कई पुराने सेवक मेरी यह दशा सुन भीख माँग माँगकर कुछ धान इकट्ठा कर लाए। उसी धान से मैंने कंगन छुड़ाया और किसी प्रकार पाटलिपुत्र आया। महाराजाधिराज! लतिका प्रासाद में दासी होकर पड़ी रहेगी, उसे मुट्ठी भर अन्न मिल जाया करेगा, उससे हिरन का मांस नहीं खाया जाता। यशोधावल से अब इस बुढ़ापे में भीख नहीं माँगी जाती। मालव गया, बंग गया, पुत्रहीन यशोधावल के पास अब ऐसा कोई नहीं है जो पहाड़ी गाँवों में जाकर षष्ठांश ले आए या दुर्ध्दर्ष पहाड़ी जातियों को रोके। महाराज! धावलवंश लुप्त हो गया, यशोधावल सचमुच मर गया, रोहिताश्वगढ़ इस समय खाली पड़ा है। मैं अब यशोधावल नहीं हूँ, यशोधावल का प्रेत हूँ; एक मुट्ठी अन्न के लिए तरस रहा हूँ। मैं अब दुर्गस्वामी होने योग्य नहीं रहा''। दूर पर वीरेन्द्रसिंह यशोधावलदेव की पौत्री को लिए खड़ा था। यशोधावल ने उसे पास आने का संकेत किया। उसके आने पर वृद्धने कहा ''लतिका! महाराजाधिराज को प्रणाम करो।'' बालिका ने प्रणाम किया। वीरेन्द्रसिंह ने भी सैनिक प्रथा के अनुसार अभिवादन किया। वृद्धयशोधावल फिर कहने लगे-
''महाराजाधिराज! यह लड़की कीर्तिधावल की कन्या है। इसका पिता बंगयुद्धमें मारा गया, माता भी छोड़कर चल बसी। अब मैं इसे पेट भर अन्न तक नहीं दे सकता। सम्राट अब इसका भार अपने ऊपर लें। सनातन से मृत सैनिकों के पुत्र कलत्रा का पालन राजकोष से होता आया है। इसी आसरे पर इस मातृपितृविहीन बालिका के लिए मुट्ठीभर अन्न की भिक्षा माँगने आया हूँ।''
अश्रुधारा से सम्राट का शीर्ण गंडस्थल भीग रहा था। यशोधावल की बात पूरी होने के पहले ही वे सिंहासन छोड़ उठ खड़े हुए और बोले ''यशोधावल-बाल्यसखा''- उनका गला भर आया, आगे और कोई शब्द न निकला। वे काठ की तरह सिंहासन पर बैठ गए। सभामंडप में सन्नाटा छा गया था। सबके सब चुपचाप खड़े थे। नारायणशर्म्मा ने वेदी के सामने जाकर कहा ''महाराज! अब आज और कोई काम असम्भव है। आज्ञा हो तो विचारप्रार्थी नागरिक अपने अपने घर जायँ''। सम्राट ने सिर हिलाकर अपनी सम्मति प्रकट की। यशोधावलदेव कुछ और कहना चाहते थे कि ऋषिकेशशर्म्मा आकर उन्हें वेदी के एक किनारे ले गए। धीरे धीरे सभामण्डप खाली हो गया। राजकर्म्मचारी अब तक ठहरे थे। प्रथा यह थी कि सभा विसर्जित होने पर मन्त्राणासभा बैठती थी जिसमें केवल प्रधान राजकर्म्मचारी रहते थे। ऋषिकेशशर्म्मा ने पुकारकर कहा ''आज महाराजाधिराज अस्वस्थ हैं इससे मन्त्राणासभा नहीं हो सकती।'' सम्राट ने यह सुनकर कहा ''आज तो मन्त्राणासभा बहुत ही आवश्यक है। सन्ध्या हो जाने के पीछे समुद्रगृह1 में मन्त्राणासभा का अधिवेशन होगा। बहुत ही आवश्यक कार्य है जो कर्म्मचारी यहाँ उपस्थित नहीं हैं उनके पास भी दूत भेजे जायँ''।
रामगुप्त यशोधावलदेव को अपने घर ले जाने की चेष्टा कर रहे थे। यशोधावलदेव उनका आतिथ्य स्वीकार करके सम्राट के पास विदा माँगने गए। सम्राट ने कहा ''यशोधावल! मेरी भी कुछ इच्छा है। तुम मेरे साथ आओ, आज तुम साम्राज्य के अतिथि हो''।
सम्राट, यशोधावलदेव और शशांक सभास्थल से उठे।

1. समुद्रगृह = प्रासाद के एक भाग का नाम।


चौदहवाँ परिच्छेद
चित्रा का अधिकार


प्रासाद से लगा हुआ गंगा के तीर पर एक छोटा सा उद्यान है। सेवायत्न के बिना प्रासाद का प्रांगण और उद्यान जंगल सा हो रहा है। पर यह छोटा उद्यान अच्छी दशा में है, इनमें झाड़ झंखाड़ नहीं हैं, सुन्दर सुन्दर फूलों के पौधो ही लगे हैं। फुलवारी के चारों ओर जो घेरा है उस पर अनेक प्रकार की लताएँ घनी होकर फैली हैं जिनमें से कुछ तो रंग बिरंग के फूलों से गुछी हैं, कुछ स्निग्धश्यामल दलों के भार से झुकी पड़ती हैं। इस चौखूँटी पुष्पवाटिका के बीचोबीच श्वेतमर्मर का एक चबूतरा है जिसके चारों ओर रंग बिरंग के फूलों से लदे हुए पौधो की कई पंक्तियाँ हैं। सूर्योदय के पूर्व का मन्द समीर गंगा के जलकणों से शीतल होकर पेड़ों की पत्तियाँ धीरे धीरे हिला रहा है। इधर उधर पेड़ों के नीचे फूल झड़ रहे हैं। अन्धकार अभी पूर्ण रूप से नहीं हटा है, उषा के आलोक के भय से प्रासाद के कोनों में और घने पेड़ों की छाया के नीचे छिपा बैठा है। जब तक र्मात्तांड के करोड़ों ज्वलन्त किरण बाणों की वर्षा न होगी तब तक वह वहाँ से न हटेगा।
पुष्पवाटिका का द्वार खुला जिससे उसके ऊपर छाई हुई माधावीलता एकबारगी हिल गई। एक बालिका फुलवारी में आई। उसके भौंरे के समान काले केश मन्द समीर के झोंकों से लहरा रहे थे। उसने देखा कि फुलवारी में कोई नहीं है। इतने में एक और बालिका हँसती हँसती वहाँ आ पहुँची और चिल्लाकर कहने लगी ''युवराज! चोर पकड़ लिया''। पहली बालिका भागने का यत्न करने लगी, किन्तु दूसरी बालिका ने उसे पकड़ रखा। हँसते हँसते शशांक और माधवगुप्त वहाँ आ पहुँचे। शशांक ने पहले आई हुई बालिका से पूछा ''चित्रा! तू भागी क्यों?'' चित्रा ने कुछ उत्तर न दिया। दूसरी बालिका ने कहा ''चित्रा रूठ गई है।''
शशांक-क्यों?
बालिका-तुमने मुझे फूल तोड़ कर देने को कहा इसीलिए।
शशांक हँस पड़े। चित्रा का मुँह लज्जा और क्रोधा से लाल हो गया। दूसरी बालिका उसका क्रोध देख सकुचा गई और माधव को पुकारकर कहने लगी ''चलो कुमार, हम लोग फूल तोड़ने चलें।'' दोनों फुलवारी में जाकर अदृश्य हो गए। शशांक बोले ''चित्रा! तुम रूठ क्यों गई?''
चित्रा कुछ न बोली, मुँह फेरकर खड़ी हो गई। युवराज ने जाकर उसका हाथ थामा, उसने झटक दिया। शशांक ने फिर उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा ''क्या हुआ, बोलती क्यों नहीं?'' चित्रा मुँह दूसरी ओर करके रोने लगी। धीरे धीरे किसी प्रकार शशांक ने उसे मनाया। उसने अन्त में कह दिया कि लतिका को फूल तोड़कर देने को कहते थे, इसी से मुझे बुरा लगा। शशांक ने कहा ''लतिका चार दिन के लिए हमारे घर आई है। माँ ने उसके साथ खेलने के लिए मुझसे कहा है। यदि मैं न खेलूँगा तो वे चिढ़ेंगी।'' चित्रा की आकृति कुछ गम्भीर हो गई। वह बोली ''तुम उसे फूल तोड़कर क्यों दोगे?'' इस 'क्यों' का क्या उत्तर था? शशांक ने उसे बहुत तरह से समझाया, पर बात उसके गले के नीचे न उतरी।
कुमार ने कोई उपाय न देख कहा ''अच्छा, तो मैं फूल तोड़कर तुम्हीं को दूँगा। लतिका को न दूँगा।'' चित्रा के जी में जी आया।
फुलवारी में जितने फूल खिले थे, बालक बालिका उन्हें तोड़ तोड़कर चबूतरे पर रखने लगे। शशांक फूल तोड़ तोड़कर चित्रा की झोली में डालते जाते थे और माधव लतिका को देते जाते थे। इतने में फुलवारी के द्वार पर से न जाने कौन बोल उठा ''अरे! कुमार यह हैं। इधर आओ, इधर''। कुमार ने पूछा ''कौन है?'' उस व्यक्ति ने कहा ''प्रभो! मैं हूँ अनन्त। नरसिंह आपको ढूँढ़ रहे हैं।'' दो बालक वाटिका का द्वार खोल भीतर आए। इनमें से एक को तो पाठक जानते ही हैं। वह चरणाद्रि के गढ़पति यज्ञवर्म्मा का पुत्र है। दूसरा बालक चित्रा का बड़ा भाई नरसिंहदत्त है। नरसिंह ने पूछा ''कुमार! यहाँ क्या हो रहा है?'' शशांक ने हँसकर उत्तर दिया ''तुम्हारी बहिन की नौकरी बजा रहा हूँ। रोहिताश्वगढ़ से लतिका आई है। उसे फूल तोड़कर देने जाता था, इस पर यह बहुत रूठ गई। लतिका का संगी माधव है''। कुमार की बात सुनकर अनन्त और नरसिंह जोर से हँस पड़े। चित्रा ने लजाकर सिर नीचा कर लिया। नरसिंह ने कहा ''चित्रा, कुमार बड़े होंगे, दस विवाह करेंगे, तब तू क्या करेगी?'' बालिका मुँह फेरकर बोली ''मैं नहीं करने दूँगी।'' सबके सब फिर हँस पड़े।
नरसिंह ने फिर कहा ''फुलवारी में तो अब एक फूल न रहा; जान पड़ता है, डाल पत्तो भी न रह जायँगे। दिन इतना चढ़ आया, नदी पर कब चलेंगे। तीन-चार घड़ी से कम में तो नहाना होगा नहीं। महादेवी के यहाँ से दो दो तीन तीन आदमी आ आकर जब लौट जायँगे, तब जाकर कहीं खाने पीने की सुध होगी।'' उसकी बात पर सब हँस पड़े। कुमार बोले ''नरसिंह, हम लोगों की मंडली में तुम सबसे चतुर निकल पड़े।'' उनकी बात पूरी भी न हो पाई थी कि एक दासी उद्यान में आई और कुमार को प्रणाम करके बोली ''महादेवीजी आप लोगों को स्नान करने के लिए कह रही हैं।'' उसकी बात सुनकर नरसिंह हँसा और कहने लगा ''देखिए! मैं झूठ कहता था?'' सब लोग फुलवारी से निकलकर प्रासाद के भीतर गए। ऑंगन के किनारे एक लम्बे डील के वृद्धटहल रहे थे। लतिका ने उन्हें देखते ही झट उनका हाथ जा पकड़ा। उसके पीछे शशांक और माधव ने भी पास जाकर उन्हें प्रणाम किया। और लोग कुछ दूर खड़े रहे। लम्बे डील के वृद्धरोहिताश्व के गढ़पति यशोधावलदेव थे। यशोधावल ने शशांक के भूरे भूरे बालों पर हाथ फेरते हुए पूछा ''युवराज! ये लोग कौन हैं?'' शशांक ने हाथ हिलाकर नरसिंह, अनन्त और चित्रा को बुलाया। उन लोगों ने भी पास आकर वृद्धको प्रणाम किया। शशांक ने उनका परिचय दिया। वृद्धअनन्त और चित्रा को गोद में लेकर न जाने क्या-क्या सोचने लगे।
वृद्धसोच रहे थे कि साम्राज्य का अभिजातवर्ग, बड़े बड़े उच्च वंशों के लोग आश्रय के अभाव से राजधानी में आकर पड़े हैं। साम्राज्य में इस समय सब भिखारी हो रहे हैं, भीख देनेवाला कोई नहीं है। वृद्धसम्राट ही सब के आश्रय हो रहे हैं। पर वे भी अब बुङ्ढे हुए। उनके दोनों पुत्र अभी छोटे हैं, राज्य की रक्षा करने में असमर्थ हैं। चारों ओर प्रबल शत्रु घात लगाए वृद्धसम्राट की मृत्यु का आसरा देख रहे हैं। क्या उपाय हो सकता है? दासी दूर खड़ी गढ़पति को चिन्तामग्न देख बोली ''प्रभो! दिन बहुत चढ़ आया है; महादेवीजी कुमारों को स्नान करने के लिए कह रही हैं।'' वृद्धने झट अनन्त और चित्रा को गोद से नीचे उतार दिया। सब लड़के प्रणाम करके प्रासाद के भीतर चले गए। वृद्धफिर चिन्ता में डूबे।
वे सोचने लगे ''मैं भी अपनी पौत्री का कुछ ठीक ठिकाना लगाने के लिए सम्राट के पास आया हूँ। पर यहाँ आकर देखता हूँ कि सबकी दशा एक सी हो रही है। राज कार्य की सारी व्यवस्था बिगड़ गई है। सम्राट बुङ्ढे हो गए, अधिक परिश्रम कर नहीं सकते। बाहरी शत्रुओं का खटका उन्हें बराबर लगा रहता है, थोड़ी थोड़ी बातों से वे घबरा उठते हैं। दोनों कुमार भी अभी राजकाज चलाने के योग्य नहीं हुए हैं। ऋषिकेशशर्मा और नारायणशर्मा ही सारा भार अपने ऊपर उठाए हुए हैं, पर वे भी अब बहुत वृद्धहो गए हैं। अब उनके परिश्रम करने के दिन नहीं रहे। क्या किया जाय''?
चिन्ता करते करते वृद्धका चेहरा एकबारगी दमक उठा। उन्होने मन ही मन स्थिर किया ''मैं स्वयं राज्य के मंगल के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करूँगा। कीर्तिधावल ने साम्राज्य के लिए रणक्षेत्र में अपने प्राण दे दिए, मैं भी अपना शेष जीवन कर्मक्षेत्र में ही बिताऊँगा। जापिल1 के महानायक सदा से साम्राज्य की सेवा में तन मन देते आए हैं। उनका अन्तिम वंशधार होकर मैं भी उन्हीं का अनुसरण करूँगा।''
वृद्धइस प्रकार दृढ़ संकल्प करके कर्मक्षेत्र में आने के लिए आतुर हो उठे। उन्होंने पुकारा ''कोई है''? अलिंद के एक कोने से एक प्रतीहार प्रणाम करके सामने आ खड़ा हुआ। यशोधावलदेव ने उससे पूछा ''सम्राट इस समय कहाँ हैं? मैं अभी उनसे मिलना चाहता हूँ''। प्रतीहार ने कहा ''महाराजाधिराज गंगाद्वार की ओर गए हैं''? यशोधावलदेव ने कहा ''अच्छा, उन्हें संवाद दे दो''। प्रतीहार अभिवादन करके चला गया।

1. रोहिताश्वगढ़ के पास का एक ग्राम। इसे आजकल जपला कहते हैं। यशोधावलदेव के पूर्वज इसी ग्राम के थे।


पन्द्रहवाँ परिच्छेद
राजनीति

गंगाद्वार के बाहर घाट की एक चौड़ी सीढ़ी पर सम्राट बैठे हैं। उनके सामने यहाँ से वहाँ तक बालू का मैदान है। दूर पर जाद्दवी की धारा क्षीण रेखा के समान दिखाई पड़ रही है। सम्राट घाट पर बैठे बैठे बालक बालिकाओं की जलक्रीड़ा देख रहे हैं। एक प्रतीहार आया और अभिवादन करके बोला ''महानायक यशोधावलदेव इसी समय महाराज के पास आना चाहते हैं।'' सम्राट ने कहा ''अच्छा उन्हें यहीं ले आओ।''
प्रतीहार अभिवादन करके चला गया और थोड़ी देर में यशोधावल को लेकर लौट आया। सम्राट ने हँसते हँसते पूछा ''कहो भाई यशोधावल! क्या हुआ?'' वृद्धप्रणाम कर ही रहे थे कि सम्राट ने उनका हाथ पकड़कर बैठा लिया। यशोधावल सम्राट के सामने बैठ गए और हाथ जोड़कर बोले ''महाराजाधिराज! मेरे न रहने पर लतिका के लिए कहीं ठिकाना न रहेगा, यही समझकर मुट्ठी भर अन्न माँगने मैं महाराज की सेवा में आया था। किन्तु यहाँ आकर देखता हूँ कि उच्च वंश के जितने लोग हैं, प्राय: सबके सब भिखारी हो रहे हैं। उनके अनाथ बाल बच्चों के आश्रय महाराज ही हो रहे हैं। किन्तु आपके बाल भी अब सफेद हुए, आपके दिन भी अब पूरे हो रहे हैं। आपके न रहने पर साम्राज्य और प्रजा वर्ग की क्या दशा होगी, यही सोचकर मैं अधीर हो रहा हूँ। इस समय लतिका की सारी बातें मैं भूल गया हूँ। दोनों कुमार अभी बाल्यावस्था के पार नहीं हुए हैं, उन्हें राजकाज सीखते अभी बहुत दिन लगेंगे। ऋषिकेशशर्म्मा और नारायणशर्म्मा भी बूढ़े हुए, अब अधिक परिश्रम करने के दिन उनके नहीं रहे। नए कर्म्मचारियों को अपने मन से कुछ करने धारने का साहस नहीं होता, एक एक बात वे महाराज से कहाँ तक पूछें! इस प्रकार आपके रहते ही राज्य के सब कार्य अव्यवस्थित हो रहे हैं। चरणाद्रिगढ़ साम्राज्य का सिंहद्वार था। शार्दूलवर्म्मा के पुत्र महावीर यज्ञवर्म्मा वहाँ से भगा दिए गए। सम्राट को इसका संवाद तक न मिला। मंडलादुर्ग अंग और बंग की सीमा पर है। सदा से मण्डलाधीश साम्राज्य के प्रधान अमात्य रहते आए हैं। तक्षदत्ता का वह दुर्ग भी अब दूसरों के अधिकार में है। उनकी कन्या और पुत्र के लिए पेट पालने का भी ठिकाना अब नहीं है। महाराजाधिराज! इससे बढ़कर क्षोभ की बात और क्या हो सकती है?
''आपके रहते ही पाटलिपुत्र नगर की क्या अवस्था हो रही है, आप देख ही रहे हैं। तोरणों पर के फाटक निकल गए हैं। नगर स्थान स्थान पर गिर रहा है, उसका संस्कार तक नहीं होता। प्रासाद का पत्थर जड़ा विस्तृत ऑंगन घासफूस से ढक रहा है। कोष में अब तक धान की कमी नहीं है, प्रासाद में कर्म्मचारियों की भी कमी नहीं है, पर कोई काम ठीक ठीक नहीं होता। क्यों नहीं होता, आप इसे नहीं देखते। चारों ओर शत्रु साम्राज्य के धवंसावशेष पर गीधा की तरह दृष्टि लगाए हुए हैं। साम्राज्य के अन्तर्गत होने पर भी बंग देश पर कोई अधिकार नहीं रहा है। देवी महासेनगुप्ता जब तक जीवित हैं, तभी तक वाराणसी और चरणाद्रि भी प्रकाश्य रूप में थानेश्वर राज्य में मिलने से बचे हुए हैं। यह सब आप अच्छी तरह जानते थे। आज यदि महादेवी न रहें अथवा प्रभाकर उनकी बात न मानें तो इच्छा रहते भी थोड़ी बहुत सेना और शक्ति रहते भी साम्राज्य की रक्षा नहीं हो सकती। राजधानी में भी कोई रुकावट नहीं हो सकती, वह अनायास शत्रु के हाथ में पड़ सकती है।''
यशोधावल चुप हुए। वृद्धसम्राट धीरे धीरे बोले ''मैं क्या करूँ? मैं वृद्धहूँ, शशांक बालक दैवज्ञ कह चुके हैं कि शशांक के राज्यकाल में ही साम्राज्य नष्ट होगा''। सम्राट की बात सुनकर वृद्धयशोधावल गरज कर बोले ''ऐसी बात आपके मुँह से नहीं सोहती। आप क्या पागलों और धूत्त की बात में आकर साम्राज्य नष्ट होने देंगे? दैवज्ञ न जाने क्या क्या कहा करते हैं। उनकी बातों पर धयान देने लगें तो संसार का सब काम धन्धा छोड़ वानप्रस्थ लेकर बैठ रहें। कुमार बालक होने पर भी बुध्दिमान, साहसी और अस्त्रविद्या में निपुण हैं, पर आपने उनकी यथोचित शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं किया है। साम्राज्य चलाने के लिए शौर्य्य और पराक्रम की अपेक्षा कूटनीति की अधिक आवश्यकता होती है। लगातार बहुत दिनों तक राज्य परिचालन का क्रम देखते देखते अभ्यास होता है, आप स्वयं जानते हैं। आप ही को राजकाज की शिक्षा किस प्रकार मिली है? वंश में समय समय पर अद्भुत कर्म्मा प्रतापी बालक उत्पन्न होते हैं, उन्हीं को लेकर इतिहास की रचना होती है। चौदह वर्ष के समुद्रगुप्त ने उत्तरापथ के राजन्यसमुद्र को मथकर अश्वमेधा का अनुष्ठान किया था। पन्द्रह वर्ष की अवस्था में ही स्कन्दगुप्त ने अस्त्र उठाकर हूणों की प्रबल धारा की पहली बाढ़ रोकी थी। इसी प्रकार चौदह वर्ष के शशांक नरेन्द्रगुप्त प्राचीन साम्राज्य का उध्दार न करेंगे, कौन कह सकता है? महाराजाधिराज! दुश्चिन्ता छोड़िए, अब भी उध्दार की आशा है। अब भी समय है, पर आगे न रह जायगा''।
वृद्धसम्राट ने धीरे से कहा ''तो क्या करूँ''?
यशोधावल ने धीरे धीरे कहा ''आप को कुछ नहीं करना है। एक दिन यह सेवक महाराजाधिराज की आज्ञा से साम्राज्य के सब कार्य करता था। इन सूखे हुए हाथों में यद्यपि पहले का सा बल अब नहीं रहा है, किन्तु हृदय में अब तक बल है। महाराजाधिराज की आज्ञा हो तो यह दस राज कार्य का भार ग्रहण करने को प्रस्तुत है। कीर्तिधावल ने साम्राज्य के हित के लिए अपना शरीर लगा दिया। उसका वृद्धपिता भी वही करना चाहता है। आया तो था लतिका के लिए अन्न का ठिकाना करने, पर आकर देखता हूँ कि अन्नदाता का घर भी बिगड़ा चाहता है। उसे कौन आश्रय देगा? ऋषिकेशशर्म्मा और नारायणशर्म्मा अपने पद पर ज्यों के त्यों बने रहें। मैं आड़ में रहकर ही सम्राट की सेवा, जहाँ तक हो सके, करना चाहता हूँ।''
सम्राट सिर नीचा किए न जाने क्या क्या सोच रहे थे। कुछ देर पीछे सिर उठाकर उन्होंने कहा ''यशोधावल! सच कहो, राजकाज का भार तुम अपने ऊपर लोगे?''
यशोधावल-दास कभी महाराज के आगे झूठ बोल सकता है?
सम्राट-यशोधावल! रात दिन की चिन्ता से इधर बहुत दिनों से मेरी ऑंख नहीं लगती। आगे क्या होगा, यही सोचकर मेरी दशा पागलों की सी हो रही है। तुम यदि कार्य भार ग्रहण कर लो तो मैं सचमुच निश्चिन्त हो जाऊँ।
यशो -मैं सच बातें देख रहा हूँ। भविष्यत् की चिन्ता महाराज को सदा व्याकुल किए रहती है, इसे बताने की आवश्यकता नहीं। भय के मारे कोई राजकर्म्मचारी महाराज के पास नहीं आता। काम बिगड़ता देखकर भी किसी को यह साहस नहीं होता कि महाराज के पास आकर कुछ पूछे और आज्ञा की प्रार्थना करे। ऋषिकेश शर्म्मा भी जिनका राजकाज में भी सारा जीवन बीता है, सामने आकर कुछ नहीं कह सकते। नागरिक बराबर कहते हैं कि स्थाण्वीश्वर के राजा के जाने के पीछे सम्राट के मुँह पर कभी हँसी नहीं दिखाई दी।
सम्राट-बात ठीक है। प्रभाकर का आना सुनते ही मेरा चित्ता ठिकाने न रहा। प्रभाकर जितने दिनों तक नगर में रहा, मैं छाया के समान उसके पीछे लगा फिरता रहा, दास के समान उसकी सेवा करता रहा, भृत्य के समान उसका तिरस्कार सहता रहा। यशोधावल! मैं इस बात को भूल गया था कि मैं गुप्त साम्राज्य का अधीश्वर हूँ, मैं समुद्रगुप्त का वंशज हूँ और प्रभाकर मेरा भानजा । बात बात में उसके अनुचर मेरे राजकर्म्मचारियों का अपमान करते थे। एक साधारण झगड़ा लेकर उन्होंने हमारी सेना पर आक्रमण किया, नगर में घुस कर लूटपाट की, नागरिकों को मारापीटा, अन्त में जब असह्य हो गया तब नागरिकों ने भी उन पर धावा किया और उनके डेरे जला दिए। यशोधावल! क्या यही सब अपमान सहने के लिए वीर यज्ञवर्म्मा ने लौहित्या के तट पर मेरी प्राणरक्षा की थी?
यशो -महाराज! मैं सब सुन चुका हूँ। नगर में आकर जो जो बातें मैंने सुनीं वे पहले कभी नहीं सुनी गई थीं। सब सुनकर ही मेरी ऑंखें खुली हैं। महाराजाधिराज! अब आज्ञा दीजिए, मैं फिर राज्य का कार्य अपने ऊपर लूँ।
सम्राट-तुम राज्य का कार्य ग्रहण करो, इससे बढ़कर मेरे लिए कौन बात होगी? इसमें भी मेरी अनुमति पूछते हो? मैं अभी मन्त्राणा सभा बुलाता हूँ।
यशो—मन्त्राणा सभा बुलाने की आवश्यकता नहीं। केवल ऋषिकेशशर्म्मा और नारायणशर्म्मा के आ जाने से ही सब काम हो जायगा।
सम्राट-अच्छी बात है। प्रतीहार!
प्रतीहार कुछ दूर पर खड़ा था। पुकार सुनते ही उसने आकर सिर झुकाया। सम्राट ने आज्ञा दी ''विनयसेन को बुला लाओ।'' द्वारपाल अभिवादन करके चला गया। थोड़ी देर में विनयसेन आ पहुँचे। सम्राट ने कहा ''ऋषिकेशशर्म्मा, नारायणशर्म्मा और हरिगुप्त से जाकर कह आओ कि दोपहर को प्रासाद में आवें''। विनयसेन अभिवादन करके चले गए। सम्राट और यशोधावलदेव प्रासाद में लौट गए।

सोलहवाँ परिच्छेद
मन्त्रागुप्ति

पाटलिपुत्र के प्राचीन राजप्रासाद के चारों ओर गहरी खाईं थी। वह गंगा के जल से सदा भरी रहती थी। घोर ग्रीष्म के समय में भी खाईं में जल रहता था। इस समय वर्षा काल में खाईं मुँह तक भरी हुई है, पर और ऋतुओं में वह बहुत दूर तक जंगल से ढकी रहती थी। जिस नाली से होकर गंगा का पानी खाईं में आता था, वह कभी साफ न होने के कारण बालू से पट गई है। जब वर्षाकाल में गंगा का जल बढ़ता है तब उस नाली से ऊपर होकर खाईं में उलट पड़ता है। परिखा के ऊपर का प्राकार भी जगह जगह से गिर गया है। प्रासाद के चारों ओर जो परकोटा था वह पत्थर का था, पर नगर काठ का था। मरम्मत न होने से नगर के चारों ओर की दीवार प्राय: टूट फूट गई है। काठ के भारी भारी पटरों के हट जाने से बीच की मिट्टी गिर गिरकर खाईं को भर रही है। दीवार के ऊपर पेड़ पौधो का जंगल लग रहा है। नगरवाले दिन को भी उधर जाने से डरते हैं।
जिस दिन सबेरे यशोधावल ने सम्राट के पास जाकर राजकाज चलाने की इच्छा प्रकट की थी, उसी दिन सूर्य्योदय के पहले प्राचीन प्रासाद के प्रकार के ऊपर तीन भिक्खु बैठे बातचीत कर रहे थे। दूर पर एक और भिक्खु एक पेड़ के नीचे अंधेरे में खड़ा था। पेड़ पौधो के जंगल में बहुत से भिक्खु इधर उधार छिपे हुए पहरे का काम करते थे। जो तीन भिक्खु बातचीत कर रहे थे, उनमें से दो को तो हमारे पाठक जानते हैं, तीसरा व्यक्ति कपोतिक संघाराम का महास्थविर बुद्ध्घोष था। बन्धागुप्त, शक्रसेन और बुद्ध्घोष उत्तारापथ के बौद्ध्संघ के प्रधान नेता थे।
बुद्ध्घोष कह रहे थे ''भगवान् बुद्धका नाम लेकर अब तक हम लोग बौद्ध्संघ की उन्नति का प्रयत्न निर्विघ्न करते आए हैं। पर अब इतने दिनों पर फिर बाधा का रंग ढंग दिखाई देता है। यशोधावलदेव रोहिताश्वगढ़ छोड़कर पाटलिपुत्र आ रहे हैं, यह संवाद उनके आने के पहले ही हम लोगों को मिल जाना चाहिए था। करुष1 देश के संघस्थविर कान में तेल डाले बैठे हैं। वे संघ के इतने बड़े और प्रबल शत्रु का कुछ भी पता नहीं रखते''।

1. करुषदेश = वर्तमान आरा या शाहाबाद का जिला।
शक्र -महास्थविर! इसमें करुष देश के संघस्थविरों का उतना दोष नहीं है। पुत्र के मरने पर यशोधावल पागल हो गए थे और पागलों की तरह ही दुर्ग में अपने दिन काटते थे। अस्सी वर्ष के ऊपर का बुङ्ढा फिर जवान होगा, इस बात का किसी को भरोसा न था; इसी से वे लोग निश्चिन्त हो बैठे थे।
बुद्ध-वज्राचार्य्य! सैकड़ों वर्ष तक बौद्ध्संघ की जो दुरवस्था रही वह किसी प्रकार इधर दूर हुई। अब जब अच्छे दिनों का उदय दिखाई पड़ रहा है तब असावधान रहना मूर्खों का काम है। जिन लोगों पर विश्व का कल्याण अवलम्बित है उन लोगों के योग्य यह कार्य नहीं हुआ। करुष देश के संघस्थविरों के अपराध का विचार तो पीछे होगा। अब इस समय जो विपत्ति सिर पर है उससे उध्दार का उपाय निकालना है। यशोधावल आया है, राजसभा में बैठा है और इस समय सम्राट के पास ही प्रासाद में रहता है। यदि पहले से कुछ संवाद मिला होता तो इस बात का कोई न कोई उपाय किया गया होता कि वह सम्राट के यहाँ तक न पहुँचने पावे। यशोधावल कोई ऐसा वैसा शत्रु नहीं है, यह तो आप लोग जानते ही हैं। किसी सामान्य बात के लिए पाटलिपुत्र नहीं आया है, इतना तो निश्चय समझिए और जब वह आ गया है तब वह साम्राज्य की ऐसी अव्यवस्था देख चुपचाप न बैठेगा, यह भी निश्चितहै। सम्राट और यशोधावल के बीच क्या-क्या परामर्श हुआ है, इसके जानने का भी हमारे पास कोई उपाय नहीं है। इस समय हम लोगों को बहुत ही सावधान रहना पड़ेगा, नहीं तो सर्वनाश हुआ समझिए। यशोधावल किस प्रकार नगर में आया, कुछ सुनाहै?
शक्र -मैंने अपनी ऑंखों देखा है। शशांक को मारने के लिए मैं प्रासाद के चारों ओर फिर रहा था। उसे भय दिखाने के लिए मैं गंगाद्वार पर खड़ा होकर भविष्य सुना रहा था; इसी बीच में मैंने देखा कि एक छोटी सी नाव आकर घाट पर लगी। उस पर से एक वृद्धऔर एक युवक उतरा। उनके निकट आते ही मैंने यशोधावल को पहचान लिया, पर उसने मुझे नहीं पहचाना। मैं विपद् देखकर एक पेड़ पर चढ़ गया और किसी प्रकार अपनी रक्षा कर सका।
बुद्ध-उसके अनन्तर क्या क्या हुआ कुछ पता किया?
बन्धु -प्रासाद में नियुक्त गुप्तचरों ने संवाद दिया है। गंगाद्वार पर शशांक के साथ यशोधावल का परिचय हुआ। कुमार के साथ ही साथ वह गंगाद्वार से ही होकर सभामण्डप में गया। यशोधावल अभी जीवित है, पहले तो सम्राट को इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। जब यशोधावल ने सभामण्डप में प्रवेश किया तब सम्राट स्वयं वेदी से नीचे उतर आए और उन्होंने उसे गले से लगा लिया। सभा में जाकर वृद्धयशोधावल ने यह कहा कि मैं अपनी पौत्री के लिए अन्न की भिक्षा माँगने आया हूँ।
बुध्दा -ठीक है। सम्राट के साथ उसकी और क्या क्या बातचीत हुई, कुछ सुना है?
शक्र -कुछ भी नहीं। वह सम्राट के साथ अन्त:पुर तक जाता है, पट्टमहादेवी के घर में भोजन करता है इससे विष देने का भी कोई उपाय नहीं हो सकता। यशोधावल के आने पर एक बार मन्त्रणा सभा हुई थी, पर वहाँ क्या क्या हुआ, कोई कुछ भी नहीं कह सकता। उस समय स्वयं विनयसेन पहरे पर था।
बुद्ध-प्रासाद में रहनेवाले गुप्तचरों की संख्या दूनी कर दो और आज से जिन भिक्खुओं पर पूरा विश्वास हो, उन्हें छोड़ और किसी को इस काम में मत लेना।
बन्धु -अब आगे मन्त्रणा का क्या उपाय होगा? मैं देखता हूँ कि मुझे बंगदेश लौट जाना पड़ेगा।
बुद्ध-क्यों?
बन्धु -मैं ही यशोधावल के पुत्र की हत्या करने वाला हूँ, इस बात का पता उसे बिना लगे न रहेगा। मन्दिर के भीतर निरस्त्र पाकर बकरे की तरह मैंने उसके पुत्र को काटा है। जहाँ यह बात उसने सुनी कि वह न जाने क्या क्या कर डालेगा। यशोधावल कैसा विकट मनुष्य है, इसका धयान करो। उसकी प्रति हिंसा अत्यन्त भयंकर है। महास्थविर! अब तो मैं पाटलिपुत्र में नहीं ठहर सकता। मैं बंगदेश की ओर चला जाता हूँ। वहाँ रहकर जो काम होगा, निश्चिन्त होकर कर सकूँगा।
बुद्ध-संघस्थविर! क्या पागल हुए हो? भला इस विपत्ति के समय में तुम पाटलिपुत्र छोड़कर चले जाओगे? तुम अपने इस क्षणिक जीवन के लोभ में संघ का बना बनाया काम बिगाड़ोगे? यह कभी हो नहीं सकता। यदि मरना ही है तो संघ के कार्य के लिए मरो। तुम्हारे पहले न जाने कितने महास्थविर, न जाने कितने भिक्खु संघ के लिए प्राण दे चुके हैं। उन्होंने संघ की सेवा में अपने प्राण दिए, तभी संघ का अस्तित्व अब तक बना हुआ है। पहले तो कभी मृत्यु के भय ने तुम्हें नहीं घेरा था। इस समय तुम इतने व्याकुल क्यों हो रहे हो?
बन्धु-महास्थविर! साधारण मृत्यु से तो बन्धुगुप्त कभी डरनेवाला नहीं यह बात तो आप भी जानते हैं। पर यशोधावल के हाथ से जो मृत्यु होगी-बाप रे बाप!-वह अत्यन्त भीषण होगी, अत्यन्त यन्त्रणामय होगी। उसकी अपेक्षा तो हजार बार कुठार पर कण्ठ रखकर मरना अच्छा है। बंगदेश से मैं निश्चिन्त होकर संघ की सेवा कर सकूँगा। दूत और पत्र के द्वारा मन्त्रणा में योग देता रहूँगा।
बुद्ध-ऐसा नहीं हो सकता; बन्धुगुप्त! यह बात मेरी समझ में नहीं आती। हाँ, यदि इस विपत्ति के समय में तुम संघ को छोड़ देना चाहते हो तो चले जाओ।
बन्धुगुप्त सिर नीचा किए बैठे रहे। फिर धीरे धीरे बोले ''महास्थविर! आपका इसमें कोई दोष नहीं है। हम सब भाग्यचक्र में बँधे हैं। यह सब मेरे अदृष्ट का फल है। अच्छा, तो मैं न जाऊँगा।''
धीरे धीरे पूर्व दिशा में ईंगुर की सी ललाई फैल चली। एक भिक्खु ने आकर कण्ठ से एक प्रकार का शब्द निकाला और कहा ''देव! अब इस स्थान पर ठहरना ठीक नहीं है। सूर्योदय के साथ ही रास्ते में लोग इधर उधर चलने लगे हैं''।
तीन के तीनों उठ पड़े और तीन ओर को चले। चलते समय बुद्ध्घोष ने कहा ''संघ स्थिविर! घबराना नहीं। मैं स्वयं जाकर इसका प्रबन्धा करता हूँ कि यशोधावल तुम्हारे पास तक न पहुँच सके। अब से उस पुराने मन्दिर के भुइँहरे (भूगर्भस्थगृह) को छोड़ और कहीं मन्त्रणा सभा न होगी''। बुद्ध्घोष के चले जाने पर शुक्रसेन ने हँसते हँसते कहा ''स्थविर! तुम तो भाग्यचक्र को कुछ नहीं समझते थे न?'' बन्धुगुप्त ने कोई उत्तर न दिया।

 
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