रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
7
शशांक
भाग
- 2
छठा परिच्छेद
दुर्गस्वामिनी का कंगन
रोहिताश्वगढ़ आर्यावर्त के इतिहास में बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है। यह
गढ़ दक्षिण मगध और करुष(करुष देश = आजकल का आरा शाहाबाद का जिला।) की
दक्षिणी सीमा पर स्थित था और दक्षिण के जंगली प्रदेश का एकमात्र
प्रवेशद्वार था। जब तक का इतिहास मिलता है तब से लेकर इधर तक इस गढ़ का
अधीश्वर जंगली जातियों का शासक और अधिपति समझा जाता था। मुसलमानों के आने
पर रोहिताश्व दुर्ग रोहतासगढ़ कहलाने लगा और मोगल राजाओं के समय में रोहतास
का किलेदार सूबा बिहार की दक्खिनी सीमा का रक्षक माना जाता था। शेरशाह,
मानसिंह, इसलामखाँ, शाइस्ताखाँ, इत्यादि इस दुर्ग में बहुत दिनों तक रहे
हैं। सब इस पुराने दुर्ग में अपना कोईनकोई चिद्द छोड़ गए हैं। अत्यन्त
प्राचीन काल में, जिसका कोई लेखा इतिहास में नहीं है, इस दुर्ग की नींव पड़ी
थी। पर्वत का जो अंश नदी के गर्भ तक चला गया था उसी के ऊपर यह दुर्जय दुर्ग
उठाया गया था। दूर से उसके टीले को देखने से यही जान पड़ता था कि वह सोन नद
के बीचो बीच उठा हुआ है।
जिस समय की बात हम लिख रहे हैं वह आज से तेरह सौ वर्ष पहले का है। हजार
वर्ष से ऊपर हुए कि सोन अपनी धारा क्रमश:बदलने लगा। अब सोन नद न तो
पाटलिपुत्र के नीचे से होकर बहता है न रोहिताश्वगढ़ के। हजार वर्ष पहले जहाँ
सोन की धारा बहती थी वहाँ अब हरेभरे खेत और अमराइयों से घिरेहुए गाँव दिखाई
पड़ते हैं। विन्धयपर्वत का अंचल अब नदी के तट से बहुत दूर परहै।
प्राचीन रोहिताश्वगढ़ पर्वत की चोटी पर था। गढ़ भीतरी और बाहरी दो भागों में
बँटा था। बाहरी या नीचे का भाग उस लम्बे चौड़े टीले को पत्थर की चौड़ी दीवार
से घेर कर बनाया गया था। दूसरे कोट के भीतर का भाग अपरिमित धान लगाकर ऊँची
नीची पहाड़ी भूमि को चौरस करके बना था। इसकी लम्बाई चौड़ाई यद्यपि सौ हाथ से
अधिक न होगी पर यह अत्यन्त दुर्गम और दुर्जेय रहा है। रोहिताश्व के इतिहास
में यह अन्तर्भाग दो बार से अधिक शत्रुओं के हाथ में नहीं पड़ा। इसी
रोहिताश्वगढ़ के उत्तारी तोरण (फाटक) के नीचे एक मोटा ताजा बुङ्ढा बैठा
दातुन कर रहा था।
वृद्ध बहुत देर से दातून कर रहा था। उसकी प्रात:क्रिया पूरी भी न हो पाई थी
कि पूर्व के द्वार की ओर पैरों की आहट सुनाई दी। देखते देखते एक अत्यन्त
सुन्दर बालिका, जिसके घुँघराले बाल इधर उधार लहरा रहे थे, दौड़ती दौड़ती बाहर
आई और वृद्ध को देख उसे पकड़ने के लिए लपकी पर चिकने पत्थरों पर फिसल कर गिर
पड़ी। वृद्ध और एक परिचारक ने उसे दौड़कर उठाया। उसे बहुत चोट नहीं लगी थी।
बालिका उठकर हाँफती हाँफती बोली, ''बाबा! नन्नी कहती है कि घर में आटा नहीं
हैं, हम लोग खायँगे क्या?'' वृद्ध बालिका के सिर पर हाथ फेरता हुआ बोला
''कुछ चिन्ता नहीं, घर में गेहूँ होगा, रग्घू अभी पीस कर आटा तैयार किए
देता है'' बालिका बोली ''नन्नी रोती है, कहती है कि घर में एक दाना गेहूँ
भी नहीं है।'' उसकी बात सुनकर वृद्ध की आकृति गम्भीर हो गई। उन्होंने कहा
''अच्छा, मैं अभी शिकार लिए आता हूँ। रग्घू! मेरा धानुष तो ला।'' परिचारक
दुर्ग के भीतर गया। बालिका अपने दादा को जोर से पकड़ कर सिसकते सुर में बोली
''बाबा! चिड़िया और हिरन का मांस मुझ से नहीं खाया जाता, न जाने कैसी गन्धा
आती है।'' वृद्ध ठक खड़े रहे। भृत्य धानुष और बाण लेकर आया पर वृद्ध का धयान
उसकी ओर न गया। बालिका अपने बाबा की चेष्टा देखती खड़ी रही। कुछ देर बाद
वृद्ध का धयान टूटा, एक बूँद ऑंसू टपक कर उनकी सफेदसफेद मूँछों पर आ पड़ा।
वृद्ध ने परिचारक से कहा ''तू धानुष बाण रखकर मेरे साथ भीतर आ।'' वे बालिका
को लिए भीतर की ओर चले। धीरे धीरे दुर्ग के ऑंगन को पार करते हुए, जिसमें
कभी सफाई न होने के कारण घास और पौधो का जंगल सा लग रहा था, वृद्ध दूसरे
कोट के नीचे की एक छोटी कोठरी में घुसे। बगल की एक कोठरी में बुढ़िया दासी
नन्नी गेहूँ न देखकर जोरजोर से रो रही थी। वृद्ध को देखते ही वह सहम कर चुप
हो गई। कोठरी के एक कोने में लकड़ी के एक बहुत पुराने पाटे पर उससे भी
पुरानी लोहे की एक पेटी जकड़बन्द करके रखी हुई थी। वृद्ध ने बड़ी कठिनता से
भृत्य की सहायता से उसे खोला और उसके भीतर से फूलों की सूखी मालाओं से
लपेटी हुई पुराने कपड़े की एक पोटली बाहर निकाली। पोटली खोलने पर उसमें से
हीरों से जड़ा हुआ एक पुराना कंगन निकला। वृद्ध ने उसे भृत्य के हाथ में
देकर कहा ''तुम इसे लेकर बस्ती में जाओ, और धानसुख सोनार के हाथ बेच आओ। जो
कुछ दाम मिले उसमें से कुछ का आटा और गेहूँ भी लेते आना।'' कगन देते समय
वृद्ध का हाथ काँपता था। पुराने परिचारक ने यह बात देखी और उसकी दोनों
ऑंखों में ऑंसू भर आए। किन्तु आज्ञा पाकर वह चुपचाप चला गया। वृद्ध कोठरी
में बैठ गया। उसके दोनों नेत्रो से अश्रुधारा वेग से छूट कर तुषारखंडसी
श्वेत लम्बी मूँछों पर होती झरने के समान बह रही थी। बालिका कोठरी के द्वार
पर खड़ी चुपचाप अपने पितामह की यह दशा देख रही थी।
जिस समय की बात हम लिख रहे हैं उस समय गुप्त साम्राज्य की बढ़ती के दिन पूरे
हो चुके थे। मगध, अंग और राढ़ि देश को छोड़ और सारे प्रदेश गुप्तवंश के हाथ
से निकल चुके थे। तीरभुक्ति और बंगदेश भी एक प्रकार से स्वतन्त्रा हो चुके
थे। प्रादेशिक शासनकर्ता नाम मात्रा के लिए अधीन बने थे, वे राजधानी में
कभी कर नहीं भेजते थे। इतना अवश्य था कि उन्होंने प्रकाश्य रूप में अपनी
स्वाधीनता की घोषणा नहीं की थी। गुप्त साम्राज्य के समय में जिन लोगों ने
अधिकार और मान मर्य्यादा प्राप्त की थी वे अधिकांश मगध और गौड़ के रहने वाले
थे। गुप्तवंश के अभ्युदय काल में नए जीते हुए देशों में पुरस्कार स्वरूप
उन्हें बहुत सी भूमि मिली हुई थी। अपनी भूमि की रक्षा के लिए बहुतों को देश
छोड़कर विदेश में रहना पड़ता था। पर कुछ लोगों को मगध के बाहर जाने की छुट्टी
नहीं मिलती थी; कुल परम्परा से उनके यहाँ राजसेवा चली आती थी इससे सम्राट
के पास ही उन्हें रहना पड़ता था। जब गुप्तसाम्राज्य नष्ट हुआ तक उनके वंशजों
की दशा अत्यन्त हीन हो गई। विदेश में जो अधिकार उन्हें प्राप्त थे वे उनके
हाथ से धीरे धीरे निकल गए। गौड़ और बंगदेश में जिनकी कुछ भूमि थी कुछ दिनों
तक वे सुख से रहे। पीछे महासेनगुप्त के पिता दामोदरगुप्त के समय में उनके
अधिकार भी नष्ट हो गए। पाटलिपुत्र और मगध में चारों ओर ऐसे लोग दिखाई देने
लगे जिनके पास उच्चवंश के अभिमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह गया था।
प्राचीन अभिजातवंश और अमात्यवंश की दुर्दशा के साथसाथ गुप्त साम्राज्य की
दशा भी दिनोदिन हीन होती जाती थी।
रोहिताश्व के गढ़पति गुप्त साम्राज्य की बढ़ती के दिनों में अत्यन्त
प्रतापशाली थे। दक्षिणप्रान्त की रक्षा करने के कारण सम्राटों से उन्हें
बहुत सम्मान प्राप्त था। जिस समय देश पर देश अधिकृत होकर गुप्तसाम्राज्य
में मिलते जाते थे रोहिताश्व के गढ़पतियों को मालव और बंगदेश में बहुतसी
भूमि मिली थी। जब साम्राज्य का धवंस आरम्भ हुआ तब मालव की भूमि
रोहिताश्ववालों के अधिकार से निकल गई। पर जब तक बंगदेश में उनकी भूसम्पत्ति
बनी रही तब तक उन्हें किसी बात का अभाव नहीं था। सम्राट दामोदरगुप्त के समय
में बंगदेश के शासक ने राजस्व भेजना बन्द कर दिया। पर उनके पीछे भी बहुत
दिनों तक रोहिताश्व के गढ़पति अपनी भूमि का कर पाते रहे। धीरे धीरे वह भी
बन्द हो गया। दुर्ग के आसपास की पथरीली भूमि पर ही उनका अधिकार रह गया।
उसकी उपज का षष्ठांश ही वे पाते थे और उसी से कष्टपूर्वक अपने दिन काटते
थे। जो वृद्ध प्रात:काल परिखा (खाई) के किनारे बैठे दातुन कर रहे थे
रोहिताश्वगढ़ के वर्तमान अधाीश्वर यशोधावलदेव थे। यशोधावलदेव अति प्राचीन और
प्रतिष्ठित वंश के थे। महानायक की पदवी पुरुषपरम्परा से उनके यहाँ चली आती
थी और गुप्तसाम्राज्य में उन्हें राजकुमारों के तुल्य सम्मान प्राप्त था।
यशोधावलदेव की अवस्था सत्तर वर्ष से ऊपर होगी। दामोदरगुप्त के समय में
उन्होंने अनेक युध्दों में कीर्ति प्राप्त की थी। महासेनगुप्त के समय में
भी उन्होंने मौखरीवंश के राजाओं को पराजित करके दक्षिण मगध में
विद्रोहाग्नि शान्त की थी। उनके मात्रा एक पुत्र का नाम कीर्तिधावल था।
पुत्र भी पिता के समान ही यशस्वी और पराक्रमी था। अभाव में जीवन व्यतीत
करना उससे न देखा गया। उसने बिना पिता से पूछे बंगदेश में जाकर अपने
पूर्वपुरुषों की भूमि पर अधिकार करना चाहा। पर नदी से घिरे समतट प्रदेश में
वह मारा गया।
स्वामी का मृत्युसंवाद पाकर कीर्तिधावल की पत्नी ने तो अग्निप्रवेश किया।
तब से भग्नहृदय वृद्ध यशोधावलदेव मातृपितृ हीन पौत्री को लिए पूर्वजों के
पुराने दुर्ग में किसी प्रकार अपने जीवन के दिन पूरे कर रहे हैं। पुत्र के
मरे पीछे उनकी दशा दिनोदिन और दीन होती गई। आसपास की प्रजा नियमित रूप से
कर भी नहीं देती थी। वेतन न पाकर दुर्गरक्षक एकएक करके काम छोड़कर चले गए।
होतेहोते बूढ़े परिचारक रग्घू और नन्नी टहलनी को छोड़ गढ़ में और कोई न रह
गया। उस समय भी गढ़पति के अधिकार में आसपास की जो भूमि रह गई थी उसका कर यदि
नियमित रूप से मिलता जाता तो उन्हे अन्न कष्ट न होता पर पास में आदमी न
होने से उपज का षष्ठांश अन्न गढ़ में न पहुँचता था। जब कोई माँगने ही न जाता
तब प्रजा को आप से आप कर पहुँचाने की क्या पड़ी थी। अन्त में युवराज
भट्टारकपादीय महानायक यशोधावलदेव को अन्नाभाव से विवश होकर अपनी स्वर्गीय
पत्नी का चिद्दस्वरूप अलंकार बेचना पड़ा।
बालिका थोड़ी देर खड़ीखड़ी अपने बाबा की दशा देखती रही, उसकी दोनों ऑंखों में
भी जल भर आया। उधार से नन्नी आकर उसे गोद में उठा ले गई। देखतेदेखते दोपहर
हो गई। रग्घू पसीने से लथफथ एक बड़ा बोरा पीठ पर लादे आ पहुँचा। उसे देख
वृद्ध आपे में आए। वे ऑंख उठा कर रग्घू के मुँह की ओर ताका ही चाहते थे कि
उसने टेंट से दस स्वर्ण मुद्राएँ निकाल कर रख दीं और कहा-धानसुख सोनार ने
आपको प्रणाम कहा है और कहा है कि ''कगन का पूरा मूल्य मैं इस समय नहीं दे
सका, सन्धया होतेहोते और मुद्राएँ लेकर मैं सेवा में आऊँगा।'' नन्नी और
रग्घू ने देखा कि उस दिन वृद्ध गढ़पति कुछ आहार न कर सके।
सन्धया होने के कुछ पहले ही एक क्षीणकाय वृद्ध धीरे धीरे पैर रखता गढ़ के
भीतर गया। वह चकित होकर इधर उधार ताकता जाता था। वह देखता था कि तोरण पर न
तो कोई पहरेवाला है, न इधर उधार परिचारक दिखाई देते हैं। फाटक भी टूटा फूटा
है, उसमें जड़े हुए लोहे निकलकर इधर-उधार पड़े हैं। गढ़ के भीतर पैर रखना कठिन
है, प्रांगण में घासपात का जंगल उगा है। दीवारों से बरगद और पीपल के पेड़
निकलकर बड़ेबड़े हो गए हैं। गढ़पति के रहने का भवन भी गिरीपड़ी दशा में है। भवन
की सजावट की वस्तुएँ झाड़पोंछ के बिना मैली हो रही हैं, उनपर धूल जम रही है।
दुर्ग के भीतर की अवस्था देखने से जान पड़ता है कि यहाँ अब मनुष्य का वास
नहीं है। दूसरे दुर्ग के नीचे एक छोटी कोठरी के सामने एक बहुमूल्य पारसी
कालीन पर वृद्ध गढ़पति बैठे हैं। सोनार ने उन्हें देखते ही भूमि पर पड़कर
साष्टांग प्रणाम किया। वृद्ध दुर्गस्वामी ने उसे बैठने को कहा, पर वह बैठा
नहीं, उसने एक थैली में से बहुतसी स्वर्णमुद्राएँ निकालकर वृद्ध के सामने
रख दीं और कहा ''कंगन कितने मूल्य का होगा यह अभी मैं ठीकठीक नहीं कह सकता।
एकसहò स्वर्णमुद्रा जो मेरे पास इस समय है, मैं लाया हूँ शेष थोड़े दिनों
में पाटलिपुत्र से आ जाता है।''
वृद्ध-कंगन का मूल्य क्या इतना अधिक होगा?
धानसुख-मेरी जहाँ तक परख है कंगन का मूल्य दस सह स्वर्णमुद्रा से कम न
होगा।
वृद्ध-इतना अधिक मूल्य तुम दे सकते हो?
धान-अपने बेटे को पाटलिपुत्र भेजा है, उसके आने पर मैं दे सकता हूँ।
वृद्ध निश्चिन्त हुए, किन्तु धानसुख उसी प्रकार सामने खड़ा रहा, गया नहीं।
थोड़ी देर में गढ़पति ने फिर पूछा ''धानसुख! जापिल गाँव में हमारा एक सेनापति
महेन्द्रसिंह रहता था, क्या वह अभी है?''
धान-प्रभो! महेन्द्रसिंह का तो बहुत दिन हुआ स्वर्गवास हो गया, उनके पुत्र
वीरेन्द्रसिंह हैं जो अब खेती में लग गए हैं। फिर भी जापिल ग्राम में अभी
आपके पुराने सेनानायक हरिदत्ता अक्षपटलिक विधुसेन और पर्वतखंड के
सिंहदत्ताजी जीवित हैं।
वृद्ध के नेत्रा दमक उठे। उन्होंने कहा ''बहुत अच्छा हुआ जो तुम आ गए। मेरा
पाटलिपुत्र जाने का विचार हो रहा है। तुम इन्हें मेरे पास भेज दोगे?'' बूढ़ा
धानसुख घुटने टेक हाथ जोड़कर बोला ''प्रभो! मेरा अहोभाग्य कि आज मुझे आपका
दर्शन मिला। इधर दस वर्ष से किसी ने आपका दर्शन नहीं पाया है। जो बंगदेश के
युद्ध से लौट आए थे वे लज्जा से आपके सामने मुँह नहीं दिखा सकते। पर निश्चय
जानिए, आपके दर्शन के लिए सब तरस रहे हैं। वे कल सबेरे ही दुर्ग में आपके
दर्शन को आएँगे। ''वृद्ध के नेत्रो में जल झलक पड़ा। उन्होंने कहा ''जो लोग
आना चाहें आएँ उन्हें देखकर मैं बहुत सुखी हूँगा। पर उनसे यह कह देना कि
मुझ में अब वह सामर्थ्य नहीं, मैं अब किसी योग्य नहीं रह गया हूँ। आने पर
मुट्ठी भर अन्न भी दे सकूँगा कि नहीं, नहीं कह सकता। मेरे पास अब न लोकबल
है न अर्थबल। तुम तो मेरी दशा देख ही रहे हो। ऐसा न होता तो क्या मैं
दुर्गस्वामिनी का कंगन कभी अपने हाथों से बेचता।''
गढ़पति की बातें सुनकर धानसुख चुपचाप ऑंसू गिरा रहा था। उसके मुँह से एक बात
न फूटी। वह फिर साष्टांग प्रणाम करके चला गया।
सातवाँ परिच्छेद
महादेवी का विचार
पाटलिपुत्र के प्राचीन राजप्रासाद के भीतर एक छोटी कोठरी में सन्धया बीतने
पर दो व्यक्ति बैठे हैं। उस छोटी कोठरी में नीलपट पड़े हुए हैं, भूमि कोमल
बहुमूल्य पारसी कालीन से ढकी है। हाथीदाँत के एक छोटे से सिंहासन पर
महादेवी महासेनगुप्ता विराज रही हैं। उनके सामने सोने के सिंहासन पर राजसी
पीत परिधान धारण किए, विविध आभूषणों से अलंकृत सम्राट प्रभाकरवर्ध्दन बैठे
हैं। घर के एक कोने में एक टिमटिमाता हुआ गन्धदीप स्वच्छ नीलपट की ओट से
कोठरी के कुछ भाग पर मृदुल प्रकाश डाल रहा था। अंधेरे में बैठी हुई दोनोंर्
मूर्तियाँ स्पष्ट नहीं दिखाई देती थीं। माता और पुत्र के बीच धीरे धीरे
बातचीत हो रही थी। महादेवी कहती थीं ''प्रभाकर! तुम्हारा इस प्रकार आपे के
बाहर होना उचित नहीं है। अब तुम नवयुवक नहीं हो। मगध तुम्हारे मामा का
राज्य है, यह भवन तुम्हारे मामा का है। तुम इस पाटलिपुत्र नगर में अतिथि
होकर आए हो। तुम्हारा मातामहवंश बहुत प्राचीन है, आर्यावर्त में अत्यन्त
प्रतिष्ठित है। इस समय भी उत्तारापथ में तुम्हारे पितृकुल की अपेक्षा
मातृकुल को लोग अधिक सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। दिनों के फेर से मेरा
पितृकुल इस समय दुर्दशा में है और तुम्हारा पितृकुल बढ़ती पर है! इसलिए
सम्राट पदवीधारी स्थाण्वीश्वर के राजा को क्या यही उचित है कि वह अपने मामा
के यहाँ अतिथि होकर आए और उसका अपमान करे?''
महादेवी यह बात बहुत धीरे धीरे कह रही थीं। उनका स्वर इतना धीमा था कि उस
कोठरी के बाहर से उसे कोई नहीं सुन सकता था।
प्रभाकरवर्ध्दन उत्तोजित होकर कहने लगे ''महादेवी! आप आदि से अन्त तक मेरी
बात ''
उन्हें रोककर महासेनगुप्ता बोलीं ''प्रभाकर! मैं तुम्हारी माता हूँ। जो कुछ
तुम कहा चाहते हो मैं सब समझती हूँ। पाटलिपुत्र के उद्दंड नागरिक एकदम
निर्दोष हैं यह मैं नहीं कहती। पर उन्होंने थानेश्वर के सैनिकों का
अत्याचार देख कर ही उत्तोजित होकर हमारे शिविर पर आक्रमण किया है।''
बात कटती देख स्थाण्वीश्वर के सम्राट के मुँह के कोने पर कुछ ललाई दिखाई
दी। उन्होंने बड़े कष्ट से अपने भाव को छिपाकर कहा ''आपकी जो इच्छा हो,
करें।''
महा -मैं तुम्हारे सामने ही कल की घटना से सम्बन्धा रखनेवाले लोगों को
बुलाकर विचार करती हूँ, तुम कुछ न बोलना। यदि कुछ कहना तो पट की ओट में
बुलाकर कहना। तुम्हारे कर्मचारियों ने तुमसे क्या-क्या कहा है?''
प्रभा -एक सैनिक ने मार्ग में एक सुन्दर दासी मोल ली थी। उसे देख कर नागरिक
कहने लगे कि वह नगर के बनिए की लड़की है। उसी दासी के पीछे सैनिकों और
नागरिकों में झगड़ा होने लगा। उसी बीच कुमार शशांक वहाँ पहुँचे और मगध सेना
का एक दल लेकर थानेश्वर के सैनिकों पर टूट पड़े और उन्होंने उन्हें मारकर
शिविर में आग लगा दी। नगर के दूसरे पार्श्व से जब तक हमारी सेना पहुँचे तब
तक सारा काम हो गया।''
महा -तुम्हारे कर्मचारियों ने तुमसे जो कुछ कहा है सब झूठ है। किसकी बात सच
है यह अभी तुम्हारे सामने दिखाती हूँ।
ताली बजाते ही पट हटाकर एक वृद्ध परिचारक घर में आया। महादेवी ने उससे
कहा-''महाप्रतीहार1 विनयसेन को तो भेजो।'' परिचारक दो बार प्रणाम करके बाहर
चला गया और थोड़ी देर में फिर आकर खड़ा हुआ। उसके साथ एक उज्ज्वल वर्म्मधारी
पुरुष ने आकर द्वार पर से प्रणाम किया। वे ही महाप्रतीहार विनयसेन थे।
1. महाप्रतीहार = नगररक्षक, पुररक्षकों का नायक। कोतवाल।
महादेवी ने उनसे पूछा ''पाटलिपुत्र के मार्ग में जिस सैनिक ने दासी मोल ली
थी उसका नाम क्या है?''
विनय -चन्द्रेश्वर। वह जालन्धार की अश्वारोही सेना का है।
महा -उसे यहाँ ले आओ।
महाप्रतीहार दो बार अभिवादन करके निकले। फिर परदा उठा और महाप्रतीहार
चन्द्रेश्वर को लिए आ पहुँचे। महादेवी ने हँसतेहँसते पूछा ''तुम्हारा नाम
क्या है?''
सैनिक-चन्द्रेश्वर।
महा -निवास कहाँ है?
सैनिक-जालन्धर नगर में।
महा -तुम थानेश्वर की सेना में हो?
सैनिक ने अभिवादन किया। महादेवी ने फिर पूछा ''वाराणसी से पाटलिपुत्र आते
हुए तुमने कोई दासी मोल ली थी?''
सैनिक-हाँ, पाटलिपुत्रवाले उसे मुझसे छीन ले गए।
महा -तुमने उसे किससे मोल लिया था?
सैनिक-मार्ग में एक बनिए से।
महा -कितना मूल्य दिया था?
सैनिक-दस दीनार1A
महा -अच्छा जाओ। विनयसेन! उस लड़की को तो ले आओ।
दोनों अभिवादन करके बाहर गए। परिचारक पट हटाकर आया और अभिवादन करके बोला
''द्वार पर सम्राट महासेनगुप्त खड़े हैं।'' इतना सुनकर भी प्रभाकरवर्ध्दन
ज्यों के त्यों आसन पर बैठे रहे। महादेवी ने यह देख क्रुद्ध होकर कहा
''पुत्र! तुम्हारी बुध्दि एकबारगी लुप्त हो गई? द्वार पर तुम्हारे मामा खड़े
हैं, जाकर उन्हें आगे से ले आओ।'' प्रभाकरवर्ध्दन का चित्ता ठिकाने आया। वे
घबराकर सिंहासन से उठ पड़े और द्वार पर अपने मामा को लेने गए। इसी बीच में
परिचारिकों ने एक और सिंहासन ला कर रख दिया। घर में आकर दोनों बैठ गए।
महा.-भैया! आप यहाँ चाहे जिस लिए आए हों, थोड़ा बैठ जाइए। मैं एक विषय का
विचार कर रही हूँ, आप भी सुनिए।
महाप्रतीहार विनयसेन उस बालिका को लेकर घर में आए। विनयसेन के आदेशानुसार
बालिका ने तीनों को प्रणाम किया।
महा -तुम्हारा नाम क्या है?
बालिका-गंगा।
1. दीनार-गुप्तकाल में यह सोने का सिक्का चलता था। किसी समय फारस से लेकर
रोम तक इस नाम की स्वर्णमुद्रा प्रचलित थी। प्राचीनकाल में उस नाम की एक
ताम्रमुद्रा भी कश्मीर आदि में चलती थी-अनुवादक।
महा -तुम किस जाति की हो?
बालिका-क्षत्रिय।
महा -तुम्हारे पिता का नाम क्या है?
बालिका के नेत्रा गीले हो गए। उसने उत्तर दिया ''यज्ञवर्म्मा।''
महादेवी ने उसकी ऑंखों में ऑंसू देख उसे ढाँढ़स बँधा कर कहा ''बेटी डरो मत।
अब तुम से कोई कुछ नहीं बोलेगा। तुम रहनेवाली कहाँ की हो?''
बालिका के कोमल कपोलों पर टपटप ऑंसू गिरने लगे, उसका गला भर आया। वह बोली
''चरणाद्रि दुर्ग।''
अब तक सम्राट महासेनगुप्त पत्थर की मूर्ति बने चुपचाप सिंहासन पर बैठे थे।
जो कुछ बातचीत हुई उसका बहुतसा अंश उनके कानों में नहीं पड़ा था। पर
'यज्ञवर्म्मा' और 'चरणाद्रिदुर्ग' सुनते ही वे चौंक पड़े। वे बालिका से
पूछने लगे 'क्या कहा, चरणाद्रिगढ़? तुम्हारे पिता का नाम यज्ञवर्म्मा है?
कौन यज्ञवर्म्मा? मौखरिनायक शार्दूलवर्म्मा के पुत्र?'' बालिका ने रोते
रोते कहा ''हाँ''। सम्राट और कुछ कहा ही चाहते थे कि बीच में महादेवी ने
महाप्रतीहार को प्रधान महल्लिका को बुलाने की आज्ञा दी। विनयसेन तीन बार
अभिवादन करके बाहर गए और पलभर में महल्लिका को साथ लिए लौट आए। महादेवी ने
उससे कहा ''बालिका को ले जाओ, इसे चुप कराके फिर ले आना''।
महादेवी ने सम्राट की ओर फिर कर पूछा ''आप यज्ञवर्म्मा के सम्बन्धा में
क्या कह रहे थे?'' सम्राट ने लम्बी साँस भरकर कहा ''देवि! वह बहुत दिनों की
बात है। तब तक साम्राज्य का बहुत कुछ गौरव बना हुआ था, जब तक मेरी भुजाओं
में बल था। उस समय यज्ञवर्म्मा के नाम से सारा उत्तरापथ काँपता था। बहुत
प्राचीनकाल से मौखरीवंश की एक शाखा के अधिकार में चरणाद्रि का दुर्ग चला
आता था। गुप्त साम्राज्य की ओर से उस वंश के लोग उस दुर्ग की रक्षा पर
नियुक्त थे। भट्टों और चारणों के मुँह से सुना है कि महाराजाधिराज
समुद्रगुप्त ने उन लोगों को उस दुर्ग की रक्षा का भार दिया था। प्रथम
कुमारगुप्त और स्कन्दगुप्त के समय में जब बर्बर हूण देश में टिड्डीदल की
तरह टूट पड़े थे, साम्राज्य की उस घोर दुर्दशा के समय में मौखरिगढ़पतियों ने
किस प्रकार दुर्ग रक्षा की थी उसे चारण लोग अब तक गली गली गाते फिरते हैं।
बहिन! बाल्यकाल की बात का क्या तुम्हें कुछ भी स्मरण नहीं है? वृद्ध यदु
अभी जीता है। विवाह के पहले गंगा की बालू में बैठे हम दोनों भाई बहिन बूढ़े
यदुभट्ट का गान सुनते सुनते अपने आपको भूल जाते थे, वह सब क्या तुम्हें भूल
गया?''
बोलते बोलते सम्राट उठ खड़े हुए और कहने लगे ''मौखरि नरवर्म्मा ने किस
प्रकार दुर्ग रक्षा की थी, क्या भूल गया? यदुभट्ट की बातें अब तक मेरे
कानों में गूँज रही हैं, उसका वह कण्ठस्वर अब तक मुझे सुनाई दे रहा है।
जिस समय अन्न और जल के बिना दुर्ग के भीतर की सेना व्याकुल हो उठी तब भी
वीर नरवर्म्मा ने साहस न छोड़ा। छोटे बच्चे ने प्यास के मारे तलफतलफ कर
सामने ही प्राण त्याग दिए पर नरवर्म्मा विचलित न हुए। वीरगण! उस मौखरि वीर
ने क्या कहा था सुनो। इस चरणाद्रिगढ़ में मौखरिवंश महाराजाधिराज समुद्रगुप्त
का प्रतिष्ठित किया हुआ है, समुद्रगुप्त के वंशधार को छोड़ कोई इसके भीतर
पैर नहीं रख सकता। जब तक एक भी मौखरि के शरीर में प्राण रहेगा तब तक सम्राट
को छोड़ और कोई अपनी सेना सहित दुर्ग में नहीं घुस सकता। वीरो! मौखरिवीर ने
जो किया था वह आर्यर्वत्त देश में कोई नई बात नहीं है। सैकड़ों दुर्गों में,
सैकड़ों युध्दों मे विदेशी सेनाओं ने वैसी सैकड़ों बातें देखी हैं, और देखकर
चकित रह गए हैं? मौखरि कुलांगनाओं के रक्त से दुर्ग का ऑंगन लाल हो गया है।
सिर कटे बच्चों के कोमल धाड़ नोच कर फेंके हुए फूलों के समान पत्थर की कड़ी
धारती पर पड़े हैं। मौखरिवीर कहाँ हैं? क्या अपने पुत्र, माता, और भगिनी के
नाम पड़े रो रहे हैं? नहीं, वह देखो! दुर्ग के प्राकार पर गरुड़धवज ऊपर उठ
रहा है। मौखरिवीर केसरिया बाना पहने उल्लास से गरज रहे हैं। कण्ठ में रक्त
जवाकुसुम की माला धारण किए, रक्त चन्दन का लेप किए वीर नरवर्म्मा स्वयं
गरुड़धवज हाथ में लिए सेना को बढ़ा रहे हैं। उनके गम्भीर जयनाद को सुनकर
हजारों हाथ नीचे खड़े हूण दहल रहे हैं। भीषण् हुंकार सुनकर पशु पक्षी पहाड़
छोड़ कर भागे जा रहे हैं। इस जीवन की चिन्ता के साथहीसाथ उस वीर के चित्ता
से पुत्रकलत्रा की चिन्ता भी दूर हो गई है। जहाँ तक मनुष्य का वश चल सकता
है नरवर्म्मा ने किया, जो बात मनुष्य के वश के बाहर है उसके सम्बन्धा में
कोई क्या कर सकता है? धीरे धीरे हूण सेना गढ़ के कोट पर चढ़ गई, किन्तु जब तक
एक भी मौखरि जीता रहा हूण गढ़ के भीतर न घुस सके। जब नरवर्म्मा और उनके साथी
दुर्ग के प्राकार पर महानिद्रा में मग्न हो गए तब हूणों ने दुर्ग पर अधिकार
किया।
देवि! शार्दूलवर्म्मा को भूल गईं क्या? उस विशाल शरीरवाले योध्दा का कुछ
धयान आपको है जो हाथ में परशु लिए पिताजी के सिंहासन के पास खड़ा रहता था?
यज्ञवर्म्मा का स्मरण मुझे है, पूरा स्मरण है। उनके हाथ में यदि खड्ग न
होता तो ब्रह्मपुत्र के किनारे सुस्थितवर्म्मा के हाथ से मैं मारा गया
होता। उन्हीं यज्ञवर्म्मा की कन्या आज ''
कटे हुए कदली के समान सम्राट मर्च्छित होकर धड़ाम से भूमि पर गिर पड़े, यदि
प्रभाकर झट से थाम न लेते तो उन्हें बहुत चोट आती। महाप्रतीहार के बुलाने
पर प्रासाद के परिचारक आकर उपचार में लग गए। थोड़ी देर में उन्हें सुधा हुई
और उन्होंने किसी प्रकार मुँह पर थोड़ी हँसी लाकर अपनी बहिन से कहा ''देवि!
मैं आपके विचार में अब बाधा न दूँगा। बुढ़ापे ने अब मुझे भी आ घेरा है, बाल
सफेद हो गए हैं, देह में अब शक्ति नहीं रह गई है, साथ ही मानसिक बल भी जाता
रहा है, मेरा अपराध क्षमा करना।''
महा -भैया! आपका जी अच्छा नहीं है, घर के भीतर जाकर थोड़ा विश्राम कीजिए।
मैं अकेले विचार कर लूँगी।
सम्राट-देवि! अनेक युध्दों में साम्राज्य के लिए मौखरि लोगों ने अपना रक्त
बहाया है। यज्ञवर्म्मा ने अनेक युध्दों में मेरी प्राणरक्षा की है। कई
रातें हम दोनों ने अस्त्रो की शय्या पर एक साथ काटी है। महाप्रतापी मौखरि
महानायक की कन्या किस प्रकार एक सामान्य सैनिक के हाथ में पड़ी, मैं सुनना
चाहता हूँ।''
महादेवी ने कोई उत्तर न देकर अपने भाई के मुँह की ओर देखा और महाप्रतीहार
से कहा ''पृथूदक की पदातिक सेना के नायक रत्नसेन को बुला लाओ और उसके साथ
बालिका के भाई को भी लेते आना''।
रत्नसेन और बालक को लेकर महाप्रतीहार के लौटने पर महादेवी ने रत्नसेन से
पूछा ''तुम्हारा नाम रत्नसेन है?''
रत्न -हाँ।
महा -तुम क्या काम करते हो?
रत्न -मैं पृथूदक की पदातिक सेना का नायक हूँ।
महा -तुम कल सबेरे किसी दूकान पर सीधा मोल लेने गए थे?
रत्न -हाँ! मेरे अधीनस्थ सेनाशतक का निरीक्षण हो जाने पर गौल्मिक की आज्ञा
लेकर मैं इसी बालक के पिता की दूकान पर चावल दाल लेने गया था।
महा -दूकानवाला इस लड़के का पिता है यह तुमने कैसे जाना?
रत्न -मैंने जो सामग्री ली थी उसका बोझ अधिक हो जाने पर दूकानदार ने कहा था
कि मेरा लड़का तुम्हारे साथ जाकर इसे पहुँचा आएगा।
महा -तुमने और पहले भी इन दोनों को कभी देखा था।
रत्न -न।
महा -अच्छा, अब पीछे जाकर खड़े रहो। विनयसेन! दूकानदार यहाँ है?
विनय -वह तो सौदा लादने अंग देश गया हुआ है, उसकी रखेली यहाँ है।
महा -अच्छा उसी को लिवा लाओ।
विनयसेन के चले जाने पर महादेवी ने बालक से पूछा-
''तुम्हारा नाम क्या है?''
बालक-प्रनन्तवर्म्मा।
महा -मौखरिवंशीय यज्ञवर्म्मा तुम्हारे पिता हैं?
बालक ने सिर हिलाकर कहा 'हाँ'।
महा -तुम लोग क्या चरणाद्रिगढ़ में रहते थे?
बालक-हाँ! पर इधर मेरे चचेरे भाई के पुत्र अवन्तीवर्म्मा ने हम लोगों को
निकाल दिया था।
महासेनगुप्ता कुछ काल तक चुप रहीं, फिर पूछने लगीं-''गढ़ की सेना क्या
तुम्हारे पिता के विरुद्ध हो गई थी?''
बालक-नहीं, पिताजी कहते थे कि यदि भीतर भीतर थानेश्वर के राजा उसकी सहायता
न करते तो मेरा चचेरा भाई हम लोगों को कभी नहीं निकाल सकता था।पिता ने
सहायता के लिए पाटलिपुत्र दूत भेजा था, किन्तु सम्राट ने कुछ सहायता नकी।
प्रभाकरवर्ध्दन के मुख का रंग कुछ और हो गया, लज्जा से महासेनगुप्ता ने भी
सिर नीचा कर लिया। महादेवी ने फिर पूछा ''दुर्ग से हटाए जाने पर तुम लोगों
ने क्या किया?''
बालक-पिता मुझे और बहिन को लिए सहायता माँगने के लिए सम्राट के पास आ रहे
थे, मार्ग में-
बालक का गला भर आया उसकी नीली नीली ऑंखों में जल झलकने लगा। यह देख महादेवी
ने उसे खींचकर गोद में बिठा लिया। बालक सिसकसिसक कर रोने लगा। इतने में
विनयसेन हम लोगों की पूर्वपरिचित सहुवाइन (परचूनवाली) को लिए आ पहुँचे। घर
में आने के पहले ही से वह बिलबिला रही थी; कोठरी में पहुँचते ही उसने पूरे
सुर में रोना आरम्भ किया। जब पीछे से एक प्रतीहार ने चाँटा दिया तब जाकर
उसका रोना कुछ थमा। वह कहने लगी ''मैंने कोई अपराध नहीं किया है, मुझे बिना
अपराध पकड़ लाए हैं।'' जब विनयसेन ने देखा कि उसके शोक का वेग बराबर बढ़ता
जाता है तब उन्होंने उसे चुप रहने के लिए कहा। महादेवी ने पूछा तुम्हारा
नाम क्या है?''
स्त्री-मेरा नाम मल्लिका है, मेरी माँ का नाम-
विनय -जितनी बात पूछी जाती है उतनी ही का उत्तर दे।
वह क्या करती? चुप हो रही। प्रभाकरवर्ध्दन ने उससे पूछा-''यह लड़का तुम्हारा
बेटा है?'' उस स्त्री को अपनी प्रगल्भता दिखाने का अवसर मिला। वह
चिल्लाचिल्लाकर रोने और कहने लगी, ''अरे, बाबा रे बाबा! मेरे सात, चौदह
पुरखों में कभी किसी को बेटा नहीं हुआ, सब लड़कियाँ ही हुईं। मुँहजला न जाने
कहाँ से जी का जंजाल एक छोकरा उठा लाया?''
प्रतीहार के डाटने पर वह चुप हुई। महादेवी उसकी बातें सुनसुन कर हँस रही
थीं। उसके चुप होने पर वे फिर पूछने लगीं ''जिसे मुँहजला कह रही हो वह
तुम्हारा पति है?'' स्त्री बोली ''नारायण! नारायण! मेरे पति को मरे तो न
जाने कितने दिन हुए। इसके साथ तो बहुत दिनों की जानपहचान है। गाँव से
सौदापत्तार लाकर मेरे यहाँ बेचा करता है और जब नगर में आता है तब मेरे ही
घर टिकता है''। महादेवी ने कहा ''बस, सब समझ गई, अब तुम जाओ।'' स्त्री ने
जी का धान पाया, बिना और कुछ कहे सुने वह एक साँस में वहाँ से भागी। तब
महादेवी ने उस बालक को गोद में बिठा कर पूछा ''तुम लोग क्या चरणाद्रि से
पाटलिपुत्र पैदल ही आते थे?''
बालक-हाँ, अवन्तीवर्म्मा ने हम लोगों का जो कुछ था सब ले लिया। पिताजीके एक
बूढ़े सेवक ने एक गदहा कहीं से लाकर दिया था। उसी पर चढ़कर मैं अवन्तीवर्म्मा
के डर से छिप कर आ रहा था। बहिन और पिताजी पैदल ही आते थे।''
महा -फिर क्या हुआ?
बालक-एक दिन मार्ग में पानी बरसने लगा। किसी गाँव में पहुँचने के पहले ही
दिन डूब गया और चारों ओर अधेरा छा गया। पिताजी हम लोगों को लेकर एक आम के
पेड़ के नीचे ठहर गए। उस मार्ग से बहुत से अश्वारोही जा रहे थे। उनमें से कई
एक को पेड़ की ओर आते देख ज्यों ही पिताजी पेड़ के नीचे से हटकर जाने लगे कि
एक ने भाले से उन्हें मार गिराया।''
महादेवी विनयसेन की ओर देखकर बोलीं ''नायक रत्नसेन से कह दो कि जायँ।''
नायक तीन बार अभिवादन करके चले गए। बालक का जी जब कुछ ठिकाने आया तब
महादेवी ने फिर पूछा ''हाँ, तब उसके पीछे क्या हुआ?''
बालक-अश्वारोही बहिन को लेकर चले गए। गदहा मुझे पीठ पर लिए भाग खड़ा हुआ।
सबेरे एक बनिए ने मुझे देखा और इस नगर में ले आया। जो सैनिक यहाँ से अभी
गया है उसने उसी बनिए के यहाँ से चावल लिया था और मैं बोझ पहुँचाने उसके
साथ पड़ाव की ओर गया था। वहाँ अपनी बहिन को देख मैं लिपट गया। अन्त में एक
देवता मुझको यहाँ लाए।''
सम्राट महासेनगुप्त सिंहासन पर से उठ खड़े हुए और बोले ''देवि! यज्ञवर्म्मा
के पुत्र का पालन करना मेरा धर्म है। बच्चा! अब तुम्हें कोई डर नहीं। अब से
मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।''
बालक-''पिताजी कहते थे कि यदि मैं मर जाऊँ तो, अनन्त तुम सम्राट
महासेनगुप्त के यहाँ आश्रय लेना, और किसी के पास न जाना। आप कौन हैं मैं
नहीं जानता। मैं तो सम्राट के पास जाऊँगा।''
वृद्ध सम्राट के शीर्ण गंडस्थल पर अश्रुधारा बहने लगी। उनका गला भर आया।
काँपते हुए स्वर से बोल उठे। ''हा! मैं अपने प्राणरक्षक को भूल गया, पर
यज्ञवर्म्मा मुझे न भूले। पुत्र! मेरा ही नाम महासेनगुप्त है।'' बालक
सम्राट के पैरों पर लोट पड़ा। सम्राट उसे गोद में उठाकर बाहर चले गए। उनके
चले जाने पर महादेवी महासेनगुप्ता ने कहा ''प्रभाकर! मेरा विचार पूरा हो
गया। कहो, कुछ कहा चाहते हो।'' लज्जा से सिर झुकाकर प्रभाकर ने कहा ''माता!
मेरी ही भूल थी, क्षमा कीजिए। मैं अभी जाकर चन्द्रेश्वर के दंड की व्यवस्था
करता हूँ।''
आठवाँ परिच्छेद
रोहिताश्व के गढ़पति
रोहिताश्वगढ़ के प्राचीन भवन पर बहुत से कौवे बैठकर काँव काँव कर रहे हैं पर
अभी गढ़वासियों की नींद नहीं टूटी है। कौवों के शोर से रग्घू की नींद खुली।
उसने उठकर देखा कि बूढ़ी नन्नी अभी पड़ी सो रही है। वह उसे खींचकर कहने लगा
''जान पड़ता है कि कौवो के शोर से प्रभु जाग गए हैं। पहर भर दिन चढ़ा।'' बिना
दाँत की बुढ़िया ऑंख मलते मलते उठ बैठी और हँसकर बोली ''तू ज्यों ज्यों बूढ़ा
होता जाता है, देखती हूँ कि तेरी रसिकता बढ़ती जाती है। तू तो उठ बैठा है।
जाकर कौवों को क्यों नहीं उड़ा देता?'' रग्घू के भी ओठों के एक किनारे पर
हँसी दिखाई पड़ी और वह बोला ''अच्छा तू सोई रह, मैं कौवों को जाकर उड़ाए आता
हूँ।'' बूढ़ा उठकर कोठरी के बाहर चला ही था कि एक बोरे से टकरा कर गिर पड़ा।
बुढ़िया हाँ हाँ करके चिल्ला उठी। वह भूमि पर से उठे कि बोरा टेढ़ा हो पड़ा।
कोने में बहुत से बर्तन नीचे ऊपर सजाकर रखे थे, बोरे के धक्के से वे बूढ़े
के सिर पर आ गिरे। बुढ़िया फिर हाय हाय करके चिल्ला उठी।
रग्घू को कुछ चोट लगी। बुढ़ापे की चोट बहुत जान पड़ती है। वह टूटे फूटे
बर्तनों के बीच खड़ा खड़ा अपनी पीठ और माथे पर हाथ फेरने लगा। बुढ़िया ने पूछा
''बहुत चोट तो नहीं लगी?'' ''बूढ़े ने पहले तो कहा 'नहीं।' अपना हित और
प्रेम जताने के लिए बुढ़िया ने फिर वही बात पूछी। बूढ़े ने इस बार झुँझला कर
कहा ''तू अपना प्रेम रहने दे, जान पड़ता है मेरा सिर चकनाचूर हो गया है। तू
अब हो गई बुङ्ढी, तुझे कुछ सुझाई तो देता नहीं। किस ठिकाने क्या रखती है,
कुछ ठीक नहीं।'' बुङ्ढी चकपका कर बोली ''मैं इस घर में नए बरतन लाकर क्यों
रखने लगी? बरतन भाँड़ें तो सब मैं भण्डार के घर में रखती हूँ। मेरी समझ में
भी नहीं आ रहा है कि इस घर में इतने बोरे और हँड़ियाँ कहाँ से आईं।'' बुङ्ढा
और भी खिझला कर बोला, ''तो भूत तेरे रूप पर लुभाकर रात को यह सब रख गए हैं।
बकवाद छोड़कर तू थोड़ा पानी ला। पीठ पर रक्त की धारा बह रही है। अरे बाप रे,
बाप! सारा कपड़ा रक्त से भींग गया।''
बुढ़िया ने पास जाकर देखा कि बुङ्ढे के सिर पर से मधु के समान गाढ़ी गाढ़ी
वस्तु पीठ पर बह रही है और उसके कपड़े तर हो रहे हैं। ऊपर ऑंख उठाकर उसने
देखा कि सब हँड़ियाँ नहीं गिरी हैं, तीन चार अभी ज्यों की त्यों रखी हैं।
उनमें से कुछ फूट गई हैं और उनमें से रस की धारा बहकर अब तक बुङ्ढे के सिर
पर पड़ रही है। बुढ़िया ने देखा कि फूटी हाँड़ियों में से बहुतसे मोदक और
लड्डू निकल कर घर में चारों ओर बिखरे पड़े हैं। किसी किसी बर्तन से मिठाई का
चूर मिला रस (शीरा) गिरकर भूमि पर फैल गया है और वहाँ कीचड़ सा हो गया है।
बुढ़िया यह देखते ही अपनी हँसी न थाम सकी, अपने पोपले मुँह के अट्टहास से वह
पुरानी छत हिलाने लगी। बूढ़ा चिढ़कर उसे गालियाँ देने लगा। हँसी कुछ थमने पर
नन्नी बोली 'तेरी देह और माथे में लगा क्या है, देख तो। तूने तो समझा था कि
तेरा सिर फूट कर खंड खंड हो गया है।'' रग्घू ने घबराकर पूछा, ''क्या लगा
है?''
बुढ़िया-लड्डू, मोदक और टिकिया।
रग्घू-हाँ रे! यह सब कहाँ से आया? हे कालूवीर! मैंने तुम्हारा नाम लेकर अभी
ठट्ठा किया था, अपराध क्षमा करना, मैं कल तड़के ही पेड़ के नीचे तुम्हारी
चौरी पर बलिदान दूँगा। देख बुङ्ढी! यह सब भूतों की लीला है। दस वर्ष से कभी
कोई पकवान और मिठाई लेकर गढ़ में नहीं आया है। आज कौन आकर मिठाई का ढेर लगा
गया है?
बुढ़िया सन्नाटे में आकर बोली ''उनकी लीला कौन जाने?''
इसी बीच में द्वार पर किसी मनुष्य की परछाईं पड़ी और धानसुख सोनार ने आकर
पूछा ''रग्घू! तुम उठे? अरे यह क्या किया? सब हाँड़ियाँ फोड़ डालीं?
जापिलग्राम के मोदियों ने गढ़पति के लिए इतनी मिठाइयाँ भेजी थीं।'' रग्घू
थोड़ीसी हँसी लिए हुए बोला ''तो यह सब भूतों का काम नहीं है। चलो थोड़ा ।''
इतना कहतेकहते जमीन पर से एक लड्डू उठाकर उसने मुँह में डाला और बोला ''अरे
नन्नी! ऐसा बढ़िया लड्डू तो इधर बहुत दिनों से नहीं खाया था, नन्नी थोड़ा तू
भी खाकर देख।'' इस प्रकार उसने एकएक करके जमीन पर पड़ी हुई सारी मिठाई पेट
में डाल ली। उसके शरीर पर भी इधर उधर जो चूर लगे थे उन्हें भी ठिकाने
लगाया। बुढ़िया उसकी यह लीला देख मुँह पर कपड़ा दिए हँस रही थी। धानसुख
चुपचाप द्वार पर खड़ा था। रग्घू जब सब चट कर चुका तब नन्नी से कहने लगा
''ऊपर जो हाँड़ियाँ रखी हैं देख तो उनमें क्या क्या है?'' बुढ़िया ने हँस कर
कहा ''अब उधर डीग मत लगा, वह सब प्रभु के लिए आया है, अब तू और खायगा तो
तेरा पेट फट जायगा, चल उठ।'' धानसुख ने किसी प्रकार अपनी हँसी रोक कर कहा
''रग्घू! गढ़ के ऑंगन में बहुतसे लोग गढ़पति से मिलने के लिए बैठे हैं, जाकर
उन्हें संवाद दे आओ।'' बुङ्ढा धीरे धीरे उठा और अपना शरीर धो पोंछ कर एक
बहुत पुरानी पगड़ी सिर पर बाँधा दुर्गस्वामी के भवन की ओर चला। उसके चले
जाने पर बुढ़िया धानसुख से पूछने लगी ''धानसुख! यह इतना सामान और मिठाई कहाँ
से आई है?'' धानसुख ने कहा ''रोहिताश्वगढ़ की प्रजा यह सब पहुँचा गई है, अभी
बहुत सा सामान बाहर पड़ा है। मुझे भण्डार का घर न मिला इससे कुछ वस्तुएँ
तुम्हारी कोठरी में रख गया, और सब अभी बाहर हैं।''
नन्नी-थोड़ा ठहरो, मैं इस कोठरी को साफ कर दूँ।
बुढ़िया झाड़ू लेकर हाँड़ियों के चूर बटोरकर फेंकने लगी। धानसुख कोठरी के बाहर
गया। बुढ़िया ने कोठरी के बाहर निकलकर देखा कि दुर्ग का लम्बा चौड़ा प्रांगण
लोगो से खचाखच भरा है, सह से अधिक मनुष्य बैठे हैं। उनके सामने अन्न और
खाने पीने की सामग्री का अटाला लगा हुआ है। आटे, घी, तेल, चावल, चीनी आदि
से भरे सैकड़ो बोरे और बरतन यहाँ से वहाँ तक रखे हुए हैं। बुढ़िया को जो
पहचानते नहीं थे वे उसे दुर्गस्वामिनी समझ प्रणाम करने के लिए बढ़ने लगे, पर
जो जानते थे उन्होंने उन्हें रोक लिया। नन्नी ने देखा कि इतनी सामग्री ले
जाकर भण्डार घर में रखना उसकी शक्ति के बाहर है। वह चुपचाप घर में लौट गई।
दुर्गस्वामी उठकर पलंग पर बैठे हैं, रग्घू उनके सब वस्त्र परिधान लिए सामने
खड़ा है। इसी बीच अपने बिखरे हुए केशों को लहराती हुई बालिका लतिका कोठरी
में बिजली की तरह आ पहुँची और कहने लगी ''बाबा! उठते नहीं, देखो तुम्हारे
आसरे कितने लोग बाहर आकर बैठे हैं!'' वृद्ध ने हँस कर कहा ''जाता हूँ
बेटी।'' रग्घू स्वामी के हाथ में कपड़े देकर बाहर चला गया।
दुर्ग के प्रांगण के एक किनारे मत्स्य देश के श्वेतमर्मर की एक बारहदरी थी,
जो बहुत पुरानी हो जाने के कारण और बहुत दिनों से मरम्मत न होने से जर्जर
हो रही थी। उसकी छत एक कोने पर गिर गई थी और वहाँ एक पीपल का पेड़ निकलकर
अपने पत्तो हिला रहा था। बारहदरी के नीचे शालग्रामी पत्थर की एक बारहकोनी
चौकी बनी थी जो कदाचित् तब की होगी जब रोहिताश्वगढ़ बना था। गढ़पति इसी अलिंद
में इसी चौकी पर बैठकर प्रजा के आवेदन सुनते और विचार किया करते थे।
धावलवंशीय महानायकों ने सुन्दर बेलबूटों के रंगीन पत्थरों से बारहदरी के
खम्भे सजाए थे। दुर्गस्वामी जिस समय विचार करने बैठते थे गढ़ की सेना चारों
ओर श्रेणीबद्ध होकर खड़ी होती थी। अधीन सेनानायक और छोटे भूस्वामी महानायक
के सामने बैठते थे, और लोग नंगे पैर खड़े रहते थे। काली चौकी पर सोने का
सिंहासन रखा जाता था और उस पर वाराणसी का बना हुआ सुनहरे काम का
मणिमुक्ताखचित झूल डाला जाता था। रोहिताश्व के महानायक उसी पर बैठा करते
थे। गढ़पतियों की भाग्यलक्ष्मी के साथसाथ समृध्दि के सब चिद्द भी लुप्त हो
गए थे केवल एक यही सिंहासन बच रहा था। अन्नकष्ट होने पर भी महानायक लोक
लज्जा और वंशगौरव के अभिमान से इस बहुमूल्य स्वर्णसिंहासन को न बेच सके थे।
वह बड़े यत्न से अब तक रखा हुआ था। पुत्र की मृत्यु के पहले यशोधावल समयसमय
पर प्रजा को दर्शन देते थे और कीर्तिधावल नित्य आवश्यक कार्यों के निर्वाह
के लिए बारहदरी में बैठते थे। उनके मरे पीछे फिर कभी कोई बारहदरी में नहीं
बैठा। इस बीच में एक ओर की छत टूट गई और वहाँ एक पीपल का पेड़ उग आया।
रग्घू गढ़पति के भवन से निकलकर बारहदरी की ओर आया और उसने धानसुख को बुलाकर
कई युवकों को साथ ले लिया। उनकी सहायता से उसने बारहदरी में पड़े हुए कंकड़
पत्थर बाहर फेंके। फिर धानसुख के साथ लगकर उस स्वर्ण सिंहासन को पत्थर के
संपुट से बाहर निकाला। दोनों ने मिलकर सिंहासन को काली चौकी पर रखा।
सिंहासन की कारीगरी अनोखी थी। उसे देखने के लिए चारों ओर से लोग झुक पड़े।
बहुत बूढ़ों को छोड़ और किसी ने रोहिताश्व गढ़पतियों के इस सिंहासन को नहीं
देखा था। चार सिंहों की पीठ पर एक बड़ा भारी प्रस्फुटित स्वर्ण पर् स्थापित
था जिसके चौरस सिरे पर रत्नों और मोतियों से जड़ा पट वस्त्र पड़ा था। वस्त्र
पुराना और जीर्ण हो गया था, स्थान स्थान पर सोने का काम मैला पड़ गया था,
फिर भी सिंहासन अत्यन्त मनोहर था। जिस समय सब लोग अलिंद में सिंहासन देखने
के लिए झुके हुए थे रग्घू पीछे से चिल्ला कर बोला-
''दुर्गस्वामी महानायक युवराजभट्टारकपादीय श्री यशोधावलदेव का आगमन हो रहा
है।''
सुनते ही सब लोग पीछे हट गए और कई सैनिक वेशधाारी वृद्ध आगे बढ़कर जनता के
सामने स्थिर भाव से खड़ हो गए। शुभ्र उत्तारीय वस्त्र धाारण किए, लम्बे
लम्बे श्वेत केशों पर शुभ्र उष्णीष बाँधो, खड्ग हाथ में लिए यशोधावलदेव आकर
सिंहासन पर बैठ गए। रग्घू कहीं से एक फटापुराना लाल कपड़ा लाकर उसे सिर में
बाँधा अलिंद के सामने आकर खड़ा हो गया। सब के पहले एक दन्तहीन शुक्लकेश
वृद्ध अलिंद के सामने आया और उसने कोष से तलवार खींच उसकी नोक अपनी पगड़ी से
लगाई। रग्घू ने पुकारा ''सेनानायक हरिदत्ता।'' वृद्ध गढ़पति के पैरों तले
तलवार रख उसने कपड़े के खूँट से एक स्वर्णमुद्रा निकाली और तलवार के ऊपर रख
दी। दुर्गस्वामी ने तलवार उठाकर फिर वृद्ध के हाथ में दे दी। वृद्ध एक बार
फिर अभिवादन करके पीछे हट गया। उसी समय भीड़ में से एक और लम्बे डील के
अस्त्राधाारी वृद्ध ने आकर गढ़पति का अभिवादन किया। रग्घू ने पुकार कर कहा
''सेनापति सिंहदत्ता।'' उसने भी तलवार और स्वर्णमुद्रा गढ़पति के सामने रखी
और गढ़पति ने उसी प्रकार तलवार उठाकर हाथ में दी। सिंहदत्ता के पीछे हटने पर
भीड़ में से एक अत्यन्त वृद्ध दो युवकों का सहारा लिए आता दिखाई पड़ा। उसे
देखते ही गढ़पति सिंहासन से उठ पड़े और बोले ''कौन, विधाुसेन?''। दुर्गस्वामी
का कण्ठस्वर सुनते ही वृद्ध जोर से रो पड़ा और उनके पैरों तले लोट गया।
यशोधावलदेव ने उसे पकड़कर उठाया। उनकी ऑंखों में भी ऑंसू आ गए थे, और गला भर
आया था। उन्होंने कहा-''विधाुसेन! कीर्तिधावल तो चल ही बसे। तुमने भी
आनाजाना छोड़ दिया।'' वृद्ध ने रोतेरोते कहा-''प्रभो! मैं किसे लेकर आता?
कौन मुँह आपको दिखाता? अपना सर्वस्व तो मैं मेघनाद (मेगना नदी) के उस पार
छोड़ आया। केवल कुँवर कीर्तिधावल को ही मैं वहाँ नहीं छोड़ आया, अपने दो
पुत्रों को भी छोड़ आया। मेरे पहाड़ी प्रदेश में न जाने कितने अपने पुत्र,
अपने पिता और अपने भाई छोड़ आए। इन दोनों बालकों को छोड़ मेरा अब इस संसार
में और कोई नहीं है। जयसेन का मृत्युसंवाद पाकर मेरी पुत्रवधू ने अपने दो
बच्चों को मेरी गोद में डाल अग्नि में प्रवेश किया। तब से मैं युद्ध
व्यवसाय और राज्य के सब कामकाज छोड़ इनदोनों को पाल रहा हूँ।''इतना कहतेकहते
वृद्ध अक्षपटलिक1 चिल्लाचिल्लाकर रोने लगा। दुर्गस्वामी ने किसी प्रकार
1. अक्षपटलिक = राजस्व विभाग का सचिव, अर्थसचिव।
उसे शान्त करके कहा ''विधुसेन! यदि एक बार भी तुम आ गए होते तो मुझे पेट
पालने के लिए दुर्गस्वामिनी का कंगन न बेचना पड़ता।'' यह बात सुनकर विधुसेन
फिर दुर्गस्वामी के पैरों पर लोट पड़ा और रोते रोते बोला ''प्रभो! यह सब
मैंने धानसुख के मुँह से सुना। मैं यह नहीं जानता था कि मेरे न रहने से
मेरे स्वामी की अवस्था इतनी बुरी हो जायगी।'' वृद्ध फिर रोने लगा।
दुर्गस्वामी ने उसे शान्त करके बारहदरी में बिठाया। कुछ काल पीछे वह अपने
दोनों पौत्रो को दुर्गस्वामी के पास लाया। उन्होंने भी रीति के अनुसार
तलवार और स्वर्णमुद्रा गढ़पति के पैरों के नीचे रखकर अभिवादन किया।
उसके पीछे एक एक करके सौ से ऊपर वृद्ध सैनिक अपने पुत्र पौत्रो को लेकर
गढ़पति का अभिवादन करने के लिए आए। उन सबने भी यथारीति खड्ग तथा स्वर्ण, रजत
या ताम्र मुद्रा सामने रखकर अभिवादन किया। गढ़पति ने भी उनकी तलवारें उन्हें
लौटा दीं। सैनिकों के पीछे साधारण भूस्वामियों, किसानों, बनिए, महाजनों आदि
ने अपने अपने वित्ता के अनुसार सोने, चाँदी या ताँबे के सिक्के सामने रखकर
प्रणाम किया। देखते देखते सिंहासन के सामने रुपयों और दीनारों का ढेर लग
गया।
सब के पीछे एक बलिष्ठ युवा योध्दा को साथ लेकर धानसुख अलिंद कीओर बढ़ा। युवक
जब रीति के अनुसार अभिवादन कर चुका तब धानसुख प्रणाम करकेबोला ''प्रभो! यह
युवक आपके पुराने सेवक महेन्द्रसिंह का पुत्र हैवीरेन्द्र सिंह है,
दुर्गस्वामी-पुत्र! तुम्हारे पिता ने अनेक युध्दों में मेरा साथ दिया था।
तुम्हारे पिता की तलवार आज मैं तुम्हारे हाथ में देता हूँ। मुझे पूरा भरोसा
है कि तुम इसकी मर्य्यादा रख सकोगे।
युवक ने तलवार हाथ में लेकर भूमि टेक कर प्रणाम किया। वृद्ध अक्षपटलिक अब
तक अलिंद में चुपचाप बैठे थे। सबके अभिवादन कर चुकने पर वे उठकर बोले
''प्रभो। बंगदेश के युद्ध के पीछे प्रजा ने नियमित रूप से अपना कर नहीं
भेजा था। वीरेन्द्रसिंह, धानसुख और इस सेवक ने गाँवगाँव आदमी भेज कर
मण्डलों को अपना अपना कर चुकाने के लिए विवश किया। वे सब यहाँ बाहर खड़े
हैं। आज्ञा हो तो सामने लाऊँ।'' आज्ञा पाकर विधुसेन एक एक करके मण्डलों और
ग्रामवासियों को बुलाने लगे औरवे अपना अपना कर लाकर सिंहासन के सामने रखने
लगे। धानसुख सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्कों को अलग अलग करके गिनने लगा।
इसी में दोपहर बीत गया। धानसुखसबगिन चुकने पर बोला ''एक हजार, दो सौ अठारह
स्वर्णमुद्रा, ढाई सौ रुपये और सौ से ऊपर ताँबे के सिक्के आए हैं।'' इतना
सब हो चुकने पर सिंहासन के सामने धानसुख टेककर बैठ गया। धीरे धीरे कपड़े के
भीतर से उसने दुर्गस्वामिनी का कंगन निकाला और उसे सिंहासन के सामने रख कर
हाथ जोड़ बोला ''प्रभो! इतने बड़े अमूल्य कंगन का ग्राहक पाना मेरे लिए
असम्भव है। इसका मूल्य पचास सह स्वर्णमुद्रा से भी अधिक होगा।''
दुर्गस्वामी ने उठकर धानसुख को गले लगाया और वे कहने लगे 'धानसुख! मैं
तुम्हारी सब युक्ति समझता हूँ। इस बार तो तुम्हारे अनुग्रह से
दुर्गस्वामिनी का कंगन बिकने से बच गया पर मैं देखता हूँ कि अब इसकी रक्षा
मेरे लिए कठिन ही है। रोहिताश्वगढ़ के कोषाधयक्ष का पद बहुत दिनों से खाली
पड़ा है। अब दुर्गस्वामिनी के इस कंगन की और इस धान की रक्षा तुम करो। जो
रुपया तुमने मुझे दिया था वह इसी में से काट लेना। दुर्गस्वामिनी ने कहा था
कि पोते या पोती के ब्याह के समय इसे मेरा चिद्द कहकर देना। जब कभीर्
कीत्तिधावल की कन्या का विवाह हो तब इस चिद्द को उसे देना।'' दुर्गस्वामी
का गला भर आया और वे थोड़ी देर चुप रहकर फिर विधुसेन से बोले ''विधुसेन! इन
आए हुए लोगों के खाने पीने का क्या उपाय होगा? इस जंगल में तो पैसा देने पर
भी कुछ नहीं मिल सकता।''
धानसुख-प्रभो! अक्षपटलिक और वीरेन्द्रसिंह ने पहले ही से सब प्रबन्ध कर रखा
है।
सब लोग भोजन आदि करके निश्चिन्त हुए। यशोधावलदेव ने विधुसेन, सिंहदत्ता,
हरिदत्ता, वीरेन्द्रसिंह और धानसुख को अपने शयनागार में बुलाया। सब के बैठ
जाने पर दुर्गस्वामी ने कहा ''जिस दिन मुझे कीत्तिधावल के स्वर्गवास का
संवाद मिला उस दिन से कल तक पागल की सी दशा में मेरे दिन बीते। कल मेरी
ऑंखें खुलीं, गढ़ के चारों ओर जो मेरी भूसम्पत्ति है उसका लोभ ऐसा नहीं हो
सकता कि कोई ऊँचे घराने का युवक मेरी पुत्री के साथ विवाह करके इस जंगली और
पहाड़ी देश में आकर रहे। जिस प्रकार से हो बंगदेश सम्पत्ति का उध्दार किए
बिना न बनेगा। मैंने विचारा है कि मैं पाटलिपुत्र जाकर सम्राट से मिलूँ।
तुम सब लोग मिलकर इसका प्रबन्ध कर दो।'' अन्त में यह बात ठहरी कि विधुसेन
तो रहकर दुर्ग की रक्षा करें, धानसुख धान सम्पत्ति सँभालें और
वीरेन्द्रसिंह गढ़पति के साथ पाटलिपुत्र जायँ।
सन्धया होते होते जब अस्ताचलगामी सूर्य की सुनहरी किरणें गढ़ के मुँड़ेरों और
कलशों पर रक्त डाल रही थीं, ग्रामवासी एक एक करके दुर्गस्वामी से विदा होकर
अपने अपने घर लौट रहे थे। रग्घू नन्नी से कहने लगा ''न जाने कहाँ से यह
राक्षसों का जमावड़ा आकर इतना सब अन्न चट कर गया। अरे, इतनी जिंस भेजी थी तो
फिर आप आकर क्या डटे? अपने घर जाकर खाते पीते।''
नवाँ परिच्छेद
भविष्यवाणी
बैसाख का महीना है। एक पहर दिन चढ़ते चढ़ते धूप इतनी कड़ी हो गई है कि कहीं
निकलने का जी नहीं करता। भागीरथी का चौड़ा पाट बालू ही बालू से भरा दिखाई
पड़ता है। सूरज की किरणों के पड़ने से बालू के महीन-महीन कण इधर उधार दमक रहे
हैं। बालू के मैदान का एक किनारा धारे स्वच्छसलिला, हिमगिरिनन्दिनी गंगा की
पतली धारा बह रही है। धारा के दोनों ओर थोड़ी थोड़ी दूर तक गीली बालू का रंग
कुछ गहराई या श्यामता लिए है। सफेद झक बालू के मैदान के बीच यह गहरे रंग की
रेखा अंजन की लकीर सी दिखाई देती है। इस कड़ी धूप में धारा के पास की गीली
बालू पर बैठे दो बालक खेल रहे हैं। एक बालिका भी पास बैठी है। दोनों बालकों
में जो बड़ा है वह भीगी धोती पहने जल में पाँव डुबाए बैठा गीली बालू का घर
बना रहा है। उससे कुछ दूर पर दूसरा लड़का भी बालू का घर बनाने में लगा है।
बालिका दोनों के बीच में बैठी देख रही है। बड़ा लड़का बड़ी फुरती से कोट और
खाई बनाकर उसके भीतर मन्दिर उठा रहा है। हाथ में गीली बालू लेकर वह मन्दिर
का चूड़ (कँगूरा) बना रहा है। उँगलियों से उठा उठाकर वह गीली बालू मन्दिर की
चोटी पर रखता जाता है जिससे मन्दिर की चोटी बहुत ऊँची हो जाती है पर बोझ
अधिक हो जाने से गिरगिर पड़ती है। बालिका एकटक यही देख रही है। कभी बड़े लड़के
के मन्दिर की चोटी ऊँची हो जाती कभी छोटे के मन्दिर की। जब जिसका मन्दिर
अधिक ऊँचा उठता तब वह बालिका को पुकार कर उसे दिखाता। धूप की प्रचंडता
बराबर बढ़ती जाती है इसका उनमें से किसी को धयान नहीं है, वे अपने खेल में
लगे हैं।
धारा के किनारे किनारे मैले और फटे पुराने कपड़े पहने एक वृद्ध उनकी ओर आ
रहा है, इसे उन्होंने न देखा। जब वह पास आकर खड़ा हुआ तब उसकी परछाईं देख
बालिका चौंक पड़ी और डरकर बड़े लड़के के पास चली गई। बुङ्ढे के पैरों की ठोकर
से मन्दिर और गढ़ चूर हो गया। छोटा लड़का यह देख ठट्ठा मारकर हँस पड़ा। वृद्ध
ने कहा ''कुमार! खेद न करना, तुम्हें इस जीवन में खेद करने का अवसर ही न
मिलेगा। काल की चपेट से तुम्हारी आशा के न जाने कितने भवन गिर गिर कर चूर
होंगे।'' तीनों विस्मित होकर वृद्ध के मुँह की ओर ताकते रह गए।
बुङ्ढा अपने फटे कपड़े का एक कोना बालू पर बिछाकर बैठ गया। बहुत देर पीछे
बड़े लड़के ने पूछा ''तुमने मुझे पहचाना कैसे?'' बुङ्ढे ने हँसकर उत्तर दिया
''कुमार शशांक! तुम्हें न जो पहचानता हो ऐसा कौन है? तुम्हारे पिंगल केश ही
तुम्हारी पहचान हैं। इन्हीं केशों के कारण उत्तरापथ में तुम्हें सब
पहचानेंगे। युद्ध क्षेत्रो में तुम्हारे शत्रु तुम्हारे इन केशों को
ताड़ेंगे। तुम्हें पहचान लेना कोई कठिन बात नहीं है।'' वृद्ध पागलों के समान
हँस पड़ा। तीनों और भी चकित हुए, बालिका कुमार के और भी पास सरक गई। वृद्ध
एकबारगी उठकर खड़ा हो गया, उसने कपड़े के भीतर से एक बंसी निकाली, पर न जाने
क्या समझ उसे फिर छिपकर बोला ''कुमार! तुमसे मैं बहुत सी बातें कहनेवाला
हूँ, पर यहाँ न कहूँगा। मेरे साथ आओ।'' मन्त्र मुग्ध के समान तीनों उसके
पीछे हो लिए। आग सी तपती गंगा की रेत पार करके वृद्ध प्राचीन राजप्रासाद के
नीचे घाट की एक टूटी सीढ़ी पर आकर बैठ गया। बालिका और दोनों बालक नीचे की
सीढ़ी पर एक पंक्ति में बैठे। बुङ्ढा कपड़े के भीतर से बंसी निकाल बजाने लगा।
बैसाख की उस सनसनाती दुपहरी में बंसी का करुण स्वर भागीरथी का पाट लाँघता
हुआ उस पार तक गूँज उठा, तपता हुआ संसार मानो क्षण भर के लिए शीतल हो गया।
बालक बालिका चुपचाप बंसी की टेर सुन रहे थे। बंसी का सुर एकबारगी बन्द हो
गया ऐसा जान पड़ा मानो संसार की फिर वही अवस्था हो गई। वृद्ध उठकर कहने लगा
''कुमार! तीन सौ वर्ष हुए गुप्तवंश में तुम्हारे ही समान एक और पिंगलकेश
राजपुत्र हुआ था। अदृष्ट तुम्हारे ही समान उसके पीछे भी लगा था। तुम्हारे
ही समान वह भी उदार, दयावान् और पराक्रमी था। तुम जिस प्रकार वंश के लुप्त
गौरव के उध्दार के यत्न में अपना जीवन विसर्जित करोगे उसी प्रकार उसने भी
किया था। उसका नाम था स्कन्दगुप्त। अब इस समय उत्तारापथ में बहुत से लोग
उसका नाम तक नहीं जानते। यह कोई अचम्भे की बात नहीं है। पाटलिपुत्र के
कृतघ्न नागरिक तक उसका नाम भूल गए हैं, पर किसी समय उसी स्कन्दगुप्त ने
पाटलिपुत्र के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था।
''कुमार शशांक! समुद्रगुप्त का नाम तुमने सुना है? समुद्रगुप्त की समुद्र
से लेकर समुद्र तक के दिग्विजय की कथा तुमने सुनी है? कुमारगुप्त का
वृत्तान्त जानते हो? स्कन्दगुप्त कुमारगुप्त के ही पुत्र थे। तुम्हारे पिता
के छोटे से राज्य में जिस प्रकार तुम्हारे भूरे बाल देखकर लोग पहचान जाते
हैं कि तुम युवराज हो उसी प्रकार स्कन्दगुप्त के पिता के साम्राज्य में
उनके पिंगलकेश देखते ही समुद्र से लेकर समुद्र तक, हिमालय से कुमारी तक, सब
उन्हें पहचान लेते थे।
''तुम्हारे चारों ओर जैसा विपद् का घना जाल है उससे कहीं अधिक घना जाल उनके
चारों ओर फैला था। उन्होंने उस जाल को हटाने का बहुत यत्न किया था, एक दिन
तुम भी करोगे। अदृष्ट साथ साथ लगा है यह उन्हें नहीं सूझता था। मोह जिस समय
तुम्हें घेरेगा तुम्हें भी न सूझेगा। उनके भाई बन्धु सेवक, सम्बन्धी
विश्वासघाती हो गए थे, विश्वासघात से उनके जीवन की शान्ति नष्ट हो गई थी,
तुम्हारे जीवन की भी यही दशा होगी। उनका सारा जीवन युद्ध करते बीता। उनका
जी टूट गया था पर उन्हें साँस लेने तक का अवसर न मिला, वे बराबर लड़ते ही
रहे। कुमार शशांक! तुम राजा होगे, पर तुम्हारे मार्ग में बराबर कंटक
मिलेंगे, तुम कभी सुखी न रहोगे। भ्राता, वाग्दत्ता पत्नी, अमात्य और प्रजा
सबके सब तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। सब को खोकर तुम भी स्कन्दगुप्त के समान
युद्ध में गिरोगे, पर स्वदेश में नहीं, विदेश में। स्कन्दगुप्त ने स्वदेश
में विदेशियों के साथ लड़कर अपना जीवन विसर्जित किया था, पर तुम्हें विदेश
में स्वदेशियों के साथ, अपने जात भाइयो के साथ, लड़ना पड़ेगा।
''कुमार! खिन्न न होना। तुम्हारा सिंहराशि में जन्म है, तुम सिंह के समान
पराक्रमी होगे। अदृष्ट के अधीन होकर सिर कभी न झुकाना। भाग्य के साथ जीवनभर
चलने वाले संग्राम के लिए सन्नद्ध रहो। इस बूढ़े की बात सुनकर स्त्रियों के
समान दहल मत जाना, पूर्णरूप से अपना पुरुषार्थ दिखाने को अग्रसर हो। शशांक!
संसार में किसी का विश्वास न करना। सबके सब स्वार्थ के लिए आए हैं, परार्थ
के लिए कोई नहीं आया है। स्त्री वा पुत्र तुम्हारे न होंगे। कैसे न होंगे,
यह न पूछना। अपने काले भाई का विश्वास न करना, गोरे कुबड़े कामरूप के
राजकुमार का विश्वास न करना। यदि करोगे तो अदृष्ट की चक्की के नीचे बराबर
पिसते रहोगे, कभी विश्राम न पाओगे।
''संसार में जिसके आगे किसी का वश नहीं चल सकता उसके आगे तुम्हारा वश भी न
चल सकेगा। जो सबके लिए असाधय है वह तुम्हारे लिए भी असाधय होगा। तुम्हारा
भाई तुम्हारा सिंहासन ले लेगा। तुम्हारी बालपन की संगिनी तुम्हें वरदान
देकर भी धोखे में पड़कर दूसरे को हाथ पकड़ाएगी। तुम्हारे विश्वस्त सेवक थोड़े
से धान के लोभ में आकर विश्वासघात करेंगे। तुम्हारे देश के लोग ही तुम्हें
देश से भगा देंगे। विदेश में विदेशी लोग तुम्हें आग्रह के साथ बुलाएँगे। जो
तुहारे दु:ख सुख के सच्चे साथी होंगे तुम भाग्य के फेर से उन्हें न
पहचानेगे। वे तुम्हारी उपेक्षा और लांछना सहकर भी अन्त तक तुम्हारा साथ
देंगे।''
बालिका डर के मारे रोने लगी। दूसरा बालक भी सकपका गया था, उसका मुँह सूख
गया था। किन्तु शशांक कुछ भी न डरे। कुमार ने वृद्ध से पूछा ''तुम क्या
क्या कह गए, मैं नहीं समझा। तुम हो कौन?'' प्रश्न सुनकर वृद्ध ठठाकर हँस
पड़ा और पागल की तरह नाचने लगा। बालिका चिल्लाकर रो पड़ी। माधवगुप्त भी रोने
लगा। शशांक भय से दो कदम पीछे हट गए। वृद्ध ने हँसते हँसते कहा ''मैं कौन
हूँ यह लल्ल से पूछना, वृद्ध यशोधावल से पूछना और अपने पिता से पूछना, कहना
कि शक्रसेन यह सब कह गया है। मैंने जो कुछ कहा है उसे तुम समझ ही कैसे सकते
हो? जो होने वाला है वह तो होगा ही। जब तुम समझोगे तब मैं फिर आऊँगा।''
वृद्ध फिर नाचने लगा। देखते देखते उसने कपड़े के नीचे से एक चमचमाता अस्त्र
निकाला। शशांक उसे देख दो कदम और पीछे हट गए। वृद्ध बोला ''तुम हमारे शत्रु
हो, तुम हमारे धर्म के शत्रु हो। जी चाहता है कि तुम्हारा कलेजा निकालकर
तुम्हारा रक्त चूस लूँ। पर ऐसा करता क्यों नहीं, जानते हो? जो कालचक्र
तुम्हें नचा रहा है वही मुझे भी नचा रहा है।''
इतने मे एक छोटी सी नाव आकर उस घाट के सामने लगी। उस पर से दो वृद्ध, एक
युवक और एक बालिका उतरी। शशांक और उसके साथियों ने उनको नहीं देखा, पर उस
वृद्ध ने देख लिया। उन्हें निकट पहुँचते देख वृद्ध बोल उठा ''कुमार! अब मैं
भागूँ। बहुत से लोग आ रहे हैं। जब तुम मर्मव्यथा से व्याकुल होगे तब मैं
फिर दिखाई पड़ूँगा। समझे।'' इतना कहते कहते वुद्ध ने पीपल की एक डाल तोड़ ली
और उसके ऊपर सवारी करके देखते देखते दृष्टि के ओझल हो गया। शशांक,
माधवगुप्त और चित्रा तीनों भय और विस्मय से कठपुतली बने खड़े रह गए।
नाव पर से उतरे हुए लोग घाट के पास आकर खड़े हुए। उनमें से एक वृद्ध साथ के
युवक से बोला ''जान पड़ता है कि राजघाट यही है। इधर बीस वर्ष से मैं
पाटलिपुत्र नहीं आया। वीरेन्द्र! कोई मिले तो उससे मार्ग पूछ लो।''
वीरेन्द्र-प्रभो! घाट पर तो कोई नहीं दिखाई पड़ता है।
वृद्ध-अभी ऊपर की सीढ़ी पर कोई खड़ा था न।
वीरेन्द्रसिंह ने ऊपर चढ़कर बालक बालिका को देखा और उनसे पूछा ''यह प्रासाद
के नीचे का घाट है?'' शशांक उदास मन एक टक उसी ओर ताक रहे थे जिधार वह
वृद्ध जाकर लुप्त हो गया था। वीरेन्द्रसिंह की बात पर उन्होंने दृष्टि
फेरी। जो बात पूछी गई थी वह उनके कान में अब तक नहीं पड़ी थी। उन्होंने पूछा
''क्या कहा?'' वीरेन्द्र ने झुँझलाकर कहा ''बहरे हो क्या? मैं पूछता हूँ कि
क्या यह प्रासाद का घाट है।'' शशांक ने प्रश्न का कोई उत्तर न देकर पूछा
''तुम कौन हो? कहाँ से आते हो?'' वीरेन्द्र और भी कुढ़ गया और बोला ''बाबा!
तुम्हारी सब बातों का मैं उत्तर दूँ, इतना समय मुझे नहीं है। प्रासाद का
घाट किधार है यही मुझे बता दो।''
''प्रासाद का घाट तो यही है, पर इस मार्ग से साधारण लोग नहीं जा सकते।''
''बाबा! इस मार्ग से जाता कौन है?'' यह कहकर वह वृद्ध के पास लौट गया और
बोला ''प्रभो! प्रासाद का घाट तो यही है पर घाट पर कई लड़के खड़े हैं। उनमें
से एक की बातचीत तो राजपुत्र की सी है। वह कहता है कि इस मार्ग से जनसाधारण
के जाने का निषेध है।'' वृद्ध यशोधावलदेव ने हँसकर कहा ''वीरेन्द्र, लड़का
ठीक कहता है।
वीरेन्द्र-तब क्या नाव पर फिर लौट चलेंगे?
यशो -न, इसी मार्ग से जायँगे। विशेष अमात्यों और राजवंश के लोगों को छोड़कर
कोई गंगा के इस घाट की ओर नहीं आने पाता। बात यह है कि अन्त:पुर की
स्त्रियाँ प्राय: यहाँ गंगा स्नान करने आती हैं। इसीलिए उस लड़के ने तुमसे
इस मार्ग से न जाने को कहा था। अच्छा अब तुम आगे आगे चलो, मेरे लिए यहाँ
कोई रोकटोक नहीं है।
सब लोग सीढ़ियाँ चढ़कर घाट के ऊपर आए। यशोधावल ने देखा कि एक बालक उनका मार्ग
रोकने के लिए बीच में आकर खड़ा है, दूसरा बालक और बालिका बैठे हैं। बालक ने
पूछा ''आप कौन हैं?''
यशो -मैं रोहिताश्व का गढ़पति हूँ। मेरा नाम है यशोधावल।
शशांक-आप कहाँ जायँगे?
यशोधावल-सम्राट से मिलने के लिए प्रासाद के भीतर जाना चाहता हूँ।
शशांक-आप क्या नहीं जातने कि इस मार्ग से होकर साधारण लोग नहीं जा सकते। आप
उधार से घूमकर दक्खिन फाटक से होकर जायँ। उसी मार्ग से आप प्रासाद में जा
सकते हैं।
वीरेन्द्र-अच्छा, यदि हम लोग इसी मार्ग से जायँ तो क्या तुम हम लोगों को
रोक लोगे?
कुमार ने हँसकर कहा 'कहाँ तक जायँगे, गंगा द्वार पर द्वाररक्षक आप लोगों को
सीधा लौटा देंगे फिर इसी घाट पर आना होगा और नाव पर लौट जाना पड़ेगा,
क्योंकि यहाँ से नगर की ओर जाने का नदी छोड़ और कोई मार्ग नहीं है।''
यशो -सुनो! मैं मगध साम्राज्य की साधारण प्रजा में नहीं हूँ, सेना दल में
मेरी पदवी महानायक1 की है। राजद्वार में मुझे युवराज भट्टारकपादीय का मान
प्राप्त है। अन्त:पुर को छोड़ प्रासाद में और कहीं मेरे लिए रोकटोक नहीं है।
शशांक-आप-महानायक-युवराजभट्टारक?
यशो -अचम्भा क्यों मानते हो?
शशांक-मैंने आज तक कभी किसी महानायक या युवराजभट्टारक को इस रूप में
प्रासाद में जाते नहीं देखा है। वे जिस समय आते हैं सैकड़ों पदातिक और सवार
उनके आगे पीछे रहते हैं। वे जिस मार्ग से होकर निकलते हैं डर के मारे लोग
भाग जाते हैं। साम्राज्य के किसी युवराजभट्टारक को मैंने कभी पैदल चलते
नहीं देखा है।
यशो -तुम कौन हो?
शशांक-मैं सम्राट का ज्येष्ठ पुत्र हूँ। मेरा नाम है शशांक।
इतना सुनते ही वृद्ध गढ़पति की तलवार कोष से निकल पड़ी और उसकी नोक उसकी
श्वेत उष्णीष पर जा लगी। उस समय सैनिक वर्ग में अभिवादन की यही रीति थी।
अभिवादन के पीछे वृद्ध ने कहा ''युवराज! मैं इधर बहुत दिनों से पाटलिपुत्र
नहीं आया इसी से आपको पहचान न सका। मेरे इस अपराध को आप धयान में न लाएँगे।
जिस समय मैं राजसभा में आता जाता था उस समय आप लोगों का जन्म नहीं हुआ था।
उस समय हम लोग आपके चाचा के पुत्र देवगुप्त को ही साम्राज्य का भावी
अधीश्वर जानते थे। युवराज! साम्राज्य के और महानायकों के पास जो है वह मेरे
पास नहीं है इसीलिए तो मैं सम्राट के पास जाता हूँ।''
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10 // |