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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -   7

 

बुद्धचरित -8

अष्टम सर्ग

 

उपदेश

वा रोहिणी के तीर ख्रड़हर आज लौं फैलो परो

जहँ दूब सों छायो गयो बहु दूर लौं पटपर हरो।

ईशान दिशि वाराणसी सों शकट चढ़ि जो जाइए

तो पाँच दिन को मार्ग चलि वा रम्य थल को पाइए,

लखि परत जहँ सों धावल हिमगिरिशृंग, जो फूलोफरो

है रहत बारह मास, सिंचित सरस बागन सों भरो,

जहँ लसत ढार सुढार शीतल छाँह मृदु सौरभ लिए।

है अजहुँ भावपुनीत बरसत ठौर वा जो जाइए।

नित बहत सांधय समीर ह्नै अति शांत झाड़न पैहरे,

जहँ ढेर चित्रित पाथरन के ढूह ह्नै कारे परे,

अश्वत्थ जिनको भेदि फैले मूलजाल बिछाय कै,

जो  लसत चारों और तृणदल- तरल- पट सों छायकै।

कढ़ि कतहुँ कारुज काठ के बहु साज सों जो नसि धँसो।

चुपचाप फेंटी मारि कारो नाग फलकन पै बसो।

ऑंगनन में जिन नृपति टहरत फिरत गिरगिट हैं तहाँ

अब स्यार बेदी तर बसत तहँ सजत सिंहासन जहाँ।

बस शृंग, सरित, कछार और समीर ज्यों के त्यों रहे

नसि और सब शोभा गई, वे दृश्य जीवन के बहे।

नृप शाक्य शुद्धोदन बसत ह्याँ राजधानी यह रही।

भगवान् जहँ उपदेश भाख्यो एक दिन सो थल यही।

पूर्वकाल में कबहुँ रह्यो यह थल अति सुंदर।

याके चहुँ दिशि लसत रम्य आराम मनोहर।

बाटैं बिच बिच कटीं, सेतु नारिन पै सोहत,

चलत रहत जलयंत्रा, सरोवर जनमन मोहत।

पाटल के परिमंडल  भीतर चमकत चत्वर।

लसत अनेक अलिंद, खंभ बहु सोहत सुंदर।

इत उत तोरण राजभवन के कहुँ बढ़ि आए।

चमकत जिनके कलश दूर सों रविकर पाए।

याही थल भगवान् एक दिन बैठे आई,

भक्ति भाव सों घेरि लोग प्रभु दिशि टक लाई

जोहत मुख सुनिबे को बाणी ज्ञान भरी अति,

जाको लहि जग शांत वृत्ति  गहि तजी क्रूरमति,

नर पंचाशत् कोटि आज लौं जाके अनुगत,

काटन हित भवपाश आस करि होत धर्मरत।

 

बीच में भगवान् सोहत शाक्य भूपति तीर।

घेरि चारों ओर सों सामंत बैठे धीर- 

देवदत्ता अनंद आदिक सभा के सब लोग

धर्म दीक्षा राय दीनो 'संघ' में जो योग।

 

मौद्गल, मन सारिपुत्रहु बसे प्रभु पश्चात्

'संघ' माहिं प्रधन सब सों शिष्य जे कहि जात।

रह्यो राहुल हू हँसतमुख गहे प्रभु- पट- कोर,

बाल चख सों चकित चितवत भव्य मुखकीओर।

 

चरण ढिग भगवान् के बसि रही गोपा जाय,

आज तन- मन- पीर ताकी गई सकल नसाय।

भयो साँचे प्रेम को वा बोध अंतस् माहिं।

क्षणिक इंद्रियवेग पै अवलंब जाको नाहिं।

 

भयो भासित नयो जीवन जरा जाहि न खाति

और अंतिम मृत्यु जासों मृत्यु ही मरि जाति।

भई भागिनी या विजय की सोउ प्रभु के संग

मानि आपहि धन्य फूलि समाति ना निज अंग।

भगवान्  के  काषाय  पट  को  छोरि  सिर  पैडारि,

शुचि वाम कर पै तासु सादर रही निज कर धारि।

निकटस्थ अति या भाँति ताकी परति सो दरसाय

त्रौलोक्य वाणी जासु जोहत रह्यो अति अकुलाय।

 

भगवान् के मुख सों कढ़यो जो ज्ञान परम नवीन

कहि सकौं तासु शतांश हू मैं नाहिं अति मतिहीन।

या काल में बसि बात सब मैं सकौं कैसे जानि?

हिय धारौं बस कछु भक्ति प्रभु के प्रेम को पहिचानि।

 

आचार्यगण जो लिखि गए प्राचीन पोथिन माहिं

हौं कहौं तासों बढ़ि कछू सामर्थ्य एती नाहिं।

भगवान् ने जो दियो वा उपदेश को कछु सार

जो कछू थोरो बहुत जानत कहत मति अनुसार

 

उपदेश  केते  सुनन  आए  करै  गिनती  कौन?

प्रत्यक्ष जे लखि परे तहँ बसि सुनत धारे मौन

कहुँ रहे तिनसो लाख और करोरगुन अधिकाय।

सब देव पितर अदृश्य ह्नै तहँ रहे भीर लगाय।

 

सब लोक ऊपर के भए सूने निपट वा काल।

छुटि नरक हू के जीव आए तोरि साँसति जाल।

बिलमी रही बढ़ि अवधि सों रविज्योति परम ललाम

अनुराग सों अति झाँकते गिरिशृंग पै अभिराम।

 

रैन मानो घाटिन में, बासर पहारन पै

       ठमकि सुनत बानी प्रभु की सुधाभरी।

बीच में सलोनी साँच अप्सरा सो मानो कोउ,

       मति गति खोय थकी मोहित सी जो खरी।

छिटके घुवा से घन कुंतलकलाप मानो,

       तारावलि मोतिन की लरी बिखरी परी।

अर्ध्दचंद्र सोइ मानो बेंदी बिलसति भाल,

       तम को पसार मानो नील सारी पातरी।

 

सुरभित मंद मंद बहत समीर, सोई

       मानो थामि थामि साँस छाँड़ति बिसारि गात।

सुंदर समय पाय बसि याही ठौर शुचि

       करि रहे प्रभु उपदेश अति अवदात।

जाने जाने सुने जाने सुने अनजाने सब- 

       ऊँच, नीच, आर्य, म्लेच्छ, कोल, भील औ किरात-

       परति सुनाय तिन्हैं बोलिन में निज निज

       भाखत जो जात भगवान् ज्ञानभरी बात।

 

नर, देव, पितरन की कहा जो रहे भीर लगाय

सब, कीट, खग, मृग आदि हु को परत कछुकजनाय

वा प्रेम को आभास जो प्रभु हृदय माहिं अपार।

बँधि रही आशा तिन्हैं प्रभु के वचन के अनुसार।

 

जे  बँधो  सारे  जीव  नाना  रूप  देहन  संग- 

वृक, बाघ, मर्कट, भालु, जंबुक, श्वान, मृग सारंग,

बहु रत्नमंडित मोर, मोतीचूर नयन कपोत,

सित कंक, कारे काग आमिष भोज जिनको होत,

 

अति प्लवनपटु मंडूक, गिरगिट, गोह, चित्र भुजंग,

झष चपल उछरत झलकि जो छलकाँय सलिलतरंग,

सब जोरि नातो मनुज सों, जो शुद्ध तिन सम नाहिं,

अब कटन बंधन चहत गुनि यह मुदित हैं मनमाहिं।

 

नृप को सुनाय सब धर्मसार

उपदेश कियो प्रभु या प्रकार- 

ऊँ अमितायु!

अप्रमेय को न शब्द बाँधि कै बताइए,

जो अथाह ताहि सों न बुद्धि सों थहाइए।

ताहि पूछि औ बताय लोग भूल ही करैं,

सो प्रसंग लाय व्यर्थ वाद माहिं ते परैं।

अंधकार  आदि  में  रह्यो  पुराण  यों  कहै,

वा महानिशा अखंड बीच ब्र्रह्म ही रहै।

फेर में न ब्रह्म के, न आदि के रहौ, अरे!

चर्मचक्षु को अगम्य और बुद्धि के परे।

 

देखि ऑंखिन सों न सकिहै कोउ काहु प्रकार

औ न मन दौराय पैहै भेद खोजनहार।

उठत जैहैं चले पट पै पट, न ह्नै है अंत,

मिलत जैहैं परे पट पै पट अपार अनंत।

 

चलत तारे रहत पूछन जात यह सब नाहिं।

लेहु एतो जानि बस- हैं चलत या जग माहिं

सदा जीवन मरण, सुख दु:ख, शोक और उछाह,

कार्य कारण की लरी औ कालचक्र प्रवाह,

 

और यह भवधार जो अविराम चलति लखाति,

दूर उद्गम सों सरित चलि सिंधु दिशि ज्योंजाति,

एक पाछे एक उठति तरंग तार लगाय,

एक हैं सब, एक सी पै परति नाहिं लखाय।

 

तरणिकर लहि सोई लुप्त तरंग पुनि कहुँ जाय

घुवा से घन की घटा ह्नै गगन में घहराय,

आर्द्र ह्नै नगशृंग पै पुनि परति धारामार,

सोइ धार तरंग पुनि नहिं थमत यह व्यापार।

 

जानिबो एतो बहुत- भू स्वर्ग आदिक धाम

सकल माया दृश्य हैं, सब रूप है परिणाम।

रहत घूमत चक्र यह श्रमदु:खपूर्ण अपार,

थामि जाको सकत कोऊ नाहिं काहु प्रकार।

 

बंदना जनि करौ, ह्नै है कछु न वा तम माहिं,

शून्य सों कछु याचना जनि करौ, सुनि है नाहिं।

मरौ जनि पचि और हू सब ताप आप बढ़ाय

क्लेश नाना भाँति के दै व्यर्थ मनहिं तपाय।

 

 

चहौ कछु असमर्थ देवन सों न भेंट चढ़ाय

स्तवन करि बहु भाँति, बेदिन बीच रक्तबहाय।

आप अंतस् माहिं खोजौ मुक्ति को तुम द्वार।

तुम  बनावत  आप  अपने  हेतु  कारागार।

शक्ति तुम्हरे हाथ देवन सों कछु कम नाहिं।

देव, नर, पशु आदि जेते जीव लोकन माहिं

कर्मवश सब रहत भरमत बहुत यह भवभार,

लहत सुख औ सहत दुख निज कर्म केअनुसार।

गयो जो ह्नै, वाहि सों उत्पन्न जो अब होत,

होयहै  जो  खरो  खोटो  सोउ  ताको  गोत।

देवगण  जो  करत  नंदनवन  वसंत  विहार

पूर्वपुण्य पुनीत को फल कर्मविधि अनुसार।

प्रेम ह्नै जो फिरत अथवा नरक में बिललात

भोग सों दुष्कर्म को क्षय ते करत हैं जात।

क्षणिक है सब पुण्यबल हू अंत छीजत जाय।

पाप हू फलभोग सों है सकल जात नसाय।

रह्यो जो अति दीन श्रम सों पेट पालत दास

पुण्य बल सों भूप ह्नै सो करत विविध विलास।

ह्नै परी वा बनि परी नहिं बात ताके हेत

रह्यो नृप जो, भीख हित सो फिरत फेरी देत।

चलत जात अलक्ष्य जौ लौं चक्र यह अविराम

कहाँ थिरता शांति तौ लौं औ कहाँ विश्राम?

चढ़त जो गिरत औ जो गिरत सो चढ़ि जात।

रहत घूमत और थमत न एक छन, हे भ्रात!

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बँधो चक्र में रहौ मुक्ति को मार्ग न पाई

ह्नै न सकत यह- अखिल सत्व नहिं ऐसो,भाई।

नित्य बद्ध तुम नाहिं बात यह निश्चय धारो,

सब दु:खन सों सबल, भ्रात! संकल्प तिहारो।

दृढ़ ह्नै कै जो चलौ, भलो जो कछु बनि ऐहै।

क्रम क्रम सों सो और भलोई होतहि जैहै।

सब बंधुन की ऑंसुन में निज ऑंसु मिलाई

हौं हूँ रोवत रह्यो कबहुँ जैसो तुम, भाई!

फाटत मेरो हियो रह्यो लखि जगदु:ख भारी,

हँसौं  आज  सानंद  बुद्ध  ह्नै  बंधन  टारी।

'मुक्तिमार्ग है' सुनौ मरत जो दु:ख के मारे!

अपने हित तुम आपहि दुख बिढ़वत हौ सारे।

और कोउ नहिं जन्म मरण में तुम्हैं बझावत,

और कोउ नहिं बाँधि चक्र में तुम्हैं नचावत,

काहू के आदेश सों न भेटत हौ पुनि पुनि

तापआर और अश्रनेमि और असत् नाभि चुनि।

सत्य मार्ग अब तुम्हैं बतावत हौं अति सुंदर।

स्वर्ग  नरक  सों  दूरनछत्रान  सों  सब  ऊपर

ब्रह्मलोक  तें  परे  सनातन  शक्ति  विराजति

जो या जग में 'धर्मनाम सों आवति बाजति,

आदि अंत नहिं जासु, नियम हैं जाके अविचल

सत्वोन्मुख जो करति सर्गगति संचित करि फल

 

परस तासु प्रफुल्ल पाटल माहिं परत लखाय,

सुघर कर सों तासु सरसिजदल कढ़त छवि पाय।

पैठि माटी बीच बीजन में बगरि चुपचाप

नवल वसन वसंत को सो बिनति आपहि आप।

 

कला  ताकी  करति  है  घनपुंज  रंजित  जाय।

चंद्रिकन पै मोर की दुति ताहि की दरसाय।

नखत ग्रह में सोइ, ताही को करैं उपचार

दमकि दामिनि, बहि पवन और मेघ दै जलधार।

 

घोर तम सों सृज्यो मानव हृदय परम महान,

क्षुद्र अंडन में करति कलकंठ को सुविधन।

क्रिया में निज सदा तत्पर रहति, मारग हेरि

काल को जो घ्वंस ताको करति सुंदर फेरि।

 

तासुर् वत्ताुल निधि रखावत चाष नीड़न जाय

छात में छह पहल मधुपुट पूर्ण तासु लखाय!

चलति चींटी सदा ताके मार्ग को पहिचानि,

और श्वेत कपोत हू हैं उड़त ताको जानि।

गरुड़ सावज लै फिरत घर वेग सों जा काल

शक्ति सोई है पसारति तासु पंख विशाल।

है पठावति वृकजननि को सोइ शावक पास।

चहत जिन्हैं न कोउ तिनको करति सोइ सुपास।

नाहिं कुंठित होत कैसहु करन में व्यवहार,

होत जो कछु जहाँ सो सब तासु रुचि अनुसार।

भरति जननिउरोज में जो मधुर छीर रसाल

धारति  सोइ  व्यालदशनन  बीच  गरल  कराल।

गगनमंडप  बीच  सोई  ग्रह  नक्षत्रा  सजाय

बाँधि गति, सुर ताल पै निज रही नाच नचाय।

सोइ  गहरे  खात  में  भूगर्भ  भीतर  जाय

स्वर्ण, मानिक, नीलमणि की राशि धारति छपाय।

हरित वन के बीच उरझी रहति सो दिन राति,

जतन करि करि रहति खोलति निहित नानाभाँति।

शालतरु तर पोसि बीजन और अंकुर फोरि

कांड कोंपल, कुसुम विरचित जुगुति सों निजजोरि।

सोइ भच्छति, सोइ रच्छति, बधाति, लेति बचाय।

फलविधनहिं छाँड़ि औ कछु करन सों नहिं जाय।

प्रेम जीवन सूत ताके जिन्हैं तानतिआप,

तासु  पाई  और  ढरकी हैं  मरण  औ  ताप।

सो बनावति औ बिगारति सब सुधारति जाय।

रह्यो जो तासों भलो है बन्यो जो अब आय।

चलत करतब भरो ताको हाथ यों बहु काल

जाय कै तब कतहुँ उतरत कोउ चोखो माल।

कार्य हैं ये तासु गोचर होत जो जग माँहिं।

और केती हैं अगोचर वस्तु गिनती नाहिं।

नरन के संकल्प, तिनके हृदय, बुद्धि, विचार

धर्म के या नियम सों हैं बँधो पूर्ण प्रकार।

अलख करति सहाय साँचो देति है करदान।

 

करति अश्रुत घोष घन की गरज सों बलवान।

मनुज ही की बाँट में हैं दया प्रेम अनूप,

युगन की बहु रगर सहि जड़ ने लह्यो नररूप।

शक्ति की अवहेलना जो करै ताकी भूल।

 

विमुख खोवत, लहत सो जो चलत हैं अनुकूल।

निहित पुण्यहि सों निकासति शांति, सुख, आनंद।

छपे पापहिं सों प्रगट सो करति है दुखद्वंद्व।

ऑंखि ताकी रहति है नहिं रहै चहै और,

सदा  देखति  रहति  जो कुछ होत है जा ठौर।

करौ जेतो भलो तेतो लहौ फल अभिराम।

करौ  खोटौ  नेकु  ताको  लेहु  कटु  परिणाम।

 

क्रोध कैसो? क्षमा कैसी? शक्ति करति न मान

ठीक काँटे पै तुले सब होत तासु विधन।

काल की नहिं बात, चाहे आज अथवा कालि

देतिप्रतिफल अवसिसोनिजनियम अविचलपालि।

 

याहि विधि अनुसार घातक मरत आपहि मारि,

क्रूर  शासक  खोय  अपनो  राज  बैठत  हारि,

अनृतवादिनि जीभ जड़ ह्नै रहति बात न पाय,

चोर  ठग  हैं  हरत  धन  पै  भरत  दूनो  जाय।

 

रहति शक्ति प्रवृत्ता सत् की लीक थापन माहिं,

थामि अथवा फेरि ताको सकत कोऊ नाहिं।

पूर्णता औ शांति ताको लक्ष्य, प्रेमहि सार।

उचित है, हे बंधु! चलिबो ताहि के अनुसार।

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कहत हैं सब शो कैसी खरी चोखी बात- 

होत जो या जन्म में सब पूर्व को फल, भ्रात!

पूर्व पापन सों कढ़त हैं शोक, दु:ख, विषाद।

होत जो सुख आज सो सब पूर्व- पुण्य- प्रसाद।

 

बवत जो सो लुनत सब, वह लखौ खेत दिखात

अन्न सों जहँ अन्न उपजत, तिलन सों तिल, भ्रात!

महाशून्य  अपार  परखत  रहत  सब  संसार!

मनुज को हे भाग्य निर्मित होत याहि प्रकार।

 

बयो पहले जन्म में जो अन्न तिल बगराय

सोइ  काटन  फेरि  आवत  जीव  जन्महिं  पाय।

बेर  और  बबूरकंटक  झाड़विष  की  बेलि

गयो जो कछु रोपि सो लहि मरत पुनि दु:ख झेलि।

 

किंतु, तिनको जो उखारै लाय उचित उपाय

और  तिनके  ठौर  नीके  बीज  रोपत  जाय

स्वच्छसुंदरलहलही  ह्नै  जायहै  भू  फेरि,

प्रचुर राशि बटोरि सी सुख पायहै पुनि हेरि।

 

पाय जीवन लखै जो दु:ख कढ़त कित सों आय,

सहै पुनि धारि धीर तन पै परत जो कछु जाय,

पाप को वा कियो जो सब पूर्व जीवन माहिं

सत्य  सम्मुख  दंड  पूरो  भरैहारै  नाहिं,

 

अहंभाव  निकासि  होवै  निखरि  निर्मलकाय,

स्वार्थ सों नहिं तासु रंचक काहु को कछु जाय,

नम्र  ह्नै  सब  सहैकोऊ  करै  यदि  अपकार

पाय  अवसर  करै  ताको  बनै  जो  उपकार,

 

होत दिन दिन जाय सो यदि सदय, पावन, धीर,

न्यायनिष्ठसुशील  साँचोनम्र  औ  गंभीर,

जाय तृष्णा को उखारत मूल प्रति छन माहिं

होय जीवन वासना को नाश जौ लौं नाहिं,

मरे पै तब तासु रहिहै अशुभ को नहिं चूर,

जन्म  को  लेखो  सकल  चुकि  जायहै  भरपूर,

जायहै शुभ मात्र रहि ह्वै सबल बाधा हीन,

पाय फल सो परम मंगल माहिं ह्वै है लीन।

 

जाहि जीवन कहत तुम सो नाहिं पैहे फेरि।

लगो जो कछु चलो आवत रह्यो वाको घेरि

गयो  चुकि  सोभयो  पूरो  लक्ष्य  सो  गंभीर

मिलो  जाके  हेतु  वाको  रह्यो  मनुज  शरीर।

 

नाहिं  ताहि  सतायहै  पुनि  वासना  को  जाल

और किल्विष हू कलंक लगायहै नहिं भाल।

जगत् के सुख दु:ख न सो चिर शांति करिहै भंग,

जन्म मरण न लागिहै पुनि और ताके संग।

 

पायहै  सो  परम  पद  निर्वाण  पूर्ण  प्रकार,

नित्य जीवन माहिं मिलिहै होय जीवन पार,

होयहै नि:शेष ह्वै सो धन्य, भ्रमिहै नाहिं- 

जाय मिलिहै ओसबिंदु अनंत अंबुधि माहिं।

 

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ओं मणिपर्हुं

कर्म को सिद्धांत है यह, लेहु याको जानि।

पाप के सब पुंज की ह्नै जाति है जब हानि,

जात जीवन जबै सारो लौ समान बुताय

तबै ताके संग ही यह मृत्यु हू मरि जाय।

 

'हम रहे,' 'हम हैं', 'होयँगे हम' कहौ जनियहबात,

समझौ न पथिकन सरिस पल के घरन में बहु,भ्रात!

तुम एक छाँड़त गहत दूजो करत आवत बास

सुधि राखि अथवा भूलि जो कछु होत दु:ख सुपास।

 

¹रहि जात है कछु नाहिं प्राणी मरत है जा काल,

चैतन्य अथवा आतमा नसि जात है ज्यों ज्वाल।

रहि जात केवल कर्म ही है शेष विविध प्रकार,

बहु खंड तिनसों लहत उद्भव जन्म जोरनहार।

 

जग माहिं तिनको योग प्रगटत जीव एक नवीन,

सो आप अपने हेतु घर रचि होत वामें लीन।

ज्यों पाटवारो कीट आपहि सूत कातत जाय

पुनि आप वामें बसत है जो लेत कोश बनाय।

 

सो गहत भौतिक सत्व औ गुण आपही रचि जाल- 

ज्यों फूटि विषधर अंड केंचुर दंष्ट्र गहत कराल,

ज्यों पक्षधार शरबीज घूमत उड़त नाना ठौर,

लहि वारितट कहुँ बढ़त, फेंकत पात, धारत मौर।

 

या नए जीवन की प्रगति शुभ अशुभ दिशि लै जाय।

जब हनत काल कराल पुनि निज क्रूर करहि उठाय।

रहि जात तब वा जीव को जो शेष शुद्धि विहीन

सो फेरि झंझावात झेलत सहत ताप नवीन।

 

पै  मरत  है  जब  जीव  कोऊ  पुण्यवान  सुधीर

बढ़ि जाति जग की संपदा कछु, बहत सुखद समीर।

मरु भूमि की ज्यों धार बालू बीच जाति बिलाय।

ह्नै  शुद्ध निर्मल फेरि चमकति कढ़ति है कहुँ जाय।

 

या भाँति अर्जित पुण्य अर्जित करत है शुभकाल,

यदि पाप ताको देत बाधा रुकति ताकी चाल।

 

    ¹   इसके पहिले के पद्य में बौद्धों के जिस दार्शनिक मत का आभास है उसे स्पष्ट करने के लिए यह पद्य अपनी ओर से जोड़ा गया है। बौद्ध लोग आत्मा को नश्वर मानते हैं, उसे अमर नहीं मानते। इससे कर्मवाद को विलक्षण रीति से उन्होंने अपने मत के अनुकूल किया है। प्राणी की मृत्यु होने पर उसके सब खण्ड- आत्मा आदि सब- नष्ट हो जाते हैं, केवल कर्म शेष रह जाते हैं जिनसे फिर नए नए खण्डों की योजना होती है और एक नया प्राणी उत्पन्न होता है। पिछले प्राणी के साथ इस नए प्राणी का कर्मसूत्र संबंध रहता है, इससे दोनों को एक ही प्राणी कह सकते हैं।

पै धर्म सबके रहत ऊपर सदा या जग माहिं,

कल्पांत लौं विधि चलति ताकी, कबहुँ चूकति नाहिं।

तम ही तुम्हैं भव बीच डारत है अविद्या छाय,

तुम जाल में परि जासु झूठे दृश्य सत् ठहराय

हौ करत तृष्णा लहन की, औ लहि तिन्हैं फँसिजात

 

बहु रूप रागन माहिं जो हैं करत तुमसों घात।

जे 'मध्यमा प्रतिपदा'¹ को गहि होत चाहैं पार- 

पथ जासु प्रज्ञा खोजि काढ़ति, शांति करति सुढार- 

निर्वाणपथ की ओर चाहैं चलन जे चित लाय

ते सुनैं, अब हौं कहत चारों 'आर्य्य सत्य' बुझाय।

 

प्रथम तो है 'दु:ख सत्य' न तुम्हैं जासु बिचार,

परम प्रिय जीवन तुम्हैं सो दीर्घ सुख को भार।

क्लेश ही रहि जात हैं, सुख परत नाहिं जनाय,

आय पंछी से कबहुँ उड़ि जात झलक दिखाय।

 

जातिदु:ख  अपारशैशव  दशा  को  दु:ख  घोर,

दु:ख  यौवन  ताप  कोश्रमदु:ख  फेरि  कठोर,

दु:ख  दारुण  जरा  कोपुनि  मरणदु:ख  कराल,

दु:ख  में  या  भाँति  सिगरो  जात  जीवनकाल।

 

प्रेम  है  अति  मधुर, पै  सो अधार  जो न  अघात

और  परिरंभित  पयोधर  लपट  सों  लपटात।

अवसि  संगरशूरता  अति  परति  भव्य  लखाय,

किंतु  वीर  नरेंद्र  के  भुज  गीधा  नोचत  जाय।

 

लसति  सुंदर  वसुमतिपै  लखौ  नयन  उठाय

एक  एकहि  हतन  की  कत  रहत  घात  लगाय!

लगत  नीलम  सरिस  नभपै  देत  बूँद न डारि

अन्न बिनु जब लोग व्याकुल मरत त्राहि पुकारि।

 

    ¹   कामसुख आदि विषयों का सेवन और शरीर को क्लेश देना इन दोनों अंतों का त्याग मध्यम मार्ग का ग्रहण।

व्याधि सों वा शोक सों जे विकल औ बिललात,

टेकि  लाठी  लुढ़त  परिजनत्यक्त  जे  नतगात,

लगत  जीवन  तिन्हैं  कैसो  नेक  पूछौ  जाय,

कहत ते 'शिशु विज्ञ, रोवत जन्म जो यह पाय।''

 

'दु:ख  समुदयसत्य  दूजो  धारियो  मन  माहिं।

कौन  ऐसो  क्लेश  तृष्णा  सों  कढ़त जो नाहिं?

आयतन औ स्पर्श¹ बहु विधि मिलत हैं जब जाय

कामतृष्णा आदि की तब ज्वाला देत जगाय।

 

जगति तृष्णा काम की, भव विभव की या भाँति।

स्वप्न  में  तुम  रहत  भूलेगहत  छायापाँति।

अहं  को  आरोप  तिनके  बीच  करत  भुलाय,

जगत्  ठाढ़ो  करत  तासु प्रतीति  यों  उपजाय।

 

लखत तासों परे नहिं औ सुनत नहिं तुम, भ्रात!

मधुर  स्वर  जो  इंद्रलोकहु सों  परे  लहरात।

'असत् को तजि सत्य जीवन गहौ सहित विवेक'

धर्म  की  या  हाँक पै  तुम  कान  देत  न नेक।

 

विभवतृष्ण  देति  या  भू  बीच  कलह  पसारि।

करत बिलखि विलाप वंचित दीन ऑंसू ढारि।

कामक्रोध  लखात  ईर्षाद्वेषहिंसाघात।

रक्त  में  सनि  वर्ष  पाछे  वर्ष  धावत  जात।

 

जहाँ  चाहत  रह्यो  उपजै  अन्न  सुख  सरसाय

फैलि  कलियारी  तहाँ  विषमूल  रही  बिछाय,

क्रूर  कटुता  सों  भरे  निज  फूल  रही  दिखाय।

जहाँ  नीके  बीज  जामैं  ठौर  सो  न  लखाय।

 

माति विष यों जात जग सों जीव त्यागि शरीर

तृषा   आतुर   फेरि   लौटत   कर्मधारा   तीर।

    ¹   बौद्ध शास्त्रो में मन सहित पाँच इन्द्रियों के समूह को षडायतन और विषयों को स्पर्श कहते हैं।

आयतनगत,   कर्मबीजन   सों   सनों,   श्रमलीन

चलत है पुनि अहं, माया मिलति और नवीन।

 

सत्य  'दु:खनिरोधानामक  तीसरो  हैभ्रात!

विजय तृष्णा पै लहै करि सकल रागनिपात।

मूलबद्ध  कुवासना  मन  सों  समस्त  उखारि,

करै  अंतस्  के  उपद्रव  शांत  धीरज  धारि।

 

प्रेम  याही- नित्य  सुषमा  हेरि  तन  मन  देय,

और यहै प्रताप- आपहिं  जीति वश करि लेय,

यहै  अति  आनंद- देवन  सों  परे  ह्वै  जाय,

अतुल संपति यहै- राखै नित्य निधिहि जुटाय।

 

नित्य निधि यह जुरति कीने दया औ उपकार,

दान, मृदुता, मधुर, भाषण, और शुचि व्यवहार।

अछय धन यह जाय जोरत सदा जीवन माहिं,

लोक  में  परलोक  में  कहुँ  छीजिहै  जो  नाहिं।

 

दु:ख  को  यों  अंत  ह्वै है आपही  वा  काल

जन्म  को  औ  मरण  को  जब  छूटिहै  जंजाल

जायहै चुकि तेल उठिहै दीप लौ किहि भाँति?

जायहै रहि बस अनालय मुक्ति की शुभ शांति।

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'मार्ग' नाम को 'आर्य्य सत्य' अब चौथा आवै,

सब  के  चलिबे  जोग  सुगम  जो  पंथ  सुहावै।

सुनौ  'आर्य्य  अष्टांग  मार्गयह  है  अति  सुंदर

सूधो  जो  चलि  गयो  शांति  की  ओर  निरंतर।

 

गए विविध पथ हिममंडित वा शुभ्र शिखर तन

जाके चहुँ दिशि लसत स्वर्णरंजित कुंचित घन।

अति सुढार वा अति कुढार पथ गहि, हे भाई!

शांतिधाम  के  बीच  पथिक  पहुँचत  वा  जाई।

सबल सकत परि पार विकट गिरिसंकट चटपट

कूदत फाँदत, गिरत परत गहि मारग अटपट।

जे निर्बल ते पथ सुढार गहि चढ़ैं सँभारत,

बीच बीच में टिकत और बहु फेरो डारत।

ऐसो है 'अष्टांग मार्ग' यह अति उजियारो,

शांति  धाम  के  बीच  अंत  पहुँचावनहारो।

दृढ़  संयम  संकल्प  होत  हैं  जिनकेभाई!

पहुँचि जात ते जीव शीघ्र चढ़ि खड़ी चढ़ाई।

पै  निर्बल   हू   धीरे   धीरे   आशा   धारे

चलत रहत यदि पहुँचि जात कबहूँ बेचारे।

 

पहलो 'सम्यक् दृष्टि' अंग या मारग केरो।

राखि  धर्ममय  चलौ, पाप सों  करो  निबेरो।

मानौ   कर्महि   सार   भाग्य   उपजावनहारो।

इंद्रिन को वश राखि विषयवासना निवारो।

पुनि  'सम्यक्  संकल्पदूसरो  अंग  सुहावै।

सब जीवन को हित चित सों ना कबहूँ जावै।

क्रोध  लोभ  करि  दमनक्रूरता  मारौ  सारी,

मृदु समीर सी जीवनगति ह्नै जाय तुम्हारी।

'सम्यक्  वाचा' अंग  तीसरौ  मन में  धारौ,

भीतर  राजा  बसत  अधारपट  समझि  उघारौ।

मुख  सौं  बाहर कढैं शब्द  जो कबहुँ  तुम्हारे

शांत, मधुर, प्रिय और विनीत ते होवै सारे।

पुनि 'सम्यक् कुर्मांत' अंग चौथो जो लैहौ।

साधात  साधात  सुकृत  कर्मक्षयमारग  पैहौ।

क्रिया  तुम्हारी  होयँ  जगत्  में  जेती  सारी

शुभ को बाढ़त देयँ अशुभ को देयँ उखारी।

फटिक  पोत  के  बीच  स्वर्णगुण  झलकत  जैसे

शुभ कर्मन बिच प्रेम तुम्हारो झलकै तैसो।

पुनि  'सम्यक्  आजीवपाँचवों  अंग  कहावै,

करौ  जीविका  क्लेश  नाहिं  कोउ  जासों  पावै।

गहि  'सम्यक्  व्यायामशिथिलता  दूर  हटाओ

करौ उचित श्रम तन मन में जनि आलस लाओ।

'सम्यक् स्मृति' बिनु ज्ञान सकत नहिं थिरता पाई,

धारौगे  जो  आज  जायगो  कालि  पराई।

सात अंग ये साधि लहत 'सम्यक् समाधि' नर।

सुख दु:ख दोऊ नाहिं अचंचल रहत निरंतर।

यों  सम  वृत्ताहि  पाय  चित्त  एकाग्र  लगावत

जो जो मुक्ति उपाय तिन्हैं सब गुनत यथावत्

 

 

शक्ति प्राप्त बिनु किए उड़ौ ना ऊपर धाई

नीचे  ही  सों  चलौ  कर्म  साधात  सबभाई!

जो थल जानो सुनो प्रथम वाही को धारिए।

शक्ति प्राप्त जब होय गमन ऊपर को करिए।

अति प्रिय पुत्र कलत्रा होत यह लेहु विचारी।

बहु  आहार  विहारसखा  कैसे  सुखकारी!

दान  दया  हैं  सुंदर  फल  उपजावनहारे।

जमे  चित्त  में  यदपि  तदपि  भय  झूठे  सारे

ऐसो   जीवन   गहौ   होयहै   मंगलकारी।

दलि  पाँयन  तर  पाप  रचौ  सोपान  सँवारी।

माया  के  बिच  पंथ  निकासत  अपनो  सुंदर

बढ़त जाव तुम सत्य धर्म की ओर निरंतर।

या विधि ऊँची भूमिन पै तुम कढ़त जायहौ,

पापभार निज हरुओ औ गति सुगम पायहौ।

होत  जायहै  दृढ़तर  यों  संकल्प  तिहारो,

क्रमश:  बंधन  तजत  पंथ  पैहौ  उजियारो।

मुक्तिमार्ग  की  प्रथम  अवस्था  जो  यह  पावै

सो  अधिकारी  नर  'श्रोत:  आपन्नकहावै।

सब अपाय भय खोय सदा शुभ करत जायहै

मंगलमय   निर्वाण   धाम   सो   अंत   पायहै।

फेरि  अवस्था  है  द्वितीय  'सकृदागामीकी,

हटत तीन प्रतिबंधा, लहति मति गति अति नीकी।

हिंसा  औ  आलस्य काम  सो  दूर  करत  है

एक जन्म बस और ताहि पुनि धारन परत है।

फेरि  तीसरी  दशा  'अनागामीकौ  पावत,

तजि विचिकित्सा मोह 'पंच प्रतिबंधा'¹ नसावत।

    ¹   पंच प्रतिबंधा- आलस्यहिंसा, काम, विचिकित्सा, मोह।

जनमत नहिं या कामलोक में पुनि सो आई,

ब्रह्मलोक  में  लहत  जन्म  यह  लोक  विहाई।

'अर्हत्' की पुनि परति अवस्था सब सों ऊपर,

जन्म आदि को बंधन नहिं रहि जात लेश भर।

सब  दु:खन  सों  परेमुक्त  माया  सों  सारीं।

होत  बुद्धगण  आए  या  पद  के  अधिकारी।

 

जैसे  वा  हिमशृंग बीच  बैठे  जो  बाँके

छाँड़ि नील नभ और नाहिं कछु ऊपर ताके

तैसे  जो  प्रतिबंधा  पाँच  ये  देत  नसाई

पहुँचि जात निर्वाणधाम के तट पै जाई।

नीचे  ताके  परे  ताहि  सुरगण  सिहात  सब,

तीन लोक को प्रलय होय पै डिगै न सो तब।

सब जीवन है तासु, मृत्यु मरि जाति ताहि हित,

ताके नहिं पुनि कर्म बनैहैं नए भवन नित।

चाहत सो कछु नाहिं, लहत पै सब कछु निश्चय,

अहं भाव तजि देखत है सब जगत् आत्ममय।

यदि कोऊ यह कहै 'नाश निर्वाण कहावत'

बोलौ तासों 'झूठ कहत तुम, भेद न पावत।'

कहै कोउ यदि 'जीबो ही निर्वाण कहावत'

वासों तुम यह कहौ 'व्यर्थ तुम भ्रम उपजावत।'

जाको  कोऊ  सुनि  समुझै  वा  कहि  समुझावै

ऐसो  है  सो  नाहिंव्यर्थ  क्यों  वाद  बढ़ावै?

टिमटिमात  जो  जीवनदीपक  को  उजियारो

ताके  आगे  ज्योति  कहाको  जाननहारो?

लसत  परे अति काल जन्म बंधन  सों  जो है

कैसो  सो  आनंद  सकै  कहि  ऐसो  को  है?

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गहौ मार्ग यह- दु:ख न द्वेष सों बढ़ि जग माहीं,

क्लेश राग सों, धोखो इंद्रिन सों बढ़ि नाहीं।

मुक्ति मार्ग पै गयो दूर बढ़ि सो पुनीत नर।

जाने एकहु पाप दल्यो अपने को रुचिकर।

गहौ  मार्ग  यह- याही  में  सो  सुधोत  है

जासों  सारी  प्यास  बुझतिश्रम दूर  होत  है,

याही  में  वे  अमरकुसुम  हैं  खिले  मनोहर

हासमयी गति करत जात जो बिछि पाँयन तर,

याही  में  वे  घरी  परैं  सुख  कीहे  भाई!

परम  मधुर  जोजात  परैं  नहिं  कतहुँ  जनाई।

शिक्षमाण   ये   धर्मरत्न   सबसों   बढ़ि   जानौ

और  सुधाहू  सों  इनको  अति  मधुर  प्र्रमानौ- 

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दया  के नाते करौ  जनि जीवहिंसाभ्रात!

क्षुद्र  तें  अति  क्षुद्र  ये  जो  जीव  हैं  दरसात

करत  पूरो  भोग  ऊँचे  जात  पंथ  सुधारि

देहु तुम इनको न बाधा बीच ही में मारि।

 

बनै जो कछु देहु औ तुम लेहु या जग माहिं।

लोभ सों छलबल सहित पै लेहु तुम कछु नाहिं।

देहु झूठी साखि ना, जनि करौ निंदा जानि।

सत्य बोलौ, सत्य ही है शुद्धता ही खानि।

 

पियौ ना मद, देत बुद्धि नसाय जो हरि ज्ञान।

शुद्ध जो मन कहा ताको सोमरस को पान?

दीठि  लाओ  न  पराई  नारि  पै  लहि  घात,

करौ इंद्रिन को न अपने पाप में रत, भ्रात!

 

कपिलवस्तु में बसि पुरजन परिजन समाज लहि

सारी निशि भगवान् करत उपदेश गए रहि।

काहू  को  वा  रैन  नींद  नयनन  में  नाहीं

ऐसे  सब  ह्नै  गए  मग्न  प्रभुवचनन  माहीं!

बोलि चुके जब बुद्ध भूप तब सम्मुख आयो,

चीवर माथे लाय विनय सों सीस नवायो।

बोल्यो  'हे सुत!सँभरि कह्यो पुनि यों ''हेभगवान्!

मोहू को लै लेहु 'संघ' में मानि तुच्छ जन।''

और   सुंदरी   गोपा   ह्नै   आनंदमग्न   तब

बोली प्रभु सों ''हे मंगलमय! राहुल को अब

देहु  दया  करि  दाय  मानि  याको  अधिकारी,

'उपसंपदा'¹ गहाय करौ प्रभु याहि सुखारी।''

 

या प्रकार सों शाक्य राजकुल के तीनों जन।

धर्ममार्ग  में  करि  प्रवेश  ह्नै  गए  शांतमन।

 

तथागत  ने  भाखि  दीने  धर्म  के  सब  अंग।

पितामाताबंधुबांधावइष्टमित्रान  संग

चाहिए  व्यवहार  कैसो  कह्यो  सब  समझाय

यों गृहस्थ उपासकन को दियो धर्म बताय।

छोरि  बंधन  सकै इंद्रिन  के न जो  तत्काल,

होयं पाँव अशक्त जाके, चलै धीमी चाल।

चलै संयम नियम सों यों दया धर्म निबाहि

जायँ कल्मषहीन दिन सब, लगै पाप न ताहि।

 

चलत जे या भाँति ह्नै कै शुद्ध औ गंभीर,

दयावान्सुजानश्रद्धावान्  औ  अति  धीर,

आप से गुनि छोह जीवन पै सकल दरसाय,

धारत ते 'अष्टांगपथ' पै पाँव पहलो जाय।

 

दु:ख वा सुख होत है जो जीव को जग माहिं

अशुभ वा शुभ कर्म को फल, और है कछु नाहिं।

स्वार्थ छाँड़ि गृहस्थ जेतो करत जग उपकार

होत  तेतो  सुखी  जनमत  जबै  दूजी  बार।

 

एक दिन प्रभु रहे यों ही वेणुवन दिशि जात,

लख्यो  एक  गृहस्थ  ठाढ़ो  न्हाय  निर्मलगात,

जोरि  कर  नभ  ओर  नावत  सीस  बारंबार,

फेरि  बंदन  करत  धारती  को  अनेक  प्रकार

    ¹   बौद्ध लोग श्रमण या भिक्षु धर्म की दीक्षा को उपसंपदा कहते हैं।

पढ़त मुँह सों कछुक अच्छत हाथ सों छितराय

घूमि चारों दिशा को पुनि सिर नवावत जाय।

बुद्ध  ने  तब  जाय  तासु  समीप  पूछी  बात

''रहे हौ सिर नाय क्यों या भाँति तुम, हे भ्रात?''

कह्यो ''पूजन करत हौं मैं नित्य उठि, भगवान्!

देव  पितर  मनाय  चाहत  आपनो  कल्यान।''

कह्यो जगदाराधय 'अच्छत क्यों रहे बगराय?

दया प्रेम न क्यों पसारत सब जनन पै जाय?

मातु पितु को मानि पूरब कढ़ति जहँ सों ज्योति,

गुरुहि दक्षिण मानि जहँ सों प्राप्ति निधि की होति,

पुत्र पत्निहिं मानि पश्चिम शांति जहँ द्युतिमान,

होत जहँ अनुराग के बिच दिवस को अवसान,

बंधु  बांधावइष्टमित्रान  को  उदीची  मानि

भक्ति,श्रद्धा,प्रेम आपनो तुम पसारौ जानि।

क्षुद्र जीवन पै दया तुम धारौ निज मन माहिं,

यहैं पूजन अवनि चाहति, और यह सब नाहिं।

स्वर्ग में जो बसत हैं सब देव पितर महान्

रखौ तिनमें भक्ति, चाहिए नाहिं और विधन!

चलौगे  या  रीति  पै  जो  गृही  जीवन  माहिं

होयगी  रक्षा  तुम्हारीरहैगो  भय  नाहिं।''

शिक्षा  यही  भाँति  'संघको  अपने  दीनी।

धर्मव्यवस्था प्रभु ने भिक्षुन के हित कीनी,

करत  व्योम  में  जो  विहार  नाना  विधि  जाई

जागे  पंछिन  सरिस  विषयकोटरन  बिहाई।

सिखै तिन्हैं 'दशशील,'1 सात 'बोधयंग'2 बताए,

'ऋद्धिपाद'3 के द्वार, 'पंचबल'4 कहि समझाए,

 

1. दशशील- हिंसा, स्त्येन, व्यभिचार, मिथ्या भाषण, प्रमाद, अपराह्न भोजन, नृत्यगीतादि, मालागंधादि, उच्चासन शय्या और द्रव्यसंग्रह का त्याग।

2. बोधयंग- स्मृति, धर्मप्रविचय (पुण्य), वरीय्य, प्रीति, पश्रब्धि, समाधि और अपेक्षा।

3. ऋद्धिपाद- अर्थात् असामान्य क्षमता की प्रप्ति।

4. पंचबल- श्रद्धाबल, समाधिबल, वरीय्यबल, स्मृतिबल और प्रज्ञाबल।

'विमोक्ष सोपान'1 आठ सुंदर दरसाए,

'ध्यान चतुर्विधा'2 तिनको व्याख्या सहित बुझाए- 

जीव हेतु जो परम मधुर हैं अमृतहु सों बढ़ि,

जिनको लहि सो सकत क्षार भवसागर सों कढ़ि।

'मैत्राी', 'करुणा' और 'उपेक्षा' 'मुदिता'3 चारौ

अंग  भावना  के  कहि  बोले  'इनको  धारौ।'

शिक्षमाण दै  रत्न  अंत  भिक्षुन  को  सारे

बोले 'त्रिशरण'5 गहौ, मार्ग पै चलौ हमारे।''

भिक्षुन  के  आचार  नियम  हू  सब  निधर्ाारे,

रहैं  राग  औ  विषय  भोग  सों  कैसे  न्यारे।

रहन सहन औ खान पान, परिधन बताए।

तिनके  हित  परिधोय  तीन  चीवर  ठहराए- 

'अंतरवासकरहै  एकपुनि  ताके  ऊपर

धारैं  'उत्तरासंगऔर  'संघातिअंग  पर।

राखैं   भिक्षापात्र   संग   में   औ   शयनासन

और  अधिक  जंजाल  बढ़ावैं  नाहिं  भिक्षुजन।

या  विधि  श्रीभगवान्  गए  निज  'संघबनाई

जो अब लौं चलि जात जगत् की करत भलाई।

परिनिर्वाण

नाना  देशन  माहिं  आपनो  'संघबनावत

घूमि घूमि भगवान् रहे निज वचन सुनावत

कबहुँ राजगृह और कबहुँ वैशाली जाई,

1. अष्टविमोक्षसोपान- (1) रूपभावना के कारण बाह्य जगत् में रूप दिखाई पड़ना, (2) मन में रूप भावना न रहने पर भी बाह्य जगत् में रूप दिखाई पड़ना, (3) न मन में रूप भावना रहना न बाह्य जगत् में दिखाई पड़ना, (4) रूपलोक अतिक्रमण कर अनंत आकाश की भावना करते हुए 'आकाशानंत्यायतन' में विहार, (5) आकाशानंत्यायतन का अतिक्रमण कर अनंत विज्ञान की भावना करते हुए 'विज्ञानानंत्यायतन' में विहार, (6) विज्ञानानंत्यायतन का अतिक्रमण कर 'अकिंचन' (कुछ नहीं) की भावना करते हुए अकिंचन्यायतन में विहार, (7) अंकिंचन्यायतन का अतिक्रमण कर नैवसंज्ञानैवासंज्ञायतन (ज्ञान और अज्ञान दोनों नहीं) की भावना करते हुए नैवसंज्ञानैवासंज्ञायतन में विहार, (8) अंत में ज्ञान और ज्ञाता दोनों का निरोधा कर 'संज्ञावेदयितृ' उपलब्ध करना।

2. आठ विमोक्ष सोपानों में से तीसरे से सातवें तक को चतुर्विधा ध्यान कहते हैं।

3. मुदिता=संतोष।

4. मार्ग, ऋषि, बल आदि सब मिलकर सप्तत्रिंशच्छिक्षणमाण धर्म कहलाते हैं।

5. बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में जाना।

कौशांबी औ श्रावस्ती में कछु दिन छाई,

'चातुर्मास्य'1 बिताय विविध उपदेश सुनावत,

भूले  भटकन  को  सुंदर  मारग  पै  लावत।

अधिक काल पै श्रावस्ती ही माहिं बितायो।

जहाँ 'जेतवन' बीच धर्म बहु कहि समझायो।

पैंतालिस  चौमासन  लौं  या  धाराधाम  पर

प्रभु  समझावत  रहे  धर्म  के  तत्व  निरंतर,

जगी  ज्योति  जिनकी  जग  में  ऐसी  उजियारी

सब  देशन  को सूझि  परयो  पथ  मंगलकारी,

धयावत  जाको  जग  के आधो नर  हिय  धारे,

आलोकित  हैं  जाकी  आभा  सों  मत  सारे।

अंतकाल नियराय गयो जब एक दिवस तब

'पावामें  प्रभु जाय  पधारे  शिष्यन लै  सब

'चुंद' नाम के कर्मकार के भवन कृपा  करि।

पायो  भोजन  दियो  सामने  जो  वाने  धारि।

कुशीनार  को  गए तहाँ सों ह्नै पीड़ित जब

द्वै  साखुन  के  बीच  डारि  शय्या  पौढ़े  तब।

परम  शांति  सों  बोलि  देत  उत्तर  जो  माँगत

'परिनिर्वाणपुनीत  लह्यो  भगवान्  तथागत।

मनुजन में रहि मनुज सरिस, शुभ मार्ग दिखाई

परम  शून्यमय  नित्य  शांति  में  गए  समाई  

 

चरित भयो यह पूर्ण, कह्यो मैं जो कछु गाई

सो यह साहस मात्र भक्तिवश जानौ, भाई!

जानत  थोरी  बात  ताहु  पै  कहन  न  जानत,

यातें   अपनी   चूक   आपही   मैं   अनुमानत।

कहाँ तथागत चरित, कहाँ लघु मति यह मेरी!

चाहौं  यातें  क्षमादया  मैं  प्रभु  की  हेरी।

बुध्दं शरणं गच्छामि

धार्मं शरणं गच्छामि

संघं शरणं गच्छामि

 

                1-            बौद्ध भिक्षु वर्षा या चौमासे भर एक ही स्थान पर रहते हैं।


बुद्धचरित
भाग - 1 // भाग -2 // भाग -3 // भाग - 4 //  भाग - 5 //  भाग -6 //  भाग - 7 // भाग - 8 //  
आदर्श जीवन

इति।

 

 

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