रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा, साहित्य और समाज विमर्श
भाषा विमर्श
भाग
-
3
देशी भाषाओं का
पुनरुज्जीवन
मराठी के प्रसिद्ध पत्र 'केसरी' में आजकल उपर्युक्त शीर्षक की लेखमाला निकल
रही है। अब तक जो अंश निकला है उसका सार यह है
पचास वर्ष से देश में अंगरेजी भाषा का प्रचार खूब हो रहा है। मेरी समझ में
अंगरेजी की शिक्षा को पूर्णता को पहुँचा कर भारतवासी रुकेंगे और देशी
भाषाओं की ओर ध्याअन देंगे। इसके लक्षण दिखाई दे रहे हैं। इधर पाँच वर्ष के
बीच में लोगों के विचारों ने खूब पलटा खाया है। विदेशी भावों को देशी रूप
में लाने, नवीन कोश आदि बनने की चर्चा इत्यादि चारों ओर सुनाई पड़ने लगी है।
देशी भाषाओं में लिखने और व्याख्यान देने की प्रवृत्ति भी बढ़ चली है। सन्
1894 में मि. जस्टिस रानडे ने यूनिवर्सिटी के सामने कहा था कि ''मराठी का
प्रश्न Home rule स्वराज्य के प्रश्न के समान है।''
अंगरेजी भाषा के अध्यपयन से देशी भाषा के प्रति अनुराग और ममत्व बढ़ा है।
यद्यपि इस कथन में विरोधभास देख पड़ता है पर यह ठीक है। अंगरेजी के प्रचार
के कारण देशी भाषाओं पर एक प्रकार का संकट आने के कारण उसकी रक्षा के विषय
में अपने लोगों का ध्यान गया है। पेशवाई के 150 वर्षों में मराठी भाषा की
जो उन्नति नहीं हुई थी वह इधर पचास वर्ष के अंगरेजी शासन में हुई है।
अंगरेजी भाषा और देशी भाषाएँ साथ-साथ चल सकती हें। यदि एक म्यान में दो
तलवारें एक साथ नहीं रह सकतीं तो भिन्न भिन्न अवसरों पर रह सकती हैं।
मनुष्य के मन और भाषा का भी यही सम्बन्ध है। एक भाषा का ज्ञान सदैव दूसरी
भाषा का सहायक होता है। ऐसी अवस्था में कौन एक भाषा हिन्दुस्तान में जीवित
रहेगी यह प्रश्न ही नहीं उठता। समाज को कार्यक्षमता के विचार से अनेक
भाषाओं की आवश्यकता हुआ करती है। आजकल ऐसी ही आवश्यकता उपस्थित हुई है।
महाराष्ट्र ही को लीजिये। यहाँ आजकल एक क्या चार भाषाओं के सीखने की जरूरत
है। मराठी तो जन्म भाषा ही ठहरी। रही संस्कृत, वह मराठी का साथ नहीं छोड़
सकती। दन्तकथा, पूर्व इतिहास, धर्म, आदि सब संस्कृत से लिये हुए हैं।
वर्तमान स्थिति में केवल संस्कृत और मराठी से ही काम नहीं चल सकता क्योंकि
समयानुकूल ज्ञान और व्यवहार आदि के लिए अंगरेजी की इतनी आवश्यकता है कि
उसके बिना विद्वान से विद्वान पुरुष कुछ भी नहीं कर सकता। अंगरेजी न
जाननेवालों की दशा नींद से उठकर सहसा उजाले में आने वाले आदमी के समान है।
राजकाज, व्यापार, शिल्प आदि का निर्वाह बिना अंगरेजी जाने नहीं हो सकता। जो
जगत् के भिन्न-भिन्न देशों में उत्पन्न उत्कृष्ट ज्ञान का सम्पादन करना
चाहते हैं उनके लिए अंगरेजी को छोड़ और कोई गति नहीं। अगर आज पेशवाओं का समय
होता तब भी राज्यप्रबन्ध आदि की उन्नति के लिए अंगरेजी सीखनी ही पड़ती। चीन
और जापान का उदाहरण प्रत्यक्ष है।
लेकिन केवल मराठी, संस्कृत और अंगरेजी ही से महाराष्ट्रों का काम नहीं चल
सकता। देश में एकता का विचार फैल रहा है। परस्पर के आचार-विचार को समझने की
आकांक्षा उत्पन्न हो रही है। इसके लिए एक देशी व्यापक भाषा की आवश्यकता
होगी। यह भाषा कौन होगी इसमें विवाद है। सर गुरुदास बैनर्जी की राष्ट्रीय
शिक्षण नामक पुस्तक के अनुसार प्रत्येक प्रान्त में दो-दो देशी भाषाएँ
रहेंगी। बंगाल में बंगला और हिन्दुस्तानी, संयुक्त प्रान्त और पंजाब में
हिन्दी और उर्दू, बम्बई में मराठी और गुजराती, मद्रास में तामिल और तैलंगी
यही दो मुख्य भाषाएँ रहेंगी।
वर्तमान समय में हिन्दी का प्रचार सबसे अधिक है। पर उसमें वाङ्मय (साहित्य)
की कमी है। बंगला के बोलने वाले केवल चार करोड़ हैं। परन्तु साहित्य की
दृष्टि से यह अग्रस्थानीय है, मराठी पुस्तकों से बंगला में जितने भाषान्तर
होते हैं उनकी अपेक्षा बंगला पुस्तकों के मराठी अनुवाद कहीं अधिक होते हैं।
गुजराती भाषा व्यापार धान्धो के लिए अधिक उपयोगी है। इस प्रकार किसी में
कुछ और किसी में कुछ गुण होने से देशी भाषाओं में एक प्रकार की बाज़ी सी लगी
हुई है। इस बाज़ी को कौन ले जायगा यह प्रश्न मनोरंजक तो है पर हम लोगों के
लिए गौण है। यह निश्चय है कि उपर्युक्त चार भाषाएँ प्रत्येक सुशिक्षित
मनुष्य के सामने आवेगी। सारांश यह कि चाहे अंगरेजी को कितना ही राजकीय
महत्तव प्राप्त हो पर वह राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अप्रैल, 1911 ई.)
हिन्दी में लिंग नियम
12 मई के लीडर में एक महाशय हिन्दी भाषा के लिंग सम्बन्धी नियमों के विषय
में लिखते हैं
1. ''वर्तमान समय में बिहार और छोटानागपुर के लोग अपने युक्त प्रान्त और
पंजाब के भाइयों के साथ हिन्दी बोलने में बड़ा संकोच करते हैं क्योंकि
बिहारी लोग सम्बन्ध कारक, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया में उर्दू व्याकरण के
नियमों का सदैव पालन नहीं कर सकते। इससे पश्चिमी प्रान्त के लोग इनकी कुछ
हँसी उड़ाते हैं जोकि इन्हें बहुत बुरी लगती है। परिणाम यह होता है कि इन
दोनों के बीच न वैसी घुलकर बातचीत होती है और न हेलमेल होता है। यह मेल की
बाधा बहुत जल्दी दूर हो सकती है यदि उर्दू के लिंग सम्बन्धी अनावश्यक नियम
हिन्दी से निकाल दिए जायँ।''
2. ''हिन्दी बोलने वाले लड़कों के मस्तिष्क पर इन सम्बन्ध कारक, सर्वनाम,
विशेषण और क्रिया के लिंग सम्बन्धी नियमों के सीखने में व्यर्थ का बोझ पड़ता
है। इन लड़कों के अपनी भाषा सीखने के मार्ग में यह एक बड़ी भारी अड़चन है
जिसके कारण वे अपनी भाषा अच्छी तरह सीख नहीं सकते। इन नियमों को उड़ा देने
से हिन्दी भाषा बहुत जनप्रिय और घर के बच्चों के लिए बहुत सुगम हो जायगी।''
3. ''भारतवर्ष के भिन्न भिन्न भागों में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का
बहुत सच्चा प्रयत्न हो रहा है। पर दूसरे प्रान्त के निवासियों को इस भाषा
को सीखने में जो बड़ी भारी अड़चन है वह सम्बन्ध कारक, विशेषण और क्रिया आदि
का लिंग सम्बन्धी नियम है। हम हिन्दी भाषियों को इस बात पर गर्व करना चाहिए
कि हमारी भाषा राष्ट्रभाषा बनाई जानेवाली है। हम सब लोगों को उन अन्य भाषा
भाषियों की हर प्रकार से सहायता करनी चाहिए जो हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने
का प्रशंसनीय प्रयत्न कर रहे हैं तथा उन लोगों के लिए जिनकी वह मातृभाषा
नहीं है जहाँ तक हो सके उसका सीखना आसान कर देना चाहिए।''
4. ''दूसरा प्रशंसनीय उद्योग हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य की उन्नति के
लिए हो रहा है। इस उद्योग में तभी सफलता होगी जब हम ऑंख मूँदकर दूसरी
भाषाओं का अनुकरण करना छोड़ दें। उर्दू हमारी मातृभाषा नहीं है, इसलिए कोई
आवश्यक नहीं है कि हम व्यर्थ के बन्धन में अपने को डालें। जब हम जानते हैं
कि उस बन्धनसे भाव और विचार प्रकट करने में किसी प्रकार की सहायता नहीं
मिलती और जो केवल मकतब के मुसलमान मौलवियों का सिखाया हुआ है। अब तक उर्दू
हिन्दी का पोषण करनेवाली समझी जाती रही है जो इतिहास के बिलकुल विरुद्ध है।
अत: जब तक हम उर्दू के अनावश्यक बन्धनों को न तोड़ फेंकेंगे तब तक हमारी
भाषा की उन्न:ति होगी, क्योंकि स्वच्छन्दता ही वृद्धि का मूल और उसका अभाव
ही उसका बाधाक है।''
5. ''इस समय उच्च श्रेणी के लोगों और निम्न श्रेणी के लोगों की हिन्दी में
बड़ा अन्तर है। व्याकरण सम्बन्धी बन्धन जिसके कारण शुद्ध भाषा का सीखना
साधारणजनों के लिए कठिन होता है जितने ही अधिक होंगे उतना ही शुद्ध हिन्दी
और गँवारू हिन्दी, लिखने पढ़ने की हिन्दी तथा बोलने चालने की हिन्दी में
अन्तर पड़ेगा। इन व्याकरण के अनावश्यक नियमों को दूर कर दीजिए, फिर शुद्ध
हिन्दी और साधारण हिन्दी, लिखने की हिन्दी और बोलने की हिन्दी में वह अन्तर
नहीं रह जायगा और हमारी भाषा और अपभ्रष्ट न होगी।''
6. ''भिन्न भिन्न वस्तुओं के नाम हिन्दी में 2000 से कम न होंगे अत:
सम्बन्ध कारक, विशेषण और क्रिया आदि के नियमों का पालन करने के लिए इनमें
से प्रत्येक शब्द के जुदे लिंगों को जो मनमाने निधर्रित किए गए हैं, याद
करना पड़ता है। यह धारणाशक्ति पर एक बड़ा भारी बोझ डालता है जिसका जीवन में
कुछ फल नहीं है। हिन्दी में उन जड़ पदार्थों के लिंग का निर्णय करने के लिए
कोई नियम नहीं है जो और सब भाषाओं में क्लीव माने जाते हैं। ऍंगरेजी भाषा
में बहुत थोड़े से जड़ पदार्थ हैं जो स्त्रीरलिंग माने जाते हैं, जैसेShip,
Train, Earth etc. पर उसमें सम्बन्ध विशेषण वा क्रिया के लिए कोई लिंग नियम
नहीं है। पर हिन्दी में ऐसे शब्दों की संख्या पर ध्यान दीजिए उसमें न जाने
कै हजार शब्द ऐसे मिलेंगे जिनके लिंग का कोई नियम नहीं और जिनके अनुसार
सम्बन्ध, विशेषण और क्रियाओं के रूप होते हैं। इनको सीखना व्यर्थ के लिए
परिश्रम करना है जबकि इनसे विचारों के प्रकाशित करने में कोई विशेष सहायता
नहीं मिलती।''
7. ''भाषा का उद्देश्य एक दूसरे पर अपने विचारों को प्रगट करना है। अत:
व्याकरण का कोई ऐसा नियम जो उसमें सहायता देने के स्थान पर बाधा डाले
सर्वथा त्याज्य है, यदि भाव पर विचार किया जाय तो उसकी बीबी और उसका बीबी,
गाड़ी आती है और गाड़ी आता है तथा लू चलती है और लू चलता है में कोई अन्तर
नहीं है। अस्तु, अपनी भाषा को हम ऐसे अनावश्यक बन्धनों से क्यों जकड़ दें
जिससे सीखने वालों के मस्तिष्क और धारणा शक्ति पर व्यर्थ का बोझ पड़े और वे
हतोत्साह होकर उससे किनारा खींचें।''
8. ''उर्दू को छोड़ और कोई ऐसी भाषा नहीं है जिसमें भूमंडल की समस्त वस्तुओं
के लिए इस प्रकार मनमाने लिंग नियम हों और जिसमें सम्बन्ध, विशेषण और
क्रियाओं के रूपों में लिंग का नियम हो। उड़िया, बंगाली और ऍंगरेजी आदि किसी
भाषा में यह बात नहीं है। क्यों कोई बुद्धि सम्पन्न मनुष्य यह कहेगा कि
इसके बिना ये भाषाएँ कम भधुर हैं? यह सच है कि कई पीढ़ियों से सुनते सुनते
हमें उनका अभ्यास पड़ गया है। पर यह भी सच है कि थोड़े ही दिनों के अभ्यास से
वह दूर भी हो सकता है। यह आशा की जा सकती है कि यदि यह अनावश्यक बन्धन न
केवल पुस्तकों और सामाजिक पत्रों से वरन् लोगों की बोलचाल से भी निकाल दिया
जाए तो बहुत नहीं दस वर्षों में हमें उसके अभाव का फिर अभ्यास हो जाएगा।''
9. ''प्राय: यह देखा गया है कि बंगालिन स्त्रियों को हिन्दी सीखने की
अभिलाषा होती है जिससे वे अपनी हिन्दी बोलनेवाली बहिनों से हिलमिल सकें।
भिन्न भिन्न प्रान्तों की स्त्रियों के परस्पर मिलने की आवश्यकता पुरुषों
के परस्पर हेल मेल बढ़ाने की आवश्यकता से भी बढ़कर है, क्योंकि इसके लिए एक
भाषा का होना परम आवश्यक है और हिन्दी ही इस योग्य है कि वह परस्पर की भाषा
हो सके, यदि उसका व्याकारण सम्बन्धी यह मूढ़ विश्वास दूर हो जाय जो कई सौ
वर्ष के मुसलमानी शासन के कारण उत्पन्न हो गया है। हिन्दी अब अपनी उन्नति
के लक्षण दिखा रही है अत: इस अवसर पर उसे राष्ट्रभाषा होने योग्य करने का
यत्न करना चाहिए।''
इस लेख में जो विषय उठाया गया है वह अवश्य हिन्दी प्रेमियों के ध्यान देने
योग्य है पर उसमें जो दो चार बातें कही गई हैं वे ठीक नहीं हैं, पहले तो
सम्बन्ध कारक विशेषण और क्रियाओं के लिंग सम्बन्धी नियमों को उर्दू के नियम
बतलाना बिलकुल असम्भव है। यह रूपान्तर का नियम हिन्दी का है और बराबर चन्द
कवि से लेकर आज तक व्यवहृत होता आया है। प्रान्तिक बोलचाल में भी इन नियमों
का पालन पंजाब से लेकर बिहार तक बराबर होता है। यह लिंग नियम संस्कृत से
हिन्दी में आया है, मुसलमानों के समय से नहीं चला है। विशेषण में लिंग भेद
तो संस्कृत के अनुसार ही है। अब रही क्रिया की बात। लेखक महाशय को जानना
चाहिए कि हिन्दी की क्रियाएँ प्राय: कृदन्त हैं। कृदन्त प्रतिपदिक के तुल्य
माना जाता है। अत: इसमें लिंग आदि का विधान होगा ही।
काशी राज्य के स्टेट गजट को केवल अंगरेजी और उर्दू में देख समस्त
हिन्दीभाषियों को बड़ा खेद हुआ है। काशिराज से हिन्दी प्रेमी बहुत कुछ उपकार
की आशा रखते हैं। बनारस के जिले में प्राय: सब लोग हिन्दी ही जानते हैं
औरनागरीअक्षरोंही से परिचित हैं। उर्दू बहुत थोड़े से लोग जानते हैं। बनारस
के जुलाहे तथा अन्य रोजगारी मुसलमानों के हिसाब किताब हिन्दी में हैं। न
जाने क्या समझकर महाराज काशिराजने हिन्दी को अपने दफ्तरों में स्थान देना
उचित नहीं समझा। मैं समझताहूँ किसी अस्थायी कारणवश ही महाराज साहब ने ऐसा
किया है और आगे चलकर वेइस आवश्यक विषय की ओर ध्यान देंगे और हिन्दी को
स्थान देकर राज्य के शुभ की वृद्धि करेंगे।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, मई, 1911 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]
भाषा की शक्ति
भाषा का प्रयोग मन में आई हुई भावनाओं को प्रदर्शित करने के लिए होता है।
इससे यह समझना कि संसार की किसी भाषा द्वारा मनुष्य के हृदय के भीतर की सब
भावनाएँ ज्यों की त्यों बाहरी सृष्टि में लाई जा सकती हैं ठीक नहीं। किन्तु
किसी भाषा की श्रेष्ठता निश्चित करने के लिए यह विचार करना आवश्यक होता है
कि वह अपने इस कार्य में कहाँ तक समर्थ है अर्थात् हृदयस्थित भावनाओं का
कितना अंश वह प्रतिबिंबित करके झलका सकती है। अभी तक मानव कल्पना में, ऐसे
ऐसे रहस्य छिपे पड़े हैं जिनको प्रकाशित करने के लिए कोई भाषा ही नहीं बनी
है। यद्यपि विचारों की सृष्टि भाषा से पहिले की है पर आगे चलकर जब भाषा खूब
पुष्ट हो जाती है तब वह विचार करने का उन्नत ढंग बतलाने लगती है। जो
जातियाँ हमसे उन्नत हैं उनके विषय में यह अवश्य समझना चाहिए कि उनके विचार
करने का ढंग हमसे उन्नत है। अत: सब सुधारों से पहिले विचार करने की प्रणाली
का सुधार आवश्यक है।
भाषा की बोधनशक्ति दो वस्तुओं पर अवलंबित है'शब्दविस्तार' और 'शब्दयोजना'।
शब्दविस्तार
जिस भाषा में शब्दों की कमी है उसका प्रभाव मनुष्य के कार्यकलाप पर बहुत
थोड़ा है। उस भाषा को बोलनेवाला बहुत सी बातों को जानता हुआ भी अनजान बना
रहता है। यद्यपि शब्दों की बहुतायत से भाषा की पुष्टि होती है तथापि कई
बातें ऐसी हैं जो उसकी सीमा स्थिर करती है। जिस जलवायु ने हमारे स्वभाव और
रूप रंग को रचा उसी ने हमारे शब्दों को भी सृजा। ये शब्द हमारे जीवन के अंग
समान हैं; इनमें से हर एक हमारी किसी न किसी मानसिक अवस्था का चित्र है।
इनकी ध्वतनि में भी हमारे लिए एक आकर्षण विशेष है। निज भाषा के किसी शब्द
से जिस मात्र का भाव उद्भूत होता है उस मात्र का समान अर्थवाची किसी
विदेशीय शब्द से नहीं। क्योंकि पहिले तो विजातीय शब्दों की ध्वलनि ही हमारी
स्वाभाविक रुचि से मेल नहीं खाती दूसरे वे विस्तार में हमारे मानसिक
संस्कार के नाप के नहीं होते। आजकल हिन्दी की अवस्था कुछ विलक्षण हो रही
है। उचित पथ के सिवाय उसके लिए तीन और मार्ग खोले गए हैं एक जिसमें बिना
विचार के संस्कृत के शब्द और समास बिछाए जाते हैं, दूसरा जिसको उर्दू कहना
चाहिए; इनके अतिरिक्त एक तृतीय पथ, भी खुल गया है जिसमें अप्रचलित अरबी,
फारसी और संस्कृत शब्द एक पंक्ति में बैठाए जाते हैं। मैं यह नहीं चाहता कि
अरबी और फारसी आदि विदेशीय भाषाओं के शब्द जो हमारी बोली में आ गए हैं,
जिन्हें बिना बोले हम नहीं रह सकते, वे निकाल दिए जायँ। किन्तु क्लिष्ट और
अचलित विदेशीय शब्दों को व्यर्थ लाकर भाषा के सिर ऋण मढ़ना ठीक नहीं। सहायता
के लिए किसी अन्य विदेशीय भाषा के शब्दों को लाना हानिकारक नहीं; किन्तु
उनकी संख्या इतनी न हो कि मिल्टन के शब्दों में, वे स्थानीय भाषा के अधीन
रहकर काम करने के स्थान पर उसी को अधिकारच्युत करने का यत्न करने लगें। अब
यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि अरबी वा फारसी के कौन शब्द हिन्दी में लिए
जायँ और कौन न लिए जायँ। मेरी समझ में तो वे ही अरबी फारसी शब्द लिए जा
सकते हैं जिनको वे लोग भी बोलते हैं जिन्होंने उर्दू कभी नहीं पढ़ा है,
जैसेज़रूर, मुक़दमा, मज़दूर आदि। जो शब्द लोग मौलवी साहब से सीख कर बोलते हैं
उनका दूर होना ही हिन्दी के लिए अच्छा है।
राजा शिवप्रसाद खिचड़ी हिन्दी का स्वप्न ही देखते रहे कि भारतेन्दु ने
स्वच्छ हिन्दी की शुभ्र छटा दिखा कर लोगों को चमत्कृत कर दिया। लोग चकपका
उठे। यह बात उन्हें प्रत्यक्ष देख पड़ी कि यदि हमारे प्राचीन धर्म, गौरव और
इतिहास की रक्षा होगी तो इसी भाषा के द्वारा। स्वार्थी लोग समय समय पर चक्र
चलाते ही रहे किन्तु भारतेन्दु की स्वच्छ चन्द्रिका में जो एक बेर अपने
गौरव की झलक लोगों ने देख पाई वह उनके चित से न हटी। कहने की आवश्यकता नहीं
कि भाषा ही किसी जाति की सभ्यता को सबसे अलग झलकाती है, वही उसके हृदय के
भीतरी पुरज़ों का पता देती है जिसका निदान उन्नति के उपचार के लिए आवश्यक
है। वही उसके पूर्व गौरव का स्मरण कराती हुई, हीन से हीन दशा में भी, उसमें
आत्माभिमान का स्रोत बहाती है। किसी जाति को अशक्त करने का सबसे सहज उपाय
उसकी भाषा को नष्ट करना है। हमारी नस नस से स्वदेश और स्वजाति का अभिमान
कैसे निकल गया? हमारे हृदय से आर्य भावनाओं का कैसे लोप हो गया? क्या यह भी
बतलाना पड़ेगा? इधर सैकड़ों वर्षों से हम अपने पूर्वसंचित संस्कारों को
जलांजलि दे रहे थे। भारतवर्ष की भुवनमोहिनी छटा से मुँह मोड़कर शीराज़ और
इस्फहान की ओर लौ लगाए थे; गंगा जमुना के शीतल शान्तिदायक तट को छोड़कर
इफ़रात और दजला के रेतीले मैदानों के लिए लालायित हो रहे थे। हाथ में अलिफ़
लैला की किताब पड़ी रहती थी, एक झपकी ले लेते थे तो अलीबाबा के अस्तबल में
जा पहुँचते थे। हातिम की मख़ावत के सामने कर्ण का दान और युधिष्ठिर का
सत्यवाद भूल गया था; शीरीफरहाद के इश्क़ ने नल दमयन्ती के सात्विकऔर
स्वाभाविक प्रेम की चर्चा बन्द कर दी थी। मालती, मल्लिका, केतकी आदि फूलों
का नाम लेते या तो हमारी जीभ लटपटाती थी या हमको शर्म मालूम होती थी। वसन्त
ऋतु का आगमन भारत में होता था, आमों की मंजरियों से चारों दिशाएँ आच्छादित
होती थीं। पर हमको कुछ खबर नहीं रहती थी; हम उन दिनों गुलेलाला और गुले
नरगिस के फ़िराक़ में रहते थे। मधुकर गूँजते और कोइलें कूकती थीं, पर हम तनिक
भी न चौंकते थे। अव्े पर कान लगाए हम बुलबुल का नाला सुनतेथे।
अप्रचलित फारसी शब्दों के बिना हमारा कोई काम भी नहीं ऍंटकता क्योंकि उनके
स्थान पर रखने के लिए हमें न जाने कितने संस्कृत क्या हिन्दी ही शब्द मिल
सकते हैं। हाँ जिन विचारों के लिए हिन्दी वा संस्कृत शब्द न मिलें उनको
प्रगट करने के लिए हम विजातीय अप्रचलित शब्द लाकर अपनी भाषा की वृद्धि मान
सकते हैं। एक ही निर्दिष्ट वस्तु के लिए अनेक शब्दों के होने से भाषा की
क्रिया में कुछ नहीं होती। जैसे सूर्य के लिए रवि, र्मात्तांड, प्रभाकर,
दिवाकर और चन्द्रमा के लिए शशि, इन्दु, विधु मयंक आदि बहुत से शब्दों के
होने से भाषा की बोधनशक्ति में कुछ भी वृद्धि नहीं होती, केवल ध्व।नि की
भिन्नता वा नवीनता से हमारा मनोरंजन होता है और भाषा में एक प्रकार का
चमत्कार आ जाता है जो कविता के लिए आवश्यक है। इन अनेक नामों में से साधारण
गद्य में उसी शब्द को स्थान देना चाहिए जो सबसे अधिक प्रचलित है जैसे सूर्य
चन्द्रमा। 'रवि उदय होता है', 'भास्कर अस्त होता है', 'विधु का प्रकाश
फैलता है' ऐसे ऐसे वाक्य कानों को खटकते हैं और कृत्रिम जान पड़ते हैं। हाँ
जहाँ 'प्रचंड मार्तंड की उद्दंडता, दिखाना हो वहाँ की बात दूसरी है पर मैं
तो वहाँ भी ऐसे शब्दों की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं समझता। शब्दालंकार केवल
कविता के लिए प्रयोजनीय कहा जा सकता है। गद्य में उसकी कोई विशेष आवश्यकता
नहीं। गद्य में तो उसके और और गुणों के अन्वेषण ही से छुट्टी नहीं मिलती।
गद्य की श्रेष्ठता तो भावों की गुरुता और प्रदर्शन प्रणाली की स्पष्टता वा
स्वच्छता ही पर अवलंबित है; और यह स्पष्टता और स्वच्छता अधिकतर व्याकरण की
पाबन्दी और तर्क की उपयुक्तता से सम्बन्ध रखती है। सारांश यह कि आधुनिक
शैली के अनुसार गद्य में वाक्य क्रम और अर्थ ही का विचार होता है नाद का
नहीं।
शब्द योजना
यहाँ तक तो शब्द विस्तार की बात हुई। आगे भाषा के इससे भी गुरुतर और
प्रयोजनीय अंश अर्थात् शब्दयोजना पर ध्यावन देना है। भाषा उत्पन्न करने के
लिए असंख्य शब्दों का होना ही बस नहीं है। क्योंकि पृथक पृथक वे कुछ भी
नहीं कर सकते। वे कल्पना में इन्द्रियकम्प द्वारा खचित एक एक स्वरूप के लिए
भिन्न भिन्न संकेत मात्र हैं। कोई ऐसा पूरा विचार (Complete notion)
उत्पन्न करने के लिए जो मनुष्य की प्रवृत्ति पर कोई प्रभाव डाले अर्थात
उसकी भौतिक वा मानसिक स्थिति में कुछ फेरफार उत्पन्न करे हमें शब्दों को एक
साथ संयोजित करना पड़ता है। जैसे कोई मनुष्य सड़क पर चला जाता है, यदि हम
पीछे से उसको सुनाकर कहैं कि 'मकान' तो वह मनुष्य कुछ भी ध्याकन न देगा और
चला जायगा, किन्तु यदि पुकारें कि 'मकान गिरता है' तो वह अवश्य चौंक पड़ेगा
और भागने का उद्योग करेगा। शब्द योजना का प्रभाव देखिए! प्रत्येक मनुष्य का
धर्म है कि वह इस कार्य में बड़ी सावधानी रक्खे। बहुत से शब्दों को जोड़ने ही
से भाषा उत्पन्न नहीं होती; उसमें उपयुक्त क्रम, चुनाव और परिणाम का विचार
रखना होता है। निश्चय जानिए कि शब्दों के मेल में बड़ी शक्ति है। एक भावुक
मनुष्य थोड़े से शब्दों को लेकर भी वह वह चमत्कार दिखला सकता है जो एक
स्तब्ध चित्त का मनुष्य चार भाषाओं का कोश लेकर भी नहीं सुझा सकता। कुछ दिन
पहिले हमारी हिन्दी की स्थिति ऐसी हो गई थी कि उस का विचार-क्षेत्र में
अग्रसर होना कठिन देख पड़ता था। बने बनाए समास, जिन का व्यवहार हजारों वर्ष
पहिले हो चुका था, लाकर भाषा अलंकृत की जाती थी। किसी परिचित वस्तु के लिए
जो जो विशेषण बहुत काल से स्थिर थे, उनके अतिरिक्त कोई अपनी ओर से लाना
मानो भारतभूमि के बाहर पैर बढ़ाना था। यहाँ तक कि उपमाएँ भी स्थिर थीं। मुख
के लिए चन्द्रमा, हाथ पैर के लिए कमल, प्रताप के लिए सूर्य, कहाँ तक
गिनावैं। जहाँ इनसे आगे कोई बढ़ा कि वह साहित्य से अनभिज्ञ ठहराया गया
अर्थात् इन सब नियत उपमाओं का जानना भी आवश्यक समझा जाता था। पाठक! यह भाषा
की स्तब्धता है, विचारों की शिथिलता है और जाति की मानसिक अवनति का चिद्द
है। अब भी यदि हमारे कोरे संस्कृतज्ञ पंडितों से कोई बात छेड़ी जाती है तो
वे चट कोई न कोई श्लोक उपस्थित कर देते हैं और उसी के शब्दों के भीतर चक्कर
खाया करते हैं, हजार सिर पटकिए वे उसके आगे एक पग भी नहीं बढ़ते। यदि कोई
जाल वा धोखे से किसी की सम्पत्ति हर ले तो पंडित जी कदाचित् उसके सम्मुख
उसके कार्य की आलोचना इसी चरण से करेंगे''स्वकार्य्यं साधायेध्दीमान्।''
उनकी विचार शक्ति इन श्लोकों से चारों ओर जकड़ी हुई है; उसको अपना हाथ पैर
हिलाने की स्वच्छन्दता कभी नहीं मिलती। ऐसी दशा में उन्नति के मार्ग में एक
पग भी आगे बढ़ना कठिन होता है। समाज की यह एक बड़ी भयानक अवस्थाहै।
अलंकार
इसी प्रकार अनुप्रास से टँकी हुई शब्दों की लम्बी लरी इस बात को सूचित करती
है कि लेखक का ध्याअन विचारों की अपेक्षा शब्दों की ध्वथनि की ओर अधिक है।
आरम्भ ही में कहा गया कि भाषा का प्रधान उद्देश्य लोगों को भावों वा
विचारों तक पहुँचाना है न कि नाद से रिझाना जो कि संगीत का धर्म है।
शब्दमैत्री वा यमक दिखलाने के उद्देश्य से ही लेखनी उठाना ठीक नहीं। यदि
आपकी कल्पना में सतोगुण की कोई मनोहारिणी छाया देख पड़ी हो तो आप उसे खींच
कर संसार के सम्मुख उपस्थित कीजिए, यदि आपके हृदय में विचारों की रगड़ से
कोई ऐसी ज्योति उत्पन्न हुई हो जिसके प्रकाश में जीव अपना भला बुरा देख
सकते हों तो आप उसे बाहर लाइए, अन्यथा व्यर्थ कष्ट न उठाइए। हम देखते हैं
कि इसी रुचि वैलक्षण्य के कारण हमारे हिन्दी काव्य का अधिक भाग हमारे काम
का न रहा। वहाँ विचित्र ही लीला देखने में आती है। घनाक्षरी, कवित्ता,
सवैया के 'कविन्दों' ने कुछ शब्दों का अंग भंग कर दो एक ('सु' ऐसे) अक्षरों
की अगाड़ी पिछाड़ी लगाकर बलात् और निष्प्रयोजन उन्हें एक में नाथ रखा है।
वर्णन शक्ति की शिथिलता के कारण रसों (Sentiments) के उद्रेक के लिए
अत्यन्त अधिकता से नादवैलक्षण्य का सहारा लिया गया है। ऋंगार रस की कविता
में 'सरस', 'मंजु', 'मंजुल' आदि शब्दों के हेतु कुछ स्थान खाली करना पड़ा
है''मंजुल मलिंद गुंजै मंजरीन मंजु मंजु मुदित मुरैली अलवेली डोलैं पात
पात।''
कविजी ने न जाने किस लोक में मुरैलियों को पत्तोंे पर दौड़ते देखा है। इसी
प्रकार जहाँ वीर रस की चर्चा है वहाँ पुरुष वृत्ति अर्थात् द्वित्व और वर्ग
का विस्तार है, जैसे, ''डरि डरि ढरि गए अडर डराय डर ढर ढर ढर के धाराधार के
धार के।'' किन्तु इस 'खड्ड बड्ड' के बिना भी वीर रस का संचार किया जा सकता
है, इस बात के उदाहरण शेखर कवि का 'हम्मीर हठ', भारतेन्दु की 'विजयिनी विजय
वैजयन्ती' और नीलदेवी विद्यमान हैं। आज सैकड़ा पीछे कितने आदमी मतिराम, भूषण
और श्रीपति सुजान के कविताओं को अनुराग से पढ़ते तथा उनके द्वारा किसी आवेग
में होते हैं? पर वही सूर, तुलसी, रहीम और बिहारी आदि की कविता हमारे जातीय
जीवन के साथ हो गई है। उनकी एक एक बात हमारे किसी काम में अग्रसर होने वा न
होने का कारण होती है। इस भेदभाव का कारण क्या है? वही, एक में शब्दों का
व्यर्थ आडम्बर और दूसरी में भावों की स्वच्छता तथा वर्णन की उपयुक्तता। वे
'चटकीले मटकीले' शब्द लाख करने पर भी हमारे हृदय पर अधिकार नहीं जमा सकते,
निकल कर हवा में मिल जाना ही उनके कार्य का शेष होता है। क्योंकि सृष्टि के
नियमानुसार स्ववर्गीय पदार्थ ही एक दूसरे में लीन होने को झुकते हैं, जल ही
जल की ओर जाता है, इसी प्रकार चित्त की उपज ही चित्त में धंसती है।
प्रत्येक साहित्य के अर्थालंकार में, प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष, उपमा का
प्रयोग बहुत अधिक होता है क्योंकि भौतिक पदार्थों के व्यापार, विस्तार,
रूप, रंग तथा मानसिक अवस्थाओं की स्थिति, क्रम, विभेद आदि का सम्यक् ज्ञान
उत्पन्न करने के लिए बिना उसके काम नहीं चल सकता। जन्म से लेकर मनुष्य का
सारा ज्ञान सृष्टि के पदार्थों के मिलान वा अन्वय व्यतिरेक से उत्पन्न है।
शिशु का ज्ञान संचय इसी क्रिया से आरम्भ होता है1 धरती पर गिरते ही वह
वस्तुओं के सादृश्य और विभेद को परखने में लग जाता है। उपमा का प्रयोग जान
वा अनजान में हम हर घड़ी किया करते हैं। छोटे छोटे विचारों को व्यक्त करने
में भी हम बिना उसका सहारा लिए नहीं रह सकते। यहाँ तक कि हमारे सब अगोचर
पदार्थवाची शब्द आरम्भ में इसी (उपमा) की क्रिया से बने हैं। यह भाषा की
बनावट के इतिहास से प्रमाणित है। जब शब्दों का यह हाल है तब फिर इस प्रकार
की अभौतिक भावनाओं का क्या कहना है उनका अनुभव तो हम पार्थिव पदार्थों ही
के गुण और व्यापार के अनुसार करते हैं अर्थात् भौतिक वस्तुओं के गुण और
धर्म को अभौतिक वस्तुओं में स्थापित करके ही हम आध्यातत्मिक विषयों की
मीमांसा करते हैं। साधारण दृष्टान्त लीजिए 'दया ने प्रतिकार की इच्छा को
दबा दिया।' ''उसके प्रेम से परिपूर्ण हृदय में प्रिय के दुर्गुणों के विचार
की जगह न रही।''2 पहिले में भौतिक पदार्थों के गुरुत्व और अपने से हलके
पदार्थों को दबा कर उभड़ने से रोकने की क्रिया का आभास है; इसी प्रकार दूसरे
में पदार्थों के स्थान छेंकने का धर्म स्थापित किया गया है। बात यह है कि
इन नियमों से पार्थिव और आध्या्त्मिक दोनों सृष्टियाँ समान रूप से बद्धा
हैं।
उपमा का कार्य सादृश्य दिखलाकर भावना को तीव्र करना है। जिस वस्तु के लिए
हम कोई शब्द नहीं जानते उसका बोध हम उपमा के ही द्वारा करा सकते हैं, जैसे
जो मनुष्य हारमोनियम का नाम नहीं जानता वह उसकी चर्चा करते समय यही कहेगा
कि वह सन्दूक के समान एक बाजा है। यदि किसी वस्तु का विस्तार इतना बड़ा है
कि हम उसे निर्दिष्ट शब्दों में नहीं बतला सकते तो हम चटपट उतने ही वा उससे
बहुत अधिक विस्तृत किसी अन्य पदार्थ की ओर इंगित करते हैं, जैसे'हरियाली
चारों ओर समुद्र के समान लहराती देख पड़ी।' 'ज्वालामुखी से भाप और राख उठकर
बादल के समान आकाश में छा गई।' हम यह न देखने जायँगे कि समुद्र का विस्तार
हरियाली के फैलाव से नाप में न जाने कितने वर्ग मील बड़ा है। इसकी हमें कोई
आवश्यकता नहीं। यह बात निरीक्षण के समय हमारी दृष्टि की पहुँच के बाहर की
है अत: जब तक हम विवेचन शक्ति का सहारा न
1. देखिए Lock's Essay on the Human Understanding.
2. Brown's philosphy of the Human mind.
लें यह हमारी प्राप्त भावनाओं में अन्तर नहीं डाल सकती। निरीक्षण के समय
हमारी दृष्टि की पहुँच के भीतर इन दोनों (हरियाली और समुद्र) का अन्त नहीं
होता यही इनमें समानता है। यदि किसी महाविशाल पिंड के आकार आदि का परिज्ञान
कराना रहता है तो उसकी तुलना हम समान आकार वाले किसी छोटे पदार्थ से करते
हैं, तदनन्तर उस छोटे पिंड में उस आकार के गुण धर्म को परख कर हम उनकी
स्थापना बड़े पिण्ड में करते हैं, जैसे स्कूल में लड़कों से कहा जाता है कि
''लड़को! पृथ्वी नारंगी के समान गोल है,'' पर यह कोई नहीं कहता कि नारंगी
पृथ्वी के समान गोल है, क्यों, क्योंकि ऐसी उपमा से हमारा कुछ काम नहीं
निकलता। पदार्थों के व्यापार, गुण् और स्थिति को स्पष्ट करके उनका तीव्र
अनुभव कराना उपमा का काम है और कुछ नहीं। अतएव एक ही वस्तु के लिए पचीसों
उपमाओं का तार बाँध देना, उपमा कथन के हेतु ही किसी वस्तु को वर्णन करने
बैठ जाना और उससे किसी अंश में समानता रखने वाले पदार्थों की सूची तैयार
करना उचित नहीं है। जैसे प्रभातकालीन सूर्य मंडल को देख यही बकने लगना कि
''यह थाली के समान है।'' अथवा ''शोणित सागर में बहता हुआ स्वर्ण कलश है''
वा ''स्वर्गलोक की झलक दिखलाने वाली गोली खिड़की है'' किंवा ''होली की महफिल
में रखे हुए लैम्प का ग्लोब है।'' वाणी का सदुपयोग नहीं कहा जा सकता। मेरा
अभिप्राय यह है कि उपमा का प्रयोग आवश्यकतानुसार ही होता है, उसका अनावश्यक
और अपरिमित प्रयोग प्रलाप है। पर हमारे हिन्दी कवि उपमा के पीछे ऐसा लट्ठ
लेकर पड़े कि उन्होंने केवल उपमा ही के बहुत से कवित्ता और सवैये कह डाले,
जैसे
भोजन ज्यों घृत बिनु, पंथ जैसे साथी बिनु,
हाथी बिनु दल जैसे दारू बिनु बान है।
राव जैसे रानी बिनु, कूप जैसे पानी बिनु,
कवि जैसे बानी बिनु, सुर बिनु तान है।
रंग जैसे केसर बिनु, मुख जैसे बेसर बिनु,
प्यारी बिनु रैनि ज्यों सुपारी बिनु पान है।
भूषण कवि का 'इन्द्र जिमि जृम्भ पर, बाड़व सुअंबु पर' वाला कवित्ता इसी
श्रेणी का है। न जाने कैसे लोग ऐसे पद्यों को सुनते हैं और ऊबते नहीं।
अकेले वा पृथक रूप में उपमा इस योग्य नहीं कि उसे भरने के लिए हम एक
प्रबन्ध वा पुस्तक लिख डालें। यही बात सब अलंकारों के लिए कही जा सकती है।
किसी वस्तु को उसकी सीमा के बाहर घसीटना उसको उसके गुण से च्युत करना है।
यह बात हमारी हिन्दी कविता में प्रत्यक्ष देखने में आती है। एक साधारण
दृष्टान्त लीजिए। भौंरे प्राय: लोगों के पीछे लग जाते हैं। इस प्राकृतिक
व्यापार से महाकवि कालिदास ने अपने 'अभिज्ञान शाकुन्तल' में शकुन्तला के
मुख का लावण्य दिखलाने का काम लिया है, जैसे
शकुन्तला(ससंभ्रमम)अम्मो
सलिलसेअसंभमुग्गदोणोमालिअं
उज्झिअ वअणं मे महुअरो अहिबट्टइ।
(इति भ्रमरबाधां रूपयति)
बेचारे कालिदास ने तो पहिले प्रकृति के एक वास्तविक व्यापार का आरोप किया
तब उस पर अपनी उक्ति ठहराई पर हमारी हिन्दी के एक अलंकार कला कुशल कवि अपनी
नायिका का सर्वाक्ष्सौन्दर्य्य झलकाने के लिए बहुत से अप्राकृतिक व्यापार
स्वयं गढ़ लेते हैं और होठों को बिम्ब आदि बनाकर यह विचित्र स्वाक्ष् खड़ा
करतेहैं
आनन है अरविन्द न फूल्यो अलीगन भूले कहा मँड़रात हैं।
कीर कहा तोहि बाई चढ़ी, भ्रम बिम्ब के ओठन को ललचात हैं।
दास जू व्याली न, बेनी बनाइए, पापी कलापी कहा हरखात हैं।
बाजत बीन न, बोलति बाल कहा सिगरे मृग घेरत जात हैं॥
हमारी समझ में तो कीर को नहीं कविजी को बाई चढ़ी थी जो व्यर्थ इतना बक गए।
हमने आज तक किसी नायिका को ऐसी आफत में फँसते नहीं देखाहै।
किसी नायिका भेद के भक्त ने अकेली नवोढ़ा ही का आदर्श दिखलाया है; किसी
नखसिख निहारने वाले ने 'अलक' और 'तिल' ही पर शतक बाँध है। आप ही कहिए कि
इतने संकुचित स्थान में भीतरी और बाहरी सृष्टि के कितने अंश का व्यापार
दिखलाया जा सकता है और पाठक का ध्याऔन बिना ऊबे हुए कब तक उसमें बद्धा रह
सकता है।
धर्म वा व्यापार के पूर्णतया प्रत्यक्ष न होने के कारण जब किसी वस्तु की
भावना धुधँली वा मन्द होती है तब उसको तीक्ष्ण और चटकीली करने के लिए समान
धर्म और गुणवाले अन्य अधिक परिचित पदार्थों को हम आगे रखते हैं। किन्तु
काव्य की उपमा में एक और बात का विचार भी रखना होता हैवह यह कि सादृश्य
दिखलाने के लिए जो पदार्थ उपस्थित किए जायँ वे प्राकृतिक और मनोहर हों,
कृत्रिम और क्षुद्र नहीं, जिससे ज्ञान दान के अर्थ जो रूप उपस्थित किए जायँ
वे रुचिकर होने के कारण कल्पना में कुछ देर टिकें और हमारे मनोवेगों
(Sentiments) को उभाड़ें जो हमें चंचल करके कार्य में प्रवृत्त करते हैं।
उपमान और उपमेय में जितनी ही अधिक बातों में समानता होगी उतनी ही उपमा
उत्कृष्ट कही जायगी।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, जनवरी, 1912)
हिन्दी और मुसलमान
(आपत्तियों का विस्तृत जवाब)
माननीय श्री चिन्तामणि ने नागरी के पक्ष में जब अपना प्रस्ताव पेश किया तो
कौंसिल के मुसलमान मित्रों से उनके विरुद्ध मोर्चा बनाने के अलावा कुछ और
अपेक्षित न था। यद्यपि इस विचाराधीन प्रस्ताव में सम्बन्धित पक्ष की
वास्तविक आवश्यकता से अधिक कोई माँग न की गई थी, फिर भी इसने कुछ सदस्यों
को इस हद तक विचलित किया कि वे भावनाओं की अभिव्यक्ति में आनुपातिक विवेक
पूर्णत: खो बैठे। माननीय नवाब अब्दुल मजीद तो ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक
काल में हिन्दी भाषा जैसी किसी चीज के अस्तित्व को ही नकारने की सीमा तक
चले गए। उन्होंने हिन्दी को एक ऐसी मनगढ़न्त भाषा कहना पसन्द किया जिसका
अस्तित्व कुछ समाजों (Societies)की स्थापना और कुछ पुस्तिकाओं (Tracts) के
प्रकाशन से सामने आया। भारत की लगभग दो तिहाई जनसंख्या द्वारा बोली
जानेवाली भाषा के उद्भव का ऐसा विचित्र सिद्धान्त ? आज के हिन्दुओं का
सौम्य एवं विनम्र स्वर यह संकेत कर रहा है कि ब्रिटिश शासन से पूर्व उत्तर
भारत की जनता या तो उर्दू बोलती थी या व्यावहारिक रूप से गूँगी थी।
नवाब को यह भलीभाँति स्मरण होगा कि हिन्दी भाषा जैसी चीज का अस्तित्व
ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ से नहीं, मुसलमानी शासन के प्रारम्भ से ही स्वयं
मुसलमानों द्वारा स्वीकार किया गया है। ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रारम्भिक
दिनों में जब उर्दू कवि इंशा ने अपनी 'ठेठ हिन्दी की कहानी' लिखी तो उनकी
नजर में यह उस समय की सामान्य भाषा में लिखकर एक विस्तृत फलक पर अपनी छाप
छोड़ने की सहज अन्त:प्रेरणा का अनुपालन था। खुसरो, जायसी और परवर्ती कई अन्य
मुसलमान हिन्दी कवियों के नाम तो इतने सुप्रसिद्ध हैं कि यहाँ उनके उल्लेख
की आवश्यकता ही नहीं है। यहाँ यह प्रत्यक्ष है कि जो व्यक्ति स्वयं को यह
कहकर छलता हो कि हिन्दी कोई भाषा ही नहीं है, वह थोड़ा ही आगे चलकर यह भी कह
सकता है कि हिन्दुस्तान जैसा कोई देश और हिन्दू जैसी किसी जाति का भी
अस्तित्व नहीं है।
इतने बड़े नकार के बाद काबिल नवाब यह कहते हैं कि 'हो सकता है हिन्दी अक्षर
अस्तित्व में रहे हों पर उनका प्रयोग वैसे लोगों का कार्य समझा जाता था जो
कभी भी शिक्षित और सभ्य नहीं कहे जा सकते।' हाँ, ठीक! बिल्कुल वैसे ही,
जैसे इन दिनों फारसी में लिखना ऐसे लोगों का कार्य समझा जाता है जो इस लिपि
से जनता की अनभिज्ञता का लाभ उठाने में कभी नहीं चूकते। शिक्षा और संस्कृति
के सम्बन्ध में हमारे मुसलमान मित्रों को स्व. डॉ. सैयद अली बिलग्रामी के
विवेकपूर्ण शब्दों को कभी नहीं भूलना चाहिए। उन्होंने साफ साफ कहा था कि
शिक्षा की दृष्टि से मुसलमानों की पिछड़ी हुई दशा का प्रधान कारण दोषपूर्ण
फारसी वर्णमाला है, जो उनके बच्चों को बरसों व्यर्थ उलझाए रखती है।
उन्होंने अपेक्षाकृत सरल एवं व्यवस्थित नागरी वर्णमाला स्वीकार करने का
सुझाव दिया था, जिसे कुछ ही महीनों की अवधि में सीखा जा सकता है। उतनी ही
ईमानदारी से इसमें [ इस सुझाव में अनु.] मैं यह जोड़ सकता हूँ कि बुराई और
अधिक गहराई में है अर्थात् खुद उर्दू भाषा में है। जिस भाषा के पास अपना
भाषाशास्त्रीय इतिहास न हो, निश्चय ही वह भाषा नाम की अधिकारिणी नहीं हो
सकती है। जो व्यक्ति केवल उर्दू जानता है, सम्भवत: वह भाषा की संरचना को
नहीं समझ सकता और शब्दों के व्युत्पत्तिमूलक महत्तव से पूर्णत: अनभिज्ञ
रहता है। ऐसे ज्ञान को बड़ी कठिनाई से भाषा ज्ञान कहा जा सकता है, यह प्राय:
अज्ञानता के समरूप है।
हिन्दी में यत्रा तत्रा आए संस्कृत शब्द नवाब को विशेष रूप से असंगत जान
पड़ते हैं। हिन्दी, संस्कृत की अप्रत्यक्ष वंशज है। भारत की किसी भी अन्य
देशज भाषा के समान हिन्दी भी उस [संस्कृतअनु.] भाषा के अक्षय भंडार से
शब्दों का विवेकपूर्ण ऋण लेते हुए उससे अपना स्वाभाविक सम्बन्ध बनाए रखती
है। यह कोई नया चलन नहीं है; यह उतना ही पुराना है, जितनी स्वयं हिन्दी
भाषा। यह किसी आविष्कार, योजना या दुष्प्रचार का प्रतिफल नहीं है।
पूरे भारत के लिए एक सामान्य भाषा की आकांक्षा अब देश में स्वयमेव मुखरित
होने लगी है। ऐसी भाषा के विकास एवं प्रसार का आधार निर्मित करने और किसी
बेतुकी, विजातीय और कृत्रिम भाषा के अतिक्रमण को रोकने के लिए उन सभी देशी
भाषाओंज़ो अपने संश्लिष्ट और वैज्ञानिक विचारों की अभिव्यक्ति के लिए हिन्दी
के समान ही संस्कृत का आश्रय लेती हैं क़े प्रतिनिधियों का यथाशीघ्र आह्नान
किया जायगा। बंगाली, हिन्दी, मराठी और गुजराती में परस्पर इतनी अधिक समानता
है कि इनमें से किसी एक भाषा के लिए दूसरी भाषा के क्षेत्र में कमोबेश फैल
जाने की सम्भावना बन जाती है। इस व्यापक सामंजस्य को कोई तत्तव हानि न
पहुँचाए, यह देखना आगामी पीढ़ी का कार्य होगा। सदा की तरह अब भी सभी भारतीय
भाषाओं में संस्कृत के शब्द ऐसे प्रभावी कारक के रूप में हैं जो इन्हें
परस्पर निकट लाते हैं। अत: यह स्पष्ट है कि संस्कृत से निर्बंधा ऋण लेने से
हिचकने वाली कोई भाषा या भाषा का रूप इस भाषिक गठबंधन में सम्भवत: प्रवेश
नहीं पा सकता। भारत की सभी साहित्यिक भाषाओं में इस समय उर्दू अकेली भाषा
है जोर् ईर्ष्याेवश संस्कृत शब्दों से परहेज करती है और केवल अरबी तथा
फारसी से खासतौर पर शब्द उधार लेती है। इस प्रकार सभी भाषाओं में व्याप्त
सामग्री के अभाव में इसका पृथक् अस्तित्व नियत है। [षडयन्त्र के तहत यदा
कदा बहक जाने के ] वैशिष्टय से युक्त उर्दू हिन्दी से पूरी तरह मेल खाती
है। घुलने मिलने की स्वाभाविक प्रक्रिया से भाषा के संघटन में शामिल हो
चुके अरबी फारसी के शब्दों का हिन्दी बेधड़क प्रयोग करती है। हर विद्वान्
जानता है कि उर्दू कोई स्वतन्त्र भाषा नहीं है। यह पश्चिमी हिन्दी की एक
शाखा मात्र है जिसे मुसलमानों द्वारा अपनी ऐकांतिक रुचियों और पूर्वग्रहों
के अनुकूल एक निजी रूप दे दिया गया है। इस प्रकार हिन्दी और उर्दू एक ही
भाषा के दो रूप हैं। एक ही और समान भाषा के दो रूप होने के कारण यह तार्किक
है कि जो रूप सभी निकटवर्ती भाषाओं के समान लक्षणों से युक्त है, वह उस रूप
की अपेक्षा जो अपने स्वतन्त्र विकास का प्रयास कर रहा हो, अधिक सामंजस्य
बिठा सकता है। वह दिन दूर नहीं जब जनता में उर्दू से अधिक बंगाली, मराठी और
गुजराती स्वीकार्य होंगी; ठीक वैसे ही जैसे सैयद रजा अली ने हिन्दी से अधिक
रूसी, इतालवी और फ्रेंच का प्रयोग किया है।
हिन्दी के विरुद्ध अपने पवित्र जेहाद में नवाब अब्दुल मजीद वह हर युक्ति
अपनाते हैं जिसमें उनकी तरह सोचने वाले व्यक्ति विशेष रूप से निपुण कहे
जाते हैं। क्या गलतबयानी, क्या भ्रान्त व्याख्या, क्या धामकी, क्या शेखी,
क्या स्तुति, क्या निन्दावे सबका सहारा लेते हैं। यदि सहारा नहीं लेते तो
सिर्फ उचित तर्क देने का। वे ऍंगरेजों के उस निष्पक्ष न्याय की स्तुति करते
हैं जिसने इतने दिनों तक हिन्दी को घर से बाहर रखने का प्रबन्ध किया। नवाब
साहब हिन्दुओं को याद दिलाते हैं कि पुराने समय में वे मुसलमानों के अधीन
थे। यहाँ वे यह तथ्य पूर्णत: विस्मृत कर जाते हैं कि दिल्ली के मुसलमान
बादशाह ब्रिटिश सुरक्षा में आने के पूर्व मराठों की सुरक्षा में रहे थे।
'पुराने समय' के मुसलमानी साम्राज्य की अपेक्षा सिख और मराठा साम्राज्य
जनता की स्मृति में अधिक है।क्व
गलत वैशिष्टय बताते हुए नवाब कहते हैं''उर्दू एक ऐसी भाषा है जिसे पूरे
भारत में एक देहाती तक बोलता और समझता है और हिन्दी अपने सभी खूबसूरत
संस्कृत शब्दों के साथ उसी वर्ग तक सिमटी हुई है, जो इसे आविष्कृत कर
रहाहै।''
क्व अंगरेजों ने भारत को मुगलों से नहीं बल्कि हिन्दुओं से जीता। विजेता के
रूप में हमारे उभरने से पूर्व मुगल साम्राज्य ढह चुका था। हमारे निर्णायक
युद्धा दिल्ली के बादशाह या उसके विद्रोही शासकों से नहीं, दो हिन्दू
राज्यसंघोंमराठों और सिखोंसे हुए। (इंपीरियल गजेटियरभाग VI½
उर्दू को हिन्दी, हिन्दी को उर्दू और संस्कृत को अरबी शब्द से बदलकर कोई भी
औसत जानकारी का व्यक्ति इस कथन को ठीक कर सकता है। हर व्यक्ति जानता है कि
देहाती उर्दू का नाम तक नहीं जानते। तथ्य यह है कि सामान्यत: वे इसे अरबी
फारसी कहते हैं और अपने सामने बोले जाने पर वे इसे सुनकर भी समझने का
प्रयास नहीं करते। यही लोग वास्तविक भुक्तभोगी हैं। ये वे लोग हैं जो सम्मन
आदि मिलने पर गूढ़ लिपि और दुरूह शैली में लिखी गई इबारत का अर्थ जानने और
उसे अपनी भाषाज़ो और कुछ नहीं हिन्दी हैमें समझने के लिए मुंशी की तलाश में
जगह जगह भटकते हैं। इन्हीं लोगों की सूचना के लिए (नागरी लिपि) में दी गई
एक अदालती नोटिस का मूल पाठ मैं नीचे दे रहा हूँ
'लिहाजा बज़रिय : इस तहरीर के तुम रामपदारथ मज़कूर को इत्ताला दी जाती है कि
अगर तुम ज़र मज़कूर यानी मुबलिग़ पन्द्रह रुपये छह आने जो अज़रुए डिगरी वाजिबुल
अदा है इस अदालत में अन्दर पन्द्रह रोज़ तारीख़ मौसूल इत्तालानामा हाज़ा से
अदा करो वरन: वजह ज़ाहिर करो कि तुम मुन्दर्जा ज़ैल खेतों से जिनके बाबत
बकाया डिगरी शुदा वाजिबुल अदा है, बेदख़ल क्यों न किए जाओ।'
ऊपर दी गई नोटिस में क्रियाओं और सर्वनामों के अतिरिक्त सभी शब्द अरबी और
फारसी के हैं और जिन लोगों ने मौलवी का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है,
उनकी समझ से पूर्णत: बाहर हैं। बोधगम्य बनाने के लिए इसी नोटिस को हिन्दी
में इस प्रकार लिखा जा सकता है
'सो इस लेख से तुमको जताया जाता है कि तुम ऊपर कहा हुआ रुपया जिसकी
तुम्हारे ऊपर डिगरी हो चुकी है इस नोटिस के पाने से पन्द्रह दिन के भीतर इस
अदालत में चुकता करो, नहीं तो कारण बतलाओ कि तुम नीचे लिखे खेतों से जिनके
ऊपर डिगरी का रुपया आता है क्यों न बेदखल किए जाओ।'
इस प्रसंग में डॉ. फैलन (Dr. Fallon) द्वारा तैयार की गई
'हिन्दुस्तानी-इंग्लिश डिक्शनरी आव ला ऐंड कामर्स' की रोचक 'भूमिका'
(Preface) पढ़नी चाहिए। इसमें वे मानते हैं कि''क़ानूनी अदालतों की
भाषा...समग्र रूप से विलायती अरबी पदों से बनी हुई है। इस कोश के अरबी पदों
के बगल में दिए गए हिन्दी समतुल्यों के अनेक दृष्टान्त स्पष्ट कर देते हैं
कि किसी हल्की-सी सफाई के बिना अरबी पदों को मात्र इसलिए रख दिया गया है कि
यह विद्वानों की भाषा मानी जाती है; जबकि हिन्दी केवल इस देश के निवासियों
की देशी भाषा है।''
उपर्युक्त कोश में दी हुई सरल हिन्दी शब्दों की सूची ज़िसे जानबूझकर विचित्र
अरबी पदों से बदल दिया गया है अत्यन्त शिक्षाप्रद है।
नवाब अब्दुल मजीद जनगणना के ऑंकड़ों को सही नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि
उर्दू बोलने वालों ने जनगणना के समय प्रविष्टियों में अपनी भाषा हिन्दी
दर्ज करा दी थी। हम भी उसको उसी रूप में स्वीकार करना पसन्द नहीं करते। हम
जानते हैं कि एक संगठित योजना के तहत अपनी भाषा उर्दू लिखवाने वाले व्यक्ति
ही नहीं थे, बल्कि ऐसे व्यक्ति भी थे जिन्होंने जनता की निरा अनभिज्ञता के
कारण लोगों की भाषा उर्दू दर्ज कर दी। इस प्रकार हिन्दी के ऑंकड़े को घटाने
वाली दो अशुभ शक्तियाँ एक साथ कार्य कर रही थीं पूर्वग्रह और अनभिज्ञता।
डॉ. ग्रियर्सन द्वारा पूर्वी और पश्चिमी हिन्दी के व्यापक वैविधय को स्पष्ट
कर देने के बावजूद भी गणनाकारों ने पश्चिमी हिन्दी की एक शाखा खड़ी बोली
(दिल्ली के आसपास, मेरठ और रुहेलखंड के हिस्से की बोली) बोलने वाले सभी
लोगों की भाषा उर्दू दर्ज कर दी। 'हम आवत हैं', 'तुम जात हौ' की जगह जो भी
व्यक्ति 'हम आते हैं', 'तुम जाते हो' बोलता हुआ पाया गया उसे उर्दू भाषी
दर्ज कर दिया गया। बनारस में इसका एक विचित्र दृष्टांत देखा गया। वहाँ
गणनाकार ने एक पंडित की भाषा उर्दू दर्ज कर दी थी। जो उस भाषा से नितान्त
अपरिचित था।
दो समुदायों के मध्य निर्बाध मित्रतापूर्ण सम्बन्ध कायम रहे, नवाब की इस
वाह्य चिन्ता के लिए हम उनके प्रति आभार प्रदर्शन के अलावा और कुछ नहीं कर
सकते। निश्चय ही ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं जब उनकी जैसी मनोवृत्ति के
व्यक्ति इतनी विवेकपूर्ण रुझान प्रदर्शित करते हैं। अवसर का लाभ उठाते हुए
मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि ऐसे सम्बन्धों को सहिष्णुता की भावना से
ही अच्छा बनाए रखा जा सकता है। यदि एक समुदाय दूसरे समुदाय की समान सुविधा
को अपना सबसे बड़ा दुर्भाग्य मानता है तो ऐसे सम्बन्ध कायम नहीं रह सकते।
यदि मुसलमान नागरी आन्दोलन के इतिहास को अपने कष्टों का इतिहास कहते
हैंज़ैसा कि जनाब सैयद रजा अली कहते हैं तो वे अपनी ओर से इस सम्बन्ध को
बनाए रखने की इच्छा का लेशमात्र भी प्रमाण नहीं देते। हिन्दू जहाँ जनता की
सुविधा के आधार पर अदालतों में नागरी का प्रवेश चाहते हैं, वहीं मुसलमान
अपने राजनीतिक महत्तव के प्रतीक के रूप में उर्दू का एकमात्र वर्चस्व बनाए
रखने का प्रयास करते हैं। क्या माननीय श्री चिन्तामणि ने यह सुझाव दिया था
कि उर्दू या फारसी लिपि को अदालतों से बेदखल कर दिया जाय। यदि ऐसा सुझाया
गया होता तो मुसलमान सदस्यों द्वारा प्रस्ताव के ऐसे वीरोचित विरोध का आधार
बनता। प्रस्ताव में तो हिन्दी को दीवानी अदालतों में बराबर की मान्यता देने
का अनुरोध किया गया था। जिसमें निस्संदेह मुसलमानों के लिए कोई कठिनाई नहीं
थी। उनमें से कोई भी कुछ ही महीनों की अल्प अवधि में नागरी लिपि सीख सकता
है, जैसा राजस्व अदालतों और अधिशासी विभागों में कई लोग कर चुके हैं। लेकिन
हमारे मुसलमान मित्र ऐसा समझौता नहीं चाहते हैं। वे हमसे अपनी भाषा खोने या
उनका सहयोग खोने में से एक को चुनने के लिए कहते हैं। लार्ड मार्ले के
शब्दों में
''राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ कार्रवाई दीर्घकालिक द्वितीयक प्रक्रिया
है। वहाँ दो भयानक गलतियों में से अनवरत एक का चयन करना पड़ता है। हमें
दूसरे विकल्प को चुनना पड़ सकता है।''
माननीय सैयद वजीर हसन यह स्वीकार करते समय कि हिन्दी भाषा जैसी कोई चीज है,
एक धूर्ततापूर्ण प्रश्न उठाते हैं कि क्या रामायण में पाई जाने वाली भाषा
ही इन प्रान्तों के निवासियों की बोलने और लिखने की भाषा है? माननीय सदस्य
यह भी पूछ सकते हैं कि क्या चासर और स्पेंसर की भाषा ही आजकल बोलने और
लिखने की भाषा है। आज हम आधुनिक हिन्दी के रूप में जिसे (जिस भाषा को)
प्रस्तुत करते हैं, वह ऐसी भाषा है जिसमें प्रतिवर्ष हजारों पुस्तकें
प्रकाशित होती हैं और सैकड़ों पत्र निकाले जाते हैं। व्यक्तिगत पत्रचारों और
सार्वजनिक भाषणों में सामान्यत: इसी भाषा का प्रयोग किया जाता है। तत्वत:
यह वही भाषा है जो इंशा की 'रानी केतकी की कहानी' और लल्लू लाल के
'प्रेमसागर' में प्रयुक्त हुई है।
माननीय जनाब रजा अली ने श्री चिन्तामणि से 1898 ई. के पहले का कोई ऐसा
दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए कहा जिसके आधार पर यह तर्क दिया जा सके कि
सरकार हिन्दी भाषा को मान्यता दे चुकी है। सदस्य महोदय और कुछ नहीं सरकारी
दस्तावेज ही चाहते हैं तो मैं उनका ध्या न ऐसे अनेक दस्तावेजों की ओर
आकृष्ट कराना चाहता हूँ। 1839 ई. में पश्चिमोत्तार प्रान्त की सदर दीवानी
अदालत के सामने जब भाषा की समस्या आई तो उसने यह आदेश जारी किया
''सरकार की इच्छा है कि इस बात का ध्या न रखा जायख़ासतौर से मामले को आरम्भ
करते समयक़ि बहसें और कार्यवाहियाँ स्पष्ट बोधगम्य उर्दू या हिन्दी में लिखी
जायँ।''
1844 ई. में पश्चिमोत्तार प्रान्त की सरकार के सचिव ने (पत्र सं.-750
दिनांक 17 अगस्त, 1844) आगरा कॉलेज के प्रिंसिपल को लिखा था'हिन्दी एक देशी
उपभाषा है'। पश्चिमोत्तार प्रान्त के राजस्व बोर्ड ने सभी कमिश्नरों और
कलेक्टरों को सम्बोधित एक परिपत्र आदेश (संख्या 8, सन् 1857 ई.) में कहा था
बोर्ड सभी कमिश्नरों और कलेक्टरों का ध्याईन सरकार के उस प्रस्ताव (सं.
4011, दिनांक 30 सितम्बर, 1854 ई.) की ओर आकर्षित करता है जिसमें यह आदेश
दिया गया है कि पटवारियों के ऑंकड़े अधिकांश जनता की सुपरिचित भाषा और लिपि
में लिखे जाएँगे। सामान्य रूप से वह भाषा हिन्दी होगी और लिपि नागरी। अपवाद
हो सकते हैं लेकिन केवल कमिश्नर की अनुमति पर ही इसकी मंजूरी दी जानी
चाहिए।
बाद के वर्षों में आकर 1874-75 ई. की शैक्षिक प्रगति की वार्षिक रिपोर्ट
में पश्चिमोत्तार प्रान्त की सरकार को अपने आदेश में हम यह कहते हुए पाते
हैं कि 'अधिकांश जनसामान्य की सुपरिचित भाषा होने के अर्थ में हिन्दी
न्यायोचित रूप से मातृभाषा कही जा सकती है।'
अब नवाब अब्दुल मजीद की केवल एक और टिप्पणी पर विचार किया जाना शेष है। वह
टिप्पणी इस प्रकार हैहिन्दी लिपि की खूबी यह है कि अपने ही लेखकों द्वारा
यह आसानी से पढ़ी और समझी नहीं जाती और लिखने में उर्दू की अपेक्षा अधिक समय
लेती है। यह ऐसी लिपि है, जिसकी विशेषज्ञता पाने में मुसलमान कठिनाई का
अनुभव करते हैं। सच यह है कि फारसी लिपि की अपठनीयता लोकोक्ति का रूप ले
चुकी है और इससे कई रोचक प्रसंग भी जुड़े हुए हैं। यहाँ हम अधिक न कहकर
पायनियर के 10 जनवरी, 1873 के अंक में छपे एक महत्तवपूर्ण लेख में जो पाया
गया है, उसे ही दे रहे हैं
'फारसी लिपि तेज गति से लिखी जा सकती है। लेकिन...यदि विषय अपरिचित और शैली
असामान्य हो तो भले ही फारसी में साफ साफ लिखा गया हो विरोधभासी रूप से
प्राय: अपठनीय होता है। इस लिपि की वर्णमाला लिखने के उद्देश्य से
स्पष्टतया उतनी दोषपूर्ण है जितनी की कल्पना की जा सकती है।'
एक रोचक घटना यहाँ अप्रासंगिक न होगी। विशेष शासकीय कार्य पर नियुक्त एक सब
इंस्पेक्टर मुफस्सिल से प्राप्त कुछ कागजातों को पुलिस सुपरिंटेंडेंट के
सामने रखने के लिए व्यवस्थित कर रहा था। जब उसने बहुत समय लगा दिया तो
सुपरिंटेंडेंट ने अधीरतापूर्वक पूछा
'तुम वहाँ क्या कर रहे हो?'
उसने जवाब दिया'नुकते लगा रहा हूँ, महोदय।'
'इसका क्या मतलब है?'
'कागजातों में व्यक्तियों तथा स्थानों के नाम उर्दू अक्षरों में हैं और इस
प्रकार की जाँच और सुधार के बिना वे सही सही नहीं पढ़े जा सकते।'
जहाँ तक विद्वानों की राय का प्रश्न है तो वे एक स्वर से फारसी लिपि की
निन्दा करते हैं।
अब हम माननीय श्री बर्न की चर्चा करते हैं। वे कोई ऐसा लाभ ढूँढ़ पाने में
असफल रहे जो इस प्रस्ताव को स्वीकार करने पर सरकार को न्यायसंगत ठहराए।
कौंसिल के कई हिन्दू सदस्यों द्वारा ऐसे लाभों को पूरी तरह गिना देने के
बाद मुझे यहाँ उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने इस समस्या को
ऐसे रूप में प्रस्तुत कर दिया है कि हर निष्पक्ष मस्तिष्क में उनकी बात
दृढ़तापूर्वक बैठ जाए। इतने स्पष्ट रूप से बताए गए लाभों की ओर से ऑंखें
मूँदने के उपरान्त भी मुसलमान सदस्य यह प्रमाणित करने में असमर्थ रहे कि
यदि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया तो परिस्थितियाँ बद से बदतर हो जाएँगी।
यह एक बड़ी असंगति है कि दीवानी अदालतों के समक्ष उपस्थित होनेवाले पक्षकार
[ अपने प्रपत्र नागरी में प्रस्तुत करें ] और पीठासीन अधिकारी उन्हें पढ़ने
में सफल हो सकते हैं और नहीं भी। जैसा कि उर्दू लिपि का प्रयोग व्यवहार या
चलन के रूप में स्थापित हो चुका था। इसलिए सरकार कोई ऐसा कदम उठाने के लिए
तैयार नहीं थी जो इसे क्षतिग्रस्त कर देने की ओर अभिमुख हो। लेकिन ऐसा कोई
भी व्यवहार या चलन नहीं है जिसमें अनुभव के आधार पर सुधार न किया जा सके।
हमें पूरा विश्वास है कि सरकार परिस्थितियों की वास्तविकताओं को भाँपने में
आगे असफल नहीं होगी।
माननीय श्री बर्न द्वारा प्रस्ताव के विरोध में दिए गए विचित्र तर्कों में
से एक यह है कि 'मुंसिफ का कार्य प्राय: अदालत के अन्दर तक सीमित है जबकि
डिप्टी कलेक्टर और सिविल अधिकारियों का अधिकांश कार्य अदालत के बाहर फैला
हुआ है। इस प्रकार माननीय श्री बर्न अपनी समझ के अनुसार दो भाषाओं का
अस्तित्व स्वीकार करते हैंएक 'भीतरी भाषा' और एक 'बाहरी भाषा'। यदि ऐसा है
तो 'भीतर' और 'बाहर' की भाषा एक ही क्यों न रहे या यदि यह अव्यावहारिक जान
पड़ता है तो दूसरी भाषा को भी अन्दर आने दिया जाए।
[ श्री चिन्तामणि के इस प्रस्ताव के विरोध पर दूसरे साहित्यकारों ने भी
तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। आ. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस कृत्य का
विरोध 'कौंसिल में हिन्दी' (सरस्वती अप्रैल 1917) लेख लिखकर किया था। यह
लेख साहित्यालाप में संकलित है। इसे महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली के
भाग-1 में भी देखा जा सकता है। हिन्दी के विरोध में कैसे-कैसे तर्क दिए जा
रहे थे, इसे इन लेखों में आसानी से देखा जा सकता है।संपादक ]
अनु. विवेकानंद उपाध्याय, आलोक कुमार सिंह
[ द लीडर अप्रैल ई ]
रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा विमर्श-
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