रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा, साहित्य और समाज विमर्श
इतिहास और समाज विमर्श
भाग
- 9
बुद्धदेव की हड्डीयाँ
पेशावर के पास जो बुद्धदेव की हड्डीयाँ निकली हैं, उनका संक्षिप्त विवरण हम
पिछले अंक में दे चुके हैं। अब झगड़ा इस बात का है कि ये हड्डीयाँ कहाँ रखी
जाए। चीन, जापान आदि सभी बौद्ध देश इसे माँग रहे हैं। सरकार ने अभी तक कुछ
भी निश्चित नहीं किया है। न जाने वह किस सोच विचार में पड़ी है। बुद्ध भगवान
ने इसी भारतवर्ष में जन्म लिया था अत: उनकी निशानी को रखने का अधिकार जितना
इस भूमि को है, उतना और किसी को नहीं। क्या हुआ जो हिन्दू लोग आज उनके मत
को नहीं मानते, वे अपने दूसरे नौ अवतारों के साथ उनका भी नित्य उठ कर जय
जयकार मनाते हैं। किसी दशा में हम भारतवासी उनको भूलना नहीं चाहते। यद्यपि
हमारा जीवन जड़ और स्तब्ध हो रहा है तो भी अपने पूज्य अवतार की निशानी को
अपनी ऑंखों के सामने से हटते देख हमारे हृदय पर कहाँ तक चोट न पहुँचेगी?
पंजाब की हिन्दू सभा ने इन हड्डीयों को भारतवर्ष ही में रखने के लिए
गवर्नमेन्ट से प्रार्थना की है। दिल्ली के डिस्ट्रिक्ट एसोसिएशन ने सभा
करके पाँच सौ रुपये पेशावर में मन्दिर बनाने के लिए जमा भी कर दिए। और
पूर्निया और भागलपुर के लोगों ने भी प्रार्थना पत्र भेजे हैं। कलकत्ता में
ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने भी भारतीय सरकार से पत्र द्वारा प्रार्थना की
है कि वह शीघ्र इन हड्डीयों को भारतवर्ष के किसी मन्दिर में स्थापित कर दे।
21 सितम्बर को संध्या के समय पुणे वालों ने भी एक बड़ी भारी सभा करके यह
मन्तव्य प्रकाशित किया,
''बौद्ध धर्म के संस्थापक श्री गौतम बुद्ध की हड्डीयाँ जो हाल में पेशावर
में मिली हैं हिन्दुस्तान के बाहर न भेजी जाए, इन्हा बौद्ध गया में रखी
जाए।''
बौद्ध धर्म को मानने वाली मिस सोफिया एगारस नाम की एक रूसी स्त्री ने भी
बड़े लाट को इस विषय में एक जोरदार पत्र लिखा है। उसने लिखा है, ''बुद्धदेव
की अस्थि भारतवर्ष से बाहर न जानी चाहिए। बौद्ध धर्म की मुझे पूरी जानकारी
है। इसी से कहती हूँ कि बुद्धदेव की जन्मभूमि भारतवर्ष में अस्थि की
प्रतिष्ठा होने से समस्त बौद्ध प्रसन्न होंगे।''
भिन्न-भिन्न देश में रहने वाले बौद्धो को भी इन हड्डीयों के भारतवर्ष में
स्थापित होने से प्रसन्न ही होना चाहिए। भारतवर्ष उनके आराध्यदेव की
जन्म-भूमि और लीला-भूमि होने के कारण उनका तीर्थ है। फिर क्यों न बुद्धदेव
का एक चिन्ह स्थापित कर उस तीर्थ की महिमा और भी बढ़ाई जाए। इस संबंध में
सीलोन (लंका) के बौद्धो ने जो उदारता और धर्मनिष्ठा दिखलाई है वह प्रशंसनीय
है। हाल ही में कोलम्बो नगर में इन हड्डीयों के विषय में विचार करने के लिए
बौद्ध धर्मावलंबियों की एक बड़ी सभा हुई थी। बौद्धो के महागुरु सुमंगलाचार्य
सभापति थे। कलकत्ता के सुप्रसिद्ध प्रोफेसर सतीशचन्द्र विद्याभूषण भी
संयोगवश उपस्थित थे। बहुत देर तक तो यही विचार होता रहा कि ये हड्डीयाँ
बुद्धदेव की हैं या नहीं।
सभापति ने पूछा, भ्राता ज्ञानेश्वर बताए कि ये हड्डीयाँ गान्धार में कैसे
पहुँचीं?
ज्ञानेश्वर- महामान्य! हमारे प्रभु बुद्धदेव ने 2452 वर्ष हुए कि भारत के
कुशीनगर स्थान में शाल वृक्ष के नीचे अपना मानव शरीर छोड़ा था। अन्त्येष्टि
क्रिया के पीछे शव से चार दाँत और चार हड्डीयाँ निकाल ली गई थीं। उनमें से
सात तो सात देशों को बाँट दी गईं और आठवीं नागा लोग ले गए। 250 वर्ष बाद
महाराज अशोक ने फिर इन सातों अस्थियों को एकत्रित करके उनकी अलग अलग
प्रतिष्ठा की और मन्दिर बनवाए। पेशावर के पास जिस प्राचीन मन्दिर में ये
हड्डीयाँ मिली हैं वह अवश्य उन्ही मन्दिरों में से एक है।
इस पर प्रोफेसर सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने कहा कि हुएन-सांग के अनुसार यह
पेशावर का मन्दिर महाराज कनिष्क का बनवाया हुआ है। अंत में सभापति ने फैसला
किया कि अस्थियाँ वास्तव में बुद्धदेव की हैं और उनका आदर करना चाहिए।
यह सब हो चुकने पर सभापति ने पूछा, अब और कोई प्रश्न बाकी है?
धर्मपाल- हाँ महाराज! अस्थि कहाँ प्रतिष्ठित हों?
सभापति- माँगने वाले कितने हैं?
धर्मपाल- 16, और हड्डीयाँ 4 ही हैं।
देवमित्र- मनुष्यों में सामर्थ्य नहीं कि वह हमारे प्रभु की अस्थि को काट
छाँटकर विभक्त कर सकें।
स्वर्णज्योति- चारों हड्डीयाँ भारतवर्ष में ही प्रतिष्ठित हों तो कैसा?
ज्ञानेश्वर- महामान्य, इस संसार में काशी और बौद्ध गया के अतिरिक्त सब
स्थान परिवर्तनशील हैं। समस्त संसार के बौद्धो को अपने जीवन में एक बार
काशी और गया की यात्रा करनी चाहिए। इससे इन्ही स्थानों में से किसी में
प्रतिष्ठा होनी अच्छी है।....
(नागरीप्रचारिणी पत्रिाका, नवम्बर, 1909 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]
प्राचीन भारत का एक शक राजा
आज से सौ वर्ष पहले मुसलमानी राज्य के पूर्व का क्रमबद्ध और प्रमाणिक
इतिहास कुछ नहीं मिलता था। इधर सौ वर्ष के बीच में पुराने सिक्कों और
शिलालेखों के सहारे पर हिन्दू राजत्व काल का बहुत कुछ इतिहास जोड़ जाड़कर खड़ा
किया गया।सर विलियम जोन्स ने पुराणों और नाटकों में दिए गए नामों और
आख्यानों का यूनानियों की यात्रा संबंधी पुस्तकों में आए हुए नामों और
वृत्तान्तों से मिलान किया।1
जेम्स प्रिंसिप ने मौर्य वंशीय राजा अशोक के शिलालेखों को पढ़ा और उनमें
पाँच समकालीन यूनानी राजाओं के नाम पाए। जिन बादशाहों के नाम शिलालेखों में
आए हैं वे है,- हैंसीरिया (शाम) का श्रंतिश्रोकन, मिस्र का टालमी दूसरा,
मेसिडोनिया का श्रंतिगोनस, सिरीन का मगस और इपिरस का अलिक्जैंडर। इस प्रकार
अशोक का समय 250 ई.पू.र्व के लगभग पाया गया। डॉक्टर फ्लीट ने गुप्तवंशीय
राजाओं का संवत् निकाला जो उत्तरी भारत में 319 ई. से राज करने लगे। इसके
उपरान्त मौर्य और गुप्तवंशीय राजाओं के बीच में पड़ने वाले और राजवंशों का
पता लगाना रह गया।
यह अब अच्छी तरह प्रगट हो गया है कि ईसा से एक सौ पचास वर्ष पूर्व से लेकर
कुछ दिनों तक उत्तरपश्चिम भारत पर बलख के यूनानी राजाओं का अधिकार रहा। इन
यवन राजाओं के सिक्के पेशावर से लेकर मथुरा तक मिलते हैं जिनसे उनकी पीढ़ी
का बहुत ठीक क्रम बैठाया जा सकता है। इन यूनानी राजाओं के चिन्ह स्वरूप
पत्थर की बहुत सी बौद्ध कारीगरियाँ उत्तर पश्चिमी सीमा और गान्धार देश में
मिलती हैं। ईसा से पूर्व की पहली शताब्दी में पारद2 (Parthian) और शक
(Scythian)
1. देखिए, मेगास्थिनीज़ के हिन्दी अनुवाद में मेरी लिखी हुई भूमिका ।रा.
शु.।
2. मेरा निश्चय है कि ये पार्थियन (Parthian) लोग ही संस्कृत ग्रंथो के
'पारद' हैं। इनका उल्लेख महाभारत में है यथाक़ैराता, दरदा दर्व्वाद शूरा
वैयामकस्तया। औदुम्बरा दुर्विभागो पारदा: सह वाल्हिकैड्ड मनु ने लिखा है कि
ये पहले क्षत्रिय थे जो पतित होकर म्लेच्छ हो गए, यथाशनकैस्तु
क्रियालोपादिमा: क्षत्रिय: जातय: वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च।
पौंड्रकाश्चौड्रद्रविड़ा काम्बोजा यवना: शक:। पारदा: पहलवाश्चीना: किराता:
दरदा: खशा:। रा. शु.।
लोगों ने इन यूनानी राजाओं को वाल्हीक देश से निकाल दिया। इसके पीछे शक
जाति के कुशस्न वंश का प्रताप चमका जिसके अधिकार में उत्तरीय भारत सैकड़ों
वर्ष तक रहा। शिलालेखों में आज तक इस कुशन वंश के तीन राजाओं के नाम मिले
हैं कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव। इन शिलालेखों में संवत् पूरा दिया है पर
यह निश्चय नहीं होता कि वह कौन सा संवत् है। कोई कहता है कि विक्रमीय संवत्
है, कोई कहता है शाका। पर यथार्थ में यह कनिष्ट (कनिष्क) ही का चलाया हुआ
संवत् जान पड़ताहै।
अशोक के पीछे बौद्ध धर्म को उन्नति देनेवाला कनिष्क ही हुआ। पेशावर में जिस
स्तूप के भीतर कुछ दिन हुए कि बुद्धदेव की हड्डीयाँ मिली थीं वह इसी कनिष्क
का स्थापित था। चीनी यात्रियों के लेख से इस बात का पता चलता है। इसके
अरिरिक्त डिब्बे पर जो उसका चित्रा खुदा मिला है उसका आसन और वेश ठीक वैसा
ही है जैसा कि उसके सिक्कों पर के चित्रो का।
हुविष्क भी बौद्धधर्म पर ही श्रध्दा रखता था। उसने मथुरा में ठीक उसी स्थान
पर जहाँ आजकल कचहरी है एक बौद्ध मठ बनवाया था जो उसी के नाम से प्रसिद्ध
था। उसके समय में बौद्ध शिल्प बहुत बढ़ा चढ़ा था। वासुदेव के काल में इस कला
की अवन्नति आरम्भ हुई। वासुदेव के नाम से यह प्रगट होता है कि उसके समय में
शक लोग अपने परम्परागत स्वदेशी नाम आदि बदलकर पूरे हिन्दू हो गए थे।
कनिष्क के सबसे अन्तिम शिलालेख में संवत् 10 दिया है और हुविष्क का सबसे
पहले का शिलालेख संवत् 33 का है। बीच में कई वर्षों का अंतर पड़ने पर भी
साधारणत: यही समझा जाता था कि कनिष्क के उपरान्त ही हुविष्क हुआ। पर अब
मथुरा में एक शिलालेख मिला है जिससे इस विश्वास का खण्डन हो गया। इसमें
'कुशन' वंशीय एक और 'वशिष्क' नामक राजा का नाम मिला है जो अवश्य कनिष्क और
हुविष्क के बीच में हुआ है क्योंकि उसके नाम के आगे संवत् 24 लिखा है।
इस लेख का पता मथुरा के पंडित राधाकृष्ण को लगा है। यह 19 फुट ऊँचे एक
पत्थर के खम्भे पर खुदा है जो जमुना के उस पार मथुरा के सामने ईसापुर नामक
गाँव में मिला है। ईसापुर गाँव का नाम मिरजा इसा तरखान ने रखा था जो
शाहजहाँ के राजत्व काल के प्रथम वर्ष में मथुरा का हाकिम था।
यह पत्थर का खम्भा वास्तव में एक यज्ञ स्तूप था जिसे भरद्वाज गोत्री
रुद्रिल नामक ब्राह्मण के पुत्र द्रोगल ने खड़ा किया था। मथुरा में आज तक
जितने पुराने चिह्न मिले हैं सब बौद्धो और जैनों के हैं। पर यह लेख वैदिक
धर्म से संबंधित है और शुद्ध संस्कृत में लिखा गया है। यह शुद्ध संस्कृत के
सबसे प्राचीन शिलालेखों में है। भारतवर्ष में सबसे प्राचीन लेख अशोक के हैं
जो प्राकृत भाषा में हैं।
इस स्तंभ को पंडित राधाकृष्ण ने अब मथुरा म्युजियम में रख दिया है। जिसके
वे ऑनरेरी असिस्टेंट क्यूरेटर हैं।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 15 अगस्त, 1910 ई.)
[ चिंतामणि, भाग-4 ]
शाहआलम
सन् 1785 के अंत में सहारनपुर का रुहेला सरदार मर गया और उसकी जगह पर उसका
लड़का गुलामक़ादिर खाँ, जो बड़ा ही निष्ठुर और उग्र स्वभाव का था, गद्दी पर
बैठा। शाहआलम उस समय दिल्ली के तख्त पर थे और महाराज सिंधिया उनके वज़ीर थे।
गद्दी पर बैठते ही गुलामक़ादिर ने पहले तो अपने चाचा अफ़ज़ल खाँ को राज्य से
निकाल कर उसकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली। इसके पीछे उसने बादशाह की अवज्ञा
की और सनद लेने के लिए उसके पास नहीं गया। उसने गौसगढ़ के क़िले को ख़ूब मज़बूत
किया और अपने चाचा से छीने हुए धन से सेना बढ़ाई। उसने अपने साथ और दूसरे
सरदारों को भी बहकाया कि दिल्ली के बादशाह को कर न दे । पर जब सिंधिया ने
दंड देने की तैयारी की तब कर भेज दिया गया। उन दिनों सच पूछिए तो दिल्ली की
बादशाहत सिंधिया ही करते थे। उनसे दिल्ली के बहुत से मुगल सरदार कुछ दिनों
से बहुत बुरा मानने लगे थे। कारण यह था कि निर्वाह के लिए उन्हें जो
जागीरें मिली थीं सब सिंधिया ने निकाल ली थीं। मुगल सरदारों में भीतर ही
भीतर बड़ा असंतोष फैला था पर अपने सिर पर मराठो की बड़ी भारी फ़ौज देख कर वे
चुँ नहीं कस सकते थे। इसी समय नायब वज़ीरनारायण् दास अपने पद से अलग कर दिए
गए और उनकी सारी जायदाद सिंधिया ने ज़ब्त कर ली। इन्हीं सब कामों से सिंधिया
के विरुद्द एक भारी दल खड़ा हो रहा था जिसमें बहुत से मुगल सरदार और सेनापति
सम्मिलित थे। इसी समय जयनगर के राजा प्रतापसिंह ने भीतर-भीतर मुगल सरदारों
से मिल कर खुल्लमखुल्ला अपनी स्वतंत्रता प्रकाशित की। सिंधिया ने उस पर
चढ़ाई की। पर ज्यों ही सिंधिया की फ़ौज जयनगर के पास पहुँची मुगल सरदार
अपने-अपने सिपाहियों को लेकर बादशाही फ़ौज से अलग हो गए और जयनगर के
बलवाइयों से जा मिले। सिंधिया इस बात से ज़रा भी न घबराए और उन्होंने मराठो
को लेकर शत्रु पर धावा किया। बलवाइयों का सरदार मोहम्मद बेग गोला लगने से
मर गया, पर उसका भतीजा इस्माईल बेग बड़ी धीरता और वीरता के साथ लड़ता रहा ।
इसी बीच बलवाइयों में और सिपाही आकर मिले जिससे मराठे कुछ ढीले पड़ने लगे।
अपना पक्ष निर्बल देख सिंधिया अल्वर होते हुए ग्वालियर चले गए और वहीं से
बैठे-बैठे सब हाल-चाल लेते रहे। बलवाई अब दो दलों में बँट गए इस्माईल बेग
तो आगरे की ओर बढ़ा और प्रतापसिंह अपनी राजधानी को लौट गया।
इस्माईल बेग ने आगरे को घेर लिया। नगर वाले तो घबरा कर अधीन हो चुके थे
वहाँ का मराठा क़िलेदार ऐसी दृढ़ता से लड़ा कि बलवाई कुछ न कर सके। इधर मराठो
के हट जाने से दिल्ली बिल्कुल असुरक्षित हो गई। गुलाम कादिर को यह अच्छा
अवसर हाथ लगा। वह भीतर-भीतर शाही नाज़िर मंसूर से मिला हुआ था जो मराठो का
आधिपत्य देख कर बहुत जलता था। मंसरू बादशाह का बड़ा विश्वास-पात्र था और
चाहता था किग को अपने हाथ में करके उसे सिंधिया के स्थान पर प्रतिष्ठित कर
दे। दिल्ली को बिलकुल असुरक्षित देख गुलाम कादिर बड़ी भारी सेना लेकर दिल्ली
पर चढ़ा और जमुना नदी के पूर्वी किनारे पर उसने डेरा डाला। वहाँ से मंसूर के
द्वारा वह सब हाल चाल लेता रहा। बलवाइयों की इतनी बड़ी फ़ौज देखकर दिल्ली
वाले दहल गए पर दिल्ली की रक्षा के लिए जिन मराठे सरदारों को सिंधिया छोड़
गए थे उन्होंने अपने भरसक कोई बात नहीं रखी और थोड़े से सिपाही को लेकर
उन्होंने गुलाम कादिर पर आक्रमण किया। पर रुहेलों की संख्या बहुत थी इस
कारण उन्हें लाचार होकर हटना पड़ा। मराठे सरदारों को जब मंसूर की कुटिलता
मालूम हुई तब वे छल से मारे जाने के डर से दिल्ली से भाग गए। अब तो गुलाम
क़ादिर ने जमुना पार की और चुने हुए सिपाही साथ लेकर वह सीधे शाही महलों की
ओर गया। नाज़िर ने उसे बादशाह के सामने पेश किया। उसने बादशाह से सिंधिया की
जगह के लिए दरख़ास्त की। बादशाह को झख मार कर मंजूर करना पड़ा। रुहेला सरदार
वज़ीरी की सनद पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ। किन्तु दिल्ली में कुछ लोग ऐसे भी बचे
थे जो बादशाह और सिंधिया के पूरे खैरख्वाह थे। वे बादशाह का अपमान सुनकर
बहुत बिगड़े और उसकी मर्यादा की रक्षा के प्रयत्न में लगे। इनमें से मुख्य
सरधाना की बेगम समरू थी। वह बड़ी राजभक्त थी। इससे दिल्ली के दरबार में उसकी
बड़ी चलती थी। गुलाम क़ादिर ने उसे अपनी ओर मिलाने के लिए बहुत उपाय किए पर
सब निष्फल हुए। वह अपनी सीखी सिखाई तैयार फ़ौज लेकर महल में आ धमकी और कहने
लगी, ''मैं बादशाह को अपना प्राण तक देकर बचाऊँगी''। उसे देखकर बादशाह भी
बहुत प्रसन्न हुए और देखा-देखी और लोगों को भी उत्साह हुआ। धीरे-धीरे
बादशाह की ओर से लड़ने के लिए एक पूरी फ़ौज इकट्ठी हो गई। गुलाम क़ादिर ने जब
देखा कि उसका बना-बनाया खेल बिगड़ रहा है तब वह जमुना के उस पार अपने डेरे
में गया और वहाँ से बादशाह के पास बड़े अविनीत शब्दों में कहला भेजा कि,
''आप बेगम को तुरंत निकाल दें नहीं तो मैं चढ़ाई करता हूँ''। इस पर कुछ
ध्यान नहीं दिया गया और गुलामक़ादिर ने महल पर धावा कर दिया। कृतघ्न मंसूर
अपने मित्र गुलामक़ादिर के पैर उखड़ते देख कहने लगा कि अब तो ख़जाने में रुपया
ही नहीं है। इस पर लड़ाई के ख़र्च के लिए शाही जवाहरात गिरवी रखे गए। इसी बीच
यह शुभ समाचार मिला कि शहज़ादा जवांबख्त बड़ी भारी सेना लेकर राजधानी की ओर आ
रहे हैं। मंसूर ने चट गुलामक़ादिर को इसकी ख़बर देकर संधि करने की सलाह दी।
गुलामक़ादिर ने अधीन भाव से संधि के लिए प्रार्थना की और बहुत सी नज़र भेजकर
दोआबे के उन गाँवों को लौटा देने का वादा किया जिन्हें वह दबा बैठा था। इस
प्रकार संधि हो जाने पर गुलामक़ादिर अपना डेरा डंडा उखाड़ कर सहारनपुर लौट
गया।
शहज़ादा जवांबख्त की बड़ी भारी फ़ौज लेकर दिल्ली में रहना मंसूर को खटकने लगा।
उसने देखा कि शहज़ादे के रहते उसकी दाल नहीं गल सकती। इससे वह शहज़ादे के
विरुद्ध बादशाह के कान भरने लगा। उसने बादशाह के जी में यह बात जमा दी कि
शहज़ादा उसे तख्त से उतार कर उसके साथ वही व्यव्हार करेगा जो औरंगजेब ने
शाहजहाँ के साथ किया था। अंत में बाप और बैटे में यहाँ तक बिगड़ी कि शहज़ादा
दिल्ली छोड़ कर चला गया और मंसूर और गुलामक़ादिर के लिए मैदान साफ़ हो गया।
गुलामक़ादिर ने इस बार इस्माईल बेग को भी मिलाकर दिल्ली पर चढ़ाई की। दिल्ली
में मराठो की कुछ फ़ौज रह गई थी और बहुत से मुगल सरदार भी बादशाह के पक्ष
में आ गए थे। गुलामक़ादिर अपने दल-बल के साथ जमुना के उस पार ठहरा और वहाँ
से उसने बादशाह के पास कहला भेजा कि हम इसी समय सामने आना चाहते हैं।
बादशाह ने अपने सरदारों का भरोसा करके उसकी बात नामंजूर की। बेचारे बादशाह
को यह कुछ ख़बर न थी कि मंसूर ने भीतर-भीतर मुगल सरदारों को बलवाइयों के
पक्ष में कर रखा है। वे एक-एक करके बादशाह का साथ छोड़ने लगे। गुलामक़ादिर और
इस्माईल बेग दो हज़ार सिपाहियों को लेकर दिल्ली में घुसे। मंसूर ने उनकी
अगवानी की और उन्हें बादशाह के सामने पेश किया। गुलामक़ादिर और इस्माईल तख्त
के दोनों ओर बैठ गए। गुलामक़ादिर ने कहा, ''मुझ पर जो बग़ावत का इलज़ाम लगाया
गया सब झूठा था। मैं उसका बदला लेने के लिए आया हूँ।'' बादशाह डर से काँप
गया और उसे सन्तुष्ट करने के लिए कहने लगा, ''मुझे अब आप पर पूरा इत्मिनान
हो गया''। बादशाह अपनी प्रसन्नता जताने के लिए उससे गले मिला। इतना हो
चुकने पर बादशाह से कहा गया कि, ''जहाँपनाह के खाना खाने का वक्त हुआ अब
अंदर जाएं'', जब बादशाह दरबार ख़ास से उठ कर चला गया तब षट्चक्रकारियों की
एक गोष्ठी हुई। मंसूर के सुझाने पर यह तय हुआ कि शीतलदास ख़चांजी भीतर जाकर
बादशाह से कहें कि, गुलामक़ादिर बड़ी भारी फ़ौज लेकर मराठो को दबाने के लिए जा
रहा है, बेहतर होगा कि शाही घराने का कोई शहज़ादा भी फ़ौज के साथ जाय और
दिल्ली में जो मेगज़ीन और रिसाले हैं, वे जिन्हें गुलामक़ादिर कहे उनके मातहत
कर दिए जाएं''। हिन्दू ख़ज़ांची ने बादशाह से साफ़ कहा कि ''गुलामक़ादिर का
विश्वास करना ठीक नहीं। अभी दिल्ली में बहुत राजभक्त हैं जो बादशाह के लिए
लड़ने को तैयार हैं''। पर बादशाह के जी में गुलामक़ादिर का ऐसा डर समाया था
कि उसने गुलामक़ादिर की सब बातें मंजूर कर लीं।
इस बीच में रुहेले सिपाही दिल्ली को लूटने लगे। बादशाह ने गुलामक़ादिर से
उन्हें रोकने की प्रार्थना की और कहा कि किले में थोड़े से सिपाही रखकर अपनी
और फ़ौज आप लौटा दीजिए। गुलामक़ादिर ने बादशाह के सामने तो हाँ कर दिया पर जब
बाहर किले के फाटक पर आया तब अपने सिपाहियों को किले के भीतर घुसने का
इशारा कर दिया। देखते ही देखते किला बलवाइयों के अधिकार में हो गया।
गुलामक़ादिर ने बादशाह के रक्षकों से हथियार रखवा लिया और मुख्य-मुख्य
सरदारों को पहरे में डाल दिया। बादशाह ने यह सुनकर गुलामक़ादिर से बहुत
विनती की कि ऐसे लोगों के साथ ऐसा अन्याय न किया जाय, पर उसने एक न सुनी।
जिससे-जिससे बादशाह को सहायता पहुँचने की आशा थी सब को क़ैद करके वह बादशाह
के दरबार ख़ास में पहुँचा और उससे अपने सिपाहियों की तनख्वाह चुकाने के लिए
ज़मीन माँगने लगा। बादशाह ने कहा, ''बाबा! ज़मीन देना मेरे इख्तियार के बाहर
की बात है महल में जो कुछ पाओ ले जाओ''। इस पर गुलामक़ादिर बादशाह को भला
बुरा कहने लगा तब वह हरम में चला गया। दूसरे दिन सवेरे गुलामक़ादिर बहुत से
सिपाहियों को लेकर सीधे दीवान-ए-ख़ास में पहुँचा। जहाँ शाहआलम बैठा था, और
उसने तख्त को घेर लिया। शाही घराने के जो शहज़ादे वहाँ मौजूद थे सबको उसने
हट जाने की आज्ञा दी। इसके अन्तर उसने सलीमगढ़ से बेदारशाह को बुलवा भेजा जो
पूर्व बादशाह अहमदशाह का लड़का था। इतना करके वह शाही तख्त की ओर बढ़ा और उस
पर से ढाल तलवार आदि चिह्न हटा कर उसने बादशाह से तख्त से उतर जाने को कहा।
बुङ्ढा बादशाह इस अपमान से कातर होकर कहने लगा, ''मुझे इस तरह ज़लील करने से
अच्छा यह है कि तुम अपनी कटार मेरी छाती में धँसा दो''। गुलामक़ादिर इस पर
बड़ा झल्लाया और तलवार की मुट्ठी पर हाथ ले जा चुका था कि मंसूर ने उसे
तलवार खींचने से रोक लिया। शाहआलम भीतर हरम में भेज दिया गया और बेदारशाह
दिल्ली के तख्त पर बैठाया गया।
गुलामक़ादिर अब हरम को लूटने लगा। जब उसे और कोई चीज़ लेने को न रह गई तब
उसने बादशाह को अपने सामने बुलवाया और पूछने लगा, ''बताओ, अपना ख़ास ख़ज़ाना
कहाँ छिपा रखा है?'' बादशाह ने कहा, ''मेरे पास कुछ नहीं है जो मैं
छिपाऊँ''। उस अन्यायी ने कड़क कर कहा, ''मैं अभी तुम्हारी ऑंखें निकालता
हूँ, नहीं बताओगे?''। बुङ्ढा बादशाह गिड़गिड़ा कर कहने लगा, '' क्या तुम इन
ऑंखों को फोड़ोगे जिन्होंने साठ बरस तक क़ुरान पढ़ा है''। गुलामक़ादिर ने अपने
सिपाहियों को शाहआलम को पकड़ने की आज्ञा दी। फिर शाहआलम को ज़मीन पर पटक कर
गुलामक़ादिर उसकी छाती पर चढ़ बैठा और उसने अपने कटार की नोंक से उसकी दोनों
ऑंखें निकाल लीं। बुङ्ढे बादशाह की दोनों ऑंखों से रक्त की धारा बहने लगी
और वह इसी दशा में गुलामक़ादिर की आज्ञा से हरम में पहुँचाया गया।
इसके उपरान्त विश्वासघाती मंसूर की बारी आई। गुलामक़ादिर ने उसे बुला कर
कहा, ''तुम्हारे पास क्या-क्या है सब ठीक-ठीक बताओ।'' उसने जब इधर-उधर किया
तब गुलामक़ादिर ने उसे कैद कर के उसका सारा माल ज़ब्त कर लिया। इसके पीछे वह
अपने साथी इस्माईल बेग पर फिरा। इस पर इस्माईल बेग अपनी फ़ौज लेकर दिल्ली से
चला गया।
शाहआलम के तख्त पर से उतारे जाने की खबर सिंधिया तक पहुँची। सिंधिया ने बड़ी
भारी फ़ौज के साथ अपने सेनापति को दिल्ली भेजा। डर के मारे इस्माईल बेग भी
मराठी सेना के साथ मिल गया। गुलामक़ादिर यह सुनते ही सहारनपुर भागा। सिंधिया
की सेना गुरजती हुई सहारनपुर की ओर मुड़ी। गुलामक़ादिर के सिपाही सब
तितर-बितर हो गए और वह आप भाग कर एक गाँव में जा छिपा। वहाँ वह पहचान लिया
गया और मराठो के डेरे में लाया गया। बैरी के साथ मराठो की निर्दयता
प्रसिद्ध है। जैसा उसका अपराध वैसे ही उसके दंड देनेवाले मिले। हाथ पैर और
नाक कान काट कर वह एक कटघरे में रखा गया। इसी दशा में वह दिल्ली पहुँचाया
जा रहा था पर बीच ही में उसके प्राण निकल गए। उसका साथी मंसूर कैदख़ाने से
निकाला गया और हाथी के पैर के नीचे कुचलवा दिया गया।क्व
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 1912 ई )
भारत के इतिहास में हूण
हूण एशिया की एक जाति थी जिसने ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी में सारे
संसार में अपना प्रताप फैलाया था। यूरोप का प्रसिद्ध इतिहास लेखक गिबन इन
हूणों के विषय में लिखता है:-
''सारे यूरोप में गाथ और वेंडल नामक असभ्यों ने उपद्रव मचा रखा था। पर वे
भी हूणों के सामने भागे। हूणों का जैसा प्रताप और वैभव था वैसा अधिकार वे
जमा न सके। उनके विजयी दल वोल्गा नदी से लेकर डैन्यूब नदी के किनारे तक
फैले थे। पर उनका जातीय बल नेताओं की परस्पर फूट से शिथिल रहा, उनका बहुत
सा पराक्रम छोटी-छोटी लड़ाइयों में व्यर्थ खर्च होता था। अपनी जाति के गौरव
और प्रतिष्ठा का ध्यान भी वे नहीं रखते थे और लूट की लालच से कभी-कभी अपने
पराजित शत्रुओं के झंडों के नीचे होकर लड़ते थे। अटिला के राजत्वकाल में
उन्होंने फिर संसार को हिला डाला। उनके आक्रमणों से एशिया और यूरोप दोनों
महाद्वीपों में हलचल मच गई और रोमन साम्राज्य का पतन हुआ।''
''इन हूणों का प्रवाह चीन की सीमा से चलकर जर्मनी तक पहुँचा था। इनके जो
सबसे प्रबल दल थे वे रोमन साम्राज्य की सीमाओं पर जम गए थे। कुछ दिनों तक
रोमन सम्राट दान नीति का अवलम्बन करके अपने प्रदेशों की रक्षा करते रहे। पर
हूण लोग जितना ही पाते गए उतना ही तंग करते गए।''
''मुंजुक का पुत्र अटिला अपने को उन प्राचीन हूणों के राजकुल का बताता था
जिन्होंने कई बार चीन के बादशाहों के साथ युद्ध किया था। उसकी आकृति भी
उसकी जाति के अनुरूप ही थी बड़ा सिर, गेहुँआ रंग, छोटी-छोटी धसीं हुई ऑंखें,
चिपटी नाक, दाढ़ी के स्थान पर ठुठ्डी पर थोड़े बाल, चौड़े कंधे, दृढ़ और गठीला
शरीर। हूणों के राजा के चेहरे से यह भाव टपकता था कि वह अपने को संसार के
सारे मनुष्यों से बढ़कर समझता है। जब वह कहीं निकलता था तब क्रूरता से साथ
घूरता चलता था जिसमें उसे देखते ही भय का संचार हो।''
पूर्वीय देशों में हूण
उस काल में हूणों का प्रताप एशिया में भी वैसा ही था। उनके संबंध में एक
इतिहासकार लिखता है:-
''ईसा से 163 वर्ष पूर्व यूचियों ने शक लोगों को टारिम के कछार से निकाल
दिया। 120 ईसवीं पूर्व यूची लोगों ने शकों को वाधीक देश से भी हटाकर वहाँ
अपना अधिकार जमाया और बहुत दिनों तक वहीं उनकी राजधानी रही। ईसा से तीस
वर्ष पहले यूचियों की एक शाखा क्वेंशंग ने और शाखाओं को दबाकर अपना
एकाधिपत्य स्थापित किया। यही क्वेंशंग वंश रोमन इतिहास में कुशन वंश के नाम
से प्रसिद्ध है। रोमन सम्राट अंटनी ने कुशन राजसभा में भी अपने दूत भेजे
थे। सम्राट ऑगस्टस के समय में कुशन राजा रोम नगर में भी पहुँचे थे। क्रमश:
कुशनों का प्रताप भी घट चला और एक दूसरी शाखा ने आकर उनके स्थान पर अपना
अधिकार जमाया। इस शाखा को रोमन लोग 'श्वेत हूण' चीनी लोग 'येथा' और फारस
वाले 'हयताल' कहते थे। यद्यपि यूची और हयताल एक ही जाति के थे पर हयताल
यूचियों से कई बातों में भिन्न थे। सन् 425 ईसवीं में हयतालों ने वंक्षुनद
(ऑक्सस या आमूदरिया) पार किया जिसका समाचार पहुँचते ही चारों ओर घबराहट फैल
गई।''
ये हूण सबसे पहले सन् 350 ईसवीं के लगभग बादशाह शापूर के समय में फारस की
पूर्वी सीमा पर पहुँचे थे। फारसी इतिहासकारों ने लिखा है कि, ''शापूर ने
उन्हें हराकर अपने अनुकूल संधिपत्र लिखने पर बाध्य किया''। यहाँ तक कि जब
शापूर ने रोमन लोगों पर चढ़ाई की थी तब उसकी सेना में हूण लोग भी थे। सन्
425 ईसवीं के पीछे हूणों ने जब फिर वंक्षुनद पार किया तब बहराम गोर ने
उन्हें हराकर फिर वंक्षुनद के पार भगा दिया। इस प्रकार थोड़े दिनों के लिए
तो वे हटा दिए गए पर पारसी सीमा पर वे घनघोर घटा के समान छाए रहे और पारसी
बादशाहों को बराबर तंग करते रहे। यहाँ तक कि सन् 483 ईसवीं में फारस के
बादशाह फीरोज़ ने हूणों के बादशाह खुशनेवाज़ के हाथ से गहरी हार खाई और उसी
लड़ाई में वह मारा भी गया। हूण्राज ने फीरोज़ के उत्तराधिकारी कुबाद से दो
वर्ष तक कर वसूल किया। कुबाद और हूणों से दस वर्ष तक लड़ाई होती रही। अंत
में सन् 513 में कुबाद ने उनका पूर्ण रूप से दमन किया और ईरान हूणों की
बाधा से मुक्त हो गया।
भारत में हूण
भारत के इतिहास से जिन हूणों का संबंध है वे ये ही श्वेत हूण हैं। जहाँ तक
पता चला है भारतवर्ष में हूण लोग पहले गुप्त सम्राट कुमारगुप्त के समय में
दिखाई पड़े। कुमारगुप्त को इन हूणों के हाथ से हार खानी पड़ी जिससे गुप्त
साम्राज्य की नींव ढीली पड़ गई। सन् 455 ई. में कुमारगुप्त की मृत्यु हुई और
उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। स्कन्दगुप्त ने बर्बरों को
पराजित करके अपने पराक्रम से कुछ दिनों के लिए हूण बाधा दूर कर दी। दस वर्ष
पीछे अर्थात् सन् 465 ई. में हूणों ने गांधार देश (रावलपिंडी से लेकर काबुल
के पास तक का प्रदेश) पर अधिकार किया। वहाँ जमकर पाँच वर्ष बाद वे फिर बढ़ने
लगे और बराबर बढ़ते ही गए, क्योंकि स्ककन्द गुप्तछ के पीछे गुप्त राजाओं की
शक्ति उतनी न रह गई थी। बहुत चेष्टा करने पर भी उनका बढ़ना वे न रोक सके।
अंत में सन् 533 ई. के लगभग गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य और
मालवराज यशोर्बमन ने या तो मिलकर या अलग-अलग हूणों को हराया। यही हूणों की
बड़ी भारी पराजय हुई। इसके पीछे फिर वे न सँभल सके। भारतीय इतिहास में दो
हूण राजाओं के नाम आते हैं तोरमाण और उसका पुत्र मिहिरगुल (अथवा संस्कृत
लेखकों के अनुसार मिहिरकुल) इसी मिहिरगुल का नाम एक रोमन लेखक ने गोलस लिखा
है। चीनी यात्री हुएन्सांग ने मिहिरगुल को एक वीर, निर्भीक और योग्य पुरुष
लिखा है जिसके अधीन आसपास के राज्य थे। वह बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त
करना चाहता था इससे बौद्धो ने उसके यहाँ एक बकवादी आदमी लगा दिया जो उससे
बुद्ध की शिक्षाओं पर वादविवाद करने लगा। इस धृष्टता पर वह इतना बिगड़ा कि
उसने अपने राज्य से बौद्धो को उच्छीन्न करने की आज्ञा दी। जब वह बालादित्य
के हाथ से हार खाकर अपने राज्य में लौटा तब उसने देखा कि उसका भाई उसके
राजसिंहासन पर बैठ गया है। यह अवस्था देख वह काश्मीर की ओर भागा। वहाँ के
राजा ने उसे शरण दी जिसका बदला उसने उलटा दिया। काश्मीर के राजा को मारकर
वह कृतघ्न आप काश्मीर का राजा बन बैठा। वहाँ बौद्ध मत के विनाश का कार्य
उसने फिर हाथ में लिया। उसने 1600 स्तूपों और मठों का ध्वंस किया और नौ
कोटि बौद्धो का संहार। पर वह बहुत दिनों तक राज नहीं करने पाया था। थोड़े ही
दिनों में अकस्मात् उसकी मृत्यु हो गई। हूएन-सांग कहता है, ''जिस समय वह
नरक में गया थोड़ी देर के लिए आकाश में अंधकार सा छा गया, धरती काँप उठी और
गहरा अंधड़ चला'' (हूएन-सांग)। हिन्दू और जैन ग्रंथो में भी मिहिरगुल ऐसा ही
क्रूर और अत्याचारी कहा गया है। 1
भारतीय साहित्य में हूण
काव्यों में हूणों का जो उल्लेख मिलता है उससे इतिहास उनकी चढ़ाई आदि के
संबंधों में बहुत-सी बातों का पता लगाते हैं। रघु के दिग्विजय के प्रसंग
में महाकवि कालिदास ने इन हूणों का उल्लेख किया है:-
पारसीकांस्ततो जेतुं प्रतस्थे स्थलवर्त्मना।
इंद्रियाख्यानिव रिपूंस्तत्तवज्ञानेन संयमीड्ड4/60ड्ड
1. यह जान लेना आवश्यक है कि मिहिरकुल शैव सम्प्रदाय का अनुयायी था। उसकी
क्रूरता की कई कथाएँ प्रसिद्ध हैं। राजतरंगिणी में लिखा है कि एक बार उसने
एक हाथी को एक ऊँचे पहाड़ पर से केवल उसका चिल्लाना और छटपटाना देखने के लिए
गिरवाया था। ऐसे अत्याचारी की मृत्यु से देशभर में आनंद छा गया।
यवनीमुखपद्मानां सेहे मधुमदं न स:।
बालातपमिघाब्जानामकालजलदोदय:ड्ड4/61ड्ड
संग्रामस्तुमुलस्तस्य पाश्चात्यैरश्वसाधानै:।
शर्क्ष्कूजितविज्ञेय प्रतियोधो रजस्य भूतड्ड4/62ड्ड
भल्लापवजिंतैस्तेषां शिरोभि: श्मश्रुलैर्महीम।
तस्तार सरधाव्याप्तै: स क्षौद्रपटलैरिवड्ड4/63ड्ड
अपनीतशिरस्त्राणा: शेषास्तं शरणं ययु:।
प्रणिपात प्रतिकार: संरम्भो हि महात्मनामड्ड4/64ड्ड
विनयंते स्म तद्योधा मधुभिर्विजयश्रमम।
आस्तीर्णाजिनरत्नासु द्राक्षावलय भूमिषुड्ड4/65ड्ड
तत: प्रतस्थे कौबेरीं भास्वानिव रघुर्दिशम।
शरैरुस्रौरिवोदीच्यानुद्धरिष्यन्रसानिव ड्ड4/66ड्ड
विनीताध्वश्रमास्तस्य सिंधुतीर विचेष्टनै:।
दुधावुर्वाजिन: स्कंध्ल्लग्नकु(घमकेसरानड्ड4/67ड्ड
तत्रा हूणावरोधानां भर्तृषुव्यक्त विक्रमम।
कपोल पाटलादेशि बभूव रघुचेष्टितमड्ड4/68ड्ड
कांबोजा: समरे सोढुंतस्य वीर्यमनीश्वरा:।
गजालानपरिक्लिष्टैरक्षङ्कोटै: सार्धामानताड्ड4/69ड्ड
तेषां सदश्वभूयिष्ठास्तुक्ष् द्रविणराशय:।
उपदा विविशु: शश्वन्नोत्सेका: कोसलेश्वरमड्ड4/70ड्ड
ततो गौरी गुरुं शैलमारुरोहाश्वसाधन:।
वर्धायन्निवतत्कूटानुध्दूतैधर्तुरेणुभि:ड्ड4/71ड्ड
शशंस तुल्य सत्वानां सैन्यघोषेऽप्य संभ्रमम।
गुहाशयानां सिंहानां परिवृत्या अवलोकितमड्ड4/72ड्ड
भूर्जेषु मर्मरी भूता: कीचक ध्वनि हेतव:।
गंगाशीकरिणो मार्गे मरुतस्तं सिषेविरेड्ड4/73ड्ड
विशश्रमुर्निमेरुणां छाया स्वध्यास्य सैनिका:।
दृषदो वासितोत्संगा निषण्णमृगनाभिभि:ड्ड4/74ड्ड
सरलासक्त मात्तांग ग्रैवेयस्फुरितत्विष:।
आसन्नोषधयो नेतुर्नक्तमस्नेहदीपिकाड्ड4/75ड्ड
तस्योत्सृष्टनिवासेषु कंठरज्जुक्षतत्वच:।
गजवर्ष्म किरातेभ्य: शशंसुर्देवदारव:ड्ड4/76ड्ड
तत्राजन्यं रघोघोरं पर्वतीयैर्गणैरभूत।
नाराचक्षेपणीयाश्म निष्पेषोत्पतितानलमड्ड4/77ड्ड
शरैरुत्सवसंकेतांस कृत्वा विरतोत्सवान।
जयोदाहरणंवाह्नोर्गापयामास किन्नरामड्ड4/78ड्ड
परस्परेण विज्ञातस्तेषूपायनपाणिषु।
राज्ञा हिमवत: सारो राज्ञ: सारो हिमाद्रिणाड्ड4/79ड्ड
तत्राक्षोभ्यं यशोराशिं निवेश्यावरुरोह स:।
पौलस्त्यतुलित स्याद्रेशदधन इव द्दियमड्ड4/80ड्ड
ऊपर के श्लोकों में रघु की पश्चिम की ओर की चढ़ाई का वर्णन है। इस यात्रा
में जिन स्थानों और मार्गो का वर्णन है वे ध्यान देने योग्य हैं। पश्चिम
समुद्रतट होते हुए रघु चित्रकूट पर पहुँचे जो अवंती के पश्चिम विंध्य
पर्वत के छोर पर है। यहाँ से पारसियों को जीतने के लिए रघु स्थल मार्ग से
गए। वहाँ पाश्चात्य सवारों के साथ घोर युद्ध हुआ जिसमें उनके दाढ़ी वाले
सिरों से पृथ्वी ढक गई। जो यवन पगड़ी उतारकर उनकी शरण में आए उन्हें रघु ने
छोड़ दिया। यहाँ रघु के योद्धाओं ने दाक्ष (अंगूर) के बगीचों से घिरी हुई
भूमि पर जहाँ चमड़ों के आसन बिछे हुए थे मधा(मद्य) द्वारा श्रम मिटाया। फिर
उत्तर दिशा वालों को उखाड़ने के लिए रघु कुबेर की दिशा (उत्तर) में गए।
सिन्धु (पाठान्तर वक्षु) नदी के किनारे लेटे हुए रघु के घोड़ों ने केसर लगे
हुए कन्धो को झाड़ा। उत्तर दिशा में हूणों के साथ रघु ने जो पराक्रम दिखाया
वह हूण स्त्रियों के कपोलों पर लाली के रूप में दिखाई पड़ा। कम्बोज वाले तो
रघु के हाथियों के बंधनों से रगड़े हुए अखरोटों के साथ ही नम्र हुए। कम्बोज
वाले अपने यहाँ के घोड़े और सुवर्ण की राशि भेंट में ले आए। वहाँ से रघु
हिमालय पर चढ़े। उनके घोड़ों के टाप से उठी हुई धातु रज़ मानो शिखरों को और
भी ऊँचा करती थी। मार्ग में भोजपत्रो में मर्मर शब्द करती हुई, बाँसों में
सनसनाती हुई तथा गंगा के जलकणों को लिए हुए वायु सेवन किया। किरातों ने जब
उनके छोड़े हुए डेरों को देखा तब उन्होंने गले की रस्सी से छिली छाल वाले
देवदारों से रघु के हाथियों की ऊँचाई का अनुमान किया। इसके उपरान्त
उत्सव-संकेत नामक पर्वतीय गणों के साथ घोर युद्ध हुआ। उन्हें उत्सव-हीन
करके रघु ने किन्नरों से अपनी विजय के गीत गवाए। इस प्रकार हिमालय में अचल
कीर्ति राशि स्थापित करके रावण के उठाए पर्वत (कैलाश) को लज्जित सा करते
हुए रघु (हिमालय से) उतरे।
वर्णन की आलोचना
ऊपर जो कालिदास का वर्णन है उसपर विचार करने के पहले यह समझ रखना चाहिए कि
कोई कवि जब किसी पुराने आख्यान का वर्णन करने बैठता है तब या तो परंपरा से
चली आती हुई रीति का अनुसरण करता है, अर्थात् उन्ही बातों का वर्णन करता है
जिनका वर्णन बराबर होता गया है, अथवा इस बात का ऐतिहासिक प्रयत्न करता है
कि जिस काल का वर्णन वह कर रहा है उसी काल की प्रचलित रीति, नीति और
व्यवस्था का उसमें समावेश हो, अथवा अपने वर्णन में सजीवता लाने के लिए वह
अपने समय की प्रचलित व्यवस्था, रीति, नीति आदि का पुरानी से पुरानी कथा के
वर्णन में भी सन्निवेश करता है। किस कवि ने कौन सा वर्णन किस भाव से लिखा
है यह बात कवि के समय की प्रचलित व्यवस्था का थोड़ा बहुत ज्ञान रहने से ही
निश्चित हो सकती है। कालिदास ने इतिहास, पुराण आदि का खूब अध्ययन किया था
पर यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपना वर्णन उनमें उल्लिखित व्यवस्था से बद्ध
होकर नहीं किया है। रघु वैदिक युग के सम्राट थे पर कालिदास ने यह चेष्टा
नहीं की है कि रघुवंश में उन्ही बातों का वर्णन आवे जिनका रघु आदि के समय
में होना रामायण, महाभारत आदि से पाया जाता है। कालिदास ने अपने वर्णन में
देश की उस स्थिति और रीति-नीति आदि का आभास दिया है जो उनके समय में थे।
यही सिद्धांत स्थिर करके विद्वानों ने कालिदास का समय निश्चित किया है और
उन्हें उस काल में रखा है जिस काल की प्रचलित रीति-नीति आदि का आभास उनकी
रचनाओं में मिलता है।
कालिदास का देश वर्णन
कालिदास रघु को किन-किन देशों में किस-किस प्रकार ले गए हैं यह देखना
चाहिए। कालिदास रघु को त्रिकूट से स्थल मार्ग से फारस ले गए हैं। स्थलमार्ग
कहने से यह सूचित होता है कि फारस जाने का रास्ता समुद्र से भी था। यदि रघु
अपरान्त (बम्बई के पास का समुद्रतट) से होकर गए तो उन्होंने विंध्य पर्वत
को उसके पश्चिमी छोर पर अनूप देश के पास पार किया होगा जहाँ त्रिकूट पर्वत
पड़ा होगा। यहाँ से मार्ग मरुभूमि के किनारे-किनारे आधुनिक सक्कर होता हुआ
बोलन की घाटी पार करके खोजक अमराँ नाम के पहाड़ों के पास निकला होगा। फिर इन
पहाड़ों की परिक्रमा करते हुए जिरिश्क जाना पड़ता होगा। वहाँ से इलमन्द नदी
का किनारा पकड़े हुए दक्षिण फारस में जाने का मार्ग रहा होगा जो जरथुस्त्रा
का कार्यक्षेत्र होने के कारण बहुत पवित्र माना जाता था और जिसका लगाव
भारतवर्ष से बहुत कुछ था। कालिदास के वर्णन से प्रकट है कि उन्हें पारसियों
और पारदों के संबंध में अच्छी जानकारी थी। इतिहास में दोनों अच्छे घुड़सवार
प्रसिद्ध हैं जिसका उल्लेख कालिदास ने भी किया है। जब पारसी लोग पराजित हुए
तब उन्होंने अपनी पगड़ियाँ उतार और उन्हें गले में डाल अधीनता स्वीकार की।
पारसी लोग दाढ़ियाँ रखते थे इसका पता पुराने चित्रो और मूर्तियों से भी लगता
है।
पारसी कों को पराजित करके रघु उत्तर की ओर बढ़े जहाँ उन्हें हूणों और
काम्बोजों का सामना करना पड़ा। उत्तर से कहाँ का अभिप्राय है इसका कुछ पता
67वें श्लोक से लगता है जिसमें सिन्धु नदी पर पहुँचने का उल्लेख है। यहाँ
पर 'सिन्धु' पाठ ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि रघुवंश की नौ प्राचीन प्रतियों
में से छह में 'वंक्षु'1
1. वंक्षुयह वंक्षु नद अफगानिस्थान के उत्तर बदशाँ प्रदेश में है और उन
पाँच नदियों (पंजाब) में है जिनसे मिलकर ऑक्सस या आमू दरिया बना है जो
तुर्किस्तान की ओर जाता है। पामीर और बदखशाँ में जो अक्सु नाम की धारा है
वही ऋग्वेद का प्राचीन वंक्षु है जिसका अपभ्रंश यूनानियों ने ऑक्सस किया
रा. चं. शु।
पाठ है। मल्लिनाथ को भी 'सिन्धु' पाठ खटका था इसी से उन्हें अपनी टीका में
'सिन्धु' को काश्मीर की एक नदी लिखना पड़ा। पर दक्षिण पारस से उत्तर जाने पर
एक बार काश्मीर के उत्तर पहुँच जाना ठीक नहीं जँचता। इससे 'वंक्षु' पाठ ही
ठीक जान पड़ता है। इसी वंक्षु को यूनानियों ने ऑक्सस लिखा है और आजकल आमू
दरिया कहते हैं। ऑक्सस या आमू दरिया पाँच नदियों के मेल से बना है जिनमें
अक्साब और बक्शाब मुख्य है। इनके बीच के प्रदेश को अरबवाले खत्ताल और
फारसवाले हयताल कहते हैं। इसी हयताल शब्द के अनुसार रोमन लोग हूणों को
इफथलाइट कहते थे क्योंकि जैसा पहले कहा जा चुका है हूण लोग पहले ऑक्सस या
वंक्षु नद के किनारे ही आकर जमे थे।
इसी प्रदेश से लगा हुआ पूरब की ओर बदखशाँ है जिसे ऑक्सस या वंक्षु नद घेरे
हुए है। फारसी किताबों में इस प्रदेश की बड़ी महिमा लिखी है। यहाँ का लाल
प्रसिद्ध था और कहते थे कि यहाँ की नदियाँ सोने की रेत बिछाती हैं। बदखशाँ
और पूरब जाने पर हम वंक्षु नद के उद्गमों तक पहुँचते हैं जहाँ वक्शांब
प्रदेश है जो काश्मीर की सीमा पर पड़ता है। पामीर के नीचे वंक्षु और यारखंड
नदी के उद्गमों तथा काश्मीर के उत्तर गई हुई सिन्धु नदी की धारा के बीच
बहुत संकीर्ण प्रदेश पड़ता है जिससे होकर पुराने समय में लोग तिब्बत और
तुर्किस्तान की ओर जाते थे। वंक्षु या वक्शाब के उद्गमों तक जाने के लिए
बलख होता हुआ रास्ता गया है। अस्तु, यदि कालिदास के ध्यान में कोई सड़क रही
होगी तो यही बलख वाली जिससे होकर सिकंदर भी बलख में पहुँचा था। इस प्रकार
कालिदास के अनुसार रघु बलख तक तो उसी रास्ते से गए होंगे जिस रास्ते सिकंदर
गया। बलख से रघु पश्चिम की ओर न जाकर बदखशाँ होते हुए उत्तर पूर्व की ओर
मुड़े होंगे और कुछ चलकर कम्बोज प्रदेश की सीमा पर पहुँचे होंगे। कालिदास के
इस मार्ग से भारतवर्ष की उत्तर पश्चिम सीमा का आभास मिलता है जो पारदों के
समय से लेकर ईसा की तीसरी क्या पाँचवीं छठीं शताब्दी तक समझी जाती थी।
काम्बोजों को जीतकर रघु ने हिमालय की चढ़ाई आरंभ की। काश्मीर के पूर्व
लद्दाख होते हुए तिब्बत जाने का पुराना मार्ग है। पर उक्त प्रदेश में उस
समय दरद नामक म्लेच्छ बसते थे जिनका कोई उल्लेख कालिदास ने नहीं किया है।
इससे जान पड़ता है कि कालिदास रघु को पूरब की ओर से किसी दूसरे मार्ग से ले
गए हैं क्योंकि 73वें श्लोक के अनुसार रघु की सेना ने गंगा के शीतल जलकण
मिली हुई वायु से अपनी थकावट मिटाई थी। कैलाश के दिखाई पड़ने का भी उल्लेख
है। इससे कालिदास का यही अभिप्राय जान पड़ता है कि रघु गंगोत्री और केदारनाथ
के रास्ते हिमालय से उतरे।
कालिदास के वर्णन से इतना तो स्पष्ट है कि उनके समय में हूण लोगवंक्षु या
ऑक्सस नदी के उत्तरी तट पर बसे थे जो ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी में
(जबकि एशिया और यूरोप में उनका अधिकार खूब फैला था) उनका प्रधन स्थान रहा।
उस प्रदेश में हूण कब आए इस प्रश्न के साथ यह भी संशय हो सकता है कि संभव
है हूणों के वहाँ बसने के पूर्व जो जाति वहाँ रहती हो उसे भारतवासी हूण
कहते रहे हों। पर इसका कोई प्रमाण या आधार नहीं मिलता।
चीन के इतिहास में हूण
हूणों का नाम चीन के इतिहास के आरंभ से ही मिलने लगता है। यह जाति खास चीन
के उत्तर पश्चिम कोने पर बसती थी। चीनियों में इस जाति के नाम कई रूपों में
लिखे मिलते हैं पर सबका उच्चारण प्राय: एक ही सा है। हूणों का सबसे पुराना
नाम ह्यून-यू मिलता है। पीछे वे ही ह्यान-युन और फिर हयंग-नू कहलाने लगे।
इन सब नामों में सामान्य ध्वनि 'हुन' है जिसे लेकर फारसी वालों ने हुनू और
संस्कृत वालों ने हूण किया। ये हयंग-नु तुरुष्क, मंगोल और हुनू लोगों के
अगुआ थे जिन्होंने ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी में सारे यूरोप और एशिया
में हलचल मचा दी थी। ये अपने को 'हया' वंश का बतलाते थे जिसकी प्रतिष्ठा
ईसा से 2205 वर्ष पूर्व कुन नामक मंत्री के पुत्र 'यू' ने की थी। इस वंश का
सत्रह्वाँ राजा ईसा से 1766 वर्ष पूर्व अपने अत्याचारों के कारण निकाल दिया
गया। उसका बेटा शुं-वेई 500 हयावंशियों के साथ चीन के उत्तरी प्रान्त में
जाकर बस गया। चीनी कथाओं के अनुसार उसी शुं-वेई और उसके साथियों के वंशज
हयंग-नु थे। चीन का इतिहास लिखते हुए डॉक्टर हार्थ लिखते हैं''ह्नांग-टी के
समय में पहले पहल हुन-यू जाति का नाम मिलता है जो उसके राज्य के उत्तर बसती
थी और जिससे उसे कई बार लड़ना पड़ा था। चीनियों के अनुसार ये हुन-यू वे ही थे
जो पीछे से हयंग-नु कहलाए और चीन के बादशाओं से बराबर लड़ते आए। बात कहाँ तक
ठीक है नहीं कहा जा सकता पर इतना तो अवश्य है कि चीनियों में यह जनश्रुति
परंपरा से चली आती थी कि, प्राचीन काल में चीन की उत्तरी सीमा पर हुन-यू
नाम की एक जाति बसती थी जिसके वंश्धर हयंग-नु या हूण थे जिनका इतिहास में
इतना नाम है। इसी हयंग-नु वंश के खाँ (सरदार) ईसा से लगभग 100 वर्ष पूर्व
सुग्धा राज्य (समरकंद के आसपास का प्रदेश) में बसे और आसपास की जातियों से
कर वसूल करने लगे। यहीं से तातारों का पश्चिम की ओर फैलना आरंभ हुआ। और वे
धीरे-धीरे यूरोप के पूर्वी भागों तक फैले।''
ईसा से छह सौ वर्ष पहले चीन साम्राज्य के सात खण्ड हो गए- शू, चाओ, वेइ,
हन, यन-चाओ, त्सी, और त्सीन। इनमें से उत्तरी राज्य यन-चाओ और त्सीन (शीन
या चीन) हयंग-नु के पड़ोसी थे। ईसवीं सन् से 321 वर्ष पूर्व शेष छह राज्यों
ने मिलकर त्सीन राज्य पर चढ़ाई की, पर त्सीन राज्य ने उन सबको परास्त किया
और त्सीन राजवंश का शी-ह्नांग -टी ही सारे चीन का एकछत्र राजा हुआ (ईसा से
246 वर्ष पूर्व)। यह बड़ा प्रतापी राजा हुआ। इसने सामन्त राज्यों की
व्यवस्था तोड़ दी और भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी ओर से शासक नियुक्त करके
भेजे। राज्य भर में इसने बहुत सी नहरें और सड़कें बनवाईं तथा प्रजा की
सुविधा के लिए और भी बड़े-बड़े काम किए। अपने राज्य में सब प्रकार से शांति
स्थापित करके शी-ह्नांग-टी ने चीन के पुराने शत्रु हयंग-नु तातारों पर चढ़ाई
की जिनके आक्रमणों से चीन के लोग तंग थे। उसने चीन के बिलकुल पास बसने वाले
हयंग-नु लोगों का ध्वंस किया और जो बचे उन सबको भगाकर मंगोलिया प्रदेश में
कर दिया। इस प्रकार शत्रुओं का दमन करके उसने चीन साम्राज्य की सीमा बहुत
बढ़ाई। सबसे भारी काम तो उसने यह किया कि हयंग-नु तातारियों की रोक के लिए
कहकहा दीवार पूरी कराई जो संसार के अद्भुत पदार्थों में है। इस दीवार का
बनना ईसा से 214 वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था। पुरानी चाल के पंडित लोग सामन्त
व्यवस्था के पक्ष में बहुत कुछ कहा करते थे और प्रमाण में प्राचीन इतिहासों
के दृष्टान्त दिया करते थे। इस पर शी-ह्नांग-टी इतना बिगड़ा कि उसने अपने
राज्य का सारा पुराना इतिहास नष्ट करा दिया। उसकी इस बर्बरता का बहुत कुछ
प्रायश्चित उसके पुत्र ह्नेंग-टी (194-179 ईसा से पूर्व) ने किया जो भारतीय
सम्राट् पुष्यमित्र और खारवेल तथा वाधीक देश (बलख) के यवन राजा मिनांडर
(बौद्धो के मिलिंद) का समकालीन था।
हूण और यू-ची
शी-ह्नांग-टी के राजत्वकाल के पिछले दिनों में हयंग-नु तातारों का राजा
अपने पुत्र माओं-तुन द्वारा मार डाला गया। माओं-तुन बड़ा प्रतापी हुआ। उसने
अपना राज्य जापान समुद्र से लेकर यूरोप में वोल्गा नदी के किनारे तक बढ़ाया।
यहीं तक नहीं, उसके पिता के समय में उत्तर चीन का जितना भाग चीनियों ने
निकाल लिया था उसने 300000 सेना लेकर उस पर फिर अपना अधिकार जमा लिया। पहले
कहा जा चुका है कि शी-ह्नांग-टी के पीछे उसका पुत्र ह्नेंग-टी गद्दी पर
बैठा जिसने विद्या और साहित्य की बहुत उन्नति की, बहुत से पुस्तकालय खोले
और अपने पिता द्वारा पहुँची हुई हानि की बहुत कुछ पूर्ति की। उसके राज्य
में चारों ओर सुख शांति थी। पर हयंग-नु लोगों के आक्रमण बन्द नहीं हुए थे
इससे चीन सम्राट ने उनका उच्छेद अत्यन्त आवश्यक समझा। हयंग-नु लोगों के जब
चीन पर सब आक्रमण व्यर्थ हुए और वे हर बार हटा दिए गए तब उन्होंने अपना
क्रोध यू-ची लोगों पर निकाला जो कं-सू राज्य के पश्चिम में पड़ते थे। यू-ची
लोग अपने स्थान से एकबारगी थियान-ज्ञन पर्वत के पार तुर्किस्तान और
कैस्पियन सागर के बीच के प्रदेशों में भाग दिए गए। चीनी सम्राट ने अच्छा
अवसर देख यूचियों से संधि का प्रस्ताव किया जिसमें बड़ी सफलता हुई। संधि का
प्रस्ताव लेकर चंग-किन नामक जो राजदूत पश्चिम गया था उसे बलख (वाधीक) तक
जाना पड़ा था क्योंकि यूचियों का अधिकार उस समय बलख तक हो गया था। बलख तक
पहुँचने पर उस चीनी राजदूत का ध्यान भारतवर्ष की ओर गया और बहुत से
पेड़-पौधो और जन्तु तथा सभ्यता के बहुत से आचार व्यव्हार पश्चिम से चीन में
गए। बू-टी (140-86 ईसा पूर्व) के समय में हयंग-नु लोगों का बल टूट गया और
पूर्वी तुर्किस्तान चीन साम्राज्य के अंतर्गत हुआ। फिर तो फारस और रोम तक
से चीन का व्यापार स्थापित हो गया और व्यापारी बेधड़क एक देश से दूसरे देश
में जाने लगे। ईसवीं सन् के आरंभ में चीन में हान वंश (जिसमें ह्नेटी और
बू-टी आदि थे) के हाथ से राज्य निकल गया। सन् 58 ई. के लगभग उसी वंश के
राजा ने फिर शांति स्थापित की। उसी के पुत्र मिंग-टी के समय में अर्थात्
सन् 65 ईसवीं में बौद्ध धर्म भारत से चीन पहुँचा। इसी समय के लगभग प्रसिद्ध
सेनापति पन्-चाओ तुर्किस्तान में शन्शन् के राजा के पास चीन का राजदूत होकर
गया जिसके प्रभाव से शन्शन्, खुतन और काशगर के राज्य चीन साम्राज्य के
आज्ञानुवर्ती हुए। इसी समय से समझना चाहिए कि हयंग-नु जाति चीन के उत्तर से
सब दिन के लिए भगा दी गई। अपने स्थान से हटने पर हयंग-नु लोगों से सुग्धा
देश (समरकन्द के आसपास का प्रदेश) पर अधिकार किया और अलान (जो पूर्वकाल में
यन-शाई कहलाते थे) लोगों को परास्त करके उनके राजा को मार डाला। यहीं से
उनके दल यूरोप और एशिया के कई भागों में बढ़ते गए और हूण के नाम से प्रसिद्ध
हुए। यह तो हुई चीन के उत्तर में बसने वाले हयंग-नु की बात। जो हयंग-नु
दक्षिण में बसे थे वे सब सन् 215 ईसवीं में चीन सम्राट के अधीन हो गए। आगे
चलकर थोड़े ही दिनों में जब परस्पर विरोध के कारण चीन की शक्ति उतनी न रही
तब चौथी शताब्दी में हयंग-नु लोगों ने चीन पर फिर आक्रमण किया। इस बार वे
हूण के नाम से जगत्प्रसिद्ध हो गए थे, भारत की सीमा से लेकर रोमन साम्राज्य
की सीमा तक वे फैले थे।
क्या हयंग-नु और हूण एक ही थे
हूणों के संबंध में तीन प्रकार के मत अब तक प्रचलित थे। कुछ लोग हयंग-नु और
हूणों को एक बताते थे, कुछ लोग हूणों को तुरुष्क कहते थे और कुछ लोग मंगोल।
पर अब अनेक प्रमाणों द्वारा हयंग-नु लोगों का हूण होना सिद्ध हो गया है।
रोम के संत हिरनिमस का बनाया हुआ एक नक्शा लन्दन के अजायबघर में रखा है
जिसमें चीन साम्राज्य की सीमा पर 'हुनिस्काइड' (हूण-शक) नाम मिलता है। यह
नक्शा ईसवीं सन् 376 और 420 के बीच का बना हुआ है जबकि हूण लोग यूरोप में
पहुँच चुके थे। हिरनिमस के शिष्य ओरोसियस ने एक भूगोल लिखा था जिसका
अंग्रेजी में अनुवाद इंगलैंड के पुराने बादशाह आलफ्रेड ने किया था। इस
भूगोल में हुनि-स्किद (हूणा-शक) नाम मिलता है। सबसे अधिक ध्यान देने की बात
तो यह है कि यह नाम ओत्तारकोरा (उत्तरकुरु) के पास ही रखा गया है। ऊपर जिस
नक्शे का उल्लेख हुआ है वह एक पुराने नक्शे के आधार पर बना था जिसे रोमन
सम्राट ऑगस्टस ने ईसा से सात वर्ष पूर्व बनवाया था। इससे सिद्ध है कि
हयंग-नु काल के रोमन लेखकों ने चीन के दीवार के पास बसने वाले हूणों का नाम
सुना था, यद्यपि वे उनका इतिहास नहीं जानते थे। स्ट्रेबो ने भारतवर्ष का
उल्लेख करते हुए लिखा है, ''यवन (यूनानी) लोगों ने वाधीक देश (बलख) में
विद्रोह मचवाया और इतने प्रबल हो गए कि हिन्दुस्तान और ईरान के बहुत से
भागों के स्वामी हो गए। उनके राजा मिनांडर (मिलिंद) ने सिकंदर से भी अधिक
जातियों को जीता। मिनांडर और डिमेट्रियस दोनों ने बहुत से देश विजय किए।
उन्होंने पाटलीन (पाटल) को ही नहीं लिया बल्कि सराओस्टल (सौराष्ट्र) और
सिगार्टिस पर भी अधिकार जमाया जो समुद्र तट के देश हैं। अयोलोडोरस कहता है
कि बलख सारे ईरान का शिरोमणि है। उन्होंने अपना राज्य सिरीज और फ्रिनी के
देशों तक बढ़ाया।''
हूण-अरण्यवासी और राक्षस
ऊपर के उद्धरण में फ्रिनी शब्द भ्रम से फानी के स्थान पर लिखा गया है,
जिसका अर्थ अरण्यवासी होता है। हूणों के अरण्यवासी होने की बात गाथिक लोगों
में भी प्रसिद्ध थी। गाथिक इतिहासकार कसिओडोरस के ये वाक्य और ग्रंथो में
उध्दृत मिलते हैं।
''उन दिनों में हूण लोग जो पहले बहुत दिनों तक दुर्गम पर्वतों के बीच रहे,
गाथ लोगों पर एकाएक टूट पड़े, और उन्हें तंग करते-करते देश से बाहर निकाल
दिया और देश को अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रचंड लड़ाकू जाति की उत्पत्ति
पुरानी कथाओं में इस प्रकार मिलती है।''
''गाथों के राजा फिलिमर को, जो स्कैंजा द्वीप से आकर बसे हुए जेटे लोगों पर
राज करता था, जब वह स्वजातियों के दल के साथ शक देश में पहुँचा तब मालूम
हुआ कि उसके दल में कुछ 'मग स्त्रियाँ' हैं। उन स्त्रियों पर अनेक प्रकार
के संदेह करके उसने उन्हें अपने दल में से निकाल दिया और वे बहुत दिनों तक
इधर-उधर फिरती रहीं।''
इस उदाहरण से पता चलता है कि गाथ लोग अरण्यवासी हूणों को हूण पिता और मग
माता से उत्पन्न मानते थे।
मिनांडर और हूण
हयंग-नु लोगों को उस समय साधारण लोग वन-दैत्य कहते थे। पारसी लोग भी उन्हें
देव ही समझते थे। प्राचीन यूनान और रोमन लोगों ने जिन्हें फानी (अरण्यवासी)
लिखा है, वे ये हयंग-नु ही थे, इसका प्रमाण स्ट्रेबो के लेख से मिलता है।
स्ट्रेबो के भूगोल के अनुसार मिनांडर ने ईसा से 600 वर्ष पूर्व अपना राज्य
चीन की सीमा और फानी लोगों के देश तक बढ़ाया। यह पहले ही लिखा जा चुका है कि
मिनांडर के समय में चीन का बादशाह ह्ने-टी था। अस्तु, आयोलोडोरस नामक
वाधीकवासी यवन (यूनानी) ने अपनी पार्थिका (पारद देश के वृत्तांत) में जिस
फानी राज्य का उल्लेख किया है वह हयंग-नु राज्य ही था, जिसका शासक उस समय
परम प्रचंड माओन्तुन था। चीनियों के लेखों से तो इस बात का पूरा निश्चय हो
जाता है। चीनी हयंग-नु लोगों को क्वै-फांग भी कहते थे। 'क्वै' शब्द का अर्थ
है दैत्य या दानव। एक चीनी पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि 'यिन' वंश के लोग
उन्हीं को क्वै फांग कहते थे जिन्हें पहले 'हान' वंश (जिसमें शी-ह्नां टी
और ह्नेटी थे) के लोग हयंग-नु कहते थे। प्राचीन चीनी इतिहासकार सी-म-चंग ने
भी ऐसा ही लिखा है सी-म-चंग के अनुसार यव-शोन के समय में शोन-बे कहलाते थे।
'इन' वंश के समय में उनके देश को क्वै-फांट कहते थे। 'चाओ' के समय में वे
हून-यून और 'हान' वंश के समय में हयंग-नु कहलाते थे।
ऊपर के विवरणों से स्पष्ट है कि हयंग-नु लोगों को किसी समय चीनी लोग भी
दैत्य दानव कहते थे और यह बात जनसाधारण के बीच फैलते-फैलते रोमन लोगों तक
पहुँची। अस्तु, इसमें अब कोई संदेह नहीं रहा कि हयंग-नु और हूण को उनके
पड़ोसी चीनी एक ही समझते थे।
हूणों का मातृकुल-मसाजेटे
हूणों के मातृकुल पर विचार करने से यही प्रतीत होता है कि मग स्त्रियाँ
जिनका ऊपर उल्लेख हुआ है जेटे जाति की थीं जो चीन के किनारे बसती थीं।
यूनानी (यवन) और रोमन लेखक हूणों को मसाजेटे जाति से निकले हुए मानते थे।
अमिएनस मार्सेलिनस ने तो स्पष्ट लिखा है कि हूण लोग आलन लोगों से मिलते
जुलते थे जो यूरोप के डोन नदी से लेकर सिन्धु नदी तक फैले थे और पहले
मसाजेटे कहलाते थे। हयंग-नु लोगों द्वारा उनके पराजित होने के पहले चीनी
उन्हें अनसाई या यनसाई कहते थे। मग स्त्रियों से जो हूणों की उत्पत्ति मानी
जाती थी वह इस कारण कि मग स्त्रियाँ जादू-टोना करने में प्रसिद्ध थीं। ऐसी
मायाविनी स्त्रियों से हूण जैसे दैत्यों को उत्पन्न मानना स्वाभाविक ही था।
भारतीय ग्रंथो में पता
यह पहले ही कहा जा चुका है कि ओरोसियस के भूगोल में हूण-शक उत्तरकुरु के
पास रहते थे। संस्कृत ग्रंथो में उत्तरकुरु जाति हिमालय के उस पार कही गई
है। पुराणों में तो उत्तरकुरु विलक्षण रंगरूप के और अत्यंत दीर्घजीवी लिखे
गए हैं। प्राचीन यूनानियों ने भी उनका ऐसा ही पौराणिक वर्णन किया है। पर
महाभारत में उनका मनुष्य ही के रूप में वर्णन हुआ है और लिखा है कि पांडु
के समय में उनके यहाँ एक स्त्री कई पति करती थी। और अधिक प्राचीन ग्रंथो की
ओर जाते हैं तो उनमें उनका सीधा-सादा उल्लेख मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण ने
लिखा है कि वे हिमालय के उस पार बसते थे। उत्तरकुरु यद्यपि देवभूमि कहा गया
है पर यह भी लिखा गया है कि वशिष्ठ सत्यहव्य का शिष्य ज्ञानन्तपि अत्याराति
उसे जीतना चाहता था। इसे हम किस्सा कहानी नहीं मान सकते। उत्तरकुरु के साथ
ही हमें उत्तरमद्रों का उल्लेख मिलता है जिनका बहुत कुछ संबंध काम्बोजों से
था। काम्बोज औपमन्यव मद्रगार का शिष्य कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण में एक
आख्यान है कि कुरुपांचाल ब्राह्मणों और उत्तरीय ब्राह्मणों के बीच झगड़ा हुआ
जिसमें उत्तरी ब्राह्मणों की विजय हुई। आख्यान में यह भी है कि उत्तरी
ब्राह्मणों की भाषा कुरुपांचालों की भाषा से मिलती जुलती थी। उनकी भाषा
बहुत विशुद्ध मानी जाती थी। और बहुत से ब्राह्मण अध्ययन के लिए उत्तराखंड
में जाते थे। बौद्ध कथाओं से भी यह जाना जाता है कि गांधार बहुत दिनों तक
प्रधन विद्यापीठ रहा जहाँ बड़े-बड़े राजकुमार राजनीति आदि की शिक्षा के लिए
जाते थे। बुद्ध के समय में कोशल के राजा प्रसेन्जित शिक्षा के लिए तक्षशिला
गए थे। सिंहलद्वीप के इतिहास ग्रंथ महावंश में लिखा है कि जिस समय महास्तूप
बन रहा था उस समय कुछ श्रमण एक विशेष प्रकार का पत्थर लाने के लिए
उत्तरकुरु भेजे गए थे। अस्तु यदि हम उत्तरकुरु टारिम के कछार के उस स्थान
को मानें जो अब चीनी तुर्किस्तान कहलाता है तो असंगत न होगा। उत्तरकुरु को
चीन और भारत सीमा पर तथा हयंग-नु के पास होना चाहिए।
हुएन्सांग के वर्णन में खुतन के पश्चिम 'चूहों' का उल्लेख
हयंग-नु लोगों का स्थान यही था इसका प्रमाण हुएनसांग के वर्णन में मिलता
है। लिखता है, ''पुराने समय में हयंग-नु का एक सेनापति लाखों का दल लेकर इस
प्रदेश (खुतन) को लूटने आया था। पर बड़े भीमकाय चूहों ने जो खुतन से कुछ दूर
पर रहते थे आकर हयंग-नु के दल का बात ही बात में ध्वंस किया।''
हयंग-नु के हूण प्रदेश में पहुँचने के लिए सिता नदी पार करना पड़ता है। इसी
को पुराणों में सीता लिखा है जो मेरु से निकली हुई सात पवित्र नदियों में
से है। महाभारत में इसी का नाम शैलोदम लिखा है जो यूनानी और रोमन लोगों के
बीच 'सिलास' के नाम से प्रसिद्ध थी। अब यह स्पष्ट हो गया कि उत्तरकुरु
प्रदेश टारिम के कछार में था और जिसे आजकल तकला-मकान का रेगिस्तान कहते
हैं, उसके उत्तर पश्चिम किनारे पर थियानशन पर्वत के पूर्वी ढाल की ओर पड़ता
था1A
(नागरीप्रचारिणी पत्रिाका, 1919 ई.)
[ चिंतामणि, भाग-4 ]
1.
Indian Antiquity
में प्रकाशित प्रो. कृष्णस्वामी ऐयंगर एम. ए. के लेख
का आधार।
रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा विमर्श-
भाग
- 1
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भाग
-2
//
भाग
-3 //
भाग
- 4
//
भाग
- 5 //
भाग
-6 //
भाग - 7
//
भाग
- 8
//
भाग
- 9 //
भाग
- 10 //
भाग
-11
//
भाग
- 12
//
भाग
-13 //
भाग
-14
//
भाग
- 15 //
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