रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा, साहित्य और समाज विमर्श
इतिहास और समाज विमर्श
असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियाँ
भाग
-
10
संसार में कहीं भी जनसंख्या का व्यापारिक एवं अव्यापारिक श्रेणियों में
विभाजन इतना स्पष्ट लक्षित नहीं है जितना भारत में। जाति की प्रथा ने
मानवता के वंशानुगत प्रकारों के विकास को प्रभावित किया जो अंतत दो स्पष्ट
समूहों में निर्धारित हो गए। ब्रिटिश शासन द्वारा उत्पन्न प्रतिकूल
परिस्थिति के बावजूद राजनीतिक एवं कृषक श्रेणियाँ आधुनिक वाणिज्यवाद की धूम
के बीच अपने को व्यापारिक लक्ष्यों से अलग रखने में सफल रहीं। राज्य शासन
के उद्देश्यों के निमित्त भारतीय शासकों ने अव्यापारिक राजनीतिक श्रेणियों
को स्थायी रूप से भूमि से संबंध करके तथा उन्हें राजकीय सेवाएँ देकर उनके
लिए एक पृथक् प्रभाव क्षेत्र को सम्पोषित किया। इस प्रकार समाज में पूरा
संतुलन कायम रखा गया। जबकि व्यापारिक वर्ग धन संग्रह करने में लगे हुए थे,
राजनीतिक एवं कृषक वर्ग उतनी ही आय से सन्तुष्ट थे, जो सत्तापूर्ण पद या
उनके क्षेत्र का पार्थक्य कायम रखने हेतु यथेष्ट हो। अधिक प्रतिष्ठित
कुटुम्ब अनुदानों द्वारा वशीभूत किए गए थे जबकि इतर जन उत्पादन के निमित्त
उनसे भूमि खंड पाते रहते थे। व्यावसायिक श्रेणियों के लिए एक पेशे के रूप
में कृषि बहुत पहले ही अपना आकर्षण समाप्त कर चुकी थी तथा अन्य लोगों के
साथ राजनीतिक वर्ग की अपेक्षाकृत निर्बल श्रेणियों द्वारा सम्पादित की जा
रही थी। साम्राज्यगत शक्ति युद्ध के समय जन एवं सामग्री के लिए इन्ही पर
निर्भर रहती आई है, जैसा कि अंतत: इसने विश्वयुद्ध में किया।
जनसमुदाय एवं उनकी वृत्तियों का व्यापारिक एवं अव्यापारिक श्रेणियों में
विभाजन आज भी उतना ही यथार्थ है जितना दो हजार वर्ष पूर्व था। अब भी
अव्यापारिक वर्ग के जीविकोपार्जन का मुख्य स्रोत खेती या सरकारी सेवा है।
पैतृक गाँव छोड़ने की प्रवृत्ति होने पर ब्राह्मण या क्षत्रिय शहर की गलियों
में वस्त्र विक्रेता न होकर सरकारी नौकर होना चाहेगा। उसी प्रकार एक सेवारत
कायस्थ जिसने संयोग से कुछ बचत कर ली है फुटकल परचून की दुकान खोलने के
बजाय जमींदारी खरीदने का विचार करेगा (जैसा कि वह अब क्रय की वस्तु बना दी
गई है)। वे या तो मिट्टी से संयुक्त रहना पसन्द करते हैं या वेतन के रूप
में उसी के राजस्व अंश पर स्वयं को दावा करने योग्य बना लेते हैं। इसमें
कुछ भी कौतूहलजनक नहीं है। पश्चिम के बड़े बड़े व्यावसायिक देशों में भी लोग
व्यवसाय से धनोपार्जन करने के स्थान पर सरकार के अधीन कार्यरत देखे जा सकते
हैं। भारत में एकमात्र अंतर यह है कि यह मनोवृत्ति यहाँ वंशानुगत है और
जनसमुदाय के खास भागों में ही लक्षित होती है।
अंग्रेजों के आगमन के पूर्व इन दोनों में से प्रत्येक समुदाय अपने-अपने
क्षेत्र में सन्तुष्ट थे। एक समुदाय धनोपार्जन की निजी परियोजनाओं में
पूर्णतया दत्ताचित्त था तो दूसरा समुदाय अपनी जीवनचर्या में राज्य को सैनिक
तथा लोक-सेवाएँ अर्पित करने की यथेष्ट भूमिका निभाता था। दोनों की स्थिति
एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न समझी जाती थी। शासक सौदागर नहीं हो सकता था,
सौदागर शासक नहीं बन सकता था। इस युक्तिसंगत सिद्धांत से अनभिज्ञता अथवा
इसकी उपेक्षा ने पुरातन क्लासिक्ल देशभक्ति के संकीर्ण विचारों के साथ जुड़
कर यूरोप के लगभग सभी राज्यों को बेरहम शोषकों के इतने अधिक समूहों में बदल
दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में यूरोप के घृणित व्यापारवाद ने भारत में
कदम रखा और समाज के द्विस्तरीय विभाजन के आधार पर जो सामंजस्य इतने दिनों
से चला आ रहा था उसे अस्त-व्यस्त कर दिया। कंपनी अपने व्यापारिक प्रचार
प्रसार के लिए बनियों पर आश्रित थी। इसलिए उसने केवल उन्हीं के अनुकूल
परिस्थितियाँ उत्पन्न की। कंपनी के गुमाश्ता और एजेन्ट की हैसियत से
वृहत्तम लाभ कमाने के अतिरिक्त उन्होंने अपने क्रय के लिए ही दूसरों से
खाली कराई गई जमीन भी हासिल कर ली। बड़े क्षेत्रों के राजस्व का कार्यभार
उन्हें सौंपा गया, वे ही दीवान बनाए गए एवं अन्य अनेक उपायों से उन्होंने
महत्व अवाप्त किया। इस नई राजनीतिक प्रतिष्ठा का उन्होंने क्या उपयोग किया
यह इतिहास के विद्यार्थी को अज्ञात नहीं है। बर्क ने अपनी पुस्तक
'हेस्टिंग्ज का इंपीचमेंट' में इस स्थिति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया है।
भूमि से कृषक श्रेणियों के संबंध का स्थायित्व सदा के लिए लुप्त हो गया और
वे उत्तरोत्तर बढ़ती कंगाली की अवस्था में छोड़ दिए गए। लोभी वकीलों की सेना
के साथ न्यायालयों ने उनकी बरबादी पूरी कर दी। कानूनी जटिलताओं के कारण
मुकदमा भूमिगत हितों का ऐसा अपरिहार्य लक्षण हो गया है कि सरकारी माँगों के
भुगतान के बाद औसत जमींदार के पास कुछ शेष नहीं बचता। वे भूमि पर अपना
कब्जा बनाए रखना अब संभव नहीं पा रहे। उन शहरी महाजनों के हाथ में उनकी
अधिकांश भूमि हस्तांतरित हो गई और अब भी होती जा रही है जो केवल अपने
अतिरंजित शक्तिवर्धन के लिए भूमि ढूँढ़ते फिरते हैं। सरकारी भूराजस्व नीति
बहुत हद तक जमीन के सच्चे अधिकारी एवं कृषक श्रेणियों की शोचनीय अवस्था के
लिए उत्तरदायी है। जमीन और मिट्टी पर जनसंख्या के दबाव से उत्पन्न
कठिनाइयों के अतिरिक्त भूमि अधिकारी या कृषक प्रत्येक अवसर पर किसी राजस्व
कर्मचारी या अन्य को अपना उत्पीड़न करते हुए पाता है। व्यापारिक क्षेत्र के
विरुद्ध इस प्रकार की कोई व्यापक तंत्र व्यवस्था नहीं है। व्यापारिक समुदाय
के पक्ष में विदेशी व्यवसाय द्वारा उद्योग हेतु उत्पन्न विस्तृत सघन
क्षेत्र शासन से एकदम अनदेखे गुजर जाते हैं और सरकार पुरानी रीतियों का
अनुगमन करती हुई अब भी जमीन को राजस्व का मुख्य स्रोत मानती चली आ रही है।
जमीन से जुड़े हुए वर्ग इतने बुरे तरीके से प्रभावित न होते यदि उनका मामला
सरकार के सामने प्रस्तुत कर दिया जाता।
जमीन से जुड़े वर्ग जबकि प्रतिदिन इस प्रकार विनाश की ओर खींचे जा रहे हैं,
नगरों के बनिया आयात निर्यात उद्योग द्वारा प्रचुरतम लाभ पैदा कर रहे हैं।
स्वदेशी उद्योगों का विध्वंश उनके लिए अभिनदनीय हुआ। कलकत्ता, बम्बई तथा
अन्य औद्योगिक केन्द्रों में मारवाड़ियों का विपुल आप्रवासन इस तथ्य का
पर्याप्त संकेत करते हैं। सरकारी माँगों की बलपूर्वक वसूली जमींदारों से और
उसके परिणामस्वरूप किसानों से होती है। इसकी तुलना में महाजन या उद्योगपति
को अपने वृह्द लाभों में से कुछ नहीं देना पड़ता। जबकि एक वर्ग सरकार द्वारा
अपने ऊपर लादी गई असुविधाओं के मातहत श्रम कर रहा है और दूसरा वर्ग ब्रिटिश
संरक्षण के सारे आशीर्वादों का पूरा आनंद लेता हुआ उनका मजाक उड़ा रहा है।
जितनी जल्दी यह विसंगति दूर की जाय उतना ही अच्छा है। चूँकि भारतीय
जनसंख्या का प्रधान भाग गाँवों में बसता है, इसलिए सरकार के ध्यान पर इसके
हित का सर्वप्रथम अधिकार है। आशा की जाती है कि उन सामान्य जनों के प्रति
अनिवार्य कर्तव्य के पूर्ण बोध से सरकार शीघ्र ही जागृत होगी जिनके पास वह
आपातकालीन स्थिति में स्वभावत: आशान्वित होकर धन, सामग्री एवं जनशक्ति के
लिए पहुँचती है। उनकी प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना के लिए उनके पक्ष में
राजस्व कर का पुनर्निधारण, संरक्षात्मक कानून, जमीन संबंधी कानूनों का
सरलीकरण, ग्रामीण न्याय परिषदों की स्थापना तथा इसी प्रकार के अनेक उपाय
आवश्यक हैं। उनकी संवेदना तथा भावनाओं का सम्मान करना होगा।
जिन व्यक्तियों के पास शासकीय सत्ता नहीं है या जो शासक परिवार के नहीं हैं
उन्हें राजा महाराजा की उपाधि से विभूषित किए जाने को बहुसंख्यक हिन्दू
अपने राष्ट्रीय गौरव के लिए अत्यधिक अपमानजनक समझते हैं। अब यह देखना है कि
सरकार इस अपमानजनक उपहास को समाप्त करने का उपाय कब तक करती है। जैसा कि
प्रत्येक व्यक्ति जानता है, 'राजा' शब्द का अर्थ 'किंग' या कम से कम शासक
राजकुमार है। क्या कोई 'किंग' की उपाधि से किसी अंग्रेज को या बादशाह की
पदवी से किसी मुसलमान सज्जन को विभूषित करने का विचार कर सकता है? 'राजा'
शब्द सम्पत्ति का नहीं वरन् शासकीय सैनिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।
उत्तर प्रदेश और अवधा में क्षत्रिय परिवार हैं जिनके पूर्वज वास्तविक शासक
रहे हैं। कब और कैसे वे सत्ता खो बैठे यह स्पष्टत: ज्ञात नहीं है। राजा की
पदवी यदि इन परिवारों में कायम रहती है तो इसे विरासत माना जा सकता है
जिससे उनके साथ संबंध निर्वाह करते रहने वाले राजकुमार भी ईष्या नहीं महसूस
करेंगे। सामान्यतया वे प्राचीन अच्छे परिवारों का प्रतिनिधित्व करते हैं और
उनकी रियासतें किसी मध्यकालीन अधिपति से प्राप्त अनुदान या किसी पर विजय की
परिणाम रही हैं। (रिपोर्ट ऑन दी इंडियन कांस्टीच्यूशनल रिफार्म) उनकी
स्थिति की खोजबीन के साथ उन सबके लिए सैनिक पेशे के दरवाजे खुले रखना
आवश्यक है। रायल मिलिट्री कॉलेज, सैन्डहर्स्ट में अपने पुत्रों को भेज सकने
का अवधा के तल्लुकेदारों द्वारा अभी हाल ही में प्राप्त विशेषाधिकार उनके
सच्चे चरित्र का बहुत दूर तक पुनर्जीवन करेगा। रिसायतों के लिए सैनिक
सेवाओं के आरक्षण का कानून बनाना सरकार का अनिवार्य कर्तव्य है।
यह समझने के लिए कल्पना का अधिक प्रयास अपेक्षित नहीं है कि देश में अभी
हाल में राजनीतिक क्रियाकलापों का जो स्वरूप उभर कर सामने आया है, वह बहुत
हद तक व्यापारिक समुदाय के अचानक अंत:प्रवेश के कारण है। लगभग चार वर्ष
पूर्व मुझे कलकत्ता का एक मारवाड़ी नवयुवक मिला था, जिसने अभी अपनी
विद्यालयी शिक्षा भी नहीं पूरी की थी, किन्तु राजनीति के नाम पर तमाम तरह
की अनर्गल बातें कर रहा था और रहस्यवादी शक्ल में मि. गांधी के व्यक्तित्व
की विवेचना कर रहा था। मैंने निशक्त: उसके अंदर ऐसे व्यक्तियों के टाइप
देखे जो राजनीतिक क्षेत्रों में तेजी से अपना मार्ग बना रहे हैं। मि. गांधी
यूरोपीय आन्दोलनकारी के सारे युक्ति कौशल में प्रशिक्षित होकर दक्षिण
अफ्रीका से आए हैं। आन्दोलनकारी के रूप में वे अतुलनीय हैं। भारत को उनके
जैसे व्यक्ति की अत्यधिक आवश्यकता थी। किन्तु आन्दोलनकर्ता समस्त मामलों
में एक अच्छा प्रशासक भी सिद्ध होगा, यह मेरे सामने उतना स्पष्ट नहीं है।
मि. गांधी उन बिन्दुओं को अच्छी तरह जानते हैं जिन्हें स्पर्श किया जाय तो
वे तीव्रतम उत्तेजना पैदा कर सकते हैं। उनके अर्ध धार्मिक अर्ध राजनीतिक
प्रवचनों ने करोड़ों के हृदय झकझोर दिए। व्यापारिक समुदाय को तो लगभग
मतान्धाता की ओर परिचालित कर दिया है। इसका ही यह परिणाम था कि कलकत्ता के
विशेष काँग्रेस अधिवेशन में वयोवृद्ध एवं सम्मानित नेता केवल नगण्य ही नहीं
हुए अपितु उनके अनुयायियों द्वारा वे खुलेआम अपमानित भी किए गए। हमें नहीं
मालूम कि मि. गांधी सदैव यह अनुभव कर पाते हैं अथवा नहीं कि उनके शब्दों से
कभी-कभी ऐसे परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं, जो उनकी पकड़ से बाहर हैं। हमें तो
यही दिखाई देता है कि उनकी अहिंसा किसी भी प्रकार शांति एवं व्यवस्था का
पर्याय नहीं है।
मनोभूमि के जो ढाँचे अहिंसा के सिद्धांत से सहमत हुए, उनका संक्षेपीकरण इस
प्रकार किया जा सकता है:-
1. पंजाब के नृशंस अत्याचारों के विरुद्ध सत्यनिष्ठ और सहज राष्ट्रप्रेम
युक्त क्रोध तथा सरकार के प्रति विश्वास का ह्राश।
पंजाब में ढाए गए क्रूर नृशंस अत्याचार और इस जुर्म के कर्णधारों का बिना
दंड पाए मुक्त घूमना प्रत्येक राष्ट्रभक्त भारतीय के हृदय को गहरे क्रोध से
भर देता है। इन अन्यायों के विरुद्ध सशक्त प्रदर्शन में सम्पूर्ण देश
सम्मिलित हुआ और वह अपनी माँगों को सुनिश्चित रूप देने जा ही रहा था, कि
तभी मि. गांधी ने असहयोग की अनिश्चित योजना प्रारम्भ कर दी। इसने जो शोर और
कोलाहल पैदा किया उससे मुग्ध होकर इसके असन्तुलित चरित्र को बिना सोचे
विचारे लोग इसकी ओर दौड़ पड़े। किन्तु यह पूर्णतया स्पष्ट है कि कोलाहल का
सृजन मात्र, जिसमें असहयोगियों ने निश्चितरूपेण उल्लेखनीय सफलता अर्जित की
है, किसी भी तरह अन्यायों का निराकरण नहीं कर पाएगा और न ही उनकी
(अंग्रेजों की) ख्याति के अवसरों में कमी कर सकेगा। विभाजन के विरुद्ध
बंगाल में जिस प्रकार आन्दोलन संगठित किया गया, उसी प्रकार अधिक सुनिश्चित
एवं अधिक लक्ष्योन्मुख कार्य प्रदर्शन की आवश्यकता है। सत्याग्रह आन्दोलन
की नियति देखकर मि. गांधी की प्रणाली के प्रति विश्वास डिग जाना चाहिए था,
किन्तु व्यक्तित्वों के प्रति रहस्यवादी भक्ति भारतीय जन समूह की चारित्रिक
विशेषता है। लोकमान्य तिलक की मृत्यु ने राष्ट्रवादियों के पूरे दल को मि.
गांधी की अनुकंपा पर छोड़ दिया है। इसके बहुत से विचारशील नेता जिनमें
महाराष्ट्रीय लोग भी सम्मिलित हैं, अपनी पीठ पर तमाम सामाजिक एवं आर्थिक
विचारधाराओं की गठरी लादे हुए काँग्रेस की प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए
चुपचाप असहयोगियों की कतार में शामिल हो गए। और स्पष्ट कहा जाए तो उन्होंने
ऐसा इसलिए किया है, ताकि वे अनभिज्ञ एवं तरुण लोगों की हूटिंग से अपने को
बचा सकें। देश का पूरा गौरव उन निर्भीक एवं विवेकशील नेताओं के कारण ही शेष
है जो अपने विश्वास पर डटे हुए हैं। उनकी मन:स्थिति उन लोगों के साथ अपना
अनुकूलन नहीं कर सकती जो अधिक तात्कालिक परिणामों की लालसा के समक्ष अपने
प्रत्येक सिद्धांत मातहत कर देने के लिए तैयार हैं। सरकार की अनुदार नीति
से क्षुब्ध एवं निराश कुछ नेता इस आन्दोलन द्वारा पैदा किए गए कोलाहल को
तटस्थ और संभवत: कुछ हद तक सन्तुष्टि के भाव से देख रहे हैं, यद्यपि स्वयं
आन्दोलन के लिए उनके मन में उपेक्षा का भाव है।
किन्तु उन्हें इस तथ्य को सामने रखना चाहिए कि जहाँ इस आन्दोलन में कुछ ऐसे
नि:स्वार्थ एवं ईमानदार कार्यकर्ता हैं जिनका उदात्ता एवं राष्ट्रभक्ति
पूर्ण बलिदान प्रत्येक सम्मान के योग्य है, वहीं ऐसे व्यक्तियों की संख्या
भी किसी प्रकार कम नहीं है जो दूसरों की कीमत पर दोहरा खेल खेलना चाहते हैं
और जनसंख्या के वृह्द भाग के विरुद्ध अपने क्रियाकलापों के क्षेत्र ढूँढ़
रहे हैं। कार्यरत अंतर्धाराओं को हमारे निरीक्षण से नहीं छूटना चाहिए। इस
असहयोग आन्दोलन के ऐसे लक्ष्यहीन और असन्तुलित चरित्र को अनावृत्त करने तथा
इसकी पताका के नीचे छद्मवेश में छिपी हुई दुष्ट शक्तियों का पर्दाफाश करने
के लिए जनता के समक्ष स्पष्ट और सुनिश्चित स्वराज प्रचार (होम रूल) विकल्प
के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। क्योंकि अपने देश के दु:ख भोगों को देखते
हुए जनता आलसी बनकर अलग नहीं बैठ सकती। वह करने के लिए कुछ चाहती है।
2. मिथ्या अहंकार एवं दंभ में मूलस्थ व्यक्तिवादी महत्व की अतिरंजित धारणा
पाश्चात्य शिक्षा ने हमारे नवयुवकों के मस्तिष्क को वैयक्तिक स्वतंत्रता के
विचारों से भर दिया जो अधिकांश स्थितियों में इतने अस्पष्ट एवं असन्तुलित
हैं कि वे सामाजिक एवं नैतिक अनुशासन के सम्पूर्ण बोध को निष्प्रभ कर देते
हैं। उनके लिए अधिकार का अस्तित्व पारिवारिक, सामाजिक या राजनीतिक किसी भी
क्षेत्र में और किसी भी रूप में घृणास्पद है। प्रशासन में ये मशीन को
अधिकतम और व्यक्तित्व को न्यूनतम देखना चाहते हैं। वर्नाक्यूलर प्रेस की एक
श्रेणी के विवेक शून्य लेखों ने उन्हें देशभक्ति के अर्थ के साथ इस
मनोवृत्ति को मिला देने के लिए प्रेरित किया है। सच्ची एवं सृजनात्मक
राष्ट्रभक्ति के स्वस्थ विकास के साथ यह भावना सम्पूर्णत: असंगत है। यह ऐसा
तथ्य है जिसे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है।
3. सत्ता एवं शक्ति के प्रति पूँजी के दंभ से उत्पन्न द्वेष एवं एक व्यापक
स्तर पर धन के साथ सत्ता को जोड़ देने की बलवती इच्छा जिसके द्वारा उन कृषक
वर्गों को अपने प्रवाह के मातहत लाया जा सके जो अपने को स्वतंत्र रखते आए
हैं अथवा जो सत्ता की स्थिति में हैं।
अब हम देख सकते हैं कि असहयोग आन्दोलन ने व्यापारिक श्रेणियों के साथ इतनी
अधिक पक्षधारता क्यों प्राप्त की और ऐसे बेमिसाल जोश के साथ उनमें से इतने
अधिक लोग सिद्धांत का उपदेश देने क्यों अग्रसर हुए। सर्वप्रथम तो यह उनसे
त्याग की लेशमात्र अपेक्षा नहीं रखता, जबकि अव्यापारिक श्रेणियों को जो कुछ
अब भी उनके पास शेष बचा है, वह सब बलिदान कर देने को कहता है। यद्यपि
असहयोग के कार्यक्रमों में 'बहिष्कार' भी एक है तथापि इतना समझने के लिए वे
पर्याप्त चतुर हैं कि अव्यावहारिक घोषित हो जाने से बहिष्कार एक उपेक्षणीय
इकाई हो जाता है जिसका दबाव किसी गंभीरता के साथ उन पर नहीं डाला जा सकता।
इसकी व्यावहारिकता तो पूरी की पूरी अव्यापारिक श्रेणियों के पक्ष में लागू
होती है। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों से वापसी, राजकीय सेवाओं के त्याग,
जमींदार और किसान के रूप में परस्पर एक दूसरे से युद्ध करते रहने से अधिक
व्यावहारिक तथा विदेशी व्यापारियों के साथ किसी एक भी वस्तु की सौदेबाजी के
त्याग से बढ़कर अव्यावहारिक और क्या हो सकता है? यह विषमता प्रतिदिन प्रमुख
होती जा रही है। इसलिए जन सामान्य का दृष्टिकोण निश्चित रूप से कम सहिष्णु
होता जाएगा। कोई चाहे तो कह सकता है कि जब नए ढंग से परिस्थितियों के
संचालन की आवश्यकता होगी तब इसे पूरा करने में श्री गाँधी पूरी तरह से अवसर
के अनुकूल होंगे लेकिन अभी हम वास्तविक स्थिति को ही लेते हैं।
दलाल, आढ़ती, सट्टेबाज, आयातक, निर्यातक एवं डीलर को अपना संबंधित व्यापार
पूरे ऐश्वर्य एवं शानोशौकत के साथ जारी रखना है। यह तो केवल अव्यापारिक और
राजनीतिक श्रेणी हैं जिन्हें अपने क्षेत्र से बाहर आना है और उस व्यापारिक
समुदाय की शरण में अपने घुटने टेक देना है जिनकी पूँजी अभी तक उन्हें
आकर्षित पर पाने में असमर्थ रही है। जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका
है, जमीन से जुड़े वर्ग केवल अपनी अधिकांश जमीन से ही नहीं अपितु अपनी
सम्पत्ति से भी वंचित हो गए जिसका काफी बड़ा भाग विदेशी सौदागरों को
हस्तान्तरित करने के पूर्व मध्यस्थ बनियों ने ऐंठ लिया, बटोर कर जो सम्पदा
उन्होंने जोड़ी उसके साथ ही कई जगह जमीनों का अधिग्रहण भी कर लिया जिसके
परिणामस्वरूप उनके भीतर संरक्षक भाव से उन क्षेत्रों में भी घूमने की
महत्वाकांक्षा पैदा हो गई जिन्होंने उन्हें सम्मानित दूरी पर रखा था। किसी
भी दूसरे देश में ऐसी महत्वाकांक्षा की पूर्ति सरल ही नहीं अपितु बिलकुल
स्वाभाविक होती। किन्तु एक ऐसे देश में जहाँ समाज संगठन में वंशानुगत
अभिरुचियाँ महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं स्थितियों ने भिन्न मार्ग ग्रहण
किया है। अव्यापारिक तथा राजनीतिक श्रेणियों के सदस्यों ने जमीन से जुड़े
रहने की सुरक्षा अब आगे संभव न पाकर अंग्रेजी शिक्षा का लाभ उठाया, सरकारी
नौकरी पर टूट पड़े और इस प्रकार व्यापारिक वर्ग के आक्रमणों के विरुद्ध अपनी
प्रतिष्ठा एवं आत्मसम्मान की रक्षा की। 1
शासकों की राष्ट्रीयता कोई भी हो, पीढ़ियों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ
तथा कुछ अन्य लोग भारत के प्रशासकीय ढाँचे के अंग रहे हैं। ब्रिटिश शासन के
प्रवेश एवं विकास ने इन श्रेणियों को नई परिस्थितियों के अधीन अपने
वंशानुगत पेशों को जारी रखने के निमित्त अपने को सक्षम बना लेने के लिए
प्रोत्साहित किया। (रिपोर्ट ऑन इण्डियन कांस्टीच्यूशनल रिफॉर्म) स्पष्ट
कहें तो ब्रिटिश शासन द्वारा प्रस्तुत प्रतिकूल स्थिति के बीच से इस प्रकार
किसी भी किस्म का मुआवजा वसूल कर लेने का उनकी तरफ से यह एक दयनीय प्रयास
है। कृषक एवं राजनीतिक भूमिधर श्रेणियों के वंशज ही हैं जो अधिकांशत:
सरकारी नौकरियों में लगे हुए
1. हिन्दू की ऊँची श्रेणियाँ।
हैं। शक्ति उनके जीवन का सार है और जब तक वे इसे कायम रख पाते हैं, धन की
परवाह नहीं करते। उनके लिए सम्पत्ति शक्ति नहीं है, वरन् शक्ति ही सम्पत्ति
है। वे उस वृह्द भाग का निर्माण करते हैं जिसे शिक्षित मध्यवर्ग कहा जाता
है। वे अपनी सैनिक और नागरिक शक्ति के कार्यान्वयन में देश की सरकार के साथ
सहयोग करना अपना अधिकार समझते हैं। सहयोग के भीतर ही उनके असहयोग के लिए
क्षेत्र निहित होता है। उनमें से अधिकांश की भूमि संबंधी स्थिति समाप्त हो
गई और उन्होंने शहरी आदतें अर्जित कर ली हैं। यदि उनके पुत्र सरकारी नौकरी
में प्रवेश नहीं करते तो वे उनके लिए जीविकोपार्जन का कौन सा साधन खुला
पाएँगे? उन्हें सम्पत्ति के सम्मुख उसी प्रकार नतमस्तक होना पड़ेगा, जिस
प्रकार उनके पिता आज उस सत्ता के आगे झुके हैं जिसका ढाँचा पूँजी बनाती है
और जब तक संसार अस्तित्व में है इस साष्टांग दण्ड्वत का निर्माण करती चली
जाएगी। क्या यही नैतिक भविष्य सम्भावना है उनके सामने। यदि हम मान लें कि
यह श्रेणी आत्मसम्मान के समस्त बोध से पूर्णतया रहित है, यद्यपि कठिनाई से
ही ऐसा सोचा जा सकता है तो क्या यह माना जा सकता है कि हमारे व्यापारिक
कर्णधार अपनी परिकल्पनाओं में इतने दूर्गामी हो सकते हैं कि वे पूरे देश
में कार्यालयों और संस्थाओं का जाल बिछा दें जैसा कि सरकार ने किया है और
शिक्षित मध्य वर्ग की एक भी पीढ़ी का निर्वाह कर दें?
सौदागरों को जो अब शक्ति को संदिग्ध दृष्टि से देखते हैं, स्मरण रखना चाहिए
कि ब्रिटिश शस्त्रो के संरक्षण के सहारे ही वे इतने लंबें समय तक सोना,
चाँदी बटोरने और रखने में सामर्थ रहे हैं। उनके बहुत से गंभीर बन्धुगण इस
तथ्य के प्रति पूर्णत: सचेत हैं और अपने महत्व के मिथ्या मूल्यांकन द्वारा
उन्होंने अपने को विचलित नहीं होने दिया। शिक्षा क्षेत्र के हमारे नवयुवकों
को यह समझ रखना चाहिए कि देश में कोई भी संवैधानिक व्यवस्था लागू हो, किसी
राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का सत्ता में समस्तरीय अधिकार नहीं हो सकता है।
मैं इस स्पष्ट तथ्य की ओर उनका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। मनोवेग के
अनुपालन में ज्यादा जोश में आकर उन्हें स्वयं को ऐसी स्थिति से प्रतिबद्ध
नहीं करना चाहिए जहाँ से किसी भी समय उन्हें अपने कदम पीछे लौटाने के लिए
बाध्य होना पड़े।
मि. गांधी की युक्तियों में बोलशेविज्म का स्पर्श लोकप्रिय (पापुलर) कल्पना
को तभी तक आकर्षित कर रहा है जब तक इसका तरीका पक्षधार है। थोड़े से भी
चिन्तन से वे यह देखने में समर्थ हो जाएँगे कि यह असहयोग केवल एक सतही
विद्रोह है जिसमें बहुत से परस्पर विरोधी असन्तुलनीय तत्व स्वयं को स्थापित
करने का प्रयास कर रहे हैं। हमें इस आन्दोलन में ऐसे व्यक्ति मिल जाएँगे जो
यूरोप के किसी नवीनतम उन्माद को मानव प्रगति का चरम बिन्दु समझ कर स्वीकार
कर लेते हैं और प्रत्येक वस्तु का पूरा सफाया कर देना चाहते हैं जो अतीत से
उपलब्ध हुई है, साथ ही साथ ऐसे व्यक्ति भी इसमें सम्मिलित हैं जो प्राचीन
भारत के स्वप्नचिन्तन में निरत हैं एवं पुरातन अवशेषों की प्रत्येक वस्तु
के पुनरुत्थान का विचार कर रहे हैं, इस आन्दोलन में लगे हुए ऐसे व्यक्ति भी
हैं जो अपनी जन्मभूमि के देश के प्रति भक्ति के आधुनिक बोध से ओतप्रोत हैं,
साथ ही साथ ऐसे व्यक्ति हैं जो जाति, धर्म या मत के आधार पर एकता के
विचारों को दृढ़ता से पकड़े हुए हैं। ये सभी व्यक्ति समूह इस विश्वास से
अभिप्रेरित हैं कि वे अपने भिन्न आदर्शों एवं उद्देश्यों की पूर्ति की ओर
बढ़ते जा रहे हैं। इस प्रकार का विलक्षण् सम्मिश्रण अपने विभिन्न घटकों को
अधिक दिन एक साथ नहीं रख पाएगा। अतएव मि. गांधी के स्वराज संबंधी विचार
कल्पना विलासी हैं। वह या अन्य कोई भी महात्मा इस प्रकार की परस्पर विरोधी
चीजों में सामंजस्य लाने का चमत्कार नहीं दिखा सकता।
उपर्युक्त तीन मनोभूमियों में से अंतिम दो ऐसे हैं जिनका असहयोग के
बहुसंख्यक अनुयायियों पर अधिक प्रभुत्वपूर्ण प्रभाव है और वे राष्ट्रवाद की
एक नई किस्म की मानसिकता का निर्माण करते हैं। इसका अनुमान उन आक्रमणों से
लगाया जा सकता है जो ऐसे परिक्षेत्रों के विरुद्ध किए जा रहे हैं जिन्हें
सम्मान प्राप्त है अथवा जो किसी प्रकार की सांस्कृतिक, सामाजिक या राजनीतिक
शक्ति कायम रखे हुए हैं।
हमने यह सोचने की आदत डाल ली है कि जमीन से जुड़ी श्रेणियाँ शिक्षित लोगों
के क्रियाकलापों पर निरन्तर अंकुश के रूप में कार्यरत हैं। लेकिन मैं
बलपूर्वक कहता हूँ कि नगर के कोठीवालों की तुलना में ये दूसरों का कहीं
अधिक ध्यान रखते हैं तथा स्वार्थपूर्ण प्रभावों के प्रति कहीं कम नमनशील
हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जो कुछ सुन्दर है उसका पूर्ण तिरोभाव तथा इनके
सतत अपमान की प्रक्रिया से शहर के पूँजीपति तथा महाजन के अहंकार का जितना
मनोरंजन हो सकता है उतना किसी अन्य वस्तु से नहीं। उन्हें उन शहरी पूँजीपति
तथा महाजन वर्गों के विरुद्ध एक सामान्य उद्देश्य बनाना चाहिए जो अपनी
अनुकूल परिस्थितियों का नजायज फायदा उठा कर उन्हें यथासंभव निम्नतम स्तर तक
गिराने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि किसान और जमींदार के बीच कोई अभेद्य
दीवार नहीं है। एक किसान जमींदार हो सकता है और एक जमींदार किसान हो सकता
है। वे स्वयं देख सकते हैं कि इन चीजों का वास्तविक उद्देश्य सम्पूर्ण
ग्रामीण जनसंख्या को अधिक कमजोर, दीन किसानों में इस प्रकार बदल देना है
जिससे उनमें से किसी के पास सामाजिक गौरव एवं प्रतिष्ठा अर्जित करने का कोई
अवसर शेष न रह जाए। शहरी व्यावसायिक भद्रता को ही देश में एकमात्र भद्रलोक
होना है। अभी यह देखना बाकी है कि भारत जैसा कृषि प्रधान देश इसे कैसे सहन
कर सकता है। यह आशा की जाती है कि हाल की घटनाएँ जमीन से जुड़ी श्रेणियों को
व्यावहारिक असहयोग के अभिप्राय से अपनी भूमिका में संयुक्त कार्यक्रम की
आवश्यकता के प्रति जागृत करेंगी।
गाँव की जनसंख्या में जमींदार, किसान और मजदूर होते हैं। इन तीनों में
सर्वाधिक अनभिज्ञ और सहज विश्वासी मजदूरों की अधिकांश जनसंख्या के बीच
आन्दोलनकारी अपने उत्तेजक भाषणों से सबसे अधिक अशांति उकसाने में व्यस्त
रहे हैं। वस्तुत: उनकी आतंकवादी, बर्बर गतिविधियों से किसान और जमींदार
समान रूप से उत्पीड़ित हुए हैं। ऐसे समय में जब श्रम का अभाव गरीब कृषकों
में पहले ही गंभीर चिंता उत्पन्न कर रहा है और कृषि उत्पादनों में अत्यधिक
व्यव्धान डाल रहा है, वहाँ जाकर उनके लिए समस्याओं को और अधिक जटिल बना
देना क्या मानवोचित है? जमींदार शब्द से हम प्राय: बड़े भूमिपति का अर्थ
लेते हैं और उन छोटे काश्तकारों के विषय में कभी नहीं सोचते जो अपनी
कुलीनता के प्रति जागरूक होते हुए भी अपनी न्यून आय में बड़ी कठिनाई से अपना
जीवन निर्वाह कर पा रहे हैं। वे भी उसी प्रकार से उत्पादक हैं जिस प्रकार
उनके आसामी। यह वे हैं जो हमारे आन्दोलनकारियों की उदारता के शिकार हुए
हैं। शहरों में महाजनों की गद्दियों में श्रमिक जनसंख्या के वृह्द भाग को
खींच लिया। इसलिए किसान और जमींदार इस बात से चिन्तित हैं कि कृषि कार्य
कैसे चलाया जाय। जाति का कठोर नियम उच्चतर श्रेणियों को हल पकड़ने की अनुमति
नहीं देता। स्थिति को समझ कर मेरे एक मित्र दस वर्षों से बड़ी बहादुरी से इस
नियम के विरुद्ध आन्दोलन चला रहे हैं। तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह समझ
लेना कठिन नहीं है कि जिनके चैम्पियन के रूप में ये आन्दोलनकारी अपने को
प्रस्तुत करते हैं, उन किसानों के लिए श्रम की आपूर्ति सम्पूर्णत: भंग कर
देने का प्रयास कितना विनाशकारी है। क्या हम इस प्रकार के आन्दोलनकारियों
को अधिक बलपूर्वक नगरीय जनों के एजेन्ट नहीं कह सकते जो एकमात्र उनके ही
उपभोग में लाने के लिए ही ग्रामीण शक्ति को गाँवों से उखाड़ने के लिए
वचनबद्ध हैं?
शासक राजकुमारों पर आक्रमण की नियमित योजना
केवल उक्त उद्देश्य से एक हिन्दी साप्ताहिक आरंभ किया गया है। आक्रमण का
पहला निशाना मारवाड़ी समुदाय का घर राजपूताना है। स्पष्टत: देशी शासक वर्ग
ने अपने जनतान्त्रिक चरित्र को सिद्ध नहीं किया। समय आ गया है जब रियासत के
प्रमुख अपने समस्त राष्ट्रीय आदर्शों के साथ सामने आएँ और स्वयं को जनता की
सुख सुविधा के लिए समर्पित कर दें जिससे लोक निन्दा के लिए कोई आधार न
मिले। इसी प्रकार से वे उस डिजाइन को विफल करने में सफल होंगे जो द्वेष के
द्वारा विगत कुछ वर्षों से उनके विरुद्ध गुप्त रूप से बुनी जा रही है।
उन्हें प्रभावी ढंग से इस बात को साबित कर देना चाहिए कि वे अपने दायित्व
को उनसे अधिक समझते हैं जो उनकी त्रुटियों पर ऑंख टिकाए हैं और ब्रिटिश
भारत के नगरों से उन पर आक्रमण करने में आनंद ले रहे हैं। उन्हें अपने
चारों ओर जनतान्त्रिक कार्य प्राकारों (डेमोक्रेटिक बुल वक्र्स) का निर्माण
करना चाहिए और सरकार के उस स्वरूप का पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए
जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं। अपने उदात्ता आचरण के उदाहरण से उन्हें यह
दिखा देना चाहिए कि शक्ति और अधिकार के साथ शील, समानता, करुणा,
क्षमाशीलता, नि:स्वार्थता एवं अन्य उच्च गुण किस प्रकार चमक सकते हैं। देशी
रियासतों की जनता को भी व्यक्तित्व के मशीनीकरण् के प्रति अपने को सावधान
रखना चाहिए। उन्हें अपनी शिकायतों को स्वयं समझना चाहिए। पूर्वाग्रहग्रस्त
एवं स्वार्थी व्यक्तियों द्वारा आशंका से उठाई गई झूठी चिल्लाहट के सामने
नहीं झुकना चाहिए।
इन प्रयत्नों एवं असहयोग के प्रति आकर्षण के मध्य एक समानान्तरवाद स्पष्ट
है। हम स्पष्टत: उस दिशा को लक्षित कर सकते हैं जिस ओर ये क्रिया कलाप
उन्मुख हैं। इनमें किसी को विश्व आन्दोलन की प्रतिध्वनि भी सुनाई पड़ सकती
है। किन्तु यह खेद का विषय है कि इसमें ऐसा कुछ नहीं है। पश्चिम के राष्ट्र
अपने को जिससे मुक्त करने की चेष्टा कर रहे हैं, उसी पूँजीवाद की ओर यह एक
बढ़ता कदम है। यह पूँजी बटोरने और समाज में व्यक्तिवादी जीवन मूल्यों के
क्षुद्र अमेरिकी मानदण्ड स्थापित करने का प्रयास भर है।
सम्पूर्ण स्थिति का सर्वाधिक आतंककारी पहलू यह है कि सारा हिन्दी प्रेस
व्यापारिक समुदाय के चंगुल में आ गया है। राष्ट्रवादी हिन्दी समाचार पत्रो
में से अधिकांश अपने अस्तित्व के लिए इनकी पूँजी पर आश्रित हैं अथवा अपने
प्रचार प्रसार के लिए इस पूँजी के मोहताज हैं। कलकत्ता के हिन्दी दैनिक
'बड़ा बाजार' के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हैं। इसका कारण वर्नाक्यूलर
साहित्य का बहि:प्रवाह है जो सामाजिक सुव्यवस्था एवं अनुशासन के सभी नियमों
का विरोध करता है। ऐसी स्थिति में अव्यापारिक समुदाय को ऐसे राष्ट्रीय
अंगों की आवश्यकता है जो अस्वस्थ व्यापारिक प्रभावों से मुक्त हो और जो
भारतीय जीवन के प्रत्येक स्तर के साथ सुसंगत राष्ट्रवाद का आदर्श निर्मित
करने में सक्षम हो। सिद्धांतों का प्रतिपादन एवं मानदण्डों को निर्धारण
करना होगा। जब तक देश के प्रत्येक भाग में इस प्रकार के समाचार पत्र नहीं
प्रारम्भ किए जाते तब तक गैर जिम्मेदार उत्साहियों के विसंगत प्रस्तुतीकरण्
से अव्यापारिक, राजनीतिक एवं कृषक श्रेणियों के हितों को हानि होती रहेगी।
असहयोग सिद्धांत के गुणों अवगुणों पर बहस प्रारम्भ करना या इसकी स्थापनाओं
एवं परिकल्पनाओं में से किसी पर प्रश्नचिह्न लगाना मेरा उद्देश्य नहीं है।
मेरा लक्ष्य सिर्फ उस पक्षधर तरीके की ओर इंगित करना है जिसके द्वारा इसका
उपदेश दिया जाता है और व्यव्हार किया जाता है। यदि अव्यापारिक राजनीतिक
श्रेणी को राजकीय सेवा से अपने को हटा लेने का निर्देश दिया जाता है तो
व्यापारिक श्रेणियाँ भी ब्रिटिश या विदेशी वस्तुओं के साथ अपना समस्त
व्यापार छोड़ देने को तैयार रहें। जब असहयोग राजस्व का भुगतान न करने की
सीमा तक जा सकता है तो भूमि अधिकारी या कृषक वर्गों के पास क्या गारन्टी है
कि जिस समय उनकी भूमि नीलामी पर रखी जाएगी उस समय व्यापारिक समुदाय के
सदस्य उनकी जमीनों को खरीद लेने के लिए आगे बढ़कर भागदौड़ नहीं करेंगे। दोनों
वर्गों द्वारा समान त्याग का सिद्धांत असहयोगियों की नीति एवं चरितार्थ
होना चाहिए। यदि वे वास्तव में सरकारी कार्यतंत्र को बन्द कर देने एवं
ब्रिटिश व्यवसाय को पंगु बना देने में अपने को सक्षम समझते हैं तो उन्हें
अपने कर्म में अनिवार्यत: एक वृहत्तर दृष्टिकोण अपनाना होगा। अब तक किए गए
गौरवपूर्ण बलिदान अव्यापारिक श्रेणियों तक ही सीमित रहे हैं। व्यापारिक
वर्ग उदारता के अत्यन्त न्यून प्रदर्शन के साथ केवल कोलाहल और भागदौड़ में
सम्मिलित हुआ है। इसके कुछ सदस्य ऐसे हैं जो असहयोग के मंचों पर गला फाड़
रहे हैं, किन्तु उनकी साझेदारी ही असहयोग आन्दोलन के चरित्र को उन लोगों की
दृष्टि में संदिग्ध बना देने के लिए काफी है जो उन्हें पहचानते हैं। ऐसे
लोग जितनी जल्दी अपनी सीमा में लौटाए जा सकें असहयोग आन्दोलन के लिए उतना
ही अच्छा है।
अनुवादिका- क़ुसुम चतुर्वेदी, (एक्सप्रेस, बांकीपुर, पटना, 1922)
[ चिंतामणि, भाग-4 ]
सभ्य संसार का भावी धर्म
यह कहना कि दुनिया इस समय एक बड़े व्यापक विप्लव के युग में होकर गुजर रही
है केवल एक स्वयंसिद्ध सत्य को दुहराना होगा। संसार के किसी भी हिस्से के
एक अखबार को उठाकर पढ़ जाइए, आप यह अनुभव करेंगे कि चारों ओर अशांति विराज
रही है। लोग एक दूसरे को दोष देने में तत्चित् हैं। गरीब अमीरों की
विलासप्रियता को कोसते हैं, अमीर गरीबों के बढ़े दिमाग और बुरे बर्ताव की
शिकायत करते हैं; स्वतंत्र विचार वालों की उच्छृंखलता पर बड़े-बूढ़े,
प्राचीनताप्रिय लोग कुढ़े बैठे हैं और अतीत के उपासक, पंडे-पुजारियों में
श्रद्धा रखने वाले की धर्मान्धाता और लकीर की फकीरी से उदार चित्त और
स्वतंत्र विचार वाले युवक हैरान हैं; स्त्रियों की आजादी पुरुषों को अखर
रही है और स्त्रियाँ पुरुषों के स्वार्थीपन और चरित्रहीनता से ऊब गई हैं।
साम्राज्यवाद का भीषण रूप परतंत्र जातियों के जीवन को नष्ट-भ्रष्ट किए
डालता है और साथ ही हिंसात्मक विप्लवकारियों के अदूरदर्शी उद्योग समाज के
जीवन में एक नए रोग का बीज बो रहे हैं। राजनीतिक और सामाजिक सुधार के जो
प्रयत्न किए जाते हैं उनकी असफलता का दोष साधारण जनता नेताओं और राजनीति के
खिलाड़ियों के मत्थे मढ़ती है और राजनीतिक लोग कहते हैं कि सारा दोष जनसमाज
का है जिसमें यथेष्ट मात्रा में त्याग नहीं, सहनशीलता नहीं और नेताओं के
आदेशों पर चलने का उत्साह नहीं है।
कुछ लोग जो स्वभाव से ही निराशावादी हैं, इन सारी बातों को सुनकर घबराकर
कहेंगे, 'हटाओ यह पचड़ा, दुनिया ऐसे ही चलती है, कलियुग तो है ही।' परन्तु
दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो युग के नाम से सन्तुष्ट नहीं होते बल्कि
युग के स्वभाव को समझने की चेष्टा करते हैं। जिनका विश्वास है कि
मानव-स्वभाव में मानवीय दुर्बलताओं के साथ-साथ मानवोचित उन्नतिशीलता भी
मौजूद है और तमाम कठिनाइयों के होते हुए भी कभी न कभी मनुष्य उन सब पर विजय
प्राप्त करेगा ही। ऐसे लोगों में इस समय इस बात की खास तलाश है कि इस
वर्तमान अस्तव्यस्त अवस्था का अंत कैसे होगा। इन तमाम घटनाओं का रुख किस ओर
है। इन्हीं लोगों का एक दल यह समझता है कि इस व्यापक विप्लव का प्रभाव
संसार के धार्मिक जीवन पर भी पड़ेगा और उसमें एक गहरा परिवर्तन होगा। उनका
ख्याल है कि जहाँ संसार में, लोगों में विरोधी दलों के प्रति अविश्वास बढ़ता
जाता है; वहाँ साथ ही संसार की वर्तमान अवस्था का एक लक्षण यह भी है कि
संसार भर के सभी देशों की दलित जातियों में एक प्रकार की पारस्परिक
सहानुभूति भी है। मजदूर, अराजकतावादी, स्त्रियाँ, स्काउट्स, काली जातियाँ
सभी अपने संगठनों को अंतर्जातीय रूप देना चाहती हैं और भौगोलिक हदो की
अवहेलना करके पारस्परिक सहयोग करने के लिए तैयार हैं। 'संघे शक्ति:
कलौयुगे' के सिद्धांत को लोग चरितार्थ करके दिखा रहे हैं। रेल, तार,
छापेखाने और अखबारों ने दुनिया को इतना तंग और सन्निक्ट कर दिया है कि एक
दूसरे के आदर्शों को अब थोड़ी-सी चेष्टा करने पर सहज ही समझ सकते हैं। इन
सभी बातों को वे आशावादी निरीक्षक संसार के धार्मिक जीवन के लिए शुभ लक्षण
समझते हैं। यद्यपि वे इस बात से भी अपरिचित नहीं हैं कि इन सब बातों के
होते हुए भी संसार के वर्तमान संगठित धर्म के अधिकारी, चाहे वे ईसाई पादरी
हों अथवा हिन्दू पंडित, मुसलमान मुल्ला या बौद्ध भिक्षु, अपने पुराने ढंग
पर ही चले जाते हैं, नई आकांक्षाओं और नए उत्साह से लाभ नहीं उठाते, और
उन्नतिशील उदार व्यक्तियों को उच्छृंखल कहकर अपने-अपने मंडल से निकालने पर
उद्यत हो जाते हैं। पुरोहितों, पुजारियों और पंडितों की इस अदूरदर्शिता पर
खेद प्रकट करते हुए भी आशावादी घबराते नहीं, बल्कि इसे भी परिवर्तन का एक
प्रामाणिक लक्षण ही समझते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि धार्मिक संस्थाओं की
यह कट्टरता भी इस बात की सूचना देती है कि एक धार्मिक युग का अंत हो रहा है
और दूसरे का जन्म।
वर्तमान धार्मिक जीवन के परिवर्तन और एक नवीन धर्म के निर्माण में विश्वास
करने वाले केवल वे ही नहीं हैं जो अधिकांश धार्मिक चर्चा में ही लगे रहते
हैं अथवा जिनमें भावुकता अधिक है और चिन्तनशीलता कम है। इस तरह की जागृति
के संबंध में अभी हाल में कई ग्रंथ अंग्रेजी में बड़े-बड़े विचारशील
विद्वानों की लेखनी से प्रकाशित हुए हैं। इन ग्रंथो में से दो ग्रंथो ने
विशेष आदर प्राप्त किया है, एक तो डीन इन्ज (Dean Inge) द्वारा अनुमोदित
'The Coming Renaissance' (भावी जागृति) और दूसरा डॉ. मिसेज राइज डेविड कृत
‘Old Creeds and New Needs’ (प्राचीन मत और नवीन आवश्यकताएँ)। पहले ग्रंथ
में इंग्लैंड के 10-12 विद्वानों ने, जिनमें इतिहास, दर्शन, विज्ञान और
समाजशास्त्र सभी के विशेषज्ञ हैं, अपने-अपने दृष्टिकोण से यह भाव प्रकट
किया है कि संसार एक व्यापक जागृति के अत्यन्त सन्निकट है। इस ग्रंथ की
आलोचना करते हुए लन्दन के टाइम्स सरीखे वर्तमान के समर्थक (Conservative)
पत्र ने लिखा था कि ऐसी निराशापूर्ण अवस्था के होते हुए भी इन विद्वानों का
जागृति में विश्वास करना तनिक आश्चर्यजनक है, यद्यपि यह सत्य है कि ऐसी आशा
लोग सभी युगों में आवश्यकता के ही कारण करते आए हैं लेकिन उनकी सम्भावनाओं
के सहारे। टाइम्स ने यह भी लिखा है कि, 'ज़ब यहूदी लोग रोमन साम्राज्य के
पंजे में बेतरह फँसे हुए थे तभी उनमें मसीहा (उद्धारक) के आगमन की आशा
अत्यन्त बलवती हो उठी थी।' इस संबंध में यह लिख देना अप्रासंगिक न होगा कि
गत वर्ष भारत हितैषी मिस्टर जार्ज लैन्सबरी ने (जो पार्लामेंट में मजदूर दल
के प्रमुख पुरुषों में से हैं) डेली हेराल्ड के एक लेख में लिखा था कि क्या
यह संभव नहीं कि जिस प्रकार विशाल रोमन साम्राज्य से दबी हुई प्राचीन यहूदी
जाति के प्रचारक को भगवान क्राइस्ट ने रोमन साम्राज्य पर आध्यात्मिक विजय
प्राप्त (करने में मदद) की थी, वैसे ही ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत
प्राचीन भारतीय जाति एक ऐसा उपदेशक उत्पन्न करे जो वर्तमान संसार का
धार्मिक उद्धारक सिद्ध हो! अस्तु, डॉक्टर राइज डेविड की पुस्तक में पारसी,
बौद्ध, ईसाई, इस्लाम, पॉटिविज़म (कौम्टे का समाजवाद), बहाई, ब्राह्म समाज
आदि कई प्रचलित धर्मो की आलोचना की गई है। आलोचना खंडन-मंडन की दृष्टि से
ही नहीं वरन वर्तमान काल के विचारों के झुकाव से उन धर्मो की शिक्षाओं का
मिलान करते हुए लिखी गई है। सभी धर्मो की अपने समय के लिए तत्कालीन
उपयोगिता स्वीकार करते हुए वर्तमान काल की आवश्यकताओं के लिए, उन्हें
अपर्याप्त बताया है और साथ ही लेखक ने लिखा है, ''ऐसा जान पड़ता है कि सभी
काल में यह घटनाक्रम बता रहा है कि जब-जब लोगों ने एक सहायक, एक संदेश की
आवश्यकता प्रतीत की है, तब-तब यह सहायक और संदेश उन्हें मिला है।''
ऊपर कुछ विचारशील विद्वानों के मत का दिग्दर्शन कराया गया है। यहाँ यह भी
लिख देना उचित होगा कि नवयुग निर्माण की आशा का प्रमाण लोग हिन्दू,
मुस्लिम, बौद्ध और ईसाई आदि सभी धर्मो के पवित्र ग्रंथो के सहारे भी देते
हैं। इस विचार के लोगों की अनेक संस्थाएँ भी हैं, उनमें से सबसे प्रसिद्ध
और व्यापक संस्था है, 'पूर्व तारा संघ' (Order of the star in the East)
जिसका घनिष्ठ संबंध सुप्रसिद्ध विदुषी मिसेज बेसेंट से है, यद्यपि इसके
अध्यक्ष और नेता हैं एक भारतीय सज्जन श्री जे. कृष्णमूर्ति। इस संस्था का
प्रचार सारे सभ्य संसार में है और इसमें 70,000 (सत्तर हजार) से अधिक सदस्य
हो चुके हैं। भारत के सुप्रसिद्ध विद्वान और देशभक्त तपस्वी अरविंद भी एक
साधक मंडल अपने चारों ओर एकत्र कर रहे हैं जो संसार के धार्मिक जीवन में एक
गहरा परिवर्तन पैदा करना चाहता है। इसी मंडल के एक प्रमुख सदस्य श्री पाल
रिशार का ख्याल है कि संसार को धार्मिक पथ पर अग्रसर करने के लिए न केवल एक
उपदेशक प्रकट होगा, बल्कि कई बड़े-बड़े तपस्वी और प्रत्यक्ष ज्ञानी लोग भी
प्रकट होंगे और यही साधक संघ वर्तमान दुरावस्था को दूर करेगा। कहना न होगा,
इस सिद्ध साधक संघ में मोशिए रिशार के विचारानुसार श्रीयुत अरविंद घोष का
भी एक उच्च स्थान होगा।
इस तरह वर्तमान भयावह अवस्था के (को) दूर करने में लोग एक नए धार्मिक संदेश
से सहायता पाने की आशा करते हैं। हमें केवल यह देखना रह गया कि यह भावी
धर्म किस ओर को झुकता हुआ होगा? इस प्रश्न के उत्तर की ओर ऊपर लिखे गए
सिंहावलोकन में बहुत कुछ संकेत किया जा चुका है। यहाँ हम उसे स्पष्ट शब्दों
में किन्तु संक्षेप में ही दुहराएँगे। वर्तमान युग के ढंग को देखते हुए और
साथ ही गत दो-तीन सहस्र वर्षों के भीतर मिले हुए धार्मिक संदेशो को ध्यान
में रखते हुए यह विचार प्रकट किए जाते हैं। जिस तरह बौद्ध और ईसाई धर्मो ने
अपने समय की वंश-प्रतिष्ठा के भीषण स्वरूप का प्रबल विरोध करके सभी को
धार्मिक अधिकार दिया था उसी तरह भावी धर्म रंग और राष्ट्र के अभिमान का
विरोधी होगा। न केवल पड़ोसी और पीड़ित को प्यार करने की यह शिक्षा देगा बल्कि
परदेशी और परतंत्रों के प्रति अनुराग पैदा कराएगा। यह संदेश किसी जाति अथवा
देश में सन्निहित न होकर वर्तमानकालिक रेल, तार और वायुयान के
सहारे-संसारव्यापी होगा। इसमें ईश्वरोपासना को एक नया स्वरूप दिया जाएगा
जिसके अनुसार ईश्वरभक्त लोग मानव जाति के रूप में ही भगवान को प्यार करना
सीखेंगे। सेवा-धर्म की महिमा बढ़ेगी और बच्चों की शिक्षा और पालन पर अधिक
जोर दिया जाएगा। राजभक्ति एक नया रूप धारण करेगी जिसके अनुसार लोग 'राजा'
की भक्ति से 'राज्य' की भक्ति को अधिक महत्व देंगे। भिन्न-भिन्न प्रचलित
धर्म नष्ट न होकर अधिक उदार हो जाएगा और इन धर्मो के नाम और रूप की रक्षा
करते हुए भी लोग इस नए विश्व प्रेमी धर्म की दीक्षा लेंगे।
इस भावी धर्म के रुख को पहचानने के लिए वर्तमान प्रचलित धर्मो की उन शाखाओं
के आदर्शो, साधानों और उपदेशों के अधययन करने की आवश्यकता है, जिन्होंने
प्रचलित संगठित धर्मो के अधिकारियों के विरुद्ध बगावत करके अपना संगठन किया
है, यथा हिन्दुओं में आर्य समाज, ब्राह्मसमाज, राधास्वामी संघ, देव समाज
आदि, मुसलमानों में बहाई, कादियानी आदि, ईसाइयों में क्रिश्चियनसायंज्ञ,
निऊथौट, निऊथियोलाजी आदि। इन्हीं संस्थाओं में यह अंकुर मौजूद है जो
आनेवाली जागृति की विपुल वर्षा से उग कर फले-फूलेंगे।
(प्रताप, अगस्त-सितम्बर, 1924 विशेषांक)
क्षात्रधर्म का सौंदर्य
जिस प्रकार लोकमर्यादा का निरूपण ब्राह्मण धर्म है, उसी प्रकार लोकमर्यादा
की रक्षा क्षात्राधर्म है। पर एक के पालन का क्षेत्र तटस्थ है, दूसरे का
समाज के भीतर-भीतर है। इसी से क्षात्राधर्म के सौंदर्य में जो मधुर आकर्षण
है वह अधिक व्यापक, अधिक मर्मस्पर्शी और अधिक स्पष्ट है। मनुष्य की संपूर्ण
रागात्मिका वृत्तियों को उत्कर्ष पर ले जाने और विकसित करने की सामर्थ्य
उसमें है। कानून बनानेवाले हमारे सामने नहीं आते; पर कानून की पाबंदी
करानेवाले, छोटे बड़े, सबके कार्यपथ में नित्य दिखाई पड़ते हैं। गाँवों के
लोग थानेदार साहब को जितना भला या बुरा जानते हैं, उतना कौंसिल के सदस्यों
को नहीं। भलाई या बुराई का जहाँ चित्र खिंचा होगा वहीं जनसाधारण की दृष्टि
जाएगी और कुछ देर ठहरेगी। सत्कर्मो और दुष्कर्मो की लंबी चौड़ी फिहरिस्त
किसी काम की नहीं। कर्मक्षेत्र के ऊपर अपनी गतिविधि से अनेक रंगों की जो
चटकीली रेखाएँ लोग खींचते जाते हैं, उन्हीं के योग से एक गोचर चित्र का
विधान होता है। ऐसे चित्र में ही हम ऐसे रूप अंकित पा सकते हैं जो हमारे मन
को मोहित कर सकते हैं। हमारी घृणा को उभार सकते हैं और हमारे जीवन को सुंदर
मार्ग पर ले जा सकते हैं। सात्विकता और सौंदर्य में जहाँ हमें पूर्ण अभेद
मिलेगा वहीं हमारी प्रकृति का अनुरंजन होगा और हमारी प्रवृत्ति को उत्तेजना
मिलेगी। इसी से कवि लोग सात्विकता को सौंदर्य के अंतर्गत ही लेकर चलते हैं।
कविता, जिस प्रकार विकसित कमल, रमणी के मुख आदि का सौंदर्य चित्र में अंकित
करती है उसी प्रकार औदार्य, वीरता, त्याग, दया इत्यादि का सौंदर्य भी
दिखाती है। जिस प्रकार वह रौरव नरक और गंदी गलियों का जघन्य रूप दिखाती है,
उसी प्रकार क्रूरों की हिंसावृत्ति और दुष्टों की ईष्या आदि का भी। कविता,
सौंदर्य और सात्विकशीलता या कर्तव्य परायणता में भेद नहीं देखना चाहती। इसी
से उत्कर्ष साधन के लिए कविता ने प्राय: अंत:करण के सौंदर्य और रूप सौंदर्य
का मेल कराया है। राम का रूप माधुर्य, रावण का विकराल रूप अंत:करण के
प्रतिबिंब मात्र हैं। बाह्य प्रकृति को भी मिला लेने से कभी कभी प्रभाव और
भी बढ़ जाता है। चित्रकूट ऐसे रम्य स्थान में राम और भरत ऐसे रूपवानों के
अंत:करण की छटा का क्या कहना है। शक्ति संबंध हीन सिद्धांतमार्ग
निश्चयात्मिक बुद्धि को चाहे व्यक्त हों पर प्रवर्तक मन को अव्यक्त रहते
हैं। वे मनोरंजनकारी तभी लगते हैं जब किसी व्यक्ति के संबंध में देखे जाते
हैं। यह मनोहरता अनंत रूपों में देखी जाती है। मनुष्य जाति ने जब से होश
सँभाला तब से वह इन अनंत रूपों को महात्माओं और वीरों के आचरणों तथा
आख्यानों में देखती चली आ रही है। जब मनुष्य इन रूपों पर मोहित होता है तब
सात्विकशीलता की ओर वह आप से आप आकर्षित होता है। शून्य सिद्धांत वाक्यों
में निज की कोई आकर्षणशक्ति या प्रवृत्तिकारिणी क्षमता नहीं होती। 'सदा सच
बोलो', दूसरों की भलाई करो', 'क्षमा करना सीखो', ऐसे कोरे वाक्यों को किसी
को बार-बार बकते सुन वैसा ही बुरा लगता है जैसा किसी बेहूदे की बात सुनकर।
जो इसी प्रकार की बातें करता चला जाय, उसे चुप कर देना चाहिए और कहना चाहिए
कि, ''तुम्हें बोलने की तमीज़ नहीं, तुम कोल-भीलों के पास जाओ ये बातें हम
पहले से जानते हैं। मानव जीवन के क्षेत्र में हम इनके सौंदर्य की छटा देखना
चाहते हैं। यदि तुममें दिखाने की शक्ति या प्रतिभा हो तो दिखाओ, नहीं
चुपचाप अपना रास्ता लो।'' संसार से तटस्थ रहकर शांति सुखपूर्वक लोक
व्यव्हार संबंधी उपदेश देनेवालों का उतना अधिक महत्व हमारे हिन्दू धर्म में
नहीं है जितना संसार के भीतर घुसकर उसके व्यवहारों के बीच सात्विक सौंदर्य
की ज्योति जगानेवालों का है। हमारे यहाँ उपदेशक ईश्वर के अवतार नहीं माने
गए हैं। अपने जीवन द्वारा कर्म सौंदर्य संघटित करनेवाले ही अवतार कहे गए
हैं। कर्म सौंदर्य के योग से उनके व्यक्तित्व में इतना माधुर्य आ गया है कि
हमारा हृदय आप से आप उनकी ओर खिंचा पड़ता है। जो कुछ हम करते हैं, ख़ेलना
कूदना, हँसना बोलना, क्रोध करना, शोक करना, प्रेम करना, विनोद करना उन सब
में सौंदर्य लाते हुए हम जिन्हें देखते हैं उन्हीं की ओर ढल सकते हैं। वे
हमें दूर से रास्ता दिखानेवाला नहीं हैं, आप रास्तों में चलकर हमें अपने
पीछे खींचनेवाले हैं। जो उनके व्यक्तित्व पर मोहित न हो वह नि:संदेह जड़ है
''सुनि सीतापति सील सुभाउ।
मोद न मन तन पुलक नयन जल, सो नर खेहर खाउ।
सिसुपन में पितु मातु बंधु गुरु, सेवक सचिव सखाउड्ड
कहत राम विधुवदन रिसौंहैं, सपनेहु लख्यो न काउ।
सिला साप संताप विगत भईं, परसत पावन पाउड्ड
दई सुगति सो न हेरि हरखि हिय, चरन छुए पछताउ।
भव धानु भंगि निदरि भूपति, भृगु नाथ खाय गए ताउ
छमि अपराध, छमाइ पाइ परि, इतौ न अनत समाउ
कह्यो राज, बन दियो नारि बस, गरि गलानि गयो राउ,
ता कुमातु को मन जोगवत ज्यों, निज तन मरम कुघाउ
कपि सेवाबस भए कनौड़े, कह्यो पवनसुत आउ,
दैवे को न कछू ऋनियाँ हौं, धानिक तु पत्र लिखाउड्ड
ग़ो. तुलसीदास
[ जो उनका नाम लेकर पुलकित होता है, जो उनके व्यक्तित्व पर मोहित होता है,
उसके सुधारने की बहुत कुछ आशा हो सकती है। जो संसार या मनुष्यत्व का
सर्वथा... ]
निर्लिप्त रहकर दूसरों का गला काटनेवालों से लिप्त रहकर दूसरों की भलाई
करनेवाले कहीं अच्छे हैं। क्षात्राधर्म ऐकान्तिक नहीं है, उसका संबंध
लोकरक्षा से है। अत: वह जनता के संपूर्ण जीवन को स्पर्श करनेवाला है। 'कोई
राजा होगा तो अपने घर का होगा, 'इस से बढ़कर झूठ बात शायद ही कोई और मिले।
झूठे खिताबों के द्वारा यह कभी सच नहीं की जा सकती। क्षात्रा जीवन के
व्यापकत्व के कारण ही हमारे मुख्य अवतार राम और कृष्ण क्षत्रिय हैं। कर्म
सौंदर्य की योजना जितने रूपों में क्षात्रा जीवन में संभव है, उतने रूपों
में और किसी जीवन में नहीं। शक्ति के साथ क्षमा, वैभव के साथ विनय, पराक्रम
के साथ रूप माधुर्य, तेज के साथ कोमलता, सुखभोग के साथ परदु:ख कातरता,
प्रताप के साथ कठिन धर्म पथ का अवलंबन इत्यादि कर्म सौंदर्य के इतने अधिक
प्रकार के उत्कर्ष योग और कहाँ घट सकते हैं? इस व्यापार युग में, इस
वणिग्धर्म प्रधान युग में, क्षात्रा धर्म की चर्चा करना शायद गई बात का
रोना समझा जाय पर आधुनिक व्यापार की अन्याय रक्षा भी शास्त्रो द्वारा ही की
जाती है। क्षात्राधर्म का उपयोग कहीं नहीं गया है क़ेवल धर्म के साथ उसका
असहयोग हो गया है। आजकल मनुष्य की सारी बातें धातु के ठीकरों पर ठहरा दी गई
हैं। सबकी टकटकी टके की ओर लगी हुई है। जो बातें पारस्परिक प्रेम की दृष्टि
से, न्याय की दृष्टि से, धर्म की दृष्टि से की जाती थीं, वे भी रुपये पैसे
की दृष्टि से होने लगी हैं। पैसे से राज सम्मान की प्राप्ति, विद्या की
प्राप्ति और न्याय तक की प्राप्ति होती है। जिनके पास कुछ रुपया है वे
बड़े-बड़े विद्यालयों में अपने लड़कों को भेज सकते हैं, न्यायालयों में फीस
देकर अपने मुकदमे दाखिल कर सकते हैं और महँगे वकील बैरिस्टर करके बढ़िया
खासा निर्णय करा सकते हैं, अत्यंत भीरु और कायर होकर बहादुर कहला सकते हैं।
राजधर्म, आचार्य धर्म, वीर धर्म सब पर सोने का पानी फिर गया, सब टकाधर्म हो
गए। धन की पैठ मनुष्य के सब कार्य क्षेत्रों में करा देने से, उसके प्रभाव
को इतना अधिक विस्तृत कर देने से, ब्राह्मण धर्म और क्षात्राधर्म दोनों का
लोप हो गया क़ेवल वणिग्धर्म रह गया। व्यापार नीति राजनीति का प्रधान अंग हो
गई है। बडे-बड़े राज्य माल की बिक्री के लिए लड़नेवाले सौदागर हो गए हैं। अब
सदा एक देश दूसरे देशों का चुपचाप दबे पाँव धन हरण करने की ताक में लगा
रहता है। कोई कोई देश लोभ वश इतना अधिक माल तैयार करते हैं कि उसे किसी देश
के गले मढ़ने की फिक्र में दिन रात मरते रहते हैं। जब तक यह व्यापारोन्माद
दूर न होगा तब तक इस पृथ्वी पर सुखशांति न होगी। दूर यह अवश्य होगा, पर जिस
प्रकार और सब पागलपन दूर होते हैं उसी प्रकार। क्षात्रा धर्म की संसार में
फिर प्रतिष्ठा होगी। चोरी का बदला डकैती से लिया जायगा। संसार में मनुष्य
मात्र की समानवृत्ति कभी नहीं हो सकती। वृत्तियों की भिन्नता के बीच जो
धर्म मार्ग निकल सकेगा वही अधिक चलता होगा। जिसमें शिष्टों के आदर, दीनों
पर दया, दुष्टों के दमन आदि जीवन के अनेक रूपों का सौंदर्य दिखाई पड़ेगा वही
सर्वांगपूर्ण लोकधर्म का मार्ग होगा। क्षात्राधर्म पालन की आवश्यकता संसार
में सब दिन बनी रहेगी। किसी अनाथ अबला पर अत्याचार करने पर एक कूटपिशाच को
हम उद्यत देख रहे हैं। समझाना बुझाना या तो व्यर्थ है अथवा इतना समय ही
नहीं है। ऐसी दशा में यदि उस अबला की रक्षा इष्ट है तो हमें चटपट उस कर्म
में प्रवृत्त होना होगा जिससे उस दुष्ट को बाधा पहुँचे। उस समय का हमारा
क्रोध कितना सुन्दर और अक्रोध कितना घृणित होगा। 'दशवदन निधनकारी' राम के
क्रोध के सौंदर्य पर कौन मोहित न होगा? इसी प्रकार मोहित होकर हम राम,
कृष्ण आदि अपने अवतारों या इष्टदेवों के सामीप्य लाभ का श्रवण कीर्तन,
स्मरण आदि द्वारा प्रयत्न करते रहते हैं। इष्ट के कार्यक्षेत्र में हमें और
भी कई प्रकार के लोग मिलते हैं, जिनमें कुछ ऐसे भी होते हैं जिनसे हमें
पूर्ण घृणा होती है। इनके द्वारा हमारे इष्टदेव के व्यक्तित्व का पूर्ण
विकास दिखाई पड़ता है इनके बीच उनका रंग और भी खुल पड़ता है। राम भी हमारे
काम के हैं, रावण भी हमारे काम का है। एक में हम अपने लिए प्रवृत्ति का
क्रम पाते हैं, दूसरे में निवृत्ति का। जीवन में इस प्रवृत्ति और निवृत्ति
का प्रवाह साथ-साथ चलता रहता है। दुराचारी भी यदि अपने दुराचार का फल संसार
के सामने पूर्ण रूप से भोग लेता है तो संसार के लिए उपयोगी ठहर जाता है।
राम के हाथ से मारे जाने से रावण का जीवन भी सफल हो गया। यदि पापी अपने पाप
का फल एकांत में या अपनी आत्मा में भोग कर चला जाता है तो वह अपने जीवन की
सामाजिक उपयोगिता की एकमात्र संभावना को भी नष्ट कर देता है। पाप का फल
छिपानेवाला पाप छिपानेवाले से अधिक अपराधी है। पर ऐसे बहुत से लोग हैं जो
किसी का घर जलाते हाथ जलता है तो कहते हैं कि होम करते जला है। यदि कहीं
पाप है, अन्याय है, अत्याचार है तो उनका फल उत्पन्न करना और संसार के समक्ष
रखना लोकरक्षा का कार्य है। अपने ऊपर किए जानेवाले अत्याचार और अन्याय का
फल ईश्वर के ऊपर छोड़ देना व्यक्तिगत आत्मोन्नति के लिए चाहे श्रेष्ठ हो पर
यदि अन्यायी या अत्याचारी अपना हाथ नहीं खींचता है तो लोकसंग्रह की दृष्टि
से वह उसी प्रकार आलस्य या कायरपन है जिस प्रकार अपने ऊपर किए हुए उपकार का
कुछ भी बदला न देना कृतघ्नता है। दुराचारियों के जीवन का सामाजिक उपयोग
करने के लिए ही श्रीकृष्ण भगवान् ने अजुर्न को युद्ध में प्रवृत्त किया।
यदि अधर्म में तत्पर कौरवों का नाश न होता और पांडव जीवन भर मारे-मारे ही
फिरते तो संसार में अन्याय और अधर्म की ऐसी लीक खींच जाती जो मिटाए न
मिटती। जिस समाज में सुख और वैभव के रंग में रंगी अधर्म की ऐसी लीक दिखाई
पड़े उसमें रक्षा करनेवाली आत्मा का अभाव तथा विश्वात्मा की विशेष कला के
अवतार की आवश्यकता समझनी चाहिए। रामलीला, कृष्णलीला आदि सामीप्य सिद्धि के
विधान हैं। रामलीला द्वारा लोग वर्ष में एक बार अपने पूज्य देव की आदर्श
मानवलीला का माधुर्य देखते हैं। जिस समय दूर-दूर के गाँवों के लोग एक मैदान
में इकट्ठे होते हैं तथा एक ओर जटा मुकुटधारी विजयी राम लक्ष्मण की मधुर
मूर्ति देखते हैं और दूसरी ओर तीरों से विधा रावण का विकराल शरीर जलता
देखते हैं उस समय वे धर्म के सौंदर्य पर लुब्ध और अधर्म की घोरता पर
क्षुब्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार जब हम कृष्णलीला में जीवन की प्रफुल्लता
के साथ धर्मरक्षा के अलौकिक बल का विकास देखते हैं तब जीवनधारण की हमारी
अभिलाषा दूनी चौगुनी हो जाती है। हिन्दू जाति इन्हीं की भक्ति और प्रेम के
बल से इतनी प्रतिकूल अवस्थाओं के बीच अपना अस्तित्व बचाती चली आई। इन्हीं
की आकर्षण शक्ति से वह इधर-उधर ढलने नहीं पाई। राम और कृष्ण को बिना रक्त
के ऑंसू बहाये छोड़ना हिन्दू जाति के लिए सहज नहीं था, क्योंकि ये अवतार अलग
टीले पर चढ़ खड़े होकर उपदेश देनेवाले नहीं थे, बल्कि मानव जीवन में पूर्ण
रूप से सम्मिलित होकर उसके एक-एक अंश की मनोहरता दिखानेवाले थे। मंगल के
अवसरों पर इनके गीत गाये जाते हैं। विमाताओं की कुटिलता की, बड़ों के आदर
की, दुष्टों के दमन की, जीवन के कष्ट की, घर की, वन की, संपद की, विपद की
जहाँ चर्चा होती है वहाँ इनका स्मरण किया जाता है। आज संसार के बीच अपनी
स्थिति बनाये रखने के लिए जिस युद्ध में हम प्रवृत्त हैं उसमें विजय
प्राप्त करने की कामना से हम मर्यादा पुरुषोत्तम की भूभारहारिणी विजय का
स्मरण करते हैं और कहते हैं, भगवान रामचन्द्र की जय!
(स्वदेश, अक्टूबर 1921)
[ चिंतामणि, भाग-3 ]
रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा विमर्श-
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