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        रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4 
         
        भाषा, साहित्य और समाज विमर्श 
         
        
        भूमिका, टिप्पणी,रिपोर्ट और सम्मति 
        
        
        भाग 
        - 14 
         
        प्रेमघन सर्वस्व (प्रथम भाग) का 'परिचय' 
         
         
        वह भी एक समय था जब भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के सम्बन्ध में एक अपूर्व मधुर 
        भावना लिए सन् 1881 में, आठ नौ वर्ष की अवस्था में, मैं मिर्जापुर आया। 
        मेरे पिताजी जो हिन्दी कविता के बड़े प्रेमी थे, प्राय: रात को रामचरितमानस, 
        रामचन्द्रिका या भारतेन्दुजी के नाटक बड़े चित्तकर्षक ढंग से पढ़ा करते थे। 
        बहुत दिनों तक तो सत्य हरिश्चन्द्र नाटक के नायक हरिश्चन्द्र और कवि 
        हरिश्चन्द्र में मेरी बालवृध्दि कोई भेद न कर पाती थी। हरिश्चन्द्र शब्द से 
        दोनों की एक मिलीजुली अस्पष्ट भावना एक अद्भुत माधुर्य का संचार करती थी। 
        मिर्जापुर आने पर धीरे धीरे यहस्पष्ट हुआ कि कवि हरिश्चन्द्र तो काशी के 
        रहने वाले थे और कुछ वर्ष पहले वर्तमान थे। कुछ दिनों में किसी से सुना कि 
        हरिश्चन्द्र के एक मित्र यहीं रहते हैं और हिन्दी के एक प्रसिध्द कवि हैं। 
        उनका शुभ नाम है उपाधयाय बदरी नारायण चौधरी।  
        भारतेन्दु मंडल के किसी जीते जागते अवशेष के प्रति मेरी कितनी उत्कंठा थी, 
        इसका अब तक स्मरण है। मैं नगर से बाहर रहता था। अवस्था थी बारह या तेरह 
        वर्ष की। एक दिन बालकों की एक मंडली जोड़ी गई, जो चौधरी साहब के मकान से 
        परिचित थे, वे अगुआ हुए। मील डेढ़ मील का सफ़र तै हुआ। पत्थर के एक बड़े मकान 
        के सामने हम लोग जा खडे हुए। नीचे का बरामदा खाली था। ऊपर का बरामदा सघन 
        लताओं के जाल से आवृत्त था। बीच बीच में खम्भेष और खुली जगह दिखाई पड़ती थी। 
        उसी ओर देखने के लिए मुझसे कहा गया। कोई दिखाई न पड़ा। सड़क पर कई चक्कर लगे। 
        कुछ देर पीछे एक लड़के ने उँगली से ऊपर की ओर इशारा किया। लता प्रतान के बीच 
        एक मूर्ति खडी दिखाई पड़ी। दोनों कंधो पर बाल बिखरे हुए थे। एक हाथ खम्भेन 
        पर था। देखते ही देखते वह मूर्ति दृष्टि से ओझल हो गई। बस, यही पहली झाँकी 
        थी।  
        ज्यों ज्यों मैं सयाना होता गया, त्यों-त्यों हिन्दी के पुराने साहित्य और 
        नए साहित्य का भेद भी समझ पड़ने लगा और नए की ओर झुकाव बढ़ता गया। नवीन 
        साहित्य का प्रथम परिचय नाटकों और उपन्यासों के रूप में था जो मुझे घर पर 
        ही कुछ न कुछ मिल जाया करते थे। बात यह थी कि भारत जीवन के स्वर्गीय बाबू 
        रामकृष्ण वर्मा मेरे पिता के क्वींस कॉलेज के सहपाठियों में थे, इससे भारत 
        जीवन प्रेस की पुस्तकें मेरे यहाँ आया करती थीं। अब मेरे पिताजी उन 
        पुस्तकों को छिपाकर रखने लगे। उन्हें डर था कि कहीं मेरा चित्त स्कूल की 
        पढ़ाई से हट न जाय-मैं बिगड़ न जाऊँ। उन दिनों पं. केदारनाथ पाठक ने एक अच्छा 
        हिन्दी पुस्तकालय मिर्जापुर में खोला था। मैं वहाँ से पुस्तकें लाकर पढ़ा 
        करता था। अत: हिन्दी के आधुनिक साहित्य का स्वरूप अधिक विस्तृत होकर मन में 
        बैठता गया। नाटक, उपन्यास के अतिरिक्त विविध विषयों की पुस्तकें और 
        छोटे-बड़े लेख भी साहित्य की नई उड़ान के एक प्रधान अंग दिखाई पड़े। स्व. पं. 
        बालकृष्ण भट्ट का हिन्दी प्रदीप गिरता पड़ता चला जाता था। चौधरी साहब की 
        आनन्द कादम्बिनी भी कभी कभी निकल पड़ती थी। कुछ दिनों में काशी की 
        नागरीप्रचारिणी सभा के प्रयत्नों की धूम सुनाई पड़ने लगी। एक ओर तो वह नागरी 
        लिपि और हिन्दी भाषा के प्रवेश और अधिकार के लिए आन्दोलन चलाती थी, दूसरी 
        ओर हिन्दी साहित्य की पुष्टि और समृध्दि के लिए अनेक प्रकार के आयोजन करती 
        थी। उपयोगी पुस्तकें निकालने के अतिरिक्त एक पत्रिका भी निकालती थी जिसमें 
        नवीन नवीन विषयों की ओर ध्याकन आकर्षित किया जाता था।  
        जिन्हें अपने स्वरूप का संस्कार और उस पर ममता थी जो अपनी परम्परागत भाषा 
        और साहित्य से उस समय के शिक्षित कहलाने वाले वर्ग को दूर पड़ते देख मर्माहत 
        थे, उन्हें यह सुनकर बहुत कुछ ढाँढ़स होता था कि आधुनिक विचारधारा के साथ 
        अपने साहित्य को बढ़ाने का प्रयत्न जारी है और बहुत से नवशिक्षित मैदान में 
        आ गए हैं। सोलह सत्रह वर्ष की अवस्था तक पहुँचते पहुँचते मुझे नवयुवक 
        हिन्दी प्रेमियों की एक खासी मंडली मिल गई जिनमें श्री काशीप्रसाद जैसवाल, 
        बाबू भगवानदास हालना, पं. बदरीनाथ गौड़, पं. लक्ष्मीशंकर और उमाशंकर 
        द्विवेदी मुख्यै थे। हिन्दी के नए पुराने कवियों और लेखकों की चर्चा इस 
        मंडली में रहा करती थी।  
        मैं भी अब अपने को एक कवि और लेखक समझने लगा था। हम लोगों की बातचीत प्राय: 
        लिखने पढ़ने की हिन्दी में हुआ करती थी। जिस स्थान पर मैं रहता था, वहाँ 
        अधिकतर वकील, मुखतार तथा कचहरी के अफसरों और अमलों की बस्ती थी। ऐसे लोगों 
        के उर्दू कानों में हम लोगों की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन लोगों 
        ने हम लोगों का नाम 'निस्संदेह लोग' रख छोड़ा था। मेरे मुहल्ले में एक 
        मुसलमान सब जज आ गए थे। एक दिन मेरे पिताजी खडे खडे उनके साथ कुछ बातचीत कर 
        रहे थे। इसी बीच में मैं उधर जा निकला। पिताजी ने मेरा परिचय देते हुए 
        कहा-''इन्हें हिन्दी का बड़ा शौक है।'' चट जवाब मिला-''आपको बताने की जरूरत 
        नहीं। मैं तो इनकी सूरत देखते ही इस बात से 'वाक़िफ' हो गया।'' मेरी सूरत 
        में ऐसी क्या बात थी यह इस समय नहीं कहा जा सकता। आज से चालीस वर्ष पहले की 
        बात है। 
        चौधरी साहब से तो अब अच्छी तरह परिचय हो गया था। अब उनके यहाँ मेरा जाना एक 
        लेखक की हैसियत से होता था। हम लोग उन्हें एक पुरानी चीज समझा करते थे। इस 
        पुरातत्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का एक अद्भुत मिश्रण था। यहाँ पर 
        यह कह देना आवश्यक है कि चौधरी साहब एक खासे हिन्दुस्तानी रईस थे। 
        वसन्तपंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर उनके यहाँ खूब नाचरंग और उत्सव हुआ 
        करते थे। उनकी हर एक अदा से रियासत और तबियतदारी टपकती थी। कंधो तक बाल लटक 
        रहे हैं। आप इधर से उधर टहल रहे हैं। एक छोटा सा लड़का पान की तश्तरी लिए 
        पीछे पीछे लगा हुआ है। बात की काट छाँट का क्या कहनाहै। 
        जो बातें उनके मुँह से निकलती थीं, उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी 
        बातचीत का ढंग उनके लेखकोंके ढंग से एकदम निराला होता था। नौकरों तक के साथ 
        उनका संवाद निराला होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से कभी कोई गिलास वगैरह 
        गिरा, तो उनके मुँह से यही निकलता कि ''कारे! बचा तो नाहीं!'' उनके 
        प्रश्नों के पहले 'क्यों साहब' अकसर लगा रहता था।  
        वे लोगों को प्राय: बनाया करते थे, इससे उनके मिलनेवाले लोग भी उनको बनाने 
        की फिक्र में रहा करते थे। मिर्जापुर में पुरानी परिपाटी के एक प्रतिभाशाली 
        कवि थे, जिनका नाम था-वामनाचार्य गिरि। एक दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर 
        एक कवित्ता जोड़ते चले जा रहे थे। अन्तिम चरण रह गया था कि चौधरी साहब अपने 
        बरामदे में कंधो पर बाल छिटकाए खम्भेय के सहारे खडे दिखाई पड़े। चट कवित्ता 
        पूरा हो गया और वामनजी ने नीचे से वह कवित्ता ललकारा, जिसका अन्तिम चरण 
        था-खम्भाव टेकि खडी जैसे नारि मुगलाने की।''  
        एक दिन कई लोग बैठे बातचीत कर रहे थे, कि इतने में एक पंडितजी आ गए। चौधरी 
        साहब ने पूछा-''कहिए क्या हाल है?'' पंडितजी बोले-''कुछ नहीं, आज एकादशी 
        थी, कुछ जल खाया है और चले आ रहे हैं।'' प्रश्न हुआ-''जल ही खाया है कि कुछ 
        फलाहार भी पिया है?''  
        एक दिन चौधरी साहब के एक पड़ोसी उनके यहाँ पहुँचे। देखते ही सवाल 
        हुआ-''क्यों साहब, एक लफ्ज़ मैं अकसर सुना करता हूँ, पर उसका ठीक अर्थसमझ 
        में न आया। आखिर घनचक्कर के क्या मानी हैं, उसके क्या लक्षण 
        हैं?''पड़ोसीमहाशय बोले-''वाह, यह क्या मुश्किल बात है। एक दिन रात को सोने 
        के पहले कागज कलम लेकर सबेरे से रात तक जो जो काम किए हैं, सब लिख जाइए और 
        पढ़जाइए।''  
        मेरे सहपाठी पं. लक्ष्मीनारायण चौबे, बाबू भगवानदास हालना, बाबू भगवानदास 
        मास्टर (इन्होंने उर्दू बेगम नाम की एक बड़ी ही विनोदपूर्ण पुस्तक लिखीथी, 
        जिसमें उर्दू की उत्पत्ति, प्रचार आदि का वृत्तांत एक कहानी के ढंग पर दिया 
        गया था) इत्यादि कई आदमी गर्मी के दिनों में छत पर बैठे चौधरी साहब से 
        बातचीत कर रहे थे। चौधरी साहब के पास ही एक लैम्प जल रहा था। लैम्प की 
        बत्तीब एक बार भभकने लगी। चौधरी साहब नौकरों को आवाज देने लगे। मैंने चाहा 
        कि बढ़कर बत्तीि नीचे गिरा दूँ; पर पंडित लक्ष्मीनारायण ने तमाशा देखने के 
        लिए धीरे से मुझे रोक लिया। चौधरी साहब कहते जा रहे हैं-''अरे जब फूट जाई 
        तबै चलत जाबऽ।'' अन्त में चिमनी ग्लोब के सहित चकनाचूर हो गई; पर चौधरी 
        साहब का हाथ लैम्प की तरफ आगे न बढ़ा।  
        उपाधयायजी नागरी को भाषा का नाम मानते थे और बराबर नागरी भाषा लिख करते थे। 
        उनका कहना था कि ''नागर अपभ्रंश से, जो शिष्ट लोगों की भाषा विकसित हुई, 
        वही नागरी कहलाई।'' इसी प्रकार वे मिर्जापुर न लिखकर मीरजापुर लिख करते थे, 
        जिसका अर्थ वे करते थे लक्ष्मीपुर। मीर=समुद्र+जा=पुत्री+पुर।  
        हिन्दी साहित्य के आधुनिक अभ्युत्थान का मुख्यु लक्षण गद्य का विकास था। 
        भारतेन्दु काल में हिन्दी काव्यधारा नए नए विषयों की ओर भी मोड़ी गई पर उसकी 
        भाषा पूर्ववत् व्रज ही रही; अभिव्यंजना की शैली में भी कुछ विशेष परिवर्तन 
        लक्षित न हुआ। एक ओर तो ऋंगार और वीर रस की रचनाएँ पुरानी पध्दति पर 
        कवित्ता सवैयों में चलती रहीं दूसरी ओर देशभक्ति, देशगौरव, देश की दीन दशा, 
        समाज सुधर तथा और अनेक सामान्य विषयों पर कविताएँ प्रकाशित होती थीं। इन 
        दूसरे ढंग की कविताओं के लिए रोला छन्द उपयुक्त समझा गया था।  
        भारतेन्दु युग प्राचीन और नवीन का सन्धिकाल था। नवीन भावनाओं को लिए हुए भी 
        उस काल के कवि देश की परम्परागत चिरसंचित भावनाओं और उमंगों से भरे थे। 
        भारतीय जीवन के विविध स्वरूपों की मार्मिकता उनके मन में बनी थी। उस जीवन 
        के प्रफुल्ल स्थल उनके हृदय में उमंग उठाते थे। पाश्चात्य जीवन और 
        पाश्चात्य साहित्य की ओर उस समय इतनी टकटकी नहीं लगी थी कि अपने परम्परागत 
        स्वरूप पर से दृष्टि एकबारगी हटी रहे। होली, दीवाली, विजयादशमी, रामलीला, 
        सावन के झूले आदि के अवसरों पर उमंग की जो लहरें देश भर में उठती थीं उनमें 
        उनके हृदय की उमंगें भी योग देती थीं। उनका हृदय जनता के हृदय से विच्छिन्न 
        न था। चौधरी साहब की रचनाओं में यह सब बातें स्पष्ट देखने को मिलती हैं। 
        जिस प्रकार उनके लेख और कविताएँ नेशनल काँग्रेस, देशदशा आदि पर हैं उसी 
        प्रकार त्योहारों, मेलों और उत्सवों पर भी। मिर्जापुर की कजली प्रसिध्द है। 
        चौधरी साहब ने कजली की एक पुस्तक ही लिख डाली है जो इस पुस्तक में 
        वर्षाबिन्दु के अन्तर्गत संगृहीत है। उस सन्धिकाल के कवियों में ध्या न 
        देने की बात यह है कि वे प्राचीन और नवीन का योग इस ढंग से करते थे कि कहीं 
        से जोड़ नहीं जान पड़ता था, उनके हाथों में पड़कर नवीन भी प्राचीनता का ही एक 
        विकसित रूप जान पड़ता था। 
        दूसरी बात ध्या न देने की है उनकी सजीवता या जिन्दादिली। आधुनिक साहित्य का 
        वह प्रथम उत्थान कैसा हँसता खेलता सामने आया था। उसमें मौलिकता थी, उमंग 
        थी। भारतेन्दु के सहयोगी लेखकों और कवियों का वह मंडल किस जोश और 
        जिन्दादिली के साथ कैसी चहल पहल के बीच अपना काम कर गया।  
        चौधरी साहब का हृदय कविहृदय था। नूतन परिस्थितियाँ भी मार्मिकर् मूर्तरूप 
        धारण करके उनकी प्रतिभा में झलकती थीं! जिस परिस्थिति का कथन भारतेन्दु ने 
        यह कह कर किया है-  
        ऍंगरेज राज सुखसाज सबै अति भारी।  
        पै धन बिदेस चलि जात यहै अति ख् वारीड्ड 
        और पं. प्रतापनारायणजी ने यह कह कर- 
        जहाँ कृषी बाणिज्य शिल्प सेवा सब माहीं।  
        देसिन के हित कछू तत्वस कहुँ कैसहुँ नाहींड्ड 
        उसी परिस्थिति की व्यंजना हमारे चौधरी साहब ने अपने भारत सौभाग्य नाटक में 
        सरस्वती और दुर्गा के साथ लक्ष्मी के प्रस्थान समय के वचनों द्वारा बड़े 
        हृदयस्पर्शी ढंग से की है।  
        अतीत जीवन की, विशेषत: बाल्य और कुमार अवस्था की स्मृतियाँ, कितनी मधुर 
        होती हैं! उनकी मधुरता का अनुभव प्रत्येक भावुक करता है, कवियों का तो कहना 
        ही क्या? हमारे चौधरी साहब ने अतीत की स्मृति में ही 'जीर्ण जनपद' के नाम 
        से एक बहुत बड़ा वर्णनात्मक प्रबन्धकाव्य लिख डाला है। 
        'जीर्ण जनपद' की 'पूर्वदशा' का वर्णन कवि यों करता है- 
        कटवाँसी बँसवारिन को रकबा जहँ मरकत। 
        बीच बीच कंटकित वृक्ष जाके बठि लरकतड्ड 
        छाई जिन पर कुटिल कटीली बेलि अनेकन।  
        गोलहु गोली भेदि न जाहि जाहि बाहर सनड्ड  
        दूसरे स्थान पर कवि 'मकतबखाने' का बड़ा ही चित्ताकर्षण वर्णन करता है-  
        ''पढ़त रहे बचपन में हम जहँ निज भाइन सँग। 
        अजहुँ आय सुधि जाकी पुनि मन रँगत सोई रँगड्ड 
        रहे मोलबी साहेब जहँ के अतिसय सज्जन।  
        बूढे सत्तार बत्सर के पै तऊ पुष्ट तनड्ड''  
        इसी प्रकार 'अलौकिक लीला' काव्य में भक्ति रस में लीन होकर कवि ने 
        कृष्णचरित का वर्णन बड़े मनोहर ब्योरों के साथ किया है।  
        चौधरी साहब स्थान स्थान पर अनुप्रास और वर्णमैत्री गद्य तक में चाहते थे। 
        एक बार आनन्द कादम्बिनी के लिए मैंने भारत वसन्त नाम का एक पद्यबध्द दृश्य 
        काव्य लिख, उसमें भारत के प्रति वसन्त का यह वाक्य उपालम्भ के रूप में था-
         
        बहु दिन नहिं बीते सामने सोइ आयो।  
        गरजि गजनबी ते गर्व सारो गिरायोड्ड 
        दूसरी पंक्ति उन्हें पसन्द तो बहुत आई पर उन्होंने उदासी के साथ 
        कहा-''हिन्दू होकर आप से यह लिख कैसे गया? 
        वे कलम की कारीगरी के कायल थे। जिस काव्य में कोई कारीगरी न होवह उन्हें 
        फीका लगता था। एक दिन उन्होंने एक छोटी सी कविता अपने सामने बनाने को कहा; 
        शायद देशदशा पर। मैं नीचे की यह पंक्ति लिख कर कुछ सोचने लगा।  
        'विकल भारत, दीन आरत, स्वेद गारत गात।' 
        आपने कहा-''आपने पहले ही चरण में ज्यादा घना काम कर दिया।''  
        चौधरी साहब के जीवन काल में ही खडी बोली का व्यवहार कविता में बेधड़क होने 
        लगा था और वह इनके सदृश अच्छे कवियों के हाथ में पड़कर खूब मँजगई थी। 
        भारतेन्दु के समय में कविता के केवल विषय कुछ बदले थे। अब भाषा भी बदली। 
        अत: हमारे चौधरी साहब ने भी कई कविताएँ खडी बोली में बहुत ही प्रांजल 
        लिखीहैं।  
        यह पहले ही कहा जा चुका है कि हमारे कवि में रसिकता और चुहलबाजी कूट कूट कर 
        भरी थी। ऐसे रसिक जीव का संगीत प्रेमी होना आश्चर्य की बात नहीं। उन्होंने 
        बहुत सी गाने की चीजें बनाईं जो उन्हीं के सामने मिर्जापुर में गाई जाने 
        लगीं। चौधरी साहब कितने बड़े संगीत के आचार्य थे यह उनके गीतों से स्पष्ट 
        रूप से विदित हो जाता है। चौधरी साहब ने होली आदि उत्सवों पर होली ही नहीं 
        कबीर की भी बड़ी सुन्दर रचनाएँ की हैं जैसे- 
        ''कबीर अर र र र र र र हाँ।  
        होरी हिन्दुन के घरे भरि भरि धावत रंग,  
        सब के ऊपर नावत गारी गावत पीये भंग,  
        भल्ला भले भागैं बेधरमी मुँह मोरे।''  
        विवाह आदि शुभ अवसरों पर गाने के उपयुक्त भी उनकी सुन्दर रचनाएँ हैं, 
        जैसे-वनरा के गीत, समधिन की गाली इत्यादि। उदाहरणार्थ-  
        ''सुनिये समधिन सुमुखिसयानी। 
        आवहु दौरि देहु दरसन जनि प्यारी फिरहु लुकानीड्ड 
        फैली सुभग सरस कीरति तुव, सुन सबहिन सुखदानीड्ड'' 
        अन्त में मैं इतना कहना चाहता हूँ कि मुझे चौधरी साहब के सत्संग का अवसर उस 
        समय प्राप्त हुआ था जब वे वृध्द हो गए थे और उनकी लेखनी ने बहुत कुछ 
        विश्राम ले लिया था। फिर भी उनकी एक एक बात का स्मरण मुझे किसी अनिर्वचनीय 
        भावना में मग्न कर देता है। साहित्य में उनका स्मरण आधुनिक हिन्दी साहित्य 
        के प्रथम उत्थान का स्मरण है।  
        (आश्विन कृष्ण 3, 1939 ई.) 
         
         
         
         
         
         
         
        हिन्दी की प्राचीन और नवीन काव्यधारा का 'परिचय' 
         
         
        'हिन्दी की प्राचीन और नवीन काव्यधारा' में श्री सूर्यबली सिंहजी, एम. ए. 
        ने दोनों धाराओं की विभिन्नता प्रकट करनेवाली बहुत सी विशेषताओं का अच्छा 
        उद्धाटन किया है। इन विशेषताओं की ओर ध्यान देने से दोनों प्रकार की 
        कविताओं के स्वरूप का परिचय और वर्तमान कविता की भिन्न भिन्न शाखाओं का 
        आभास मिल जाता है। हमारे काव्य क्षेत्र में ज्यों ज्यों अनेकरूपता का विकास 
        होता जायगा त्यों त्यों ऐसी पुस्तक की आवश्यकता बढ़ती जायगी। अत: हमें पूरी 
        आशा है कि यह पुस्तक उपयोगी सिध्द होगी और सूर्यबली सिंहजी बराबर अपने 
        साहित्य की गतिविधि इसी प्रकार परखते रहेंगे। 
        (1939 ई.) 
        [ चिन्तामणिभाग]  
        ('हिन्दी की प्राचीन और नवीन काव्यधारा' रीवाँ निवासी श्री सूर्यबली सिंह 
        की समीक्षा पुस्तक है। सूर्यबली सिंह शुक्लजी के शिष्य थे-संपादक) 
         
         
         
         
         
        कूट कलस के लिए 'दो 
        शब्द' 
         
         
        हमारे हिन्दी साहित्य में चमत्कारपूर्ण सूक्तियों, दृष्टिकूटों और पहेलियों 
        का एक विशेष स्थान रहा है। नीति, ऋंगार आदि की बहुत सी वाग्वैचित्रयपूर्ण 
        उक्तियाँ जनसाधारण के बीच प्रचलित चली आती हैं। उनका संग्रह वांछनीय है। 
        बड़े हर्ष की बात है कि श्री गुरुनारायण शुक्ल ने इस ओर ध्यान देकर एक अच्छा 
        संग्रह हमारे सामने रखा है। इसमें अनके विषयों पर चक्कर में डालने वाली 
        सूक्तियाँ, पहेलियाँ आदि हैं जिसके अर्थ भी फुटनोटों द्वारा स्पष्ट कर दिए 
        गए हैं। पुस्तक कई दृष्टियों से उपयोगी है। आशा है, शुक्लजी अपना यह 
        स्तुत्य प्रयत्न जारी रखेंगे और अपने साहित्य की इस सामग्री का उध्दार करके 
        एक बड़े अभाव की पूर्ति करेंगे। 
        (जुलाई, 1939) 
        [ चिन्तामणिभाग-4]  
        ('कूट कलस' का संकलन संपादन श्री गुरुनारायण शुक्ल ने किया था। इसका 
        प्रकाशन सरस्वती पुस्तक भंडार, आर्यनगर, लखनऊ से 1939 ई में हुआ। अधाम कहे 
        जानेवाले काव्य के प्रति शुक्लजी का क्या दृष्टिकोण था, इस भूमिका से 
        स्पष्ट है-संपादक) 
         
         
         
        
         उत्तरी ध्रुव 
         
         
        उत्तरी ध्रुव का पता लगाने के लिए समय-समय पर कितने ही साहसी योरपियन जा 
        चुके हैं पर अब तक किसी ने नहीं कहा था कि ठीक ध्रुव तक पहुँचे हैं। अब 
        डॉक्टर कुक और कमांडर पीरी नामक दो अमेरिकन लौटकर आए हैं जो कहते हैं कि हम 
        ठीक ध्रुव तक हो आए। इनमें से कमांडर पीरी का नाम तो इस सम्बन्ध में पहिले 
        भी सुना गया है पर डॉक्टर कुक से लोग उतने परिचित नहीं हैं। डॉक्टर कुक 
        बहुत दिनों से ध्रुव यात्रा की चेष्टा में लगे थे। अन्त में डेनमार्क की 
        सरकार ने उन्हें उत्तरी ध्रुव का पता लगाने के लिए भेजा। पहिली सितम्बर को 
        डेनमार्क की राजधानी कोपनहेजिन से समाचार मिला कि डॉक्टर कुक उत्तरी ध्रुव 
        का पता लगा आए। उन्होंने अपनी यात्रा का विवरण 2 सितम्बर के न्यूयार्क 
        हेराल्ड (पैरिस संस्करण) में प्रकाशित कराया। विवरण संक्षिप्त रूप से 
        हिन्दी पत्रों में भी निकल चुका है। उसमें कोई अधिक विशेषता नहीं। वही बर्फ 
        के मैदान और पहाड़, कुहिरे का अन्धकार, छह महीने की मनहूस रात उसमें भी है। 
        डॉक्टर कुक लिखाते हैं कि 21 अप्रैल को मैं ठीक ध्रुव पर पहुँच गया। वहाँ 
        जो देखा तो उत्तर, पूर्व और पश्चिम दिशाओं का कुछ भी पता नहीं था। कम्पास 
        की सुई हर एक ओर दक्षिण दिशा बता रही थी। किसी जीव-जन्तु का चिद्द भी नहीं 
        था। गहिरा सन्नाटा छाया हुआ था।  
        इसके उपरान्त कमांडर पीरी, जो अमेरिकन सरकार की ओर से ध्रुव का पता लगाने 
        के लिए भेजे गए थे, अपनी यात्रा से लौटकर आए और कहने लगे कि कुक ध्रुव तक 
        कभी नहीं पहुँचे, ध्रुव तक पहुँचा हूँ मैं। इन्होंने यहीं तक बस न किया वरन 
        कहा कि डॉक्टर कुक ने हमारे कुछ एस्किमों लोगों को अधिक रुपया देकर, अपनी 
        तरफ बहँका लिया। पीछे से मालूम हुआ कि पीरी इससे कहीं बढ़कर अपराधों का 
        स्वयं दोषी है। उसने डॉक्टर कुक की रसद को उठवा लिया जो जाड़े के खर्च के 
        लिए एक जगह जमा थी और इस प्रकार डॉक्टर साहब और उनके साथियों को उन बर्फीले 
        निर्जन मैदानों में भूखों मारने का सामान किया। एक उदारता और सुनिए। लौटती 
        बार डॉक्टर कुक ने अपने यात्रा विषयक कागज-पत्र अमेरिका के मिस्टर ह्निटने 
        के हवाले कर दिए थे। मिस्टर ह्निटने पीरी के जहाज पर चढ़कर लैब्रेडोर में 
        खाली हाथ आए और कहले लगे कि हम वे सब कागज ग्रीनलैंड के एटा नामक स्थान में 
        छोड़ आए हैं क्योंकि पीरी ने डॉक्टर कुक की वस्तु अपने जहाज पर लेना 
        अस्वीकार किया। ये बातें पीरी की ईर्ष्याेप्रगट करने वाली और उसके कथन की 
        सारता में सन्देह उत्पन्न करने वाली हैं।  
        (नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अक्टूबर, 1909) 
         
         
         
         
        
         हेली का पुच्छल तारा 
         
        1910, अप्रैल और मई महीनों में जिस पुच्छल तारे के दिखाई देने की विलायती 
        ज्योतिषियों ने भविष्यद्वाणी की है उसे हेली का पुच्छल तारा कहते हैं। लोग 
        जानते हैं कि पुच्छल तारों की सामयिक गति आदि का कुछ ठीक नहीं रहता। हेली 
        नामक एक अंगरेज ज्योतिषी ने पहिले पहिल उस तारे की गति और उसके दृश्यकाल 
        आदि को निश्चित किया। इसी से इसका नाम 'हेली का पुच्छल तारा' पड़ गया।  
        एडमंड हेली का जन्म लंडन नगर में हुआ था। उसका बाप एक धनी साबुन बनाने वाला 
        था। हेली की गणित और ज्योतिष की ओर आरम्भ ही से रुचि थी। उसने अपने पिता की 
        आर्थिक सहायता से इन विद्याओं में अच्छा अभ्यास किया और ग्रह मार्गों के 
        निर्णय का एक नया ढंग निकाला। उन्हीं दिनों में न्यूटन ने अपने प्रसिध्द 
        आकर्षण सिध्दान्त से योरप के लोगों में खलबली डाल रक्खीे थी। हेली ने यही 
        देखने के लिए कि सब ग्रह्रूपडों के विषय में न्यूटन का सिध्दान्त ठीक उतरता 
        है कि नहीं 24 पुच्छल तारों की गति आदि की जाँच कर डाली। इन्हींल 24 में से 
        वे तीन तारे थे जो 24 अगस्त 1531, 16 अक्टूबर 1607 और 24 सितम्बर 1682 को 
        दिखाई पड़े थे। इन तारों में परस्पर कई बातों में समानता देखकर हेली ने 
        निश्चित कर लिया कि हो न हो ये तीनों तारे एक ही हैं। इस प्रकार स्थूल रूप 
        से इनके दृश्यकाल का अन्तर निकल आया। हेली ने समझ लिया कि कालक्रम में जो 
        थोड़ा सा फर्क पड़ जाता है वह मंगल और बृहस्पति आदि ग्रहों के गड़बड़ डालने से 
        होता है। मंगल और बृहस्पति स्वयं एक दूसरे की गति में गड़बड़ डाल देते हैं 
        जिससे उनका उदयकाल ठीक नियमित नहीं रहने पाता। दो-एक दिन का गड़बड़ पड़ ही 
        जाता है। बहुत मन्द गति से गमन करने वाले पिंडों (जैसे-पुच्छल तारे) पर तो 
        इस गड़बड़ का और भी अधिक असर पड़ता है। इन सब बातों को विचार कर हेली ने अपनी 
        प्रसिध्द भविष्यद्वाणी की कि वह पुच्छलतारा 1758 में फिर दिखाई पडेग़ा। हेली 
        तो अपनी इस भविष्यद्वाणी के पूरा होने के पहिले ही मर गया पर क्लिमाट आदि 
        फरासीसी ज्योतिषियों ने नक्षत्रों की बाधा आदि का पूरा हिसाब करके बताया कि 
        वह पुच्छल तारा सन् 1759 में 13 अप्रैल के इधर-उधर रवि नीच में अर्थात 
        सूर्य के निकट आवेगा। सचमुच उसी साल 12 मार्च को वह तारा दिखाई पड़ा। इसके 
        उपरान्त फिर अपने 75-76 वर्ष के नियमित क्रम के अनुसार यह सन् 1835 में 23 
        सितम्बर को खाली आँखों से देखा गया और 24 सितम्बर को उसकी पूँछ दिखाई पड़ी। 
        1864 ई. में पाण्टी कोलेण्ट ने सूचित किया कि यह तारा 24 मई सन् 1910 में 
        फिर सूर्यमण्डल के निकट आवेगा। क्रामलिन और कावेल नामक विद्वानों ने इसका 
        समर्थन किया और बड़े परिश्रम से इस विषय की छानबीन की जिसका विवरण 
        अस्ट्रानामिकल सोसाइटी की नोटिसों में मिलेगा। इन महाशयों ने हाईड के मत को 
        भी पुष्ट किया जिसने ऐतिहासिक आधारों पर 11 ई. पू. उसका उदय होना बतलाया 
        था। ये लोग अपनी छानबीन को और भी प्राचीन काल तक ले गए और इन्होंने बतलाया 
        कि यह तारा अपने नियमित क्रम के अनुसार ईसा से 87 वर्ष पूर्व भी दिखाई पड़ा 
        था जिसकी चर्चा चीनी इतिहासों में इस प्रकार है-''हाडयून के (राजत्व काल 
        के) दूसरे वर्ष, सातवें महीने में एक पुच्छल तारा पूर्व दिशा में दिखाई 
        पड़ा।'' इन दोनों ज्योतिषियों ने 1910 के विषय में कहा है कि यह तारा वर्ष 
        के आरम्भ में सन्ध्याा के समय साधारण तारे के समान दिखाई पड़ेगा। मार्च में 
        वह फिर गायब हो जायगा। 12 मई को वह हमारे और सूर्य के बीच से होकर 7005000 
        मील की दूरी पर से गमन करेगा और दो-एक सप्ताह तक चमकता हुआ दिखाई देगा। 
        (नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अक्टूबर, 1909) 
         
         
         
         
        
         एक नया आन्दोलन 
         
         
        [ उपर्युक्त शीर्षक के अन्तर्गत ''ईस्ट ऐंड वेस्ट'' के सम्पादक ने एकलिपि 
        और एकभाषा पर (दिसम्बर 1909) अपने कुछ विचार प्रगट किए हैं जिसका सारांश 
        नीचे दिया जाता है। ]  
        एक भाषा और एक लिपि का होना स्वप्न के समान नहीं है। .... का धारहरा फिर से 
        उठाना असम्भव क्यों समझा जाय? भाषा में जो परस्पर सहानुभूति उत्पन्न करने 
        की शक्ति है उसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। एक भाषा रहने से कोई व्यक्ति 
        अपनी आत्मा का प्रतिबिम्ब दूसरे में देख सकता है। कोई विरोध आ पड़ने पर भी 
        मेल की आशा बनी रहती है। यद्यपि ऍंगरेज और अमेरिकन अलग हो गए हैं पर भाषा 
        के कारण उनमें बहुत कुछ आत्मीयता बनी हुई है। 
        बहुत काल तक संस्कृत भाषा भारतवर्ष के भिन्न भिन्न भागों को एक किए रही। 
        विलसन ने ठीक ही कहा है-''इस विस्तृत देश के हिन्दुओं को हम संस्कृत ही के 
        सहारे अपनी तरह पहिचान सकते हैं। उनके उद्वेगों, कर्मों, धारणाओं तथा 
        त्रुटियों का उद्गमस्थान संस्कृत है। 
        संस्कृत किसी न किसी समय कहीं पर ठीक उसी तरह अवश्य बोली जाती रही होगी 
        जैसे अंगरेजी लंडन में और मराठी पूना में। यह भी सम्भव है कि जिस समय वह 
        बोली जाती रही होगी उसका विस्तार भारत में बहुत दूर तक न रहा हो। पर पीछे 
        से उसके साहित्य ने, उसके साहित्य की भाषा ने, देश के प्रत्येक विभाग के 
        विद्वानों को एक दूसरे से मिलकर बातचीत करने योग्य बना दिया। अत: कुछ लोगों 
        ने संस्कृत को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने का परामर्श दिया है। पर उसे 
        ग्रहण करने में दो बाधाएँ हैं। एक तो यह कि वह कहीं बोली नहीं जाती, दूसरी 
        यह कि उसका व्याकरण बड़ा विकट और विस्तृत है। इस दूसरी बाधा को दूर करने के 
        लिए किसी किसी ने संस्कृत व्याकरण को सुगम और सरल करने की व्यवस्था दी है। 
        पर कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि संस्कृत का व्याकरण परिवर्तित करके सरल कर 
        दिया जायगा तो वह संस्कृत ही न रह जायगी। वह एक नई भाषा हो जायगी जिसे बिना 
        किसी साहित्य के अपने लिए राह निकालनी पड़ेगी। 
        अब रही अंगरेजी। किसी देशभाषा की अपेक्षा अंगरेजी का सीखना कठिन ही है। 
        प्रत्येक श्रेणी के भारतवासी को उसे अच्छी तरह सीखने भर का समय मिलना एक 
        अनहोनी बात समझिए। हिन्दी उन स्थानों में भी अच्छी तरह समझ ली जाती है जहाँ 
        के लोग उसको बोलने में अभ्यस्त नहीं हैं। महाराष्ट्र के लोग तो समझते ही थे 
        पर मद्रास प्रान्त तक में संस्कृत शब्दों का प्रभाव है। यह थोड़ी बहुत समझी 
        जा सकती है। हिन्दी का व्याकरण भी सीधा है अत: उसका सीखना मद्रासियों को भी 
        अंगरेजी से सुगम ही पड़ेगा। यह सब कुछ सही; पर अब प्रश्न यह है कि उसके 
        सीखने की परवा कौन करेगा? किसको पड़ी है कि बैठे बिठाए एक और भाषा सीखे? 
        इसका उत्तर हिन्दी के पक्षपाती लोग यह देते हैं कि भिन्न भिन्न प्रान्तों 
        के अंगरेजी पढ़े लोग जिस प्रकार देश की बातों पर परस्पर विचार प्रगट करते 
        हैं उसी प्रकार अंगरेजी न जाननेवाले लोग भी करना चाहेंगे। दूसरे प्रान्त के 
        निवासियों के साथ विचार परिवर्तन की आकांक्षा रखनेवालों की संख्या अब दिन 
        दिन बढ़ेगी। 
        यह एकभाषा विषयक आन्दोलन किसी उद्देश्य से नहीं उत्पन्न हुआ है वरन् सोच 
        समझ कर उठाया गया है। इसकी सफलता के लिए सलाह दी गई है कि समस्त भारतवर्ष 
        के विद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाय। इससे शिक्षा का व्यय अवश्य बढ़ेगा। इस 
        व्यय को कुछ कम करने का एक उपाय यह हो सकता है कि भिन्नभिन्न प्रान्तों से 
        अध्यामपक लोग हिन्दी सीखने के लिए काशी या किसी और स्थान में भेजे जायँ। पर 
        यह तो मानना ही होगा कि शिक्षा का खर्च बढ़ेगा। संस्कृत आदि भाषाओं के लिए 
        जिस प्रकार व्यय करना पड़ता है उसी प्रकार हिन्दी के लिए भी करना पड़ेगा। 
        यह सब क्यों? इसलिए कि जिसमें भारत के भिन्न भिन्न प्रान्तों के निवासीगण 
        अपनी अच्छाई बुराई के सम्बन्ध में परस्पर बातचीत करें व इस आन्दोलन की 
        उपयोगिता और सफलता का अन्दाज इस परीक्षा से हो। सरकार प्रत्येक बड़े नगर में 
        हिन्दी के दरजे खोले। यदि देखा जाय कि लोग अपनी खुशीसे उसमें आ रहे हैं तो 
        यह समझना चाहिए कि लोगों के हृदय में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की इच्छा 
        जागृत हो गई है। नहीं तो इस आन्दोलन को बालू पर की भीत समझना चाहिए। 
        (नागरीप्रचारिणी पत्रिका, दिसंबर, 1909) 
         
         
         
         
        
         जापानी खोज 
         
         
        जापानी बौध्दों के अधिष्ठाता काउंट ओटनी का सेक्रेटरी टाशिबाना नामक एक बीस 
        वर्ष का युवा जापानी मध्य एशिया में पुरावृत्ता के अनुसंधन के लिए निकला। 
        जून 1908 में वह चीन की राजधानी पेकिक्ष् से कुछ छकड़े और टट्टू लेकर 
        मंगोलिया के प्रधान नगर उरना की ओर गया। वहाँ से रेल मार्ग से वह 
        उलियस्तामी गया। राह में उसने ओरखन नगर के खँडहरों को देखा जो किसी समय 
        मंगोलों की राजधानी थी। यहाँ उइगर्की खाँका स्मारक मिला जिसमें कई शिलालेख 
        सातवीं शताब्दी से कुछ पीछे तक के थे। वहाँ से काब्दो नगर देखकर उसने 
        अल्टाई पर्वत को पार किया और चीनी तुर्किस्तान की राजधानी उसम्टाई में आकर 
        कुछ दिन रहा। जाड़े में वह टरफन पहुँचा जो सोलहवीं शताब्दी तक एक समृध्द नगर 
        था। उसके आसपास बौध्द मन्दिरों के बहुत से खँडहर हैं। टाशिबाना यहाँ एक 
        महीने रहकर स्थानों को खोदकर छानबीन करता रहा। उसका परिश्रम सफल हुआ और उसे 
        वहाँ कई बहुत प्राचीन बौध्द सूत्र मिले। इनमें से कुछ तो चौथी शताब्दी के 
        थे और बाकी सातवीं के। जनवरी 1909 में वह टरफन से चलकर कारशर और कुर्ला आया 
        जहाँ पहले डॉक्टर स्टीन ने कुछ छानबीन की थी। कुर्ला से उसकी मंडली दो दलों 
        में बँट गई। एक दल तो व्यापार मार्ग से सीधे कारशर की ओर गया और दूसरा 
        टारिम नदी के कछारों से होता हुआ लाबनार की झील की ओर बढ़ा। टाशिबाना इसी 
        दूसरे दल के साथ चला क्योंकि उसे लूनन नगर की जाँच करनी थी। यह लूनन नगर एक 
        प्राचीन राजवंश की राजधानी थी जिसने 200 ई. पू. से लेकर छठवीं शताब्दी तक 
        राज्य किया। यहाँ पर उसने बहुत सी अमूल्य पुस्तकों को खोजकर निकाला। इसके 
        अनन्तर वह चर्चिन और निया में गया जहाँ से उसने टारिम के रेगिस्तान की ओर 
        कई चढ़ाइयाँ की पर हर बार पानी के अभाव के कारण वह लौटलौट आया। 6 जुलाई को 
        वह काशगर आया और फिर दूसरे दल को भी साथ लेकर 27 अक्टूबर को लेह पहुँचा। 
        काउंट ओटनी भी उस समय भारत की सैर करते हुए काश्मीर के सोनामर्ग नामक स्थान 
        में पहुँचे हुए थे। वहीं पर टाशिबाना आकर उनसे सातवीं नवम्बर को मिला। इस 
        तरह इस अल्पवयस्क साहसी जापानी युवक ने मध्य एशिया की छानबीन की जहाँ न 
        जाने कितने हस्तलिखित ग्रन्थ गड़े पड़े हैं। 
        टाशिबाना भारतवर्ष में भी आया था और अपने साथ तीस लम्बे लम्बे प्राचीन 
        हस्तलिखित खर्रे लाया था जिनमें पूर्ण और अपूर्ण बहुत से बौध्द सूत्र हैं। 
        इनमें से एक तो उर्गा का है जो बारह गज लम्बा है। दूसरा लम्बाई में तीन फुट 
        है। इनमें एक तरफ तो चीनी भाषा में बौध्दसूत्र हैं और दूसरी तरफ मंगोल भाषा 
        में मंजुश्री की वन्दना है। इनके सिवाय छोटे छोटे पत्रों का बड़ा भारी 
        संग्रह है जिनमें चीनी उरगर, कोक तुर्की और काशगर ब्राह्मी के लेख हैं। कुछ 
        काठ के टुकड़े भी हैं जिनमें तिब्बती ब्राह्मी और ख्रोष्ठी लिपियाँ अंकित 
        हैं। सबसे अधिक ध्यान देने योग्य एक चीनी राजदूत का 'स्थानिक राजाओं' के 
        नाम एक पत्र है जिसमें वह अपने को 'पश्चिमी देशों का कार्यनिरीक्षक' लिखता 
        है। इस पद का उल्लेख चीनी इतिहास में नहीं मिलता। ऐसा अनुमान होता कि पत्र 
        का लेखक हन राजवंश की उस पिछली शाखा का कर्मचारी था जिसका शासन पहली और 
        दूसरी शताब्दियों में था। पत्र पर कोई तिथि नहीं है, पर वह दूसरी शताब्दी 
        के इधर का नहीं हो सकता। 
        काउंट ओटनी और टाशिबाना इन सब चीजों को लेकर योरप गए हैं। वहाँ इनकी जाँच 
        होगी। एक महीना हुआ कि इन खर्रों और पत्रों को 'कलकत्ता मदरसा' के मिस्टर 
        रास ने देखा था और बहुतों को पढ़ा था क्योंकि उनके अक्षर बहुत ही दिव्य और 
        स्पष्ट हैं। 
        (नागरीप्रचारिणी प्रत्रिका, 15 फरवरी, 1910 ई ) 
        [ चिन्तामणिभाग-4]  
         
         
         
        
         भारतीय शिल्पकला 
         
         
        मिस्टर विन्सेंट स्मिथ ने, जो भारतीय शिल्प के बड़े जानकार समझे जाते हैं, 
        11 जनवरी को लन्दन की रायल एशियाटिक सोसाइटी में एक लेख पढ़ा। उन्होंने पहले 
        तो उन बहुत से योरोपियन महापुरुषों के मतों का उल्लेख किया जिनकी समझ में 
        भारत में कोई कला थी ही नहीं और यदि थी भी तो बहुत निम्न श्रेणी की। इसके 
        पीछे उन्होंने मि. हावेल और डॉक्टर कुमार स्वामी का यह सिध्दान्त-जो कि 
        उन्हें बिलकुल नया और अनोखा मालूम हुआ-कह सुनाया कि ''भारतीय शिल्पकला 
        संसार में सबसे उत्तम है।'' मि. हावेल कलकत्ता और मद्रास के आर्ट स्कूलों 
        के प्रिंसिपल रहे हैं। स्मिथ साहब ने मि. हावेल के नव प्रकाशित ‘Indian 
        Sculpture and Painting’ और डॉक्टर कुमार स्वामी के Mediaeval Singhalese 
        Art नामक पुस्तकों की ओर ध्यान दिलाया जिनमें उदाहरण की भाँति हिन्दुस्तानी 
        चित्रकारी और शिल्प के बहुत से नमूने दिए गए हैं। वक्ता महाशय ने कहा कि 
        भारतीय शिल्पकला को लोग हेय और निकृष्ट दृष्टि से देखते थे। इसका कारण यह 
        है कि देवताओं की जो साधारण मूर्तियाँ बनाई जाती हैं वे बेढंगी, विकराल और 
        घृणोत्पादक होती हैं। पर अच्छी चीजें भी ढूँढ़ने से मिल ही जाती हैं। 
        फर्गुसन साहब ने भारतीय शिल्प की सुन्दरता अच्छी तरह से दिखलाई। 
        भारतीय शिल्प दो भागों में बँट सकता है। (1) हिन्दू, जिसके अन्तर्गत बौध्द 
        और जैन भी हैं (2) और मुसलमानी। आपने कहा कि हिन्दू लोग पशु और वृक्ष अंकित 
        करने में यूनानियों से बढ़कर थे। सारनाथ में जो चमचमाता हुआ अशोक का स्तम्भ 
        निकला है उसे मि. मार्शल एशियावासी यूनानियों का बनाया बतलाते हैं। इस पर 
        स्मिथ साहब ने कहा-''भारतीय कला की सब शाखाओंमें यूनानी प्रभाव को बढ़ाकर 
        कहने की उधर हम लोगों की आदत पड़ गई थी''। (छूटी कि नहीं?) फिर आगे चलकर आप 
        यह भी कहते हैं ''हिन्दू लोग विदेशी वस्तुओं को ग्रहण करने में बड़े चालाक 
        थे और जिस विदेशी वस्तु को लेते थे उसे ऐसा कर डालते थे कि वह उन्हींी के 
        देश की मालूम होने लगती थी।'' 
        उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त में निकली हुई यूनानियों और बौध्दों की सम्मिलित 
        कारीगरी पहिले (शायद उसी ग्रीस भक्ति के कारण) सबसे उत्कृष्ट समझी जाती थी। 
        अब मि. हावेल और डॉ. कुमार स्वामी उन्हें सबसे निकृष्ट बतलाते हैं। स्मिथ 
        साहब ने कहा कि मैं इन दोनों की बातों से सहमत नहीं हो सकता। आगे चलकर 
        हिन्दुस्तानी देव मूर्तियों के विषय में आपने फिर कहा कि ''अब यह सिध्द हो 
        चुका है कि इन मूर्तियों की देह जो कहीं कहीं बिलकुल चौरस देखने में आती है 
        इसका कारण यह नहीं कि हिन्दुस्तानी शिल्पी पुट्ठे और उभार बनाने में (समर्थ 
        नहीं थे।) हाथ और पैर बनाने में उन्होंने अपनी इस सामर्थ्य का पूरा परिचय 
        दिया है। अंगों और अवयवों की अस्वाभाविकता धार्मिक कारणों से है न कि 
        अनाड़ीपन के कारण।'' 
        भारतीय चित्रकारी के विषय में आपने कहा कि इसके पुराने नमूने जो ईसा से दो 
        शताब्दी पहिले के हैं ओड़िसा की गुफाओं में है। अजन्ता गुफा की चित्रावली भी 
        ध्यान देने योग्य है जो 642 ई. तक की है। इसके उपरान्त पारसी कारीगरों का 
        उल्लेख करते हुए आपने कहा कि यह भारतवर्ष में जनप्रिय न हुई। मुसलमान 
        बादशाहों और नवाबों ही के शौक की चीज रही। सर क्लार्क के ये वाक्य आपको 
        बहुत पसन्द आए कि ''हिन्दुस्तानी कारीगरी का आगम व्यर्थ की प्रशंसा से मारा 
        गया।'' 
        व्यागख्यािन के पीछे डॉक्टर कुमार स्वामी ने एक बंगाली चित्रकार की कारीगरी 
        के नमूने दिखलाए और सभा समाप्त हुई। 
        (नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 1910 ई ) 
        [ चिन्तामणिभाग-4]  
         
         
         
         
        भीटा के खंडहर 
         
         
        [ अन्यत्र भीटा के जिन प्राचीन बौध्द चिद्दों के पता लगने का हमने उल्लेख 
        किया है उनका ब्योरा एक महाशय ने 'लीडर' में इस प्रकार दिया है। ]  
        सरकारी पुरातत्व विभाग मि. मार्शल की अध्यक्षता में दिसम्बर 1909 ई में 
        भीटा के खंडहरों को खोदने में लगा था। उसका काम गत फारवरी महीने में समाप्त 
        हुआ। 
        टीलों को खोदने पर उनके भीतर एक अच्छा नगर निकला जिसमें चौड़ी चौड़ी सड़कें, 
        गलियाँ, पक्की नहरें और नालियाँ बनी थीं। 
        ईंट के बने पक्के मकानों की श्रेणियाँ खोदकर निकाली गई हैं जिनमें से कोई 
        तो 24 फुट जमीन के नीचे गड़ी थीं। ईंटें वैसी ही बड़ी बड़ी और चिपटी हैं जैसी 
        कि झूँसी और कोसम आदि के खंडहरों में मिलती हैं। घर ठीक सीधी कतार में क्रम 
        के साथ बने हुए हैं। दीवारें नींव के पास चौड़ी और उसके ऊपर पतली हैं। घरों 
        की श्रेणियों के मध्य में गलियाँ बनी हैं जिनके बीचोबीच ठीक उसी तरह पक्की 
        नहरें निकाली गई हैं जैसी कि बरेली आदि नगरों में अब तक देखने में आती हैं। 
        इन मकानों में एक बड़ी भारी विलक्षणता है। दीवारों में आने जाने के लिए कोई 
        मार्ग नहीं है। न दरवाजे हैं, न खिड़कियाँ। दीवारों में यदि कहीं एकाध 
        दरवाजे आदि के चिद्द हैं भी तो ईंटों से बन्द किए हुए हैं। जान पड़ता है कि 
        मकान खप्पंरों आदि से छाये हुए थे क्योंकि खप्पंरों के बड़े पुराने नमूने 
        उनमें मिले हैं। यह नहीं मालूम होता कि लोग कोठरियों में कैसे आते जाते थे। 
        कई पक्के कुएँ भी निकले हैं। वे बिलकुल दुरुस्त हैं, उनमें से कुछ तो पक्की 
        ईंटों के बने हुए हैं और कुछ पत्थरों के। पत्थर की पटिया इस रीति से जोड़ी 
        गई है कि जोड़ मालूम नहीं होते। इसमें से एक कुएँ में हव्यिाँ भरी मिलीं। 
        घरों के भीतर अनाज के बख् ाार मिले। मिट्टी के बड़े बड़े कुंडे दीवारों में 
        लगे हुए अथवा कोनों पर रखें हुए पाए गए। कोठरियों के भीतर चक्की, जाता, 
        ओखली तथा और भी गृहस्थी की चीजें मिलीं। पत्थर की एक बड़ी खंडित मूर्ति भी 
        एक घर में पाई गई जिसके बाहु पर आभूषण बनाए गए थे। 
        ध्यानी बुध्द के कई सिर तथा बुध्द और द्वारपाल की खंडित प्रतिमाएँ भी मिली 
        हैं। कुछ थोड़ी सी पत्थर की मूतियाँ, औजार तथा शिलालेख भी निकले हैं। एक बड़ा 
        शिलालेख है जो अभी उतारा नहीं गया है। कुछ ताम्बे के सिक्के भी निकले हैं, 
        पर वे अभी साफ नहीं किए गए हैं। बहुत अच्छी कारीगरी के मिट्टी के बर्तन 
        ज्यों के त्यों मिले हैं जिनके ऊपर का रोगन अभी तक चमक रहा है उनमें से कुछ 
        बर्तन हैं-टोटीदार मिट्टी के गड़ुए जिससे लोगों का यह भ्रम दूर हो सकता है 
        कि हम लोगों ने टोटीदार बर्तन बनाना मुसलमानों के आने पर सीखा है। हर एक 
        प्रकार के कलशें, सुराहियाँ आदि खोदकर निकाली गई हैं। पकी हुई मिट्टी के 
        खिलौने, बुध्द के सिर आदि पाए गए हैं। ये मिट्टी के खिलौने ठीक उसी तरह के 
        हैं जैसे आजकल के कुम्हार लोग लड़कों के खेलने के लिए बनाते हैं। मिट्टी के 
        कलछुले पाए गए हैं जिनका व्यवहार भोजन बनाने में होता था। त्रिशूल के आकार 
        का एक लोहे का कटार, पूजा करने के लिए लोहे का एक सिंहासन तथा मिट्टी का एक 
        कमंडल भी खोदकर निकाले गए हैं। 
        मिट्टी केर् बर्तनों और कपड़ों की जाँच करके यह अनुमान किया गया है कि वे 
        ईसा से दो शताब्दी पूर्व से लेकर चौथी शताब्दी तक के हैं। प्रयाग के जिले 
        में बहुत से टीले और खंडहर हैं, जिन्हें खोदने से बहुत सी काम की बातें 
        मालूम हो सकती हैं। 
        (नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 1910 ई.) 
        [ चिन्तामणिभाग-4]  
         
         
        
         'पैसा' अखबार का आक्षेप 
          
         
         
        लाहौर का 'पैसा' अखबार पंडित मदनमोहन मालवीय तथा नागरी के और दूसरे 
        हितैषियों पर ताना छोड़ता है कि तुम लोगों ने सर अंटनी मैकडानल पर जोर डालकर 
        नागरी को उर्दू के साथ अदालत में दाखिल तो करा दिया लेकिन इसका फायदा क्या 
        हुआ क्योंकि इस समय तक सैकड़ा पीछे अस्सी दरख् वास्तें उर्दू में आती हैं। 
        आगे चलकर वह अपने कथन की पुष्टि में यह प्रमाण उपस्थित करता है कि 'लीडर' 
        में जिससे मालवीयजी का भी सम्बन्ध है जितने अदालती इश्तहार निकलते हैं वे 
        सब उर्दू में। 
        'पैसा' अखबार को समझना चाहिए कि मनुष्य समाज छोटे बड़े कई दलों में बँटा 
        रहता है। संयुक्त प्रान्त में कचहरी के अमलों का भाषा व्यवहार बँधा चला आता 
        है जो जनसंख्या के अधिकांश की समस्याओं को अपने द्वारा ही समझी या जोड़ी 
        बातों में लिख पाता है, उनके साथ अन्याय करता है और अपना महत्तव बनाए रखने 
        के लिए अदालतों की कार्रवाइयाँ जहाँ तक जनता के न समझने योग्य रूपों में हो 
        वहाँ तक उन लोगों के लिए आनन्द ही आनन्द है। सर्वसाधारण के मन में वे यह 
        बात बैठाते आते हैं कि जो बोली तुम लोग बोलते हो, जो अक्षर तुम लिखाते हो, 
        उनसे अदालत का काम नहीं चलता। वहाँ के लिए तो एक दूसरी बोली है, दूसरे 
        अक्षर हैं, जिन्हें हम थोड़े से लोग ही जानते हैं। इन भलेमानुषों की चलने 
        पावे तो अदालतों में इशारों से बातचीत हुआ करे और चीन देश से अक्षर लाकर 
        जारी कर दिए जायँ। ये लोग भोलीभाली प्रजा पर यह बात प्रगट ही नहीं होने 
        देते कि उनकी दरखवास्त उनके जाने हुए नागरी अक्षरों में भी पड़ सकती हैं। 
        यदि कहीं किसी हाकिम ने कोई नागरी की दरखवास्त लौटा दी तब तो इन लोगों को 
        और भी बहकाने का मौका मिल गया। दूसरी बात विचारने की यह है कि अभी नागरी के 
        प्रवेश की आज्ञा का प्रचार हुए कितने दिन हुए हैं। अभी पुराने ढर्रे के 
        कुशिक्षित अमलों की वह पीढ़ी जिसमें सदाचार, लोकहित औरर् कर्तव्येपरायणता का 
        भाव विशेष नहीं, जीती जागती है। हमारा आसरा उन पर नहीं, वरन् आगे आनेवाली 
        नवशिक्षित सन्तति पर है। इस बीच में हमारी हिन्दी भाषा दिन दिन उन्नति करती 
        हुई बंगला, मराठी, गुजराती आदि अपनी सगी बहिनों के साथ मिलकर सारे उत्तरीय 
        भारतवर्ष को एक भाषा सूत्र में बाँध देगी। 
        इसके अतिरिक्त पैसा अखबार ने जो यह लिख कि लीडर पत्र में जो कि मालवीयजी का 
        आरगन और नागरी अक्षरों का पूर्ण पक्षपाती है अदालती इश्तहार सदा उर्दू में 
        छपा करते हैं। इसके सम्बन्ध में उसके सम्पादक को स्वयं विचारना चाहिए कि 
        सम्पादकीय मत और विज्ञापनदाताओं की इच्छा भिन्न भिन्न बात है। विज्ञापन में 
        प्रकाशित किसी विषय के लिए सम्पादक उत्तरदाता नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त 
        वह समय भी बहुत शीघ्र आवेगा जब उर्दू के पक्षपाती निर्विवाद होकर नागरी 
        अक्षरों की उपयोगिता को स्वीकार कर लेंगे और प्राय: समस्त अदालती कागजात और 
        विज्ञापनादि इन्हीं सर्वगुणालंकृत अक्षरों में प्रकाशित हुआ करेंगे। 
         
        (नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 1910 ई.) 
        [ चिन्तामणिभाग-4]  
         
          
         
        
        
        रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4 
        भाषा विमर्श-
        
        भाग 
        - 1 
        //  
        
        भाग 
        -2 
        //
        भाग 
        
        -3 // 
        
        भाग 
        
        - 4 
        // 
         भाग 
        
        
        - 5 // 
         भाग 
        
        
        -6 // 
         भाग - 7 
        //  
        
        भाग 
        - 8 
        // 
         भाग 
        
        
        - 9  // 
         भाग
        
        
        - 10  //  
        
        भाग 
        -11 
        //  
             
         भाग
        
        - 12 
        //  
         भाग
        
        
        
        -13   //
        भाग 
        
        -14 
         // 
        भाग 
        
        
        - 15  // 
        
         
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