रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा, साहित्य और समाज विमर्श
व्यक्तित्व और कृतित्व परिचय
भाग
-
6
फ्रेडरिक पिन्काट
आज तक कई यूरोपियन विद्वानों का ध्या न हिन्दी की ओर रहा। पर यदि हमसे कोई
पूछे कि इनमें से किस महानुभाव ने उसके हित के लिए सबसे अधिक व्यग्रता
दिखाई, किसने उसके भंडार में अपने हाथों से कुछ रखने का कष्ट उठाया, कौन
उसकी बढ़ती देखकर सबसे प्रफुल्लित हुआ, और कौन उसके बोलने वालों की ओर सबसे
अधिक आकर्षित हुआ तो हमको फ्रेडरिक पिन्काट ही का नाम लेना पड़ेगा। भारतवर्ष
की कई भाषाएँ मानकर भी इनका हिन्दी की ओर झुकना और उसको हिन्दुस्तान की
सर्व प्रधान भाषा मानना निस्संदेह प्रशंसनीय था।
फ्रेडरिक पिन्काट का जन्म 1836 ई. में इंगलैंड देश में हुआ। इनके पिता की
आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। इस कारण इनकी शिक्षा का प्रबन्ध जैसा होना
चाहिए वैसा नहीं हुआ। कुछ काल तक ये 'क्वीन एलिजेबेथ चार्टर्ड स्कूल' में
पढ़ते रहे। पर थोडे ही दिनों में इन्हें उसे छोड़ना पड़ा। जीवन स्थिति की
चिन्ता ने इन्हें व्यग्र किया। पहले ये एक छापेखाने में कम्पोज़ीटर हुए और
फिर रीडर (प्रूफ पढ़ने वाले) हुए। इससे यह न समझिए कि इनकी शिक्षा का
सिलसिला टूट गया, नहीं, वह बराबर जारी रहा। आरम्भ ही से पूर्वी साहित्य की
ओर इनकी रुचि थी। वह रुचि ऐसी दृढ़ और पक्की थी कि प्रेस के कमरों में भी वह
उसी प्रकार प्रवर्ध्दित होती गई जिस प्रकार आक्सफर्ड और कैम्ब्रिज के भव्य
विद्या भवनों में होती। संस्कृत की चर्चा ये बहुत दिनों से सुनते आते थे।
ये सुनते थे कि शब्दशास्त्र और मानव जाति के इतिहास के सम्बन्ध में कोई बात
निश्चित रूप से स्थिर करने के लिए संस्कृत का जानना बहुत ही आवश्यक है।
इससे इन्हें संस्कृत सीखने की प्रबल इच्छा हुई। उन दिनों जो संस्कृत
पुस्तकें यूरोप में छपती थीं वे बहुत महँगी पड़ती थीं। अतएव पुस्तकों को मोल
लेने में इन्हें भारी कठिनता पड़ी। किन्तु इनकी इच्छा ऐसी नहीं थी कि किसी
ऐसी वैसी कठिनता के कारण वह दब जाय। संयोगवश एक मित्र की कृपा से इन्हें
पुस्तकें भी मिलने लगीं। फिर क्या था? परिश्रमपूर्वक इन्होंने उन पुस्तकों
का अध्येयन आरम्भ किया। थोड़े दिन में इन्हें संस्कृत में गति हो गई और इनके
दिन और रात उसी के ग्रन्थ देखने में बीतने लगे। क्रमश: लोगों को इनकी
योग्यता का परिचय मिलने लगा और ये उस समय के अच्छे संस्कृत जानने वाले
लोगों में गिने जाने लगे। ये रायल एशियाटिक सोसाइटी के मेम्बर हुए। इनका
सारा जीवन इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि किस प्रकार एक दृढ़ प्रतिज्ञ
पुरुष समाज की निम्न श्रेणी में रहकर भी अपनी ऊँची से ऊँची अभिलाषाओं को
पूरा करता हुआ संसार में सुखी और यशस्वी हो सकता है।
विद्या संचय के साथ ही साथ प्रेस के कामों में भी अधिक कुशल होते गए। अन्त
में डब्ल्यू. एच. एलेन एंड कम्पनी (W. H. Allen & Co., 13, Waterloo Place,
Pall Mall, S.W.) के विशाल छापेखाने के ये मैनेजर हुए। तब से बराबर उसी पद
पर अपने जीवन के अन्तिम दिनों के कुछ समय पहिले तक शान्तिपूर्वक रह कर
भारतीय साहित्य और भारतीय प्रजा के लिए परिश्रम करते रहे। ये शान्तिप्रिय
और गंभीर स्वभाव के थे। अवस्थाओं के परिवर्तन की लालसा ने इन्हें विचलित
नहीं किया। अत: इनका जीवन घटनापूर्ण नहीं है। इससे चाहे हमारा मनोरंजन न
हो, पर इनके लिए यह सौभाग्य की बात थी। क्योंकि किसी दार्शनिक ने कहा
है“Happy the people whose annals are vacant.” अर्थात् ''वे लोग सुखी हैं
जिनका इतिहास बड़ी बड़ी घटनाओं से खाली है।'' यह एक व्यक्ति के विषय में भी
उतनी ही ठीक है जितनी एक जाति के विषय में।
तेईस वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपना विवाह किया।
यह एक स्वाभाविक नियम है कि पुस्तकें पढ़ते पढ़ते उनके कत्तर्ओं और तदगत
पात्रों से पढ़नेवाले का एक प्रकार का काल्पनिक साहचर्य स्थापित हो जाता है।
कल्पना द्वारा हम उनके समागम से तृप्त होना चाहते हैं; उनके वेश विन्यास,
रूप रंग तथा रहन सहन आदि का अवलोकन न सही तो उनका परिचय ही प्राप्त करना
चाहते हैं। इनके अभाव में हम उनकी सन्तति, उनके इष्ट मित्र, उनके व्यवहार
की वस्तुओं ही से प्रेम सम्बन्ध जोड़कर उनके प्रति उपकार करने के लिए आकुल
होते हैं। मनुष्य की यही प्रवृत्ति उसको ख्रडहरों में दौड़ाती है और बरसों
जमीन खोदने को विवश करती है। इसी के झोंक में लोग शेक्सपियर की कुर्सी और
हुमायूँ की क़ब्र देखने जाते हैं। वह सहानुभूति, जो इस काल्पनिक साहचर्य से
उत्पन्न होती है, अत्यन्त निर्मल और नि:स्वार्थ होती है, इसी के बल से
इंगलैंड में बैठे बैठे पिन्काट साहब ने भारतवर्ष में कई प्रेमी मित्र ढूँढ
लिए और भारतवासियों के हित साधन में यावज्ज़ीवन लगे रहे। वाग्मी बर्क
(Burke) के वारन हेस्टिंग्ज़ पर अकारण टूट पड़ने का कारण भी यही सहानुभूति
कही जाती है। इसी से स्वदेश भक्ति और स्वजाति प्रेम के लिए अपने देश के
इतिहास और साहित्य का पढ़ना परम आवश्यक है।
संस्कृत में यथेष्ट गति हो जाने पर इन्हें मालूम हुआ कि दुष्यन्त और
कालिदास की सन्तति से परिचित होने और उनके साथ भलाई करने के लिए देशी
भाषाओं का जानना बहुत जरूरी है। इससे ये तुरन्त श्रमपूर्वक हिन्दुस्तान की
भाषाओं को सीखने लगे। जान पड़ता है कि पहिले पहल इन्होंने उर्दू ही में
योग्यता प्राप्त की। तदनन्तर इन्होंने गुजराती और बंगला सीखीं। इसके पीछे
तामिली, तैलंगी, मलयालम और कनारी आदि दक्षिणी भाषाओं की ओर झुके। हिन्दी की
ओर इनका ध्यायन सबसे पीछे गया। पर यहाँ पर इनकी अभिलाषा पूर्ण हो गई।
संस्कृत और प्राकृत की प्रधान उत्ताराधिकारिणी इन्हें हिन्दी ही प्रतीत
हुई, इससे आप तन, मन, धन से उसकी सेवा में तत्पर हो गए। हिन्दी के मुख्य
मुख्य हितैषियों से पत्र-व्यवहार होने लगा। जिस प्रेम बेलि को सूर और तुलसी
ने आरोपित किया था उसकी सुगन्ध रह रहकर समुद्रों को लाँघती हुई सहृदयों को
मुग्धा करने लगी। इनके प्रत्येक पत्र में उस सच्चे प्रेम का आभास पाया जाता
है जिसे भारतीय साहित्य ने इनके हृदय में स्थापित कर दिया था। भारतेन्दु
बाबू हरिश्चन्द्र से ये बड़ा स्नेह रखते थे और प्राय: उनके पास प्रेम पीयूष
सिंचित पत्र भेजा करते थे। देखिए इस ऍंगरेजी पत्र में हिन्दी भाषा और
हिन्दू जाति के विषय में आप क्या लिखते हैं
Frederic Pincott sends his greeting and good wishes.
To,
Babu Harish Chandra ji.
Dear Sir,
Although I have never lived in India, For a long time past the study of
the languages of that country has remained to me a very fascinating
pursuit; because, in my opinion, it is a meritorious act for everyone,
to the utmost of his power, to cause the English and Hindi people to
live harmoniously together. it is impossible for any one to respect
another so long as both are unable to comprehend each other’s Knowledge
and intellectual power. Hence, before the harmonious living together of
the two races, it is essential that their languages should be acquired
and their books explained. With this object in view I have learnt four
Indian languages namely Sanskrit, Hindi, Persian and Urdu, and have read
many books in those languages and disseminated their contents in
England. Further more, I have produced some books for teaching the Hindi
languages, among them one is “THE SHAKUNTALA” in Hindi and another ‘The
Hindi Manual.’ Both these books have been commended by the civil service
commissioners, who have ordered that all those studdying Hindi in
England should read these two books. Quite recently they have ordered
that every Englishman who wishes to enter the civil service of India
must learn the Hindi language.
After reading the above written intelligence you will easily understand
how much pleasure I felt when I received, through the post, by your
favour, a great parcel of Hindi Books. Among these books there are
several of your poems, which I shall read with delight and there are
also several dramas which will be very useful for teaching the Hindi
language.
In the opinion of English scholars it is to be regretted that Hindi
authors, in writing their books, do not employ common Hindi expression,
such as they are constantly using in their own homes. Instead of that,
many authors mix so much Sanskrit with their Hindi that Hindi becomes
almost pure Sanskrit. I am exceedingly pleased to perceive that it is
impossible to ascribe such a fault to your works.
The receipts of these books has caused me the greatest pleasure, and
there are two reasons for this pleasure, one is, that by reading these
books my knowledge of Hindi will be increased, and the other is, that
the receipt of these books made it clearly apparent that there are some
patriots in India.
I am sending you by the post a copy of ‘Hindi Manual’ which I
respectfully ask you to be good enough to accept. Should you detect any
errors in the book, and will point them out to me, I shall be still
obliged to you.
I most earnestly hope that God will long preserve your useful life.*
your sincerely
Frederic Pincott
अनुवाद
श्रीमान् बाबू हरिश्चन्द्र को फ्रेडरिक पिन्काट का अभिवादन और आशीर्वचन।
प्रिय महाशय!
यद्यपि मैं हिन्दुस्तान में कभी नही रहा तथापि बहुत काल से उस देश की
भाषाओं का अध्यदयन मेरे लिए एक बहुत ही मनोरंजक कार्य रहा है। मेरी सम्मति
में, हर एक के लिए अपने भरसक अंगरेज और हिन्दू लोगों के बीच एका स्थापित
करना एक बहुत ही प्रशंसनीय काम है। परस्पर एक दूसरे की प्रतिष्ठा करना तब
तक असम्भव है जब तक दोनों एक दूसरे के ज्ञान और बुध्दि बल की इयत्ता न समझ
लें। अतएव, दोनों जातियों को मिलजुलकर साथ साथ रहने के लिए, उनकी भाषाएँ
सीखना और उनकी पुस्तकें पढ़ना बहुत ज़रूरी है। इसी से मैंने भारत की चार
भाषाएँ सीखी हैं संस्कृत, हिन्दी, फारसी और उर्दू। इन भाषाओं की बहुत सी
पुस्तकें भी मैंने पढ़ी हैं। और उनमें लिखी हुई बातों का इंगलिस्तान में
प्रचार भी किया है। इसके सिवा मैंने कुछ पुस्तकें हिन्दी भाषा सिखलाने के
लिए बनाई
क्व यह पत्र स्व. बाबू राधाकृष्णदासजी के पुस्तकालय में मिला। इसके लिए मैं
भारतेन्दुजी के भतीजे बाबू व्रजचन्दजी का अनुगृहीत हूँ। लेखक
हैं। उनमें से एक 'हिन्दी शकुन्तला' और दूसरी 'हिन्दी मेनुअल' है। इन दोनों
पुस्तकों को सिविल सर्विस परीक्षा के कमिश्नरों ने पसन्द किया है और
राजाज्ञा दी है कि जो लोग इंगलिस्तान में हिन्दी पढ़ते हैं वे इनको पढ़ें।
अभी हाल में उन्होंने आज्ञा दी है कि प्रत्येक ऍंगरेज को, जो भारतीय सिविल
सर्विस में प्रवेश करना चाहता है, हिन्दी भाषा सीखनी होगी।
इन बातों को पढ़कर आप अच्छी तरह समझ सकते हैं कि आपकी कृपा से, डाक द्वारा,
हिन्दी पुस्तकों का एक बड़ा सा पारसल पाने पर, मुझे कितना आनन्द हुआ होगा।
इन पुस्तकों में कुछ तो आपके काव्य हैं जिनको मैं प्रसन्नतापूर्वक पढूँगा,
और कुछ नाटक है जो हिन्दी भाषा सिखाने में बड़े काम आवेंगे।
(ऍंगरेज विद्वान् की राय में यह खेद की बात है कि हिन्दू ग्रन्थकार, अपनी
पुस्तकें लिखने में, ऐसे साधारण हिन्दी वाक्य नहीं व्यवहृत करते जैसे वे
अपने घरों में बराबर बोलते हैं। उनके स्थान पर बहुत से ग्रन्थकार अपनी
हिंन्दी के साथ इतनी संस्कृत मिला देते हैं कि हिन्दी प्राय: शुध्द संस्कृत
हो जाती है।) मैं यह देखकर अत्यन्त प्रसन्न हूँ कि यह दोष आपकी रचना में
नहीं है।
इन पुस्तकों को पाकर मुझे बड़ा आनन्द हुआ है। इसके दो कारण हैंएक तो यह कि
इन पुस्तकों को पढ़ने से मेरा हिन्दी का ज्ञान बढ़ेगा और दूसरा यह कि इनकी
प्राप्ति ने स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया कि भारत में कुछ देशभक्त भी हैं।
मैं डाक द्वारा अपने 'हिन्दी मेनुअल' की एक प्रति भेजता हूँ। विनीत भाव से
प्रार्थना है कि आप उसे ग्रहण करें। यदि उस पुस्तक में आप कोई भूल पावें और
मुझे सूचित करें तो मैं आपका कृतज्ञ हूँगा।
आशा करता हूँ कि परमेश्वर आपके उपकारी जीवन को बहुत दिनों तक बनाए रक्खेगा।
भवदीय
फ्रेडरिक पिन्काट
एक चिट्ठी इन्होंने भारतेन्दुजी को हिन्दी पद्य में लिखी थी जिससे इनकी
हिन्दी की योग्यता और सरल स्नेह रंजित हृदय का परिचय भलीभाँति मिलता है। वह
चिट्ठी यह है
''बैस बंस अवतंस, श्री बाबू हरिचन्द जू।
छीर नीर कलहंस, टुक उत्तर लिखि देव मोहिं॥''
पर उपकार में उदार अवनी में एक
भाषत अनेक यह राजा हरिश्चन्द है।
विभव बड़ाई वपु वसन विलास लखि
कहत यहाँ के लोग बाबू हरिचन्द है।
चन्द जैसो अमिय अनन्द कर आरत को
कहत कविन्द यह भारत को चन्द है।
कैसे अब देखैं को बतावै कहाँ पावैं, हाय,
कैसे वहाँ आवैं हम कोई मतिमन्द हैं॥
''श्रीयुत सकल कविन्द कुल-नुत बाबू हरिचन्द।
भारत-हृदय-सतार-नभ, उदय रहो जनु चन्द॥''
इसी तरह से अन्य हिन्दी सेवियों के पास भी इंगलैंड से पत्र भेजते थे।
हिन्दी के सम्बन्ध में जहाँ कोई बात छेड़ी जाती थी, आप तुरन्त उस पर अपनी
राय देते थे। जिन दिनों खड़ी बोली की कविता के विषय में विवाद चल रहा था
इन्होंने इसका पक्ष लिया था। 'खड़ी बोली का पद्य' नाम की बाबू
अयोध्यातप्रसाद की पुस्तक का सुन्दर संस्करण, अपनी अंगरेजी भूमिका सहित,
इन्होंने इंगलैंड में छपवाया था। उसमें आपने अंगरेजी में जो कुछ लिखा है
उसका भावार्थ यह है'यह देखकर सन्तोष होता है कि खड़ी बोली के प्रस्ताव का
आदर किया गया। यद्यपि पुराने ढर्रे के साहित्य सेवियों और संशोधकों के बीच
बहुत विवाद हुआ, और अब भी हो रहा है; पर गद्य का एक भाषा में लिखा जाना और
पद्य का दूसरी में कैसी बेढंगी बात है, यह धीरे धीरे लोगों को मालूम हो रहा
है।''
उर्दू के विषय में आप लिखते हैं'' फ़ारसी मिश्रित हिन्दी (अर्थात् उर्दू या
हिन्दुस्तानी) के अदालती भाषा बन जाने के कारण उसकी बड़ी उन्नति हुई। इससे
साहित्य की एक नई ही भाषा उत्पन्न हो गई। पश्चिमोत्तार प्रदेश के निवासी,
जिनकी कि यह भाषा मानी जाती है, उसे एक विदेशी भाषा की तरह स्कूलों में
सीखने के लिए विवश किए जाते हैं।'' जो लोग यह कहते हैं कि उच्च हिन्दी एक
बनावटी भाषा है और सर्वसाधारण के व्यवहार में नहीं आती, उन्हें पिन्काट
साहब के इस कथन पर विचार करना चाहिए। थोड़ा सोचने से उन्हें यह स्पष्ट मालूम
हो जायगा कि यदि आरम्भ ही से उन्हें करीमा न रटाया गया होता तो उर्दू उनके
श्रीमुख से कदापि न सुन पड़ती। जनाब, यह उर्दू आप अपनी माँ की गोद से लेकर
नहीं उतरते हैं। किन्तु मौलवी साहब के मकतब में आपने उसे सीखा है। यदि आज
से लड़के मदरसों में हिन्दी की उपयुक्त शिक्षा पाने लगे और अंगरेजी के साथ
अपनी दूसरी भाषा संस्कृत लेने लगें तो थोड़े ही दिनों में वह उर्दू, जिसको
आप आमफ़हम कहते हैं, हवा हो जाय और उसके स्थान पर गली गली वही शुध्द
परिष्कृत हिन्दी, जिसको सुनकर आप इतना चौंकते हैं, सुनाई देने लगे। दूर की
बात जाने दीजिए बंगदेश को देखिए, जहाँ के छोटे छोटे बच्चे तक उन संस्कृत
शब्दों को कैसी मधुरता से उच्चारण करते हैं जो आपके कानों को कंकड़ के समान
लगते हैं।
पिन्काट साहब बड़े ही हिन्दी हितैषी थे। आपका काशी के बाबू कार्तिकप्रसाद से
पत्र व्यवहार था। एक पत्र में आप उन्हें लिखते हैं
''आपका सुखद पत्र मुझे मिला है और उससे मुझको परम आनन्द हुआ।
''आपकी समझ में हिन्दी भाषा का प्रचलित होना उत्तर पश्चिम वासियों के लिए
सबसे भारी बात है। मैं भी सम्पूर्ण रूप से जानता हूँ कि जब तक किसी देश में
निज भाषा और अक्षर सरकारी और व्यवहार सम्बन्धी कामों में नहीं प्रवृत्त
होते हैं तब तक उस देश का परम सौभाग्य हो नहीं सकता। इसलिए मैंने बार बार
हिन्दी भाषा के प्रचलित करने का उद्योग किया है। आप अपने पत्र में यह सवाल
पूछते हैं कि क्या उस बात के निबाहने का कुछ उपाय हो सके कि नहीं। उस सवाल
का यह उत्तर है कि हाँ एक ही उपाय है अर्थात् जो कोई किसी समय हिन्दी भाषा
लिखे तो उसको चाहिए कि आसान सरल हिन्दी लिखे। जब पंडितजन हिन्दी भाषा लिखते
हैं तब उसमें बहुत कुछ संस्कृत मिला देते हैं। यह भारी भूल है क्योंकि
अज्ञानी लोग संस्कृत मिश्रित भाषा समझ नहीं सकते हैं। इसी कारण वे बड़ा शोर
मचा के पुकारते हैं कि हाय, हाय हिन्दी भाषा का प्रचलित होना अफसोस की बात
है।''
''देखो अस्सी बरस हुए बंगाली भाषा निरी अपभ्रंश भाषा थी। पहिले पहल थोड़ी
थोड़ी संस्कृत बातें उसमें मिली थीं। परन्तु अब क्रम करके सँवारने से निपट
अच्छी भाषा हो गई। इसी तरह चाहिए कि इन दिनों में पंडित लोग हिन्दी भाषा
में थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें मिलावें। इस पर भी स्मरण कीजिए कि उत्तर
पश्चिम में हज़ार बरस तक फ़ारसी बोलने वाले लोग राज करते थे। इसी कारण उस देश
में सब लोग बहुत फ़ारसी बातों को जानते हैं। उन फारसी बातों को भाषा से
निकाल देना असम्भव है। इसलिए उनके निकाल देने का उद्योग मूर्खता का काम है।
मेरी समझ में भाषा और अक्षरों के प्रचलित करने का यह उपाय है कि पहिले सब
लिखने वाले जन सीधी सरल फ़ारसी मिश्रित भाषा लिखें। केवल या तो देवनागरी
अक्षर प्रचलित हों तब हिन्दी भाषा क्रम करके बंगाली के सदृश निपट अच्छी और
सँवारी हुई भाषा हो जावेगी। बाकी फिर''।क्व
आगे चलकर एक पत्र में फिर, भारतवर्ष के प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हुए, इस
विषय में आप लिखते हैं
''आपका 24 जुलाई, 1887 ई का पत्र मुझे मिला है और उससे अत्यन्त आनन्द मेरे
हृदय में उपज आया है। सच तो यह है कि यद्यपि मैं हिन्दुस्तान में कभी नहीं
आया तो भी उस देश पर मेरा दिल लगता है। परमेश्वर करे कि मर जाने के आगे मैं
हिन्दुस्तान के लिए कोई फलदायक काम करूँ।''
''हिन्दी भाषा के बारे में जो कुछ आपने लिखा है सो बिलकुल सच है।
क्व ये हिन्दी पत्र और फोटो मुझे स्वर्गीय बाबू कार्तिकप्रसादजी के सुयोग्य
पुत्र बाबू मनोहरदासजी की कृपा से मिले हैं। इसके लिए उन्हें अनेक
धान्यवादलेखक।
सच है कि भाषा के शब्दों की अपेक्षा देवनागरी के अक्षर दफ्तरों में बर्ते
जाने बड़ी भारी बात है।...''
इसी प्रकार जब तक ये जीते रहे हिन्दी का उपकार सोचते और करते रहे। जहाँ कोई
हिन्दी की उत्तम पुस्तक छपी, आप लन्दन के पत्रों में उसकी प्रशंसा की धूम
मचा देते थे। पं. श्रीधर पाठक के 'एकान्तवासी योगी' और 'ऊजड़ग्राम' की आपने
विलायती पत्रों में बड़ी प्रशंसा की थी। हिन्दी के प्राय: सब लेखकों से आपका
पत्र व्यवहार रहता था। इनके समय के प्रत्येक हिन्दी लेखक के घर में इनके दो
एक पत्र पड़े होंगे। इनका जैसा प्रेम हिन्दी साहित्य पर था, यहाँ की प्रजा
पर भी वैसा ही था। ये निरन्तर उसके दु:खों को दूर करने की चेष्टा में रहते
थे, हमको बिना देखे ही ये हमारे साथ ऐसा 'नेह का नाता' निबाहते रहे जो इस
संसार में दुर्लभ है। जब भारतीय पुलिस के अत्याचारों की कथा इनके कानों तक
पहुँची, ये एकदम अधीर हो उठे। उस समय आपने बाबू कार्तिकप्रसाद को लिखा
''कुछ दिन हुए कि मेरे एक हिन्दुस्तानी दोस्त ने हिन्दुस्तान के पुलिस के
जुल्म की ऐसी तस्वीर खैंची कि मैं हैरान हो गया। मैंने यह जानने के लिए कि
मेरा दोस्त कहाँ तक सच कहता है, एक चिट्ठी लाहौर नगर के 'ट्रिब्यून' नामी
समाचार पत्र को लिखी। उस चिट्ठी के छपते ही मेरे पास बहुत से लोगों ने
चिट्ठियाँ भेजीं जिनसे प्रकाशित हुआ कि पुलिस का जुल्म उससे भी ज्यादा है
कि जितना मैंने सुना था। अब मैंने यह पक्का इरादा कर लिया है जब तक
हिन्दुस्तान की पुलिस वैसी ही न हो जावे जैसे कि हमारे इंगलिस्तान की है,
मैं इस बात का पीछा न छोड़ूँगा।''
बनारस में एक 'बनारस एसोसिएशन' का नाम की सभा थी जो पुलिस के अत्याचारों को
दूर करने का यत्न किया करती थी। पिन्काट साहब उसके अध्य क्ष बनाए गए थे।
1888 ई. में आप पर एक बड़ा भारी दु:ख पड़ा। आपकी स्नेहमयी भार्या का नवम्बर
महीने में परलोकवास हो गया। उस समय आपके चित्त की जो दशा हुई आप जी खोलकर
अपने भारतीय मित्र से कहते हैं
''विगत महीनों में मुझ पर इस दुनिया का सबसे भारी दु:ख गिर पड़ा है। मेरी
प्यारी स्त्रीी मर गई और मैं शोक के द्वारा अचेत होकर उदासी के पेंदे में
लुढ़क रहा हूँ। देखो मित्र, उन्तीवस बरस तक वह मेरी प्यारी साथिन थी। अब
मालूम हुआ कि सारा जगत् असार हो गया है। परमेश्वर की कृपा से कुछ काल बीतने
पर मैं फिर से शान्त हो जाऊँगा।''
पाठक! इस लिखावट से इनकी सरलता का अन्दाज कीजिए। यह भी विचारिए कि ये शब्द
ऐसे व्यक्ति को लिखे गए हैं जिससे इनका कभी प्रत्यक्ष परिचय भी न था। एक और
चिट्ठी में दीन भारतवासियों के साथ उपकार करने की चिन्ता में आप अपने दु:ख
को भूल जाते हैं और लिखते हैं
''इस समाचार के मिलने से आपको परमानन्द होगा कि इंडियन गवर्नमेंट थोड़े काल
में पुलिस डिपार्टमेंट को सरासर बदल देगी। सच मानिए, यह ठीक ठीक समाचार है।
दो बरस तक मैं अपनी चिट्ठी, लेखा, मजमून इत्यादि चारों ओर भेजा भिजवा करता
रहा हूँ। अब मेरे इस परिश्रम का कुछ फल होगा। सावधान
रखिए कि आप किसी से न कहैं कि मैंने यह समाचार पिन्काट साहब से पाया है ''।
भारतवर्ष की उन्नति में सहायता पहुँचाने वाली जितनी बातें थीं पिन्काट साहब
का प्राय: उन सबसे सम्बन्ध रहता था। इनके राजनीति, व्यापार तथा साहित्य
संबंधी लेख बराबर इंगलैंड और भारतवर्ष के संवादपत्रों में निकला करते थे।
यद्यपि ये विलायत में रहते थे पर देशी भाषाओं के अध्यंयन द्वारा ये
भारतवर्ष की बहुत सी भीतरी बातों से जानकार थे। इस पर भी यहाँ की वास्तविक
दशा जानते रहने के लिए आप यहाँ के समाचारपत्रों को पढ़ा करते थे। राजनीतिक
विचार आपके उदार थे। आप हिन्दी अखबार बड़े प्रेम से पढ़ते थे। और नेशनल
काँग्रेस को आप अच्छा समझते थे। इन बातों का पता आपके इस पत्र से लग सकता
है। यह भी बाबू कार्तिकप्रसाद ही को उन्होंने लिखा था
''इस समय तक जितने समाचारपत्र मेरे पास आते हैं उनके नाम नीचे लिखे हुए
फिहरिस्त में हैं, अर्थात्
1. भारतमित्र (हिन्दी) साप्ताहिक
2. भारतवर्ष (हिन्दी) मासिक
3. भारतदुर्दशा प्रवर्तक (हिन्दी) मासिक
4. दिनकर प्रकाश (हिन्दी) मासिक
5. भारर्तवत्ता (मराठी) साप्ताहिक
6. ट्रैब्यून (अंगरेजी) दो बार प्रत्येक सप्ताह
7. एडवोकेट (अंगरेजी) साप्ताहिक
''मैंने यह सुना है कि 'अमृत बाजार पत्रिका' नामक समाचारपत्र एक बहुत अच्छा
अखबार है। परन्तु मैंने उसको कभी नहीं देखा है।
''ऊपर लिखे हुए समाचारपत्रों को मैंने कई एक मजमून लिखे भेजे हैं और
भेजूँगा।
''मेरी राय में नेशनल काँग्रेस बहुत अच्छी बात है। उसके बारे में मैं बहुत
कुछ लिखूँगा।''
जब कभी किसी हिन्दी पत्र संपादक पर कोई आपत्ति आती थी तब आप तुरन्त उसके
पक्ष में खड़े हो जाते थे। एक बार एक प्रतिष्ठित हिन्दी पत्र के सम्पादक को
निज प्रकाशित किसी राजनीतिक लेख के विषय में आशंका हुई। उन्होंने पिन्काट
साहब के पास उस लेख को भेजकर अपने चित्त का हाल लिख भेजा। पिन्काट साहब ने
तुरन्त उस लेख का ऍंगरेजी अनुवाद करके और उस पर अपनी सम्मति लिखकर उनके पास
भेज दिया, और लिखा कि यदि आप पर कोई आपत्ति आवे तो आप मेरी उस राय को पेश
कर दीजिएगा। इसी तरह हमारे मिरज़ापुर से निकलेवाले 'खिचड़ी समाचार' के
सम्पादक बाबू माधावप्रसाद खत्री पर जिस समय मानहानि का अभियोग चल रहा था,
आपने उनके पक्ष में अपनी साक्षी इंगलैंड से लिखकर भेजी थी। हिन्दी के विषय
में इनकी सम्मति सदा माननीय समझी जाती थी।
डब्ल्यू. एच. एलेन. ऐंड कं. से आपने 1890 में सम्बन्ध छोड़ा और मेसर्स
गिलबर्ट ऐंड रिविंगटनक्व (Messers Gilbert and Revington. St. John’s House
Clerken Well London) के प्रसिध्द कार्यालय 'पूर्वीय मन्त्री और
कार्यकत्तर्' (Oriental adviser and expert) नियुक्त हुए। अन्त तक आप वहीं
रहे। इस कम्पनी की तरफ से 'आईन: सौदागरी' (Mirror of the British
Merchandise) नामक व्यापार सम्बन्धी एक मासिक पत्र उर्दू भाषा में निकलता
था जिसके एडिटर पिन्काट साहब थे। उसमें इंगलिस्तान की बनी हुई वस्तुओंक़लों
और औजारों आदिक़ा हाल रहता था, और उनकी उपयोगिता दिखलाई जाती थी। भारतवर्ष
में उत्पन्न होनेवाले पदार्थों का भी वर्णन रहता था। इसके सिवा वाणिज्य
व्यवसाय की और भी कितनी ही बातें रहती थीं।
पिन्काट साहब के संपादकत्वकाल में, इस पत्र में इन सब बातों के सिवा भारत
के राजा महाराजाओं और विख्यात पुरुषों के सचित्रा चरित भी निकलते थे, यहाँ
के प्रधान प्रधान नगरों और राजधानियों का वर्णन रहता था, यहाँ के हिन्दी
संवादपत्रों के लेख उध्दृत होते थे। यह पत्र उर्दू का था पर अन्त के दो चार
पृष्ठों में हिन्दी भी रहती थी। उर्दू लेखों के दो चार नाम नमूने के तौर पर
सुनिए'ग़ेहूँ का साफ़ करना'। 'रौग़नदार बीजों से तेल निकालने के लिए एक उम्द:
कोल्हू', 'इंगलिस्तान की ख़ौराक'। रुई की तिजारत'। 'कटहल'। 'शाहेजादगान
हिन्दुस्तान'। 'प्रतापचन्द्र राय साहब बहादुर. सी आई. ई.'। शहर 'बंबई'।
'जैपुर'।
हिन्दी लेखों के नमूने'भयमुक्त दीपक' (Safety lamps) 'जलोत्ताोलन यन्त्रा,
भूमि के सींचने के लिए' (Pumps for irrigation) 'पवनचक्कियों के बारे में'
(Machines driven by wind) 'केले के पेड़ों का उपराजना'।
ये लेख हिन्दी पत्रों से उध्दृत किए गए थे'हिन्दुस्तान का व्यापार''अर्य
दर्पण' से। 'भारतवासियों को विलायत जाने की आवश्यकता''हिन्दुस्तान' से।
'भारतवर्ष को किस बात की आवश्यकता है''भारतमित्र' से।
कभी कभी दो एक मज़ेदार नोट भी हिन्दी में निकल जाते थे, जैसे''आस्ट्रेेलिया
में एक युवती ने फाँसी देनेवाले के पद को प्राप्त करने के लिए अर्ज़ी दी है।
क्व इस लेख के लिखने में मुझे इस कम्पनी के मैनेजर से भी सहायता मिली
है।लेखक
उसने अपनी अर्ज़ी में यह भी लिखा है कि चूँकि पुरुषगण स्त्रीa जाति के ऊपर
जीवन न्योछावर करनेवाले होते हैं और मैं भी स्त्री हूँ, अत: पुरुषों को
फाँसी देकर परलोक पयान कराने का काम मुझको मिलना चाहिए।''
1895 ई. में 'रीआ घास' (Rhea fibre) की खेती कराने के विचार से पिन्काट
साहब ने हिन्दुस्तान को प्रस्थान किया। नवम्बर में ये कलकत्ताु उतरे। सुनते
हैं कि वहाँ इनका एक व्याख्यान हुआ था। पर किस विषय पर और किस भाषा में,
नहीं कह सकते। 'लन्दन रीआ फाइबर ट्रीटमेंट कम्पनी' के साथ इन्होंने
हिन्दुस्तान से 15000 टन रीआ की छाल सात पाउंड (105 रु.) फी टन के हिसाब से
भेजने की ठीका लिया था। कलकत्ताा से ये काशी जानेवाले थे, पर नहीं गए।
नागरी प्रचारिणी सभा के ये आनरेरी सभासद थे। अवधा प्रान्त को इन्होंने
रीआक्व की खेती के लिए उपयुक्त समझा था। इसी उद्योग के लिए ये लखनऊ गए।
वहीं 7 फरवरी 1896 को उन्हीं अभागे भारतवासियों के बीच, जिनके उपकार में ये
जीवन भर लगे रहे, इनके शान्त और परोपकारी जीवन का शेष हो गया। इनका शरीर
भारतवर्ष की पुनीत मिट्टी में मिल गया। हा! ये कुछ दिन भी हमारे बीच न रहने
पाए, इसका हम भारतवासियों कोविशेषकर हिन्दी भाषाभाषियों को सब दिन सोच
रहेगा।
पिन्काट साहब एक कन्या के सिवा कोई संतति छोड़ कर नहीं मरे। इनके भाई थोड़े
दिन हुए लन्दन में 'पंच ऑफिस' में रीडर थे। पर अब नहीं मालूम कहाँहैं।
इनकी बनाई और सम्पादित की हुई पुस्तकों ने नाम ये हैं
1. हिन्दी शकुन्तला (राजा लक्ष्मणसिंह का किया हुआ अनुवाद, उस पर पिन्काट
साहब की व्याख्या) यह संस्करण सिविल सर्विस की परीक्षा में जानेवाले
अंगरेजों के लिए प्रकाशित हुआ था।
2. Hindi Manual (हिन्दी व्याकरण) यह भी सिविल सर्विस परीक्षा में नियतथा।
3. अलफ लैला (बजश्बान उर्दू) (रोमन अक्षरों में)
4. हितोपदेश (अंगरेजी अनुवाद)
5. खड़ी बोली का पद्य (बाबू अयोध्या्प्रसाद का)
ये सब पुस्तकें इन्होंने डब्ल्यू. एच. एलेन ऐंड को., के छापेखाने ही में
छपाई थीं जिसके आप मैनेजर थे।
6. बालदीपक (हिन्दी) चार भाग, कैथी और नागरी अक्षरों में।
7. विक्टोरिया चरित्र (हिन्दी)
क्व इस घास को आसाम में 'रीआ' और बंगाल में 'कनखुरा' कहते हैं। यह छह से आठ
फीट तक ऊँची होती है। इसकी गाँठों से नुकीली पत्तियाँ निकलती हैं। यह घास
सुंदरवन (बंगाल) और आसाम में आपसे आप उगती है। इसकी छाल के रेशों से सुन्दर
कपड़े बनते हैं। इसकी खेती से भारतवासियों का लाभ हो सकता है।लेखक
ये दोनों पुस्तकें 'खक्ष्विलास प्रेस' बाँकीपुर की छपी हैं और विशेष ध्याखन
देने योग्य हैं क्योंकि उनसे पिन्काट साहब की हिन्दी गद्य रचना का परिचय
मिलताहै।
'बालदीपक' बिहार के स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। इसमें अच्छे अच्छे
बालकोपयोगी पाठ, सरल हिन्दी भाषा में, थे। एक नमूना लीजिए12वाँ पाठ। चौकसाई
करने के बयान में।
''हे लड़को, तुमको चाहिए कि अपनी पोथी को बहुत सँभाल कर रक्खो। मैला होने न
पावे बिगड़े नहीं और जब उसे खोलो चौकसाई से खोलो कि उसका पन्ना ऍंगुली के
तले दब कर फट न जावे।''
'विक्टोरिया चरित्र'। यह 136 पृष्ठ की पुस्तक है। इसमें महारानी विक्टोरिया
का जीवन वृत्तान्त विस्तार के साथ शुध्द हिन्दी भाषा में पिन्काट साहब ने
लिखा है। उस पुस्तक की भाषा के विषय में मुझे केवल यही कहना है कि वह इनके
पत्रों की अपेक्षा अधिक शुध्द और मुहाविरेदार है इसमें सन्देह होता है कि
कदाचित् इसका संशोधन यहाँ हुआ हो।
ये रायल एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में पुरातत्व सम्बन्धी लेख अकसर लिखा
करते थे। 'त्रिरल' नाम एक लेख में इन्होंने बौध्दों के चिह्न चक्र, त्रिशूल
और स्वास्तिक का मर्म बड़ी ही योग्यता से समझाया है। यह लेख सोसायटी के
जर्नल की उन्नीसवीं जिल्द के दूसरे भाग में छपा है।
योरपियन लोगों में हिन्दी लिखने की योग्यता पहिले पहिल इन्होंने प्राप्त
की। इनकी भाषा की त्रुटियों पर ध्या न देने के पहिले इस बात का विचार कर
लेना चाहिए कि ये विदेशी थे और हिन्दी भाषा उस समय क्या, अब तक इस योग्य
नहीं बन सकी है, कि कोई विदेशी उसे पूर्ण रूप से सीख सके। न तो उसके
व्याकरण-सम्बन्धी नियमों का निश्चय हुआ जिससे वह स्थिर होती और न उसके शब्द
विस्तार ही की कोई सीमा निर्धारित हुई। कोई विदेशी किस तरह जान सकता है कि
'हो' और 'होने' (इसी प्रकार 'होइए' और 'हूजिए', जायँ, जाएँ और जावें) एक ही
है। हिन्दी के कवियों ने जो निरंकुशता दिखलाई है उसका तो कहना ही क्या है।
'कियो', 'कीन्ह्यो', 'कीन्हो', 'कीन्ह', 'करयो' के बीच में पड़कर एक बार
पाणिनि की बुध्दि भी चक्कर खाने लगेगी। यहां तक कि लिपि-सम्बन्धी भी कोई
सर्वमान्य रीति नहीं है। यदि विश्वास न हो तो 'दैनिक हिन्दोस्थान' सामने रख
लीजिए, फिर बहार देखिए।
पिन्काट साहब की देवनागरी लिपि बहुत अच्छी और स्पष्ट होती थी। उसका नमूना
हम उनके एक पत्र से देते हैं। यह पत्र उन्होंने बाबू कार्तिकप्रसाद को
लिखाथा।
हिन्दुस्तान का हित साधन करने में इनकी लेखनी कभी नहीं रुकी; इनके लेख
निरन्तर इंगलिस्तान और हिन्दुस्तान के पत्रों में निकलते रहे। हिन्दी के
प्रचार के लिए अंगरेजी पत्रों में आप हमेशा ही लिखा करते थे। 19.8.1887 के
'ओवरलैंड (Overland Mail) मेल' में आपने जो लेख लिखा था उसके कुछ अंश का
अनुवाद सुनिए
''हिन्दी भाषा उत्तरी हिन्दुस्तान में सबसे अधिक ओजस्विनी भाषा है और अपनी
सफ़ाई और लचक के कारण वैज्ञानिक विचारों को व्यक्त करने के लिए भली भाँति
उपयुक्त है। ऍंगरेजों ने फ़ारसी अक्षरों में लिखी जानेवाली उर्दू को भ्रमवश
उत्तरी हिन्दुस्तान में बलात् जारी किया है; हिन्दुस्तान के लोगों ने सरकार
तक इस अन्याय की कथा कई दफे पहुँचाई है; पर अमले और हाक़िम परिवर्तन नापसन्द
करते हैं। क्योंकि परिवर्तन से उन्हें एक देशी भाषा सीखने का कष्ट उठाना
पड़ेगा पर आशा है कि किसी न किसी दिन, शीघ्र ही, कोई न्याय का प्रेमी उठ खड़ा
होगा जो इस बात को समझेगा कि पोलैंडवासियों के बीच रूसी भाषा को बलात्
फैलाने के लिए ज़ार को धिक्कारना कहाँ तक न्याय है जबकि स्वयं कैसरहिन्द दस
करोड़ हिन्दी बोलनेवाले भारतवासियों के गले में बलात् फ़ारसी ठूँसते हैं।
मेरी राय में नेशनल कांग्रेस बहुत अच्छी बात है। उसके बारे में मैं बहुत
कुछ लिखूँगा।
आशा है कि आप भले चंगे हैं और परमेश्वर करे कि हिन्दुस्तान के सब हितैषी
सानन्दपूर्वक चिरायु रहें।
आपका परममित्र
फ्रेडरिक पिन्काट
दिसम्बर 1887 के 'इंडियन मैगजीन' में प्रकाशित इनके एक और लेख का भी थोड़ा
सा भावार्थ सुनिए
''हिन्दी के अन्तर्गत कितनी ही बोलियाँ हैं। पर इन बोलियों का समग्र समुदाय
एक ही भाषा है। यही भाषा है जिसमें फ़ारसी विजेताओं ने बहुत से फ़ारसी शब्द
मिलाकर एक दोगली भाषा उत्पन्न कर दी, जो उर्दू या हिन्दुस्तानी कहलाती है।
सरकारी दफ्तरों और कचहरियों को छोड़कर इस भाषा का अन्यत्र कहीं अस्तित्व
नहीं है। उत्तरी भारत की भाषा हिन्दी है। वही वहाँ की 'लिंगुआ फ्रांका' है।
हिन्दुस्तान में यह विलक्षण दृश्य देखने में आता है कि राजा और प्रजा
राजकीय कार्य को एक ऐसी भाषा में सम्पादन करते हैं जो दोनों के लिए विदेशी
है। यथार्थ भाषा सम्बन्धी प्रश्न जो आज तीन वर्ष से उत्तरी भारत में उठ रहा
है, लिपि विषयक है। जब तक फारसी अक्षरों का एकाधिपत्य रहेगा और सब लोग अपनी
देशी नागरी को सरकारी कागश्जश् पत्रों में व्यवहार करने से रोके जाएँगे तब
तक उत्तरी भारत की भाषा पर बुरा प्रभाव पड़ता जायगा।''
चार्ल्स ब्राडला साहब जिस समय भारत में आए थे, पंडित प्रतापनारायण मिश्र ने
'ब्राडला स्वागत' नाम की एक कविता लिखी थी। उसका अंगरेजी अनुवाद करके
पिन्काट साहब ने इंगलैंड में प्रसिध्द किया था। कहते हैं कि उस कविता की
वहाँ बड़ी प्रशंसा हुई थी। ‘The Brothers England and India’ (बन्धु इंगलैंड
और भारत) नाम की अत्यन्त हृदयग्राहिणी कविता भी इन्होंने ऍंगरेजी में लिखी
थी। उससे स्पष्ट मालूम होता है कि हिन्दुन्तान पर इनका कितना प्रेम था। इस
कविता की रचना कुछ विलक्षण हुई है। भारतवासियों को रुचिकर बनाने के लिए
इसमें अन्त्यानुप्रास की ओर विशेष ध्याहन रक्खा गया है। प्रत्येक पद्य
(Stanza) में नौ नौ चरण हैं जिनके अन्तिम अक्षरों की तुक बराबर मिलती गई
है। कविता निस्सन्देह बहुत ही ओजस्विनी हुई है। खेद है उग्र राजनीतिक भावों
से भरी होने के कारण हम उसे इस पत्रिका में नहीं प्रकाशित कर सकते।
(सरस्वती, जनवरी, 1908 ई )
[चिन्तामणि, भाग-3]
परलोकवासी पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र
यह वर्ष भी हिन्दी प्रेमियों को दु:ख देता हुआ जा रहा है।
हिन्दी सम्वादपत्रों के पथप्रदर्शक, लोकोपकारी कार्यों के उत्तेाजक,
राजनीतिक रहस्यों के मर्मज्ञ, अनेक देशभाषाओं के जाननेवाले, अपनी अपूर्व
उक्तियों से रुष्ट और रोतों को हँसानेवाले, पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र इस
लोक से चल बसे। मिश्र जी को कुछ दिनों से ग्रहणी रोग के लक्षण दिखाई दे रहे
थे। वे जलवायु परिवर्तन के विचार से काश्मीर की राजधानी श्रीनगर गए। पर
वहाँ जाने से उन्हें लाभ के बदले हानि हुई। उनका रोग घटने के स्थान पर और
बढ़ गया। अन्त में वे जम्बू लौट आए और वहाँ दो महीने रह कर कलकत्ताष चले गए
जहाँ चिकित्सा का अच्छा से अच्छा प्रबन्ध रहते हुए भी उस दारुण रोग ने उनकी
विशाल निर्द्वन्द्व और हँसती हुई मूर्ति का सदैव के लिए अदर्शन करा ही
दिया। हा शोक! उनके अंग हिलाने मात्र से समाज, जाति वा भाषा का कुछ न कुछ
हितसाधन हो ही जाता था। अपने ''उचित वक्ता'' पत्र से उन्होंने आधुनिक
हिन्दी की प्रारम्भिक दशा में हिन्दी पाठकों के बीच कैसे दृढ़ और परिपक्व
भावों का संचार किया यह हमारी भाषा की नवीन गति से परिचय रखनेवाले मात्र
जानते हैं। इनमें गुण एक से एक बढ़कर थे। ये उदार और गम्भीर भावों से
परिपूर्ण होने पर भी सांसारिक व्यवहारों में इतने कुशल थे कि पक्के से
पक्के धूर्त की भी इनके सामने दाल नहीं गल सकती थी। इनके स्वार्थत्याग और
विलक्षण गुणों के कारण बड़े बड़े राजा महाराजा तथा विद्वान् लोग इनका बहुत
आदर करते थे और इनके परामर्शों की प्रौढ़ता को स्वीकार करते थे। ये
विनोदप्रिय भी बड़े भारी थे। कभी कभी ऐसे चुटकुले छोड़ते थे कि हँसते हँसते
पेट में बल पड़ने लगता था। जम्बू में मुझे इनके साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त
हुआ है। हमारी हिन्दी के लिए तो मानो इन्होंने जन्म ही लिया था। कलकत्ताव
के बड़े बड़े बंगाली अधिकारियों की सहानुभूति हिन्दी की ओर खींचने में
इन्होंने कोई बात उठा नहीं रक्खी। उनका जन्म जम्बू राज्य के अन्तर्गत सांबा
ग्राम में हुआ था अत: इनकी यह बड़ी भारी अभिलाषा थी जिन देशवासी डोगरे लोगों
के बीच हिन्दी भाषा का प्रचार हो। इधार इनका विचार जम्बू में एक बड़ी डोगरा
पाठशाला स्थापित करने का था जिसमें संस्कृत के साथ हिन्दी का पढ़ना आवश्यक
हो। बीमारी के समय में भी ये जब तक जम्बू रहे इस कार्य के लिये उद्योग करते
रहे। बहुत से लोगों को इन्होंने इस कल्याणकर कार्य में धन की मासिक सहायता
देने के लिए प्रतिज्ञाबध्द किया था। साथ ही उनका विचार जम्बू वा उसके आसपास
एक हिन्दी पुस्तकालय खोलने का भी था। सन्तोष का विषय में कि उनकी उत्तोजना
से जम्बू में दो एक महाशय पुस्तकालय स्थापन के लिए उद्यत हो गए और अब उसके
प्रयत्न में हैं। ईश्वर ऐसे देशहितैषी और मातृभाषाभिमानी महात्मा की आत्मा
को शान्ति और उनके कुटुंबियों को धैर्य दे।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, भाग 18, संख्या 3-4)
शोक! शोक!! महाशोक!!!
आज यह शोक समचार देते चित्त अत्यन्त व्यथित होता है कि गत 28 नवम्बर को इस
सभा के पूज्य और बूढ़े सभापति गणित और ज्योतिषशास्त्र के एकमात्र स्तम्भ
हिन्दी साहित्य के पूर्ण मर्म्मज्ञ प्राचीन परिपाटी के पंडित होकर भी
समयानुकूल संशोधन और उन्नति के पक्षपाती महामहोपाध्या य पंडित सुधाकर
द्विवेदीजी ने इस लोक से सहमा सम्बन्ध छोड़ परलोक का मार्ग लिया। इनकी
मृत्यु से काशी की पंडित मंडली का एक अमूल्य रत्न ही नहीं खो गया वरन्
दु:खिनी हिन्दी का भी एक बड़ा भारी सहारा हट गया।
सुधाकरजी की संस्कृत और गणित की पारदर्शिता की तो चारों ओर धूम है पर
हिन्दी के लिए उन्होंने जो जो कार्य किए कदाचित् वे उतने प्रसिध्द न हों।
तुलसीदासजी के ग्रन्थों के ये अच्छे ज्ञाता थे। काशी नागरीप्रचारिण् सभा की
सहायता से प्रयाग के इंडियन प्रेस ने रामचरितमानस का जो संस्करण छापा था
उसके सम्पादन में सुधाकरजी ने बहुत कुछ परिश्रम किया था। तुलसी सतसई पर
इन्होंने कुंडिलियाँ भी लिखी हैं तथा विनयपत्रिका का संस्कृत में अनुवाद
किया है। मांडा के राजा साहब ने जो रामायण छपवाई है उसमें भी सुधाकरजी ने
बड़ा शारीरिक और मानसिक प्रयास किया है। कई वर्ष हुए डॉक्टर ग्रियर्सन ने
''इंडियन एंटिक्वेरी'' में गोस्वामी तुलसीदास पर एक लेखमाला छपवाई थी।
कदाचित् यह कहना अनुचित न होगा कि इसकी सामग्री का बहुत कुछ संग्रह पंडित
सुधाकरजी ही के प्रयत्नों से हुआ। एशियाटिक सोसाइटी जायसी की पद्मावत का एक
सुन्दर संस्करण निकाल रही है। जिसके कई भाग छप चुके हैं। टीका टिप्पणी के
साथ इसको सम्पादन करने का भार सुधाकरजी पर था। तुलसीदास के रामचरितमानस का
अनेक अर्थों से युक्त एक पद्यबध्द संस्कृत अनुवाद भी ये ''मानस पत्रिका''
के नाम से निकालते थे। बस अनुवाद में विचित्रता यह है कि संस्कृत में भी
वही छन्द रक्खे गए हैं जो हिन्दी में गोस्वामी तुलसीदासजी ने रक्खे हैं।
इनकी सम्पादित दादू दयाल की बानी भी सभा की ग्रन्थमाला में निकल चुकी है।
मलिक मुहम्मद जायसी की 'अखरावट' नाम की पुस्तक का भी इन्होंने सम्पादन किया
है। इनकी अन्तिम अभिलाषा ''विनयपत्रिका'' के एक उत्तम टीका टिप्पणी युक्त
संरक्षण निकालने की थी। पर खेद है कि हिन्दी के दुर्भाग्य से यह इच्छा
उन्हीं के साथ चली गई।
अभी थोड़े दिन की बात है जब काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का पहिला
अधिवेशन हुआ था। उस समय अनेक हिन्दी प्रेमियों ने उनके दर्शन किए थे और
उनकी वक्तृता सुनी थी। सुधाकरजी का विचार था कि प्रयाग विश्वविद्यालय की
भिन्न भिन्न परीक्षाओं में हिन्दी के समावेश का उद्योग हो। वे इसके लिए
पूरा प्रयत्न करने पर कटिबध्द थे। कदाचित् यह कहना किसी रहस्य को प्रगट
करना न होगा कि माननीय पंडित मदनमोहन मालवीय सेंडिकेट में इसका प्रस्ताव
करने वाले थे और सुधाकरजी उसके अनुमोदन पर दृढ़ थे पर हिन्दी के दुर्भाग्य
से सुधाकर अस्त हो गए और मालवीयजी इस वर्ष युनिवर्सिटी के फेलो न रहे।
अस्तु, काशी नागरीप्रचारिणी सभा को तो सुधाकरजी की मृत्यु से बड़ी हानि
पहुँची है। इनके स्थान को पूरा करनेवाला कोई दिखाई नहीं पड़ता। अभी थोड़े
दिनों की बात है कि सभा के कार्य विशेष के लिए कुछ पद्य रचना की आवश्यकता
हुई। उस समय इस कार्य के योग्य और कोई न देख पड़ा। सुधाकरजी उन दिनों रुग्ण
शय्या पर पड़े थे, घोर ज्वर चढ़ा हुआ था। सभा के कार्यकर्ताओं ने उनके पास
उपस्थित होकर अपनी कठिनता कह सुनाई। वे इस बात के सुनते ही घोर ज्वर की
अवस्था में भी उठ बैठे और उसी समय सभा का कार्य कर दिया। हिन्दी के
प्रेमियों! आपने अपना एक अनमोल रत्न खोया। इस सभा को तो वे मानो अनाथ ही कर
गए।
ऐसे महानुभाव के जीवन की मुख्य मुख्य घटनाओं को जानने के लिए इस अवसर पर
पाठक अवश्य व्याकुल होंगे। अत: हम उसका संक्षिप्त चरित्र 'कोविद रतनमाला'
से यहाँ उध्दृत करते हैं।
''बहुत दिन हुए चैनसुख नामक एक सरयूपारी दुबे ब्राह्मण काशी में संस्कृत
पढ़ने आए। ये शिवपुर के पास मंडलाई गाँव में एक उपाध्यातय के यहाँ अध्य यन
करने लगे। उपाध्याीयजी की कोई संतति न होने के कारण चैनसुखजी उनकी सम्पत्ति
के उत्ताराधिकारी हुए। इनसे कई पीढ़ी पीछे शारंगधार और शिवराम दो भाई हुए।
शारंगधार ने खजुरी सारनाथ आदि कई गाँवों को जमींदारी लेकर खजुरी में अपना
निवास स्थान नियत किया। शिवराज उपाध्या।य के तीन पुत्र हुए जिनमें
रामप्रसाद सबसे छोटे थे। उनके समय में केवल खजुरी की जमींदारी हाथ में रह
गई थी। रामप्रसाद के पाँच पुत्र हुए जनमें कृपालुदत्ता सबसे छोटे थे।
कृपालुदत्ता ज्योतिष विद्या में निपुण हुए और इनके हस्ताक्षर भी अच्छे होते
थे। क्वींस कॉलेज के भीतों पर अंकित अक्षर उन्हीं के लिखे हुए हैं। पं.
सुधाकरजी इन्हीं कृपालुदत्ता के पुत्र हैं। स्मरण रहे कि पं. कृपालुदत्ता
स्वयं भाषाकाव्य के बड़े प्रेमी तथा कवि थे।
''जिस समय सुधाकरजी का जन्म हुआ इनके पिता मिर्जापुर में थे। इनके चाचा
दरवाजे पर बैठे थे। डाकिये ने आकर सुधाकर नामक पत्र उनके हाथ में दिया तब
तक भीतर से लड़के के जन्म होने की खबर आई। आपने कहा कि इस लड़के का नाम
सुधाकर हुआ। इनका जन्म संवत् 1917 चैत्रा शुक्ल चतुर्थी सोमवार को हुआ था।
द्विवेदीजी की नौ मांस की अवस्था होते ही इनकी माता का देहान्त हो गया
इसलिए इनके लालन पालन का भार इनकी दादी पर पड़ा। इनके पिता घर पर नहीं रहते
थे और घर भर का इन पर विशेष प्यार था। इसी से आठ वर्ष की अवस्था तक इनकी
शिक्षा की ओर किसी ने कुछ भी ध्या न नहीं दिया। इसके बाद जब इनके बड़े चाचा
ने इन्हें पढ़ने को बैठाया तो इन्होंने थोड़े ही समय में बहुत उन्नति कर
दिखलाई। यज्ञोपवीत होते ही इनकी धारणा शक्ति ऐसी तीब्र हो गई कि जो पद्य एक
बार देखा कंठस्थ हो गया।
''इनके बड़ों ने तो सोचा कि उन्हें कुछ व्याकरण पढ़ाकर कथा पुराण बाँचने
योग्य बना दिया जाय पर इनकी तबीयत ज्योतिष शास्त्र में लग गई और केवल
लीलावती पढ़ कर ये गणित के बड़े बड़े प्रश्नों को सहज में हल करने लगे। इनकी
ऐसी तीव्र बुध्दि देख पं. वापूदेव शास्त्रीछ इनसे बहुत प्रसन्न हुए और
उन्होंने क्वीन्स कॉलेज के प्रिंसिपल ग्रिफिम साहब से इनकी बड़ी प्रशंसा की।
इससे इनका उत्साह और भी बढ़ गया। इनके बड़ों ने गणित के विशेष अध्य यन से
उन्हें रोकना चाहा पर ये गणित के रंग में ऐसे रंग गए थे कि उस विद्या में
पूर्ण पांडित्य प्राप्त किया। यों ही ज्योतिष विषय पर बातें होते होते एक
दिन इनका बापूदेव शास्त्रीन से कुछ झगड़ा हो गया जिससे दोनों में कुछ
वैमनस्य हो गया।
''पं. सुधाकरजी ज्योतिष के जैसे पंडित हैं सो तो सभी जानते हैं परन्तु अपनी
मातृभाषा हिन्दी के भी आप अनन्य प्रेमी और बड़े विद्वान् हैं। आप तुलसीदास,
सूरदास, कबीर तथा अन्यान्य भाषा के शिरोमणि कवियों के काव्यों में अच्छा
प्रवेश रखते हैं। आप ऐसी सरल हिन्दी के पक्षपाती हैं जो कि सहज ही
सर्वसाधारण की समझ में आ सके। आपने सब मिलाकर हिन्दी भाषा में कोई 77
पुस्तकें रची और सम्पादित की हैं। आप बाबू हरिश्चन्द्रजी के प्रिय मित्रों
में से हैं।
''सुधाकरजी की रहन सहन सादी, स्वभाव सीधा और चाल सर्वप्रिय है। आपका
सिध्दान्त है कि कोई छोटा बड़ा नहीं है। सब एक ही से जन्मते और एक ही से
मरते हैं। ईश्वर ने जिसके सिर पर भार रख दिया है उसे अन्त तक निबाह ले जाना
ही बड़प्पन है। आप इस समय क्वींस कॉलेज में गणित के प्रोफेसर और
नागरीप्रचारिणी सभा के सभापति हैं। आपको विद्वत्ता पर मुग्धा होकर
गवर्नमेण्ट ने आपको महामहोपाध्यासय की उपाधि से भूषित किया है। आपकी
सुकीर्ति योरप तक फैली हुई है।''
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, दिसम्बर, 1910 ई )
परलोक-प्राप्त पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंडया
गत 4 दिसम्बर को हिन्दी के इतिहासविज्ञ और पुराने लेखक तथा सहायक
पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंडया की अचानक मृत्यु को सुनकर जो दु:ख
हिन्दीहितैषियों को हुआ वे ही जानते हैं। नागरीप्रचारिणी सभा को इस घटना से
विशेष वेदना हुई क्योंकि इसका उनसे विशेष सम्बन्ध था।
पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंडया उन लोगों में थे जिन्होंने आरम्भ में हिन्दी
को इस वर्तमान उन्नति के मार्ग पर खड़ी होने में सहारा दिया था। वह अस्थिरता
का समय इन्होंने अच्छी तरह देखा था जब हिन्दी के विषय में लोगों का उत्साह
कभी बढ़ता और कभी घटता था। घटाव के समय में आप प्राय: खड़े होते थे।
भारतेन्दु की हरिश्चन्द्रचन्द्रिका को शिथिल पड़ते देख आपने उसमें
मोहनचन्द्रिका जोड़कर उसके उजाले को कुछ दिन और चलाना चाहा था। हिन्दी में
इतिहास और पुरावृत्ता की चर्चा इन्होंने बहुत कुछ चलाई। इन विषयों के ये
अच्छे ज्ञाता थे। जिस समय कविराज श्यामलदानजी ने पृथ्वीराजरासो को आदि से
अन्त तक जाली सिध्द करना चाहा उस समय इन्होंने पृथ्वीराजसंरक्षा लिखकर रासो
के पक्ष में बड़ी धूम के साथ लेखनी उठाई थी। अनन्द और सनन्द संवत् की कल्पना
करके आपने अपने मत की पुष्टि में बहुत कुछ लिखा था। प्राचीन इतिहास और
पुरातत्व विषय पर आपके लेख एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में प्राय: निकलते
रहे।
नागरीप्रचारिणी सभा की सहायता ये बराबर करते रहे। पुस्तकों की खोज के काम
में तथा पुरानी पोथियों के सम्पादन में इनसे बहुत कुछ सहायता मिलती रही।
सभा द्वारा प्रकाशित पृथ्वीराजरासो के एक सम्पादक ये भी थे। उसके वर्णनों
के शीर्षक गद्य में इन्होंने बड़े परिश्रम से लिखे थे। गत चुनाव में आप
नागरीप्रचारिणी सभा के सभापति चुने गए थे, पर शोक है कि सभा इनसे अकाल ही
वंचित कर दी गई, इनकी विज्ञता और अनुभव का लाभ बहुत दिनों तक न उठाने पाई।
इनका संक्षिप्त जीवन वृत्तान्त कोविदरत्नमाला से लेकर नीचे दिया जाताहै
पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंडया के पूर्वज गुजरात देश के रहनेवाले थे। वहाँ पर
मुसलमानी राज्य में अधिक उपद्रव होने से केशवराम पंडया अपने पाँच लड़कों
सहित दिल्ली को चले आए। केशवराम के ज्येष्ठ पुत्र का नाम निर्भयराम था।
केशवराम के पश्चात् निर्भयराम तो आगरा में रहने लगे और उनके और और भाई कोई
पंजाब में और कोई अन्य स्थानों में जा बसे।
निर्भयरामजी के वंश के लोग साहूकारी का व्यापार करने लगे। मोहनलालजी के
दादा गिरधारीलाल तक तो यह कार्य अच्छा चलता रहा परन्तु उनके मरने पर
प्रबन्ध अच्छा न होने से काम बिगड़ गया। इसलिए मोहनलालजी के पिता
विष्णुलालजी आगरे से मथुरा चले आए और यहाँ सेठ लक्ष्मीचन्द के यहाँ पहिले
दर्जे के मुनीबों में नौकर हुए।
पं. मोहनलालजी का जन्म संवत् 1907 मि. अगहन वदी 3 मंगलवार को हुआ था। सात
वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत हो जाने पर इन्हें हिन्दी और संस्कृत की
शिक्षा दी जाने लगी। इसके दो वर्ष बाद आप आगरा के सेंटजांस कॉलेज के स्कूल
में अंगरेजी पढ़ने को बिठाए गए। इसके बाद जहाँ जहाँ इनके पिता की बदली होती
गई वहाँ-वहाँ आप उनके साथ रहकर बराबर अध्यजयन करते रहे।
मोहनलालजी के पिता ने इन्हें पूर्णरूप से शिक्षा देने के अभिप्राय से बनारस
को अपनी बदली करवा ली और यहाँ नियतरूप से रहने लगे। तब आप भी बनारस में आकर
क्वीन्स कॉलेज के एटेरंस क्लास में भर्ती हो गए, परन्तु कुछ उद्दंड स्वभाव
होने के कारण इनसे और स्कूल के हेडमास्टर पं. मथुरा प्रसाद मिश्र से न पटी।
इसीलिए इन्होंने जयनारायण कॉलेज में अपना नाम लिखवाया परन्तु वहाँ अधिकतर
लड़के बंगाली थे इसलिए इन्हें विवश होकर दूसरी भाषा बंगला लेनी पड़ी।
यथासाध्यउ चेष्टा करने पर भी जब आप दूसरी भाषा में बार-बार फेल हुए तब आपने
स्कूल तो छोड़ दिया परन्तु खानगी तौर पर लिखने पढ़ने का अभ्यास न छोड़ा।
मोहनलालजी के पिता महाजनी के कामकाज के बाद बाबू हरिश्चन्द्र के घर भी आया
जाया करते थे। इसी से इनका भी वहाँ जाना आना होने लगा और इन दोनों समवयस्क
युवाओं में थोड़े ही दिनों में गाढ़ी मित्रता हो गई। बस इनकी दिन रात वहीं
बैठक रहने लगी। बाबू साहिब के यहाँ जो विद्वान पंडित लोग आते और
शास्त्रगर्भित बातों पर वाद विवाद करते उन्हें आप भी ध्या नपूर्वक सुनते और
मनन करते। आपका कथन है कि ''हिन्दी भाषा के अद्वितीय पंडित और तुलसीकृत
रामायण के मर्मज्ञ पंडित बेचनरामजी भी प्राय: बाबू साहिब के यहाँ आते थे।
उन्होंने हम दोनों को हिन्दी भाषा के तत्वभ समझाए और इस ओर हमारे चित्त को
आकर्षित किया। फिर क्या था हम लोगों ने परस्पर इस बात की सौगन्ध कर ली कि
परस्पर हिन्दी भाषा के सिवाय दूसरी भाषा का व्यवहार कदापि न किया जाय।
फारसी और उर्दू को जानते हुए भी हम लोगों ने उस ओर से अपना मुख मोड़ लिया।''
जब मोहनलालजी के पिता का देहान्त होने लगा तब वे इन्हें अपने परम मित्र
मुमताजुद्दौला नवाब सर फष्ज अली खाँ के सुपुर्द कर गए। उन्होंने बड़ौदा
कमीशन के समय इन्हें अपना कानफीडेंशल क्लर्क नियत किया और राजकार्य
सम्बन्धी कामों की शिक्षा दी। सन् 1877 में उनके अपने पद पर से इस्तीफा दे
देने पर इन्होंने उदयपुर राज्य में नौकरी कर ली और श्रीनाथद्वारा और
कांकरोली के महाराजों की नाबालगी में उन रियासतों का अच्छा प्रबन्ध किया।
इसके बाद इन्हें उदयपुर की सदर अदालत की दीवानी का काम मिला और फिर कुछ
दिनों के बाद इन्हें स्टेट काउंसिल के मेम्बर और सेक्रेटरी का पद प्राप्त
हुआ। 13 वर्ष उदयपुर राज्य की सेवा करके इन्होंने वहाँ से इस्तीफा दे दिया
और प्रतापगढ़ राज्य के दीवान नियत हुए। अन्त समय तक आप प्रतापगढ़ से पिंशन
पाते रहे।
जिस समय मोहनलालजी बनारस में थे उस समय परम प्रसिध्द पुरातत्व -वेत्ता डॉ.
राजेन्द्र लाल मित्र अक्सर बाबू हरिश्चन्द्रजी के यहाँ आया करते थे।
उन्होंने इनकी रुचि देखकर इन्हें पुरातत्व की शिक्षा दी जिससे इनकी योग्यता
और भी बढ़ गई। इस विषय में अंगरेज विद्वान भी आपकी प्रशंसा करते हैं।
इन्होंने महारानी विक्टोरिया की जुबिली के समय भारत सरकार में 1000 रुपया
जमा करके यह प्रार्थना की थी कि इस धन से प्रतिवर्ष दो तमग़े उन दो छात्रों
को मिला करें जो कलकत्ता यूनिवर्सिटी की परीक्षा में सबसे अव्वल आवें। इसे
सरकार ने धन्यवादपूर्वक स्वीकार किया। अब ये दोनों मेडल इलाहाबाद
विश्वविद्यालय द्वारा प्रतिवर्ष दिए जाते हैं।
इन्होंने हिन्दी में 12 पुस्तकें रची हैं। पृथ्वीराज रासो की संरक्षा की और
उसका सम्पादन भी किया। हिन्दी के विद्वानों में पुरातत्व की रुचि और उसमें
दक्षता रखनेवालों में आपका स्थान उच्च था।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, मार्च 1913 ई.)
प्रेमघन की छाया स्मृति
मेरे पिताजी फ़ारसी के अच्छे ज्ञाता और पुरानी हिन्दी कविता के बड़े प्रेमी
थे। फ़ारसी कवियों की उक्तियों को हिन्दी कवियों की उक्तियों के साथ मिलाने
में उन्हें बड़ा आनन्द आता था। वे रात को प्राय: रामचरितमानस और
रामचन्द्रिका, घर के सब लोगों को एकत्रा करके बड़े चित्तकर्षक ढंग से पढ़ा
करते थे। आधुनिक हिन्दी साहित्य में भारतेन्दुजी के नाटक उन्हें बहुत प्रिय
थे। उन्हें भी वे कभी कभी सुनाया करते थे। जब उनकी बदली हमीरपुर जिले की
राठ तहसील से मिर्जापुर हुई तब मेरी अवस्था आठ वर्ष की थी। उसके पहिले ही
से भारतेन्दु के सम्बन्ध में एक अपूर्व मधुर भावना मेरे मन में जगी रहती
थी। 'सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक के नायक राजा हरिश्चन्द्र औरकवि हरिश्चन्द्र
में मेरी बाल बुध्दि कोई भेद नहीं कर पाती थी। 'हरिश्चन्द्र' शब्द से दोनों
की एक मिली जुली भावना एक अपूर्व माधुर्य का संचार मेरे मन में करती थी।
मिर्जापुर आने पर कुछ दिनों में सुनाई पड़ने लगा कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
के एक मित्र यहाँरहते हैं, जो हिन्दी के एक प्रसिध्द कवि हैं और जिनका नाम
है उपाध्यादय बदरीनारायणचौधरी।
भारतेन्दु मंडल की किसी सजीव स्मृति के प्रति मेरी कितनी उत्कंठा रही होगी,
यह अनुमान करने की बात है। मैं नगर से बाहर रहता था। एक दिन बालकों की एक
मंडली जोड़ी गई। जो चौधरी साहब के मकान से परिचित थे, वे अगुआ हुए। मील डेढ़
का सफ़र तै हुआ। पत्थर के एक बड़े मकान के सामने हम लोग जा खड़े हुए। नीचे का
बरामदा खाली था। ऊपर का बरामदा सघन लताओं के जाल से आवृत्ता था। बीच बीच
में खम्भे और खुली जगह दिखाई पड़ती थी। उसी ओर देखने के लिए मुझसे कहा गया।
कोई दिखाई न पड़ा। सड़क पर चक्कर लगे। कुछ देर पीछे एक लड़के ने उँगली से ऊपर
की ओर इशारा किया। लता प्रतान के बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई पड़ी। दोनों
कन्धों पर बाल बिखरे हुए थे। एक हाथ खम्भे पर था। देखते ही देखते वह मूर्ति
दृष्टि से ओझल हो गई। बस, यही पहली झाँकी थी।
ज्यों ज्यों मैं सयाना होता गया, त्यों त्यों हिन्दी के नूतन साहित्य की ओर
मेरा झुकाव बढ़ता गया। क्वीन्स कॉलेज में पढ़ते समय स्वर्गीय बाबू रामकृष्ण
वर्मा मेरे पिताजी के सहपाठियों में थे। भारत जीवन प्रेस की पुस्तकें
प्राय: मेरे यहाँ आया करती थीं, पर अब पिताजी उन पुस्तकों को छिपाकर रखने
लगे। उन्हें डर हुआ की कहीं मेरा चित्त स्कूल की पढ़ाई से हट न जाय मैं बिगड़
न जाऊँ। उन्हीं दिनों पं. केदारनाथजी पाठक ने एक हिन्दी पुस्तकालय खोला था।
मैं वहाँ से पुस्तकें ला लाकर पढ़ा करता। एक बार एक आदमी साथ करके मेरे
पिताजी ने मुझे एक बारात में काशी भेजा। मैं उसी के साथ घूमता फिरता चौखंभा
की ओर जा निकला। वहीं पर एक घर में से पं. केदारनाथजी पाठक निकलते दिखाई
पड़े। पुस्तकालय में वे मुझे प्राय: देखा करते थे। इससे मुझे देखते ही वे
वहीं खड़े हो गए। बात ही बात में मालूम हुआ कि जिस मकान में से वे निकले थे,
वह भारतेन्दुजी का घर था। मैं बड़ी चाह और कुतूहल की दृष्टि से कुछ देर तक
उस मकान की ओर, न जाने किन किन भावनाओं में लीन होकर, देखता रहा। पाठकजी
मेरी यह भावुकता देख बड़े प्रसन्न हुए और बहुत दूर तक मेरे साथ बातचीत करते
हुए गए। भारतेन्दुजी के मकान के नीचे का यह हृदय परिचय बहुत शीघ्र गहरी
मैत्री में परिणत हो गया। सोलह वर्ष की अवस्था तक पहुँचते पहुँचते तो
समवयस्क हिन्दी प्रेमियों की एक खास मंडली मुझे मिल गई, जिनमें श्रीयुत
काशीप्रसादजी जायसवाल, बाबू भगवानदासजी हालना, पं बदरीनाथ गौड़, पं. उमाशंकर
द्विवेदी मुख्य थे। हिन्दी के नए पुराने लेखकों की चर्चा बराबर इस मंडली
में रहा करती थी। मैं भी अब अपने को एक लेखक मानने लगा था। हम लोगों की
बातचीत प्राय: लिखने पढ़ने की हिन्दी मे हुआ करती, जिसमें 'निस्सन्देह'
इत्यादि शब्द आया करते थे। जिस स्थान पर मैं रहता था, वहाँ अधिकतर वकील,
मुख्तारों तथा कचहरी के अफसरों और अमलों की बस्ती थी। ऐसे लोगों के उर्दू
कानों में हम लोगों की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन्होंने हम लोगों
का नाम 'निस्सन्देह' लोग रख छोड़ा था। मेरे मुहल्ले में कोई मुसलमान सब जज आ
गए थे। एक दिन मेरे पिताजी खड़े खड़े उनके साथ कुछ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच
मैं उधार जा निकला। पिताजी ने मेरा परिचय देते हुए उनसे कहा''त्रन्हें
हिन्दी का बड़ा शौक है।'' चट जवाब मिला''अपको बताने की जरूरत नहीं। मैं तो
इनकी सूरत देखते ही इस बात से 'वाकिफ' हो गया।'' मेरी सूरत में ऐसी क्या
बात थी, यह इस समय नही कह सकता। आज से तीस वर्ष पहिले की बात है।
चौधरी साहब से तो अब अच्छी तरह परिचय हो गया था। अब उनके यहाँ मेरा जाना एक
लेखक की हैसियत से होता था। हम लोग उन्हें एक पुरानी चीज समझा करते थे। इस
पुरातत्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का एक अद्भुत मिश्रण रहता था। यहाँ
पर यह कह देना आवश्यक है कि चौधरी साहब एक खासे हिन्दुस्तानी रईस थे। वसन्त
पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर उनके यहाँ खूब नाचरंग और उत्सव हुआ करते थे।
उनकी हर एक अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। कन्धों तक बाल लटक रहे
हैं। आप इधर से उधर टहल रहे हैं। एक छोटासा लड़का पान की तश्तरी लिए पीछे
पीछे लगा हुआ है। बात की काट छाँट का क्या कहना है! जो बातें उनके मुँह से
निकलती थीं, उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत का ढंग उनके
लेखों के ढंग से एकदम निराला होता था। नौकरों तक के साथ उनका संवाद सुनने
लायक होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से कभी कोई गिलास वगैरह गिरा, तो उनमें
मुँह से यही निकलता कि 'कारे बचा त नाहीं।' उनके प्रश्नों के पहिले 'क्यों
साहब' अकसर लगा रहता था।
वे लोगों को प्राय: बनाया करते थे, इससे उनसे मिलनेवाले लोग भी उन्हें
बनाने की फिक्र में रहा करते थे। मिर्जापुर में पुरानी परिपाटी के एक बहुत
ही प्रतिभाशाली कवि रहते थे, जिनका नाम थावामनाचार्यगिरि। एक दिन वे सड़क पर
चौधरी साहब के ऊपर एक कविता जोड़ते चले जा रहे थे। अन्तिम चरण रह गया था कि
चौधरी साहब ने अपने बरामदे में कन्धों पर बाल छिटकाए खम्भे के सहारे खड़े
दिखाई पड़े। चट कविता पूरा हो गया और वामनजी ने नीचे से वह कविता ललकारा,
जिसका अन्तिम अंश था'' ख़म्भा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की।''
एक दिन कई लोग बैठे बातचीत कर रहे थे कि इतने में एक पंडितजी आ गए। चौधरी
साहब ने पूछा''क़हिए क्या हाल है?'' पंडितजी बोले'' क़ुछ नहीं, आज एकादशी थी,
कुछ जल खाया है और चले आ रहे हैं।'' प्रश्न हुआ''ज़ल ही खाया है कि कुछ
फलाहार भी पिया है?''
एक दिन चौधरी साहब के एक पड़ोसी उनके यहाँ पहुँचे। देखते ही सवाल हुआ''क्यों
साहब, एक लफ्ज़ मैं अकसर सुना करता हूँ, पर उसका ठीक अर्थ समझ में न आया।
आखिर घनचक्कर के क्या मानी हैं, उसके क्या लक्षण हैं?'' पड़ोसी महाशय
बोले''वाह, यह क्या मुश्किल बात है। एक दिन रात को सोने के पहले कागज कलम
लेकर सवेरे से रात तक जो जो काम किए हों, सब लिख जाइए और पढ़ जाइए।''
मेरे सहपाठी पं. लक्ष्मीनारायण चौबे, बाबू भगवानदास हालना, बाबू भगवानदास
मास्टरत्रन्होंने उर्दू बेगम नाम की एक बड़ी ही विनोदपूर्ण पुस्तक लिखी थी,
जिसमें उर्दू की उत्पत्ति, प्रचार आदि का वृत्तांत एक कहानी के ढंग पर दिया
गया थात्रत्यादि कई आदमी गर्मी के दिनों में छत पर बैठे चौधरी साहब से
बातचीत कर रहे थे। चौधरी साहब के पास ही एक लैम्प जल रहा था। लैम्प की
बत्ती एक बार भभकने लगी। चौधरी साहब नौकरों को आवाज देने लगे। मैंने चाहा
कि बढ़कर बत्ती नीचे गिरा दूँ; पर लक्ष्मीनारायण ने तमाशा देखने के विचार से
मुझे धीरे से रोक लिया। चौधरी साहब कहते जा रहे हैं, ''अरे जब फूट जाई तबै
चलत जाबऽ।'' अन्त में चिमनी ग्लोब के सहित चकनाचूर हो गई, पर चौधरी साहब का
हाथ लैम्प की तरफ न बढ़ा।
उपाध्याियजी नागरी को भाषा मानते थे और बराबर नागरी भाषा लिखा करते थे।
उनका कहना था कि ''नागर अपभ्रंश से, जो शिष्ट लोगों की भाषा विकसित हुई,
वही नागरी कहलाई।'' इसी प्रकार वे मिर्जापुर न लिखकर मीरजापुर लिखा करते
थे, जिसका अर्थ वे करते थे लक्ष्मीपुरमीर=समुद्र+जा=पुत्री+पुर।
('हंस', आत्मकथांक, जनवरी फरवरी, 1931 ई )
[चिन्तामणि, भाग-3]
रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा विमर्श-
भाग
- 1
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भाग
-2
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भाग
-3 //
भाग
- 4
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भाग
- 5 //
भाग
-6 //
भाग - 7
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भाग
- 8
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भाग
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भाग
- 10 //
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-11
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भाग
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भाग
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भाग
-14
//
भाग
- 15 //
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