हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 

रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4 
भाषा, साहित्य और समाज विमर्श

भूमिका, टिप्पणी, रिपोर्ट और सम्मति
भाग - 12

कुसुम-संग्रह की 'भूमिका'

आज से पचास वर्ष पहिले हमारी स्थिति बड़ी बेढब हो रही थी। हमारे चिरपोषित साहित्य से हमारा नाता टूटने वाला था। हमारे राजनैतिक जीवन से तो हमारी भाषा टोडरमल की कृपा से मुसलमानों ही के समय में अलग हो चुकी थी। इधर जब अंगरेजों का प्रकाश हम पर पड़ा और हमें संसार की गति का ज्ञान हुआ तब हम सामयिक प्रवाह की ओर एक विदेशी भाषा के सहारे दौड़ पड़े। हमारा साहित्य जहाँ का तहाँ छूटा था, इसी बीच में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने उसे उठा कर सशक्त किया और हमारे साथ उसे फिर लगा दिया। जिन जिन मार्गों पर हमारे विचार जा रहे थे उनकी ओर हमारे साहित्य को बड़ी सफाई के साथ उन्होंने मोड़ दिया। किसी जाति का साहित्य जब बराबर उसके विचारों और व्यापारों के साथ लगा हुआ चला चलता है तभी जीवित रह सकता है। अत: भारतेन्दु ने हिन्दी को बड़ी बुरी दशा में पड़ने से बचाया। यदि कहीं हमारे साहित्य का हमसे वियोग हो जाता, जिसके सब सामान इकट्टा थे, तो क्या हम सभ्य संसार में अपना मुँह दिखानेलायक रह जाते? सोचिए तो कि हिन्दी भाषी उत्तरीय क्या, राष्ट्रभाषा के नाते सारे भारत पर इनका कितना उपकार है। आज जो हम लोग नए नए विचारों को मँजी हुई भाषा में प्रकट करते और चारों ओर हिन्दी पुस्तकों और पत्रों को उमड़ते देखते  हैं वह इन्हीं की बदौलत। हिन्दी को उन्नति के आधुनिक मार्ग पर ला कर खडा करने वाले यही थे। अब हमें चाहिए कि राजनीति, विज्ञान, दर्शन, कला आदिके जो जो भाव हम अपनी संसार यात्रा में प्राप्त करते जायँ उन्हें अपनी मातृभाषा हिन्दी को बराबर सौंपते जायँ क्योंकि यही उन्हें हमारी भावी सन्तति के लिए संचित रखोगी। साथ ही हमारा यह भीर् कर्तव्‍य है कि उस महात्मा को जिसका यह उपदेश था-

''विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।

सब देशन सों लै करहु, भाषा माँहिं प्रचारड्ड''

    न भूलें और न भरसक किसी को भूलने दें। संसार के समस्त सभ्य देशों में महान पुरुषों की स्मृति को जागृत रखना सच्चे लोकोपकारी कार्यों की उत्तोजना का एक साधन समझा जाता है। महात्माओं के जीवन को तो स्वार्थ स्पर्श कर ही नहीं सकता अत: उनका जो कुछ आदर किया जाता है उससे उनका कोई उपकार नहीं बल्कि समाज का उपकार होता है। उनके जीवनोपरान्त भी यदि उनका स्मरण किया जाता है तो उससे लोक का बहुत कुछ भला हो जाता है। यह बात योरप वालों के मन में अच्छी तरह बैठ गई है। वे अपने प्रतिभासम्पन्न कवियों और ग्रन्थकारों का स्मरण कराते रहने के लिए अनेक युक्तियाँ रचा करते हैं। उनकी जयन्तियाँ मनाई जाती हैं, उनके नाम पर क्लब और पुस्तकालय चलते हैं और पुस्तक मालाएँ निकलती हैं। लज्जा की बात तो है पर कहना ही पड़ता है कि हम भारतवासियों में इस प्रवृत्ति का अभाव है। यदि हम अपने साहित्य संचालकों का उचित आदर नहीं करते हैं तो संसार को यह कहने में संकोच नहीं कि हमने अभी तक विद्या की शक्ति को नहीं समझा है और हम झूठी तड़क भड़क के श्रध्दालु बने हुए हैं।हम भारतवासी बहुत कुछ ऊँच-नीच देख चुके। अब हममें सच्चे पुरुषरत्नों की परख होनी चाहिए। अब हमें उनके आदर करने का फल और माहात्म्य समझना चाहिए।

    यों तो वर्तमान हिन्दी में जो कुछ देखा जाता है वह भारतेन्दु ही की प्रभा का स्मारक है पर किसी वस्तु को निर्दिष्ट किए बिना जी भी नहीं मानता। जिस कार्य के लिए किसी महान पुरुष ने प्रयत्न किया हो उसमें प्रवृत्त होकर उसे आगे बढ़ाना ही उसका सच्चा स्मरण करना है। अत: जिस वृक्ष को भारतेन्दु लगा गए उसके पत्र पुष्प से बढ़कर उनका और क्या स्मारक हो सकता है। यही विचार कर यह ग्रन्थमालिका आप लोगों के आगे रखी जाती है। इससे उस सच्ची आत्मा का एक बार स्मरण कीजिए और अपनी भाषा के प्रति अपने कर्तव्‍य को ध्यान में रखिए, बस।

    इस कुसुम संग्रह में, जिससे यह मालिका आरम्भ की जाती है, अधिकांशत: बंगभाषा के प्रसिध्द ग्रन्थकारों के रचे हुए गल्पों वा समाज के खंडचित्रों के अनुवाद हैं जिसमें लोगों के रहन सहन अत्यन्त यथातथ्यता के साथ अंकित हुए हैं और उनके मनोभावों तक बड़ी सूक्ष्मता से दृष्टि धँसाई गई है। इनके अतिरिक्त कुछ स्त्रियों के लिए उपयोगी प्रबन्ध भी हैं। अनुवादिका वही श्रीमती बंगमहिलाजी हैं जिनकी छोटी छोटी आख्‍यायिकाएँ तथा प्रबन्ध हिन्दी पाठक सरस्वती आदि पत्रिकाओं में पढ़ते आए हैं। यहाँ पर मैं इन लेखिका महाशया के परलोकवासी पिता श्रीयुत बाबू रामप्रसन्न घोष को धन्यवाद दिए बिना नहीं रह सकता, जिन्होंने अनुग्रहपूर्वक इन लेखकों को प्रकाशित करने की अनुमति दी। पर खेद इस बात का है कि उक्त बाबू साहब इस 'कुसुम संग्रह' को अपने हाथ में न ले सके। ये महानुभाव बड़े विलक्षण विद्याव्यसनी थे और इन्हें बहुत से विषयों की जानकारी थी।

    मैं बहुत दिनों तक काश्मीर में था, इससे प्रूफ आदि देखने का अवसर मुझे

 

   इनकी पूरी जीवनी 'सरोज' नामक नवजात सचित्र मासिक पत्र में दी जायगी।

अच्छी तरह नहीं मिला। जो त्रुटियाँ रह गई हों उनके लिए क्षमा चाहता हूँ। हमें इंडियन प्रेस के स्वामी श्रीयुत बाबू चिन्तामणि घोष को भी विशेष धन्यवाद देना चाहिए। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि हमारी प्रार्थना करने पर आपने अपनी 'सरस्वती' में प्रकाशित लेखिका-लिखित सभी निबन्‍धों के उध्‍दाद़त करने की अनुमति सहर्ष प्रदान की और दूसरा यह कि अनेक कारणों से यह पुस्तक छपने पर भी पड़ी रही और आप ने इस विलम्ब को अपनी स्वाभाविक सज्जनता से सहन किया।

    साथ ही हम पं. रामजी लाल शर्मा तथा उन महाशयों को भी हार्दिक धन्यवाद देते हैं जिन्होंने समय समय पर हमें प्रूफ आदि के देखने में सहायता दी है।

    इस मालिका की दूसरी पुस्तक भी तैयार है, शीघ्र निकलेगी।

(1 सितम्बर, 1911 ई.)

  [   चिन्तामणि, भाग-4     

 

     (विविध पुस्तकों के प्रकाशन हेतु 'भारतेन्दु स्मारक ग्रन्थमालिका' नाम से रामचन्द्र शुक्ल ने नागरीप्रचारिणी सभा में एक योजना प्रारम्भ कराई थी जिसके अन्तर्गत पहली पुस्तक 'कुसुम-संग्रह' छपी। इसके बाद ही यह योजना बन्द कर दी गई। सभा का मुद्रण-प्रकाशन कार्य उन दिनों इंडियन प्रेस में होता था। स्‍त्रीविरोधी लोगों द्वारा उपस्थित अवरोध के कारण 'कुसुम-संग्रह' पुस्तक छपने के बावजूद प्रेस में पड़ी रही। आचार्य शुक्ल को तीन चार दिन इलाहाबाद में रहकर इसे निकलवाना पड़ा।-संपादक)

 

 

उपवन का 'वक्तव्य

 

 

इस संग्रह में तुकविहीन कविताएँ बहुत सी हैं, पर इनसे हिन्दी पाठक दिन दिन परिचित होते जाते हैं। अब जो कुछ कहना है, इसकी पद योजना के बारे में। हिन्दी के एक चरण में एक वाक्य पूरा करने का नियम सा है। इससे यदि चरण के विस्तार में बड़ा वाक्य रखना चाहें तो बिना तोड़े मरोड़े नहीं रख सकते और यदि छोटा, तो पादपूर्ति के लिए, इच्छा न रहते हुए भी-उसे खींच खाँच कर बढ़ाना पड़ता है। संस्कृत, अंगरेजी, बंगला आदि उन्नत भाषाओं में ऐसा कोई बन्धन नहीं है। 'उपवन' के लेखक महोदय ने भी एक आधा के सिवा अपनी बाकी कविताओं को इस प्रकार के बन्धन में नहीं डाला है। उनका कोई वाक्य दो तीन चरणों तक चला गया है, कोई चरण के अन्त में समाप्त हुआ है, कोई बीच ही में। कोई एक पद्य के किसी किसी स्थान से चलकर दूसरे पद्य के किसी स्थान पर समाप्त हुआ है। पाठकों के सुबीते के लिए विरामचिद्द यथास्थान दिए हुए हैं।

    हिन्दी कविता का मार्ग प्रशस्त करने के लिए यह रीति कैसी है, इसका विचार आशा है (विज्ञ) जन करेंगे।

     (मई 1913)

 [  चिन्तामणि, भाग-4    

     ('उपवन' श्री रायकृष्णदास की कविताओं (व्रजभाषा और खडी बोली) का प्रथम संग्रह है। यह संग्रह श्री लक्ष्मीनारायण प्रेस, जतनबड़, बनारस से प्रकाशित हुआ था-संपादक)


 

 

शैलबाला का 'वक्तव्य

यह उपन्यास बंगभाषा के पुराने उपन्यासकार, अमृतपुलिन, मुगलप्रदीप, कोहेनूर आदि के रचयिता श्रीयुत ननीलाल बन्द्योपाध्याय की एक पुस्तक का अनुवाद है। ननीलाल बाबू के उपन्यासों का बंगदेश में अच्छा आदर हुआ। समाज के भिन्न भिन्न वर्गों की प्रवृत्ति का चित्रण करने में ये बड़े कुशल समझे जाते थे। इस पुस्तक में देश की उस समय की परिस्थिति का एक चित्र है जब मोगल साम्राज्य का एक प्रकार से अन्त हो चुका था। मरहठों के हृदय से भी साम्राज्य स्थापित करने का उत्साह दूर हो चुका था और ईस्ट इंडिया कम्पनी का दिन दिन बढ़ता हुआ प्रभाव ऍंगरेजों के भावी महत्तव का आभास दे रहा था। इस उलट फेर के कारण देश के बड़े बड़े प्रतिष्ठित वंश र्दुव्‍यवस्‍था को प्राप्त हो रहे थे और निम्न या साधारण वर्ग के बहुत से लोग कम्पनी के उद्देश्य साधन में सहायक हो कर अपने लिए समृध्दि का मार्ग निकाल रहे थे। इस प्रतिकूल स्थिति में इधर उच्च वंश के लोगों को तो अपनी मान मर्यादा की रक्षा कठिन हो रही थी, उधर नवीन समृध्दि प्राप्त वंश अपना बल वैभव प्रकट करने में कोई बात उठा नहीं रखते थे।

    इस उपन्यास में दो क्षत्रिय कुल ऐसी ही भिन्न दशाओं में दिखाए गए हैं और प्रेम के उत्कर्ष का सुन्दर चित्र खींचा गया है। अनुवाद करने वाली वही श्रीमती 'सावित्री' हैं जिनकी लिखी' कलंकिनी' नामक पुस्तक का उपन्यास प्रेमियों में अच्छा आदर हुआ है। कहने की आवश्यकता नहीं इस अनुवाद में भी अच्छी सफलता हुई है। भाषा भी वैसी ही सरस और चलती हुई है। आशा है हिन्दी प्रेमी इसका भी उचित आदर करके लेखिकाको और और पुस्तकों के अनुवाद करने के लिए उत्साहित करेंगे।

(शिवरात्रि सं. 1980, सन् 1923)

 [  चिन्तामणि, भाग-4     

 

स्नेह की 'भूमिका' 

मनुष्य की भावप्रेरित मनोवृत्तियों का जितना परिचय कवियों को रहा है उतना मनोविज्ञानियों की पहुँच के बाहर समझना चाहिए। इसी से प्रसिध्द मनस्तत्ववेत्ता शैण्ड (Shand) ने भावदशाओं की अनेकरूपता के समस्त बोध के लिए शेक्सपियर आदि महाकवियों की वाणी की ओर संकेत किया है। एक प्रसिध्द समीक्षक का कहना है-''मनोविज्ञान ने अभी तक यही किया है कि जिन बातों को हम लोग यों ही जानते हैं उनका बहुत ही माथापच्ची और गड़बड़झाले के साथ अस्पष्ट रूप में वर्णन किया है।'' (''साइकालाजी हैज मियर्ली कंट्राइव्ड टु से लेबोरेसली एंड विथ लेस प्रेसिजन ह्नाट वी आल नो विदाउट इट्स एड आलरेडी'') अत: किसी भाव के स्वरूप की विवृत्ति के लिए यदि हम कवियों की उक्तियों का सहारा लेते हैं अथवा अपने अनुभव या अन्तर्दृष्टि से काम लेते हैं तो ठीक ही करते हैं।

    इस पुस्तक में त्रिपाठीजी (श्री काशीपति त्रिपाठी) ने यही किया है। पूर्वार्ध में रसपध्दति में प्रेम का स्वभाव दिखा कर आपने हिन्दी के ऋंगारी कवियों की सुनाई हुई उसकी नाना अन्तर्दशाओं के प्रदर्शन का प्रयत्न किया; फिर उत्तरार्ध में जीवनचर्या पर उक्त प्रबल मनोविकार का प्रभाव सूचित करते हुए समाज और परिवार के बीच उसके व्यवहार पक्ष पर विचार किया है। जो प्रेम पारिवारिक और सामाजिक परिस्थिति में घोर असामंजस्य उपस्थित करता है या व्यक्ति के जीवन को भार-स्वरूप और किरकिरा कर देता है उसकी शान्ति या निरोध की भी कुछ विधियाँ बतलाई गई हैं। सारांश यह कि पूर्वार्ध में प्रेम के स्वरूप का निरूपण समीचीन पध्दति पर है और उत्तरार्ध में जीवन की एक समस्या के रूप में उसका विवेचन हुआ है।

    'प्रेम' ऐसे विश्वव्यापी और प्रबल भाव की सुसंगत और व्यवस्थित व्‍याख्‍या साहित्य-क्षेत्र में एक बहुत ही आवश्यक वस्तु है। हिन्दी में इस प्रकार की विवेचनात्मक पुस्तकों की बहुत कमी है। अत: त्रिपाठीजी को इस कृति के लिए साधुवाद देते हुए हम उनसे इसी प्रकार की और पुस्तकों की आशा करते हैं। यह सोच कर कि हिन्दी में आपका यह प्रथम प्रयत्न है, इस आशा का स्वरूप और भी उज्ज्वल दिखाई पड़ताहै।

(कृष्णजन्माष्टमी, सं. 1981, सितम्बर, 1924 ई‑)

 [  चिन्तामणि, भाग-4    

विनयपत्रिका की हरितोषिणी टीका का 'परिचय   

भक्ति रस का पूर्ण परिपाक जैसा विनयपत्रिका में देखा जाता है वैसा अन्यत्र नहीं। भक्ति में प्रेम के अतिरिक्त आलंबन के महत्तव और अपने दैन्य का अनुभव परम आवश्यक अंग है। तुलसी के हृदय से इन दोनों अनुभवों के ऐसे निर्मल शब्द-स्रोत निकले हैं, जिनमें अवगाहन करने से मन की मैल कटती है और अत्यन्त पवित्र प्रफुल्लता आती है। गोस्वामीजी के भक्ति क्षेत्र में शील, शक्ति और सौन्दर्य तीनों की प्रतिष्ठा होने के कारण मनुष्य की सम्पूर्ण रागात्मिका प्रकृति के परिष्कार और प्रसार के लिए मैदान पड़ा हुआ है। जिस प्रकार लोक व्यवहार से अपने को अलग करके आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होनेवाले काम, क्रोध आदि शत्रुओं से बहुत दूर रहने का मार्ग पा सकते हैं, उसी प्रकार लोक-व्यवहार में मग्न रहनेवाले अपने भिन्नभिन्नर् कर्तव्‍यों के भीतर ही आनन्द की वह ज्योति पा सकते हैं जिससे इस जीवन में दिव्य जीवन का आभास मिलने लगता है, और मनुष्य के वे सब कर्म, वे सब वचन और वे सब भाव-क्या डूबते हुए को बचाना, क्या अत्याचारी पर शस्त्र चलाना, क्या स्तुति करना, क्या निन्दा करना, क्या दया से आर्द्र होना, क्या क्रोध से तमतमाना-जिनसे लोक का कल्याण होता आया है, भगवान् के लोक पालन करनेवाले कर्म, वचन और भाव दिखाई पड़ते हैं।

    यह प्राचीन भक्तिमार्ग एकदेशीय आधार पर स्थित नहीं, यह एकांगदर्शी नहीं। यह हमारे हृदय को ऐसा नहीं करना चाहता कि हम केवल व्रत उपवास करनेवालों और उपदेश करनेवालों ही पर श्रध्दा रखें और जो लोग संसार के पदार्थों का उचित उपभोग करके अपनी विशाल भुजाओं से रणक्षेत्र में अत्याचारियों का दमन करते हैं, या अपनी अन्तर्दृष्टि की साधना और शारीरिक अध्‍यवसाय के बल से मनुष्य जाति के ज्ञान की वृध्दि करते हैं, उनके प्रति उदासीन रहें। गोस्वामीजी की रामभक्ति, वह पदार्थ है जिससे जीवन में शक्ति, सरसता, प्रफुल्लता, पवित्रता सब कुछ प्राप्त हो सकती है। आलंबन की महत्तव भावना से प्रेरित दैन्य के अतिरिक्त भक्ति के और जितने अंग हैं-भक्ति के कारण अन्त:करण को जो और और शुभ वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं-सबकी अभिव्यंजना विनयप्रत्रिका के भीतर हम पा सकते हैं। राम में सौन्दर्य, शक्ति और शील तीनों की चरम अभिव्यक्ति एक साथ समन्वित होकर मनुष्य के सम्पूर्ण हृदय को-उसके किसी एक ही अंश को नहीं-आकर्षित कर लेती है। कोरी साधुता का उपदेश पाखंड है; कोरी वीरता का उपदेश उद्दंडता है, कोरे ज्ञान का उपदेश आलस्य है, और कोरी चतुराई का उपदेश धूर्तता है।

    सूर और तुलसी को हमें उपदेश के रूप में नहीं देखना चाहिए। ये उपदेशक नहीं हैं, अपनी भावुकता और प्रतिभा के बल से लोकादर्श की मनोहर मूर्ति प्रतिष्ठित करनेवाले हैं। हमारा प्राचीन भक्ति मार्ग उपदेशकों की सृष्टि करनेवाला नहीं है। सदाचार और ब्रह्मज्ञान के रूख को उपदेशों द्वारा इसके प्रचार की व्यवस्था नहीं है। न हमारे राम और कृष्ण उपदेशक, न उनके भक्त तुलसी और सूर। लोक व्यवहार में मग्न होकर जो मंगल ज्योति इन अवतारों ने उसके भीतर जगाई, उसके माधुर्य का अनेक रूपों में साक्षात्कार करके मुग्ध होना और मुग्ध करना ही इन भक्तों का प्रधान व्यवसाय है। उनका शस्त्र भी मानव हृदय है और लक्ष्य भी। उपदेशों का ग्रहण ऊपर ही ऊपर से होता है। न वे हृदय के मर्म को ही भेद सकते हैं, न बुध्दि की कसौटी पर ही स्थिर भाव से जमे रह सकते हैं। हृदय तो उनकी ओर मुड़ता ही नहीं और बुध्दि उनको लेकर दार्शनिक वादों के बीच जा उलझती है। उपदेश, वाद या तर्क गोस्वामीजी के अनुसार 'वाक्य ज्ञान' मात्र कराते हैं, जिससे जीवन कल्याण का लक्ष्य पूरा नहीं होता-

वाक्य-ज्ञान अत्यंत निपुन भव पार न पावै कोई।

निसि गृह मध्य दीप की बातन तम निवृत्ता नहिं होईड्ड (123)

    'वाक्य ज्ञान' और बात है, अनुभूति और बात। इसी से प्राचीन परंपरा के भक्त लोग उपदेश, वाद या तर्क की अपेक्षा चरित्र श्रवण और चरित्र कीर्तन आदि का ही अधिक नाम लिया करते हैं।

    प्राचीन भागवत सम्प्रदाय के बीच भगवान् के उस लोकरंजनकारी रूप की प्रतिष्ठा हुई जिसके अवलम्बन से मानव हृदय अपने पूर्ण भावसंघात के साथ कल्याण मार्ग की ओर आप से आप आकर्षित हो सके। इसी लोकरंजनकारी रूप का प्रत्यक्षीकरण प्राचीन परंपरा के भक्तों का लक्ष्य है, उपदेश देना नहीं। उसी मनोहर रूप की अनुभूति से गद्गद और पुलकित होना, उसी रूप की एक एक छटा को औरों के सामने भी रख कर उन्हें मानव जीवन के सौन्दर्य-साधन में प्रवृत्त करना भक्तों का काम है।

    गोस्वामीजी ने अनन्त सौन्दर्य का साक्षात्कार करके उसके भीतर ही अनन्त शक्ति और अनन्त शील की वह झलक दिखाई है, जिससे लोक का प्रमोदपूर्ण परिचालन होता है। सौन्दर्य, शक्ति और शील तीनों में मनुष्य मात्र के लिए आकर्षण विद्यमान है। रूप लावण्य के बीच प्रतिष्ठित होने से शक्ति और शील को और भी अधिक सौन्दर्य प्राप्त हो जाता है, उनमें एक अपूर्व मनोहरता आ जाती है। जिसे शक्ति सौन्दर्य की यह झलक मिल गई उसके हृदय में सच्चे वीर होने का अभिलाष जीवन भर के लिए जग गया, जिसने शील सौन्दर्य की यह झाँकी पाई, उसके आचरण पर इसके मधुर प्रतिबिम्ब की छाप बैठी। प्राचीन भक्ति के इस तत्‍व की ओर ध्‍यान न देकर जो लोग लोकादर्श स्थापक सूर और तुलसी को कबीर, दादू आदि की श्रेणी में रख कर देखते  हैं, वे बड़ी भारी भूल करते हैं।

    अनन्त शक्ति सौन्दर्य समन्वित अनन्त शील की प्रतिष्ठा करके गोस्वामीजी को पूर्ण आशा होती है कि उसका आभास पाकर जो पूरी मनुष्यता को पहुँचा हुआ हृदय होगा वह अवश्य द्रवीभूत होगा-

   सुनि सीतापति सील सुभाउ।

   मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेर खाउ।

    इसी हृदय पध्दति द्वारा ही मनुष्य में शील और सदाचार का स्थायी संस्कार जम सकता है। दूसरी कोई पध्दति है ही नहीं।

    चरम महत्तव के इस भव्य मनुष्य ग्राह्य रूप के सम्‍मुख भाव विह्नल भक्त हृदय के बीच जो जो भाव तरंगें उठती हैं उन्हीं की माला यह विनयपत्रिका है। महत्तव और इन भाव तरंगों की स्थिति परस्पर बिंब प्रतिबिंब समझनी चाहिए। भक्त में दैन्य, आत्म समर्पण, आशा, उत्साह, आत्मग्लानि, अनुताप, आत्म निवेदन आदि की गंभीरता उस महत्तव की अनुभूति की मात्रा के अनुसार समझिए। महत्तव का जितना ही सान्निध्‍य प्राप्त होता जायगा-उसका जितना ही स्पष्ट साक्षात्कार होता जायगा-उतना ही अधिक स्फुट इन भावों का विकास होता जायगा, और इन पर भी महत्तव की आभा चढ़ती जायगी। मानो ये भाव महत्तव की ओर बढ़ते जाते हैं और महत्तव इन भावों की ओर बढ़ता आता है। इस प्रकार लघुत्व का महत्तव में लय हो जाता है।

    सारांश यह है कि भक्ति का मूल तत्‍व है महत्तव की अनुभूति। इस अनुभूति के साथ ही दैन्य अर्थात् अपने लघुत्व की अनुभूति का उदय होता है। इस अनुभूति को दो ही पंक्तियों में गोस्वामीजी ने बड़े ही सीधे सादे ढंग से कह दिया है-

राम सों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो?

राम सों खरो है कौन, मोसों कौन खोटो?

    प्रभु के महत्तव के सामने होते ही भक्त के हृदय में अपने लघुत्व का अनुभव होने लगता है। उसे जिस प्रकार प्रभु का महत्तव वर्णन करने में आनन्द आता है उसी प्रकार अपना लघुत्व वर्णन करने में भी। प्रभु की अनन्त शक्ति के प्रकाश में उसकी असामर्थ्य का, उसकी दीन दशा का, बहुत साफ चित्र दिखाई पड़ता है, और वह अपने ऐसा दीन हीन संसार में किसी को नहीं देखता। प्रभु के अनन्त शील और पवित्रता के सामने उसे अपने में दोष ही दोष और पाप ही पाप दिखाई पड़ने लगते हैं। इसी दृश्य के क्षोभ से आत्मशुध्दि का आयोजन आप से आप होता है। इस अवस्था को प्राप्त भक्त अपने प्राप्त दोषों, पापों और त्रुटियों को अत्यन्त अधिक परिमाण में देखता है और उनका जी खोल कर वर्णन करने में बहुत कुछ सन्तोष लाभ करता है। दंभ, अभिमान, छल, कपट आदि में से कोई उस समय बाधक नहीं हो सकता। इस प्रकार अपने पापों की पूरी सूचना देने से जी का बोझ ही नहीं, सिर का बोझ भी कुछ हलका हो जाता है। उसके सुधर का भार उसी पर न रह कर बँट सा जाता है।

    इस अवस्था के पद इस ग्रन्थ में बहुत अधिक हैं। ऐसी उच्च मनोभूमि की प्राप्ति, जिसमें अपने दोषों को झुक झुक कर देखने ही की नहीं, उठा उठा कर दिखाने की भी प्रवृत्ति होती है, ऐसी नहीं जिसे कोई कहे कि यह कौन बड़ी बात है। लोक की सामान्य प्रवृत्ति तो प्राय: इसके विपरीत ही होती है, जिसे अपनी ही मान कर गोसाईंजी कहते हैं-

जानत हू निज पाप जलधि जिय, जलसीकर सम सुनत लरौं।

रजसम पर अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरिसम रज ते निदरौंड्ड

    ऐसे वचनों के सम्बन्ध में यह समझ रखना चाहिए कि ये दैन्य भाव के उत्कर्ष की व्यंजना करनेवाले उद्गार हैं। ऐतिहासिक खोज की धुन में इन्हें आत्‍मवृत्ति समझ बैठना ठीक न होगा। इन शब्द प्रवाहों में लोक की सामान्य प्रवृत्ति की व्यंजना हो जाती है इससे इनके द्वारा प्रत्येक मनुष्य अपने दोषों और बुराइयों की ओर दृष्टि ले जाने का साहस प्राप्त कर सकता है। दैन्य भक्तों का बड़ा भारी बल है।

    परम महत्तव के सान्निध्‍य से हृदय में उस महत्तव में लीन होने के लिए जो अनेक प्रकार के आन्दोलन उत्पन्न होते हैं, वे ही भक्तों के भाव हैं। कभी भक्त अनन्त रूप राशि के अनुभव से प्रेम पुलकित हो जाता है, कभी अनन्त शक्ति की झलक पाकर आश्चर्य और उत्साह से पूर्ण होता है, कभी अनन्त शील की भावना से अपने कर्मों पर पछताता है और कभी प्रभु के दया दाक्षिण्य को देख मन में इस प्रकार ढाँढ़स बँधाता है-

कहा भयो जो मन मिलि कलिकालहि कियों भौंतुवा भौंर को हौं।

तुलसिदास सीतल नित एहि बल, बड़े ठेकाने ठौर को हौंड्ड

    दिन रात स्वामी के पास रहते रहते जिस प्रकार सेवक की कुछ धड़क खुल जाती है, उसी प्रकार प्रभु के सतत ध्‍यान से तो सान्निध्‍य की अनुभूति भक्त के हृदय में उत्पन्न होती है, उसके कारण वह कभी कभी मीठा उपालंभ भी देता है।

    भक्ति में लेन देन का भाव नहीं रह जाता है। भक्ति के बदले में उत्तम गति मिलेगी, इस भावना को लेकर भक्ति हो ही नहीं सकती। भक्त के लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। वह शक्ति, सौन्दर्य और शील के अनन्त समुद्र के तट पर खडाहोकर, लहरें लेने में ही जीवन का परम फल मानता है-

इहै परम फल, परम बड़ाई।

नख सिख रुचिर रूबदुमाधाव छबि निरखहिं नयन अघाईड्ड

    वह यही चाहता है कि प्रभु के सौन्दर्य, शक्ति आदि की अनन्तता की जो मधुर भावना है वह अबाध रहे-उसमें किसी प्रकार की कसर न आने पावे। अपने ऐसे पापी की सुगति को वह प्रभु की शक्ति का एक चमत्कार समझता है। अत: उसे यदि सुगति न प्राप्त हुई तो उसे इसका पछतावा न होगा, पछतावा होगा इस बात का कि प्रभु की अनन्त शक्ति की भावना बाधित हो गई-

नाहिंन नरक परत मो कहँ डर जद्यपि हौं अति हारो।

यह बड़ि त्रास दासतुलसी प्रभु नामहु पाप न जारोड्ड

    विनय में कई एक पद ऐसे हैं, जिनमें भक्ति की चरमावस्था ज्ञानयोग की चरमावस्था सी ही कही गई है, जैसे-

रघुपति भगति करत कठिनाई।

कहत सुगम, करनी अपार, जानै सोई जेहि बनि आईड्ड

 

सकल दृश्य निज उदर मेलि सोवै निद्रा तजि जोगी।

सोई हरिपद अनुभवै परम सुख अतिसय द्वैत-बियोगीड्ड

 

सोक, मोह, भय, हरष, दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।

तुलसिदास एहि दसाहीन संसय निर्मूल न जाहींड्ड

    प्रभु के सर्वगत होने का ध्‍यान करते करते भक्त अन्त में जाकर उस अवस्था को प्राप्त करता है जिसमें वह अपने साथ साथ समस्त संसार को एक अपरिच्छिन्न सत्ता में लीन होता हुआ देखने लगता है, और दृश्य भेदों का उसके ऊपर उतना जोर नहीं रह जाता। तर्क या युक्ति ऐसी अवस्था की सूचना भर दे सकती है-'वाक्य ज्ञान' भर करा सकती है-अनुभव नहीं करा सकती। भक्ति अनुभव करा सकती है। संसार में परोपकार और आत्मत्याग के जो उज्ज्वल दृष्टान्त कहीं कहीं दिखाई पड़ा करते हैं, वे इसी अनुभूति मार्ग में कुछ न कुछ अग्रसर होने के हैं। यह अनुभूति मार्ग या भक्ति मार्ग बहुत दूर तक तो लोक-कल्याण की व्यवस्था करता दिखाई पड़ता है, पर और आगे चलकर यह निस्संग साधाक को सब भेदों से परे ले जाताहै।

    कुछ थोड़े से पदों में दार्शनिक सिध्दान्तों की भी चर्चा मिलती है, जैसे-

केशव कहि न जाइ, का कहिए।

 

सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिख चितेरे।

धोए मिटै न, मरै भीति, दुख पाइय यहि तनु हेरेड्ड

 

कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल करि मानै।

तुलसिदास परिहरै तीनि भ्रम सौ आपन पहिचानैड्ड (111)

    इसमें मायावाद आदि सब दार्शनिक मतों को अपूर्ण कहकर केवल उनके द्वारा आत्मानुभूति असम्भव कही गई है। सच्ची भक्ति से ही क्रमश: वह अवस्था प्राप्त हो सकती है, जिससे जीव का कल्याण होता हे। जहाँ तक समझ में आता है गोस्वामीजी का मतलब यह नहीं जान पड़ता कि ये सब मत बिलकुल असत्य है। कहने का तात्पर्य यह समझ पड़ता है कि ये सब पूर्ण सत्य नहीं हैं-अंशत: सत्य हैं। इनमें से किसी एक को पूर्ण सत्य मानकर दूसरे मतों की उपेक्षा करने से सच्ची तत्‍वदृष्टि नहीं प्राप्त हो सकती। गोस्वामीजी ने यथावसर भिन्न भिन्न मतों से वैराग्य की पुष्टि के लिए सहारा लिया है, जैसे-इस पद में सत्कार्यवाद और अद्वैतवाद का मिश्रण सा दिखाई पड़ता है-

जौ निज मन परिहरै विकारा।

तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख संसय सोक अपारा?

 

बिटप मधय पुत्रिका, सूत्र महँ कंचुक बिनहिं बनाए।

मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाएड्ड (124)

    इसी प्रकार संसार की असारता के सम्बन्ध में वे कहते हैं-

   मैं तोहिं अब जान्यों, संसार!

   देखत ही कमनीय, कछू नाहिंन पुनि किए बिचार। (188)

    पर इस 'कछू नाहिंन' को मायावाद का सा 'नहीं' न समझना चाहिए।

    सारांश यह है कि गोस्वामीजी की यह विनयपत्रिका भक्तिरस के नाना स्वादों से भरी हुई है। हिन्दी साहित्य में यह एक अनमोल रत्न है। यद्यपि इसके कुछ पद जन-साधारण के बीच प्रचलित हैं पर शुध्द पाठ और टीका टिप्पणी न होने के कारण इधर बहुत दिनों से समग्र ग्रन्थ के पाठ का आनन्द अधिकतर लोग नहीं उठा सकते थे। श्री बैजनाथ आदि की पुराने ढंग की टीकाएँ थीं, पर वे सब के काम की न थीं। थोड़े दिन हुए पंडित रामेश्वर भट्टजी ने आजकल की चलती भाषा में एक टीका की। पर अवधी भाषा से परिचित न होने के कारण कई स्थलों पर वे भ्रम से न बच सके। यद्यपि कवितावली और गीतावली के समान 'विनय' की भाषा भी व्रज ही रक्‍खी गई है, पर अवधी की छाप उसमें जगह जगह मौजूद है, क्योंकि वह गोस्वामीजी की मातृभाषा थी। ऐसे स्थलों पर प्राय: अर्थ में भूलें हुई हैं, जैसे-

राम को गुलाम नाम रामबोला राख् यो राम,

काम यहै नाम द्वै हौं कबहूँ कहत हौं।

रोटी लूगा नीके राख् ौं, आगेहू की वेद भाख् ौं-

'भलो ह्नैहै तेरो', ताते आनँद लहत हौंड्ड (76)

    इस पद में 'रोटी लूगा' का अर्थ 'अन्न वस्त्रा' स्पष्ट है, पर श्रीयुत भट्टजी ने अर्थ किया ''रोटी लूँगा''। पूरबी शब्द 'लूगा' का अर्थ न जानने पर भी यदि भट्टजी ने 'लेना' क्रिया के 'लूँगा' रूप पर ही विचार कर लिया होता-तो इस प्रकार का अर्थ करने के श्रम से बच जाते। 'लेना' क्रिया का 'लूँगा' रूप न व्रजभाषा में ही होता है, न अवधी में।

    श्रीयुत वियोगी हरि जी ने यह एक दूसरी विस्तृत और विशद टीका प्रस्तुत की है। जिस श्रम के साथ उन्होंने इस कार्य को ऐसे सुचारु रूप से सम्पन्न किया है-उसके लिए वे समस्त हिन्दी-पाठकों के धन्यवाद के पात्र हैं। भावार्थ अत्यन्त सुगम और सुबोध रीति से लिखे गए हैं। पद के भीतर आए हुए प्रसंगों की कुछ अधिक चर्चा टिप्पणियों में की गई है। और टीकाकारों से मतभेद के कारण भी इन्हीं टिप्पणियों में दिए गए हैं। सबसे बड़ी विशेषता है स्थान स्थान पर और और कवियों की मिलती जुलती उक्तियों का सन्निवेश, जिनके द्वारा पाठक भाव तक पूर्ण रूप से पहुँचने के अतिरिक्त साहित्य क्षेत्र में और इधर उधर देखभाल करने की उत्कंठा भी प्राप्त कर सकते हैं। कुछ टीकाकारों के चमत्कारों का भी थोड़ा बहुत नमूना टिप्पणी के रूप में कहीं कहीं मिल जाता है, जैसे 130वें पद में 'राम' शब्द के छह बार आने के तीन कारण। वास्तव में ऐसी ही टीकाओं की आवश्यकता है जिनमें न तो मूल विषय से वादरायण सम्बन्ध मात्र रखनेवाला आवश्यक विस्तार ही हो, और न वचन की इतनी दरिद्रता ही कि पाठक बेचारे मुँह ताकते ही रह जायँ।

    इस टीका में भी दो एक जगह जो त्रुटियाँ रह गई हैं-वे, आशा है, अगले संस्करण में सुधर दी जायँगी। टीका वास्तव में जैसी होनी चाहिए-वैसी ही हुईहै।

(जनवरी, 1924)

 

 

हिन्दी गद्य शैली का विकास की 'भूमिका'

हिन्दी गद्य की भाषा का स्वरूप स्थिर हुए बहुत दिन हो गए। उसके भीतर विविध शैलियों का विकास भी अब पूरा पूरा देखने में आ रहा है। वह समय आ गया है कि लेखकों की भिन्न भिन्न शैलियों की विशेषताओं का सम्यक् निरूपण और पर्यालोचन हो। इस ओर पहला प्रयत्न श्रीयुत पंडित रमाकान्त त्रिपाठी, एम. ए. अध्यापक, जसवन्त कॉलेज, जोधापुर ने अपनी 'हिन्दी गद्य मीमांसा' द्वारा किया। इसके लिए वे अवश्य धन्यवाद के पात्र हैं-चाहे उनके प्रकट किए हुए कुछ विचारों से बहुत से लोग सन्तुष्ट या सहमत न हों। इतना मानने में तो किसी को आगा पीछा न होना चाहिए कि आरम्भ से लेकर आज तक के बहुत से गद्य लेखकों की भाषासम्‍बन्‍धी कुछ विशेषताओं का व्यवस्थित दिग्दर्शन कराते हुए त्रिपाठीजी ने प्रत्येक के दो दो, तीन तीन लेख नमूनों के तौर पर हमारे सामने रखें हैं। शैली समीक्षक मिंटो की प्रसिध्द अंगरेजी पुस्तक के ढंग पर उन्होंने आरम्भ में भाषा सम्बन्धी कुछ विवेचन और शैलियों का सामान्य वर्गीकरण भी किया है। पर उनका उद्देश्य नमूनों का संग्रह जान पड़ता है।

    इस पुस्तक का लक्ष्य त्रिपाठीजी की पुस्तक के लक्ष्य से कुछ भिन्न है। नमूनों के रूप में लेखकोंका संग्रह इसका उद्देश्य नहीं। इसमें हिन्दी गद्य का विकास क्रम दिखाकर भिन्न भिन्न लेखकों की प्रवृत्तियों के स्पष्टीकरण और वाग्विधन की विशेषताओं के अन्वेषण का अधिक और विस्तृत प्रयास किया गया है। लेखकोंके अंश स्थान स्थान पर निरूपित तथ्यों के उदाहरण स्वरूप ही उध्दृत किए गए हैं। विवेचन कहाँ तक ठीक हुआ है, विशेषताओं की परख में कहाँ तक सफलता हुई है, इसका निर्णय तो भिन्न भिन्न लेखकों की वाग्विभूति का विशेष अनुभव करने वाले महानुभावों के अनुमोदन द्वारा कुछ काल में ही हो सकेगा। पर इतना कहा जा सकता है कि बहुत सी संलक्ष्य विशेषताओं की ओर ध्यान आकर्षित करके लेखक ने और सूक्ष्म अनुसंधन की आवश्यकता प्रकट कर दी है।

    हिन्दी के वर्तमान लेखकों में से कुछ में तो शैली की विशिष्टता, उनकी निज की भावपध्दति और विचारपध्दति के अनुरूप अभिव्यंजना के स्वाभाविक विकास द्वारा आई है और कुछ में बाहर के अनुकरण द्वारा। विशिष्टता की उत्पत्ति के ये दोनों विधान भाषा में साथ साथ चलते हैं और आवश्यक हैं। पर शैली की विशिष्टता के विन्यास के पूर्व भाषा की सामान्य योग्यता अपेक्षित होती है। आजकल हिन्दी लिखने वालों की संख्या सौभाग्य से उत्तरोत्तर बढ़ रही है। पर यह देखकर दु:ख होता है कि इनमें से बहुत, पहले ही विशिष्टता के प्रार्थी दिखाई पड़ते हैं। शैली कोई हो, वाक्यचरना की व्यवस्था, भाषा की शुध्दता और प्रयोगों की समीचीनता सर्वत्र आवश्यक है। जब तक ये बातें न सध जायँ तब तक लिखने का अधिकार ही न समझना चाहिए। इनके बिना भाषा लिखने पढ़ने की भाषा ही नहीं है जिसकी शैली आदि का विचार होता है। न अज्ञता या सच्‍चाई कोई विशिष्टता कही जा सकती है, न दोष या अशुध्दि कोई नवीन शैली। अपनी बुध्दि की निष्क्रियता और भाषा की सच्‍चाई के बीच केवल देशी विदेशी समीक्षाओं की शैली के अनुकरण द्वारा विशिष्टता प्रदर्शन का प्रयत्न झूठी नकल या धोखेबाजी ही कहा जायगा। पर आजकल कोई पत्रिका उठाइए, उसमें कहीं न कहीं 'कविस्वप्न' आदि की बातें बड़े करामाती ढंग से बड़ी गम्भीर मुद्रा के साथ, ऐसे ऐसे वाक्यों में कही हुई मिलेंगी-

    'वे अपने दिमाग के अन्दर घुसते ही स्वप्न को अपने आलोक में अपना सौन्दर्य न बिखेरने देकर अपने जादू से उसे तुरन्त बेहोश कर दिए हैं।'

    जब से श्रीयुत पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' से अपना हाथ खींचा तब से मैदान में नए नए उतरनेवाले लेखकों के लिए अपनी भाषा सम्‍बंधी प्रारम्भिक योग्यता की जाँच के लिए कोई साधन ही नहीं रह गया। लेखक तो लेखक, प्रयाग की एक मासिक पत्रिका ने अभी हाल ही में अपना अशुध्द जीवन समाप्त किया है। आज हिन्दी में मासिक पत्रिकाओं की कमी नहीं है। उनमें से दो एक ही यदि पूरी चौकसी रखें तो सदोष भाषा का यह प्रवाह बहुत कुछ रुक सकता है।

    वर्तमान गद्य लेखकों की प्रवृत्तियों की ओर ध्यान देने पर तीन प्रकार की शैलियाँ लक्षित होती हैं-विचारप्रधान, भावप्रधान, और उभयात्मक। एक ही लेखक की अन्तर्वृत्ति कभी विचारोन्मुख होती है और कभी भावोन्मुख। अत: उसकी भाषा भी कहीं एक ढंग पकड़ती है, कहीं दूसरा। पर सामान्य प्रवृत्ति के विचार से उनकी शैली उक्त तीन विभागों में से किसी एक के अन्तर्गत रखी जा सकती है। बंगभाषा के प्रभाव से इधर भावात्मक भाषा विधान की ओर बहुत से लेखकों का झुकाव दिखाई पड़ता है जिनमें से कई एक को पूरी सफलता भी प्राप्त हुई है। इस सम्बन्ध में मुझे यही कहना है कि भाषा की शक्ति का विकास दोनों क्षेत्रों में वांछित है-विचार के क्षेत्र  में और भाव के क्षेत्र में भी। भाषा जब विचार की गति के रूप में चलती है तब प्रस्तुत तथ्यों के प्रति उसके हृदय में आनन्द, करुणा, हास, क्रोध इत्यादि जागृत होते हैं। ये दोनों विधान अन्त:करण के विकास के लिए आवश्यक हैं और भाषा की शक्ति सूचित करते हैं। मेरे विचार में इन दोनों के अपेक्षित योग में ही भाषा की पूर्ण विभूति प्रकट होती है।

    पहली बात है तथ्यों का उद्धाटन, फिर उनके प्रति उपयुक्त भावों का प्रर्वत्‍तान। यदि भाषा विचार की पध्दति एकदम छोड़ देगी तो वह कुछ बँधी हुई बातों पर ही भावावेश की उछलकूद तमाशे के ढर्रे पर दिखाया करेगी। उसमें न गुरुत्व रहेगा, न सच्चाई। भावों की सच्ची और स्वाभाविक क्रीड़ा के लिए ज्ञान प्रसार द्वारा जब नई नई जमीन निकलती आती है तभी भाषा वास्तव में अपनी पूरी कला दिखाती जान पड़ती है। इस पुस्तक में लेखक ने बहुत कुछ मार्मिक दृष्टि से काम लिया है और लेखकों की बहुत सी विशेषताओं का अच्छा उद्धाटन किया है। यद्यपि बहुत से लेखकों के  सम्बन्ध में एक ही ढंग की प्रचलित और रूढ़ पदावली कहीं कहीं स्वच्छन्द समीक्षण का मार्ग छेंकती सी जान पड़ती है। इसका कारण, मेरे देखने में, सूक्ष्म विभेदों की व्यंजना के लिए अपेक्षित शब्दसामग्री की कमी है। आशा है सूक्ष्मदृष्टि-संपन्न लेखकों के सतत व्यवहार से मँजकर हमारी भाषा यह कमी शीघ्र पूरी कर लेगी।

    अन्त में मुझे यही कहना है कि शर्माजी (जगन्नाथ प्रसाद शर्मा) की इस कृति के भीतर शैली समीक्षा के प्रवर्तन की बड़ी भव्य सम्भावना दिखाई पड़ती है जिससे आशा होती है कि हमारी हिन्दी में साहित्य के इस अंग का स्फुरण भी बहुत शीघ्र उसी सजीवता के साथ होगा जिस सजीवता के साथ और और अंगों का हो रहा है। काशी विश्वविद्यालय के भीतर उनके साथ मेरा जो सम्बन्ध रहा है उसके कारण मुझे उनके इस सदुद्योग पर जितना हर्ष है उतना ही गर्व भी। मुझे पूरा भरोसा है कि वे हिन्दी साहित्य क्षेत्र के वर्तमान अंधाधुंध से न घबरा कर स्वच्छ दृष्टि के साथ उसके भीतर प्रवेश करेंगे और अपना कोई मार्ग निकालेंगे।

     (सन् 1930 ई.)  [  चिन्तामणि, भाग-4    ] 

 

गद्य प्रबन्ध के प्रकार

 

भाषा अपनी शक्तियों का व्यवस्थित रूप में विकास गद्य ही में करती है। एक ओर तो संसार के सारे व्यवहार गद्य द्वारा चलते हैं, दूसरी ओर गूढ़ और जटिल विचारों को व्यक्त करने का उपयुक्त साधन भी गद्य ही है। बातों का बोध कराने के अतिरिक्त हृदय के हर्ष, विषाद, प्रेम, करुणा इत्यादि भावों की व्यंजना के लिए भी गद्य का प्रयोग कम नहीं होता। इस प्रकार गद्य का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। प्रयोग का क्षेत्र इतना विस्तृत होने के कारण गद्य प्रबन्ध कई प्रकार के होते हैं जैसे-वर्णनात्मक, विचारात्मक, कथात्मक, भावात्मक इत्यादि। सबके लक्ष्य भिन्नभिन्न होने से उनकी भाषा के स्वरूप में भी भेद दिखाई पड़ता है। यह भेद स्थूल रूप में यों समझा जा सकता है-

   वर्णनात्मक प्रबन्ध का लक्ष्य होता है पाठक की कल्पना को जगाकर उसके सामने कुछ वस्तुएँ या व्यापार मूर्त रूप में लाना। वस्तुओं या व्यापारों को अन्तर्दृष्टि के सामने लाने के उद्देश्य हो सकते हैं-

    1. उनके सम्बन्ध में पूरा बोध या जानकारी कराना।

    2. उनके प्रति आनन्द, विस्मय, भय, करुणा, प्रेम इत्यादि भाव जगाना।

    पहला उद्देश्य कहीं तो बिलकुल व्यावहारिक होता है, जैसे-यदि किसी ने पुतलीघर नहीं देखा है तो उससे इसकी इमारतों, कलपुरजों, मजदूरों तथा और और वस्तुओं और व्यापारों का ऐसे ब्योंरे के साथ वर्णन करना कि उसे उसकी अच्छी जानकारी हो जाय। ऐसे वर्णन जहाँ तक जिज्ञासा की निवृत्ति मात्र करते हैं वहाँ तक व्यावहारिक ही समझे जाते हैं। पर इस प्रकार के वर्णन जब ऐसे ब्योंरे सामने लाएँ जो जानकारी की दृष्टि से फालतू, अनुपयोगी या अप्रयोजनीय हों पर जिनसे पढ़नेवालों का मनोरंजन हो तो लेखक को व्यवहार पक्ष पर न समझकर कला पक्ष पर समझना चाहिए। जैसे किसी स्टेशन या मेले के वर्णन में लोगों की दौड़ धूप, सौदा बेचनेवालों की तरह तरह की बोलियों, लोगों के दबने, गिरने पड़ने, बच्चों के रोने चिल्लाने इत्यादि के दृश्य उपस्थित किए जायँ तो लेखक का लक्ष्य अनुरंजन समझना चाहिए। ऐसे वर्णनों में स्पष्ट ब्योरे के साथ पूरा दृश्य उपस्थित करने का प्रयत्न दिखाई पड़ेगा। वाक्य कुछ छोटे होंगे; भाषा अधिकतर चलती और सुबोध होगी।

    जिन वर्णनों का उद्देश्य आनन्द, विस्मय, करुणा, भय इत्यादि का रसात्मक संचार होगा वे ऐसे ही ब्योरे सामने लाएँगे जो उक्त भावों को जगाने में समर्थ हों। आनन्द का संचार शोभा की भावना उत्पन्न करनेवाले दृश्यों से; विस्मय का विभूति ऐश्वर्य, भव्यता इत्यादि की भावना उत्पन्न करनेवाले दृश्यों से; भय की भीषणता, कठोरता, उग्रता, प्रचंडता की भावना करनेवाले दृश्यों से; करुणा या दया का दूसरों के दु:ख पीड़ा इत्यादि की भावना करनेवाले दृश्यों से। भावों के भेद से भाषा की रंगत में भी भेद हो जाता है। शोभा सौन्दर्य की भावना उत्पन्न करनेवाले दृश्यों के वर्णन की भाषा में मधुर, कोमल वर्ण युक्त संस्कृत शब्दों तथा समस्त पदों की अधिकता देखने में आयगी। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि अलंकारों का प्रयोग भी स्थान स्थान पर मिलेगा। तात्पर्य यह कि लेखक शब्दों की सजावट का ध्‍यान रखेंगा; जगह जगह भाषा को रंगीन और अलंकृत करने का प्रयत्न करेगा, विभूतियाँ, ऐश्वर्य चित्रिात करनेवाली भाषा भी प्राय: इसी ढंग की होती हैं। विशालता और भव्यता के चित्रण में कुछ गम्भीर और भड़कीले शब्द प्राय: मिलेंगे। भीषण, कठोर और उग्र दृश्य के वर्णन में 'प्रचंड र्मात्तांड' ऐसे कठोर और कर्कश वर्णवाले शब्द लाने का प्रयत्न लक्षित होगा। करुण दृश्यों में मार्मिक सरल वेदना प्रकट करनेवाले शब्द अधिक काम देते हैं। इसी प्रकार और समझना चाहिए। भाव जगानेवाले प्रबन्धों के लेखकों का लक्ष्य यह होता है कि वर्णित दृश्यों से जिस भाव का अनुभव वे कर रहे हैं उसी भाव का अनुभव पाठक भी करें।

   विचारात्मक निबन्‍धों में लेखक इस बात का प्रयत्न करता है कि किसी विषय में जो विचार या सिध्दान्त उसके हैं वे ही विचार या सिध्दान्त पाठक के भी हो जायँ। इसके लिए आवश्यक यह होता है कि सब बातें बड़ी स्पष्टता के साथ रखी जायँ। विचारों की ऋंखला उखडी न हो। सब विचार एक दूसरे से सम्बध्द हों। शब्द और वाक्य नपे तुले हों, अनावश्यक और फालतू शब्दों और वाक्यों के बीच में आ जाने से विचार ढक जाते हैं और पाठक का ध्‍यान गड़बड़ी में पड़ जाता है। मनुष्य जीवन में विचार-क्षेत्र बड़े महत्तव का है। उसमें भाषा के प्रयोग की बड़ी सफाई और सावधनी अपेक्षित होती है। उसमें भाषा की उछल कूद, सजावट, अलंकार चमत्कार इत्यादि के लिए बहुत कम जगह मिल सकती है। ऐसे लेखकोंमें मुख्‍य ध्‍यान विषय के स्पष्टीकरण की ओर होना चाहिए, भाषा की रंगीनी दिखाने की ओर नहीं।

   कथात्मक निबन्ध किसी उपाख् यान, वृत्तान्त या घटना को लेकर चलते हैं। विचारात्मक निबन्‍धों के समान उनमें भी सम्बन्ध निर्वाह अत्यन्त आवश्यक होता है। उसमें घटनाओं को एक दूसरे के पीछे इस क्रम से रखना पड़ता है कि उलझन न पड़े और साथ ही इस बात का भी ध्‍यान रखना पड़ता है कि आगे की घटनाओं को जानने की उत्कंठा पाठक को बराबर बनी रहे और बढ़ती जाय। भाषा चलती और सरल रखनी पड़ती है। शुध्द कथा या कहानी कहनेवाले वर्णन के विस्तार या भावों की व्यंजना में नहीं उलझते। कहानी सुननेवाले की उत्कंठा तो जिज्ञासा के रूप में होती है, जिसे पाठक बीच बीच में 'तब क्या हुआ' कहकर प्रकट करता है।

   भावात्मक निबन्ध में लेखक अपने प्रेम, आह्लाद, हर्ष, करुणा, क्रोध, विस्मय या किसी और भाव की व्यंजना करता है। भाव के आवेश के अनुसार कहीं कहीं भाषा में असम्बध्दता, विऋंखलता और वेग या तीव्रता दिखाई पड़ती है। कथन की सीमा पर मर्यादा का अतिक्रमण भी प्राय: अनिवार्य हो जाता है, इससे अत्युक्ति या अतिशयोक्ति का सहारा प्राय: लिया जाता है, जैसे-यदि किसी वेदना की व्यंजना हो रही है तो अनन्त ज्वाला में जलने, पहाड़ के नीचे पिसने आदि की बातें कही जाती हैं। उक्तियों में जितना वेग, जितनी नवीनता इत्यादि लाई जा सकती है उतनी शरीर की किसी चेष्टा से नहीं। क्रोधी के वास्तविक व्यापार तो तोड़ना फोड़ना, मारना, पीटना, डाटना डपटना इत्यादि ही देखते जाते हैं। पर उक्ति चाहे जहाँ तक बढ़ सकती है। किसी को धूल में मिला देना, चटनी कर डालना, घर खोदकर तालाब बना डालना तो मामूली बात है। यही बात सब भावों के सम्बन्ध में समझिए।

    ऊपर प्रबन्धों का जो वर्गीकरण किया गया है उससे यह न समझना चाहिए कि लेखक जब कोई लेख लिखता है तब उक्त वर्ग में से किसी एक में ही वह अपने को बाँध देता है। आवश्यकतानुसार वह भावात्मक, विचारात्मक कई पध्दतियों का मेल कर सकता है। जैसे कोई विचारात्मक लेख लिखाते समय यदि कोई मार्मिक स्थल आया तो लेखक भावोन्मुख हो कुछ दूर तक भावावेश की शैली का अवलंबन करेगा। इसी प्रकार किसी इमारत का वर्णन करते समय बहुत सम्भव है कि लेखक विवरण देने के स्थान पर अपने भावों की व्यंजना करने लगे। जैसा कि इस संकलन में उध्दृत 'ताजमहल' शीर्षक लेख में है।

    मुख्‍य बात यह है कि शैली कोई हो, वाक्यरचना की व्यवस्था, भाषा की शुध्दता और प्रयोगों की समीचीनता सर्वत्र आवश्यक है। जब तक ये बातें न सध जायँ तब तक लिखने का अधिकार ही न समझना चाहिए। इनके बिना भाषा  लिखने पढ़ने की भाषा ही नहीं है जिसकी शैली आदि का विचार हो।

     ('हिन्दी गद्य चन्द्रिका' : हाई स्कूल तथा उसके समकक्ष परीक्षा के लिए हिन्दी के विविध विषयों पर चुने हुए सुसम्पादित गद्यांशों का संकलन। सम्पादक: पंडित रामचन्द्र शुक्ल, प्रोफेसर, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी। प्रकाशक : रत्नाश्रम, आगरा, संवत् 1990 भूमिका 'कुछ आवश्यक बातें' शीर्षक से।)

 [  चिन्तामणि, भाग-3    


रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा विमर्श- भाग - 1 //  भाग -2 // भाग -3 // भाग - 4 //  भाग - 5 //  भाग -6 //  भाग - 7 //  भाग - 8 //  भाग - 9  //  भाग - 10  //  भाग -11 //  
           
 भाग - 12 //   भाग -13   // भाग -14  //  भाग - 15  //

 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.