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रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा, साहित्य और समाज विमर्श

भूमिका, टिप्पणी,रिपोर्ट और सम्मति
भाग - 12


उर्दू साहित्य सम्मेलन


विगत ईस्टर की छुट्टियों में उर्दू भक्तों ने बदायूँ में अपना एक सम्मेलन कर डाला। हैदराबाद सरकार के पूर्व होम सेक्रेटरी मौलवी अजीज मिरजा सभापति के आसन पर सुशोभित हुए थे। मौलवी साहब ने पहले सम्मेलन करने का कारण बतलाकर फिर उर्दू का इतिहास कह सुनाया और इस बात को अस्वीकार किया कि उर्दू किसी धर्म या जाति विशेष के लोगों की भाषा है। आपकी समझ में वह हिन्दू और मुसलमानों को एक करनेवाली शक्ति से उत्पन्न हुई है। मुसलमान लोग उसे उर्दू कह सकते हैं और हिन्दू लोग हिन्दुस्तानी। (हिन्दू लोग तो नहीं, हाँ अंगरेज लोग अलबत उसे उस नाम से पुकारते हैं)। सभापति ने अपने स्वधार्मियों को इसलिए कोसा कि वे संस्कृत के अमूल्य रत्नों से उर्दू का भंडार नहीं भरते। मौलवी साहब ने यह भी बतलाया कि उर्दू कविता में देशी रंगत इस कारण नहीं आती कि उसके कवि लोग बैठे तो रहते हैं हिन्दुस्तान में और ख् वाब देखते हैं फारस का। मौलवी साहब ने आगे चलकर कहा-''बड़े खेद की बात है कि यद्यपि संयुक्त प्रदेश उर्दू साहित्य का उद्गम स्थान है पर उसमें 'हिन्दुस्तानी' को छोड़ और कोई ऐसा पत्र नहीं है जो अपने कर्तव्यम का पालन करता हो वा सर्वसाधारण की सम्मति पर कुछ प्रभाव डालता हो अथवा जिसका प्रचार इतना हो कि वह अपना खर्च निकाल सके।' हिन्दी प्रेमियों को अब भी चेतना चाहिए।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, मार्च, 1910 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4]


हिन्दी साहित्य सम्मेलन


बंगीय साहित्य सम्मेलन की सूचना देने के साथ ही हमने एक हिन्दी साहित्य सम्मेलन की आवश्यकता बतलाई थी। गतांक में बाबू श्यामसुन्दर दास बी. ए. ने इस बातको प्रवर्ध्दित रूप में सर्वसाधारण के सामने उपस्थित किया था। इधर पंडित केदारनाथभट्ट ने भी अभ्युदय में इस विषय में अपनी सम्मति प्रकट की जिसका समर्थन जी शर्मा महाशय ने 25 अप्रैल के लीडर में बड़े उत्साह के साथ किया है। लीडर के सम्पादक महोदय ने भी इस प्रस्ताव की उपयोगिता की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित कियाहै। बात तो यह है कि जिसके हृदय में हिन्दी के लिए कुछ भी प्रेम होगा, जिसे अपनी मातृभाषा और देश के गौरव का कुछ भी ध्यान होगा उसे इस अवसर पर एक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का न होना अवश्य खटकेगा। जबकि बंगला, मराठी और उर्दू तकके प्रेमियों को एक स्थान में एकत्र होकर अपने अपने साहित्य की उन्नति और वृध्दिके उपायों को विचारते हुए वह देखेगा तब उसे अवश्य अपनी हिन्दी की भी सुध आवेगी।
जिन जिन प्रदेशों की भाषा हिन्दी कही जाती है, और वास्तव में है, उनमें यदि घूम कर देखा जाय तो जान पड़ेगा कि बहुत से लोगों को यह भी खबर नहीं है कि वर्तमान हिन्दी भाषा ने कौन सा रंग पकड़ा है, उसके लिए क्या क्या उद्योग हो रहे हैं और होने चाहिए। वे मानो पड़े सो रहे हैं। हम लोगों ने अभी उनके कानों के पास इतना हल्ला नहीं मचाया कि उनकी नींद टूटे। हमारे उद्योगों की उपयोगिता को बिना मन में बैठाए वे हमारा साथ कैसे दे सकते हैं। जब तक हम लोगों को यह न बतलावेंगे कि उनके किस कार्य से उनकी भाषा का हित होगा और किससे हानि, तब तक हम कैसे आशा कर सकते हैं कि वे जो कुछ करेंगे वह हमारी भाषा की भलाई और हमारे उद्देश्यों की पूर्ति ही के लिए होगा। वे अनजान में न जाने क्या कर बैठें? तात्पर्य यह कि हमारे हिन्दी भाषा सम्बन्धी उद्योगों की बात को जनसाधारण में पहुँचाने के लिए अभी बहुत थोड़े मार्ग खुले हैं।
यह जानी हुई बात है कि किसी स्थान पर कोई असाधारण भीड़भाड़ या मेला या तमाशा हो जाता है तब उसकी चर्चा वहाँ के निवासियों के बीच बहुत दिनों तक चलती रहती है। सभा समाजों का भी यह प्रभाव प्रत्यक्ष है। जिस विषय की धूमधाम किसी सभा समाज में एक बार हो जाती है उसकी ओर लोगों का ध्यान खींच जाता है और उनकी दृष्टि में उसमें एक प्रकार का महत्तव और मनोरंजकता आ जाती है। दूसरे लोगों को भी उस विषय को लेकर अपनी कार्य शक्ति दिखलाने की चाह होती है। उस विषय में पहिले से उद्योग करनेवालों को अपने सहकारियों के साक्षात्कार से अपनी शक्ति पर भरोसा हो जाता है और उनमें सफलता की आशा दृढ़ होकर उत्साह की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है। अत: यदि हिन्दी साहित्य सेवियों का प्रतिवर्ष एक सम्मेलन भिन्न भिन्न नगरों में हुआ करे तो आज हिन्दी की ओर से जो उदासीनता और अज्ञानता देखने में आती है वह न रहे। जो साहित्य पथिक सन्नाटे में अपने को अकेला पाकर जी छोटा कर बैठ गए हैं वे कमर कसकर आगे बढ़ने को तैयार हों। साथ ही यह भी विदित हो जाय कि जिन शिक्षित लोंगों ने अपनी हिन्दी भाषा की सेवा के सामने कभी अपनी शान बढ़ाने का अवसर न ताका और जो गँवारों तथा स्वार्थ को सर्वस्व मानने वाले अपने अधिकार लोलुप मित्रों की दृष्टि में तुच्छ बने रहे उनके सिर ऊँचा करने के लिए भी स्थान संसार में हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि वार्षिक साहित्य सम्मेलन करने से बहुत सी शिथिलता दूर हो जायगी और जागृति फैलेगी।
अब विचारना यह है कि यह सम्मेलन कहाँ और किस अवसर पर हो तथा इसका भार अपने ऊपर कौन ले। पं. केदारनाथ भट्ट और जी. शर्मा दोनों महाशयों ने नागरीप्रचारिणी सभा को इस कार्य के लिए उत्तोजित किया है। ठीक ही है क्योंकि जितने काम आज तक सभा कर चुकी है उनके देखते यह कोई बड़ी बात नहीं है। सभा में इस विषय का एक प्रस्ताव भी किया गया था। यदि यह सभा इस कार्य को अपने हाथ में ले तो कोई बात ही नहीं है पर यदि वह ऐसा न कर सके तो मेरी 'स्वतन्त्र सम्मति' में प्रयाग की 'भाषा सम्बर्ध्दिनी सभा' को अपने नवीन और बढ़ते हुए उत्साह को इस ओर लगाना चाहिए। प्रयाग एक ऐसा स्थान है कि जहाँ सर्वसाधारण सम्बन्धी कार्यों के लिए विशेष तत्परता देखने में आतीहै।
इसके लिए उपयुक्त अवसर भी चाहिए। मैं लीडर के सम्पादक की सम्मति से पूर्णतया सहमत हूँ कि यह सम्मेलन बड़े दिन की छुट्टियों में न करके दशहरे की छुट्टियों में किया जाय। बड़े दिन में काँग्रेस प्रदर्शनी तथा और सम्मेलनों की भीड़भाड़ में हम लोगों के चित्त को एकाग्र करके अपने उद्देश्य की ओर पूर्णतया न खींच सकेंगे। हमारा उद्देश्य बातों से कुछ लोगों का कुछ घड़ी के लिए मनोरंजन करना तो है नहीं वरन् कुछ दिनों के लिए लोगों को कार्य के लिए उद्यत और प्रवृत्त करना है। अस्तु, इन सब बातों के विचार से सम्मेलन को दशहरे की छुट्टियों में करना ठीक जँचताहै।
मेरी समझ में सम्मेलन को इन बातों पर विचार करना आवश्यक होगा-
1. हिन्दी की उन्नति के लिए जो सभाएँ स्थापित हैं उनकी द्रव्य से तथा और प्रकार से सहायता करना।
2. भिन्न भिन्न सभाओं के हाथ में भिन्न भिन्न कार्य सौंपना और उनके सम्पादन के लिए उन्हें द्रव्य देना।
3. हिन्दी में उपयुक्त पुस्तकों को बनवाने और प्रकाशित कराने का प्रस्ताव और प्रबन्ध करने के लिए एक कमेटी नियुक्त करना।
4. हिन्दी बोलने वाले लोगों में हिन्दी साहित्य का प्रचार।
5. हिन्दी न बोलने वाले लोगों में हिन्दी साहित्य का प्रचार।
6. संयुक्त प्रदेशों में नागरी अक्षरों का प्रचार।
7. और और प्रान्तों में नागरी अक्षरों का प्रचार।
8. हिन्दी व्याकरण।
9. हिन्दी कोश।
10. जो लोग हिन्दी की सेवा कर रहे हैं उनके अतिरिक्त सम्मान का प्रबन्ध करने के लिए एक कमेटी नियुक्त करना।
11. सम्मेलन का संगठन।
12. यूनिवर्सिटी की उच्च शिक्षा में हिन्दी को स्थान।
13. इन प्रान्तों के प्रत्येक जिले की कचहरियों के पास हिन्दी पुस्तकों की एक दुकान चलाने का प्रबन्ध करने के लिए एक कमेटी नियुक्त करना।
14. भिन्न भिन्न देशभाषाओं के साहित्य के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन।
15. दूसरे वर्ष के लिए सम्मेलन का स्थान।
इस सम्मेलन का सभापति हमें किन लोगों में से चुनना चाहिए इसका विचार भी हो जाना परमावश्यक है। हमारी समझ में तो नामावली प्रस्तुत करते तथा सभापति चुनते समय केवल इसी बात का ध्यान रखना चाहिए कि किस महाशय ने हिन्दी की सेवा कितनी और किस प्रकार की है। हम नीचे कुछ महानुभावों के नाम अक्षर क्रम से देते हैं जो अपनी साहित्य सेवा के कारण इस नाम के अधिकारी हो सकतेहैं।
1. पंडित गोविन्दनारायण मिश्र।
2. पंडित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा।
3. पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र।
4. राय देवी प्रसाद (पूर्ण) बी. ए., एल. एल. बी.।
5. उपाध्याय पंडित बदरीनारायण चौधरी।
6. पंडित बालकृष्ण भट्ट।
7. पंडित मदनमोहन मालवीय, बी. ए., एल. एल. बी.।
8. पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी।
9. पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंडया।
10. पंडित राधाचरण गोस्वामी।
11. बाबू श्यामसुन्दर दास बी. ए.।
12. पंडित श्रीधर पाठक।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अप्रैल 1910 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4]


बंगाल में उर्दू


बंगाल के कुछ थोड़े से मुसलमान लोग स्वजातीय लोगों को बंगला छोड़कर उर्दू लिखने और बोलने की सलाह दे रहे हैं। इसका वहाँ के 'मुसलमान' नामक पत्र ने एक बड़ा लेख लिखकर कड़ा विरोध किया है। वह लिखता है ''उर्दू हमारी मातृभाषा का स्थान नहीं पा सकती। हम लोग बंगाली मुसलमान हैं अत: हमें यह कहने में कुछ भी लज्जा नहीं कि हमारी मातृभाषा बंगला है जो कि अब इतनी समृध्द और चित्तकर्षक हो गई है। यद्यपि कुछ ऐसे मुसलमान हैं जो अपनी मातृभाषा का मूल्य नहीं समझते हैं पर बहुत से ऐसे भी हैं जो उससे पूरा प्रेम करते हैं। बंगाली मुसलमान भीतर बाहर सर्वत्र बंगला ही बोलते हैं। यदि थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि उर्दू हमारी मातृभाषा बन सकती है तो भी बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ दिखाई देती हैं। हिन्दू लोग तो बराबर अपनी मातृभाषा बंगला ही बोलते जाएँगे अत: मुसलमान लोग अपनी भाषा को भिन्न करके कै घड़ी काम चला सकते हैं। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे की बोली न समझ सकें यह कितनी बड़ी आफत है। अदालत और जमींदारी आदि के कारबार सब बंगला में होते हैं। बंगला का साहित्य उर्दू से कहीं अधिक उन्नत है और उसमें मुसलमानी धर्म की पुस्तकें भी बन गई हैं। प्रारम्भिक शिक्षा के लिए मुसलमान लेखकों ने भी बंगला की पुस्तकें लिखीहैं जिनमें से कुछ टेक्स्ट बुक कमेटी द्वारा स्वीकृत हुई हैं। अत: मुसलमान बालकों को अब आरम्भ में केवल राम, श्याम, काली के ही नाम नहीं वरन् मुहम्मद, अली, हसन, हुसैन के नाम भी पढ़ने पड़ेंगे।'' पूर्वीय बंगाल की मोहमडन एजुकेशन कान्फ्रेंस के विगत अधिवेशन के सभापति मौलवी तसलीमुद्दीन अहमद बी. एल. ने भी अपनी मातृभाषा बंगला पर बड़ी उत्तोजनापूर्ण भाषा में महत्तव प्रकट किया था।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका-अप्रैल मई, 1910 ई.)
[ चिन्तामणिभाग-]




एक लिपि विस्तार कान्फरेंस


गत 29 दिसम्बर, को काँग्रेस (अधिवेशन के अवसर पर) एक लिपि विस्तार कान्फरेंस की बैठक हुई। श्रीमान शारदाचरण मित्र महोदय ने कान्फरेंस का कार्य आरम्भ किया। रायबहादुर लाला लालचन्द के प्रस्ताव और राजा पृथ्वीपाल सिंह के अनुमोदन पर मद्रास के जस्टिस कृष्णस्वामी अय्यर सभापति चुने गए। सभापति महाशय ने एक अत्यन्त युक्तिपूर्ण और मनोहर वक्तृता दी जिसका सारांश यह है-
''मैं केवल इसी कारण सभापति बनाया गया हूँ कि मैं एक ऐसे प्रान्त का हूँ जहाँ इस लिपि के प्रचार की ओर लोगों का बहुत कम ध्यान है और जहाँ के लोगों को उस लिपि को ग्रहण करने पर उद्यत करना अत्यन्त कठिन है जिसकी उत्पत्ति दक्षिण लिपि से भिन्न है। वर्ष के इस अवसर पर काँग्रेस और कान्फरेंसों की धूम रहती है। यद्यपि यह एक लिपिविस्तार कान्फरेंस सबसे पीछे की है पर महत्तव में यह किसी से घटकर नहीं है। देश में एक नई जागृति और एकता का जातीय भाव फैल रहा है। पर जातीय एकता के भाव का तब तक कुछ नहीं हो सकता जब तक कि हम एक भाषा और एक लिपि स्थापित करने का प्रयत्न न करें। इस सभा में हम एक भाषा का विषय नहीं लेते हैं, हम पहले अपने देशवासियों को एक लिपि ग्रहण करने की उपयोगिता को बतलाना चाहते हैं। एकता तब तक पूर्ण रूप से स्थापित नहीं हो सकती जब तक हम उन विभेदों को दूर न कर दें जो हममें बहुत अधिक हैं। एक जाति का समाज बनाने के लिए एक भाषा और एक लिपि प्रधान सामग्रियाँ हैं। पर प्राय: 20000 लिपियों और 147 भाषाओं के होते हुए एक लिपि और एक भाषा का प्रचलित होना पहले पहल एक असम्भव स्वप्न समझा जाएगा। पर कुछ ऐसे उन्नत दृष्टि के लोग भी हैं जो यह देख रहे हैं कि जो आज एक स्वप्न है और कल एक आशा मात्र है वही परसों एक प्रत्यक्ष बात हो जाएगी। विधाता के यहाँ कोई बात अनहोनी नहीं है। इस समय 29 करोड़ मनुष्य आर्य भाषाएँ बोलते हैं और साढ़े पाँच करोड़ मनुष्य द्राविड़ भाषाएँ जिनका उद्भव संस्कृत से स्वतन्त्र समझा जाता है। अत: यदि भारतवासी अपनी निज की भाषा और लिपि के अतिरिक्त एक और व्यापक भाषा और लिपि का व्यवहार करने लगें तो इससे उपर्युक्त अनेक बोलियों और लिपियों पर किसी प्रकार का व्याघात न पहुँचेगा। विचार कीजिए कि भिन्न भिन्न लिपियों के होने से हमें कितनी हानि है। भिन्न भिन्न भाषाओं के होने पर भी यदि लिपि एक हो तो किसी एक भाषा का देश में समझा जाना सम्भव है क्योंकि उनमें से अधिकांश आर्य हैं और उनके कुछ न कुछ शब्द सब भाषाओं में समान रूप से मिलेजुले हैं। अब जब कि इतने उत्कृष्ट लेखक देशी भाषाओं के साहित्य की पूर्ति कर रहे हैं और उन सब देशी साहित्यों का उठान प्राचीन आर्य से है तब क्या एक भाषा की सम्पत्ति को दूसरी के पास पहुँचाना आवश्यक नहीं है? यदि आवश्यक है तो क्या इसका साधन एक लिपि के द्वारा धीरे धीरे सम्भव नहीं है? जहाँ तक मैं समझता हूँ कि अब लोगों को एक लिपि की आवश्यकता समझाने की जरूरत नहीं है। अब जरूरत है इस बात के बतलाने की कि एक लिपि का होना सम्भव है।
अब हम यदि किसी एक लिपि को ग्रहण करना चाहें तो हमारे सामने कई लिपियाँ हैं। एक ओर फारसी लिपि है जिसे यदि सब नहीं तो अधिकांश मुसलमान अपने संकीर्ण जातीय ममत्व के वशीभूत होकर अपनाए हुए हैं। कुछ लोग रोमन अक्षरों को उपयुक्त बतलाते हैं। फिर देवनागरी लिपि है जिसमें आजकल हिन्दी और प्राय: समस्त भारतीय भाषाओं की जड़ संस्कृत लिखीजाती है। अब यदि आपको एक लिपि स्वीकार करना है तो यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि व्यापक लिपि होने के लिए गुण क्या होने चाहिए। सबसे पहले तो यह जरूरी है कि वह सर्वांगपूर्ण हो। उसमें व्यर्थ अक्षरों की भरती न हो। प्रत्येक ध्वनि को सूचित करने के लिए अक्षरों की कमी न हो। इनके अतिरिक्त यह भी देखना है कि वह लिपि सुगमता से सीखी, लिखीऔर छापे जाने के योग्य हो।
अब मैं इन तीनों लिपियों पर एक एक करके विचार करता हूँ। अरबी लिपि तो इस कारण तिरस्कृत है कि वह अपूर्ण भी है और उसमें व्यर्थ अक्षरों की भरती भी है (अनुमोदन ध्वनि)। उसमें कई ऐसे अक्षर हैं जो एक ही ध्वनि को सूचित करते हैं। कुछ ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए इस अरबी वर्णमाला में स्वतन्त्र अक्षर भी नहीं है। आज मुझे इस विषय के अच्छे ज्ञाता मि. सैयद अली विलग्रामी का यह निश्चित मत सुनाया गया कि अरबी लिपि भारतीय लिपि होने के योग्य नहीं है और मुसलमानों को भी चाहिए कि वे इस लिपि को शीघ्र परित्याग कर उस लिपि को ग्रहण करें जिसका चलन सारे देश में है और जिसमें सब कामकाज निकल सकतेहैं।
रोमन अक्षरों के विषय में हम यह तो अवश्य कहेंगे कि उसे स्वीकार कर लेने में कई सुभीते हैं। ऍंगरेजी क्या योरोप की प्राय: सब भाषाएँ जिनमें वर्तमान काल की सर्वोच्च सभ्यता का विकास है इन्हीं अक्षरों में लिखीजाती हैं। यदि ये अक्षर प्रचलित हो जायँ तो देश के एक भाग के निवासियों को दूसरे भाग के निवासियों के साथ व्यवहार करने में सुविधा हो जायगी। साधारण यात्रा के लिए हिन्दी भाषा और रोमन अक्षरों में बने हुए टाइम टेबल से बहुत सहारा मिलेगा। यदि आपको दक्षिण में यात्रा करनी पड़े तो यह विदित हो जाय कि मेरे ऐसे आदमी को उत्तरीय भारत में यात्रा करने में कितनी कठिनाइयाँ पड़ती हैं। मैं यह कहने के लिए उद्यत नहीं हूँ कि रोमन अक्षरों के ग्रहण से हानियाँ न होंगी। बहुत सम्भव है कि इससे लोगों के जातीय भाव को धाक्का पहुँचे जैसे कि अरबी को हटाने से मुसलमान लोगों को जातीय भाव को धाक्का पहुँचना सम्भव बतलाया जाता है। मैंने रोमन के पक्ष में लिखे हुए लेखकोंको सहमत होने के विचार से पढ़ा। पर जितनी ही मैंने इसकी परीक्षा की उतना ही मुझे इसका स्वीकार किया जाना असम्भव प्रतीत हुआ (अनुमोदन ध्वनि)। असम्भव इस कारण कि असम्पूर्णता और व्यर्थ की भरती के कारण यह लेखन का एक अनुपयुक्त साधन है। अंगरेजी वर्णमाला का कोई अक्षर लेकर देखिए। 'A' लीजिए। यह आ, ए, ऐ, आदि अनेक ध्वनियों को सूचित करने के लिए प्रयुक्त होता है। 'U' को देखिए। इससे यू (Acute), m (Put) और अ (Cut) आदि अनेक ध्वनियो का काम लिया जाता है। अंगरेजी भाषा को सीखने में बड़ी भारी अड़चन उसकी वर्णमाला की गड़बड़ के कारण है। कुछ लोग इस अपूर्णता को दूर करने के लिए कुछ संकेतों की सृष्टि का उपदेश देते हैं। पर मैं नहीं समझता कि जब वहाँ कई ध्वनियों को सूचित करने के लिए अक्षर ही नहीं हैं तब इन संकेतों से क्या होगा। मैं यह मानता हूँ कि a और u लिखकर और निकाला जा सकता है। पर यह भी स्मरण रखना चाहिए कि अधिकांश भाषाओं में सन्धि का प्रयोग है। अत: इस रीति से भी हमारा काम नहीं चल सकता।
भिन्न भिन्न ध्वनियों को अक्षरों द्वारा व्यंजित करने में भारतवासी सबसे बढ़े चढ़े हैं। उन्होंने जिह्ना, तालु, कण्ठ आदि उच्चारण स्थानों के अनुसार नाद के विभाग किए हैं। पर इस पूर्णप्राग लेख शैली में कुछ त्रुटियाँ भी हैं। जैसे नागरी वा उससे निकली हुई वर्णमालाओं में रोमन और अरबी के 'फ' और 'ग' के लिए कोई स्वतन्त्र संकेत नहीं है। दक्षिण की तमिल, तैलंगी और मलयालम आदि भाषाओं में भी कुछ ऐसी ध्वनि हैं जिनके लिए नागरी वर्णमाला में कोई स्थान नहीं। पर नागरी अक्षरों को ग्रहण करने में यह कोई बड़ी बाधा नहीं है। जो जो संकेत नहीं हैं वे बना लिए जा सकते हैं। यूरपियन विद्वानों ने भी संस्कृत के लिए इसी लिपि को स्वीकार किया है और गवर्नमेंट की अध्यक्षता में सम्पादित संस्कृत पुस्तकें भी इसी नागरी लिपि में छपती हैं। इन बातों का बहुत विस्तृत प्रभाव पड़ा है और तैलंग, कन्नड़ी, मलयालमी आदि सब दक्षिणी लोग जो पहले अपनी भिन्न लिपियों में संस्कृत ग्रन्थों के छपाने के पक्षपाती थे अब संस्कृत पुस्तकें नागरी अक्षरों में ही छपाते हैं। मेरे मित्र बाबू शारदाचरण मित्र कहते हैं कि बंगाल में भी यही अवस्था है। महाशयो, मैंने सुना है कि जर्मनी और जापान के लोग भी, जिनके समान देशभक्त संसार में नहीं हैं, अपनी निज की लिपि को छोड़ सर्वव्यापक लिपि को ग्रहण कर रहे हैं वा ग्रहण करने पर उद्यत हो रहे हैं। अब मेरी यह प्रार्थना क्या निष्फल होगी कि पंजाब, बंगाल, संयुक्त प्रदेश के लोग अपनी भिन्न भिन्न लिपियों को छोड़ जो प्राय: सबकी सब या तो नागरी से निकली हैं या उससे मिलती जुलती हैं, देश के हित के लिए नागरी अक्षरों का व्यवहार स्वीकार करें?'' इत्यादि। वक्तव्य के उपरान्त निम्नलिखित प्रस्ताव पास किए गए-
पहले प्रस्ताव में भिन्न भिन्न प्रान्तों में सामाजिक और साहित्य विषयक बातों में अधिक मेल बढ़ाने, विद्या के प्रचार करने और आपस के विचारों को फैलाने के लिए भिन्न भिन्न भाषाओं के लिखने में एक राष्ट्र लिपि व्यवहृत होने की आवश्यकता स्वीकार की गई। इस प्रस्ताव को 'माडर्न रिव्यू' के प्रसिध्द सम्पादक बाबू रामानन्द चटर्जी ने उपस्थित किया और मद्रास के मि. जी. ए. नैट्सन और लखनऊ के पं गोकर्णनाथ मिश्र ने इसका समर्थन किया। दूसरे प्रस्ताव द्वारा यह निश्चय हुआ कि भारत की राष्ट्रलिपि होने के लिए देवनागरी लिपि ही सबसे उत्तम लिपि है। इस प्रस्ताव को रायबहादुर लाला बैजनाथ ने उपस्थित किया और मि. बी. एस. मित्र, पं. श्रीकृष्ण जोशी, मि. महादेव राजाराम बोड्स और विजगापटम के मि पी एल. नरसिंहम ने इसका समर्थन किया। तीसरे प्रस्ताव में स्वीकार किया गया कि भारत की एक राष्ट्रलिपि होने के लिए इस बात की आवश्यकता है कि इसकी उपयोगिता दिखानेके लिए सरक्यूलर और सूचनापत्र निकाले जायँ। इसका प्रचार करने के लिए उपदेशक भेजे जायँ और भारत की भिन्न भिन्न भाषाओं की पुस्तकें देवनागरी लिपि में छापी जायँ और विद्यार्थियों को सुन्दर नागरी अक्षर लिखने के लिए पदक और पारितोषिक दिए जायँ। इस प्रस्ताव को पंजाब के प्रो. रामदेव ने उपस्थित किया और मारिशस के डॉ. मन्नीलाल ने इसका समर्थन किया। चौथे प्रस्ताव में यह निश्चय हुआ कि उक्त प्रस्तावों को कार्य में परिणत करने के लिए भिन्न भिन्न प्रान्तों के प्रतिनिधियों की एक प्रधान कमेटी बनाई जाय और सब प्रान्तों में इसकी शाखा सभाएँ स्थापित की जायँ। इस प्रस्ताव को पं. श्यामबिहारी मिश्र ने उपस्थित किया और पं. रामनारायण मिश्र ने इसका समर्थन किया। इस कमेटी में मि. जस्टिस कृष्णस्वामी अय्यर, पं. मदनमोहन मालवीय, बाबू शारदाचरण मित्र, पं. बालकृष्ण जोशी, माननीय मि. हरचन्द राय, डॉ. सतीशचन्द्र बैनरजी, लाला लालचन्द, लाला मुंशीराम, सर गुरुदास बैनरजी, प्रो. रंगाचारी, मि. अप्पाराव, बाबू गोविंददास और मि. मोहनचन्द कर्मचन्द गाँधी चुने गए और इस कमेटी को यह अधिकार दिया गया कि वह इस कमेटी में और लोगों को भी बढ़ा सकती है। छठें प्रस्ताव में इस बात पर खेद प्रकट किया गया कि भारतवर्ष के अधिकांश लोगों में देवनागरी लिपि का प्रचार होने पर भी नए करेंसी नोटों से वह निकाल दी गई और प्रार्थना की गई कि अब जो नए नोट बनें उन पर उनका मूल्य नागरी अक्षरों में भी दिया जाय। इस प्रस्ताव को बाबू बलदेव प्रसाद ने उपस्थित किया और बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने इसका समर्थन किया। सातवें प्रस्ताव में गवर्नमेंट से प्रार्थना की गई कि नए सिक्कों पर उनका मूल्य नागरी में भी लिख रहे। इस प्रस्ताव को पं. सूर्यनारायण दीक्षित ने उपस्थित किया और बाबू गौरीशंकर प्रसाद ने इसका समर्थन किया। माननीय पं. मदनमोहन मालवीय ने सभापति और श्रीमान शारदाचरण मित्र को धन्यवाद दिया।
इस कान्फरेंस में और जो हुआ सो अच्छा ही हुआ पर चौथे प्रस्ताव के सम्बन्ध में मुझे कुछ कहना है। प्रतिनिधियों की जो कमेटी बनाई गई है वह किस बात का लक्ष्य करके? हिन्दी के प्रसिध्द प्रसिध्द ग्रन्थकारों और लेखकों में से किसी का नाम न देख सन्देह होता है कि शायद इन प्रस्तावों को कार्य में परिणत करने के लिए उन लोगों में से किसी की आवश्यकता नहीं है जिन्होंने मान मर्यादा बढ़ाने की चिन्ता छोड़ अपने जीवन का मुख्ये भाग हिन्दी भाषा का भंडार भरने में लगाया है। पं महावीरप्रसाद द्विवेदी, बाबू श्यामसुन्दर दास बी. ए., उपाध्याय पंडित बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', पंडित अमृतलाल चक्रवर्ती आदि में से क्या किसी का सम्बन्ध इन प्रस्तावित विषयों से नहीं है? अन्त में हम यही कहते हैं कि जब तक भारतवासियों के हृदय से दिखावट और तड़क भड़क की रुचि न जाएगी तब तक कोई सच्चा हितकर कार्य नहीं हो सकता।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, जनवरी, 1911 ई.)
[ चिन्तामणिभाग-4]

श्री हरिश्चन्द्र जयन्ती


गत भाद्रपद शुक्ल सप्तमी तारीख 31 अगस्त को सायंकाल काशी नागरीप्रचारिणी सभा भवन में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रजी की जयन्ती बड़े समारोह के साथ मनाई गई। गत साहित्य सम्मेलन की भाँति सभा के आगे का भाग सैकड़ों झंडियों से सुशोभित किया गया था। सभा का हाल अशोक पत्रों के बन्दनवार, फूलों के बड़ेबड़े गुच्छों, पुष्पमालाओं इत्यादि से अभूतपूर्व रूप से सजाया गया था। सभापति के बैठने के स्थान के ऊपर दीवार से भारतेन्दुजी का एक बहुत बड़ा तैलचित्र लगाया गया था जिसमें रंग बिरंगे फूलों और पत्तियों का आधा फुट चौड़ा चौखटा जड़ा था और ऊपर श्वेत पुष्पों का चन्द्र था जिसके भीतर रक्ताक्षरों में 'श्रीहरि:' बना था।
समय से पहले ही सभा का वृहत् हाल दर्शकों से भर गया। अगणित लोग स्थान के संकोच से दोनों ओर के बरामदों में तथा बाहर खडे रहे। सभापति का आसन काशी के सुप्रसिध्द ज्योतिर्विद पंडित अयोध्यानाथजी शर्मा (अवधोश) ने सुशोभित किया। दर्शकों में अनेक विद्वान, सभी काशीस्थ हिन्दी प्रेमी, अनेक रईस, वकील, अध्यापक, छात्रादि थे।
स्थानीय भारतेन्दु नाटक मंडली के द्वारा मंगलाचरण का मनोहर संगीत होने के उपरान्त राय कृष्णदासजी ने बाबू मैथिलीशरण गुप्तजी की रची 'श्री हरिश्चन्द्रपंचक' नामक कविता पढ़ी, जो पत्रिका के इसी अंक में अन्यत्र प्रकाशित की गई है। तत्पश्चात् 'ट्रिब्यून' के भूतपूर्व सम्पादक श्रीयुत कालीप्रसन्न चटर्जी का व्या ख्याोन हिन्दी में हुआ। आपने अपने व्याूख्या्न में बाबू हरिश्चन्द्र के उच्चकुल, विद्या प्रेम, सद्गुण, साहित्य सेवादि का वर्णन करते हुए वर्तमान समय के लोगों को उनका अनुकरण करने की सलाह दी। पश्चात् जैनमुनि विद्याविजय का व्या ख्यालन हुआ। उन्होंने बाबू हरिश्चन्द्र के साहित्यिक जीवन की आलोचना करते हुए कहा कि वे पूरे अहिंसक और दयालु थे। आपके बाद 'हरिश्चन्द्र स्कूल' के छात्रों ने कुछ कविताएँ पढ़ीं। फिर हिन्दू कॉलेज के विद्वान प्रोफेसर जे. एन. उनवाला महाशय ने गुजराती में व्या।ख्याखन दिया और बाबू हरिश्चन्द्र की सर्वजनप्रियता, साहित्यसेवा इत्यादि पर विचार करते हुए कहा कि भारतवर्ष में एक भाषा और एक लिपि के प्रचार का उद्योग प्रशंसनीय है और हिन्दी भाषा तथा नागरी लिपि सार्वजनिक बनाने के योग्य है। उन्होंने यह भी कहा कि मैं पारसी हूँ, मेरी भाषा गुजराती है, परन्तु हिन्दी से मुझको प्रेम है। इसके अनन्तर बाबू भूतनाथ चटर्जी ने बंगला में व्याभख्याजन दिया और श्रीमती बंग महिला की 'हरिश्चन्द्र' नामक बंगला कविता पढ़ी। तत्पश्चात् बाबू जयशंकर प्रसाद ने अपनी रची कविता पढ़ी जो प्रकाशित की गई है। फिर साहित्याचार्य पंडित रघुनाथ शर्मा ने संस्कृत की कविता पढ़ी। आपके बाद बाबू गंगाप्रसाद गुप्त ने अपनी रचित 'हरिश्चन्द्र स्मृति कला' नामक कविता पढ़ी जो इसी अंक में अन्यत्र प्रकाशित की गई है। फिर बाबू लक्ष्मीनारायण सिंह ने एक कविता पढ़ी। उनके बाद पं किशोरीलालजी गोस्वामी ने गद्य में लिख हुआ बाबू हरिश्चन्द्र सम्बन्धी एक लेख पढ़ा और एक कविता भी पढ़ी जिसमें भारतेन्दुजी के सब ग्रन्थों की नामावली आ गई थी (यह लेख तथा कविता मुझे नहीं मिली, गोस्वामीजी अपने साथ लेते चले गए, नहीं तो मैं इन्हें भी सहर्ष प्रकाशित करता) पश्चात् चम्पारन के पं. चन्द्रशेख्रधर मिश्र की ओर से एक महाशय ने कुछ कहा। अनन्तर पं. चन्द्रकान्तजी शर्मा का संस्कृत में और भारत जीवन सम्पादक
पं. लक्ष्मीनारायणजी त्रिपाठी, आवाज ए खल्क के एडीटर मुंशी गुलाबचन्द और बाबू लक्ष्मीचन्द एम. ए. के हिन्दी में व्याकख्याीन हुए। बड़े हर्ष की बात है, मुंशी गुलाब चन्द ने यह भी कहा कि अब से मैं अपने पत्र में हिन्दी के लेख भी एक दो कॉलम निकाला करूँगा। इसके उपरान्त पं. केदारनाथ पाठक ने पं. श्यामबिहारी मिश्र एम ए का लेख पढ़ा और लाला भगवानदीन की कविता का जिक्र किया। यह लेख तथा कविता भी अन्यत्र प्रकाशित हैं। फिर सभापति का अन्तिम भाषण हुआ जो अन्यत्र मुद्रित है। बाबू श्यामसुन्दर दास बी. ए., पं. श्यामबिहारी मिश्र एम. ए , पं. श्रीधर पाठक, पं. जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, पं. लक्ष्मीशंकर द्विवेदी और बाबू पुरुषोत्तामदास टंडन एम. ए., एल जी. के सहानुभूति सूचक पत्र और तार पढ़े गए। अन्त में भारतेन्दु नाटक मंडली द्वारा संगीत हुआ और सभापति को धन्यवाद देकर 10 बजे सभा विसर्जित हुई।
इसी दिन प्रयाग, कलकत्ता, छत्रापुर और आरा में भी हरिश्चन्द्र जयन्ती मनाई गई थी।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अगस्त 1911 ई.)
[ चिन्तामणिभाग-4]


तृतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन
कलकत्ता



हिन्दी साहित्य सम्मेलन का तृतीय अधिवेशन ता. 21, 22 और 23 दिसम्बर, 1912 ई को कलकत्तो में होना निश्चय हुआ है। स्वागतकारिणी-समिति ने निम्नलिखित मंतव्य सम्मेलन में विचारार्थ उपस्थित करने के लिए तैय्यार किए हैं।
(1)
राजाधिराज पंचम जार्ज महाराज ने इस देश में पदार्पण करके अपनी भारतीय प्रजा को राजमहिषी सहित दर्शन देने की जो कृपा और प्रीति दिखाई है, उसके लिए यह सम्मेलन महाराज को सानन्द और सविनय अनेक धन्यवाद देता है।
(2)
.... के असमय स्वर्गारोहण पर यह सम्मेलन आन्तरिक शोक और उनके कुटुम्बियों के साथ हार्दिक संवेदना प्रकट करता है।
(3)
हिन्दीभाषियों की संख्या भारत की दूसरी प्रत्येक भाषा के बोलनेवालों से कहीं अधिक होने और हिन्दी की लिपि देवनागरी का देश भर में प्रचार होने पर करेंसी नोटों और सिक्कों पर हिन्दी और नागरी को स्थान पाते न देख कर सम्मेलन को बड़ा आश्चर्य्य और दु:ख हुआ है; विशेषकर जब नोटों पर पाँच भाषाओं में हिन्दी को जगह मिली थी और अब नए नोटों पर नौ में भी उसको ठौर नहीं। अत: वह सरकार से सविनय प्रार्थना करता है कि वह हिन्दी और नागरी का निरादर करके अपनी करोड़ों हिन्दीभाषी प्रजा को उदास न करे।
(4)
माननीय गोखले महाशय के प्रस्ताविक एजुकेशन बिल की अस्वीकृति पर खेद प्रकाश करते हुए....सम्मेलन हिन्दी हितैषियों से हतोत्साह न होकर सार्वजनिक शिक्षा के प्रचार में पूरा उद्योग करने का अनुरोध करता है, क्योंकि इसको विश्वास है कि ऐसे पवित्र कार्य में प्रजा का निरन्तर अभिनिवेश और उत्साह प्रमाणित होने पर सरकार उक्त बिल को बहुत दिनों तक नहीं टाल सकेगी।
इस सम्बन्ध में सम्मेलन का उपदेश है कि हिन्दी सभाएँ अपनी अपनी म्युनिसिपैलटियों में आरम्भिक पाठशालाओं, विद्यार्थियों और शिक्षा योग्य अवस्था के अविद्यार्थी बालकों की संख्याओं का अनुसंधन करके एक सूची तैयार करें, जिससे शिक्षा प्रचार का यथेष्ट प्रबन्ध करने में बहुत सहायता मिलेगी।
(5)
इस सम्मेलन के विचार में विज्ञान, शिल्प और व्यापार सम्बन्धी साहित्य की हिन्दी में बड़ी आवश्यकता है। सम्मेलन हिन्दी लेखकों का ध्या न इन विषयों की ओर आकृष्ट करता है कि वे अपने उद्योग से इन विषयों पर पुस्तकें तैयार करावें।
सम्मेलन की स्थायी समिति को भी इस आवश्यक कार्य में यथाशक्ति पूराप्रयत्न करना चाहिए। वह पदक, प्रशंसापत्र आदि देकर ग्रन्थकारों की उत्साहवृध्दिकरेतथा आवश्यकता होने पर उन्हें पुस्तक-प्रकाशन में यथासम्भव सहायता दे।
(6)
यह सम्मेलन नम्रतापूर्वक इस बात की आवश्यकता, उपयोगिता और न्याय्यता सरकार को हृदयक्ष्म कराना चाहता है कि, संयुक्त प्रदेश की अदालतों में हिन्दी और नागरी को वही स्थान और वही अधिकार दिया जाय जो उर्दू और फारसी लिपि को प्राप्त है और हिन्दीभाषियों के लाभार्थ, जिनकी संख्या उक्त प्रदेश में उर्दू जानने वालों से अधिक है, सरकारी गज़ट हिन्दी में भी प्रकाशित किया जाय।
पंजाब में भी हिन्दी और नागरी का प्रचार बहुत कम नहीं है, तथा दिन दिन बढ़ता जा रहा है, अत: सरकार से प्रार्थना की जाती है कि, वहाँ भी सरकारी कागजों में हिन्दी और नागरी को यथोचित स्थान दिया जाय।
(7)
उन सभी देशभक्त सज्जनों को जो हिन्दी और नागरी के प्रचार में उत्साह के साथ उद्योग कर रहे हैं, यह सम्मेलन हृदय से धन्यवाद देता है और प्रार्थना करता है कि, उनके उत्साह की उत्तरोत्तर वृध्दि हो और बहुत से दूसरे हिन्दी हितैषी भी उनका अनुसरण करें।

(8)
यह सम्मेलन बिहार सरकार से प्रार्थना करता है कि जो सरकारी कागज पत्र, सूचनाएँ, या पुस्तकें वहाँ कैथी अक्षरों में छपती हैं, अब से वे सब नागरी में छपा करें, क्योंकि यही लिपि सर्वव्यापी तथा सब श्रेणियों के लोगों की परिचित है और कैथी इसी का एक रूपांतर है जिसकी सृष्टि शीघ्र लिखने के कारण हुई है और छापे में जिसके प्रयोग की कुछ आवश्यकता नहीं है।
(9)
यह सम्मेलन भावी हिन्दू विश्वविद्यालय के संचालकों से सानुरोधा निवेदन करता है कि उक्त विश्वविद्यालय के पाठयक्रम में हिन्दी को उचित स्थान दिया जाय। सम्मेलन के विचार में आरम्भ से लेकर आठवीं कक्षा तक सब विषयों की शिक्षा हिन्दी में दी जानी चाहिए, और कक्षाओं में भी हिन्दी साहित्य को आवश्यक विषय रखना चाहिए।
(10)
यह सम्मेलन हिन्दी के सब पुस्तक प्रकाशकों से प्रार्थना करता है कि वे अपनी नव प्रकाशित पुस्तकों की एक एक प्रति यथासमय सम्मेलन के स्थायी कार्यालय में बिना मूल्य भेजने की कृपा कर हिन्दी साहित्य की सम्पूर्ण सूची तथा उसकी सामयिक अवस्था और उन्नति का विवरण प्रस्तुत रखने के उद्योग में सम्मेलन की सहायता करते रहें। पत्र संचालकों से भी प्रार्थना है कि उक्त कार्य में सहायता देने के लिए अपने अपने पत्र उक्त कार्यालय में बिना मूल्य भेजने की कृपा करें।
(11)
इस सम्मेलन के विचार में हिन्दी साहित्य की उन्नति का यह एक उत्तम साधन है कि प्रत्येक तीर्थस्थान पर और मुख्यि देवालयों में हिन्दी पुस्तकालय खोले जायँ। इसलिए सम्मेलन तीर्थवासी हिन्दी प्रेमियों और मन्दिरों के संचालकों का ध्या न इस ओर आकृष्ट करता है।
इस उद्देश्य सिध्दि के लिए सम्मेलन की स्थायी समिति एक उपदेशक नियुक्त करे और मन्दिरों के संचालकों से, विशेष कर महन्त महाशयों से, लिख पढ़ी करे।
(12)
बड़ोदा और बीकानेर के महाराजों को तथा अन्य नृपतियों को जो अपने राज्य में हिन्दी और नागरी का प्रचार कर रहे हैं, सादर हार्दिक धन्यवाद देता हुआ यह सम्मेलन उन हिन्दू नरेशों की सेवा में, जिनका ध्या न अभी इस आवश्यक कार्य की ओर नहीं गया है, सानुरोधा प्रार्थना करता है कि यथसम्भव अपने राज्य में हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के यथेष्ट प्रचार का सन्तोषजनक प्रबन्ध करके वे अपनी प्रजावत्सलता का परिचय देते हुए अपने शासन को चिरस्मरणीय बनावें।
(13)
इस सम्मेलन के विचार में हिन्दी भाषा में सत्य वीरता, परोपकार, देशभक्ति आदि उच्च भावों की ओर प्रवृत्त करनेवाले नाटकों का खेलना सर्वसाधारण के चरित्र को सुधरने के अतिरिक्त उनमें हिन्दी भाषा और साहित्य की ओर प्रेम उत्पन्न करने का भी उत्तम साधन है। इसलिए हिन्दी में रोचक और शिक्षाप्रद उत्तम उत्तम नाटकों की रचना और भिन्न भिन्न स्थानों में समय समय पर उनकी आवश्यकता की ओर ध्यानन दिलाता हुआ यह सम्मेलन देश के सुशिक्षित सज्जनों से निवेदन करता है कि नाटक खेलने के प्रचलित दोषों को दूर करने और उनको आदर योग्य तथा सर्वसाधारण की शिक्षा का साधन बनाने के लिए वे स्वयं भी उसके अभिनय में सम्मिलित हुआ करें।
यह सम्मेलन नाटक खेलने का व्यवसाय करनेवाली कम्पनियों का ध्यासन भी इस ओर दिलाता है कि, देश के प्रति उनका कर्तव्यप है कि, वे अपने नाटकों को विचारवान् लेखकों से सर्वसाधारण के समझने योग्य सरल हिन्दी में लिखवावें जिससे उन नाटकों का भाव और गौरव हो तथा दर्शकों पर उनका अच्छा प्रभाव पड़े।
(14)
इस सम्मेलन के विचार में आवश्यक है कि स्थायी समिति उन भारतीय भाषाओं के, जिनकी प्रचलित लिपि नागरी नहीं है, पत्रसम्पादकों से नागरीप्रचार में सहायता पाने का उद्योग बराबर करती रहे।
(15)
सम्मेलन को आश्चर्य्य है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में जहाँ फ्रेंच भाषा की पढ़ाई का प्रबन्ध किया गया है, वहाँ भारत की सबसे अधिक विस्तृत भाषा हिन्दी की ओर जो उक्त विश्वविद्यालय के पाठयक्रम में भी है और जिसके विद्यार्थियों की संख्या भी कम नहीं है, कुछ भी ध्या न नहीं दिया जाता।
सम्मेलन इस त्रुटि की ओर कलकत्ता विश्वविद्यालय के विख्यात विद्यानुरागी वाइस चैन्सलर तथा सिनेट और सिंडिकेट का ध्यावन सविनय और सानुरोधा आकृष्ट करके आशा रखता है कि वे अपने शिक्षाप्रबन्ध में भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी को यथोचित स्थान देने में विलम्ब नहीं करेंगे।
(16)
यह देखकर कि, शिक्षा विभाग के पाठयक्रम में कभी कभी हिन्दी की ऐसी पुस्तकें भी स्वीकृत हो जाती हैं जिनकी भाषा भद्दी ही नहीं अशुध्द भी होती है, यह सम्मेलन पंजाब, युक्तप्रदेश, मधयप्रदेश और बिहार के शिक्षाविभाग के कर्म्मचारियों से निवेदन करता है कि अपनी टेक्स्ट् बुक कमेटियों में ये अपने अपने प्रदेश की प्रधान हिन्दी सभाओं के कम से कम एक एक प्रतिनिधि को स्थान देने की कृपा करें, क्योंकि इससे उक्त कमेटियों को उत्तम, उपयोगी और यथासम्भव निर्दोष पुस्तकें चुनने में बड़ी सहायता मिलेगी।
(17)
यह सम्मेलन पंजाब , युक्तप्रदेश, मधयप्रदेश बिहार की प्रादेशिक कान्फ्रेंसों तथा भार्गव, भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, खत्री, कायस्थ आदि कान्फ्रेंसों के नेतृवर्ग से प्रार्थना करता है कि वे लोग अपनी अपनी कान्फ्रेंसों का काम हिन्दी में करें और रिपोर्ट भी हिन्दी में प्रकाशित करें तथा अपनी अपनी जाति में हिन्दीभाषा और नागरी लिपि का व्यवहार बढ़ावें।
सम्मेलन उक्त प्रदेशों के जमींदारों और व्यापारियों से भी प्रार्थना करता है कि, वे अपने कागज पत्र हिन्दीभाषा और नागरी लिपि में रखे और अपना सब व्यवहार उसी भाषा और लिपि में किया करें।
(18)
इस देश की भिन्न भिन्न संस्कृत परीक्षा समितियों से यह सम्मेलन प्रार्थना करता है कि, हिन्दीभाषी विद्यार्थियों के लिए संस्कृत परीक्षाओं के साथ हिन्दी का विषय अवश्य रखा जाय।
(19)
इस सम्मेलन को दु:ख है कि, युनिवर्सिटीज कमीशन की सम्मति कॉलेज क्लासों में देश भाषाओं की पढ़ाई के पक्ष में होने पर भी, अब तक पंजाब और इलाहाबाद युनिवर्सिटियों का ध्याओन इस ओर नहीं गया है। इन यूनिवर्सिटियों से निवेदन है कि वे कलकत्ता यूनिवर्सिटी के अनुसरण की कृपा शीघ्र करें और हिन्दीभाषी छात्रों के लिए हिन्दी को बी. ए. तक आवश्यक विषय कर दें।


(20)
इस सम्मेलन का निश्चय है कि, स्थायी समिति के कार्यालय के साथ पुस्तकालय भी स्थापित किया जाय और इसका एक अंग साहित्य सम्बन्धी म्यूजियम रहे, जिसमें पुराने हस्तलिखित ग्रन्थ आदि तथा अन्य ऐतिहासिक वस्तुओं का संग्रह किया जाय।
(21)
सम्मेलन की उद्देश्यपूर्ति के निमित्त आवश्यक धन संग्रह करने के लिए नीचे लिखे उपाय निश्चित किए जाते हैं-
(22)
(सम्मेलन की नियमावली का संशोधन।)
(23)
(स्थायी समिति की वार्षिक रिपोर्ट पर सम्मेलन का वक्तव्य तथा आगे के लिए उपदेश।)
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, सन् 1912 ई )







कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी की एम.ए. परीक्षा


देशी भाषाओं की उच्च शिक्षा और देशी भाषाओं द्वारा उच्च शिक्षा दोनों की आवश्यकता अब लोग समान भाव से समझने लगे हैं। पहले तो आवश्यक यह है कि देशी भाषा और उसके साहित्य का प्रौढ़ ज्ञान शिक्षा द्वारा कराया जाय। इसके पीछे फिर जिन भिन्न विषयों को अंगरेजी आदि विदेशीय भाषाओं के द्वारा सीखाते हैं उन्हें देशी भाषाओं द्वारा ही सिखाने की व्यवस्था की जाय। ये दोनों बातें जरूरी हैं।
इनमें से पहली बात तभी हो सकती है जब जो या जितना कुछ साहित्य विद्यमान है वह व्यवस्थित कर दिया जाय। हिन्दी को ही लीजिए जिसमें कहने को पुराना साहित्य बहुत कुछ है। हिन्दी का पंडित होने के लिए इस साहित्य की जानकारी पूरी होनी चाहिए। बात पड़ने पर तो हम चन्द, सूर, तुलसी, जायसी, बिहारी, घनानन्द इत्यादि के नाम एक साँस में ले जाते हैं पर यदि कोई पूछे कि सूर, जायसी आदि की शुध्द प्रतियाँ कहीं छपी हैं, उनके ऐसे संस्करण कहीं निकले हैं जिनमें निर्णीत पाठ हों, कठिन और गूढ़ स्थलों की व्यांख्याथ आदि हो तो नहीं के अतिरिक्त कोई दूसरा उत्तर सोचने में समय व्यर्थ जाएगा। अब तक तो सरकारी शिक्षा पध्दति में साहित्य कोटि के ग्रन्थों को स्थान ही नहीं रहा है। इससे ऐसे ग्र्रन्थों को समझने वालों की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही है। जब तक विद्वानों द्वारा इनके पठन पाठन के मार्ग की बाधाएँ न दूर की जाएँगी, इनके शुध्द और अच्छे संस्करण न उपस्थित किए जाएँगे तब तक जितने अध्यापकों की आवश्यकता होगी उतने अध्यापक तक नहीं मिल सकते।
अब रह गया हिन्दी का नया साहित्य, यह अभी थोड़े ही दिनों का है और ऐसी हड़बड़ी में पड़ा हुआ है कि जो लेखक हैं वे स्थिर चित्त होकर अपनी अपनी लेखनी के लिए अलग अलग मार्ग ही नहीं निर्दिष्ट कर सकते। कभी इधर लपकते हैं कभी उधर-जिससे पूर्णता और परिपक्वता नहीं आने पाती है। सच पूछिए तो हिन्दी में उच्च कोटि का साहित्य अभी नहीं है। केवल पुराने कवियों के बल पर हम कहाँ तक कूद सकते हैं? पर साहित्य अभी अथेष्ट नहीं है इसलिए जो कुछ है उसकी पढ़ाई भी मुल्तवी रखी जाय यह ठीक नहीं। शिक्षा के अधिक प्रचार से साहित्य की भी वृध्दि होगी। बड़े हर्ष की बात है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय ने देशी भाषाओं का महत्तव स्वीकार किया और उनमें एम. ए. की परीक्षा खोली। इस व्यवस्था के अनुसार वहाँ हिन्दी को भी एम. ए. तक का स्थान मिला। देखतें, प्रयाग विश्वविद्यालय और हिन्दू विश्वविद्यालय कब इस ओर ध्यान देते हैं।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, सन् 1919 ई.)
[ चिन्तामणिभाग-4]


'दुलारे दोहावली' पर सम्मति


केवल सात सौ दोहे रच कर बिहारी ने बड़े बड़े कवियों के बीच एक विशेष स्थान प्राप्त किया। इसका कारण है उनकी वह प्रतिभा जिसके बल से उन्होंने एक एक दोहे के भीतर क्षण भर में रस से स्निग्ध अथवा वैचित्रय से चमत्कृत कर देनेवाली सामग्री प्रचुर परिमाण में भर दी है। मुक्तक के क्षेत्र में इसी प्रकार की प्रतिभा अपेक्षित होती है। राज दरबारों में मुक्तक काव्य को बहुत प्रोत्साहन मिलता रहा है, क्योंकि किसी समादृत मंडली के मनोरंजन के लिए यह बहुत ही उपयुक्त होता है। बिहारी के पीछे कवियों ने उनका अनुकरण किया पर बिहारी अपनी जगह पर अकेले ही बने रहे। हिन्दी काव्य के इस वर्तमान युग में जिसमें नई नई भूमियों पर नई नई पध्दतियों की परीक्षा चल रही है किसी से यह आशा न थी कि कोई पथिक सामान लाद कर बिहारी के उस पुराने रास्ते पर चलेगा।
बिहारी के कुछ दोहों में उक्ति वैचित्रय प्रधान है और कुछ में रस विधान। ऐसी ही दो श्रेणियों के दोहे इस 'दोहावली' में भी हैं। रसात्मक दोहों में बिहारी की सी मधुर भाव व्यंजना और वैचित्रय प्रधान दोहों में उन्हीं का सा चमत्कारपूर्ण शब्द कौशल पाया जाता है। जिस ढंग की प्रतिभा का फल बिहारी की सतसई है उसी ढंग की प्रतिभा का फल दुलारेलालजी की यह दोहावली है, इसमें सन्देह नहीं। कुछ दोहों में देशभक्ति, अछूतोध्दार आदि की भावना का अनूठेपन के साथ समावेश करके कवि ने पुराने साँचे में नई सामग्री ढालने की अच्छी कला दिखाई है। आधुनिक काव्य क्षेत्र में दुलारेलालजी ने व्रजभाषा की चमत्कार पध्दति का मानो पुनरुध्दार किया है। इसके लिए वे समस्त व्रजभाषा काव्य प्रेमियों के धन्यवाद के पात्र हैं।
(दुलारे दोहावली पर वीरसिंह देव पुरस्कार मिला था।
आ. शुक्ल ने उसी वर्ष यह सम्मति लिखीथी। सुध, दिसंबर, 1934ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4]



 


रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
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