रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा, साहित्य और समाज विमर्श
भाग
-
7
इतिहास
और समाज विमर्श
प्राचीन भारतवासियों का पहिरावा
पाठक! आपने किसी कोट-पतलूनधारी बाबू को यह कहते सुना होगा, ''हमारे बाप
दादे तो असभ्य थे, एक धोती लपेटे नंगे फिरा करते थे, तो क्या हम भी उनकी
चाल चलें'? अर्थात् उनके मत में कोई पहनावा इस देश का नहीं है, सब विदेशी
है।
सबसे प्रथम, बकनन हैमिल्टन (Buchnan Hamilton) ने अपने ''ईस्टर्न इंडिया''
नामक पुस्तक में यह सम्मति प्रकट की कि, प्राचीन हिन्दू जाति सिले हुए
वस्त्र के व्यवहार से पूर्णतया अनभिज्ञ थे, उनका प्रचार मुसलमानों के
आक्रमण के पश्चात् हुआ। तब से म्योर (Miur) और वाट्सन (Watson) प्रभृति
यूरोपीय विद्वानों द्वारा इसका पोषण होता आया, किन्तु जिस आधार पर यह
सम्मति स्थिर की गई वह दृढ़ नहीं प्रतीत होती। इसकी सम्यक् विवेचना के लिए
दो द्वार उपलब्ध हैं, (1) प्राचीन ग्रंथ और (2) प्राचीन मूर्तियाँ।
वेदों से उस समय मे वस्त्र के किसी रूपविशेष में व्यव्हृत होने का पता नहीं
चलता। कदाचित् सर्वसाधारण में धोती इत्यादि के धारण करने का ही अधिक प्रचलन
था। कर्नल टेलर मुक्तकंठ से कहते हैं, “चलने, बैठने और लेटने में इससे बढ़कर
सुगमताप्रद पहनावे का अविष्कार करना असंभव है”। सिकंदर के साथियों को 2200
वर्ष पूर्व, उसी पहनावे का सर्वसाधारण में प्रचार दिख पड़ा था जो आज भी
प्रचलित है। किन्तु अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सर्वसाधारण की भाँति
क्या राजा और उनके मंत्रीवर्ग तथा दूसरे उच्चश्रेणी के मनुष्य भी धोती और
चादर पर ही संतोष करते थे? ऐसी एकरूपता तो कदाचित् असभ्य से असभ्य जातियों
में भी होनी असंभव है, तो फिर 'हिन्दू' ऐसे उन्नतशील लोगों के विषय में,
जिन्होंने 'जाति भेद' की प्रथा स्थापित की, यह अनुमान कहाँ तक यथार्थ होगा?
इस विषय में प्रमाणों का सर्वथा अभाव भी, जैसा कि कुछ लोगों को भ्रम है,
नहीं है।
ऋग्वेद में, जिसका समय साधारण अटकल से ईसा के 2000 वर्ष पूर्व निर्धारित
किया गया है, सूई और सीने का उल्लेख है (सिव्यतु अपह शूच्य
छेद्यमानय॥2/288॥)। मूल शब्द 'शूची' है जिसके लिए यह अनुमान बाँधना कि उससे
काँटे या और किसी नुकीली वस्तु से अभिप्राय है, उपहासजनक होगा। यह भी विचार
करने का स्थल है कि प्राचीन आर्य लोहे के शस्त्र इत्यादि बनाने में कुशल
होकर भी सूई से पूरे अनभिज्ञ बने रहते। कर्नल टेलर के इस कथन के
प्रत्युत्तर में कि प्राचीन 'हिन्दू जाति में दर्जी का होना प्रमाणित नहीं
है और न उनकी भाषा में इसके लिए कोई शब्द हैं', यह वक्तव्य है कि अमरसिंह
के कोष में, जो ईसा से पूर्व का माना जाता है, दो शब्द दर्जी के लिए पाए
जाते हैं, एक 'तन्तुवाय' और दूसरा 'सौचिक' (तन्तुवाय: कुविन्द:
स्यात्तान्नुवायस्तु सौचिक: अमरकोष), इस दूसरे शब्द की व्याख्या पाणिनि के
सूत्रो में भी विद्यमान है। उशनस के प्राचीन धर्मशास्त्र में वैश्य और
शूद्र के संयोग से उत्पन्न को, एक भिन्न जाति में विभाजित करके 'सीना' और
दूसरे हाथ के काम उनके निर्वाह हेतु स्थिर किए गए हैं। वे उस समय 'शौची'
कहलाते थे।
रामायण, महाभारत और अन्यान्य प्राचीन संस्कृत ग्रंथो में ऐसे पहनावों का
वर्णन है जो कदापि बिना सूई की सहायता के नहीं बन सकते। उदाहरण स्वरूप मैं
यहाँ पर कुछ संस्कृत शब्दों को उद्धृत करता हूँ, जो भिन्न-भिन्न पहनावों को
सूचित करते हैं, जैसे(1) क़ंचुक, (2) कंचुलिक, (3) अंगिका, (4) चोलक, (5)
चोल, (6) कुर्पासक, (7) अधिकाक्ष् और (8) नीवी, इत्यादि। इनमें से प्रथम के
विषय में कुछ कहना आवश्यक है।
इस शब्द (कंचुक) का अर्थ इस प्रकार किया गया है, ''सैनिकों का कुत्तो की
भाँति एक पहिराव''। 'सन्नाह' को जिसका प्रयोग लोहे के कवच और सूत के बने
दोनों प्रकार के पहिराव के लिए किया जाता है, इस शब्द का पर्यायवाची लिखा
देख बहुत से आधुनिक कोषों में इस कंचुक का अर्थ इस प्रकार कर डाला गया है,
''बाणों से रक्षा निमित्त लोहे का एक पहिराव''। किन्तु इससे प्राचीन काल
में सूत के बने पहनावों से भी अभिप्राय था, यह बात इसका व्यवहार सैनिकों के
अतिरिक्त अन्य श्रेणी के मनुष्यों में भी दिखा देने से प्रमाणिक हो जाएगी।
युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के समय ऋषियों का 'कंचुक' और 'पगड़ी' धारण करना
महाभारत में वर्णित है (विवशुस्ते सभां दिव्यां सोष्णीषां धृतकंचुका:)।
क्या ऋषिगण गंभीर कवच धारण करके आए थे? और देखिए, राजाओं के अंत:पुर
रक्षार्थ जो षंड नियत रहते थे, उन्हें 'कंचुकी' कहते थे अर्थात्, 'कंचुक'
धारण करनेवाले। तो क्या वे सदैव लोहे के बख्तर पहिने फिरा करते थे?
'कंचुक' से तात्पर्य आधुनिक जामे से है, राजाओं के मंत्री और अनुचरगण
प्राय: इसी वेश में रहते थे। अक्ष्किऌस का प्रचार यद्यपि दो एक प्रांतों को
छोड़कर इस देश में है। यह एक प्रकार की कुत्तर् होती है जिसको हिन्दी में
'अक्ष्यि' कहते हैं। जिन्हें प्रकृति का ज्ञान है उन्हें यह समझते कुछ भी
विलंब न लगेगा कि यह संस्कृत 'अक्ष्कि' का अपभ्रंश है। क् प्रसिद्ध सूत्रा
(कादीनां लोप:वररुचि॥2/2॥) के अनुसार अ में परिवर्तित हो गया। आधुनिक शब्द
'अंगरखा' भी, यदि वह अंगरक्षा का अपभ्रंश न हो तो इसी शब्द का एक परिवर्तित
रूप है। चोल आधुनिक 'फतुई' के सदृश होता था। नीवी शब्द भी बड़े काम का है।
यह इजशरबंद का नाम है जो घाघरे में डाला जाता है। यदि उस समय घाघरे नहीं थे
तो इस नीवी की क्या आवश्यकता थी? यहाँ तक तो प्राचीन ग्रंथों के आधार पर
प्रमाणों की स्थिति हुई, अब देखिए प्राचीन प्रतिमाकार इस विषय में क्या
कहते हैं।
यद्यपि सांची और अमरावती प्रभृति स्थानों की अधिकांश मूर्तियाँ नग्नावस्था
या अर्ध्दनग्नावस्था में प्रदर्शित की गई हैं, किन्तु इनमें से कुछ ऐसी भी
हैं जो इसके विपरीतता की साक्ष्य देती हैं। अमरावती की असंख्य नग्न मूर्ति
समूह में ऐसी मूर्ति भी पाई जाती हैं जिनका पहिराव दर्जी़ के अस्तित्व से
सम्बंध रखता है। साँची के दोनों धनुर्धारियों के चित्र में, जिनमें से एक
काशी के बौद्ध राजा पिलियुक का है, चपकन प्रत्यक्ष है। बौद्ध गया के, जिसका
समय 'साँची' से प्राचीनतर है, एक शिलाखंड पर दो मूर्तियाँ गले से पैर के
अर्ध्दभाग पर्यन्त एक प्रकार के पहनावे से सुसज्जित हैं जो ठीक आधुनिक
'जामे' के सदृश है।
'उड़ीसा' के प्राचीन अवशेषों में इससे दृढ़तर प्रमाण पाए जाते हैं। 'उदयगिरि'
की गुफाओं में 'रानीनौर' नामक स्थान में 4 फीट 6 इंच ऊँची एक मूर्ति चट्टान
में कटी है, जिस पर एक चुस्त चपकन दिखाया गया है, जिसका दामन घुटनों से 4
इंच नीचे लटकता है। एक पतला दुपट्टा बाएँ कन्धे से आकर कटि को आवृत्त किए
है, जिसका प्रचार आज भी उसी प्रकार चला आता है। कटि प्रदेश में एक कटिबन्धा
भी है जिसके बाएँ ओर एक तलवार लटक रही है। इस मूर्ति का सिर खंडित हो गया
है, किन्तु जो शेष है उसमें पगड़ी का चिन्ह् विद्यमान है। पैरों में लम्बे
बूट भी दिखाए गए हैं। डॉ. राजेन्द्रलाल मित्रा के मतानुसार इस मूर्ति की
अवस्था 2200 वर्ष की अनुमान की गई है।
पहनावे की चाल विशुद्ध 'हिन्दू' है। कोई मनुष्य उसमें Chiton (चिटन),
Chlamys (क्लमिस) या सिकंदर के अन्य किसी सैनिकों द्वारा लाए हुए पहिराव से
समानता दिखलाने का साहस नहीं कर सकता, यदि यह किसी प्रकार मान भी लिया जाए
कि हिन्दू ऐसे स्वप्रथाभक्त लोग एक ऐसे पहिराव को, कि जिसका आविर्भाव किसी
अन्य दूर देश में हुआ हो, देखते ही इस सीमा तक अनुकरण करने लगें कि उसे
अपने शिल्पकार्य में स्थान दें। यद्यपि यह चपकन असीरियन (Assyrian) लोगों
के पहिराव से किसी किसी अंश में समानता रखता है, किन्तु मुख्य विभिन्नता
बाँह(आस्तीन) देखने से विदित हो जाएगी। असीरियनों की आस्तीन टेहुनी पर्यन्त
होती थीं, किन्तु इस चपकन की कलाई तक लम्बी है। हाँ, बूट वास्तव में
आश्चर्यजनक हैं। कहीं किसी स्थल पर इस प्रकार का अन्य उदाहरण इस देश में
1. Fergusson, plate Xliii.
2. Antiquities of Orissa.
प्राप्त नहीं है। 'अमरावती' के तीनों सैनिकों के चित्रा भी प्राय: इसी वेश
में हैं, किन्तु बूट का अभाव है।
अजंता गुफा की चित्रावली में संतो के एक साथ दो चित्र हैं, जिनमें से एक
दाहिने हाथ से एक हाथी का मस्तक स्पर्श कर रहा है और बाएँ में एक पात्र है।
इसके शरीर पर एक पैर तक लंबा वस्त्र पड़ा है, जिसकी बाँहें पूरी और बहुत
ढीली हैं। इन चित्रो के निर्माण का समय ईसवी 5 शताब्दी के लगभग है।
यह बात तो सत्य है कि ऐसे उदाहरण अधिकता से नहीं पाए जाते, किन्तु जो हैं
वे इस विषय पर धा्रुव और संशय-शून्य प्रमाण हैं। इस देश का जलवायु इस
प्रकार का है कि वर्ष में नौ महीने किसी प्रकार का वस्त्र शरीर पर रखना
सुखदायक नहीं है। इस बात का आगन्तुक यूरोपियन भी अनुभव करते हैं। तो क्या
आश्चर्य है कि इस देश के निवासी सामयिक प्रथा के अनुसार जहाँ तक सम्भव
होता, कम ही वस्त्रो का व्यवहार करते थे। यहाँ तक तो पुरुषों के पहनावे का
वर्णन हुआ। अब स्त्रियों के विषय में भी कुछ कहना आवश्यक है।
प्राचीन ग्रंथो में, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, स्त्रियों के कई
भिन्नभिन्न पहनावों का उल्लेख है। किन्तु प्राचीन ग्रंथो और मूर्तियों में
इस विषय में परस्पर विरोध है। मि. फर्गुसन ने इस विषय में कहा है कि
स्त्रियों के पहनावे का वर्णन करना कठिन है। इसका कारण उसका अभाव ही है।
सांची और अमरावती की मूर्तियों में स्त्रियाँ टेहुनी और कलाई में आभूषण
अधिकता से पहिने हैं, गले में माला या हार भी प्राय: है, किन्तु शरीर को
आवृत्ता करने को केवल एक मात्र गजरा कटिप्रदेश के नीचे लपेटा हुआ पाया जाता
है1, और कहीं कहीं वस्त्र नामधारी पुरुषों की धोती के सदृश एक फेंटा भी
देखने में आता है, ईत्यादि।
अब यहाँ पर यह विचार करना है कि इस वेश का इस देश में स्त्रियों में प्रचार
ही था या यह केवल एक साम्प्रदायिक प्रथा उनको इस रूप में प्रदर्शित करने की
थी। मि. फर्गुसन का विश्वास प्रथम ही पर है। किन्तु इस पर हम लोगों को
विश्वास क्यों हो सकता है। ऐसे समय में हिन्दू लोग जब वे सामाजिक उन्नति
में किसी से पीछे न थे, तिमहले मकानों में रहते थे, जैसा कि सांची के
अवशेषों से प्रकट है, गाड़ी और सोने-चाँदी से विभूषित रथों पर निकलते थे,
बने हुए वस्त्र अन्यान्य देशों को भेजते थे, जिनकी वहाँ प्रतिष्ठा होती
थी,तो कब संभव है कि उनकी रानी महारानी केवल एक गजरा या फेंटा धारण किए उन
पर आधिपत्य रखती थीं। 'बौद्ध' और 'हिन्दू' दोनों के धर्मशास्त्र स्त्रियों
को पटावृत रहने का अनुरोधा
1. Tree and serpent worship, 92
करते है। यदि नग्नता इस देश की प्रचलित प्रथा होती तो वह स्त्री और पुरुष
दोनों में समभाव से पाई जाती, किन्तु पूर्वोल्लिखित प्रमाणों के अनुसार यह
सिद्ध नहीं होता। संसार की असभ्य जातियों में पुरुष और बालक बहुधा नंगे
फिरा करते हैं, किन्तु स्त्रियाँ उनकी और कुछ नहीं तो पत्तो ही से अपना
शरीर ढाँकती हैं, सो यह निष्कर्ष इन मूर्तियों से निकालना कि स्त्रियों में
उस समय नग्नता प्रचलित थी, सर्वथा भ्रम-मूलक है।मेरी-जान में तो
प्रतिमाकारों ने उनके शरीर की बनावट ही दिखाने के हेतु उन्हें इस अवस्था
में निर्माण किया है। इसका एक उदाहरण लीजिए अमरावती के उस बृहत् शिलाखंड
में, जो इस समय कलकत्ता के म्यूजियम में है, मायादेवी का चित्र है, जो एक
गद्दे पर सोई हैं, सिरहाने बड़ा तकिया भी है, सेवा में कई शस्त्रधारी पुरुष,
और दासियाँ चँवर लिए खड़ी हैं। किन्तु उनके शरीर पर गजरे के कटिबन्धा के
अतिरिक्त और कुछ नहीं है2। इस प्रकार के उदाहरण मिस्र और यूनान आदि देशों
में भी पाए जाते हैं। अत: यह सिद्ध हुआ कि पुराकाल में उसी प्रकार के
पहनावे प्रचलित थे जो प्राचीन ग्रंथो में वर्णित हैं।
राजाओं के मंत्री और अनुचरगण प्राय: जामा पहनते थे। राजा और सैनिक लोग, जिस
समय उन्हें कवच की कोई आवश्यकता न रहती, एक प्रकार का वस्त्र धारण करते थे
जो आधुनिक चपकन के सदृश होता था। साधारण् जन धोती और चादर ही पर सन्तोष
करते थे। सिर पर एक पगड़ी प्राय: उनके इस वेश को पूर्ण करती थी। स्त्रियों
में 'साड़ी' का ही अधिक प्रचार था। प्रतिष्ठित घर की स्त्रियों में 'घाघरा'
और कुर्ती और कभी कभी ऊपर से अंगिया भी धारण करने की रीति थी। जब वे कहीं
बाहर जातीं तो इन सबके ऊपर एक चादर भी डाल लेती थीं।
यह हम मानते हैं कि बंगाल इत्यादि प्रान्तों में अधिकांश दर्जी समूह
मुसलमान हैं (कदाचित् इसी बात ने मिस्टर हैमिल्टन को भ्रांति में डाला हो)
किन्तु यह सर्वत्र घटित नहीं होता।
मिस्टर शेरिंक्ष् (Mr. Sherring)3 का कथन है कि इस देश में मुसलमान
दर्जियों के अतिरिक्त बहुत से नीच हिन्दू भी इस व्यवसाय के अनुगत हैं, जो
कि सात जातिओं में विभक्त हैं(1) स्त्री वास्तक, (2) नामदेव, (3) तांचार,
(4) धानेश, (5) पंजाबी, (6) गौड़, (7) कण्टक, और एक आठवीं जाति ताक्लेरी भी
बनारस में पाई जातीहै।
(सरस्वती, दिसंबर, 1902 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]
1. नानुक्ता गृहान्निर्गच्छेत, नानुत्तारीया न त्वरितं ब्रजेत, न पर पुरुषं
भाषेतान्यत्रा वृद्धवैर्ंभ्यि: न नाभिन्दर्शयेत आगुल्फाद्वास: परिदध्यात न
स्तनौ विवृतौ कर्य्यात। इति शद्म:ड्ड नाग्निं मुखेनोपधामेन्नग्नां नेक्षेत
च स्त्रिायं॥ मनु. 4-53॥
2. Tree and serpent worship. 92.
3. Hindu Castes and Tribes of Benares.
क्वडॉक्टर राजेन्द्रलाल मित्रा के लेख के आधार पर लिखा गया लेख।
हुएन-सांग
बहुतेरे पाठक इस विचित्र अक्षर योजना से चकित होंगे। पर इतिहास के प्रेमी
इस नाम से अपरिचित नहीं हैं, वे भलीभाँति यह जानते होंगे कि भारतवर्षीय
इतिहास के घोर तिमिराच्छन्न क्षेत्रो के बीच यह उन प्रकाश की ज्योतियों में
से सबसे उज्ज्वल है जो अपनी निकटवर्ती वस्तुओं को स्पष्ट और प्रकाशित करती
है। इसी दृढ़ प्रतिज्ञ, उन्नताशय और साहसी चीनी यात्री की कृपा से हम इस देश
की सातवीं शताब्दी की सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक अवस्था का थोड़ा बहुत
ज्ञान सम्पादन कर सकते हैं। लज्जा के साथ कहना पड़ता है कि पुरातत्ववेत्ताओं
को इस भारतवर्ष में सच्चा पथ प्रदर्शक और सहायक अंत में ढूँढ़ते ढूँढ़ते यही
विदेशी मिला। हम लोग केवल इस महानुभाव ही के नहीं, वरन् उस जाति के और उस
भूमि के जिसमें उसने जन्म ग्रहण किया, अनुगृहीत हैं। यह पुरुष कौन था, किस
अभिप्राय से और किन किन कठिनाइयों के उपरान्त वह यहाँ तक आया, इन बातों के
जानने की इच्छा रखना भारतवासी मात्र का परम धर्म और कर्तव्य है। यदि इस
कर्तव्य के पालन से, जिसमें बहुत ही कम परिश्रम है, वे विमुख रहें तो इससे
या तो उनकी अल्पज्ञता प्रकट होगी या घोर कृतघ्नता। यदि वह बेचारा श्रामण
अपने जन्म स्थान को कई सहस्र कोस दूर न छोड़ता तो कान्यकुब्ज, कौशाम्बी और
पाटलिपुत्र इत्यादि नगरों की लम्बाई, चौड़ाई, जनसंख्या और रीति व्यवहार आदि
का इस उत्तमता के साथ कौन पता देता? हम भारतवासी इस उपकार को कभी नहीं भूल
सकते।
ढाई हजार वर्ष से ऊपर हुए कि इस देश की सामाजिक और धार्मिक अवस्था से
असंतुष्ट होकर, पशुओं के आत्मानंद पर करुणा करके भगवान् बुद्धदेव ने इस
भूमि पर अवतार लिया। हिन्दू समाज की वर्तमान पतित अवस्था का सूत्रपात उस
समय हो चुका था। उच्च वर्ण का मिथ्या अभिमान लोगो के चित्त में भर रहा था।
ईश्वर, देवी और देवताओं के अवलंब पर लोग न जाने कितने कुत्सित कर्म कर
डालते थे। गौतम ने एक नए मत का उपदेश देना आरम्भ किया। सबसे पहले तो
उन्होंने वर्णभेद का ही तिरस्कार किया और मनुष्यों की स्वाभाविक समानता के
विषय में शिक्षा दी। इससे पहले निम्नवर्ग के लोग ही, जो द्विजों के द्वारा
पददलित किए जाते थे, इस ओर झुके। बौद्धमत निरीश्वरवादी है। विचार करने से
जान पड़ता है कि इस प्रकार के विश्वास की उस समय गौतम को आवश्यकता देख पड़ी
थी। ईश्वर का नामोच्चारन् करके, किसी देवता की आराधानापूर्वक उससे क्षमा
माँगकर, लोग निज कृत दुष्कर्मो के परिणाम से अपने को मुक्त मान लेते थे।
इसलिए बुद्ध ने ईश्वर या किसी अन्य देव विषयक विचार का मूलोच्छेद करना ही
कल्याणकारी समझा। उन्होंने लोगों से कहा कि किए हुए कर्मो के फल से निस्तार
करनेवाला कोई नहीं। यज्ञ, हवन, बलिदान आदि से कुछ लाभ नहीं। गौतम के मत का
अभिप्राय सदाचरण की शिक्षा थी।
मगध देश के राजा अशोक के समय में (570 वर्ष ई.पू..) इस धर्म की बड़ी उन्नति
हुई। इस मत के प्रचारार्थ न केवल समस्त भारतवर्ष ही में, वरन् अन्य दूर दूर
देशों में भी उपदेशक भेजे गए। उन देशों के निवासियों को अपने प्रचलित मत के
सामने यह एक अत्यंत ही उन्नत और उदार धर्म देख पड़ा। दूसरी ओर तीसरी शताब्दी
के लगभग, बौद्ध मत ने केवल सारे भारतवर्ष ही को नहीं आच्छादित कर लिया,
वरन् चीन, तिब्बत, मंचूरिया, तुर्किस्तान, ब्रह्मा, सिंहलद्वीप आदि देशों
में भी उसका डंका बजा। प्राचीन काल में बहुत दिनों तक भारतवर्ष इन देशों
का, और मुख्यत: चीन का, तीर्थस्थान रहा। झुंड के झुंड चीनी यात्री इस
पुण्यस्थल में आते और भगवान् शाक्य मुनि की जन्मभूमि का दर्शन कर अपने को
कृत कृत्य मानते। खि-नी, फा-हियान, संग-यून, हुएन-सांग आदि इन्हीं चीनी
तीर्थयात्रियों के नाम हैं। इन सबमें सबसे ऊँचा आसन हमारे चरित्र नायक
धर्मवीर हुएन-सांग ही का है।
हुएन-सांग का जन्म चीन देश के एक नगर में एक ऐसे समय में हुआ जब चीनी राज्य
में शत्रुओं के भय से एक प्रकार की हलचल-सी पड़ी थी। उसके पिता ने इन्हीं सब
उपद्रवों से विवश होकर राजाश्रय छोड़ दिया था और अपना सारा समय अपने चार
पुत्रो की धर्मशिक्षा में लगाता था। इनमें से दो ने, जिनमें से एक हमारे
चरित्रा नायक हैं, बहुत शीघ्र प्रसिध्दि लाभ की। बालक हुएन-सांग शिक्षा के
हेतु एक बौद्ध मठ में बैठाया गया, जहाँ पर उसने होनहार होने के कई लक्षण
दिखलाए। आवश्यक शिक्षा के उपरान्त, जिसमें उसको अपने बड़े भाई से बहुत
सहायता मिली, वह तेरह वर्ष की छोटी अवस्था में बौद्ध संन्यासियों की मंडली
में सम्मिलित कर लिया गया। सात वर्ष तक तो यह युवक संन्यासी अपने बड़े भाई
के साथ चीन के प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानों में उस समय के विख्यात
धर्माचार्यों के उपदेश सुनने के निमित्त भ्रमण करता रहा। युद्ध का हाहाकार
समय समय पर उसके एकान्त अध्ययन में बाधा डालने लगा। यहाँ तक कि उसको राज्य
के अत्यंत दूर स्थित भागो में शरण लेना पड़ा। उसके सदाचरण और उसकी गंभीरता
के कारण उसकी बहुत प्रतिष्ठा होने लगी। केवल बीस ही वर्ष की अवस्था में वह
धर्मोपदेशक के पद पर नियुक्त हुआ।
उसके अगाधा पांडित्य की चर्चा इसके पहले ही दूर दूर तक फैल चुकी थी। वह
बौद्धो के मुख्य मुख्य धर्म ग्रंथो का अध्ययन कर चुका था, बुद्ध के जीवन
वृत्तान्त से अच्छी तरह जानकार हो चुका था और अध्यात्म्य के गूढ़ तत्वों को
भी छान चुका था। उसने कनफ्यूशियस और लाओस के सिद्धांतो को भी मनोनिवेश
पूर्वक विचारा था। परन्तु इतने पर भी उसका चित्त शंकाओं से विचलित रहा करता
था। छह वर्ष तक तो वह चीन के प्रसिद्ध प्रसिद्ध विद्यापीठों में घूमता रहा।
पर जहाँ कहीं वह शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाता वहाँ स्वयं उसी को शिक्षक
होना पड़ता। जब उसने देखा कि उस देश के बड़े बड़े धुरंधर आचार्य भी उसकी
शंकाएँ निवारण नहीं कर सकते, तब उसने परम पावन पुण्य भूमि भारतवर्ष की
यात्रा का दृढ़ संकल्प किया।
पाठक! उसी भारतवर्ष को, जहाँ से किसी समय में भूमंडल की सभ्य जातियों को
सदाचरण और धर्म की शिक्षा मिलती थी, आज काल ने दारिद्रय, अज्ञान और मूर्खता
के हाथ व्यय कर दिया है। चीन, जापान, ब्रह्मा, सीलोन, तिब्बत, स्याम आदि
देशों के निवासियों के परम पूज्य धार्माचार्य का जन्मस्थान यही पावन भूमि
है। इसी नाते से जापान आज भारतवासियों को शिल्प शिक्षा में सहायता देने के
लिए उद्यत है; इसी नाते से आज सीलोन के धार्मिष्ठ धर्मपाल जी काशी में यहाँ
वालों के हित साधान की इतनी चेष्टा कर रहे हैं।
फा-हियान, सक्ष्-यून आदि प्राचीन यात्रियों के कार्य और वृत्तान्त से
हुएन-सांग जानकार था। वह इस बात को निश्चयपूर्वक जानता था कि भारतवर्ष में
उसको उन मूल संस्कृत ग्रंथो का पता लगेगा जिनके चीनी अनुवाद ने उसके चित्त
में इतनी शंकाएँ छोड़ रखी हैं। यद्यपि उसने इस लम्बी यात्रा की आपत्तियों को
भी सुना पर उस धीर प्रकृति महानुभाव ने कहा, ''वह धर्मशास्त्र जो प्राणियों
का पथप्रदर्शक और उनकी मुक्ति का उपाय है, उसका उद्धार बहुत ही वांछनीय
है''। परोपकार करने की लालसा इसको कहते हैं। किन्तु उस समय बिना चीन सम्राट
की आज्ञा प्राप्त किए किसी को देश से बाहर जाने का अधिकार न था। कई और
बौद्ध-संन्यासियों के साथ उसने सम्राट के पास इस यात्रा की आज्ञा पाने के
लिए विनय पत्र भेजा। आज्ञा नहीं मिली। उसके साथियों का तो सब उत्साह यहीं
पर जाता रहा, पर हुएन-सांग का नही। यह कारण इतना बड़ा नहीं था कि उसका व्रत
भक्ष् कर दे। सांसारिक वासनाओं को तो वह पहले ही परित्याग कर चुका था। इससे
समस्त आपत्तियों और विघ्नों का सामना करने और जीवन को एक ऐसे कार्य में
निछावर कर देने के लिए, जो उसका मुख्य हेतु है, वह बाद्धपरिकर हो गया। 629
ई. में उसने बिना राजाज्ञा ही अपना देश छोड़ा और भारत के लिए प्रस्थान किया।
वह पोतनद, हयक्ष्-हो, होते हुए उस स्थान पर आ पहुँचा जहाँ भारतवर्ष की ओर
आनेवाले यात्री एकत्रित होते थे। यद्यपि यहाँ के हाकिम की आज्ञा थी कि कोई
मनुष्य चीनी सीमा के उस पार न जाने पावे, पर हुएन-सांग अपने सहधर्मियों की
सहायता से चीनी रक्षकों की ऑंख बचाकर निकल गया। उसके पीछे गुप्तचर छोड़े गए।
वह हाकिम के सामने उपस्थित किया गया। हाकिम उसकी प्रतिज्ञा की दृढ़ता और
उसका धार्मिक उत्साह देखकर दंग रह गया और विवश होकर उसने उसको आगे बढ़ने की
आज्ञा दे ही दी। सच है, उत्तम प्रकृति का प्रभाव ऐसा ही होता है।
इस समय तक तो उसके और साथी थे, पर यहीं पर उन्होंने उसका संग छोड़ दिया।
हुएन-सांग अब अकेला नि:सहाय रह गया। किन्तु इतने पर भी उसका साहस न डिगा।
दूसरे दिन प्रात:काल एक मनुष्य उससे मिला जो उसका मार्ग प्रदर्शक हो गया।
थोड़ी दूर तक तो इस व्यक्ति ने यात्री को सकुशल पहुँचा दिया, पर जब
रेगिस्तान निकट आया तब यह भी नौ-दो-ग्यारह हुआ। कठिनाई के समय में साथ देने
वाले इस संसार में विरले ही मिलते हैं। अभी चीनी राज्य के पाँच और रक्षा
दुर्ग तय करने को बाकी थे। सामने विस्तृत रेगिस्तान फैला पड़ा था जिसमें
सिवाय घोड़ों की टाप के चिन्ह और मनुष्यों की खोपड़ियों के और कोई दूसरा
मार्ग का चिन्ह उपलब्ध न था। यात्री ने शाक्यमुनि का स्मरण करते हुए इस
कठिन मार्ग पर पैर रखा।
यद्यपि वह मार्ग में कई बार इधर-उधर भटका, पर अंत में किसी न किसी तरह पहले
दुर्ग तक पहुँच गया। यहाँ पर रक्षकों के बाणों ने उसके जीवन और उसकी
अभिलषित यात्रा का अंत कर दिया होता, पर रक्षकों का नायक स्वयं एक धर्मिष्ठ
बौद्ध था। उसने इस विलक्षण साहसी श्रामण को आगे बढ़ने की आज्ञा दी और आगे
आनेवाले दूसरे दुर्गों के रक्षकों के नाम भी पत्र लिख दिए। तीन दुर्ग तो
उसने किसी न किसी प्रकार पार किया। परन्तु उसने सुना कि अन्तिम दुर्ग के
रक्षकों को किसी प्रकार अर्थ व शिक्षा द्वारा राह पर लाना कठिन है। उनकी
दृष्टि बचाने के लिए हुएन-सांग को बड़ा लम्बा चक्कर काटना पड़ा। वह एक दूसरे
ही रेगिस्तान से होकर चला। वहाँ जाकर वह अपना मार्ग भूल गया। गहरी विपत्ति
का सामना हुआ। यहीं तक बस नहीं, वह पात्र जिसमें वह पीने के जल भरे हुए था
फट गया। यही निश्चय होने लगा कि इसी रेगिस्तान में जल के लिए तरस-तरस कर
उसको प्राण देना होगा। अबकी बार उसके संकल्प की बड़ी ही तीव्र परीक्षा हुई।
हुएन-सांग ऐसे दृढ़चित्त मनुष्य का भी साहस थोड़ी देर के लिए छूट गया। निराश
होकर वह पीछे की ओर लौटने लगा। थोड़ी दूर गया होगा कि वह सहसा रुक गया और
अपने को इस प्रकार धिक्कारने लगा, ''हाँ! मैंने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक
भारतवर्ष न पहुँचूँगा, एक पैर पीछे न रखूँगा। तो फिर मैं यहाँ तक आया
क्यों? पश्चिम की ओर बढ़ते हुए मर जाना अच्छा है पर पूर्व की ओर लौट जाना और
जीवित रहना अच्छा नहीं''। धन्य है साहस! धर्म की मर्यादा की रक्षा ऐसे ही
लोगों के द्वारा हो सकती है।
चार दिन और चार रात वह रेगिस्तान के बीच बिना एक घूँट जल के सफर करता रहा।
अपने धर्म के विनय कांड के वाक्यों ही से वह अपने चित्त को ढाँढ़स देता था।
पर ऐसे धर्म के वाक्यों से कितनी शान्ति मिल सकती है जो यह सिखलाते हैं कि
कोई ईश्वर नहीं, कोई सृष्टिकर्ता नहीं, कोई सृष्टि नहीं है क्या? केवल मन!
हमारा यात्री फिर आगे की ओर बढ़ा और अंत में एक बड़ी झील के किनारे आ पहुँचा।
इस समय वह तातारियों के देश में था। इन लोगों ने उसका बड़े आदर के साथ
स्वागत किया। एक तातारी खाँ, जो एक धर्मिष्ठ बौद्ध था, हमारे यात्री को
अपने यहाँ ले गया और अपने देश के लोगों को उपदेश देने के निमित्ता ठहरने के
लिए आग्रह करने लगा। किन्तु किसी तरह यह दृढ़प्रतिज्ञ महानुभाव इस पर सहमत न
हुआ। बिना शान्तिप्रदायिनी भारतवर्ष की पुण्यभूमि तक पहुँचे उसको विश्राम
कहाँ? इस पर ख़ाँ ने उसको बलात् रोक रखने का लक्षण प्रकट किया। ख़ाँ का यह
भाव देखकर उस महात्मा ने कहा, ''मैं जानता हूँ कि सम्राट अपने अतुल प्रताप
के रहते भी मेरे मन और इच्छा पर प्रभुत्व नहीं रखते''। उसने भोजन इत्यादि
सब छोड़ दिया। तीन दिन तक वह इस प्रकार पड़ा रहा, अंत में खाँ ने इसका परिणाम
अच्छा न देखकर सन्यासी को उसकी इच्छानुसार कार्य करने की आज्ञा दी।
हुएन-सांग ने वचन दिया कि मैं भारतवर्ष से लौटते समय यहाँ तीन वर्ष तक
रहूँगा और आपकी इच्छा पूर्ण करूँगा। एक महीने तक वह तातार देश में रहा।
वहाँ का ख़ाँ और उसके दरबारी नित्य अपने पवित्र अतिथि का उपदेश सुनने को आते
थे।
यहाँ से हमारा यात्री बहुत से लोगों के साथ, 24 राजाओं के नाम जिनके राज्य
में से होकर उसको यात्रा करनी पड़ी थी, पत्र लेकर चला। मार्ग उसी स्थान से
होकर गया था जिसे आजकल संगरी (Dsungary) कहते हैं, अर्थात् वह मसूर दबगन,
बेलूरटाग पर्वत, यक्सर्टज की घाटी, बलख़ और काबुलिस्तान होता हुआ चला । हम
उन सब स्थानों का, जिनसे होकर वह गया, यहाँ विवरण नहीं दे सकते, यद्यपि उन
स्थानों का और उनके निवासियों का, जो मार्ग में मिले, उसने बड़ा ही सुन्दर
वर्णन किया है। मसूर-दबगन पहाड़ का वह इस तरह वर्णन करता है:-
''पहाड़ों की चोटियाँ आकाश से बातें करती हैं। सृष्टि के आरम्भ से यहाँ पर
हिम एकत्र हो रही है और अब बर्फ की लम्बी-लम्बी चट्टानों के रूप में हो गई
है, जो ग्रीष्म और वसन्त में भी नहीं पिघलती। कठोर और चमकीली बर्फ की
चादरें, जहाँ तक देखिए, बिछी हुई दिखाई पड़ती हैं। यदि कोई उनकी ओर देखता है
तो चमत्कार से ऑंखों में चकाचौंधा होने लगती है। मार्ग के दोनों किनारों पर
जमी हुई चोटियाँ आकाश में लटकती हैं, कोई कोई तो इनमें से 100 फीट ऊँची और
20 या 30 फीट मोटी हैं। यात्री बिना कठिनाई के इन पर से चढ़कर नहीं पार कर
सकता। इसके सिवा प्रचंड ऑंधी और बर्फ की बौछार यात्रियों पर आक्रमण करती
हैं। दोहरे जूते और मोटे पशमीनों से ढका रहने पर भी यात्री बिना काँपे नहीं
रह सकता''।
ऐसे कठिन मार्ग से होकर हमारे यात्री को चलना पड़ा। सात दिन में उसने इस
बर्फिष्स्तान को तय किया। इतने में इसके चौदह साथी छूट गए।
फर्गाना, समरकष्न्द, बोखारा और बलख़ आदि मध्य एशिया के प्रधान-प्रधान नगर
उसके रास्ते में पड़े। हुएन-सांग ने यहाँ के निवासियों की सभ्यता का बहुत
कुछ पता दिया है। बौद्ध धर्म ही का प्रचार इन स्थानों में उस समय विशेष था।
केवल कहीं-कहीं बैक्ट्रियन रीति के अनुसार अग्नि पूजा भी होती थी।
यह यात्री काबुल की राह से हिन्दुस्तान में आया था। जिन-जिन हिन्दू राज्यों
में वह गया, वहाँ का हाल उसने बड़े विस्तार के साथ लिखा है। पहले उसे नगरहार
का राज्य मिला। यह नगरहार जलालाबाद की निकटस्थ भूमि की राजधानी थी। बौद्ध
धर्म के ही माननेवाले इस राज्य में अधिक बसते थे, किन्तु हिन्दू धर्म का भी
प्रचार था।
नगरहार से आगे चलकर फिर वह गांधार देश में आया, जिसकी राजधानी
पौ-लौ-च-पौ-लौ, अर्थात् संस्कृत पुरुषपुर और आधुनिक पेशावर थी। यहाँ
पहुँचने पर उसने एक विचित्र गुफा का हाल सुना जहाँ पर भगवान् बुद्धदेव ने
एक राक्षस को मंत्र दिया था। उस समय यह बात प्रसिद्ध थी कि मंत्र देने के
उपरान्त बुद्ध ने इस नए शिष्य के पास अपनी छाया छोड़ जाने का वचन दिया था
जिसमें जब कभी उसका राक्षसी स्वभाव जागृत हो तब अपने गुरु की छाया मूर्ति
देखकर उसको अपने पूर्व संकल्पों का स्मरण हो आए। यह वचन पूरा हुआ और बुद्ध
की छाया का दर्शन इस गुफा में होने लगा। तभी से यह गुफा एक तीर्थस्थान हो
गई और चारों ओर से लोग यहाँ आने लगे। हुएन-सांग इस स्थान को देखने के लिए
बहुत आकुल हुआ, पर उसने लोगों से सुना कि उस गुफा का मार्ग बड़ा ही भयानक
है, लुटेरों का वहाँ सदा भय रहता है। किसी-किसी ने यह भी कहा कि तीन वर्ष
से जो यात्री उस गुफा में गया वह फिर नहीं लौटा। इन सब बातों को सुनकर
हमारे धर्मवीर यात्री ने ये भक्तिनिर्भर वाक्य कहे, ''लक्ष्य कल्प में भी
भगवान् बुद्ध की प्रत्यक्ष छाया का दर्शन पाना दुर्लभ है। मैं कैसे इतनी
दूर आकर बिना उसकी पूजा किए हुए चला जाऊँ?''। उसने अपने साथियों को तो छोड़
दिया और मार्ग प्रदर्शक की खोज में लगा। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उसको एक लड़का मिला
जो उसे पास के एक खेत में ले गया। यह खेत एक मठ के निकट था। यहाँ पर उसे एक
वृद्ध पंडा मिला जो गुफा तक उसके साथ चलने के लिए तैयार हो गया। ये लोग
थोड़ी ही दूर गए होंगे कि पाँच लुटेरों ने इन पर आक्रमण किया। संन्यासी ने
अपना रंगीन वस्त्र दिखलाया।
एक लुटेरे ने पूछा- स्वामी आप कहाँ जाते हैं?
हुएन-सांग ने उत्तार दिया- ''मैं बुद्धदेव की छाया की अराधाना करने की
कामना रखता हूँ।''
लुटेरे ने फिर कहा- ''स्वामी! क्या आपने नहीं सुना है कि यह रास्ता लुटेरों
से भरा हुआ है?''
हुएन-सांग ने गम्भीरता से उत्तार दिया- ''लुटेरे भी मनुष्य हैं। इस समय, जब
मैं बुद्ध की छाया की पूजा के निमित्ता जाता हूँ, तब यदि मार्ग हिंसक
जन्तुओं से भी पूर्ण हो तो भी मुझे निर्भय चला जाना चाहिए। निश्चय मुझको
तुमसे न डरना चाहिए क्योंकि तुम मनुष्य हो, तुम्हारे चित्त में कुछ भी तो
दया होगी।''
लुटेरों की ऑंख इस बात से खुल गई और उन्होंने उसी दिन से सन्मार्ग पकड़ा।
इस घटना के उपरान्त हुएन-सांग अपने पंडे के साथ आगे बढ़ा। वह दो ऊँची
चट्टानों के बीच में से होकर वेग के साथ बहते हुए एक झरने के पास आया। यहीं
पर एक ओर चट्टान में उसको एक द्वार दिखाई पड़ा जो तुरन्त खुल गया। इसके भीतर
घोर अन्धकार था। पर हुएन-सांग ने इसमें निर्भयतापूर्वक प्रवेश किया और वह
पूर्व की ओर बढ़ा, फिर पचास कदम पीछे हटकर उसने अपनी अराधाना आरम्भ की। उसने
सौ दण्ड प्रणाम किए। परन्तु कुछ दिखाई न पड़ा। इस पर वह व्यतीत दुष्कर्मो के
कारण अपने को बहुत धिक्कारने और करुणा के साथ रोने लगा। बहुत प्रार्थना और
विनय के उपरान्त उसको दीवार पर एक धुँधला प्रकाश दिखलाई पड़ा, जो थोड़ी ही
देर के बाद फिर लु्प्त हो गया। हर्ष और प्रेम से गद-गद होकर वह फिर
प्रार्थना करने लगा। पुन: उसको प्रकाश की एक ज्योति दिखलाई पड़ी जो विद्युत्
की नाईं प्रगट होकर फिर अंतर्धान हो गई। श्रामण ने अबकी बार उत्साहित होकर
प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं भगवान् बुद्ध की स्पष्ट छाया का दर्शन न पाऊँगा
तब तक इस स्थान को कदापि परित्याग न करूँगा। दो सौ बार जप के समाप्त होते
ही वह गुफा सहसा प्रकाश से जगमगा उठी और भगवान् तथागत की एक स्वच्छ
श्वेतवर्ण छाया दीवार पर इस तरह दिखाई पड़ी जैसे मेघों के यका-यक हट जाने से
प्रभाकर का दीप्तिमान् मण्डल निकल आता है। उसके मुख से एक अलौकिक तेज छिटक
रहा था। हुएन-सांग आश्चर्यचकित हो गया और स्तब्धा नेत्रो से उसी ओर देखने
लगा। जब सन्यासी का ध्यान भंग हुआ तब उसने छह आदमियों को गुफा के भीतर
बुलाया और अग्नि प्रज्वलित करके देने की आज्ञा दी। किन्तु अग्नि का प्रकाश
होते ही जब वह छाया लुप्त होने लगी तब आग बुझा दी गई। पाँच आदमियों को तो
बुद्ध की छाया का दर्शन हुआ, पर छठवें को नहीं। वह वृद्ध मनुष्य जो
हुएन-सांग के साथ आया था, यह सब देखकर बोला, ''स्वामी! बिना धर्म और संकल्प
की दृढ़ता के आपको यह लीला कदापि न दिखाई पड़ती।''
यह तो पेशावर की बात हुई। पौलुश नामक नगर के निकट हमारा यात्री एक ऊँचे
पहाड़ पर गया। वहाँ एक नीले शिलाखंड में भीमा देवी (दुर्गा) की मूर्ति खुदी
थी। दूर दूर से लोग यहाँ दर्शन के लिए आते थे। पर्वत के नीचे एक महेश्वर का
मन्दिर था। यहाँ से फिर वह सलातूर गया जो प्रसिद्ध व्याकरण पाणिनि की
जन्मभूमि थी।
नगरहार और गान्धार दोनों देश उस समय कपिश (हिन्दूकुश के पास) के राजा के
अधीन थे।
इन स्थानों को देखता भालता, सिन्धु नदी को पार करता हुआ हमारा यात्री
काश्मीर की ओर बढ़ा। वह लिखता है कि, ''मार्ग पथरीले और ढलुये हैं, पर्वत और
घाटियाँ अँधेरी और सुनसान हैं। कभी हम लोगों को रस्सी और कभी लोहे की जंजीर
पकड़कर दर्रों को पार करना पड़ता है''। काश्मीर राज्य के अंतर्गत तक्ष्शिला
नगर सिंहपुर में वह पहुँचा। सिंहपुर में उसे श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन
दिखाई पड़े। काश्मीर के संबंध में हमारा यात्री कनिष्क राजा का भी नाम लेता
है जो 78 ई. में काश्मीर में राज करता था। जिस रास्ते हुएन-सांग जाता, लोग
उसकी ओर उँगली उठाते और कहते, ''यह मनुष्य हमारे पूर्व नृपति (कनिष्क) के
देश का निवासी है।'' चीनी लोग इस देश में शफष्तालू और नाशपाती लाए थे। इससे
उस समय लोग ''शफष्तालू को चीनानि और नाशपाती को चीन राजपुत्र कहते थे।''
काश्मीर से शतद्रु और शूरसेन (मथुरा) राज्य होता हुआ यह विदेशी थानेश्वर
आया, जिसकी राजधानी कुरुक्षेत्र के निकट थी। इस भूमि के संबंध में वह
महाभारत की लड़ाई का ज़िक्र करता है और लिखता है, ''यहाँ भयंकर संग्राम हुआ
था, तब से आज तक यह मैदान योद्धाओं की हड्डियों से ढका पड़ा है।''
हरिद्वार में आकर हमारे यात्री ने गंगा का दर्शन किया। ''भारतवर्ष के लोग
इसे गंगाद्वार कहते हैं। यहाँ हजारों आदमी सदैव दूर-दूर से आकर स्नान करने
के लिए एकत्रित रहते हैं।'' यह उसका कथन है।
ब्रह्मपुर (गढ़वाल और कुमाऊँ) होकर वह भारतवर्ष की विख्यात राजधानी
कान्यकुब्ज में आया। यहाँ का राजा उस समय महाप्रतापी द्वितीय शिलादित्य था।
यह वही शिलादित्य है जो रत्नावली का रचयिता हर्षवर्धन व श्रीहर्ष के नाम से
प्रसिद्ध है। उत्तरी भारतवर्ष के सब राजा इसके आधीन थे। इसकी प्रवृत्ति
बौद्धधर्म की ओर थी। इसने पशुओं के वध का निषेधाज्ञा किया, जगह-जगह स्तूप
बनवाए और औषधालय स्थापित किए। हर पाँचवें बरस बड़े समारोह के साथ वह एक
उत्सव करता था जिसमें देश-देश के राजा और देश-देश के विद्वान् और गुणी
बुलाए जाते थे। जिन दिनों इस उत्सव की तैयारी हो रही थी हमारा यात्री उस
समय कामरूप के ब्राह्मण राजा कुमार भास्कर वर्मा के साथ प्रसिद्ध विद्यापीठ
नालन्दा में ठहरा था। शिलादित्य ने कुमार के पास यह आज्ञापत्र भेजा, ''मैं
चाहता हूँ कि आप तुरन्त उस विलक्षण श्रामण के साथ, जिसे आपने नालन्दा के मठ
में टिकाया है, आइए''। आज्ञा पाते ही हुएन-सांग शिलादित्य के यहाँ लाया
गया। शिलादित्य ने यात्री से उसकी देश संबंधी बहुत सी बातें पूछीं और उनका
उत्तर पाकर वह बहुत प्रसन्न हुआ।
हुएन-सांग भी इस बड़े उत्सव में सम्मिलित हुआ। इसमें बुद्धदेव की प्रतिमा को
स्वयं शिलादित्य महाराज अपने कन्धो पर ले के निकले। 21 दिन तक ब्राह्मणों
और श्रामणों को समानरूप से भोज दिया गया। बौद्धो और वैदिकों में मित्र भाव
से शास्त्रार्थ हुआ। महाराज ने सोना, चाँदी, मोती आदि लुटाया। इस वर्णन से
जाना जाता है कि 7वीं शताब्दी में हिन्दू और बौद्ध परस्पर प्रेमभाव से रहते
थे। राजा दोनों धर्मों पर समान आदर की दृष्टि रखता था।
अयोध्या, ह्यमुख इत्यादि नगर होता हुआ हमारा यात्री प्रयाग पहुँचा। वहाँ
उसे बौद्धमत का कुछ भी आदर न देख पड़ा। हुएन-सांग उस अक्षयवट का उल्लेख करता
है जिसका दर्शन आज भी लाखों यात्री प्रयाग में जाकर करते हैं। आगे चलकर वह
लिखता है, ''दोनों नदियों के संगम पर, नित्य सैकड़ों लोग नहाते और
प्राणत्याग करते हैं। इस देश के लोग समझते हैं कि जो स्वर्ग में जाना चाहे
वह (यहाँ आकर) एक चावल खाकर व्रत करे और फिर अपने को जल में डुबो दे''। नदी
के बीच में एक ऊँचा चबूतरा बना था, जिस पर खड़े होकर लोग डूबते सूर्य की ओर,
जब तक वह अस्त न होता, ताकते थे।
कौशाम्बी, श्रावस्ती, कपिलवस्तु (बुद्ध का जन्मस्थान) और कुशीनगर (यहीं पर
बुद्ध को निर्वाण हुआ था) होता हुआ वह पो-लो-ना-ई अर्थात् बनारस में आया।
यहाँ के मृगाराम और स्तूपों का उसने बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है।
उत्तारी भारतवर्ष के प्रधान-प्रधान नगरों में घूमता-घामता वह बौद्धो के
केन्द्र स्थान मगध देश में आ पहुँचा। यहाँ पर वह पाँच वर्ष रहा। यहीं पर
उसको अपने अभिलाषित कार्य को पूरा करने का समय मिला, यहीं पर आकर उसको
परोपकार साधन का मार्ग सुलभ हुआ। नालन्दा के मठ में रहकर उसने उस समय के
विख्यात आचार्यों से संस्कृत के मूल ग्रंथो को पढ़ा। बहुत से संस्कृत ग्रंथो
का, जिनका नाम तक उसके देशवासियों ने नहीं सुना था, उसने संग्रह किया। यहाँ
उसकी सब शंकाएँ दूर हुईं, उसके चित्त को शान्ति मिली।
यहाँ से चलकर वह हिरण्य-पर्वत (मुंगेर), चम्पा (अंग की प्राचीन राजधानी),
पुंड्र, समतत, ताम्रलिप्ति, कर्ण सुवर्ण और उड्र (उड़ीसा) होता हुआ दक्षिण
की ओर बढ़ा। कान्योधा, कलिंग, धानकटक, चोल, द्राविड़ (कांचिपुर) आदि दक्षिण
के राज्यों से होकर वह मालावार के किनारे पहुँचा। वहाँ से भारतवर्ष की पूरी
परिक्रमा करते हुए वह फिर उत्तर की ओर चला। मार्ग में उसने कोंकण और
महाराष्ट्र देश को देखा। महाराष्ट्र देश के निवासियों के विषय में वह लिखता
है, ''अपने उपकारी के वे कृतज्ञ हैं, पर अपने शत्रु के लिए दुर्दमनीय। यदि
वे तिरस्कृत किए जाते हैं तो बदला लेने के लिए अपने प्राण तक को कुछ नहीं
समझते। उनका राजा जाति का क्षत्रिय है, उसका नाम पुलकेशी है। इस समय
शिलादित्य ने पूर्व से पश्चिम तक की सब जातियों को विजय किया है, पर केवल
इस देश के लोगों ने ही उसकी अधीनता नहीं स्वीकार की है''। इसी पुलकेशी के
वंशधर ने हजार वर्ष बाद भी दिल्लीपति औरंगजेब के नाकोंदम कर डाला।
मालवा, गुजरात, सिन्ध आदि देशों में घूम-घाम कर हमारा यात्री फिर उत्तरी
हिन्दुस्तान में आया, और मगध देश को लौटकर अपने पुराने मित्रो के साथ कुछ
दिन तक रहा।
इस देश की सातवीं शताब्दी के रीति-रिवाज के विषय में भी इस यात्री ने बहुत
कुछ लिखा है। जन-साधारण के पहनावे के विषय में उसने लिखा है कि, बने और
सिले हुए वस्त्रो का यहाँ व्यवहार नहीं था, ''स्त्रियों का पहिरावा ज़मीन तक
लटकता है। वे अपने कन्धो को भली-भाँति आवृत रखती हैं। वे सिर पर एक छोटा सा
केश गुच्छ रखती हैं और बाकी बाल बिखराये रहती हैं। पुरुष अपने सिर पर फूलों
की माला और रत्नों से गुथी हुई टोपियाँ पहनते हैं।''
ब्राह्मण और क्षत्रिय अपना वस्त्र बहुत स्वच्छ रखते थे। भोजन के पहले सब
लोग स्नान व पद प्रक्षालन करते थे। काष्ठ व पत्थर के बर्तन व्यवहार के
उपरान्त फेंक दिए जाते थे। भोजनोपरान्त लोग खरिका करते, और हाथ मुँह धोते
थे।
बहुत बरसों के उपरान्त इस यात्री ने अपनी जन्मभूमि की सुधा ली। वह फिर
पंजाब, काबुलिस्तान और बलख होता हुआ आक्सस नदी के किनारे पहुँचा। काशगर,
यारकष्न्द और खुतन आदि मध्य एशिया के मुख्य-मुख्य नगरों में कुछ काल रहकर
अंत में सोलह वर्ष की लम्बी यात्रा के उपरान्त, संस्कृत ग्रंथो के बोझ से
लदा हुआ, वह फिर अपनी प्यारी चीन की भूमि में जा पहुँचा। मनुष्य के लिए,
यदि वह परिश्रम का सहारा ले, तो कोई काम कठिन नहीं है।
उसकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई। चीन नरेश ने उसका स्वागत बड़े उत्साह के साथ
किया। उसका राजधानी में प्रवेश बड़ी धूमधाम और तैयारी से हुआ। सड़कों पर
दरियाँ बिछ गईं, फूलों की वर्षा होने लगी, पताका फहराने लगीं। मार्ग के
दोनों ओर सैनिक और कार्याधिकारी लोग स्वागत के लिए पंक्तिबद्ध खड़े किए गए।
बौद्ध संन्यासियों का एक दल धीरे-धीरे अगवानी के लिए आगे बढ़ा। विमान जो इस
धार्मिक विजय के उपलक्ष में निकाले गए वे निराले ही ढंग के थे। सबसे आगे
वाले पर तो बुद्ध के शरीर की थोड़ी सी राख थी, उसके पीछे गौतम बुद्ध की एक
स्वर्णप्रतिमा, उसके पीछे एक वैसी ही चन्दन की प्रतिमा, फिर महात्मा तथागत
की एक अन्य मूर्ति, तदोपरान्त एक चाँदी की प्रतिमा, फिर एक स्वर्णमूर्ति,
तत्पश्चात् शाक्य मुनि की उपदेश देते समय की मूर्ति, और इन सबके अंत में
520 जिल्दों में 657 धर्मग्रंथ थे। नि:सन्देह यह महानुभाव ऐसे ही सम्मान के
क्व इस विषय में मेरा 'प्राचीन भारतवासियों का पहिरावा' लेख देखिए।
योग्य था। ऐसे धर्मवीर साहसी पुरुष का यदि उचित रीति से आदर न किया जाता तो
घोर पाप होता।
चीन सम्राट ने इस यात्री का फष्निक्स नामक राजमन्दिर में स्वागत किया, और
उसकी बुद्धि, धर्मशीलता और उसके परिश्रम से प्रसन्न होकर उसे अपने राज्य
में एक ऊँचा पद देने की अभिलाषा प्रकट की। पर हुएन-सांग ने इसे अस्वीकार
किया और कहा, ''राज्य शासन का मूल मंत्र कनफ्यूशियस की शिक्षा है।'' उसने
अपने जीवन का शेष भाग भगवान् बुद्ध ही की आज्ञापालन में बिताना उचित समझा।
इस पर चीन नरेश ने उससे अपना भ्रमण वृत्तान्त लिखने का अनुरोधा किया, और एक
सुन्दर मठ प्रदान किया, जहाँ एकान्त में अपने अवकाश का समय उसने उन ग्रंथो
के अनुवाद में लगाया जिन्हें वह भारतवर्ष से अपने साथ लाया था। कहते हैं कि
उसका भ्रमण वृत्तान्त सि-यू-को-तो बहुत शीघ्र प्रकाशित हो गया, पर संस्कृत
ग्रंथो के अनुवाद में उसके जीवन का समस्त शेष भाग लग गया। बौद्ध
संन्यासियों की सहायता से उसने 740 ग्रंथो का 1350 जिल्दों में अनुवाद
किया।
इसका स्वभाव बड़ा ही सरल था। इसे अपने ज्ञान का कुछ भी अभिमान न था, यह सदैव
यही कहा करता कि मेरा ज्ञान बुद्ध और बोधिसत्वों ही का प्रसाद है।
जब उसने अपना मृत्युकाल निकट जाना तब उसने अपनी सारी सम्पत्ति दरिद्रों में
बाँट दी और अपने मित्राो को बुला भेजा जिसमें वे आकर उसके अपवित्र शरीर से
विदा लें। उसने उनकी ओर देखकर क्षीण स्वर से कहा, ''मेरी इच्छा है कि जो
कुछ फल मेरे अच्छे कर्मो का हो वह दूसरे लोगों को मिले। मैं फिर उनके साथ
भाग्यमानों के लोक में जन्म पाऊँ आगामी बुद्ध की सेवा करूँ जो दया और प्रेम
से पूर्ण है। जब-जब मेरा पुनर्जन्म हो मैं बुद्ध का आज्ञानुवत्तर् होऊँ और
अंत में सबसे उच्च और पूर्ण ज्ञान तक पहुँचु।''
हुएन-सांग ने इस अपवित्र शरीर को 664 ई. में छोड़ा ठीक उसी समय जब इस्लाम की
रुधिराप्लावित विजयपताका पूर्व की ओर बढ़ रही थी और क्रिश्चन धर्म का संचार
युरोप में हो रहा था। भारतवर्ष के इतिहास के जाननेवाले जब तक इस पृथ्वी पर
विद्यमान रहेंगे तब तक इस धर्मपरायण चीनी यात्री का नाम आदर के साथ लिया
जाएगा।
(सरस्वती, जुलाई, 1904 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]
क्व इसमें उसने अपनी यात्रा का सब हाल लिखा है। इनका अनुवाद यूरोपीय भाषाओं
में हो गया है। भारतवर्ष के इतिहास का बहुत कुछ पता इस पुस्तक से लगता है।
यदि इसका अनुवाद हिन्दी में न हुआ तो यह हमारे लिए बड़ी लज्जा की बात होगी।
भारत को क्या करना चाहिए
'भारत को क्या करना चाहिए' यह प्रश्न इतना व्यापक है कि ध्यान केन्द्रित
करने के लिए, इसे कई भागों में बाँटना जरूरी होगा। वास्तव में इसमें कई
उपप्रश्न छिपे हैं, जैसे अपनी सामाजिक स्थिति को देखते हुए भारत को क्या
करना चाहिए, अपनी राजनीतिक परिस्थिति को बदलने के लिए भारत को क्या कदम
उठाने चाहिए, आदि आदि। प्रश्न का ऐसा विभाजन इसलिए भी आवश्यक है कि इसे एक
अधिक व्यावहारिक सीमा में बाँधा जा सके। लेकिन यदि हमें ऐसे कार्यकर्ता
मिलें, जो इस प्रश्न के अलग-अलग पहलू को हल करने में खुद को लगाएँ और सिर्फ
अपने काम से ही मतलब रखें तो क्या इससे काम चल जाएगा? नहीं। किसी एक पहलू
को दूसरे पर तर्जी देते वक्त, बदलते हुए समय को भी ध्यान में रखना होगा।
दरअसल, हमें समाज सुधारक, राजनीतिज्ञ, आंदोलनकर्ता, कवि और शिक्षाविद् सबकी
एक ही साथ, एक ही समय में, जरूरत है। लेकिन इनसे भी ज्यादा जरूरत हमें ऐसे
लोगों की है, जिनका काम यह देखना हो कि किसी विशेष कार्यक्षेत्र में किसी
विशिष्ट अवसर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त लोग हैं या नहीं।
लेकिन यहाँ जो वस्तुस्थिति है, उसे कोई भी पसन्द नहीं करेगा। बहुधा हमें
किसी एक विशेष कार्यक्षेत्र से संबंध रखनेवाले ऐसे व्यक्ति मिलते हैं, जो
दूसरी तरह के काम करनेवालों के बारे में बहुत हलके ढंग से बात करते हैं।
किसी भी स्थिति में यह वांछनीय नहीं है। इसके विपरीत प्रत्येक व्यक्ति को
दूसरे व्यक्ति द्वारा कोई विशेष परिणाम प्राप्त करने के लिए अपनाए गए तरीके
के सामर्थ्य में विश्वास होना चाहिए, ऐसा विशेष परिणाम, जो आगे चलकर एक बड़े
सामान्य लक्ष्य का अनिवार्य अंग होने जा रहा हो। लेकिन जिस क्रम में हमें
आगे बढ़ना है, वह हमारी ऑंख से ओझल नहीं होना चाहिए। इस दिशा में की गई कोई
भी गलती आगे चलकर अनंत असफलताओं को जन्म दे सकती है।
महत्व के लिहाज से जिस चीज पर हमें सबसे पहले ध्यान देना चाहिए, वह है
सामाजिक बुराइयों को दूर करने का काम, क्योंकि इनका असर सीधे उस सामाजिक
स्रोत पर पड़ता है, जहाँ से हमें प्रत्येक क्षेत्र में काम करने के लिए
कार्यकर्ता प्राप्त होते हैं। यदि आप इस रचनात्मक शक्ति की उपेक्षा करेंगे,
तो कायदे से आप कहीं से कुछ भी उम्मीद नहीं कर सकते। बात यह है कि किसी काम
को करने के लिए पहले उपकरण खोजा जाता है, फिर हम उसके इस्तेमाल के तरीके को
जानने के लिए अधीर होते हैं। यह बात हमारी समझ में और भी आसानी से आ सकेगी,
अगर हम अपने समाज में व्याप्त किसी एक बुराई के प्रभाव पर ही ध्यान दें।
उदाहरण के लिए बाल-विवाह को लें। इस प्रथा ने समाज के विभिन्न क्षेत्रो में
जो नुकसान पहुँचाया है, उसे पूरी तरह कौन बयान कर सकता है? यह हमारे
शारीरिक, मानसिक और नैतिक पतन का एकमात्र कारण है। अपने अतिरिक्त दूसरी
बातों पर ध्यान देने के लिए आवश्यक शक्ति और अवकाश से हमें वंचित करके यह
प्रथा हमें स्वार्थी बना देती है, और इस प्रकार हमारे अन्दर सारी राष्ट्रीय
भावनाओं के विकास को अवरुद्ध कर देती है। यदि किसी स्वस्थ समाज में इस
प्रथा को शुरू करके आप वहाँ उसके प्रभाव को देखें तो आपको पता चलेगा कि यह
कहाँ ले जाती है। उस समाज के व्यक्ति की गतिविधियों का दायरा उसकी अक्षमता
के बढ़ने के साथ साथ निश्चित रूप से सिमटता जाएगा और उसी अनुपात में उसकी
गतिविधियों से प्रभावित होनेवाले लोगों की संख्या भी घटती जाएगी। परिणामत:
यदि पहले उस समाज में ऐसे लोग थे, जो एक पूरे समूह का ध्यान रख सकते थे, तो
अगली पीढ़ी में (इस प्रथा को लागू करने के बाद) आपको ऐसे लोग मिलेंगे, जो
सिर्फ अपने परिवारों की देखभाल करने में सन्तुष्ट हैं। उससे नीचे उतरेंगे,
तो आपको यह देखकर धक्का लगेगा कि बहुसंख्यक लोग अपने आपको छोड़कर और किसी
चीज की चिन्ता नहीं करते।
एक शक्तिशाली समाज के निर्माण में सफल हो जाने के बाद, जिसके सदस्य कोई भी
काम करने को तैयार हों, हमें उन सदस्यों को शिक्षा देने की फिक्र करनी
चाहिए, ऐसी शिक्षा जो दूसरी बातों के अतिरिक्त एक उच्च उत्तारदायित्व के
भाव से किसी को युक्त कर देती है और उसकी महत्वाकांक्षाओं के लिए ऐसे
क्षेत्र प्रदान करती है, जो सलाम बजाने या मालगुजारी इकट्ठा करने के काम से
बड़े होते हैं। हमें इस बात से खुशी है कि बंगाल के हमारे भाई बहुत अरसे से
महसूस की जा रही इस कमी को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं। शिक्षा से मेरा
मतलब सामान्य महत्व के मामलों के बारे में हमारे नेताओं की राय का अशिक्षित
जनता तक सम्प्रेषण भी है, ताकि अवसर आने पर उनका (अशिक्षित जनता का) सहयोग
मिलने से न रह जाए। प्रत्येक ग्रामवासी को यह जानना चाहिए कि अधिक काम करने
के बाद भी उसे उसके बदले में कम क्यों दिया जाता है, प्रत्येक नागरिक को यह
बताया जाना चाहिए कि उसकी सेवाओं की इतनी कम माँग क्यों है, और वस्तुत:
प्रत्येक भारतीय को यह साफ-साफ पता होना चाहिए कि उसका देश दिन-प्रतिदिन और
गरीब क्यों होता जा रहा है? आप अगर चाहें तो इसे राजनीतिक शिक्षा भी कह
सकते हैं। इस प्रकार की शिक्षा देने के लिए हमें विभिन्न तरीके और साधन
अपनाने चाहिए। स्कूल और कॉलेज ही शिक्षा के एकमात्र स्थान नहीं होने चाहिए।
सुविधाजनक स्थानों पर सार्वजनिक भाषणों का आयोजन करके और ऐसे लोगों को
गाँवों में भेजकर, जो अशिक्षित जनता को उन्हें प्रभावित करनेवाली
परिस्थितियों के बारे में समझाकर उसे काम करने का रास्ता बताएँ, हम बहुत
कुछ कर सकते हैं। भारतीय जन-मानस को सामंजस्यपूर्ण धरातल पर लाने में देशी
भाषा के बढ़ते हुए साहित्य की जो भूमिका है, उसकी शायद हम उपेक्षा नहीं कर
सकते। यहाँ मैं ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रो से सम्बन्धित किसी विस्तार में
जाने की कोई इच्छा नहीं रखता। इतना ही कहना काफी है कि इन क्षेत्रो में से
किसी एक पर हम कितना ध्यान दें, यह तय करने में समय की आवश्यकता ही हमारे
लिए सबसे महत्तवपूर्ण होनी चाहिए। उदाहरण के लिए भारत की आर्थिक स्थिति की
माँग यह है कि किसी भी दूसरे काम से पहले उसके उद्योग धांधो का परिवर्तन और
परिष्कार किया जाए और यह, जिसे हम तकनीकी शिक्षा कहते हैं, उस पर सबसे
ज्यादा निर्भर करता है।
अब हम अपने काम के उस हिस्से पर आते हैं, जिससे लोग सबसे ज्यादा डरते हैं,
हालाँकि इसमें इससे ज्यादा कुछ नहीं करना कि सरकार से यह कहा जाए कि वह
हमसे ठीक तरह से पेश आए और ऐसे कदम उठाए, जो प्रगति की दिशा में हमें थोड़ा
भी आगे ले जा सकें, न कि हमारे रास्ते में बाधा बन जाएँ। दुख की बात यह है
कि हमारी भारत सरकार के कुछ अपने अजीबो-गरीब पूर्वग्रह हैं। कुछ लोग इन्ही
के मुताबिक चलना पसन्द करते हैं। वे ऐसे सौभाग्यशाली लोग हैं, जिन्हें
'स्वर्ग के साम्राज्य में अकेले प्रवेश मिलेगा।' ये सौभाग्यशाली लोग अपनी
सारी विशिष्टताएं खो बैठते हैं और अंतत: उस परम सत्ता के साथ एकाकार हो
जाते हैं। इस तरह हिन्दूओं की अवधारणा के अनुसार वे मोक्ष प्राप्त कर लेते
हैं! अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा, तो ब्रिटिश सरकार जनता के बीच बदनाम होकर
रहेगी। यदि हमारी सरकार शान्ति और सन्तोष चाहती है, तो उसे ऐसी नीति और
लक्ष्य को अपनाना होगा, जो उसके पिछले चरित्र से कतई अलग हो। हमारे विचारों
के खिलाफ ब्रिटिश लोग जो सबसे सामान्य दलील पेश करते हैं, वह यह है कि वे
(हमारे विचार) जनता के विचार नहीं हैं। हमारे नेताओं को बहुत ही चालाकी भरे
ढंग से 'लाखों लाख लोगों का स्वघोषित प्रतिनिधि' कहा जाता है। पहले मुझे यह
पूछने की इजाज़त दीजिए कि सार्वजनिक मामलों में हमें किन लोगों की राय नहीं
लेनी चाहिए। क्या वे ऐसे लोग नहीं हैं, (1) जिन्हें आपने अपने खास मकसद के
लिए सारी चीजों से अनजान रखा है और (2) जो आपके पूर्वग्रहों से फायदा उठा
लेने के हर मौके की तलाश में रहते हैं? पहली किस्म के लोगों का अपना कोई मत
नहीं होता। उनके विपरीत दूसरी किस्म के लोग अपना मत रखने का दावा करते हैं,
लेकिन वे संख्या में और बौधिक दृष्टि से इतने उपेक्षणीय हैं कि हमारे
आन्दोलनों के चरित्र की प्रतिनिधित्व में कोई सन्देह पैदा नहीं कर सकते।
जहाँ तक हम देख पाए हैं, साम्राज्यवाद ही भारत में ब्रिटिश राष्ट्र की नीति
की प्रेरक शक्ति रहा है। उन्होंने (ब्रिटिश) यह हाल कर रखा है, कि भारतीय
प्रशासन में उनकी अपनी ब्रिटिश परिकल्पना का एक रेशा भी नहीं दिखाई देता।
इसमें शक नहीं कि वे रूप को सुरक्षित रखते हैं लेकिन वे उसके सार-तत्व को
खत्म कर देते हैं। हमारे पास म्युन्सिपल बोर्ड हैं, लेजिस्लेटिव काउंसिल
हैं, क्या नहीं है? लेकिन दिखावे के अलावा उनका और कोई मकसद भी है? हमारा
प्रशासनिक जगत् ऐसा क्षेत्र नहीं रह गया है, जहाँ प्रतियोगिता के लिए कोई
जगह हो, जिसमें योग्यता की जाँच का कोई मौका हो। शिक्षा को इसके दरवाजे पर
दुत्कार मिलती है, गुण को इसके कमरों से खारिज़ा कर दिया जाता है। यह
बनावटीपन और चालाकी की दुनिया है। यहाँ सिर्फ 'अनुभव' की जरूरत है, जो सलाम
बजाने और 'हुजू़र' के हुक्म को दोहराने का ही दूसरा नाम है। जिस आदमी के
पास यह योग्यता नहीं, वह कितना ही विद्वान् क्यों न हो, उसे यहाँ प्रवेश
नहीं मिल सकता। हमारे अफ़सरों पर, खा़सकर जिला अफसरों पर ज्यादा से ज्यादा
लोगों के मुँह से 'हुजूर' सुनने की सनक इस बुरी हद तक सवार हो गई है कि वे
किसी देशी आदमी को अंगरेजी में बोलते हुए भी बर्दाश्त नहीं कर पाते, अगर वह
कम से कम उनको सुनाने के लिए खुशामदी बातें न करता हो। ऊपर जो बात कही गई,
वह मुख्य तौर पर यह दिखाने के लिए कि राजकीय मान्यता को उच्चतर उपलब्धियों
के लिए प्रेरक नहीं माना जा सकता। हमें अपना पुरस्कार कहीं और खोजना होगा।
हमें इसे या तो ईमानदार दिलों में खोजना चाहिए, या फिर अगर हम पैसे के
स्वार्थ से काम करते हों, तो बटुओं में खोजना चाहिए। यदि आप योग्य हैं, तो
हमारे कवि आप का यश गाएँगे, हमारी जनता खुली बाँहों से आपका स्वागत करेगी,
हमारी स्त्रियाँ आप पर फूल बरसाएँगी या यदि बुरी स्थितियों में फँस गए हैं,
तो आपके लिए ऑंसू बहाएँगी। आप जहाँ भी जाएँगे, आपके साथ एक सच्चा और
राष्ट्रीय उत्साह का सागर चलेगा, जो झूठे और बनावटी उत्साह के विरुद्ध होता
है। आपकी एक झलक पाने को लोग बेचैन रहेंगे। क्या मानवीय अह्मं की पुष्टि के
लिए यह पर्याप्त नहीं है?
जब इस प्रकार हम शिक्षा के दायरे को बढ़ाकर और ज्यादा लोगों को सुसंस्कृत
बना लेंगे, तब अपनी योजना को सफल बनाने के लिए हमें ऐसे उपाय करने होंगे,
जिनसे लोग अपने जीवन में आगे बढ़ सकें। यह तो तय है कि उन सारे लोगों को
हमारी कचहरीयाँ रोजगार नहीं दे सकेंगी। ऐसी स्थिति में उनकी सेवाओं का
उपयोग करने के लिए और उन्हें इनका मूल्य देने के लिए हमें उद्योग और शिक्षा
के विभिन्न केन्द्र खोलने होंगे। कितने ही ज्यादा लोग क्यों न हों, काम
हमेशा उनके लिए काफी होना चाहिए।
इस दिशा में स्वदेशी आंदोलन द्वारा एक प्रयास किया गया है। यह लाखों लोगों
को भूखमरी से बचाने के लिए और नियमित रोजगार के अभाव में भटक रहे लाखों
लोगों को काम देने के उद्देश्य से चलाया गया आंदोलन है। इसके मूल में कोई
दुर्भावना या कोई बदले की भावना काम नहीं कर रही। यह एकदम शुद्ध और निश्छल
है, इसलिए इसके साथ बरिसाल* वाला सुलूक नहीं किया जा सकता। हम सहानुभूति की
भावना से प्रेरित हैं। सदाशय क्रिश्चन भाइयो, क्या हम आप से भी ऐसी ही
उम्मीद करें? क्या आप मानवता के नाम पर मदद के लिए हाथ बढ़ाएँगे? या यह
कहेंगे कि ''हमें किसी भी दूसरी चीज की परवाह नहीं। हम सिर्फ अपना 'बटुआ'
भरना चाहते हैं?'' ''भरते रहो और भूखे मरते रहो'' क्या यही आपका शासक
सिद्धांत होगा? आज तक हम अपने कर्तव्य के प्रति ऑंखें मूंदे हुए थे। अब हम
उसके प्रति सजग हो गए हैं। इस क्षण में जो हमारे साथ हैं, वे हमारे दोस्त
हैं, जो खुद को अलग रखे हुए हैं, वे उदासीन हैं, और जो हमारी मुखालिफत करते
हैं, वे हमारे दुश्मन हैं। मेरे देशवासियों, जो इलाज आपने खोजा है, वही
एकमात्र इलाज है, उसे दृढ़ता से पकड़े रहिए। अपनी पकड़ ढीली न होने दीजिए,
वरना वह हमेशा के लिए हाथ से निकल जाएगा और फिर आपका विनाश सुनिश्चित हो
जाएगा। अपने दुश्मनों को अपने बारे में यह कहने का मौका न दीजिए, ''उनका
सोचना ज्यादातर एक छूत की बीमारी की तरह होता है। वे किसी मत को ऐसे पकड़ते
हैं, जैसे उन्हें सर्दी लगी हो। और जब तक यह दौरा उन पर रहता है, तब तक
इसके अलावा छोटी या बड़ी कोई भी दूसरी चीज ऐसी नहीं होती, जिसे लेकर वे इतना
भयानक गर्जन-तर्जन करें। लेकिन दौरा गुजरने के एक घंटे के अन्दर ही वे सब
कुछ भूलकर बैठ जाते हैं।''
(हिन्दुस्तान रिव्यू, फरवरी, 1907 ई.)
अनुवादक-अपूर्वानन्द
(आलोचना, जुलाई-सित., 1985 ई.)
दक्षिणी बांग्ला देश में गंगा के मुहाने पर स्थित बंदरगाह। (संपादक)
रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
भाषा विमर्श-
भाग
- 1
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भाग
-2
//
भाग
-3 //
भाग
- 4
//
भाग
- 5 //
भाग
-6 //
भाग - 7
//
भाग
- 8
//
भाग
- 9 //
भाग
- 10 //
भाग
-11
//
भाग
- 12
//
भाग
-13 //
भाग
-14
//
भाग
- 15 //
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