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रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4 
भाषा, साहित्य और समाज विमर्श

भूमिका, टिप्पणी, रिपोर्ट और सम्मति
भाग - 13


कविता की परख


कविता का उद्देश्य हमारे हृदय पर प्रभाव डालना होता है, जिससे उसके भीतर प्रेम, आनन्द ,हास्य, करुणा, उत्साह, आश्चर्य इत्यादि अनेक भावों में से किसी का संचार हो। जिस पद्य में इस प्रकार प्रभाव डालने की शक्ति न हो, उसे कविता नहीं कह सकते। ऐसा प्रभाव उत्पन्न करने के लिए कविता पहले कुछ रूप और व्यापार हमारे मन में इस ढंग से खडाकरती है कि हमें यह प्रतीत होने लगता है कि वे हमारे सामने उपस्थित हैं। जिस मानसिक शक्ति से कवि ऐसी वस्तुओं और व्यापारों की योजना करता है और हम अपने मन में उन्हें धारण करते हैं, वह कल्पना कहलाती है। इस शक्ति के बिना न तो अच्छी कविता ही हो सकती है, न उसका पूरा आनन्द ही लिया जा सकता है। सृष्टि में हम देखते हैं कि भिन्न भिन्न प्रकार की वस्तुओं को देखकर हमारे मन पर भिन्न भिन्न प्रकार का प्रभाव पड़ता है। किसी सुन्दर वस्तु को देखकर हम प्रफुल्ल हो जाते हैं, किसी अद्भुत वस्तु या व्यापार को देखकर आश्चर्यमग्न हो जाते हैं, किसी दु:ख के दारुण दृश्य को देखकर करुणा से आर्द्र हो जाते हैं। यही बात कविता में भी होती है।
जिस भाव का उदय कवि को पाठक के मन में कराना होता है, उसी भाव को जगानेवाले रूप और व्यापार वह अपने वर्णन द्वारा पाठक के मन में लाता है। यदि सौन्दर्य की भावना उत्पन्न करके मन को प्रफुल्ल और आह्लादित करना होता है तो कवि किसी सुन्दर व्यक्ति अथवा किसी सुन्दर और रमणीय स्थल का शब्दों द्वारा चित्रण करता है। सूरदासजी ने श्रीकृष्ण के अंग-प्रत्यंग का जो वर्णन किया है उसे पढ़कर या सुनकर मन सौन्दर्य की भावना में लीन हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी की गीतावली में चित्रकूट का यह वर्णन कितनी सुन्दरता हमारे समक्ष लाता है।
''सोहत स्याम जलद मृदु घोरत धातु रंगमगे ऋंगनि।''
इसी प्रकार भय का भाव उत्पन्न करने के लिए कवि जो रूप सामने रखेंगा वह बहुत ही विकाराल होगा। जैसा कुंभकरण का रूप रामचरितमानस में है। राम के वनगमन पर अयोधया की दशा का जो वर्णन रामायण में है, उससे किसका हृदय दु:ख और करुणा का अनुभव न करेगा ?
अपने वर्णनों में कवि लोग उपमा आदि का भी सहारा लिया करते हैं। वे, जिस वस्तु के वर्णन का प्रसंग होता है, उस वस्तु के समान कुछ और वस्तुओं का उल्लेख भी किया करते हैं; जैसे-मुख को चंद्र या कमल के समान, नेत्रों को मीन, व्यं जन, कमल आदि के समान। प्रतापी या तेजस्वी को सूर्य के समान; कायर को ऋगाल के समान, वीर और पराक्रमी को सिंह के समान प्राय: कहा करते हैं। ऐसा कहने में उनका वास्तविक लक्ष्य यही होता है कि जिस वस्तु का वे वर्णन कर रहे हैं, उसकी सुन्दरता, कोमलता, मधुरता या उग्रता, कठोरता, भीषणता, वीरता, कायरता इत्यादि की भावना और तीव्र हो जायँ। किसी के मुख की मधुर कान्ति की भावना उत्पन्न करने के लिए कवि उस मुख के साथ एक और अत्यन्त मधुर कान्तिवाला दूसरा पदार्थ-चन्द्रमा भी रख देता है, जिससे मधुर कान्ति की भावना और भी बढ़ जाती है। सारांश यह है कि उपमा का उद्देश्य भावना को तीव्र करना ही होता है, किसी वस्तु का बोध या परिज्ञान कराना नहीं। बोध या परिज्ञान कराने के लिए भी एक वस्तु को दूसरी वस्तु के समान कह देते हैं, जैसे-जिसने हारमोनियम बाजा न देखा हो-उससे कहना, ''अजी! वह सन्दूक के समान होता है।'' पर इस प्रकार की समानता उपमा नहीं।
कोई उपमा कैसी है, इसके निर्णय के लिए पहले तो यह देखा जाता है कि कवि किस वस्तु का वास्तव में वर्णन कर रहा है और उस वर्णन द्वारा उस वस्तु के सम्बन्ध में कैसी भावना उत्पन्न करना चाहता है। उसके पीछे इसका विचार होता है कि उपमा के लिए जो वस्तु लाई गई है, उससे वही भावना उत्पन्न होती है और बहुत अधिक परिमाण में, तो उपमा अच्छी कही जाती है। केवल आकार, छोटाई बड़ाई आदि में ही समानता देखकर अच्छे कवि उपमा नहीं दिया करते। वे प्रभाव की समानता देखते हैं, जैसे यदि कोई आकार और बड़ाई को ही ध्याचन में रखकर आँख की उपमा बादाम या आम की फाँक से दे तो उसकी उपमा भद्दी होगी क्योंकि उक्त वस्तुओं से सौन्दर्य की भावना वैसी नहीं जगती। कवि लोग आँख की उपमा के लिए कभी कमल दल लाते हैं, जिससे रंग की मनोहरता, प्रफुल्लता, कोमलता आदि की भावना एक साथ उत्पन्न होती है; कभी मीन या व्यंमजन लाते हैं, जिससे स्वच्छता और चंचलता प्रकट होती है, उठे हुए बादल के टुकड़े के ऊपर उदित होते हुए पूर्ण चन्द्रमा का दृश्य कितना रमणीय होता है! यदि कोई उसे देखकर कहे कि 'मानो ऊँट की पीठ पर घंटा रखा है' तो यह उक्ति रमणीयता की भावना में कुछ भी योग न देगी, थोड़ा बहुत कुतूहल चाहे भले ही उत्पन्न करदे।
कवि लोग प्रेम, शोक, करुणा, आश्चर्य, भय, उत्साह इत्यादि भावों को पात्रों के मुँह से प्राय: प्रकट कराया करते हैं। वाणी के द्वारा मनुष्य के हृदय के भावों की पूर्ण रूप से व्यंजना हो सकती है। मनुष्य के मुख से प्रेम में कैसे वचन निकलते हैं, क्रोध में कैसे, शोक में कैसे, आश्चर्य में कैसे, उत्साह में कैसे इसका अनुभव सच्चे कवियों को पूरा पूरा होता है। शोक के वेग में मनुष्य थोड़ी देर के लिए बुध्दि और विवेक भूल जाता है, उचित अनुचित का ध्या न छोड़ देता है। इसी बात को दृष्टि में रखकर तुलसीदासजी ने लक्ष्मण के शक्ति लगने पर राम के मुँह से कहलाया है कि-
''जौ जनतेउँ बन बन्धुो बिछोहू। पिता वचन मनतेउँ नहिं ओहूड्ड''
जो काव्य के सिध्दान्तों को नहीं जानते वे कहेंगे कि इस वचन से राम के चरित्र में दूषण आ गया। पर जो सहृदय और मर्मज्ञ हैं, वे इसे शोक की उक्ति मात्र समझेंगे।
पात्र के मुख से भाव की व्यंजना कराने में कवि में बड़ी निपुणता अपेक्षित होती है। पहले तो उसे मनुष्य की सामान्य प्रकृति का ध्या न रखना पड़ता है, फिर पात्र के विशेष ढंग के स्वभाव का। इसी से एक ही भाव की व्यंजना अनन्त प्रकार से हो सकती है। रामचरितमानस में देखिए कि राम जब कभी अपना क्रोध प्रकट करते हैं, तब किस संयम और गंभीरता के साथ, और लक्ष्मण किस अधीरता और उग्रता के साथ। यही बात उत्साह आदि और भावों के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए।
('हिन्दी पद्य चन्द्रिका' : हाई स्कूल तथा उसके समकक्ष परीक्षा के लिए हिन्दी के विविध विषयों पर चुने हुए सुसम्पादित पद्यांशों का संकलन। सम्पादक : पंडित रामचन्द्र शुक्ल, प्रोफेसर, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी। प्रकाशक : रत्नाश्रम, आगरा। संवत् 1990।)
[ चिन्तामणिभाग-]



बुध्ददेव का 'परिचय'


कोई समय था जब कि व्यवसायी पारसी थिएटर कम्पनियों के रंगमंच पर हमारी भाषा अपने सरल से सरल और प्रचलित से प्रचलित रूप में भी कभी नहीं फटकने पाती थी। तुक भिड़ाते हुए उर्दू के लच्छेदार वाक्य ही सुनाई पड़ते थे। उर्दू से कोरी अधिकांश जनता केवल सीन सीनरी का तमाशा देखने तथा घटना चक्र के चढ़ाव उतार से कुछ कुतूहल और मनोरंजन प्राप्त करने के लिए ही पारसी थिएटर में जाया करती थी। न तो उसे कथोपकथन की विचित्रता और पटुता का आनन्द आता था, न वह किसी गंभीर भाव में निमग्न होती थी। प्राचीन हिन्दी कथाओं को लेकर जो दो चार नाटक खेले जाते थे उनसे तो और विरक्ति होती थी। जिस समय चूड़ीदार पाजामा, कोट और ताज पहने हुए राजा हरिश्चन्द्र और पंप शू पहने उनकी रानी आधी गुयासुल्लुगात खतम कर के 'हर इन्साँ पर खास ओ आम' गाते हुए निकलते थे उस समय भारतीयता भाड़ में झुकती दिखाई देती थी। अपने देश की सच्ची भाषा में लिखे नाटकों के अभिनय का प्रबन्ध कुछ विशेष अवसरों पर हिन्दी के प्रेमी कभी कभी कर लिया करते थे।
धीरे धीरे काशी, प्रयाग आदि नगरों के कुछ उत्साही हिन्दी प्रेमियों ने अभिनय कला की ओर ध्यान दिया और नाटक कम्पनियाँ स्थापित कीं जिनके द्वारा समय समय पर वे शिक्षित जनता का मनोरंजन करने लगे। इन नाटक मंडलियों की लोकप्रियता धीरे धीरे पारसी कम्पनियों के ध्यान में आने लगी और उन्होंने अपने व्यवसाय की दृष्टि से हिन्दी के कुछ नाटक लिख कर खेलना आरम्भ किया। 'बेताब' का महाभारत देखने के लिए जिस धूम से जनता टूटने लगी, उसे देख व्यवसायी कम्पनियों का बहुत दिनों का भ्रम दूर हुआ और उनका ध्यान हिन्दी में भी नाटक दिखाने की ओर जाने लगा। इस प्रकार हिन्दी का प्रवेश तो इन कम्पनियों में हुआ पर नाटक वे अपने ही लेखकों से लिखती हैं। इन नाटकों की भाषा हिन्दी तो होती है पर उर्दू वालों के मुँह से निकली हुई सी। वह व्याकरण की दृष्टि से व्यवस्थित और साहित्य की दृष्टि से परिष्कृत नहीं होती। उसमें उर्दू नाटकों का परम्परागत ढाँचा बहुत कुछ रहता है। गद्य में भी वही तुकबाज़ी अभी चली चलती है। अप्रचलित अरबी फारसी के बेमेल शब्द भी बीच बीच में कानों को झेलने पड़ते हैं।
यह सब देख कर स्वर्गीय श्री विश्वम्भर सहायजी 'व्याकुल' ने 'व्याकुल भारत कम्पनी' की स्थापना की थी, जिसके द्वारा उन्होंने भाषा और कला की दृष्टि से शिष्ट साहित्य में गिने जाने योग्य नाटकों के अभिनय का सूत्रपात किया था। वे स्वत: नाटयकला के मर्मज्ञ जानकार थे। उन्होंने अपने रचे कुछ नाटक खेले जिनकी जनता के बीच बहुत ख्या ति हुई। प्रस्तुत नाटक 'बुध्ददेव' उन्हीं में से है। इसे पढ़ते ही यह स्पष्ट हो जायगा कि यह व्यवसायी कम्पनियों द्वारा खेले जाने वाले और नाटकों से कितना अधिक समुन्नत है। पहली बात इसकी भाषा है जो शिष्ट और परिमार्जित है। मैं समझता हूँ, अपने वर्ग का यह पहला नाटक है जिसकी भाषा वर्तमान साहित्य की भाषा के मेल में आई है। इसके लिए इसके लेखक श्रीयुत व्याकुलजी का हिन्दी प्रेमी सदा साधुवाद के साथ स्मरण करेंगे। कथावस्तु के बीच लेखक ने अपनी कल्पना से जो दृश्य रखें हैं वे समाज के कुछ अंगों की दशा के अच्छे प्रतिबिम्ब हैं। अवतार की जैसी भावना लेकर नाटक की रचना हुई, प्रथम अंक के पहले दृश्य में स्वार्थ, हिंसा, पाखंड आदि द्वारा धर्म का आक्रान्त होना उसके बहुत ही अनुरूप हुआ है। वस्तु विन्यास भी कौशल से हुआ है। जो स्थल अधिक मार्मिक हैं, उनके दृश्य-विधान और कथोपकथन में दर्शकों पर पड़ने वाले प्रभाव पर पूरी दृष्टि रखी गई है। पात्रों की बातचीत में विचित्रता और प्रत्युत्पत्ति है। जिस क्रम से यह नाटक उन्नति की ओर अग्रसर हुआ है वह क्रम यदि चला चले तो व्यवसायी कम्पनियों के रंगमंच पर भी उच्च कोटि के नाटक बहुत शीघ्र अभिनीत होते दिखाई पड़ेंगे।
पारसी थिएटरों के कुछ लटके इस नाटक में भी मिलते हैं, जैसे-तुकबन्दी में बातचीत और गज़लबाजी। बात यह है कि एकबारगी मार्ग में आगे कूदने से उन्नति की ओर अग्रसर होनेवाले के मार्ग में बाधा की आशंका रहती है, इससे वह कुछ पुरानी बातों को लिए हुए क्रमश: आगे बढ़ते हैं। इनके अतिरिक्त और त्रुटियाँ जो इस नाटक में हैं वे ऐसी हैं जिनके दूर होते अभी कुछ दिन लगेंगे। जिस काल की घटना को लेकर यह नाटक लिख गया है, उस काल की सामाजिक परिस्थिति क्या थी, परस्पर रीति व्यवहार और शिष्टाचार का ढंग क्या था, इन सब को ब्योरे के साथ जानने का प्रयत्न लेखक ने नहीं किया है। जिस पशु हिंसा का विरोध भगवान बुध्द ने किया था, वह शाक्तों द्वारा देवी के सामने होने वाला बलिदान न था, बल्कि वैदिक यज्ञों में होने वाली बलि थी। जिस प्रकार रसायनी बाबा और पुजारी लाए गए हैं, उनका अस्तित्व उस काल में नहीं था। सारांश यह कि गौतम बुध्द के समय की संस्कृति का चित्रण नहीं हो पाया है।
(18-3-1935 ई.)
(मेरठ निवासी विश्वम्भर सहाय 'व्याकुल' ने 'व्याकुल भारत नाटक कम्पनी' की स्थापना की थी। यह कम्पनी साहित्यिक नाटकों का मंचन करती थी। व्याकुलजी ने 1919 ई. में बुध्ददेव नामक नाटक लिख था, जिसका उन्होंने अनेक बार मंचन किया। उनका देहान्त 1925 ई. में हुआ। उनकी मृत्यु के प्राय: दस वर्ष बाद यह नाटक 1935 ई. में भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। आचार्य शुक्ल ने इस नाटक की भूमिका 'परिचय' शीर्षक से लिखीथी।-सम्पादक)
[ चिन्तामणिभाग-]



मानससरोवर और कैलास की 'भूमिका'


हिन्दी में क्या, प्राय: सभी भारतीय भाषाओं में यात्रा सम्बन्धी पुस्तकों की बहुत कमी है। भूमंडल के भिन्न भिन्न भागों के जैसे विस्तृत और मनोरंजक विवरण योरपीय भाषाओं में हैं, वैसे यहाँ की किसी भाषा में नहीं। क्या इसका कारण हमारी कूप मंडूकता है? कैसे कहें? प्राचीन काल में तो भारतवासी धर्म प्रचार तथा व्यापार के लिए बर्मा, श्याम, चीन, सिंहल, सुमात्रा, जावा इत्यादि दूर दूर के स्थानों में जल और स्थल के मार्गों से बराबर जाया करते थे। पर संस्कृत या प्राकृत में कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं जिसमें उन देशों का सच्चा विवरण हो। इधर एक हजार वर्ष से अलबत भारतीयों का अपने देश की सीमा के बाहर निकलना बन्द हो गया। पर देश के भिन्न भिन्न खंडो और प्रदेशों के बीच तीर्थयात्रा और व्यापार के निमित्त आना जाना बराबर जारी रहा। हमारा देश इतना विस्तृत है, उसके भीतर जलवायु, जनसमाज, प्राकृतिक दृश्यों इत्यादि की इतनी अनेकरूपता है कि एक प्रदेश के निवासी को दूसरे दूरस्थ प्रदेश के विवरण में कुतूहल और मनोरंजन की पर्याप्त सामग्री मिल सकती है। पर न तो किसी पुराने तीर्थयातत्री ने सागर चुम्बित मलय प्रदेश का वर्णन लिख, न उत्ताराखंड के गगनचुम्बी शिखरों का।
सच पूछिए तो जिस प्रकार सच्ची ऐतिहासिक जिज्ञासा जनता में बराबर दबी सी रही है, उसी प्रकार भौगोलिक जिज्ञासा भी। पर है यह जिज्ञासा स्वाभाविक। इधर उधर उपयुक्त सामग्री पाकर अब यह जाग उठी है। अब यात्रा सम्बन्धी कुछ पुस्तकें दिखाई पड़ने लगी हैं। इस प्रकार की अच्छी पुस्तकें भी प्रस्तुत हो सकती हैं जब हम लोगों में साहसी यात्री उत्पन्न हों जो दूरस्थ दुर्गम प्रदेशों में भ्रमण करें। पर यात्रा का साहस ही पर्याप्त नहीं है। यात्री में जिज्ञासा का प्राचुर्य और निरीक्षण की पूरी शक्ति होनी चाहिए। इसके बिना सहस्रों कोस का पर्यटन करके भी वह किसी प्रदेश के वैचित्रय का सम्यक् उद्धाटन न कर सकेगा-उन बातों को सामने न रख सकेगा जिनमें मन स्वभावत: रमता है।
भारतवर्ष के एक छोर से दूसरे छोर तक स्थान स्थान पर हिन्दुओं के तीर्थ प्रतिष्ठित हैं। कुछ तो भारत की सीमा के बाहर भी हैं, जैसे-हिंगुलाज और कैलास मानससरोवर। चारों धामों की यात्रा न जाने कितने दिनों से होती आ रही हैं। सबसे विकट और दुर्गम उत्ताराखंड के बदरी केदार की यात्रा मानी जाती है। उत्ताराखंड या हिमालय प्रदेश एक न्यारा लोक ही जान पड़ता है। गगनचुम्बी तुषारमंडित शिखरों के बीच बढ़ते हुए यात्री को देवलोक के मार्ग का अनुभव होता है। जिस समय वह लौटकर घर आता है, उसके साहस पर कितना साधुवाद मिलता है, उसकी बातें कितनी उत्कंठा से सुनी जाती हैं। पर हमारे धर्मवीरों या यात्रावीरों के साहस की सीमा बदरी केदार के आगे नहीं बढ़ती।
उसके आगे तो वह स्वर्ग समझा जाता है जो शायद बिना मरे नहीं दिखाई पड़ सकता। कैलास मानससरोवर पर पैरों से चलकर पहुँचने की बात सामान्य जनता कभी ध्यान में नहीं लाती।
जो यह जानते हैं कि कैलास और मानससरोवर इसी भूलोक में हैं, उनके हृदय में अवश्य उक्त दिव्य दर्शनों के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की जिज्ञासाएँ उठती हैं। पर बहुत कम लोगों को उन्हें तृप्त करने का कुछ साधन प्राप्त होता है। उक्त दोनों स्थान तिब्बत में पड़ते हैं जहाँ कुछ दिनों पहले यात्रियों का पहुँचना एक प्रकार से असम्भव सा था। कुछ रमते साधु या सैर सपाटेवाले योरपियन ही उधर जा पड़ते थे। 17-18 वर्ष की अवस्था में उक्त प्रदेश का कुछ वर्णन ऍंगरेजी की एक पुस्तक में पाकर मैंने बड़े प्रेम से पढ़ा था। पर जहाँ तक मुझे स्मरण आता है, उससे मेरी तृप्ति नहीं हुई थी। उसके बहुत दिनों पीछे सत्यदेवजी की कैलास यात्रा हिन्दी में निकली, पर उस छोटी सी पुस्तक में मुझे मार्ग की दुर्गमता के रूख को वर्णन के अतिरिक्त और कुछ न मिला। कैलास मानससरोवर के सम्बन्ध में जो दिव्य, पुनीत और भव्य भावना परम्परा से बँधी चली आ रही है, उसी के अनुरूप हमारी जिज्ञासा भी हुआ करती है। ऐसी जिज्ञासा की तुष्टि वही यात्री कर सकता है जिसका अंत:करण जिज्ञासापूर्ण हो तथा जिसकी दृष्टि आसपास के स्वरूपों को स्पष्टता के साथ ग्रहण करनेवाली हो। इनके अतिरिक्त वर्णन द्वारा नाना दृश्यों के प्रत्यक्षीकरण की सामर्थ्य भी उसमें पूरी पूरी होनी चाहिए।
मुझे कितना आनन्द हुआ जब एक दिन अकस्मात् मेरे पुराने मित्र श्री सुशीलचन्द्र भट्टाचार्य इसी प्रकार के एक यात्री के रूप में मेरे सामने प्रकट हुए। मैंने बड़ी उत्कंठा के साथ उनकी कैलास मानससरोवर की यात्रा के सम्बन्ध में सैकड़ों प्रश्न पूछे। उन्होंने अपने वर्णन द्वारा मेरा बहुत कुछ कुतूहल शांत किया और दूसरे दिन कैलास मानससरोवर की यात्रा से सम्बन्ध रखनेवाले अनेक फोटोग्राफ भी दिखाए।
अपनी यात्रा का विवरण उन्होंने बंग भाषा की प्रतिष्ठित पत्रिका वसुमती में खंडश: छपाया था जो पीछे पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। (रामचन्द्र वर्मा द्वारा अनूदित) वही पुस्तक हिन्दी में सामने पाकर मेरा आनन्द दूना हो गया। पाठक देखेंगे कि भाव पक्ष और व्यवहार पक्ष दोनों का उचित ध्यान रखकर इस पुस्तक का प्रणयन हुआ है। जिस प्रकार इसमें उन सब दृश्यों का सजीव और स्पष्ट चित्रण हुआ है जो सुषमा, भव्यता, विशालता, विचित्रता, पवित्रता इत्यादि की रहस्यमयी भावनाएँ जगाकर हमारे हृदय को अनुभूति की अत्यन्त रमणीय भूमि में पहुँचा देते हैं, उसी प्रकार उस विकट और दीर्घ यात्रा को निर्विघ्न और सुव्यवस्थापूर्वक समाप्त करने के लिए जितनी बातों का जानना आवश्यक है, उतनी सब और कहीं कहीं उससे बहुत अधिक भी इसमें दी हुई मिलेंगी। यह कह देना आवश्यक प्रतीत होता है कि यह पुस्तक केवल प्राकृतिक दृश्य वैचित्रय के अन्वेषक व्यक्तियों के निमित्त ही नहीं, धर्मपरायण तीर्थयात्रियों के उपयोग के लिए भी लिखी गई है। अत: इसमें कैलास मानससरोवर आदि की ठीक ठीक स्थिति का निर्देश करनेवाले प्रमाण भी रामायण, महाभारत पुराणादि से दिए गए हैं तथा प्रत्येक दर्शनीय स्थान का पूरा विवरण भी सन्निविष्ट है। इसके अतिरिक्त उन प्रदेशों में निवासियों के शील और आचार व्यवहार का भी परिचय दिया गया है जिससे यात्री बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं। यात्री को क्या क्या वस्तुएँ अपने पास रखनी चाहिए, मार्ग में कितने ठिकाने पड़ते हैं और कहाँ किस प्रकार की सवारी आदि का सुविधा हो सकती है, ये सब बातें मौजूद हैं। खर्च का भी ठीक ठीक ब्योरा दे दिया गया है।
अपने मित्र सुशील बाबू के धैर्य और साहस पर मैं जितना चकित और मुग्ध हूँ उतना ही इस प्रकार की पुस्तक प्रस्तुत करने के लिए कृतज्ञ भी हूँ। कैलास मानससरोवर के सम्बन्ध में ऐसी और कोई पुस्तक मेरे देखने में अभी तक नहीं आई।
(सन् 1935 ई.)[ चिन्तामणिभाग-4]


शेष स्मृतियाँ की 'प्रवेशिका'


अतीत की स्मृति में मनुष्य के लिए स्वाभाविक आकर्षण है। अर्थपरायण लाख कहा करें कि 'गड़े मुरदे उखाडने से क्या फ़ायदा' पर हृदय नहीं मानता, बार बार अतीत की ओर जाया करता है; अपनी यह बुरी आदत नहीं छोड़ता। इसमें कुछ रहस्य अवश्य है। हृदय के लिए अतीत मुक्तिलोक है जहाँ वह अनेक बन्धनों से छूटा रहता है और अपने शुध्द रूप में विचरता है। वर्तमान हमें अन्धा बनाए रहता है; अतीत बीच बीच में हमारी आँखे खोलता रहता है। मैं तो समझता हूँ कि जीवन का नित्यस्वरूप दिखानेवाला दर्पण मनुष्य के पीछे रहता है; आगे तो बराबर खिसकता हुआ परदा रहता है। बीती बिसारनेवाले 'आगे की सुध' रखने का दावा किया करें, परिणाम अशान्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं। वर्तमान को सँभालने और आगे की सुध रखने का डंका पीटनेवाले संसार में जितने ही अधिक होते जाते हैं संघशक्ति के प्रभाव से जीवन की उलझनें उतनी ही बढ़ती जाती हैं। बीती बिसारने का अभिप्राय है जीवन की अखंडता और व्यापकता की अनुभूति का विसर्जन, सहृदयता और भावुकता का भंग-केवल अर्थ की निष्ठुर क्रीड़ा।
कुशल यही है कि जिनका दिल सही सलामत है, जिनका हृदय मारा नहीं गया है, उनकी दृष्टि अतीत की ओर जाती है। क्यों जाती है, क्या करने जाती है, यह बताते नहीं बनता। अतीत कल्पना का लोक है, एक प्रकार का स्वप्नलोक है, इसमें तो सन्देह नहीं। अत: यदि कल्पनालोक के सब खंडो को सुखपूर्ण मान लें तब तो प्रश्न टेढ़ा नहीं रह जाता; झट से कहा जा सकता है कि वह सुख प्राप्त करने जाती है। पर मेरी समझ में अतीत की ओर मुड़-मुड़कर देखने की प्रवृत्ति सुख दु:ख की भावना से परे है। स्मृतियाँ मुझे केवल 'सुखपूर्ण दिनों के भग्नावशेष' नहीं समझ पड़तीं। वे हमें लीन करती हैं, हमारा मर्मस्पर्श करती हैं, बस, हम इतना ही कह सकते हैं।
जैसे अपने व्यक्तिगत अतीत जीवन की मधुर स्मृति मनुष्य में होती है वैसे ही समष्टि रूप में अतीत नर-जीवन की भी एक प्रकार की स्मृत्याभास कल्पना होती है जो इतिहास के संकेत पर जगती है। इसकी मार्मिकता भी निज के अतीत जीवन की स्मृति की मार्मिकता के समान ही होती है। नर जीवन की चिरकाल से चली आती हुई अखंड परम्परा के साथ तादात्म्य की यह भावना आत्मा के शुध्द स्वरूप की नित्यता और असीमता का आभास देती है। यह स्मृति स्वरूप कल्पना कभी कभी प्रत्यभिज्ञान का भी रूप धारण करती है। जैसे प्रसंग उठने पर इतिहास द्वारा ज्ञात किसी घटना के ब्योरों को कहीं बैठे बैठे हम मन में लाया करते हैं, वैसे ही किसी इतिहासप्रसिध्द स्थल पर पहुँचने पर हमारी कल्पना या मूर्त भावना चट उस स्थल पर की किसी मार्मिक घटना के अथवा उससे सम्बन्ध रखनेवाले कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों के बीच हमें पहुँचा देती है। जहाँ से फिर हम वर्र्तमान की ओर लौटकर कहने लगते हैं-''यह वही स्थल है जो कभी सजावट से जगमगाता था, जहाँ अमुक सम्राट् सभासदों के बीच सिंहासन पर विराजते थे; यह वही द्वार है जहाँ अमुक राजपूत वीर अपूर्व पराक्रम के साथ लड़ा था'' इत्यादि। इस प्रकारहम उस काल से लेकर इस काल तक अपनी सत्ता के आरोप का अनुभव करते हैं।
अतीत की कल्पना स्मृति की सी सजीवता प्राप्त करके अवसर पाकर प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप धारण कर सकती है जिसका आधार या तो आप्त शब्द (इतिहास) अथवा अनुमान होता है। अतीत की यह स्मृति स्वरूप कल्पना कितनी मधुर, कितनी मार्मिक और कितनी लीन करनेवाली होती है, सहृदयों से न छिपा है, न छिपाते बनता है। मनुष्य की अन्त:प्रकृति पर इसका प्रबल प्रभाव स्पष्ट है। हृदय रखनेवाले इसका प्रभाव, इसकी सजीवता अस्वीकृत नहीं कर सकते हैं। इस प्रभाव का, इस सजीवता का, मूल है सत्य। सत्य से अनुप्राणित होने के कारण ही कल्पना स्मृति और प्रत्यभिज्ञान का सा सजीव रूप प्राप्त करती है। कल्पना के इस स्वरूप की सत्यमूलक सजीवता का अनुभव करके ही संस्कृत के पुराने कवि अपने महाकाव्य और नाटक किसी इतिहास पुराण के वृत्ता का आधार लेकर ही रचा करते थे।
सत्य से यहाँ अभिप्राय केवल वस्तुत: घटित वृत्ता ही नहीं निश्चयात्मकता से प्रतीत वृत्ता भी है। जो बात इतिहासों में प्रसिध्द चली आ रही है वह यदि प्रमाणों से पुष्ट भी न हो तो भी लोगों के विश्वास के बल पर उक्त प्रकार की स्मृति स्वरूप कल्पना का आधार हो जाती है। आवश्यक होता है इस बात का पूर्ण विश्वास कि इस प्रकार की घटना इस स्थल पर हुई थी। यदि ऐसा विश्वास कुछ विरुध्द प्रमाण उपस्थित होने पर विचलित हो जायगा तो इस रूप की कल्पना न जगेगी। दूसरी बात ध्या न देने की यह है कि आप्त वचन या इतिहास के संकेत पर चलने वाली मूर्त भावना भी अनुमान का सहारा लेती है। कभी कभी तो शुध्द अनुमति ही मूर्त भावना का परिचालन करती है। यदि किसी अपरिचित प्रदेश में भी किसी विस्तृत खंडहर पर हम जा बैठें तो इस अनुमान के बल पर ही कि यहाँ कभी अच्छी बस्ती थी, हम प्रत्यभिज्ञान के ढंग पर इस प्रकार की कल्पना में प्रवृत्त हो जाते हैं कि ''यह वही स्थल है जहाँ कभी पुराने मित्रों की मंडली जमती थी, रमणियों का हास विलास होता था, बालकों का क्रीड़ा कलरव सुनाई पड़ता था'' इत्यादि। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्यभिज्ञान स्वरूप यह कोरी अनुमानाश्रित कल्पना भी सत्यमूल होती है। वर्तमान समाज का चित्र सामने लानेवाले उपन्यास भी अनुमानाश्रित होने के कारण सत्यमूल होते हैं।
हमारे लिए व्यक्त सत्य है जगत् और जीवन। इन्हीं के अन्तर्भूत रूप व्यापार हमारे हृदय पर मार्मिक प्रभाव डालकर हमारे भावों का प्रर्वत्तानन करते हैं; इन्हीं रूप व्यापारों के भीतर हम भगवान् की कल्पना का साक्षात्कार करते हैं, इन्हीं का सूत्र पकड़कर हमारी भावना भगवान् तक पहुँचती है। जगत् और जीवन के ये रूप व्यापार अनन्त हैं। कल्पना द्वारा उपस्थित कोई रूप व्यापार जब इनके मेल में होता है तब इन्हीं में से एक प्रतीत होता है, अत: ऐसा काव्य सत्य के अन्तर्गत होता है। उसी का गम्भीर प्रभाव पड़ता है। वही हमारे मर्म का स्पर्श करता है। कल्पना की जो कोरी उड़ान इस प्रकार सत्य पर आश्रित नहीं वह हलके मनोरंजन की वस्तु है; उसका प्रभाव केवल बेल बूटे या नक्काशी का सा होता है, मार्मिक नहीं।
हमारा भारतीय इतिहास न जाने कितने मार्मिक वृतों से भरा पड़ा है। मैं बहुत दिनों से इस आसरे में था कि सच्ची ऐतिहासिक कल्पनावाले प्रतिभा काल सम्पन्न कवि और लेखक हमारे वर्तमान हिन्दी साहित्य क्षेत्र में प्रकट हों। किसी की सच्ची ऐतिहासिक कल्पना प्राप्त करने के लिए उस काल से सम्बन्ध रखने वाली सारी उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री की छानबीन अपेक्षित होती है। ऐसी छानबीन कोरे विद्वान् तो करते ही रहते हैं पर उसकी सहायता से किसी काल का जीता जागता सच्चा चित्र वे ही खडाकर सकते हैं जिनकी प्रतिभा काल का मोटा परदा पार करके अतीत का एक एक ब्योरा झलका देती है। आसरा देखते देखते स्वर्गीय 'प्रसाद' जी के नाटक सामने आए जिनमें प्राचीन भारत की बहुत कुछ मधुर झलक मिली। उनके देहावसान के कुछ दिन पूर्व मैंने उपन्यासों के रूप में भी ऐसी झाँकी दिखाने का अनुरोध उनसे किया था जो उनके मन में बैठ भी गया था।
नाटकों के रूप में ऐतिहासिक कल्पना का अतीत प्रदर्शक विधान देखने पर भावात्मक प्रबन्धों के रूप में स्मृति स्वरूप या प्रत्यभिज्ञान स्वरूप कल्पना का प्रवर्तन देखने की लालसा, जो पहले से मन में लिपटी चली आती थी प्रबल हो उठी। किधर से यह लालसा पूरी होगी, यह देख ही रहा था कि 'ताजमहल' और 'एक स्वप्न की शेष स्मृतियाँ' नामक दो गद्य प्रबन्ध देखने में आए। दोनों के लेखक थे महाराजकुमार श्री रघुबीर सिंहजी। आशा ने एक आधार पाया। उक्त दोनों प्रबन्धों में जिस प्रतिभा के दर्शन हुए उसके स्वरूप को समझने का प्रयत्न मैं करने लगा। पहली बात मुझे यह दिखाई पड़ी कि महाराजकुमार की दृष्टि उस कालखंड के भीतर रमी है जो भारतीय इतिहास में 'मध्य काल' कहलाता है। आपकी कल्पना और भावना को जगानेवाले उस काल के कुछ स्मारक चिह्न हैं, यह देखकर इसका भी आभास मिला कि आपकी कल्पना किस ढंग की है। जान पड़ा कि वह स्मृति स्वरूप है, जिसकी मार्मिकता के सम्बन्ध में पहले कहा जा चुका है। महाराजकुमार ऐसे इतिहास के प्रकांड विद्वान के हृदय में ऐसा भाव सागर लहराते देख मैं तृप्त हो गया। विद्वत्ता और भावुकता का ऐसा योग संसार में अत्यन्त विरल है।
प्रस्तुत संग्रह का नाम है 'शेष स्मृतियाँ'। इसमें महाराज कुमार के पाँच भावात्मक निबन्ध हैं जिनके लक्ष्य हैं-ताजमहल, फतहपुर सीकरी, आगरे का किला, लाहौर की तीन (जहाँगीर, नूरजहाँ और अनारकली की) क़ब्रें और दिल्ली का किला। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये पाँचों स्थान जिस प्रकार मुगल सम्राटों के ऐश्वर्य, विभूति, प्रताप, आमोद प्रमोद और भोग विलास के स्मारक हैं उसी प्रकार उनके अवसाद, विषाद, नैराश्य और घोर पतन के। मनुष्य की ऐश्वर्य, विभूति, सुख और सौन्दर्य की वासना अभिव्यक्त होकर जगत् के किसी छोटे या बड़े खंड को अपने रंग में रँगकर मानुषी सजीवता प्रदान करती है। देखते देखते काल उस वासना के आश्रय मनुष्यों को हटाकर किनारे कर देता है। धीरे धीरे ऐश्वर्य विभूति का वह रंग भी मिटता जाता है। जो कुछ शेष रह जाता है वह बहुत दिनों तक ईंट पत्थर की भाषा में एक पुरानी कहानी कहता रहता है। संसार का पथिक मनुष्य उसे अपनी कहानी समझकर सुनता है क्योंकि उसके भीतर झलकता है जीवन का नित्य और प्रकृत स्वरूप।
ये स्मारक न जाने कितनी बातें अपने पेट में लिए कहीं खडे, कहीं बैठे, कहीं पड़े हैं। सीकरी का बुलन्द दरवाजा खडा है। महाराजकुमार उसके सामने जाते हैं और सोचते हैं-
''यदि आज यह दरवाजा अपने संस्मरण कहने लगे, पत्थरों का यह ढेर बोल उठे, तो भारत के न जाने कितने अज्ञात इतिहास का पता लग जावे और न जाने कितनी ऐतिहासिक त्रुटियाँ ठीक की जा सकें।''
कुछ व्यक्तियों के स्मारक चिह्न तो उनके पीछे उनके प्रतिनिधि या प्रतीक बन जाते हैं और उसी प्रकार घृणा या प्रेम के आलम्बन हो जाते हैं जिस प्रकार अपने जीवन काल में वे व्यक्ति थे-
''जीवन बीत चुकने पर जब मनुष्य उसे समेटकर इस लोक से विदा लेता है तब संसार उस विगत आत्मा के संसर्ग में आई हुई वस्तुओं पर प्रहार कर या उन्हें चूमकर समझ लेता है कि वह उस अन्तर्हित आत्मा के प्रति अपने भाव प्रकट कर रहा है। उस मृत व्यक्ति के पाप या पुण्य का भार उठाते हैं उसके जीवन से सम्बध्द ईंट और पत्थर।''
किसी अतीत जीवन के ये स्मारक या तो यों ही, शायद काल की कृपा से, बने रह जाते हैं अथवा जान बूझकर छोड़े जाते हैं। जान बूझकर कुछ स्मारक छोड़ जाने की कामना भी मनुष्य की प्रकृति के अन्तर्गत है। अपनी सत्ता के लोप की भावना मनुष्य को असह्य है। अपनी भौतिक सत्ता तो वह बनाए नहीं रख सकता; अत: वह चाहता है कि उस सत्ता की स्मृति ही किसी जनसमूह के बीच बनी रहे। वाह्य जगत में नहीं तो अन्तर्जगत के किसी खंड में ही वह उसे बनाए रखना चाहता है। इसे हम अमरत्व की आकांक्षा या आत्मा में नित्यत्व का इच्छात्मक आभास कह सकते हैं-
''भविष्य में आनेवाले अपने अन्त के तथा उसके अनन्तर अपने व्यक्तित्व के ही नहीं, अपने सर्वस्व के, विनष्ट होने के विचार मात्र से ही मनुष्य का सारा शरीर सिहर उठता है।...मनुष्य इस भौतिक संसार में अपनी स्मृतियाँ-अमिट स्मृतियाँ-छोड़ जाने को विकल हो उठते हैं।''
अपनी स्मृति बनाए रखने के लिए कुछ मनस्वी कला का सहारा लेते हैं और उसके आकर्षक सौन्दर्य की प्रतिष्ठा करके विस्मृति के गङ्ढे में झोंकनेवाले काल के हाथों को बहुत दिनों तक-सहस्रों वर्ष तक-थामे रहते हैं-
''यद्यपि समय के सामने किसी की भी नहीं चलती तथापि कई मस्तिष्कों ने ऐसी खूबी से काम किया, उन्होंने ऐसी चालें चलीं कि समय के इस प्रलयंकारी भीषण प्रवाह को भी बाँधने में वे समर्थ हुए। उन्होंने काल को सौन्दर्य के अदृश्य किन्तु अचूक पाश में बाँध डाला है, उसे अपनी कृतियों की अनोखी छटा दिखाकर लुभाया है; यों उसे भुलावा देकर कई बार मनुष्य अपनी स्मृति के ही नहीं, किन्तु अपने भावों के स्मारकों को भी चिरस्थायी बना सका है।''
इस प्रकार ये स्मारक काल के प्रवाह को कुछ थामकर मनुष्य की कई पीढ़ियों की आँखों से ऑंसू बहवाते चले चलते हैं। मनुष्य अपने पीछे होनेवाले मनुष्यों को अपने लिए रुलाना चाहता है। महाराजकुमार के सामने सम्राटों की अतीत जीवनलीला के ध्वस्त रंगमंच हैं, सामान्य जनता की जीवनलीला के नहीं। इनमें जिस प्रकार भाग्य के ऊँचे से ऊँचे उत्थान का दृश्य निहित है वैसे ही गहरे से गहरे पतन का भी। जो जितने ही ऊँचे पर चढ़ा दिखाई देता है गिरने पर वह उतना ही नीचे जाता दिखाई देता है। दर्शकों को उसके उत्थान की ऊँचाई जितनी कुतूहलपूर्ण और विस्मयकारिणी होती है उतनी ही उसके पतन की गहराई मार्मिक और आकर्षक होती है। असामान्य की ओर लोगों की दृष्टि भी अधिक दौड़ती है, टकटकी भी अधिक लगती है। अत्यन्त ऊँचाई से गिरने का दृश्य मनुष्य कुतूहल के साथ देखता है, जैसा कि इन प्रबन्धों में भावुक लेखक कहते हैं-
''ऊँचाई से खंड में गिरनेवाले जलप्रपात को देखने के लिए सैकड़ों कोसों की दूरी से मनुष्य चले आते हैं।...उन उठे हुए कगारों पर टकराकर उस जलधारा का छितरा जाना, खंड-खंडहोकर फुहारों के स्वरूप में यत्रा तत्रा बिखर जाना, हवा में मिल जाना-बस इसी दृश्य को देखने में मनुष्य को आनन्द आता है।''
जीवन तो जीवन-चाहे राजा का हो, चाहे रंक का। उसके सुख और दु:ख दो पक्ष होंगे ही। इनमें से कोई पक्ष स्थिर नहीं रह सकता। संसार और स्थिरता? अतीत के लम्बे चौड़े मैदान के बीच में इन उभय पक्षों की घोर विषमता सामने रखकर आप जिस भावधारा में डूबे हैं उसी में औरों को भी डुबाने के लिए भावुक महाराजकुमार ने ये शब्द स्रोत बहाए हैं। इस पुनीत भाव धारा में अवगाहन करने से वर्तमान की, अपने-पराये की, लगी लिपटी मैल छँटती है और हृदय स्वच्छ होता है। सुख दु:ख की विषमता पर जिसकी भावना मुख्यौत: प्रवृत्त होगी वह अवश्य एक ओर तो जीवन का भोग पक्ष--यौवन मद, विलास की प्रभूत सामग्री, कला सौन्दर्य की जगमगाहट, राग रंग और आमोद प्रमोद की चहल पहल--और दूसरी ओर अवसाद, नैराश्य और उदासी सामने रखेंगा। इतिहास प्रसिध्द बड़े बड़े प्रतापी सम्राटों के जीवन को लेकर भी वह ऐसा ही करेगा। उनके तेज, प्रताप, पराक्रम, इत्यादि की भावना वह इतिहासविज्ञ पाठक की सहृदयता पर छोड़ देगा। अपनी पुस्तक में महाराजकुमार ने अधिकांश में जो जीवन के भोग पक्ष का ही अधािक विधान किया है उसका कारण मुझे यही प्रतीत होता है। इसी से 'मद' और 'प्याले' बार बार सामने आए हैं, जो किसी को ख् ाटक सकते हैं।
कहने की आवश्यकता नहीं, सुख और दु:ख के बीच का वैषम्य जैसा मार्मिक और हृदयस्पर्शी होता है वैसा ही उन्नति और अवनति, प्रताप और द्रास के बीच का भी। इस वैषम्य प्रदर्शन के लिए एक ओर तो किसी के पतन काल के असामर्थ्य, दीनता, विवशता, उदासीनता इत्यादि के दृश्य सामने रखें जाते हैं; दूसरी ओर उसके ऐश्वर्यकाल के प्रताप, तेज, पराक्रम इत्यादि के वृत्ता स्मरण किए जाते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में दिल्ली के किले के प्रसंग में शाहआलम, मुहम्मदशाह और बहादुरशाह के बुरे दिनों के चुने चित्र दिखाकर जो गूढ़ और गम्भीर प्रभाव डाला है उसे हृदय के भीतर गहराई तक पहुँचानेवाली वस्तु है अकबर, शाहजहाँ, औरंगजेब आदि बादशाहों के तेज, प्रताप और पराक्रम की भावना। पर जैसा कि कहा जा चुका है भावुक लेखन ने इस भावना को प्राय: व्यक्त नहीं किया है; उसे पाठक के अन्त:करण में इतिहास द्वारा प्रतिष्ठित मान लिया है।
बात यह है कि सम्राटों के प्रभुत्व, प्रताप, अधिकार इत्यादि सूचित करनेवाली घटनाओं का उल्लेख तो इतिहास करता ही है, अत: भावुक कवि या लेखक अपनी कल्पना द्वारा जीवन के उन भीतरी बाहरी ब्योरों को सामने लाता है जिन्हें इतिहास निष्प्रयोजन समझ छलाँग मारता हुआ छोड़ जाता है। ताजमहल जिस दिन बनकर पूरा हो गया होगा और शाहजहाँ बड़ी धूमधाम के साथ पहले पहल उसे देखने गया होगा वह दिन कितने महत्तव का रहा होगा। पर जैसा कि महाराजकुमार कहते हैं, ''उस महान् दिवस का वर्णन इतिहासकारों ने कहीं भी नहीं किया है। कितने सहस्र नर नारी आबाल वृध्द उस दिन उस अपूर्व मकबरे के दर्शनार्थ एकत्र हुए होंगे? भिन्न भिन्न दर्शकों के हृदयों में कितने विभिन्न भाव उत्पन्न हुए होंगे?...जिस समय शाहजहाँ ने ताज के उस अद्वितीय दरवाजे पर खडे होकर उस समाधि को देखा होगा उस समय उसके हृदय की क्या दशा हुई होगी?'' भावुक लेखक की कल्पना इतिहास द्वारा छोड़े हुए जीवन के ब्योरों को सामने रखने में प्रवृत्त हुई है। बात बहुत ठीक है। इस सम्बन्ध में मेरा कहना इतना ही है कि इतिहास के शुष्क निर्जीव विधान में तेज, प्रताप और प्रभुत्व व्यंजित करनेवाले ब्योरे भी छूटे रहते हैं। उनके सजीव चित्र भी शक्तिशाली ऐतिहासिक पुरुषों की जीवन स्मृति में अपेक्षित हैं। आशा है उनकी ओर भी महाराजकुमार की भाव प्रेरित कल्पना प्रवृत्त होगी।
'शेष स्मृतियाँ' में अधिकतर जीवन का भोग पक्ष विवृत है यह विवृति सुख सौन्दर्य की अस्थिरता की भावना को विषण्णता प्रदान करती दिखाई पड़ती है। इसे हम लेखक का साध्यर नहीं ठहरा सकते। संसार में सुख की भावना किस प्रकार सापेक्ष है इसकी ओर उनकी दृष्टि है। वे कहते हैं-
''दु:ख के बिना सुख! नहीं, नहीं! तब तो स्वर्ग नरक से भी अधिक दु:खपूर्ण हो जायगा।...स्वर्ग का महत्तव तभी हो सकता है जब उसके साथ नरक भी हो। स्वर्ग के निवासी उसको देखतें तथा स्वर्ग की ओर नरकवासियों द्वारा डाली जानेवाली तरसभरी दृष्टि की प्यास को समझ सकें।''
मनुष्य के हृदय से स्वतन्त्र सुख दु:ख की, स्वर्ग नरक की, कोई सत्ता नहीं। जो सुख दु:ख को कुछ नहीं समझते, यदि वे कहीं हों भी तो समझना चाहिए कि उनके पास हृदय नहीं है; वे दिलवाले नहीं-
''स्वर्ग और नरक। उनका भेद, सौन्दर्य और कुरूपता...इनको तो वे ही समझ सकते हैं जिनके वक्षस्थल में एक दिल-चाहे वह अधजला, झुलसा या टूटा हुआ ही क्यों न हो-धड़कता हो। उस स्वर्ग को, उस नरक को, दिलवालों ने ही तो बसाया। यह दुनिया, इसके बन्धन, सुख और दु:ख...ये सब भी तो दिलदारों के ही आसरे हैं।''
''अनन्त यौवन, चिरसुख तथा मस्ती इन सबका निर्माण करके दिल ने उस स्वर्ग की नींव डाली थी। परन्तु साथ ही असंतोष तथा दु:ख का निर्माण भी तो दिल के ही हाथों हुआ था।''
सुख के साथ दु:ख भी लुका छिपा लगा रहता है और कभी न कभी प्रकट होकर उस सुख का अन्त कर देता है-
''दिलवालों के स्वर्ग में नरक का विष फैला। अनन्तयौवना विषकन्या भी होती है। उसका सहवास करके कौन चिरजीवी हुआ है? सुख को दु:ख के भूत ने सताया। मस्ती और उन्माद को क्षयरूपी राज रोग लगा।''
जब संसार में कोई वस्तु स्थायी नहीं तो सुख दशा कैसे स्थायी रह सकती है? जिसे कभी पूर्ण सुख समृध्दि प्राप्त थी उसके लिए केवल उस सुख दशा का अभाव ही दु:ख स्वरूप होगा। उसे सामान्य दशा ही दु:ख की दशा प्रतीत होगी। जो राजा रह चुका है उसकी स्थिति यदि एक सम्पन्न गृहस्थी की सी हो जायगी तो उसे वह दु:ख की दशा ही मानेगा। सुख की यह सापेक्षता समष्टि रूप में दु:ख की अनुभूति की अधिकता बनाए रहती है किसी एक व्यक्ति के जीवन में भी, एक कुल या वंश की परम्परा में भी। इसी से यह संसार दु:खमय कहा जाता है।
इस दु:खमय संसार में सुख की इच्छा और प्रयत्न प्राणियों की विशेषता है। यह विशेषता मनुष्य में सबसे अधिक रूपों में विकसित हुई है। मनुष्य की सुखेच्छा कितनी प्रबल, कितनी शक्तिशालिनी निकली! न जाने कब से वह प्रकृति को काटती छाँटती, संसार का कायापलट करती चली आ रही है। वह शायद अनन्त है, अनन्त का प्रतीक है। वह इस संसार में न समा सकी तब कल्पना को साथ लेकर उसने कहीं बहुत दूर स्वर्ग की रचना की-
''अमरत्व की भावना ही मनुष्य के जीवन को सौन्दर्य तथा माधुर्य से पूर्ण बनाती है। यह भौतिक स्वर्ग या उस पार का वह बहिश्त, एक ही भावना, चिरसुख की इच्छा ही उनमें पाई जाती है।''
इस चिरसुख के लिए मनुष्य जीवन भर लगातार प्रयत्न करता रहता है; अनेक प्रकार के दु:ख, अनेक प्रकार के कष्ट उठाता रहता है। इस दु:ख और कष्ट की परम्परा के बीच में सुख की जो थोड़ी सी झलक मिल जाती है वह उसको ललचाते रहने भर के लिए होती है, पर उसी को वह सुख मान लेता है-
''स्वर्ग सुख, सुख इच्छा का भावनापूर्ण पुंज, वह तो मनुष्य की कठिनाइयों को, सुख तक पहुँचने के लिए उठाए गए कष्टों को देखकर हँस देता है, और मनुष्य उसी कुटिल हँसी से ही मुग्ध होकर स्वर्ग प्राप्ति का अनुभव करता है।''
उत्तरोत्तर सुख की इच्छा यदि मनुष्य के हृदय में घर न किए हो तो शायद उसे दु:ख के इतने अधिक और इतने कड़े धक्के न सहने पड़ें। जिसे संसार अत्यन्त समृध्दिशाली, अत्यन्त सुखी समझता है उसके हृदय पर कितनी चोटें पड़ी हैं कोई जानता है? बाहर से देखनेवालों को अकबर के जीवन में शान्ति और सफलता ही दिखाई पड़ती है। पर हमारे भावुक लेखक की दृष्टि जब फहतपुर सीकरी के लाल लाल पत्थरों के भीतर घुसी तब वहाँ अकबर के हृदय के टुकड़े मिले-
''अपनी आशाओं और कामनाओं को निष्ठुर संसार द्वारा कुचले जाते देखकर अकबर रो पड़ा। उसका सजीव कोमल हृदय फटकर टुकड़े टुकड़े हो गया। वे टुकड़े सारे भग्न स्वप्नलोक में बिखर गए, निर्जीव होकर पथरा गए। सीकरी के लाल लाल खँडहर अकबर के उस विशाल हृदय के रक्त से सने हुए टुकड़े हैं।''
चतुर्वर्ग में इसी सुख का नाम ही 'काम' है। यद्यपि देखने में 'अर्थ' और 'काम' अलग अलग दिखाई पड़ते हैं, पर सच पूछिए तो 'अर्थ' और 'काम' का ही एक साधन ठहरता है, साध्यव रहता है 'काम' या सुख ही। अर्थसंचय, आयोजन और तैयारी की भूमि है; काम भोग भूमि है। मनुष्य कभी अर्थ भूमि पर रहता है, कभी काम भूमि पर अर्थ साधना और काम साधना के बीच जीवन बाँटता हुआ वह चला चलता है। दोनों के स्वरूप 'दोनों' धूर्वों की नाईं विभिन्न हैं।' इन दोनों में अच्छा सामंजस्य रखना सफलता के मार्ग पर चलना है। जो अनन्य भाव व अर्थ साधना में ही लीन रहेगा वह हृदय खो देगा; जो आँख मूँदकर काम साधना में ही लिप्त रहेगा वह किसी अर्थ का न रहेगा। अकबर ने किस प्रकार दोनों का मेल किया था, देखिए-
''स्वप्नलोक के स्वप्नागार में पड़ा अकबर साम्राज्य संचालन का स्वप्न देखा करता था। राज्य कार्य करते हुए भी सुख भोग का मद न उतरने देने के लिए अकबर ने इस स्वप्नागार की सृष्टि की थी।''
अकबर को अपना साम्राज्य दृढ़ करने के लिए बहुत कष्ट उठाने पड़े थे, बड़ी तपस्या करनी पड़ी थी, पर उसके हृदय की वासनाएँ मारी नहीं गई थीं-
''प्रारम्भिक दिनों की तपस्या उसकी उमड़ती हुई उमंगों को नहीं दबा सकी थी। विलास वासना की ज्वाला अब भी अकबर के दिल में जल रही थी, केवल उसके ऊपरी सतह पर संयम की राख चढ़ गई थी।''
गम्भीर चिन्तन से उपलब्ध जीवन के तथ्य सामने रखकर जब कल्पना मूर्त विधान में और हृदय भाव संचार में प्रवृत्त होते हैं तभी मार्मिक प्रभाव उत्पन्न होता है। 'शेष स्मृतियाँ' इस प्रकार के अनेक मार्मिक तथ्य हमारे सामने लाती है। मुमताजमहल बेगम शाहजहाँ को इस संसार में छोड़कर चली गई। उसका भूविख्या त मक़बरा भी बन गया। शाहजहाँ के सारे जीवन पर उदासी छाई रही। पर शोक की छाया मनुष्य की सुख लिप्सा को सब दिन के लिए दबा दे, ऐसा बहुत कम होता है। कोई प्रिय वस्तु चली जाती है। उसके अभाव की अन्धकारमयी अनुभूति सारा अन्त:प्रदेश छेंक लेती है और उसमें किसी प्रकार की सुख कामना के लिए जगह नहीं रह जाती। पर धीरे धीरे वह भावना सिमटने लगती है और नई कामनाओं के लिए अवकाश होने लगता है। मनुष्य अपना मन लगाने के लिए कोई सहारा ढूँढ़ने लगता है क्योंकि मन बिना कहीं लगे रह नहीं सकता। शाहजहाँ ने महत्तव प्रदर्शन और सौन्दर्य दर्शन की कामना को खोद खोदकर जगाया और उसकी तुष्टि की भीख कला से माँगी। दिल्ली उसके हृदय के समान ही उजड़ी पड़ी थी। दिल्ली फिर से बसाकर उसने अपना हृदय फिर से बसाया। मन ही मन दिल्ली को शाहजहाँबाद बनाकर उसकी रूपरेखा खींचने लगा। नर प्रकृति के एक विशेष स्वरूप को सामने लानेवाली शाहजहाँ की इस मानसिक दशा की ओर महाराजकुमार ने इस प्रकार दृष्टिपात किया है-
''एक बार मुँह से लगी नहीं छूटती। एक बार स्वप्न देखने की सुख स्वप्नलोक में विचरने की लत पड़ने पर उसके बिना जीवन नीरस हो जाता है। प्रेम मदिरा को मिट्टी में मिलाकर शाहजहाँ पुन: मस्ती लाने को लालायित हो रहा था; अपने जीवन सर्वस्व को खोकर जीवन का कोई दूसरा आसरा ढूँढ़ रहा था।...सुन्दर सुकोमल अनारकली को कुचल देनेवाली कठोर हृदया राज्यश्री शाहजहाँ की सहायक हुई। राज्यश्री ने सम्राट् को प्रेमलोक से भुलावा देकर संसार के स्वर्ग की ओर आकृष्ट किया।''
किसी को दु:ख से संतप्त देख बहुत से ज्ञानी बननेवाले इस जीवन की क्षणभंगुरता का, संयोग वियोग की नि:सारता आदि का उपदेश देने लग जाते हैं। इस प्रकार के उपदेश शुष्क प्रथानुसरण या अभिनय के अतिरिक्त और कुछ नहीं जान पड़ते। दु:खी मनुष्य के हृदय पर इनका कोई प्रभाव नहीं; कभी कभी तो ये उसे और भी क्षुब्ध कर देते हैं-
''दार्शनिक कहते हैं, जीवन एक बुदबुदा है, भ्रमण करती हुई आत्मा के ठहरने की एक धर्मशाला मात्र है। वे यह भी बताते हैं कि इस जीवन का संग तथा वियोग क्या है-एक प्रवाह में संयोग के साथ बहते हुए लकड़ी के टुकड़ों के साथ तथा विलग होने की कथा है। परन्तु क्या ये विचार एक संतप्त हृदय को शान्त कर सकते हैं?...सांसारिक जीवन की व्यथाओं से दूर बैठा हुआ जीवन संग्राम का एक तटस्थ दर्शक चाहे कुछ भी कहे, किन्तु जीवन के इस भीषण संग्राम में युध्द करते हुए घटनाओं के घोर थपेड़े खाते हुए हृदयों की क्या दशा होती है, यह एक भुक्तभोगी ही बता सकता है।''
इसी प्रकार जीवन के और तथ्य भी हमारे सामने आते हैं। अपने प्राण या प्रभुत्व ऐश्वर्य की रक्षा की बुध्दि या सामर्थ्य न रखकर भी किसी प्रेम के सहारे मनुष्य किस प्रकार अपना जीवन पार करता जाता है इसका एक सच्चा उदाहरण जहाँगीर और नूरजहाँ के प्रसंग में मिलता है। जहाँगीर तो नूरजहाँ को पाकर 'मोहमयी प्रसाद मदिरा' पीकर पड़ गया, नूरजहाँ ही उसके साम्राज्य को और समय समय पर उसको भी सँभालती रही-
''जहाँगीर भी आँखे बन्द किए पड़ा पड़ा सुरा, सुन्दरी तथा संगीत के स्वप्नलोक में विचर रहा था। किन्तु जब एक झोंका आया और तूफान का अन्त होने लगा, तब जहाँगीर ने आँखे कुछ खोलीं, देखा कि उसको लिए नूरजहाँ रावलपिंडी के पास भागी चली जा रही थी, खुर्रम और महावत खाँ झेलम के इस पार डेरा डाले पड़े थे।''
जीवन के एक तथ्य का मूर्त और सजीव चित्र खडाकरने के लिए सहृदय लेखक ने कैसा सटीक और स्वाभाविक व्यापार चुना है। ''जहाँगीर ने आँखे कुछ खोलीं, देखा कि उसको लिए नूरजहाँ भागी चली जा रही थी।'' लेकर भागने का व्यापार सँभालने और बचाने का प्राकृतिक और सनातन रूप सामने खडाकर देताहै।
यह बात नहीं है कि महाराजकुमार की दृष्टि अपने समकक्ष जीवन पर ही, शक्तिशाली सम्राटों के ऐश्वर्य, विभूति, उत्थान पतन आदि पर ही पड़ी हो, सामान्य जनता के सुख दु:ख की ओर न मुड़ी हो। आपके भीतर जो शुध्द मनुष्यता की निर्मल ज्योति है उसी के उजाले में आपने सम्राटों के जीवन को भी देखा है। यद्यपि जिन पाँचों स्थानों को आपने सामने रखा है उनका सम्बन्ध इतिहास प्रसिध्द शासकों से है, फिर भी उनके अतीत ऐश्वर्य मद का स्मरण करते समय आपने उन बेचारों का भी स्मरण किया है जिनके जीवन का सारा रस निचोड़कर वह मद का प्याला भरा गया था-
''वैभव से विहीन सीकरी के वे खंडहर मनुष्य की विलास वासना और वैभव लिप्सा को देखकर आज भी बीभत्स अट्टहास करते हैं। अपनी दशा को देखकर सुध आती है उन्हें उन करोड़ों मनुष्यों की, जिनका हृदय, जिनकी भावनाएँ, शासकों, धनिकों तथा विलासियों की कामनाएँ पूर्ण करने के लिए निर्दयता के साथ कुचल गई थीं। आज भी उन भव्य खंडहरों में उन पीढ़ियों का रुदन सुनाई देता है।''
स्मृति स्वरूप कल्पना कवियों और लेखकों को या तो मुख्यंत: अतीत के रूप चित्रण में प्रवृत्त करती है अथवा कुछ मार्मिक रूपों को लेकर भावों की प्रचुर और प्रगल्भ व्यंजना में। दोनों का अपना अलग अलग मूल्य है। मेरी समझ में महाराजकुमार की प्रतिभा दूसरे ढर्रे की है। आपके प्रबन्धों में मानसिक दशाओं का भावों के उद्गार का ही मुख्य् स्थान है, वस्तु चित्रण का गौण या अल्प। भावुक लेखक की दृष्टि किसी अतीत कालखंड की संस्कृति के स्वरूप की ओर नहीं है; मानव जीवन के नित्य और सामान्य स्वरूप की ओर है। इसका आभास मोती मसजिद के इस उल्लेख में कुछ मिलता है-
''उस निर्जन स्थान में एकाध व्यक्ति को देखकर ऐसा अनुमान होता है कि उन दिनों यहाँ आनेवाले व्यक्तियों में से किसी की आत्मा अपनी पुरानी स्मृतियों के बन्धन में पड़कर खिंची चली आई है।''
यह भावना अत्यन्त स्वाभाविक है। पर संस्कृति के स्वरूप पर विशेष दृष्टि रखनेवाला भावुक उपर्युक्त वाक्य में आए हुए 'एकाध व्यक्ति' के पहले 'पुरानी चाल ढाल वाला' विशेषण अवश्य जोड़ता।
वस्तु चित्रण की ओर यदि महाराजकुमार का ध्याान होता तो दरबार की सजावट, दरबारियों की पोशाक, उनके खम्भेे टेककर खडे होने, उनकी ताजीम आदि का, इसी प्रकार विलास भवन में बेगमों, बाँदियों और खोजों की वेशभूषा, ईरान और दमिश्क के रंगबिरंगे कालीनों और बड़े बड़े फानूसों और शम:दानों का दृश्य अवश्य खडाकरते। पर दृश्य विधान उनका उद्देश्य नहीं जान पड़ता। इसका अभिप्राय यह नहीं कि विस्तृत वस्तु चित्रण है ही नहीं। यह कहा जा चुका है कि सुख दु:ख का वैषम्य दिखानेके लिए महाराजकुमार ने भोग पक्ष ही अधिकतर लिया है। अत: जहाँ सुखमय आमोद प्रमोद, शोभा, सौन्दर्य, सजावट आदि के प्राचुर्य की भावना उत्पन्न करना इष्ट हुआ है वहाँ विस्तृत चित्रण भी अनूठेपन के साथ मिलता है, जैसे दिल्ली की किलेवाली नहर की जल क्रीड़ा के वर्णन मे-
''उस स्वर्गगंगा में, उस नहर इ बहिश्त में, खेल करती थीं उस स्वर्ग की अत्यनुपम सुन्दरियाँ। उन श्वेत पत्थरों पर अपनी सुगन्ध फैलाता हुआ वह जल अठखेलियाँ करता, कलकल ध्वतनि में चिरसंगीत सुनाता चला जाता था, और वे अप्सराएँ अपने श्वेतांगों पर रंगबिरंगे वस्त्रा लपेटे, नूपुर पहने, अपने ही ध्याथन में मस्त झुन झुन की आवाज करती हुई जल क्रीड़ा करती थीं।...और जब वह हम्माम बसता था, स्वर्ग निवासी जब उस स्वर्गगंगा में नहाने के लिए आते थे, और अनेकानेक प्रकार के स्नेह से पूर्ण चिराग उस हम्माम को उज्ज्वलित करते थे, रंग-बिरंगे सुगन्धित जलों के फव्वारे जब छूटते थे, तब वहाँ उस स्वर्ग में सौन्दर्य बिखर पड़ता था, सुख छलकता था, उल्लास की बाढ़ आ जाती थी, मस्ती का एकछत्र शासन होता था और मादकता का उलंग नर्तन।''
यह कह आए हैं कि मानसिक दशाओं के चित्रण और उमड़ते भावों की अनूठी व्यंजना ही इस पुस्तक की मुख्यड़ विशेषता है। मानसिक दशाएँ हैं अकबर, शाहजहाँ ऐसे ऐतिहाससिक पात्रों की; उमड़ते हुए भाव हैं लेखक के अपने। सीकरी के प्रसिध्द फ़कीर सलीमशाह से मिलने पर अकबर का राज तेज तप के तेज के सामने किस प्रकार फीका पड़ा और उसकी वृत्ति किस प्रकार बहुत दिनों तक कुछ और ही रही, पर फिर ऐश्वर्यविभूति में लीन हुई इसका बड़े सुन्दर ढंग से निरूपण है-
''अकबर ने तप और संयम की अद्वितीय चमक देखी, किन्तु अनुकूल वातावरण न पाकर वह ज्योति अन्तर्हित हो गई। पुन: सर्वत्र भौतिकता का अन्धकार छन गया, किन्तु इस बार उसमें आशा की चाँदनी फैली।''
इसी प्रकार मुमताजमहल के देहावसान पर शाहजहाँ की मनोवृत्ति का भी मार्मिक चित्रण है।
अब थोड़ा महाराजकुमार के वाग्वैशिष्टय को भी समझना चाहिए। उनके निबन्ध भावात्मक और कल्पनात्मक हैं। कल्पना से मेरा अभिप्राय वस्तु की कल्पना या प्रस्तुत की कल्पना नहीं; प्रस्तुत के वर्णन में अत्यन्त उद्बोधाक और व्यंजक अप्रस्तुतों की कल्पना है। इसमें सन्देह नहीं कि अप्रस्तुत विधान अत्यन्त कलापूर्ण, आकर्षण और मर्मस्पर्शी हैं। वाह्य परिस्थितियों या वस्तुओं का संश्लिष्ट चित्रण तो इन भावप्रधान निबन्धों का लक्ष्य नहीं है, पर उन मूर्त वस्तुओं के सौन्दर्य, माधुर्य, दीप्ति इत्यादि की भावना जगाना उनके भाव विधान के अन्तर्गत है। अत: इस प्रकार की भावना जगाने के लिए अप्रस्तुतों के आरोप और अध्य वसान का, साम्यमूलक अलंकार पध्दति का सहारा लिया गया है। जैसे नगरी को कई जगह प्रेयसी सुन्दरी का रूपक दिया गया है। शाहजहाँ की बसाई दिल्ली बढ़ते हुए प्रौढ़ साम्राज्य की नवीन प्रेयसी' और अन्यत्र 'बहुभर्तृका पांचाली' कही गई है। लाल किले का संकेत बड़े ही अनूठे ढंग से इस प्रकार किया गया है-
''अपने नए प्रेमी को स्थान देने के लिए उसने एक नवीन हृदय की रचनाकी।''
कहीं कहीं प्रस्तुत और अप्रस्तुत का एक साथ बहुत ही सुन्दर समन्वय है,जैसे-
''वह लाल दीवार और उस पर वे श्वेत स्फटिक महल-उस लाल सेज पर लेटी हुई वह श्वेतांगी।''
जिन दृश्यों की ओर संकेत किया गया है वे भावना से पूर्णतया रंजित होने पर भी लेखक के सूक्ष्म निरीक्षण का पता देते हैं, यह बताते हैं कि उनमें परिस्थिति के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंगों के साक्षात्कार की पूर्ण प्रतिभा है। शाहजहाँ की नई दिल्ली पूरी सजधाज से उसके प्रथम स्वागत के लिए खडी है। वह जमुना के उस पार से आ रहा है। लाल दीवार के ऊपर श्वेत प्रसाद उठे दिखाई पड़ रहे हैं। नाव धीरे धीरे निकट पहुँचती है। अब श्वेत प्रसाद दृष्टि से ओझल हो जाते हैं; लाल दीवार ही सामने दिखाई पड़ रही है। यह दृश्य भावना से रंजित होकर इस रूप में सामने आता है-
''श्वेतांगी-अपने प्रियतम को आते देख सकुचा गई, उसने लज्जावश अपना मुख अपने अंचल में छिपा लिया।''
दिल्ली के महलों में यमुना का जल लाकर नहरें क्या निकाली गईं मानो ''यमुना ने अपना दिल चीरकर उस स्वर्ग को सींचा; उस कृष्ण्वर्णा ने अपने हार्दिक भावों तथा शुध्द प्रेम का मीठा चमचमाता जीवन उस स्वर्ग में बहाया।''
प्रस्तुत पुस्तक में अध्य वसान पध्दति पर बहुत जगह घटनाओं की ओर भी संकेत हैं, जिन्हें इतिहास के ब्योरों से अपरिचित जल्दी नहीं समझ सकते! मुगल बादशाहों के इतिवृत्ता से परिचित पाठक ही महाराजकुमार के निबन्धों का पूरा आनन्द उठा सकते हैं। जो जहाँगीर और अनारकली के दु:खपूर्ण प्रेम प्रसंग को नहीं जानते वे 'तीन कब्रें' के बहुत से अंश की भावात्मकता हृदयंगम नहीं कर सकते। 'उजड़ा स्वर्ग' में, जो महाराजकुमार की सबसे प्रौढ़ मार्मिक और कलापूर्ण रचना है, ऐसे कई स्थल हैं जहाँ घटनाओं का उल्लेख साम्यमूलक गूढ़ संकेतों द्वारा ही है, जैसे-
''आलम का शाह पालम तक शासन करता था।...जब इस लोक में देखने योग्य कुछ न रहा तब वह प्रज्ञाचक्षु हो गया। परन्तु वारांगनाओं को दिव्य दृष्टि से क्या काम? उन्होंने अन्धोंू का कब साथ दिया है? अन्धे कब तक अन्धी पर शासन कर सके हैं? दुर्भाग्य रूपी दुर्दिन के उस अँधियारे में, नितान्त अन्धोपन की उसे अनन्त रात्रि में, रात्रि का राजा उस अन्धीि को ले उड़ा और वह पहुँची वहाँ जहाँ समुद्र के बीच शेषशायी सुखपूर्ण विश्राम कर रहे थे।''
अन्धा शाहआलम किस प्रकार दिल्ली की सल्तनत न सँभाल सका और बहुत दिनों तक मराठों की देख रेख में रहकर अन्त में सात समुद्र पार के अंगरेजों की शरण में गया जिससे उसकी राजशक्ति उससे विमुख होकर वस्तुत: अंगरेजों के हाथ में चली गई इसी का संकेत ऊपर के उध्दरण में है।
भावुक लेखक ने हुमायूँ के मकबरे को स्वर्ग की बगल का नरक कहा है, जिसने एक दूसरे से दिल का दर्द सुनाने के लिए-
''न जाने कितने दु:खी मुगल शासकों को अपनी ओर आकर्षित किया। दु:ख का वह अपार सागर, निराशा की आहों का वह तपा तपाया हुआ कुंड ऑंसुओं का वह भीषण प्रवाह, टूटे हुए दिलों की वह दर्दभरी चीख।....वे टूटे दिल एक साथ बैठकर रोते हैं, रो रोकर उन्होंने कई बार उन रक्तरंजित पत्थरों को धाो डाला पर हृदय का वह रुधिर बहुत गहरा रंग लाया है, उनके धोये नहीं धुलता।''
जो दारा की गति से परिचित हैं, जो जानते हैं कि सन् 1857 के बलवे में शाही खानदान के लोगों के उच्छिन्न होने के पहले उसी मकबरे में पनाह ली थी, वे ही ऊपर की पंक्तियों का पूरा प्रभाव ग्रहण कर सकते हैं।
दिल्ली का किला हमारे भावुक महाराजकुमार को 'उजड़ा स्वर्ग' दिखाई पड़ा है। उसने उनके हृदय में न जाने कितनी करुण स्मृतियाँ जगाई हैं। दिल्ली के नाममात्र के अन्तिम बादशाह बहादुरशाह ने अपना क्षोभपूर्ण दीन जीवन उसी किले में रोते रोते बिताया था। इस भौतिक जगत में सुख का कहीं ठिकाना न पाकर वे अपना नाम 'जफ़र' रखकर कविता के कल्पनालोक में भागा करते थे। पर वहाँ भी उनका रोना न छूटा; वहाँ भी बुरों की जान को वे रोते थे-''ऐसे रोए बुरों की जाँ को हम, रोते रोते उलट गईं आँखे।'' उनके सामने जौक़ और ग़ालिब ऐसे उस्ताद अपने कलाम सुनाते थे। शाहजादे की शादी के मौके पर गालिब ने एक 'सेहरा' लिख था जिसके किसी वाक्य में जौक़ ने अपने ऊपर आक्षेप समझकर जवाब दिया था। पर शायरी की इस चहल पहल से बहादुरशाह के ऑंसू रुकने वाले नहीं थे। बहादुरशाह के जीवन के अन्तिम दिनों की ओर लेखक ने इस प्रकार गूढ़ संकेत किया है-
''वह उजड़ा स्वर्ग भी काँप उठा अपने उस शूल से। निरन्तर रक्त के ऑंसू बहानेवाले उस नासूर को निकाल बाहर करने की उस स्वर्ग ने सोची। परन्तु...उफ़। वह नासूर स्वर्ग के दिल में ही तो था; उसको निकाल बाहर करने में स्वर्ग ने अपने हृदय को फेंक दिया। और अपनी मूर्खता पर क्षुब्ध स्वर्ग जब दर्द के मारे तड़प उठा, तब भूडोल हुआ, अन्धड़ उठा, प्रलय का दृश्य प्रत्यक्ष देख पड़ा। पुरानी सत्ता का भवन ढह गया, समय रूपी पृथ्वी फट गई और मध्यदयुग उसके अनन्त गर्भ में सर्वदा के लिए विलीन हो गया।''
इस हृदयद्रावक रूपजाल के भीतर कौशलपूर्वक जो घटनाएँ छिपी हैं उनकी ओर पाठक का ध्यादन जल्दी नहीं जा सकता। वह यह जल्दी नहीं समझ सकता कि उजड़े स्वर्ग का कँपना है सन् 1857 की हलचल का पूरब से बढ़ते बढ़ते दिल्ली तक पहुँचना, नासूर है बहादुरशाह, नासूर का निकलना है बहादुरशाह का लाल किला छोड़ना और भूडोल और अन्धड़ है दिल्ली पर कब्जा करनेवाले बलवाइयों के साथ अंगरेजों का घोर युध्द।
सुख दु:ख की दशाओं का प्रत्यक्षीकरण भी इसी रमणीय अलंकृत पध्दति पर हुआ है। शाहजहाँ ने यद्यपि अपनी प्रौढ़ावस्था में नई दिल्ली बसाई पर किले के भीतर मानो वह स्वर्ग का एक खंडही उतार लाया। वह विभूति, वह शोभा, वह सजावट अन्यत्र कहाँ? उस स्वर्गधाम के प्रमत्ता विलास और उन्मत्ता उल्लास की यह झलक देखिए-
''पत्थरों तक पर मस्ती छा जाती थी; वे भी मस्त उत्ताप्त हो जाते थे और उन पत्थरों तक से सुगन्धित जल के फव्वारे छूटने लगते थे।...उस स्वर्ग की वह राह। विलासिता बिकती थी उस राह में, मादकता की लाली वहाँ सर्वत्र फैली हुई थी और चिर संगीत दु:ख की भावना तक को धक्के देता था। दु:ख दु:ख,...उसे तो नौबत के डंके की चोट, मुर्दे की खाल की ध्वननि ही निकाल बाहर करने को पर्याप्त थी। बाँस की वे बाँसुरियाँ-अपना दिल तोड़ तोड़कर अपने वक्ष:स्थल को छिदवाकर भी सुख का अनुभव करती थीं। उन मदमस्त मतवालों के अधरों का चुम्बन करने को लालायित बाँस के उन टुकड़ों की आहों में भी सुमधुर सुख संगीत ही निकलता था। मुर्दे भी उस स्वर्ग में पहुँचकर भूल गए अपनी मृत्यु पीड़ा; उल्लास के मारे फूलकर ढोल हो गए, और उनके भी रोम रोम से यही आवाज आती थी 'यहीं है, यहीं है।''
पतन काल के ध्वं,सकारी आघातों, विपत्ति के झोंकों और प्रलयंकर प्रवाहों के उपरान्त सम्पत्ति के जीर्ण, शीर्ण और जर्जर अवशेषों के बीच मरती हुई कामनाओं, उठती हुई वेदनाओं, उमड़ते हुए ऑंसुओं, दहकती हुई आहों तथा नैराश्यपूर्ण बेबसी, दीनता और उदासी का एक लोक ही अपनी प्रतिभा के बल से महाराजकुमार ने खडाकर दिया है। उपर्युक्त स्वर्ग जब उजड़ा है तब इस करुणलोक में परिणत हुआ है। जहाँ शाहजहाँ ने स्वर्ग बसाया था वहीं अन्त में उसके घराने भर के लिए एक छोटा सा नरक तैयार हो गया जिसके बाहर वह कभी निकल न सका। इस नरक को अपने गर्भ के भीतर रखकर स्वर्ग अपना वह रूप रंग कब तक बनाए रख सकता था? शाहजहाँ की दृष्टि जबरदस्ती हटा दी जाने से और औरंगजेब के भूलकर भी उसकी ओर न जाने से उसका रंग फीका पड़ गया और धीरे धीरे उड़ने लगा। यह तो हुई बाहर की दशा। उस स्वर्ग के अन्तर्जगत में भी, मानस प्रदेश में भी, कई खंडऐसे थे जो एकदम रूख को सूखे थे, जिनमें सरसता का नाम नथा। बहुत से प्राणी अत्यन्त नीरस जीवन व्यतीत करते थे-
''अनेकों ने दिल नामक वस्तु के अस्तित्व को भुला दिया था। दिल-हृदय-उसके नाम पर तो उनके पास दो चुटकी राख थी।''

क्व गर फ़िरदौस बर रूए जमीनस्त। हमीनस्तो हमीनस्तो हमीनस्त।
मुगल बादशाहों के अन्त:पुर में शाहजादियों का ऐसा ही दबाया हुआ जीवन था। न उनमें यौवन का उल्लास उठने पाता था, न प्रेम का आलंबन खडा होने पाता था। विवाह भला उनका किसके साथ हो सकता था? जहानआरा के अन्तिम श्वासों से आवाज आती थी-
''नहीं, नहीं! मेरी क़ब्र पर पत्थर न रखना...इस उत्ताप्त छाती पर रहकर उस बेचारे पत्थर की क्या दशा होगी?''
उन शाहजादियों की क़ब्रों के भीतर पड़े कंकाल सुख को एक दुराशा मात्र बता रहे हैं। महाराजकुमार को इन कंकालों के गढ़े दु:ख जगत् के सारे वर्तमान दु:खों के बीज जान पड़े हैं। उन्होंने मनुष्यता के इतिहास में दु:ख की एक अखंड परम्परा का साक्षात्कार किया है, तभी वे कहते हैं-
''इन कंकालों के दु:ख से ही विश्व वेदना का उद्भव होता है और उन्हीं के नि:श्वासों से संसार की दु:खमयी भावना उद्भूत होती है।''
औरंगजेब के पीछे मुगल सल्तनत के ज़वाल का परवाना लिए मुहम्मदशाह और शाहआलम ऐसे बादशाह आते हैं। मुहम्मदशाह ने उस स्वर्ग में पुराना रंग लाने का प्रयत्न किया और 'रंगीले' कहलाए। एकाएक नादिरशाह टूट पड़ा और स्वर्ग को लूटकर तथा दिल्ली की पूरी दुर्दशा करके चल दिया। स्वर्ग के निवासियों की क्या दशा हुई?-
''उनकी सत्ता को जंगली अफ़गानों ने ठुकराया, उनके ताज़ और तख्तक को रौंदकर ईरान के गड़रिये ने दिल्लीश्वर प्रजा का भेड़ बकरियों की तरह संहार किया। और यह सब देखकर भी स्वर्ग की आत्मा अविचलित रही।''
मुहम्मदशाह स्वर्ग सुख भोग की वासना मन में जगाते तो रहे पर 'अशक्तों की सत्ता की ऐंठ' स्वर्ग की मरम्मत कहाँ तक कर सकती थी। उसका उजड़ना तो आरम्भ हो गया था। आगे चलकर शाहआलम की आँखे यह ध्वं स न देख सकीं, फूट गईं। अब उतने ऊँचे उत्थान का उतना ही गहरा पतन सामने आया।
दिल्ली के किले में दीवान खास के पास के एक द्वार पर एक तराजू बना हुआ है जिसे 'अदब का मीज़ान' या न्यायतुला कहते हैं। उस स्वर्ग में अब तक जो सुख उठाया गया था उसका भार अब बहुत हो गया था, सुख का पलड़ा बहुत नीचे झुक गया था। अत: दूसरे पलड़े पर काँटे की तोल उतने ही दु:ख का रखा जाना दैव को आवश्यक प्रतीत हुआ-
''उस स्वर्ग की वह न्यायतुला स्वर्ग के उस महान् भार को न सह सकी। अपनी न्यायतुला कहीं नष्ट न हो जाय इसी विचार से उस महान अदृष्ट ध्वंनसतुलाधारी ने सुख-दु:ख का समतोल करने की सोची। स्वर्ग के सुख के सामने तुलने को दु:ख का सागर उमड़ पड़ा।''
दिल्ली के किले के भीतर भर के बादशाह बहादुरशाह किस प्रकार उस सागर में बहे और बर्मा के किनारे जा लगे, यह दु:खभरी कहानी इतिहास के पन्नों में टँकी हुई है। वह घोर अधा:पतन, भीषण विप्लव और दारुण दुर्विपाक दिगन्तव्यापी स्वरूप में सामने लाया गया है। इस स्वरूप को खडाकरने में प्रकृति की सारी ध्वंमसकारिणी शक्तियाँ, भूतों के सारे कराल वेग तथा मानसलोक के सारे क्षोभ, सारी व्याकुलता, सारे उद्वेग, सारी विह्नलता और सारी उदासी काम में लाई गई है-
उफ़! स्वर्ग की वह अन्तिम रात! जब स्वर्गीय जीवन अन्तिम सांसें ले रहा था। प्रलय का प्रवाह स्वर्ग के दरवाजे पर टकरा टकराकर लौटता था और अधिकाधिक वेग के साथ पुन: आक्रमण करता था। साँय-साँय करती हुई ठंडी हवा बह रही थी, न जाने कितनों के भाग्य सितारे टूट टूटकर गिर रहे थे। दुर्भाग्य के उस दुर्दिन की ऍंधोरी अमावस्या की रात उस स्वर्ग में घूमती थीं उस स्वर्ग के निर्माताओं की प्रेतात्माएँ।...परन्तु, उस रात भर भी स्वर्ग में मुगलों का अन्तिम चिराग जलता रहा।''
बहादुरशाह का लाल किला छोड़ना इतिहास की एक अत्यन्त मार्मिक घटना है। महाराजकुमार की अध्य वसान आरोपमयी अलंकृत शैली मार्मिक प्रभाव उत्पन्न करने की कितनी शक्ति रखती है यह जैसे सर्वत्र वैसे ही यहाँ भी दिखाई पड़ता है-
''सूरज निकला।...अन्धड़ बढ़ रहा था, दुर्दिन के सब लक्षण पूर्णतया दिखाई दे रहे थे, भाग्याकाश दुर्भाग्यरूपी बादलों से छा रहा था;...वह दिया, स्वर्गीय स्नेह की वह अन्तिम लौ झिलमिलाकर बुझ गई; और तब...उस वंश की आशाओं का, उस साम्राज्य के मुट्ठी भर अवशेषों का, अकबर और शाहजहाँ के वंशजों की अन्तिम सत्ता का जनाजा उस स्वर्ग से निकला। रो रोकर आसमान ने सर्वत्र ऑंसू के ओसकण बिखेरे थे, इस कठोर हृदया पृथ्वी को भी आहों के कुहरे में राह सूझती न थी। परन्तु विपत्तियों का मारा, जीवनयात्रा का वह थका हुआ पथिक, सितम पर सितम सहकर भी मुगलों की सत्ता तथा उनके अस्तित्व के जनाजे को उठाए, अपने भग्न हृदय को समेटे चला जा रहा था।''
'बेबसी का मज़ार'-'जीवित समाधि'-बना हुआ बादशाह उसी स्वर्ग के प्रतिवेशी नरक में-हुमायूँ के मकबरे में पनाह लेता है। फिर वहाँ से कैद होकर बर्मा जाता है-
''नरक! दु:ख का वह आगार भी बेबसी के इस मज़ार को देखकर रो पड़ा। वहीं उस नरक में, अकबर की प्यारी सत्ता पृथ्वी में समा गई, जहाँगीर की विलासिता बिखर गई, शाहजहाँ के रुधिर में डूब गई और पिछले मुगलों की असमर्थता भी न जाने कहाँ खो गई। लोहा बजाकर दिल्ली पर अधिकार करनेवाले लोहा खडखडाते हुए दिल्ली से निकले; लोहा लेकर वे आए थे, लोहा पहने वहाँ से गए।''
मुगल सम्राटों की विपत्ति और नाश की उसी रंगभूमि पर, हुमायूँ के उसी नरक रूप मक़बरे के पास दु:ख से जर्जर बहादुरशाह के सामने उनके बेटे और दो पोते ढूँढ़कर लाए गए और गोली से मार दिए गए। तड़प तड़पकर उस अभागे बुङ्ढे के सामने उन्होंने प्राण छोड़े-
''दिल्ली के अन्तिम मुगल सम्राट की एकमात्र आशाएँ रक्तरंजित होकर पड़ी थीं। कुचली जाने पर उनका लोथड़ा खून से सराबोर खंड-खंडहोकर पड़ा था; और उन भग्नाशाओं के घाव तक मुगलों के उस भीषण दुर्भाग्य पर खून के दो ऑंसू बहाए बिना न रह सके।...बहादुर नरक में भी लुट गया। वहाँ उसने अपने टूटे दिल को भी कुचला जाते देखा, उस हृदय की गम्भीर दरारों की खोज होते देखी, और अपने दिल के उन टुकड़ों को संसार द्वारा ठुकराया जाते देखा।''
अपने वंश का नाश अपनी आँखों के सामने देखकर बहादुरशाह कैद होकर दिल्ली से निकले, हिन्दुस्तान से निकले और बर्मा पहुँचा दिए गए जहाँ मंगोल ढाँचे के पीले रंग के लोग और पीले वस्त्रा लपेटे भिक्षु ही भिक्षु दिखाई देते थे। भीतर मरी हुई आशा की पीली मुर्दनी छाई हुई थी; बाहर भी सब पीला ही पीला दिखाई देता था। अन्तर्जगत और वाह्य जगत का कैसा अनूठा सामंजस्य नीचे दिखाया गया है-
''अब तो अपनी आशा के एकमात्र सहारे को भी अपनी खुली आँखों नष्ट होते देखकर उसे आशा की सूरत तो क्या उसके नाम तक से घृणा हो गई।...इस भारत से उसने मुख मोड़ लिया। उसे अब निराशा का पीलिया हो गया; और तब वह पहुँचा उस देश में जहाँ सब कुछ पीला ही पीला देख पड़ता था। नर नारी भी पीत वर्ण की चादर ही ओढ़े नहीं फिरते थे किन्तु स्वयं भी उस पीत वर्ण में ही सराबोर थे। निराशा के उस पुतले ने निराशापूर्ण देश की उस एकान्त ऍंधोरी सुनसान रात्रि में ही अन्तिम साँसें तोड़ीं।''
उस स्वर्ग की-लाल किले के भीतर के महलों की-सम्राटों की प्रेयसी उस दिल्ली की क्या दशा हुई क्या यह भी बताने की बात है? वह धवस्त हो गया। यमुना भी किले को छोड़कर हट गई। संगमरमर के महलों के भीतर जमुना का जो जल बहा करता था वह भी बन्द हो गया। नहरें सूखी पड़ी हैं-
''स्वर्ग उजड़ गया और दुर्भाग्य के उस अन्धड़ ने उसके टूटे दिल को न जाने कहाँ फेंक दिया। उस चमन का वह बुलबुल रो चीखकर, तड़फड़ाकर न जाने कहाँ उड़ गया।''...''यमुना के प्रवाह का मार्ग भी बदला। उस स्वर्ग को, स्वर्ग के उस शव को, छोड़कर वह चल दी, और अपने इस वियोग पर वह जी भरकर रोई; किन्तु उसके उन ऑंसुओं को, स्वर्ग के प्रति उसके इस स्नेह को स्वर्ग के दुर्भाग्य ने सुखा दिया; उस नहर इ बहिश्त ने भी स्वर्ग की धामनियों में बहना छोड़ दिया। स्वर्ग भी खंडखंडहो गया, उसकी भाग्य लक्ष्मी वहीं उन्हीं खँडहरों में दबकर मर गई।''
अब तो किले की दीवारों के भीतर उस स्वर्ग का खँडहर ही रह गया है जिसके बीच खडे दर्शक का हृदय उसकी अतीव सजीवता, सुषमा और सरसता स्मृतिस्वरूप कल्पना में प्रवृत्त होता है-
''भारतीय सम्राटों की असूर्यम्पश्या प्रेयसी का वह अस्थिपंजर दर्शकों के लिए देखने की एक वस्तु हो गया है। दो आने में ही हो जाती है राज्यश्री की उस लाड़ली, शाहजहाँ की नवोढ़ा के उस सुकोमल शरीर के रहे सहे अवशेषों की सैर! उस उजड़े स्वर्ग को, उस अस्थिपंजर को देखकर संसार आश्चर्यचकित हो जाता है,...श्वेतहस्तियों के उन टुकड़ों में सुकोमलता का अनुभव करता है; उन सड़े गले, रहे सहे, लाललाल मांसपिंडों में उसे मस्ती की मादक गन्ध आती जान पड़ती है। उस शान्त निस्तब्धता में उस मृत स्वर्ग के दिल की धड़कन सुनने का वह प्रयत्न करता है; उस जीवन रहित स्थान में रस की सरसता का स्वाद उसे आता है; उस ऍंधोरे खँडहर में कोहनूर की ज्योति फैली हुई जान पड़ती है।''
ध्यादन देने की बात यह है कि महाराजकुमार ने आरोप और अध्य वसान की अलंकृत पध्दति का कितना प्रगल्भ और प्रचुर प्रयोग किया है फिर भी उसके द्वारा सर्वत्र अनुभूति के तीव्र और मर्मस्पर्शी स्वरूप का ही उद्धाटन होता है। मार्मिकता का साथ छोड़कर वह अलग ही अपना वैचित्रय दिखाती कहीं नहीं जान पड़ती। कहीं कहीं बहुत ही अनूठी सूझ, बहुत ही सुन्दर उद्भावना है। पर वह कलाबाजी नहीं है, भाव प्रेरित अतीत की झलक है।
आगरे और दिल्ली के कुछ उजड़े हुए महल अभी खडे हैं। जब उगते हुए सूर्य की अरुण प्रभा उन पर पड़ती है या निर्मल चाँदनी उसमें छिटकती है तब मानो उन जगमगाते दिनों की, प्रेम के उस उद्दीपित जीवन की स्मृति उनमें जग पड़ती है। इसी प्रकार सूर्य जब अपना प्रखर प्रकाश उन पर डालता है तब मानो उनके पूर्व प्रताप की स्मृति अपना स्वरूप झलकाती है-
''प्रात:काल बाल सूर्य की आशामयी किरणें जब उस रक्तवर्ण किले पर गिरती हैं तब वह चौंक उठता है। उस स्वर्ण प्रभात में वह भूल जाता है कि अब उसके उन गौरवपूर्ण दिनों का अन्त हो गया है, और एक बार पुन: पूर्णता कान्तियुक्त हो जाता है।''...''हड़डियों का वह ढेर! वे श्वेत पत्थर!...जब सूरज चमकता है और उस कंकाल की हव्ी हव्ी को करों से छूकर अपने प्रकाश द्वारा आलोकित करता है, तब वे पत्थर अपने पुराने प्रताप को याद कर तपतपा जाते हैं।...रात्रि में चाँद को देखकर उन्हें सुध आ जाती है अपने उस प्यारे प्रेमी की, और मिलन की सुखद घड़ियों की स्मृतियाँ पुन: उठ खडी होती हैं।''
शाहजहाँ अपनी नई बसाई प्यारी दिल्ली में प्रवेश करने यमुना के उस पार से आ रहा है। यमुना के काले जल में किले की लाल दीवार और उसके ऊपर उठे हुए संगमरमर के सफेद महलों की परछाहीं पड़ रही है। इन तीनों रंगों में हमारे भावुक महाराजकुमार को मुगल साम्राज्य की या दिल्ली की तीनों दशाओं का आभास इस प्रकार दिखाई पड़ता है-
''एकबारगी यमुना त्रिकाल सम्बन्धी दृश्यों की त्रिवेणी बन गई, उत्थान की लाली, प्रताप का उजेला तथा अवसान की कालिमा, तीनों का सम्मिलित प्रतिबिम्ब उस महानदी में देख पड़ता था।''
जीवन दशा के चित्रण के लिए कई स्थलों पर प्रकृति के नाना रूपों को लेकर बड़ी सुन्दर हेतूत्प्रेक्षाएँ मिलती हैं। जहाँगीर और अनारकली के प्रेम का दु:खपूर्ण अन्त हुआ यह इतिहास बतलाता है। वह विशाल और उज्ज्वल प्रेम मानो समस्त प्रकृति की शक्तियों से देखा न गया। सब की सब उसे धवस्त करने पर उद्यत हो गईं-
''आह! यह सुख उनसे देखा न गया। अनारकली को खिलते देखकर चाँद जल उठा, उस ईष्याग्नि में वह दिन दिन क्षीण होने लगा। उषा ने अनारकली की मस्ती से भरी अलसाई हुई उन अधाखुली पलकों को देखा और क्रोध के मारे उसकी आँख लाल लाल हो गई। गोधूली ने यह अपूर्व सुखद मिलन देखा और अपने अचिरस्थायी मिलन को याद कर उसने अपने सुख पर निराशा का काला घूँघट खींच लिया।''
महाराजकुमार के ये सब निबन्ध भावात्मक हैं यह तो स्पष्ट है। भावात्मक निबन्धों की दो शैलियाँ देखी जाती हैं-धारा शैली और तरंग शैली। इन निबन्धों की तरंग शैली है जिसे विक्षेप शैली भी कह सकते हैं। यह भावाकुलता की उखडी पुखडी शैली है। इसमें भावना लगातार एक ही भूमि पर समगति से नहीं चलती रहती; कभी इस वस्तु को, कभी उस वस्तु को पकड़कर उठा करती है। इस उठान को व्यक्त करने के लिए भाषा का चढ़ाव उतार अपेक्षित होता है। हृदय कहीं वेग में उमड़ उठता है, कहीं वेग को न सँभाल सकने के कारण शिथिल पड़ जाता है, कहीं एकबारगी स्तब्ध हो जाता है। ये सब बातें भाषा में झलकनी चाहिए। 'शेष स्मृतियाँ' जिस शैली पर लिखीगईं उसमें इन बातों की पूरी झलक है। कहीं कुछ दूर तक सम्बध्द और बीच बीच में उखडे वाक्य, कहीं छूटे हुए शून्य स्थल, कहीं अधूरे छूटे प्रसंग, कहीं वाक्य के किसी मर्मस्पर्शी शब्द की आवृत्ति, ये सब लक्षण भावाकुल मनोवृत्ति का आभास देते हैं। इन्हें हम भाषा की भावभंगी कह सकतेहैं।
प्रभाव-वृध्दि के लिए वाक्य के पदों का कहाँ कैसा स्थान विपर्य्य करना चाहिए इसकी भी बहुत अच्छी परख लेखक महोदय को है, जैसे-
''अपनी दशा को देखकर सुध आती है उन्हें उन करोड़ों मनुष्यों की जिनका हृदय, जिनकी भावनाएँ...कुचली गई थीं।''
भावात्मक लेखकोंमें शब्द की सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है। लक्षणा के द्वारा वाग्वैचित्रय का सुन्दर और आकर्षक विधान प्रस्तुत पुस्तक में जगह जगह मिलता है जिससे भाषा पर बहुत अच्छा अधिकार प्रकट होता है। काव्य तथा भावप्रधान गद्य में आजकल लक्षणा का पूरा सहारा लिया जाता है। आधुनिक अभिव्यंजना प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यही है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसके द्वारा हमारी भाषा में बहुत कुछ नई लचक, नया रंग और नया बल आया है। लाक्षणिक प्रयोग बहुत से तथ्यों का मूर्त रूप में प्रत्यक्षीकरण करते हैं जो अधिक प्रभावपूर्ण और मर्मस्पर्शी होते हैं। पर जैसे और सब बातों में वैसे ही इसमें भी अति से बचने की आवश्यकता होती है। वाच्यार्थ का लक्ष्यार्थ के साथ कई पक्षों से अच्छा सामंजस्य देखकर तथा उक्ति की अर्थ व्यंजकता और उसके मार्मिक प्रभाव को नाप जोखकर ही कुशल लेखक चलते हैं। 'शेष स्मृतियाँ' पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि महाराजकुमार इसी निपुणता के साथ चले हैं।
प्रस्तुत निबन्धों में जड़ वस्तुओं में मानुषी सजीवता का आरोप हमें बराबर मिलता है। आधुनिक कविता तो अखिल प्रकृति के नाना दृश्यों को भी नर प्रकृति के भीतरी बाहरी रूप रंग में देखा करती है। पर प्रकृति को सदा इसी संकुचित रूप में देखना व्यापक अनुभूतिवालों को खटकता है। मगर महाराजकुमार ने मानुषी सजीवता का जो आरोप किया है वह खटकने वाला नहीं है, इसका कारण है। आपने जो विषय लिए हैं वे मनुष्य की कृतियाँ हैं। उनके रूप मनुष्य के दिए हुए रूप हैं। वे मानव जीवन के साथ सम्बध्द हैं। उनकी अतीत शोभा, कान्ति, चमक दमक इत्यादि कुछ मनुष्यों की सुख समृध्दि के अंग हैं। इसी प्रकार उनकी वर्तमान हीनदशा उन मनुष्यों की हीन दशा के अंग हैं। उनकी भावना के साथ मनुष्य के सुख, उल्लास और विलास की अनुभूति तथा दु:ख, दैन्य और नैराश्य की वेदना लगी हुई है।
''शाहजहाँ बेबस बैठा रो रहा था। अपने प्रेम को अपनी आँखों के सामने उसने मिट्टी में मिलते देखा। और तब...उसने अपने दिल पर पत्थर रखकर अपनी प्रेयसी पर भी पत्थर जड़ दिए।''
'पत्थर रखना' एक ओर तो लाक्षणिक है, दूसरी ओर प्रस्तुत। दोनों का कैसा मार्मिक मेल यहाँ घटा है।
''उस नरक के वे कठोर पत्थर, अभागों के टूटे हुए दिलों के वे घनीभूत पुंज भी रो पड़े।'' इसमें भीतर और बाहर की बिम्ब प्रतिबिम्ब स्थिति दिखाई गई है।
र् मूर्त रूप खडाकरने के लिए जिस प्रकार भाववाचक शब्दों के स्थान पर कुछ वस्तुवाचक शब्द रखें जाते हैं उसी प्रकार कभी कभी लोकसामान्य व्यापक भावना उपस्थित करने के लिए व्यक्तिवाचक या वस्तुवाचक शब्दों के स्थान पर उपादान लक्षणा के बल पर भाववाचक शब्द भी रखें जाते हैं। इस युक्ति से जो तथ्य रखा जाता है वह बहुत भव्य, विशाल और गम्भीर होकर सामने आता है। इस युक्ति का अवलंबन हमें बहुत जगह मिलता है, जैसे-
''तपस्या के चरणों में राज्यश्री ने प्रणाम किया।''
''दिल्ली के उस स्वर्ग की मस्ती गली गली भटकती फिरी, मादकता हिंजड़ों के पैरों में लोटने लगी, विलासिता सूदखोर बनियों के हाथ बिकी।''
जड़ में सजीवता के आरोप के थोड़े सुन्दर उदाहरण लीजिए-
''उन श्वेत पत्थरों में से आवाज आती है-आज भी मुझे उसकी स्मृति है।''
''उन पहाड़ियों की मस्ती फूट पड़ी, उनके भी उन ऊबड़ खाबड कठोर शुष्क कपोलों पर यौवन की लाली झलकने लगी।''
''वे भी दिन थे जब पत्थरों तक में यौवन फूट पड़ा था। जब बहूमूल्य रंगबिरंगे सुन्दर रत्न भी उन कठोर निर्जीव पत्थरों से चिपटने को दौड़ पड़े...और चाँदी-सोने ने भी जब उनसे लिपटकर गौरव का अनुभव किया था।..उन श्वेत पत्थरों में भी वासना और आकांक्षाओं की रंग-बिरंगी भावनाएँ झलकती थीं। उन सुन्दर सुडौल पत्थरों के वे आभूषण, वे सच्चे सुकोमल सुगन्धित पुष्प भी उनसे चिमटकर भूल गए अपना अस्तित्व; उनके प्रेम में पत्थर हो गए।''
''हाँ! स्वर्ग ही तो था; पशु पक्षी भी अनजान में जो वहाँ पहुँच गए तो वे भी मस्ती में बुत हो गए और स्वर्ग में ही रम गए। वे ही सुन्दर मयूर जो अपनी सुन्दरता का भार समेटे पीठ पर लादे फिरते हैं, काली घटा को देख उल्लास के मारे चीखते हैं, हरे हरे मैदानों पर स्वच्छन्द विचरते हैं...वे ही मयूर उस स्वर्ग में जाकर भारतीय सम्राट के सिंहासन का भार उठाने को तैयार हो गए और वह भी शताब्दियों तक।...परन्तु उस सुन्दर लोक में उस काली घटा को देखने के लिए वे तरसने लगे; लाली देखते देखते हरियाली के लिए वे लालायित हो गए।...और जब भारत के कलेजे पर साँप लोट गया तब मयूर उस साँप को खाने के लिए दौड़ पड़े। आक्रमणकारी के पीछे पीछे तख्तलताऊस उड़ा चला गया।''
भावुक लेखक की कुछ रमणीय और अनूठी उक्तियाँ नीचे दी जाती हैं-
''वह प्यासा हृदय प्रेम जल की खोज में निकला।...जीवन प्रभात में ओसरूपी स्वर्गीय प्रेमकणों को बटोरने के लिए वह पुष्प खिल उठा, पंखुडियाँ अलग अलग हो गईं।'' इसमें प्रेम वासनापूर्ण हृदय की प्रफुल्लता का कैसा सुन्दर संकेत है।
कहीं कहीं महाराजकुमार ने भावना के स्वरूप की बहुत सूक्ष्म और सच्ची परख का परिचय दिया है। किसी प्राचीन स्थान पर पहुँचने पर उस स्थान से सम्बन्ध रखनेवाले अतीत दृश्य कल्पना में खडे होने लगते हैं; अतीत काल के व्यक्ति सामने चलते फिरते से जान पड़ने लगते हैं।
यदि सन्नाटा और ऍंधोरा हुआ, वर्तमान काल के रूप व्यापार सामने न आए तो यह कल्पना कुछ देर बनी रहती है। वर्तमान काल के रूप व्यापार आँखों के सामने स्पष्ट होते ही उसमें बाधा पड़ती है, उसका भंग हो जाता है। रात के सन्नाटे और ऍंधोरे में भूतकाल का परदा उठ सा जाता है; दिन के प्रकाश में मानो फिर काला परदा पड़ जाता है और भूतकाल के प्राणी दृष्टि से अन्तर्हित हो जाते हैं-
''उस सुनसान परित्यक्त महल में रात्रि के समय सुन पड़ती हैं। उल्लासपूर्ण हास्य तथा विषादमय करुण क्रन्दन की प्रतिध्वानियाँ। वे अशांत आत्माएँ आज भी उन वैभवविहीन खँडहरोंमें घूमती हैं।...किन्तु जब धीरे धीरे पूर्व में अरुण की लाली देख पड़ती है, आसमान पर स्वच्छ नीला परदा पड़ने लगता है, तब पुन: इन महलों में वही सन्नाटा छा जाता है।''
साहित्य समीक्षकों का कहना है कि कवि जिस क्षण में अनुभव करता है उस क्षण में तो लिखता नहीं। पीछे कालान्तर में स्मृति के आधार पर वह अपनी भावना व्यक्त करता है जो कुछ न कुछ विकृत अवश्य हो जाती है। इस बात का उल्लेख भी एक स्थल पर इस प्रकार मिलता है-
''आधुनिक लेखक तो क्या, उस स्वप्न के दर्शक भी, उसका पूरा पूरा जीता जागता वृत्तान्त नहीं लिख सके। जिस किसी ने स्वयं यह स्वप्न देखा था, उसे ऐश्वर्य और विलास के उस उन्मादक दृश्य ने उन्मत्ता कर दिया।...और जब नशा उतरा, कुछ होश हुआ, तब नशे की खुमारी के कारण लेखक की लेखनी में वह चंचलता, मादकता तथा स्फूर्ति न रही, जिनके बिना उस वर्णन में कोई भी आकर्षण या जीवन नहीं रहता है।''
मैं तो आश्चर्यपूर्वक देखता हूँ कि आपकी लेखनी में वही चंचलता, वही मादकता, वही स्फूर्ति है जो आपकी भावना में उस समय रही होगी जब आप उन पुराने खँडहरों पर खडे रहे होंगे।
अपनी चिरपोषित और लालित भावनाओं को हृदय से निकालकर इस बेढब संसार के सामने रखते हुए आपको कुछ मोह हुआ है; आप कुछ हिचके भी हैं-
''हाँ! अपने भावों को लुटाने निकला हूँ, परन्तु किस दिल से उन्हें कहूँ कि जाओ। यह सत्य है कि ये रही सही स्मृतियाँ...दिल में बहुत दर्द पैदा करती हैं, फिर भी वे अपनी वस्तु रही हैं। अपनी प्यारी वस्तु को विदा देते...आज खेद अवश्य होता है...जानता हूँ कि वे पराए हो चुके हैं फिर भी उनको सर्वदा के लिए विदा करते दो ऑंसू ढलक पड़ते हैं। परन्तु आज सबसे अधिक भविष्य की चिन्ता सता रही है। अपने स्वप्नलोक के अवशेष-वे भग्नावशेष ही क्यों न हों, हैं तो मेरे कल्पनालोक के खँडहर मेरे हृदय के वे सुकोमल भाव, आज वे निराश्रय इस कठोर भौतिक जगत् में-इस कठोर लोक में जहाँ मानवीय भावों का कोई ख्याहल नहीं करता, मानवीय इच्छाओं तथा आकांक्षाओं का उपहास करना एक स्वाभाविक बात है।''
महाराजकुमार निश्चिन्त रहें। उनके इन सुकुमार भावों को कठोर संसार की जरा भी ठेस न लगेगी। ये हृदय के मर्मस्थल से निकले हैं और सहृदयों के शिरीषकोमल अन्तस्तल में सीधे जाकर सुखपूर्वक आसन जमाएँगे।
(जुलाई 1938)
[ चिन्तामणिभाग-3]
 


रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 4
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