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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -  

सृजन के विविध आयाम

इस भाग मे
यह ग्रन्थावली का आठवाँ और अन्तिम भाग है। इस भाग को 'सृजन के विविध आयाम' नाम से अभिहित किया गया है। इस भाग में आ. शुक्ल लिखित कई तरह की सामग्री के अतिरिक्त उनका हस्तलेख, कुछ चित्र, प्रशस्ति-पत्र तथा रिपोर्टिंग आदि भी संकलित हैं। आ. शुक्ल कवि, जीवनीकार और कहानीकार के रूप में उतने चर्चित नहीं हैं, जितने आलोचक और साहित्य के इतिहासकार के रूप में। आ. शुक्ल की कविताओं का संग्रह 'मधुस्रोत' नाम से उनकी मृत्यु के काफी बाद में नागरीप्रचारिणी सभा, काशी से छपा था। इस संग्रह में शुक्लजी की 1901 से लेकर 1929 तक की कविताएँ हैं। तीन कविताएँ ऐसी हैं जिनके अन्त में प्रकाशन वर्ष नहीं दिया गया है। इसके अतिरिक्त 1910 में लिखी गई आ. शुक्ल की एक और कविता है, इस कविता का शीर्षक शुक्लजी ने नहीं दिया था। इसे 'विनती' शीर्षक देकर कालक्रमानुसार यथास्थान रख दिया गया है। इस तरह संख्या की दृष्टि से शुक्लजी की कुल 28 कविताएँ हैं जिनका लेखनकाल 1901 से 1929 तक फैला हुआ है। कहानीकार के रूप में शुक्लजी केवल एक ही कहानी के लिए याद किए जाते हैं और वह है 'ग्यारह वर्ष का समय'। यह कहानी 'सरस्वती' के सितम्बर 1903 ई. के अंक में छपी थी। आ. शुक्ल लिखित राधाकृष्णदास की जीवनी नागरीप्रचारिणी सभा, काशी से 1913 ई. में छपी थी। यह जीवनी एक ऐसा महत्तवपूर्ण दस्तावेज है जिसमें अनेक साहित्यिक गतिविधियों की अनुगूँज है।
शुक्लजी ने अपने पूरे जीवन में मात्र एक साक्षात्कार दिया था और वह भी बहुत छोटा-सा। यह साक्षात्कार भले ही छोटा है पर इसका सम्बन्ध बहुत गंभीर विषय से है। बाबू श्यामसुन्दरदास और आ. रामचन्द्र शुक्ल के बीच दो बातों पर गहरा विवाद उठा था। एक विवाद का सम्बन्ध शब्दसागर की प्रस्तावना से था तो दूसरे का सम्बन्ध तुलसीदास पर लिखे गए श्यामसुन्दरदासजी के निबंध और शुक्लजी की पुस्तक 'गोस्वामी तुलसीदास' के कुछ अंशों की समानता से था। आ. शुक्ल ने इन दोनों पक्षों पर बहुत कम शब्दों में जिस तरह अपनी बात रखी है वह काबिलेगौर है।
यह आश्चर्यजनक है कि आ. शुक्ल के साहित्यिक उत्तराधिकारियों और परिवारवालों के पास उनका एक भी पत्र नहीं है। उन लोगों ने समय के प्रवाह में पत्रौ के इधर-उधार हो जाने की बात की पर अभी इतना समय भी नहीं बीता है। बात रख रखाव और महत्व के प्रति उदासीनता की है। यहाँ शुक्लजी के जो पत्र दिए गए हैं, वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से इकट्ठे किए गए हैं। एक पत्र की छायाप्रति डॉ. मुक्ता (शुक्लजी की प्रपौत्री) से मिली थी। आप देखेंगे कि संकलित पत्र वैविध्यपूर्ण तो हैं ही, इनका सम्बन्ध भी शुक्लजी के समूचे साहित्यिक जीवन से है। ठीक यही हालत शुक्लजी के चित्रो की है। खुद शुक्लजी के चित्र नहीं मिलते और न ही उनके द्वारा बनाए गए चित्र ही मिलते हैं। शुक्लजी से सम्बन्धित यहाँ जितने चित्र दिए गए हैं, उन्हें डॉ. मुक्ता ने उपलब्ध कराया है। मिर्जापुर से सम्बन्धित चार चित्र मुझे. डॉ. मुश्ताक अली (इलाहाबाद) से मिले हैं। इस भाग में विज्ञप्ति, पैम्फलेट, प्रशस्तिपत्र आदि के साथ शुक्लजी का हस्तलेख (हिन्दी और अंगरेजी) भी दिया गया है। इसी क्रम में शुक्लजी की मृत्यु पर की गई रिपोर्टिंग को भी यथास्थान रखा गया है। 'साहित्य संदेश' के शुक्ल विशेषांक से 'अन्तिम आकांक्षा' और 'स्वर्गीय आचार्य का अन्तिम दर्शन' लिया गया है।
अब तक शुक्लजी द्वारा अंगरेजी में लिखे गए लेख एवं लघु पुस्तिकाएँ लगभग अनुपलब्ध थीं। लगभग इसलिए कि दो-तीन अंगरेजी लेख पूर्णता-अपूर्णता के बीच उपलब्ध थे। उनके अनुवाद छपे थे और बिना मूल की जानकारी के उन अनुवादों के आधार पर आ. शुक्ल की विचारधारा पर तीखे-कड़वे वाद-विवाद भी हुए थे। यहाँ
आ. शुक्ल का सम्पूर्ण अंगरेजी-लेखन दिया गया है। यह अवश्य है कि कुछ पुस्तक समीक्षाओं, जिनकी प्रामाणिकता पर संदेह है नाम से न छपने के कारण छोड़ दिया गया है। यहाँ Caste, Croce तथा Evolution of Religion नामक तीन ऐसे लेख दिए गए हैं जो शुक्लजी के हस्तलेख में अधूरे प्राप्त हुए थे। उन्हें ज्यों का त्यों रख दिया गया है। A short History of Nagari Pracharini Sabha बनारस से पुस्तिका के रूप में छपी थी। यहाँ उसी पुस्तिका की पुन:प्रस्तुति है। इति।

अक्टूबर 2006 ओमप्रकाश सिंह

 

कविता (मधुस्रोत)

मनोहर छटा

 

 

नीचे पर्वत थली रम्य रसिकन मन मोहत।

ऊपर निर्मल चन्द्र नवल आभायुत सोहत ।।

 

कबहुँ दृष्टि सों दुरत छिपत मेघन के आडे

अन्धकार अधिकार तुरत निज आय पसारे ।।

 

नवल चंद्रिका छिटकि फेरि सब बनहिं प्रकाशत।

निर्मल द्युति फैलया बेगि तमपुंज बिनासत ।।

 

प्रकृति चित्र की छटा होत परिवर्तित ऐसी।

चित्रकार की अजब अनोखी गति हैं जैसी ।।

 

भई प्रकृति हैं मौन पौन हू सोवन लागी।

पशु पक्षी हू मनहुँ दियो यहि जग कहँ त्यागी ।।

 

केवल  कहुँ  कहुँ  झींगुर  अरु  झिल्ली  झनकारत।

जलप्रपात रव मन्द मधुर झरनन कर आवत ।।

 

कतहुँ श्याम रँग शिला कहूँ थल कहुँ हरियाली।

बहत मंद परवाह युक्त झरना छबिशाली ।।

 

कहुँ विकराल विशाल शिला आड़त तेहि वेगहिं।

उमगि उच्छलित होय तऊ धावत गहि टेकहिं ।।

 

जाय मिलत निज प्रिय सरिता सों कोटि यतन करि।

प्रेमिन के पथरोधन को दरसावत दुस्तर ।।

 

 

राजत कतहूँ झाड़िन की अवली तट ऊपर।

कतहुँ खडे दो चार जंगली वृक्ष मनोहर ।।

 

तिन सब कर प्रतिबिंब भाँति जल माँहि लखाई।

देखन हित निज रूप प्रकृति दर्पन ढिग आई ।।

 

तरु मंडप के रंध्रन बिच सों छनि छनि आवत।

शशि किरनन को पुंज सरस शोभा सर सावत ।।

 

करत अलौकिक नृत्य आय निर्मल जल माहीं।

निरखि ताहि मन मुग्ध होय थिर रहत तहाँ हीं ।।

 

पहुँच दृष्टि की जात जहाँ तक दीसत याही।

शैल नदी तरु भूमि अटपटी औ कछु नाहीं ।।

 

निरखि लेहु एक बेर चहूँ दिशि नैन पसारी।

मन महँ अंकित करहु माधुरी छवि अति प्यारी ।।

 

इतहीं चिंता तजत आय जग के नर नारी।

इतहीं अनुभव करत सु सब दु:ख बिसारी ।।

 

इतही प्रेम पियास बुझत प्रेमी गण की अति।

आय मिलत जब प्रेम प्रेयसी मंद मधुर गति ।।

 

 ('सरस्वती', अक्टूबर, 1901)

रानी दुर्गावती

 

 

आइ लखहु सब वीर कहा यह परत लखाई।

बिना समय यह रेनु रही आकाश उड़ाई ।।1

 

ये वन के मृग डरे सकल क्यं आवत भागी।

इहाँ कहूँ हूँ लगी नहीं हैं देख हुँ आगी ।।2

 

यह दुन्दुभि को शब्द सुनो, यह भीषण कलरव।

यह घोड़न की टाप शिलन पर गूँज रही अब ।।3

 

आर्य्य रुधिर हा एक बेर ही सोवत जान्यो।

अबला शासक मानि देश जीवन अनुमान्यो ।।4

 

शेष रुधिर को बँद एक हू जब लगि तन महँ।

को समर्थ पग धरन हेतु यह रुचिर भूमि महँ ।।5

 

तुरत दूत इक आय सुनायो समाचार यह।

आसफ अगनित सैन लिये आवत चढ़ि पुर महँ ।।6

 

छिन छिन पर रहि दृष्टि सकल वीरन दिसि धावति

कँपत गत रिस भरी खड़ी रानी दुर्गावति ।।7

 

श्वेत वसन तन, रतन मुकुट माथे पर दमकत।

श्रवत तजे मुख, नयन अनल कण होत बहिर्गत ।।8

 

सुघर बदन इमि लहत रोष की रुचिर झलक ते।

कद्बचन आभा दुगुन होत जिमि आँच दिये ते ।।9

 

 

चपल अश्व की पीठ वीर रमणी यह को हैं?

निकसि दुर्ग के द्वार खड़ी वीरन दिसि जो है ।।10

 

वाम कंध बिच धनुष, पीठ तरकस कसि बाँधे।

कर महँ असि को धरे, वीर बानक सब साधे ।।11

 

चुवत वदन सन तेज और लावण्य साथ इमि।

हैं मनहर संजोग वीर शृंगार केर जिमि ।।12

 

नगर बीच हैं सेन कढ़ी कोलाहल भारी।

पुरवासिन मिलि बार बार जयनाद पुकारी ।।13

 

सम्मुख गज आसीन निहारयो आसफ खाँ को।

महरानी निज वचन अग्रसर कियो ताहि को ।।14

 

''अरे-अधम! रे नीच! महा अभिमानी पामर!

दुर्गावति के जियत चहत गढ़ मंडल निज कर ।।15

 

म्लेच्छ! यवन की हरम केर हम अबला नाहीं।

आर्य्य नारि नहिं कबहुँ शस्त्र धारत सकुचाहीं'' ।।16

 

चमकि उठे पुनि शस्त्रा दामिनी सम घन माहीं।

भयो घोर घननाद युद्ध को दोउ दल माहीं ।।17

 

दुर्गावत निज कर कृपान धार यह कीने।

दुर्गावति मन मुदित फिरत वीरन संग लीने ।।18

 

सहसा शर इक आय गिरयो ग्रीवा के ऊपर।

चल्यौ रुधिर बहि तुरत, मच्यो सेना बिच खरभर ।।19

 

श्रवत रुधिर इमि लसत कनक से रुचिर गात पर।

छुटत अनल परवाह मनहुँ कोमल पराग पर ।।20

 

 

चद्बचल करि निज तुरग सकल वीरन कहँ टेरी।

उन्नत करि भुज लगी कहन चारिहु दिशि हेरी ।।21

 

अरे वीर उत्साह भंग जनि होहि तुम्हारो।

जब लगि तन मधि प्राण पैर रन से नहिं टारो ।।22

 

लै कुमार को साथ दुर्ग की ओर सिधारहु।

गढ़ की रक्षा प्राण रहत निज धर्म्म बिचारहु ।।23

 

यवन सेन लखि निकट, लोल लोचन भरि वारी।

गढ़ मंडल ये अंत समय की विदा हमारी ।।24

 

यों कहि हन्यो कटार हीय बिच तुरत उठाई।

प्राण रहित शुचि देह परयो धरनीतल आई ।।25

 

 ('सरस्वती', जून, 1903)


 

 

 

 

वसंत

 

 

(1)

कुसुमित लतिका ललित तरुन बसि क्यों छबि छावत?

हे रसालगन! बरि व्यर्थ क्यों सोग बढ़ावत?

हे कोकिल! तजि भूमि नाहिं क्यों अनत सिधारी?

कोमल कूक सुनाव बैठि अजहूँ तरु डारी ।

 

(2)

मथुरा, दिल्ली अरु कनौज के विस्तृत खंडहर;

करत प्रति-ध्वनि; आज दिवसहू निज कंपित स्वर।

जहँ गोरी, महमूद केर पद चिद्द धूरि पर;

दिखरावत, भरि नैन नीर, इतिहास-विज्ञ नर

 

(3)

और विगत अभिलाष सकल, केवल इक कारन;

जन्म-भूमि अनुराग बाँधि राख्यो तोहि डारन।

तुव पूर्वज यहि ठौर बैठि रव मधुर सुनावत;

पूर्व पुरुष सुनि जाहि हमारे अति सुख पावत ।

 

(4)

तिनकी हम संतानपाछिलो नात विचारी;

कोकिल, दुख-सहचरी बनी तू रही हमारी।

हे हे अरुण पलाश! छटा बन काहि दिखावत?

कोउ दृग नहिं अन्वेष मान अब तुम दिसि धावत।

 

 

 

 

 

(5)

करि सिर उच्च कदंब रह्यो तू व्यर्थ निहारी;

नहीं गोपिका कृष्ण कहीं तुव छाँह बिहारी।

रे रे निलज सरोज! अजहुँ निकसत लखि भानहिं;

देश-दुर्दशा-जनित दु:ख चित नेकु न आनहिं।

 

(6)

ये हो मधुकर वृंद! मोहि नहिं कछु आवत कहि;

कौन मधुरता लोभ रह्यो बसि दीन देश यहि।

चपल-चमेली अंग स्वेत-अभरन क्यों, धरो?

मुग्ध होन की क्रिया भूलिगो चित्ता हमारो।

 

(7)

दीन कलिन सों हे समीर! बरबस क्यों छीनत;

मधुर महक, हित नाक हीन हम हतभागी नत।

एक एक चलि देहु नाहिं क्यों यह भुव तजि के?

हम हत भागे लोग योग नहिं तुव संगति के।

 

(8)

विगत-दिवस-प्रतिबिंब हाय सम्मुख तुम लावत;

भारत-संतति केर विरह चौगुनो बढ़ावत।

अहो विधाता वाम दया इतनी चित लावहु;

देश काल ते ऋतु वसंत को नाम मिटावहु।

 

(9)

नहिं यह सब दरकार हमें, चहिए केवल अब;

उदर भरन हित अन्न, और किन हरन होहि सब।

नहिं कछु चिंता हमें चिद्द-गौरव रखिबे की;

नहीं कामना हमें 'आपनो' यह कहिबे की ।।

 

('सरस्वती', मार्च, 1904)


शिशिर-पथिक

 

 

(एक पथिक स्वदेश को लौट रहा हैं। उसने थोड़ी ही उम्र में सेना के अफसर, एक मेजर के कहने में आकर अपना देश छोड़ा; घर में किसी से कहा भी नहीं। तब से निरंतर अग्रेंजी सेना के साथ-साथ वह एक देश से दूसरे देश में भ्रमण करता रहा। उसकी नवागत वधू बहुत दिनों तक उसके आसरे में रही; अंत में निराश होकर अपने पिता के घर आकर वह रहने लगी। वहाँ पर उसने अपने वृद्ध पिता की सेवा तथा पथिकों के सत्कार का व्रत लिया। दैवसंयोग से आज स्वयं उसका पति ही पथिक के रूप में उसके सामने आकर उपस्थित हुआ हैं।)

विकल, पीड़ित पीय-पयान ते,

         चहुँ रह्यौ नलिनी-दल घेरि जो,

भुजन भेंटि तिन्हैं अनुराग सों,

         गमन-उद्यत भानु लखात हैं ।।1

 

तजि तुरंत चले, मुख फेरि के,

         शिशिर-शीत सशंकित जीव ही,

विहग आरत वैन पुकारते,

         रहि गए, पर ताहि सुनी नहीं ।।2

 

तनि गए सित ओस-वितान हू,

         अनिल झार बहार धरा परी,

लुकन लोग लगे घर बीच हैं,

         विवर भीतर कीट पतंग से ।।3

 

युग भुजा उर बीच समेटि कै,

         लखहु आवत गैयन फेरि के,

कँपत कंबल-बीच अहीर हूँ,

         भरमि भूलि गई सब तान हैं ।।4

तम भयंकर कारिख फेरि के,

         प्रकृति दृश्य कियो धुंधलो सबै;

बनि गये अब शीत-प्रताप ते,

         निपट निर्जन घाट अरु बाट हूँ ।।5

 

पर चलो यह आवत हैं, लखो,

         विकट कौन हठी हठ ठानि कै?

चुप रहैं, तब लौं जब लौं कोऊ,

         सुजन, पूछनहार मिले नहीं ।।6

 

शिथिल गत, महा गति मंद हैं,

         चहुँ निहारत धाम विराम को;

उठत धूम लख्यौ कछु दूर पै,

         करत श्वान जहाँ रव घोर हैं ।।7

 

कँपत आइ भयो छिन में खड़ो,

         युग कपाट लगे इक द्वार पै;

सुनि परयौ ''तुम कौन!'' कह्यौ तबै,

         ''पथिक दीन दया इक चाहतो'' ।।8

 

खुलि गये झट द्वार धड़ाक से,

         धुनि परी मधुरी यह कान में,

''निकसि आइ बसौ यहि गेह में,

         पथिक वेगि सकोच विहाइ कै'' ।।9

 

पग धरयौ तब भीतर भौन  के,

         अतिथि आवन आयसु पाइ के,

कठिन शीत-प्रताप विघातिनी,

         अनल दीर्घ-शिखा जहँ फेंकती ।।10

 

 

 

चपल दीठि चहूँ दिसि घूमि के,

         पथिक की पहुँची इक कोन में,

वय-पराजित जीवन-जंग में,

         दिन गिनै नर एक परो जहाँ ।।11

 

सिर-समीप सुता मन मारि कै,

         पितहिं सेवति सील सनेह सों,

तहँ खड़ी नत गात, कृशांगिनी,

         लसति वारि-विहीन मृणाल सी ।।12

 

लखि फिरी दिसि आवनहार की

         विमल आसन इंगित सों दया;

अतिथि बैठि असीस दयो तबै

         ''फलवती सिगरी तुव आस हो''  ।।13

 

मृदु हँसी, करुणा इक संग ही,

         तरुनि आनन ऊपर धरि के,

कहति ''हाय पथी! सुनु बावरे,

         मुरझि बेलि कहूँ फल लावई ।।14

 

''गति लखी विधि की जब वाम में,

         जगत के सुख सों मुख मोरि के,

पितु निदेश निबाहन औ सदा,

         अतिथि सेवन को व्रत लै लयो ।।15

 

''अब कहो निज नाम चले कहाँ,

         कहहु आवत हौ कित तें, इतै;

विचलि कै चित के किहि वेग सों,

         पग धरयौ पथ तीर अधीर हैं ।।16

 

''सलिल आस अमी रस सींचिके,

         सतत राखति जो तन-बेलि हीं,

पथिक! बैठि अरे तुव बाट को,

         युवति जोवति हैं कतहूँ कोऊ ।।17

 

''नयन कोऊ निरंतर धावहीं,

         तुमहिं हेरन को पथ बीच में;

श्रवण-बाट कोउ रहते खुले,

         कहुँ, अरे तुव आहट लेन को? ।।18

 

''कहुँ कहूँ तोहिं आवत जानि के,

         निकटता तुव प्रेम-प्रदायिनी,

प्रथम पावन हेतुहि होत हैं,

         चरन-लोचन-बीच बदाबदी1 ।।19

 

''करि दया, भ्रम जो सुख देत हैं,

         सुमन-मंजुल-जाल बिछाइ कै,

कठिन, काल, निरंकुश निर्द्दयो,

         छिनहिं छीनत ताहि निवारि कै'' ।।20

 

दबि गयो उन बैननि-भार सों,

         पथिक दीन, मलीन, थको भयो;

अचल मूर्ति बन्यौ, पल एक लौं,

         सब क्रिया तन की मन की रुकी ।।21

 

बदन पौरुष-हीन विलोकि के,

         नयन नीरन उत्तर दै दयो,

''तव यथार्थ सबै अनुमान हैं,

         अति अलौकिक देवि दयामयी'' ।।22

 

अचल नैन उठाइ निहारते,

         पथिक को अपनी दिसि देखि के,

इमि लगी कहने फिरि कामिनी,

         अति पवित्र दया-व्रत-धारिणी ।।23

''कुशलता न गुनौ यहि में कछू,

         अरु न विस्मय की कछु बात हैं;

दिवस2 खेइ रहे दुख ओर जो,

         गति लखैं गम में उल्टी सबै'' ।।24

 

 

1.  पहले निकट पहुँचने के लिए आँख और पैर के बीच बाजी लगती हैं; अर्थात् आँख के स्थानविशेष पर पहुँचने के पहले ही पैर पड़ जाता हैं जो कि मनुष्य के गिरने का कारण होता हैं। अतएंव यहाँ लटपटाती हुई चाल से अभिप्राय हैं। रा. शु.।

2. जो संसारसागर में अपने दिनों को दु:ख की ओर खे रहे हैं वे मार्ग में दूसरी वस्तुओं को ( जैसा नौका पर चढ़ते चलते समय देख पड़ता हैं) दूसरी ओर (उल्टे) अर्थात् सुख की ओर जाती हुई देखते हैं।

®

उभय मौन रहे कछु काल लौं;

         पथिक ऊपर दीठि उठाइ कै,

इक उसास भरी गहरी जबै,

         यह कढ़ी मुख ते वचनावली ।।25

 

''अवनि-ऊपर देश-विदेश में,

         दिवस घूमते ही सिगरे गये;

मिसिर, काबुल, चीन, हिरात की,

         चरण धूरि रही लिपटाईं हैं'' ।।26

 

''पर-दशा-दिशि-मानस-योगिनी,

         लखि परी इकली भुव बीच तू।

समुझि पूछन साँच सुनाव हूँ,

         सुतनु! मो तनु पै जु व्यथा परी'' ।।27

 

''मन परै दुख की अब वा धरी,

         पलटि जीवन जो जग में दयो,

चतुर ''मेजर'' मंत्राहिं मानि कै,

         सुख कियो अपनो सपनो सबै'' ।।28

 

 

 

''हित-सनेह-सने मृदु बोल सों,

         जब लियो इन कानन फेरि मैं।

स्वजन और स्वदेश-स्वरूप को,

         करि दयो इन आँखिन ओट हा''! ।।29

 

अब परैं सुनि वाक्य यही हमैं,

         'धरहु, मारहु, सीस उतारहू'

दिवस रैन रहैं सिर पै खरी,

         अति कराल छुरी अफगान की'' ।।30

 

 

® तात्पर्य यह कि जो लोग संसार में दु:ख भोग रहे हैं वे समझते हैं कि उनको छोड़कर और सब लोग सुख पा रहे हैं। यह मनुष्य का स्वभाव हैं। स्त्री का पति विदेश से नहीं फिरा, इससे वह पथिक को समझती हैं कि अपनी प्रिया ही से वह मिलने जा रहा हैं।     रा. शु.।

 

चलि रहे यह आस हिये धरे,

         मम वियोगिनि भामिन को अजौं,

अपर-लोक पयान प्रयास ते,

         मम समागम संशय रोकि हैं ।।31

 

कहुँ यहीं इक मन्मथ गाँव हैं,

         जहँ घनी बसती विधुवंश की,

तहँ रहे इक विक्रमसिंह जो,

         सुवन तासु यही रनवीर हैं।'' ।।32

 

कहत ही इन बैनन के तहाँ,

         मचि गयो कछु औरहि रंग ही;

वदन अंचल-बीच छिपावती,

         मुरि परी गिरि भूतल भामिनी ।।33

 

असम साहस वृद्ध कियो तबैं,

         उठि धरयो महि में पग खाट तें,

''पुनि कहो'' कहि बारहि बार ही,

         पथिक को फिरि फेरि निहारई ।।34

 

आशा त्यागी बहु दिनन की नेकु ही में पुरावै,

लीला ऐसी जगत प्रभु की, भेद को कौन पावै,

देखो, नारी सुकृत-फल को बीच ही माँहि पायो,

भूलो प्यारो भटकि पथ तें प्रेम के फेरि आयो ।।35

 

 ('सरस्वती', मार्च 1905)

 

फूट

 

 

अरे फूट! क्या कहीं जगत में ठाम नहीं तू पाती।

पैर पसार यहीं पर जो तू आठो पहर बिताती ।।

 

कई सहस्र वर्ष से हैं तू भारत भुव पर छाई।

मनमानी इतने दिन करके अब भी नहीं अघाई ।।

 

तेरी लीला गाते हैं हम निशि दिन भारतवासी।

तेरा अतुल प्रताप सोचकर होती हमें उदासी ।।

 

पकड़ हाथ लक्ष्मी का तूने सिन्धु पार पहुँचाया।

सरस्वती का रंग उखाड़ा सारा जमा जमाया ।।

 

कलह द्वेष अपने प्रिय अनुचर लाकर यहाँ बसाए।

हाट बाट प्रसाद कुटी में डेरे इनके छाए ।।

 

फैलाई जब आर्य्य जाति ने विद्या बल की बेली।

गर्व चूर करने को तब तू गई यहाँ पर ठेली ।।

 

अब तो साध चुकी वह कारज विपति बीज बहु बोए।

पिसकर चूर-चूर हम हो तब चूर मोह में सोए ।।

 

घर घर फोड़ चुकी जब तब तू बन्धु बन्धु से फोड़े।

अब तो हैं मिट्टी के ढेले जिन्हें मेघ ने छोड़े ।।

 

फोड़ फाड़ उनको ही बस अब चारों ओर उड़ाओ।

भूखे भारतवासी जग को उनकी धूल फँकाओ ।।

 

 

जब जब चाहा उठें सहारा लेकर नींद निवारें।

धर उधर कुछ अंग हिलाकर सिर से संकट टारें ।।

 

तब तब तुमने गर्ज्जन करके विकट रूप दिखलाया।

किया ढकेल किनारे ज्यों का त्यों फिर हमें गिराया ।।

 

ब्रिटिश जाति के न्याय नीति की मची धूम जब भारी।

सुख के स्वप्न दिखाई देने लगे हमें दुखहारी ।।

 

उठे चौंक कर बन्धु कई जो थे सचेत औ ज्ञानी।

मिलकर यही बिचारा रोवैं अपनी रामकहानी ।।

 

ब्रिटिश न्याय की अनल शिखा को अपनी ओर घुमावें।

जिसमें पड़कर सभी हमारे दुख दरिद्र जल जावें ।।

 

फिर से उस भूतल के ऊपर हम भी मनुज कहावें।

परम प्रबल अंग्रेज जाति का प्रलय तलक यश गावें ।।

 

दादा भाई और अयोध्यानाथ सुरेन्द्र सयाने।

देश दशा को खोल खोल तब सबको लगे सुझाने ।।

 

मेहता, माधव, दत्ता, घोष का घोष देश में छाया।

आँख खोल हम लगे चेतने अपना और पराया ।।

 

यह प्रतिवर्ष सभा जब जमकर लगी पुकार मचाने।

कई क्रूरता के कृमि शासक उसको उठे दबाने ।।

 

जो अनुचित अधिकार भोग के लोलुप अत्याचारी।

जीवों पर आत जमाने में जिनको सुख भारी ।।

 

लोग यत्न करते जिसमें यह दशा यथार्थ हमारी।

प्रकट न होने पावे जग में रहे यही क्रम जारी ।।

 

 

किंतु आज बाईस वर्ष तक कितने झोंके खाती।

अन्यायी को लज्जित करती न्याय छटा छहराती ।।

 

यह जातीय सभा हम सबको समय ठेलती आई।

हाय फूट! तेरे आनन में वह भी आज समाई ।।

 

पहिली धौल कसी काशी में किन्तु फोड़ नहिं पाया।

कलकत्तो में जाकर तूने कड़ा प्रहार जमाया ।।

 

हुए फूटकर दो दल उसके चौंका देश हमारा।

किन्तु बिगड़ता तब तक कुछ भी हमने नहीं बिचारा ।।

 

यही समझते थे दोनों दल पृथक् पंथ अनुयायी।

होकर भी उद्देश्य हानि को सह न सकैंगे, भाई! ।।

 

किन्तु देख सूरत की सूरत भगे भाव यह सारे।

आशंका तब तरह-तरह की मन में उठी हमारे ।।

 

अब पुकार भारत के दुख की देगी कहाँ सुनाई?

कहाँ फिरेगी न्याय नीति के बल की प्रबल दुहाई? ।।

 

दश सहस्र भारत सुपुत्र मिल कहाँ प्रेम प्रगटैंगे?

गर्व सहित गर्जन करके निज गौरव गान करैंगे ।।

 

अब तो कर कुछ कृपा कि जिससे एक फिर सभी होवैं।

अपने मन की मैल देश की अश्रु धार में धोवैं ।।

 

जो जो सिर पर बीती उसको जी से बेगि भुलावें।

मौन मार निज मातृभूमि की सेवा में लग जावें ।।

 

  ('आनंद कादंबिनी', पूस-माघ, 1964 वि.)

देशद्रोही को दुत्कार

 

 

(1)

रे दुष्ट, पामर, पिशाच, कृतघ्न, नीच।

क्यों तू गिरा उदर से इस भूमि बीच ।।

क्यों देश ने अधम स्वागत हेतु तेरे।

आनन्द उत्सव उपाय रचे घनेरे ।।

(2)

सोया जहाँ जननि- ( निशंक होके।

माँगा जहाँ मधुर क्षीर अधीर होके ।।

थोड़ी शरीर सुध भी न जहाँ रही हैं

रे स्वार्थ-अन्ध यह भूमि वही, वही हैं ।।

(3)

जो भूमि टेक कर के बल रेंगता था।

हा क्या उसे न तुझ से कुछ आसरा था ।।

जो धूल डाल सिर ऊपर मोद माना।

क्यों आज तू बन रहा उससे बिगाना ।।

(4)

तू पेट पाल, मन मंगल मानता हैं

सेवा समस्त सुख की जड़ जानता है ।।

खोटी, खरी खटकती न तुझे वहीं की।

पाता जहाँ महक मोदक औ मही की ।।

 

(5)

तेरे समक्ष पर अन्न विहीन दीन।

चिन्ता-विलीन अति क्षीण महा मलीन।।

जो ये अनेक प्रियबन्धु तुझे दिखाते।

लज्जा दया न कुछ भी तुझको सिखाते? ।।

(6)

रे स्वार्थ-अन्ध, मतिमंद कुमार्गगामी!

क्यों देश से विमुख हो सजता सलामी?

कर्तव्य शून्य हलके कर को उठाता।

दुर्भाग्य-भार-हत भाल भले झुकाता ।।

(7)

किसके सुअन्न कण ने इस कूर काया।

को पाल पोस पग के बल हैं उठाया? ।।

किसका सुधा सरित शीतल स्वच्छ नीर।

हैं सींचता रुधिर तो चलता शरीर? ।।

(8)

किसका प्रसूनरज लेकर मंद वायु।

देती प्रतिक्षण पसार नवीन आयु? ।।

किसका अभंग कल कोकिल कंठ गान।

होता प्रभात प्रति तू सुन सावधान? ।।

(9)

स्वातंत्रय की विमल ज्योति जगी जहाँ हैं

आनन्द की अतुल राशि लगी जहाँ हैं ।।

जा देख! स्वत्व पर लोग जमे जहाँ हैं।

तेरे समान नर क्या करते वहाँ हैं ।।

 

(10)

सर्वस्व छोड़ तन के सुख भूल सारे।

जो हैं स्वदेश-हित का व्रत चित्ता धारे ।।

न स्वप्न में कनक हैं जिनको लुभाता।

मानपमान पथ से न जिन्हें डिगाता ।।

(11)

तेरे यथार्थ हित हेतु अनेक बार।

जो हैं सदैव करते रहते पुकार ।।

ऐसे सुपूज्य जन से रख द्रोह भाव।

तू नित्य चक्र रच के चलता कुदाव ।।

(12)

जा दूर हो अधम सन्मुख से हमारे।

हैं पाप पुंज तुव पूरित अंग सारे ।।

जो देश से न हट तो हृद देश से ही।

देते निकाल हम आज तुझे भले ही ।।

 

 ('आनंद कादंबिनी, ज्येष्ठ-आषाढ़, 1964 वि.)

रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 8

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