हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 

 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -  

सृजन के विविध आयाम

कविता (मधुस्रोत)

बाल विनय

 

(1)

आदि हेतु, अनादि और अनन्त, दीन दयाल।

जोरि जुग कर करत विनती सकल भारत बाल ।।

विविध विद्या कला सीखैं त्यागि आलस घोर।

दूर दुख दारिद बहावें देश को इक ओर ।।

(2)

सहस संकट सहहिं साहस सहित यहि जग माहिं।

भूलि निज करत्तव्य सों मुख कबहुँ मोरहिं नाहिं ।।

मिलि परस्पर करहिं कारज सहित प्रीति हुलास।

कबहुँ ईर्षा द्वेष को नहिं देहिं फटकन पास ।।

(3)

सत्य सों करि नेह त्यागहिं झूठ को व्यवहार।

तजि कुसंग, सुसंग खोजत फिरहिं हम प्रतिद्वार ।।

रहहिं उद्यत बड़न की शुभ सीख सुनिबे हेत।

कहहिं वे जो तुरत तिहि सुनि करहिं मन में चेत ।।

 

 (''बाल प्रभाकर'', फरवरी, 1910)

 

विनती

 

 

जय जय जग नायक करतार।

करत नाथ कर जोरि आज हम विनती बारम्बार।

प्रात समीर सरिस भारत महँ हिन्दी करै प्रसार ।।

जय जय जग नायक करतार।

खोलै परखि उनीदे नयनन दरसावैं संसार।

बुधा हिय सागर बीच उठावै भाव तरंग अपार ।।

जय जय जग नायक करतार।

देश देश के मृदु सुमनन सों भरि सौरभ को थार।

बगरावै यदि भूमि बीच जो हरै समाज विकार ।।

जय जय जग नायक करतार।

मेटे सब असान ताप करि शीतलता संचार।

विविध कला किसलय कल रणदरावै प्रतिद्वार ।।

जय जय....

 

 

 

 

 

        [ प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन (ना. प्र. स. काशी, 10-12 अक्टूबर, 1910 ई.) का प्रारम्भ आचार्य शुक्ल की इसी कविता के गायन से हुआ था)। बाबू हरिदास माणिक ने इसे राग भैरवी में प्रस्तुत किया था। सूचना-भवदेव पाण्डेय, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : आलोचना के नए मानदंड, पृ. 63-64.)  ]   

   (कविता का शीर्षक संपादक द्वारा दिया गया हैं)


 

भारतेंदु हरिश्चंद्र1

 

(1)

किंशुक कानन होते थे लाल,

       कदंब भी होकर पीले ढले।

आम भी भौंरे नचाते थे,

       भौंरे, बिछाते थे पाँवडे पैरों तले ।।

कोयल कूक के जाती चली,

       सिर पीट के जाते पपीहे चले।

चेत न होता हमें हम कौन हैं,

       औ किसके रज से हैं पले ।।

(2)

बानी थे भूल रहे हम जो,

       इनके औ हमारे बड़ों ने गढ़ी।

मर्म कहाँ मिलते इनके अब,

       चित्ता में चाह थी और चढ़ी ।।

ये तो बिगाने थे जाते बने,

       गुल बुल्बुल की बकवादें बढ़ीं।

नर्गिस थे नयनों में गडे नित।

       शीन औ काफ से जीभ मढ़ी ।।

 

 

 

 

   1.   हरिश्चंद्र जयंती के समय पढ़ी गई कविता।

 

(3)

शिष्ट  शराफत  में  थे  लगें,

       यह चंद औ सूर की बानी बड़ी।

केवल तानों में जाती तनी,

       मुँह में मँगतों के थी जाती सड़ी।।

राज के काज को त्याग सभी,

       फिर धर्म की धार पै आके अड़ी।

श्री हरिचंद्र जो होते न तो

       रह जाती वहाँ की वहाँ ही पड़ी ।।

 

(ना. प्र. पत्रिका, अगस्त, 1912)

 

 

 

आशा और उद्योग

 

 

(1)

हा! हा! मुझसे कहो न क्यों तुम, आशा कभी न होगी पूर्ण।

प्रतिफल इसका नहीं मिलेगा, बैरी मान न होता चूर्ण ।।

(2)

वृथा मुझे भय मत दिखलाओ, आशा से मत करो निराश।

कुछ भी बल हैं युगल भुजों में, तो बैरी होवेगा नाश ।।

(3)

कर्मों के फल के मिलने में यद्यपि हो जाती हैं देर।

तो भी उस जगदीश्वर के घर, होता नहीं कभी अंधेर ।।

(4)

करने दो प्रयत्न बस मुझको, देने दो जीवन का दान।

निजर् कर्त्तव्य पूर्ण कर लूँ मैं, फल का मुझे नहीं कुछ ध्यान ।।

(5)

यद्यपि मैं दुर्बल शरीर हूँ, जीवन भी मेरा नि:सार।

प्राणदान देने का तो भी, मुझको हैं अवश्य अधिकार ।।

(6)

जब तक मेरे इस शरीर में, कुछ भी शेष रहेंगे प्राण।

तब तक कर प्रयत्न मिटाउगाँ, अत्याचारी का अभिमान ।।

 

(7)

धर्म न्याय का पक्ष ग्रहण कर, कभी न दूँगा पीछे पैर।

वीर जनों की रीति यही हैं, नहीं प्रतिज्ञा लेते फेर ।।

(8)

देश दु:ख अपमान जाति का बदला मैं अवश्य लूँगा।

अन्यायी के घोर पाप का, दण्ड उसे अवश्य दूँगा ।।

(9)

यद्यपि मैं हूँ एक अकेला, बैरी की सेना भारी।

पर उद्योग नहीं छोडूँग़ा जगदीश्वर हैं सहकारी ।।

(10)

आशा! आशा! मुझको केवल तेरा रहा सहारा आज।

बल प्रदान तू मुझको करना रख लेना अब मेरी लाज ।।

 

 ('लक्ष्मी', नवंबर, 1912)

 

 

 

अन्योक्तियाँ

 

 

मधुर कोकिल शब्द सुना रही।

पवन आ मलयाचल से रहा।

विरह में यह भी दुख दे रहे।

विपति के दिन में सुख दु:ख हो।

(भर्तृहरि के एक श्लोक की छाया)

 

हे हे चातक सावधान मन से बातें हमारी सुनो।

आवैं बादल जो अनेक नभ में होवैं न सो एक से ।।

कोई तो जलदान देत जग तो कोई वृथा गर्जते।

प्यारे हाथ पसार आप सबसे भिक्षा न माँगा करैं ।।

(भर्तृहरि)

 

हा धैर्य! धैर्य!! हे हृदय धैर्य धरि लीजै।

करिके जल्दी शुभ काज नाश नहिं कीजै ।।

 

जग में जिन जिन ने महत्वकार्य कीन्हें हैं

सबने धैर्य हि हिय में आसन दीन्हें हैं ।।

 

उठिए! उठिए!! अब कर्मवीर बनना हैं

होवे कोई प्रतिकूल, नहीं डरना हैं ।।

 

जब तक हैं तन में प्राण कर्म करना हैं

'कर्तव्यपूर्ण' कहलाकर फिर मरना हैं ।।

 

 

 

 

उद्देश्य एक अपना ऊँचा बना

कर्तव्य पूर्ण करने में चित्ता लावो ।।

 

विश्वास कर्म फल में करते रहोगे।

होगे अवश्य संतुष्ट सुखी रहोगे ।।

 

विविध चाह विचार प्रसन्नता।

चलित जो करते मन राज को ।।

 

सब सुसेवक हैं इक प्रेम के।

ज्वलित ही करते उस अग्नि को ।।

 

  ('लक्ष्मी', जनवरी, 1913)

 

 

प्रेम प्रताप

 

 

जग के सबही काज प्रेम ने सहज बनाये,

जीवन सुखमय किया शांति के स्रोत बहाये।

द्वेष राग को मेटि सभी में ऐक्य बढ़ाया,

धन्य प्रेम तव शक्ति जगत को स्वर्ग बनाया ।।1

 

गगन बीच रवि चंद्र और जितने तारे हैं,

सौर जगत अगणित जो प्रभु ने विस्तारे हैं।

सबको निज निज ठौर सदा प्रस्थित करवाना,

जिस आकर्षण शक्ति प्रेम ने ही हैं जाना ।।2

 

दंभ आदि को मेटि हृदय को कोमल करना,

छल समूल करि नष्ट सत्य शुभ पथ पर चलना।

मेरा तेरा छोड़ विश्व को बंधु बनाना,

प्रेम! तुम्हीं में शक्ति सीख इतनी सिखलाना ।।3

 

बालक का सा सरल हृदय प्रेमी का करते,

चंचलता पाखंड सभी क्षण में तुम हरते।

भीरु वीर को करो भीरु को वीर बनाते,

प्रेम! विश्व में दृश्य सभी अद्भुत दिखलाते ।।4

 

प्रणय रूप में कहो कौन कमनीय क्रांति हैं,

उपजाती जो हृदय बीच शुभ सुखद शांति हैं

अद्भुत अनुपम शक्ति पूर्ण कर देती तन में,

धैर्य भक्ति संचार सदा जो करती मन में ।।5

 

 

सागर में सब नदी जाय जग की मिलती हैं,

होते ही शशि उदय कुमुदिनी भी खिलती हैं।

आ आ देते प्राण कीट दीपक के ऊपर।

हैं पूरा अधिकार प्रेम! तेरा जग ऊपर ।।6

 

दहन दु:ख का हो जाता हैं पलक मात्रा में,

पूर्ण ध्यान जब जग जाता हैं प्रेम-पात्र में।

प्रतिमा लगती प्रेम-पात्र की कैसी प्यारी।

प्रेम! प्रेम! हे प्रेम!!! जाउँ तेरी बलिहारी ।।7

 

 ('लक्ष्मी,' जनवरी, 1913)


 

विरह सप्तक

 

 

तन में भरम रमायो त्यागी राज,

सहन कठिन दुख कीन्ह्यों जिनके काज,

तनिक दया नहिं आई तिनके हाय!

महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।1

 

भूलि गयो सब पूजा पाठ विचार,

केवल उनको ध्यान भयो आधार,

पल पल युग युग सम बीतत हैं हाय!

महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।2

 

निशि नहिं आवत नींद न दिन में चैन,

अश्रु सबै व्यय भये सूखिगे नैन।

प्रीतम निश्चय हमको गये विहाय,

महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।3

 

कोकिल कूक सुनाय बढ़ावत पीर,

सुनि चातक के शब्द रहत नहिं धीर।

दिन दिन जिय की जलन अधिक अधिकाय,

महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।4

 

घन गर्जन सुनि मोर मचावत शोर,

सिर उठाय हैं चितवत नभ की ओर।

विरहिन को हैं शिक्षा देत सिखाय,

महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।5

 

 

रही मिलन की अब नहिं तनिकहु आश,

सब दिन की अभिलाषा भई निराश।

क्षमा  दानहू  दीन  न  प्रीतम  हाय।

महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।6

 

प्रीतम की नहिं सेवा नेकहु कीन,

जन्म वृथा जग में जगदीश्वर दीन।

जीवन केवल दुख में दियो बिताय,

महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।7

 

('लक्ष्मी', जनवरी, 1913)


 

 

 

श्रीयुत् बा. देवकीनंदन खत्री का वियोग

 

 

(1)

हैं यह शोक समाज आज उसके लिए।

जिसने हिंदी के अनेक पाठक किए ।।

रचा तिलस्मी-जाल फँसे जिसमें बहुतेरे।

टो टो पढ़ने वाले औ उर्दू के चेरे ।।

चंद्रकांता हाथ न उनकी ओर बढ़ाती।

ढूँढे उनका पता कहीं हिंदी फिर पाती?

(2)

ऐयारी के बल कितनों को पकड़ पकड़कर।

फुसला लाया हिंदी के जो नूतन पथ पर ।।

हुआ गुप्त वह उस तिलस्म में चटपट जाकर।

कहीं न जिसका भेद कभी हैं खुला किसी पर ।।

अहो! देवकी नंदनजी हा! चल दिए।

छोड़ जगत् जंजाल, शोक उनके लिए ।।

 

  ('इंदु', अगस्त, 1913)


 

 

 भारतेंदु-जयंती

 

 

(1)

खड़ा विदा के हेतु हमारा चिर पोषित साहित्य।

बना बनाया भाव-भवन था गिरता जाता नित्य ।।

खड़हर करके हृदय खुक्ख हो कुछ तो बर्बर नीच।

कृशित बुध्दि निज लगे टिकाने भाडे क़े घर बीच ।।

(2)

इस भू के जो विटप, बेलि, नग, निर्झर, नदी कछार।

सभी एक स्वर से पुकारते बार बार धिक्कार ।।

हो प्रमत जब एक एक लगे हटाने हाय।

उनके बंधु और चिर-प्रतिनिधि रुचिर शब्द समुदाय ।।

(3)

पश्चिम से जो ज्ञान-ज्योति की धारा बही विशाल।

बुझे दीपकों को उससे हम लेवें अपने बाल ।।

नहीं चेत यह हमें, रहे हम चिनगारी पर भूल।

यहाँ वहाँ जो गिरती केवल प्राप्तकाल अनुकूल ।।

(4)

पल्ला पकड़ विदेशी भाषा का दौडे क़ुछ वीर।

नए नए विज्ञान कला की ओर छोड़कर धीर ।।

पिछड़ गया साहित्य शिथिल तन लिया न उसको संग।

पिया ज्ञान रस आप, लगा वह नहीं जाति के अंग ।।

 

(5)

इसी बीच ''भारतेन्दु'' कर बढे विशाल उदार।

हिंदी  को  दे  लगाया  नए  पंथ  के  द्वार ।।

जहाँ ज्ञान विज्ञान आदि के फैले रत्न अपार।

संचित करने लगी जिन्हें हैं हिंदी विविध प्रकार ।।

 

 ('इन्दु', सितम्बर, 1913)

 

 वंदना

 

 

(1)

प्रथम कारण जो सब कार्य का,

विपुल विश्व विधायक भाव जो।

सतत देख रहे जिसकी छटा,

मनुज कल्पित कर्मकलाप में ।।

(2)

हम उसी प्रभु से यह माँगते,

जब कभी हम कर्म प्रवृत्ता हों।

सुगम तू करे दे पथ को प्रभो!

विकट संकट कंटक फेंक के ।।

(3)

प्रकृति की यदि चाल नहीं कहीं,

जगत् के शुभ के हित बाँधता।

विकट आनन खोल अभी यही,

उदर बीच हमें धरती धरा ।।

 

 ('बाल हितैषी', जनवरी, 1915)


 

 

 

 

 

 

हमारी हिन्दी

 

 

(1)

मन के धन वे भाव हमारे हैं खरे।

जोड़ जोड़ कर जिन्हें पूर्वजों ने भरे ।।

उस भाषा में जो हैं इस स्थान की।

उस हिंदी में जो हैं हिन्दुस्तान की ।।

उसमें जो कुछ रहेगा वही हमारे काम का।

उससे ही होगा हमें गौरव अपने नाम का ।।

(2)

'हम' को करके व्यक्त, प्रथम संसार से।

हुई जोड़ने हेतु सूत्रा जो प्यार से ।।

जिसे थाम हम हिले मिले दो चार से।

हुए मुक्त हम रोने के कुछ भार से ।।

उसे छोड़कर और के बल उठ सकते हैं नहीं।

पडे रहेंगे, पता भी नहीं लगेगा फिर कहीं ।।

(3)

पहले पहल पुकारा था जिसने जहाँ।

जिन नामों से जननि प्रकृति को, वह वहाँ ।।

सदा बोलती उनसे ही, यह रीति हैं

हमको भी सब भाँति उन्हीं से प्रीति है ।।

जिस स्वर में हमने सुना प्रथम प्रकृति की तान को।

वही सदा से प्रिय हमें और हमारे कान को ।।

 

(4)

भोले भाले देश भाइयों से जरा।

भिन्न लगें, यह भाव अभी जिनमें भरा ।।

जकड़ मोह से गए, अकड़ कर जो तने।

बानी बाना बदल बहुत बिगड़े, बने ।।

धरते नाना रूप जो, बोली अद्भुत बोलते।

कभी न कपट-कपाट को कठिन कंठ के खोलते ।।

(5)

अपनों से हो और जिधर वे जा बहे।

सिर  ऊँचे  निज  नहींपैर  पर  पा  रहे ।।

इतने  पर  भी  बने  चले  जाते  बड़े।

उनसे  जो  हैं  आस  पास  उनके  पडे ।।

अपने को भी जो भला अपना सकते हैं नहीं।

उनसे आशा कौन सी की जा सकती हैं कहीं? ।।

(6)

अपना  जब  हम  भूल  भूलते  आपको,

हमें  भूलता  जगत  हटाता  पाप  को ।।

अपनी  भाषा  से  बढ़कर  अपना  कहाँ?

जीना  जिसके  बिना  न  जीना  हैं  यहाँ ।।

हम भी कोई थे कभी, अब भी कोई हैं कहीं।

यह निज वाणी-बल बिना विदित बात होगी नहीं ।।

 

  (ना. प्र. पत्रिका, सितं.-दिसं., 1917)


 

याचना

 

 

(1)

धन्य धन्य, हे ध्वनि के धनी कवींद्र!

भावलोक के ठाकुर, उदित रवींद्र,

सारे भेदों के अभेद को खोल,

लिया जगत् का तुमने मर्म टटोल-

हृदय सबके छुए,

प्राण सबके हुए ।।

(2)

दर्शन से कृतकृत्य हुए हम आज।

यही माँगते सविनय सहित समाज,

आज रहे हैं नाता अपना तोड़,

विविध सृष्टि से हम, उसको दो जोड़।

और किससे कहें?

मौन   कैसे   रहें? ।।

(3)

नग निर्झर, तरु, पशु विहंग के संग,

मिला हुआ था कभी रंग में रंग।

प्रेमसूत्रा वह, हाय! रहा हैं टूट,

अपनों से हम आज रहे हैं छूट।

कवे! करुणा करो,

बहे   जाते   धरो ।।

 

(4)

नित्य विश्वसंगीत तुम्हारे कान।

सुनते हैं, यह बात गए सब जान,

उसके झोंकों का करके संचार,

खोलो सबके आज हृदय के द्वार,

भाव जिसमें भरें,

प्रेम जिससे करें ।।

(5)

हँसने में हों हम कुसुमों के अंग,

चहकें हम भी पिक चातक के संग,

रोने में दें दीन दुखी का साथ,

मन को अपने रक्खें सबके हाथ

यही   वर   दीजिए

लोक यश लीजिए ।।

 

 (ना. प्र. पत्रिका, अप्रैल, 1919)


रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 8

  भाग - 1 //  भाग -2 // भाग -3 // भाग - 4 //  भाग - 5 //  भाग -6 //  भाग - 7 // भाग - 8 //  भाग - 9 //  भाग - 10 // भाग -11 //  भाग - 12 //

 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.