रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
8
सृजन के विविध आयाम
कविता
(मधुस्रोत)
सुमन-संगीत
आओ, हे भ्रमर! कमनीय कृष्ण-काति धर!!
देखो, जिस रूप, जिस रंग में खिले हैं हम।
आकुल किसी के अनुराग में अवनि पर;
इसी रूप-रंग में खिला हैं कोई और कहीं,
जाओ वहीं, मधुप! सुनाओ गूँज पल भर।
रंग में उसी के चूर धूल हो हृदय यह,
धीरे-धीरे उड़ा चला जाता हैं बिखर कर;
जाओ पहुँचाओ पास प्रिय के हमारे अब,
अधिक नहीं तो एक कण मित्र मधुकर ।।27
गर्भ में धरित्री अपने ही कुछ काल जिन्हें,
धर कर, गोद में उठाती फिर चाव से;
औरस सगे हैं वे ही उसके जो हरे-हरे,
खडे लहराते पले मृदु क्षीर-स्राव से।
भरती हैं जननी प्रथम इनको ही निज,
भरे हुए पालन औ रंजन के भाव से;
पालते यही हैं, बहराते भी यही हैं फिर,
सारी सृष्टि उसी प्राप्त शक्ति के प्रभाव से ।।28
तप्त अनुराग जब उर में वसुंधरा का,
उठता हैं लहरें सकंप लहकारता;
देखता हैं उसे ध्वंस ज्वाला के स्वरूप में तू,
प्यार की ललक नहीं उसको विचारता।
निज खंड-अनुराग से न मेल खाता देख,
नर! तू विभीषिका हैं उसको पुकारता;
दूर कर पालन की शक्ति की शिथिलता को,
वही नव जीवन से भरी फूँक मारता ।।29
उसी अनुराग के हैं शीतल विभास सब,
कोमल अरुण किशलय क्या कुसुमदल;
नीरव संदेश कहो, प्रेम कहो, रूप कहो,
सब कुछ कहो इन्हें सच्चे रंग ही में ढल।
रंग कैसे रंग पर उड़-उड़ झुकते हैं,
पवन में पंख बने तितली के चोखे चल;
यों ही जब रूप मिलें बाहर के भीतर की
भावना से, जानो तब कविता का सत्यपल ।।30
गया उसी देवल के पास से हैं ग्राम-पंथ,
श्वेत धारियों में कई घास को विभक्त कर;
थूहरों से सटे हुए पेड़ और झाड़ हरे,
गोरज से धूमले जो खडे हैं किनारे पर।
उन्हें कई गायें पैर अगले चढ़ाए हुए,
कंठ को उठाए चुपचाप ही रही हैं चर;
जा रही हैं घाट ओर ग्राम वनिताएँ कई,
लौटती हैं कई एक घट औ कलश भर ।।31
इतने में बकते औ झकते से बूढे बूढ़े,
भगत जी एक इसी ओर बढे आते हैं;
पीछे-पीछे लगे कुछ बालक चपल उन्हें,
'सीताराम-सीताराम' कहके चिढ़ाते हैं।
चिढ़ने से उनके चिढ़ाने की चहक और,
दल को वे अपने बढ़ाते चले जाते हैं;
कई एक कुक्कुर भी मुँह को उठाए साथ,
लगे-लगे कंठस्वर अपना मिलाते हैं ।।32
कई ललनाएँ औ कुमारियाँ कुतूहल से,
ठमक गई हैं उसी पथ के किनारे पर;
मंदिर के सुथरे चबूतरे के पास-बढ़,
सिर से उतार घट कलश हैं देती धर।
हावमयी लीला यह देख के भगत जी की,
भीतर ही भीतर विनोद से रही हैं भर;
मुख से तो कहती हैं 'कैसे दुष्ट बालक हैं',
लोचनों से और ही संकेत वे रही हैं कर ।।33
सूहे वास बीच से हैं फूटती गोराई कहीं,
पीतपट बीच लुकी साँवली लुनाई हैं;
भोले भले मुख में कपोल बिकसाती हुई,
मंद मृदु हास-रेखा दे रही दिखाई हैं।
चंचल दृगों की यह चटक निराली ऐसी,
जनपद छोड़ और जाती कहाँ पाई हैं;
विविध-विकास भरी लहलही मची बीच,
घटित प्रफुल्ल द्युति यह सुघड़ाई हैं ।।34
सामने हमारे जब आया वह दल तब,
भगत के पास जाके एक बोला ''राधेश्याम'';
कृपा दृष्टि अभी पूरी होने भी न पाई थी कि,
चट फिर बोल उठा ''सीताराम-सीताराम''।
लाठी तान सिर को झुलाते हुए झुक पडे ,
गालियों के साथ झोंक दादा औ पिता के नाम;
कंधे से दुपट्टा छूट पड़ा लहराता बढे,
कुत्तो जो लपक, लिया लोगों ने झपट थाम ।।35
अंत में 'अरुण जी' की बढ़ती उतावली को,
देख उठ खडे हुए हम लोग जाने को;
इतने में भद्र जन एक उसी ग्राम के यों,
बोल उठे, ''आप लोग फिर कहाँ आने को?
होगा न विलंब, चले चलिए हमारे द्वार,
आधी घड़ी बैठिए न श्रम ही मिटाने को'';
सब लोग साथ चले; केवल 'अरुण' लगे,
मुँह को बनाने, किंतु वह भी दिखाने को ।।36
घुसते हैं वीथियों में ग्राम के तो कहीं-कहीं
गोमय के बीच बँधे गाय-बैल पाते हैं;
नोंक-झोंक बातों की भिड़ाते हुए नंदन जी,
गडे ख़ूँटे से जा एक टकराते हैं।
भड़क के बैल एक बंधन तुड़ाता हुआ,
भागता हैं; पीछे कुछ लोग दौड़ जाते हैं;
धीरे-धीरे यों ही एक द्वार के समक्ष हम,
चिकनी चौकोर स्वच्छ भूमि पर आते हैं ।।37
कोल्हू एक बीच में गड़ा हैं; जाट घूम-घूम,
बोलती हैं मड़ मड़ लाट सी उठी वहीं;
पड़ गईं खाटें, जमी मंडली हमारी चट,
चर चर गायें लौट थानों पर आ रहीं।
धीरे धीरे लाए गए घडे ऌक्षु-रस भरे,
धरे गये मटके भी दूध के कहीं कहीं;
पीने को बिठा के हमें देने लगे ढाल-ढाल,
मानते हमारी कही एक भी 'नहीं' नहीं ।।38
ग्राम-ग्राम द्वार पर अतिथि-समागम का,
गौरव सदा से इसी भाँति चला आता हैं;
नगरों के ऐसा वहाँ देख कोई आया गया,
दूर ही से कहीं कोई मुँह न चुराता हैं।
बैठे हुए मुदित 'प्रमोद जी' को बार बार,
देख देख एक कुछ सोचता सा जाता हैं;
नाम धाम पूछ फिर धीरे से खिसक गया,
बोले हम ''देखो! यह कौन रंग लाता हैं'' ।।39
कानाफूसी करती नवेली कई देख पड़ीं,
मंद मंद हँसी न दबाई दब पाती हैं;
ज्यों ही बातचीत में हमारा ध्यान बँटा,
त्यों ही पास ही हमारे झनकार कुछ आती हैं।
साथ ही उसी के चट ऊपर हमारे छूट,
झोंकभरी पीत-रंग-धारा ढल जाती हैं;
उठ पडे रंजित वसन झटकार हम,
हास की तरंग उठ रस में डुबाती हैं ।।40
पास ही श्वसुर-ग्राम 'भंडशर' नाम यहीं,
कहीं हैं प्रमोद जी का, जानते थे हम यह;
पूछने से एक ने उठा के हाथ चट उन,
पर्वतों के अंचल की ओर कहा ''देखो वह''।
नाता एक ग्राम से जो होता हैं किसी का उसे,
आस पास मानते हैं ममता के साथ कह;
देश के पुराने उस जीवन की धारा अभी,
सूखी नहीं यहाँ, क्षीण होकर रही हैं बह ।।41
पश्चिम दिशा में घने द्रुम-दल-जाल-मध्य,
देख पडे अवकाश लोहित प्रदीप्त अति;
और ओर पत्राराशि-गह्नरों की श्यामता की,
बढ़ गहराई चली; मंद हुई वायु-गति।
खुला रंग धरती का दबता दिखाई दिया,
होने लगी अब तो प्रकाश की प्रकट क्षति;
आकुल विहंग चले वेग से बसेरों पर,
घर फिर चलने की हमने भी ठानी मति ।।42
लीन अभी श्यामता में पेड़ हो न पाए थे कि,
जहाँ तहाँ गए स्वर्ण-आभा से झलक छोर;
टेढ़ी-मेढ़ी धूम्र कृष्ण शैल शीर्ष-रेखा पर,
देख पड़ी झाँकती-सी उठी चंद्रबिंब-कोर।
धीरे धीरे टीले, खपरैल, खेत मेंड़, पथ,
धारा में धवल चोखी चाँदनी उठे बोर;
उठ पड़ी मंडली हमारी एक एक कर,
बढे पाँव साथ-साथ सबके घरों की ओर ।।43
खिली हुई चाँदनी में खेत खात पारकर,
धाम के समीप निज ज्यों ही हम आते हैं;
देखते हैं दल बाँध बालक अनेक घूम,
माता होलिका की जय धूम से मनाते हैं।
काँटे और झाड़ लिए कई एक पास आके,
बोले ''हम आज कहीं कुछ भी न पाते हैं'';
पूरी समवेदना दिखाते हुए सब लोग,
बोले ''देखो, हम अभी तुमको बताते हैं'' ।।44
वयस में दूर नहीं बहुत बढ़े थे हम,
क्षण भर मिल गए साथ बाल-दल के;
परम विनोद शील ''ग्रामपति'' इसी बीच,
देख पडे, मिले मानो सखा प्रति पल के।
चिड़चिडे बूढे एक 'वंशी महराज' के थी,
द्वार पर खाट पड़ी थोड़ी दूरी चल के;
उँगली हमारी उठी ज्यों ही उस ओर उसे,
बालकों ने लाद लिया, हम हुए हलके ।।45
फागुन की चाँदनी की चहल पहल यह,
चूक से हमारी अब चुकी चली जाती हैं;
प्रकृति के साथ मिले मन की उमंग वह,
झोंके झंझटों के झेल आज ढली जाती हैं।
गौरव की ग्लानि से स्वरूप की हमारी सब,
चारुता भी रुचि को समेट गली जाती हैं;
जीवन की सारी जो प्रफुल्लता हमारी रही,
देखते-ही-देखते हमारे टली जाती हैं ।।46
पर्व और उत्सव-प्रवाह में प्रमोद-कांति,
सारी-मिली-जुली साथ में थी खुली खेलती;
आज वह छिन्न-भिन्न होके कुछ लोगों की ही,
कोठरी में लुकी-छिपी कारागार झेलती।
भद्रता हमारी कोरी भिन्नता का बाना धर,
खिन्नता से बहुतों से दूर हमें ठेलती;
हिल मिल एक में करोड़ों की उमंगें अब,
जीवन में सुख की तरंगें नहीं रेलती ।।47
चढ़ी चली आती देख पच्छिमी सनक सब,
हृदय हमारे आज और भी हैं हारते;
जीवन विधायिनी विभूति जीती-जागती जो,
भूमि के दुलारे निज श्रम से पसारते।
उसे धातु-निगड़ से जकड़ बना के जड़,
पालन-प्रसार की समस्त गति मारते;
सोखते हैं रक्त भर पेट कुछ लोग बैठ,
उनका जो तन के पसीने नित्य गारते ।।48
ऐसे क्रूर कठिन विधान में कहाँ से यह,
मंगल की आभा की झलक रह पावेगी?
नगरों के धातु खंड-राशि जिस घड़ी सब,
ग्राम-गत भूमि झनकार से जुतावेगी।
खोके पत पानी, हार अपनी स्वतंत्राता को,
जनता वहाँ की मजदूर बन जावेगी;
लुच्चे औ लफंगे नई काट के मिलेंगे, फिर,
वहाँ भी पुनीतता न मुँह दिखलावेगी ।।49
जीने हेतु हाथ-पाँव मारना ही जीवन का,
एक-मात्र रूप हम चारों ओर पावेगे;
अवसर आयु में से क्रीड़ा के कटेंगे सब,
बालक भी खेलते न देखने में आवेंगे।
सारी वृत्ति अर्थ से बँधेगी इस भाँति, लोग,
कहीं आँख-कान तक व्यर्थ न लगावेंगे;
ऐसे इस अर्थ के अनर्थ से विभीत होके,
मन के पुनीत भाव सारे भाग जावेंगे ।।50
('माधुरी' अप्रैल, 1927)
झलक (3)
पकड़-पकड़ पिटी अपनी लकीरों पर,
लाकर खिलाई हुई डालियों के पास में;
डाल के सुखावन जो बैठते हैं सायं-प्रात,
सुखद समीर ही के सेवन की आस में।
कहें वे इसे ही चाहे प्रकृति का प्रेम, और
ढूँढ़ा करें कविता को भोग औ विलास में।
किंतु रसमयी विश्वव्यापिनी कला की भला,
झलक मिलेगी कहाँ ऐसों के प्रयास में? ।।1
रूपों में चराचर के काया का जो भोग मात्रा,
ढूँढ़ते हों कहीं वे तो जृंभित जडे रहें;
बैठे या पसारे पाँव अपने विनोद में या,
तिमिर की गोद में ही नींद में गडे रहें।
तमक दमक-भरे नृत्य से निदाघ के वे,
तेज के झ्रवाते कण दूर ही पडे रहें;
किंतु हम वेग बने, ज्वाला बने, रव बने,
क्यों न आज साथ मिले साज से खडे रहें? ।।2
प्रखर-प्रणय-पूर्ण दृष्टि से प्रभाकर की,
ललक-लपट-भरी भूमि भभराई हैं;
पीवर पवन लोट-लोट धूल-धूसरित,
झपट रहा हैंबड़ी धूम की बधाई हैं।
सूखे तृण-पत्रा लिए कहीं रेणचक्र उठा,
घूर्णित प्रमत्ता देता नाचता दिखाई हैं;
झाड़ औ झपेट झेल झूमते खड़े हैं पेड़,
मर्मर-मिलित हू-हू दे रहा सुनाई हैं ।।3
दौड़ती हैं दृष्टि खुले मृण्मय प्रसार-बीच,
ताप तिलमिली की तरंगों का जहाँ हैं छोर;
निखरे सपाट तपे खेतों पर छाया डाल,
डोलते हमारे डील लेते धर्म-मर्म घोर।
धूल-भरी गोद की उमंग उठ उठ कभी,
छोपती हैं हमें, फिर छोड़ती हैं किसी ओर;
जीवन की ज्वाला से किनारे पडे हुए पिंड,
पिघलेंगे कैसे कुछ विश्व-मर्मता बटोर ।।4
तमक रही हैं जिस तेज से ज्वलंत भूति,
उसी ने हमारे आज पैर भी उभारे हैं;
झंझा बीच फैली झाड़ झपट हमारी देखो,
लुवों की लपक में भभूके ये हमारे हैं।
नाचती उमंग हैं हमारी वात-चक्र बीच,
रक्षण के भाव कहीं छाया में पसारे हैं;
द्रवित दया की क्षीण देखा भी सलिलवती
रखती हैं हरे उन्हें धरे जो किनारे हैं ।।5
धन्य यह सुभृति विभूति हेतु घोर तप,
आशा का मुखरवाद झोंक भरी चढ़ी झक;
पीने की क्षमता प्यास होके उतनी तो बढे,
जितनी से जाय तृप्ति लोक-सुख सीमा तक।
सच्ची रोष ज्वाला यह ऐसी धुवाँधार जगे,
जड़ता के भीतर भी होने लगे धकधक;
रूखा-सूखा गगन हो जाये यह पानी-पानी,
अंकुरित जीवन की छावे हरियाली चक्र ।।6
बढ़ी चली जा रही हैं मंडली हमारी वही,
धुन में हो चूर भरपूर पैर धुनती;
आसपास चौकड़ी न भरते कहीं हैं पैर,
डोलते न पंख, कोई चेंच भी न चुनती।
उभरे किसी ढेले की छाया में बटोही कटी,
लेता हैं विराम, वहीं लूता जाल बुनती;
सिर को निकाल तरु-कोटर से मैना एक,
चुपचाप आहट हमारी बैठ सुनती ।।7
मीठी मटियाली अंतरिक्ष की प्रभा में रमा,
एक हैं अकेला पेड़ ताने हरे पत्राजाल;
जीव धर्म-पालन में अचल खड़ा हैं वह,
आए गए प्राणियों के हेतु घनी छाया डाल।
पीवर गँठीली एंठी जड़ों के समीप बैठी,
करती जुगाली आँख मूँदे एक गाय लाल;
भेद भाव-हीन यह आश्रय पुनीत, यहीं,
बैठ क्यों न काटें हम लोग कुछ क्लांति काल ।।8
देखते हैं श्वान एक धूप में खड़ा हैं आगे,
आश्रय के हेतु जिसे वृक्ष ने बुलाया हैं;
साहस न होता उसे छाया में बढ़ाए पैर,
जहाँ क्रूर आसन मनुष्य ने जमाया हैं।
पूँछ में विनीत वीज्यमान, प्रेम-व्यंजना हैं,
लगी दीन दृष्टि, लटी लोममयी काया हैं;
एक दुतकार को दबाती चुचकारें बढ़ीं,
यहाँ जगी प्रीति, वहाँ भगी भीति छाया हैं ।।9
काया की न छाया यह केवल तुम्हारी द्रुम,
अंतस के मर्म का प्रकाश वह छाया हैं;
भरी हैं इसी में वह स्वर्ग-स्वप्नधारा अभी,
जिसमें न पूरा-पूरा नर बह पाया हैं।
शांतिसार शीतल प्रसार यह छाया धन्य,
प्रीति-सा पसारे इसे कैसी हरी काया हैं;
हे नर! तू प्यारा इस तरु का स्वरूप देख,
देख फिर घोर रूप तूने जो कमाया हैं ।।10
पूँछ को हिलाता चुपचाप वह आया चला,
बैठ गया सारा डील डाल वहीं हार के;
हाँफता हैं खोले मुँह, विरल धवल दंत,
बीच लंबी लाल जीभ बाहर पसार के।
ऊपर को मुँह किए ताकता हैं हमें कभी,
नीचे दबा भाषा हीन भावना के भार के;
''क्रूरता न करें, बड़ी कृपा क्या हमारी यही,
हम तुम दोनों हैं भिखारी एक द्वार के'' ।।11
देखते हैं ऊपर तो पत्तियों के बीच कई,
पंखवाले पाहुने भी बैठे मन मारे हैं;
सहचर सारे ये हमारे रहते भी जहाँ,
कुछ सुख पावें पुण्यधाम वे हमारे हैं।
इनके सुखों से सुख अपना हटा के दूर,
जीवन का मूल्य तो समूल हम हारे हैं;
पर ये हमारे, हम इनके बने हैं अभी,
जैसे हम इन्हें वैसे हमको ये प्यारे हैं ।।12
वात-वेग शिथिल हो मंद पड़ जाता जब,
छाती सनसनी घोर प्रकृति-प्रसार में;
रह-रह मारता हैं चोट-सी पवन पर,
पंडुक निचाट पडे बंजर के पार में।
चोखी चाह चातक की मौन चीखी हैं कभी
माती हुई धुन के चढ़ाव में, उतार में;
बोल रे पपीहे! तेरे कंठ में हमारी प्यास,
लोक-याचना हैं तेरी गूँजती पुकार में ।।13
पान-'जलपान' बँधे अपने अंगोछे में से,
'नंदन जी' डालते हैं आगे कुछ श्वान के;
लेता हैं लपककर, ताकता हैं बार-बार,
प्राप्ति हेतु और फल दया के विधान के।
जीवन के अर्थ की क्या सिध्दि यह कोई नहीं,
देके सुख देखें हम आप सुख मान के;
तेरी अर्थ बुध्दि, नर! भारी इस अर्थ तक,
पहुँचेगी कभी, वाणी आई यह ठान के ।।14
चौंके हम पास ही झपटे के समेत सुन,
भूँकने का शब्द, फिर आँख जो उठाते हैं;
ऊपर अगोछेवाली पोटली का स्वामी अब,
एक मोटे पिंगल कपीश जी को पाते हैं।
बैठे एक डाल पर लेके उसी में से कुछ,
मौज से उड़ाते, कुछ फेंकते गिराते हैं;
कुक्कुर की कूद-फाँद साथ में लगाए हुए,
नीचे खडे 'नंदन जी' लाठी लपकाते हैं ।।15
देते हैं घुड़की यह अर्थ ओज-भरी हरि,
''जीने का हमारा अधिकार क्या न गया रह?
पर-प्रतिषेध के प्रसार बीच तेरे, नर!
क्रीड़ामय जीवन उपाय हैं हमारा यह।
दानी जो हमारे रहे वे भी दास तेरे हुए,
उनकी उदारता भी सकता नहीं हैं सह;
फूली-फली उनकी उमंग उपकार की तू,
छेंकता हैं जाता, हम जायँ कहाँ तूही कह'' ।।16
वंचना के साधक पाखंड के प्रयोजन के,
'चोरी', 'बटपारी' आदि शब्द ये हमारे हैं;
मोटी देह होती हैं हमारी जिन दुबलों की,
रोटी छीन वे ही दोषभार धरे सारे हैं।
जिनकी बुराई में भलाई हैं हमारी बसी ,
अपनी वार्ता में हित हमसे वे हारे हैं;
ढोंग पर सारे इस मुँह का चिढ़ाना कपि!
देखते किसी का हम मुँह में तुम्हारे हैं ।।17
('माधुरी', अगस्त, सितंबर, 1928)
पाखंड-प्रतिषेध
''हम लखि, लखहि हमार, लखि हम हमार के बीच;
तुलसी अलखहि का लखहि, राम-नाम जपु नीच।''
''अंतर्जामिहु तें बड़ बाहरजामी हैं राम.....'' (तुलसी)
(1)
तमोमयी वासना के गर्भ में विलीन कभी,
गडे हुए आप में जो आपको छिपाते हैं;
रूप गति-भेद का विकास लेके वे ही भाव,
खेलते खेलाते हुए खुले चले आते हैं।
परम-हृदय खुला, बना क्या? जगत्-काव्य,
जगी हुई ज्योति-सा जगाते जिसे पाते हैं;
यों ही खुल बाहर जो आपको बढ़ाते वे ही,
हृदय पुनीत कला काव्य को दिखाते हैं।
(2)
अखिल अनंत महाकाव्य की अखंड धार,
फूट-फूट छिटक रही हैं विश्व-रूप धर;
पालन विनाश के विधान की झलक लिए
छलक रहे हैं भूरि भाव भी भुवन भर।
होके रस-सीकर वे भेदते नहीं हैं किन्तु,
हृदय जो बाहर को खुले द्वार मूँदकर;
कोठे-कोठे भरम रहे हैं अंधकूप बीच,
कूदते हैं वात-पित्ता-लिप्त किसी कोने पर।
(3)
छुटती चराचर में इसी भाव धारा ओर,
हृदय हमारे आदि कवि का खुला था जब;
सत् के आभास लोक पालन औ' रंजन के
भावों की पुनीत प्रभा उसमें समाई तब।
ध्वंस-रूप असत् की छाया साथ-साथ लगी,
देख पड़ी, किंतु वह उसमें सकी न दब;
जगत् की जागती अनंत कला शाश्वत हैं,
सगुण-विभूतिमयी भासमान सत्ता सब।
(4)
सहन हुआ न उस सत्तवगर्भ मानस को,
खग के भी जीवन की हानि और सुख-भंग;
वेदना से क्षुब्ध ज्यों ही उमड़ पड़ा हैं वह,
भारती की वीणा झनकारती उठी तरंग।
रोष ने, अमर्ष ने, पराए अपकर्ष ने भी,
करके संचार उन करुण स्वरों के संग;
साधन सहायक के रूप में ही काम किया,
खोलने में मंगली शुभ्र भावना का रंग।
(5)
काव्य में 'रहस्य' कोई 'वाद' हैं न ऐसा, जिसे
लेकर निराला कोई पंथ ही खड़ा करे;
यह तो परोक्ष रुचि-रंग की ही झाईं हैं, जो
पड़ती हैं व्यक्त में अव्यक्त-बिंबता धरे।
दृष्टि जो हमारी कर देती हैं लीन किसी,
धुंधली-सी माधुरी में लोक-काल से परे;
किंतु जो इसी के सदा झूठे स्वाँग रचे, उसे
हाँक दो, न घूम-घूम खेती काव्य की चरे।
(6)
पूरब में शुद्ध रूप में था यह यहाँ, वहाँ
पच्छिम में पहुँचा पखंड के प्रमाद तक;
अंगल की भूमि बीच ब्लेक1 ने जो ढोंग रचा,
देखते हैं आज यहाँ उसी की चढ़ी हैं झक।
जूठा औ पुराना यह पच्छिमी पखंड लेके,
होती हैं नवीनता की डींग-भरी बक-बक;
योरप के किसी-किसी कोने में रहे तो रहे,
रोकना हैं किन्तु यहाँ इसे आज भरसक।।
1. विलियम ब्लेक(1757-1827) यह अंग्रेज कवि अपने को ईश्वर का दूत प्रकट
करना चाहता था और इसी प्रकार की बातें और चेष्टाएं करता था, जिस प्रकार
यहाँ पहँचे हुए सिद्ध महात्मा बननेवाले पाखंडी साधु किया करते हैं। इसे
ईश्वर का दर्शन और इल्हाम हुआ करता था। इसने एक अन्योक्तिमयी रचना
(जेरूसलेम: द इमेनेशन आव द जाएंट ऐलबिअन) करके वह घोषित किया कि ''मैं तो
इस काव्य का केवल मुहर्रिर हूँ लिखानेवाले, असली कवि, तो अमरलोकवासी
फरिश्ते हैं। मैं इसे संसार का सबसे उत्कृष्ट काव्य मानता हूँ।'' पर संसार
अंधा नहीं थाहोशियार हो चुका था। इसकी रहस्यवाद की रचानाएँ बिलकुल निकम्मी
ठहराई गईं। अपनी रचनाओं को छापने में यह विचित्र-विचित्रा ढोंग निकाला करता
था। प्रत्येक पृष्ठ पर एक चित्र रचना के रूप में होता था, जिसके बीच में
कुछ पंक्तियाँ टेढे-मेढे ढ़ंग से सजी रहती थीं।
इस प्रकार के पाखंड मतवादियों और सांप्रदायिकों के ही काम के हो सकते हैं।
काव्य की सत्य भावमयी भूमि में इनका प्रवेश अत्यंत गर्हित हैं। इंग्लैण्ड
के कालरिज, ब्राउनिंग, वड्र्सवर्थ और शेली आदि की रचनाओं में जो कहीं-कहीं
रहस्यमय आभास हैं, वे सच्चे हैं, हृदय की सच्ची अनुभूति के व्यंजक हैं। पर
उनके भावों को ग्रहण करने की भी क्षमता हिंदी के मैदान में छायावादी बनकर
कूदने वालों में नहीं हैं। अधिकांश की शिक्षा की हद और अंग्रेजी आदि की
योग्यता छिपी नहीं हैं। आजकल जो बीच-बीच में लेख इनके निकलने लगे हैं,
उनमें योरप के दर्जनों नाम गिनाए हुए मिलते हैं जिनकी रचना के एक पृष्ठ का
दर्शन भी इन भले मानसों ने न किया होगा। इन नामों में बहुत से ऐसे नाम भी आ
जाते हैं, जिनसे रहस्यवाद से कोई सरोकार नहीं ज़ैसे तुलसीदास और कीट्स।
अंग्रेजी साहित्य का साधारण ज्ञान रखने वाले भी जानते हैं कि कीट्स अपने
बाह्यार्थवाद (सेंसुऐलिज्म) और कला कुशलता के लिए प्रसिद्ध हैं, न कि
रहस्यवाद के लिए। इसी प्रकार के एक लेख के लेखक का पता लगाने पर मालूम हुआ
कि आपने आठवें दर्जें तक अंग्रेजी पढ़ी हैं। जो थोड़ी-बहुत अंग्रेजी समझते
हैं, वे कुछ कवियों के शब्दों और वाक्यों का टेढ़ा-सीधा अनुवाद जोड़-जोड़कर
अपनी कविता में घुसा लेते हैं। पर इनकी जोड़बंदी का मुख्य मसाला हैं बंगभाषा
की कविताओं की कोमल कांत पदावलीक़ुहुकिनी, छलना, नीरव संदेश, और न जाने
क्या-क्या। 'सारांश यह कि इस प्रकार की अनधिकार चेष्टा, पाखंड प्रलाप और
अज्ञनता का आवरण हमारे काव्य के नवीन विकास के लिए व्याधि स्वरूप हैं। वह
सच्चा रहस्यवाद नहीं, झूठा और कृत्रिम रहस्यवाद (सूडो-मिसिज्म) हैं।
(7)
वीणापाणि वाणी लोकमानस-विहारिणी हैं,
लुकी-छिपी किसी-किसी कोने में न रहती;
परख पुरानी यह भारत की भास रही,
काल बल खाती काव्य-धारा बीच बहती।
पहुँचा उन्माद की दशा को जहाँ व्यक्तिवाद,
कविता वहाँ की रूप-हानि घोर सहती;
नाचती नटी-सी निरी दंभ की सताई हुई,
सच्चे भोले भाव कभी भूल के न कहती।
(8)
देख चुके दंभ के विकास का विधान यह,
सह चुके गिरा के भी गौरव का अपमान;
लालसा अज्ञात की बताके ढोंग रचते जो
शब्दों का झूठमूठ, अब हों वे सावधान।
आवें लोकलोचन समक्ष, देखें एक बार
अपनी यह कलाहीन कोरी शब्द की उड़ान;
बोलें तो हृदय पर हाथ रख सत्य-सत्य,
इसका वहाँ के किसी भाव से भी हैं मिलान।
(9)
भाषा हैं, न भाव हैं, न भूति भाँपने को आँख,
शिक्षा की सुभिक्षा भी न पाई कभी एक कन;
गाँथते हैं गर्व-भरी गुरु ज्ञान-गूदड़ी वे
चुने हुए चीथड़ों से, किए ब्रह्म लीन मन।
कहीं बंग-भंग-पद चकती चमक रही,
कहीं अंग्रेजी अनुवाद का अनाड़ीपन;
ऐसे सिद्ध साँइयों की माँग मतवालों में हैं,
काव्य में न झूठे स्वाँग खींचते कभी हैं मन।
(10)
कहाँ का अध्यात्म? अरे! कैसी ब्रह्मलिप्सा यह,
वासना का लंबा-चौड़ा रूप विकराल अति;
देह के मलों का यह सागर अपार!
काय वृत्तियों का झंझावात, झूठ की प्रचंड गति।
'अये', 'अये' भंडता की कैसी हैं पुकार यह,
जड़ता से जड़ी हुई कैसी यह मोटी मति;
अंधाधुंध कैसी! यह भेड़ियाधसान कैसी,
नकल-नवीसी कैसी! कितनी अज्ञान-रति।
('सुधा', फरवरी, 1928)
रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 8
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