हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 

 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -  

सृजन के विविध आयाम
कविता (मधुस्रोत)



मधुस्रोत


किस अतीत-पट से छन-छनकर,
रूप अमित स्मृति-मधु बन-बनकर;
खुले नयनपथ की धारा में,
कभी टपककर घुल जाते हैं।
किसी झलक को ललक-भरे,
हम भूल आपको अपनाते हैं;
बिछडा-सा कुछ मिल जाता हैं,
जीवन जग में खिल जाता हैं ।।1

किस अतीत के अंचल से ढल,
संगराग के स्रोत अनर्गल;
काट काल के बाँध, वासना की,
अखंड अनुगति झलकाते।
चिर सहचर रूपों के पथ में,
बार बार हैं हमें बहाते?
जहाँ सगी सुषमा हम पाते,
नहीं चकित होकर रह जाते ।।2

यही पुरानी प्रीति हमारी,
जगकर कर देती हैं प्यारी;
जैसी कुसुम-कलित वन-वीथी,
वैसी ही ऊसर की खाड़ी।
जैसी अमल मधुर निर्झरिणी,
वैसी ही ऊसर की खाड़ी;
वह जो केवल चमक-चाव हैं
निरा कुतूहल बाल-भाव हैं ।।3
युग-युग के रूपों में सनते,
भाव चले आते हैं बनते।
जिस शोभा के लिए हृदय में,
पहले से कुछ प्यार धरा हैं।
काव्यमयी रसमयी वही हैं,
कहीं न कुछ खोटा, न खरा हैं;
यही प्यार जिसमें जितना हैं,
जाग्रत वह भावुक उतना हैं ।।4

झलक, छलक-बाहर भीतर की,
नहीं एक की, भूतल-भर की;
नहीं आज की युग युगादि की,
साथ-साथ चलती आती हैं।
एक अखंड नित्य जीवन की,
रस-धारा ढलती आती हैं;
जग इसकी घूँटें पाते हैं,
जग होकर हम जग जाते हैं ।।5

यों ही हम उठते, गिरते थे,
कभी किसी युग में फिरते थे;
इसी किसी बनखंडी की-सी,
पंकिल कहीं, कहीं पथरीली।
कहीं धातु रंजित फिर श्यामल,
गुछी दूब काई से गीली;
विषम भूमि में भूले-भूले,
वन-कुसुमों में फूले-फूले ।।6

इन्हीं कछारों में लहराते,
गाये यों ही बिखरी पाते;
कूजों की किलकार गूँजती,
कँकरीले टीलों पर आती।
ऊँचे कटे कगार भेदकर,
आड़ी ऐंठ जहाँ दिखलाती;
कोई डाल हमारे सिर पर,
वहीं बैठ जाते थे थककर ।।7

वन-कुटीर में इसी निराले,
पडे हुए थे डेरे डाले;
कभी कड़कती हुई अंधेरी,
में विद्युल्लतिका बल खाती।
पल पल पर दीपित रंध्रों से,
द्रवत् स्वर्ण की झड़ी झ्रकाती;
बाहर वृक, चीते चिल्लाते,
भीतर थे हम बात चलाते ।।8

तुम भी, ग्राम! खुले सपने हो,
रूप-रंग में वही बने हो;
कटी-बँटी हरियाली में तुम,
वैसे ही तो जडे हुए हो।
उठे तरल-श्यामल-दल गुंफित,
अंचल में ही पडे हुए हो;
धरती माता की मटियाली।
भरी गोद यह रहे निराली! ।।9

अरुण दिगंचल से प्राची के,
प्रभा फूटकर तम में फीके;
दमकाती द्रुमभाल उतरती,
मीलित नयनों पर झुँझलाती।
हरी-हरी गीली दूबों पर,
सरक-सरक मुक्ता छहराती;
बालक घर से निकल रहे हैं,
अब भी उन पर उछल रहे हैं ।।10

अब भी जब-जब जोती जाती,
धरती सोंधी महक उड़ाती;
धानी लहरों पर छिटकी हैं,
सूही छींटें-सी ललनाएँ।
हरियाली की सीमा पर हैं,
झुकी स्निग्ध साँवली घटाएँ;
शीतलता नयनों में छाती,
मन बगलों के संग उड़ातीं ।।11

ये खपरैल और ये छप्पर,
गीले सोंधे मिट्टी के घर;
हमें न जाने कब की मीठी,
मीठी सुध में सुला रहे हैं।
अब भी यहाँ किसी भोली को,
आशा में दिन झुला रहे हैं;
बैठ द्वार पर जो बिछोहती,
परदेसी की बाट जोहती ।।12

ऊपर किसी डाल पर धोई,
पल भर बैठ पपीहा कोई;
धुन बाँधे ''पी कहाँ, पी कहाँ'',
आग्रह-भरा पूछ जाता हैं।
फिर-फिर अपने चढ़ते सुर की,
गूँज-मात्रा उत्तर पाता हैं;
अब भी यहाँ पुराने नाते,
यों ही कुछ हैं निभते आते ।।13

मंदाकिनी-सलिल से सींची,
चित्राकूट की ऊँची-नीची;
भक्ति-लहर-सी भूमि भिगोती,
भारतीय मन भास रही हैं।
कुरवक, ककुभ, पियाल, लोधा्रपर,
लतिकाओं की ललक वही हैं;
राम-रमी सुषमा छाई हैं;
कुछ आँखों की बन आई हैं ।।14

वन-वीथियाँ यहाँ की सारी,
जिन्हें रामपद-अंकित प्यारी;
लगती हैं, उनके समीप ये ,
झाड़ कटीले भी हैं प्यारे।
हैं उनके ही वंशज ये जो,
कभी राम को चुभे हमारे;
इस नाते की चोट जिन्हें हैं,
चित्राकूट कुछ और उन्हें हैं ।।15

सरित सलिल को झुके चूमते,
अंबुवेत हैं जहाँ झूमते;
वात-प्रकंपित जहाँ केतकी के,
कानन में मड़ मड़ होती।
कारंडव, बक लिए कूल पर,
मंद मंद बहती हैं सोती;
जल में घुसी कुडौल शिला पर,
जहाँ मयूर नाचते आकर ।।16

भरे सरोवर में अति निर्मल,
जहाँ प्रस्फुटित पंकज के दल;
चंद्र-छटा में खिली कुमुदिनी,
धवल मंद मृदु हास दिखाती।
जहाँ शांत गंभीर नीर में,
द्रुमराजी हैं छवि दुहराती;

भटके घन खंडों की काया,
कहीं फेंकती श्यामल छाया ।।17

मंजरियों के मद में माते,
जहाँ आम फूले न समाते;
दे सौरभ-संदेश देश में,
आकुल अलिकुल को भरमाते।
केकिल के कंठों में भर-भर,
निज रसाल मधु हैं ढलवाते;
दिक्-दिक् की आँखें मतवाली
धरती हैं किंशुक की लाली ।।18

जहाँ-जहाँ ये रूप खडे हैं,
जहाँ-जहाँ ये दृश्य अडे. हैं;
कालिदास, भवभूति आदि के,
हृदय वहाँ पर मिल जाते हैं।
एक अखंड हृदय भारत का,
अविच्छिन्न हो हम पाते हैं।
भाव-भूमि का भरत-खंड यह,
सदा, भारती! तू भरती रह! ।।19

कहीं हृदय अपना समेटकर,
कोश-कीट बन जाय न तू नर!
इसी हेतु अविरल मधु धारा,
द्वार-द्वार पर टकराती हैं।
तेरे रचे हुए जालों के,
बाहर तुझे खींच लाती हैं;
भाव-रूप में भूतों में सब,
रमने का दिखलाती हैं ढब ।।20


आवरणों को काट-काटकर,
व्यापारों को तेरे, हे नर!
मूल रूप में यह धारा जब,
तेरे सम्मुख धर देती हैं।
सच्चे, खरे भाव की चिलकन,
चंचल तुझको कर देती हैं;
जमी हुई छँटती हैं काई,
प्रकृत रूप पड़ते दिखलाई ।।21

कागज की परतों के भीतर,
लिपटा हुआ लोभ चट खुलकर;
कुत्तों की छीना-झपटी बन,
निरा सामने आ जाता हैं।
दौड़ धूप दफ्तर की बंदर,
डाल-डाल पर दिखलाता हैं;
कहीं धातु के खंड दिलाना,
हुआ हाथ से अन्न खिलाना ।।22

('सुधा', अक्टूबर, 1929)





भारत और वसन्त


स्थान एक प्राचीन राजभवन का अवशेष; भारत निश्चेष्ट पड़ा हैं।
(झूमते हुए वसन्त का प्रवेश; पीछे पीछे एक आदमी फूल
से भरी डाली और बहुत से पक्षी लिए हुए।)
भारत
कौन आस धरि, हे वसन्त, अब आजु फेरि तुम आए।
हरे हरे दु्रमदल बहु लीने, सुमन भार लदवाए?
केतिक लिए पपीहा कोयल बने बहेलिया खाते।
मन्द मन्द पग धरत मही पर मानौ करत तमासे।।

अच्छा फिर दो एक पकड़ दो आज हमारे नेरे।
मेरे उल्लू चमगीदड़ और पिक चातक से तेरे।।
(विक्षिप्तता सूचक मंदहास पूर्वक)
देखि तुमारो वेष रँगीलो रुकै हँसी नहिं मेरी।
मारी गई अवसि मति, भैया मेरी अथवा तेरी।।

हाँफत हौ जब बाय बाय मुँह देती महक बताए।
आवत हौ भर पेट मलय के कोमल काठ चबाए।।

सीधे पाँव न परैं तुम्हारे बने फिरत अलबेले।
सहरा की तपती बालू में लोटो जाइ अकेले।।

भग्न द्वार की एक ईंट जो सिर पर गिरै तुम्हारे।
देख पडे तो तुम्हें तुरत ही दिन के फेर हमारे।।
(नेपथ्य में स्त्री स्वर से)
हे हे सुजान! वसन्त, तुम नहिं नेकु मन में जानियो।
कहि गए जो बात ये सब बुध्दि विभ्रम जानियो।।

जब बुरे अति दुख भरे दिन भाल पै मँड़रात हैं।
सत असत् औ दु:ख सुख के भेद, सब मिटि जात हैं।।
भारत (चैतन्य होकर)
कौन आस धरि हाँ, वसन्त, अब आजु फेरि हौ आए।
हरे हरे दु्रम दल सजवाए, सुमन भार लदवाए।।
आवत सुनैं तुम्हें जब, भाई लज्जा आइ दबावै।
तन में रुधिर नहीं इतना जो तुमसों धाइ मिलावै।।

का लैके हम हाय अकिंचन स्वागत करैं तिहारे।
सर्वस खाइ, रोइ दिन बितवत दीन दसा तन धारे।।

कब आओ कब चले जाव यह पूछनहार न पावो।
ऐसी जगह आई मर्य्यादा अपनी आप गँवावो।।

देखत हौ तुम सहस बरस से बीत रही जो मो पै।
नए नए नित बीज विपति के विधि बपु पै मम रोपै।।

वे दिन सपने भये हाय! जब आवहु तुम यहि द्वारे।
सुख सम्पति से भरे हमारे सुत उमंग के मारे।।

शीतल सिंचित उद्यानन महँ तुम कहँ जाइ टिकावैं।
नर नारी जहँ बिबिध भाँति तुहि सखा पूजि सुख पावैं।।

गये दिनन की बात पुरानी क्यों सन्मुख तुम लावत।
क्यों हतभागे दुखी प्रान को आइ आइ कलपावत।।

बिचरहु जाइ और देशन में पड़ी मही हैं सारी।
मोकहँ मृतक मानि मन से निज सब सुधि देहु बिसारी।।

समुझि लेहु सागर जल भीतर भारत गयो समाई।
अथवा रज ह्नै के भूतल से मिल्यो पवन में जाई।।

वसन्त
एक हू कण रेणु की जब लौं यहाँ हम पाई हैं।
आइ के प्रति वर्ष सादर ताहि सीस चढ़ाई हैं।।

यहि पुरानी डेवढ़ी पर सुमन चारि गिराई हैं।
बैठि के मन मारि यहि थल नैन नीर बहाई हैं।।
(दूसरी ओर फिरकर, ऊपर हाथ उठाकर)
हा विधाता! कौन पातक घेरि भारत भाल।
सतत तन पै श्रवत है है विपति बिन्दु कराल।।

क्वधर्म्म पथ को छाड़ि है उन्मत्ता लै करवाल।
कहाँ दीनो पाटि भूतल काटि वनिता बाल।।

कहाँ नाची अग्नि ज्वाला आर्य्य करते छूटि।
कौन धरती भई ऊसर गई इन तें लूटि।।

कहाँ पशुवत गए बाँधे नर समूह अपार।
कौन जन आजन्म तलफ्यो बैठि इनके द्वार।।1


क्या हिंदुओं में युद्ध के नियम संसार की सब जातियों से अच्छे थे। 'जो लोग भयभीत हों वा नशे में हों, पागल हों या आपे से बाहर हों अथवा जिन लोगों के पास शस्त्र न हो उनसे तथा स्त्रियों, बच्चों, बुङ्ढों और ब्राह्मणों से युद्ध न करना चाहिए'' (बौद्धायन 1,10,18,11।।)। आर्य लोग उन लोगों को नहीं मारते थे जो अपना शस्त्र रख देते थे वा जो लोग बाल खोलकर वा हाथ जोड़कर दया की प्रार्थना करते थे अथवा जो लोग भाग जाते थे आपस्तम्ब ( 2,5,10,11)।
मेगस्थनीज कहता हैं अन्य जातियाँ युद्ध में भूमि को उजाड़कर ऊसर कर डालती हैं पर इसके विरुद्ध हिंदू लोग किसानों को एक पवित्र और अबध्य जाति मानते हैं. ..... इसके अतिरिक्त वे न तो अपने शत्रु की भूमि में आग लगाते हैं और न उसपर के पेड़ें को काट गिराते हैं।''
1. भारतवासी लोग संसार की और प्राचीन जातियों की भाँति किसी को गुलाम नहीं बनाते थे। मेगस्थनीज कहता हैं'भारतवासियों की बहुत सी विलक्षण रीतियों में से एक ऐसी हैं जो बहुत ही प्रशंसनीय हैं; जैसा कि उनका शास्त्रा आज्ञा करता हैं कि उनमें कोई व्यक्ति किसी अवस्था में (क्रीत दास) न हो, स्वतंत्रता का आनंद भोगते हुए वे उस समान स्वत्व की प्रतिष्ठा करते हैं जो उस (स्वतंत्रता) पर सबको प्राप्त हैं।''

पारसिन को मान मर्द न कियो इन बहु बार।
सेमिरमिस1 को जाइ ठेल्यो बाबिलन के द्वार।।

देश काँप्यो कौन नहिं सुनि आर्य्य धनुटार।
कौन नायो सीस नहिं दबि आर्य्य भुज-बल भार।।

यव, सुमात्रा आदि द्वीपन थापि निज अधिकार।
कियो अपने हाथ में सब पूर्व को व्यापार।।

अवसि पायो अभय, आयो शरण जो इन पास।
रहो भूतल बीच वाको कौन को पुनि त्रास।।

विविध विद्या कला कौशल जगत में फैलाय!
कियो अपने जान तो उपकार ही इन हाय।।

चीन औ तातार, तिब्बत, मलय, सिंहल, स्याम।
धर्म दीक्षा पाप सादर लेई इनको नाम।।

हा कृतघ्न प्रतीचिजन सब सीखि इन ते ज्ञान।
विभव मद में चूर सकुचत करत अब सम्मान।।



1. सेमिरमिस-यह प्राचीन 'निनवह'(Ninveh) की नींव डालने वाले 'निनस'(Ninus) की रानी थी। बादशाह निनस के पीछे जब यह रानी गद्दी पर बैठी तब इसके आत( और प्रताप से सारा पश्चिम दहल उठा। इसने अनेक देश जय किए और मनुष्यों की स्वामिनी कहलाई। भूविख्यात बाबिलन नगर की स्थापना करने वाली यही थी। बाबिलन के लोगों में यह देवी करके मानी गई हैं। जैसे हमारे यहाँ विक्रमादित्य की अनेक कहानियां हैं वैसे ही अनेक कथाएँ इसके विजय विवरणों से भरी पड़ी हैं।
भारतवासियों को छोड़ इसने और किसी से हार न खाई। तीस लाख आदमियों के साथ इसने भारतवर्ष की सीमा पर चढ़ाई की, पर ठहर न सकी और हार खाकर भागी। रानी सेमिरमिस के समय का बहुत ठीक पता नहीं हैं। ईसा से 900 वर्ष पूर्व उसका होना विद्वान् लोग अनुमान करते हैं।

2. एरियन लिखता हैंपैदल सिपाही लोग अपनी ऊँचाई के बराबर धनुष धारण करते हैं। इसको वे भूमि पर टेककर और अपने बाएँ पैर से उसको दबाकर कमान की डोरी को पीछे की ओर खींचकर तीर छोड़ते हैं। उनका तीर तीन गज से कुछ ही कम लंबा होता हैं और ढाल, कवच वा उससे भी बढ़कर रक्षा की कोई चीज नहीं हैं जो हिंदू मनुष्य (चलानेवाले) के निशाने से बचा सके।

हे दयामय! द्रवहु अब तो कहत नाथ पुकारि।
वेगि भारत को उबारो दुसह दुख सब टारि।।

भारत

प्रियवर! सब मेरे कर्म्म ही के उभारे।
हठ करि दुख आवे सामने जो हमारे।।
यदपि नहिं विदेशी आहि की फूँक लागी।
छय हित छितरानी द्वेष की चंद्र आगी।।
श्रमण मठ जराये शान्त वासी समेत।
भवन बहु ढहाये क्रोध में है अचेत।।
बहु दिन नहिं बीते सामने सोइ आयो।
गरजि गजनवी ने गर्व सारो गिरायो।।
अरि दल चढ़ि आयो साथ लै एक गोरी।
मम सुत विलगाने प्रीति की डोर तोरी।।

विधि बस मतवारे वैर की रीति ठानी।
कहि कहि हम हारे सीख ना नेकु मानी।।
पर अब सब छोड़ो पूर्व की ये कहानी।
नहिं कछु सरि जैहैं गीत गाये पुरानी।।
अब कहहु कहाँ ते आवते डारि फेरी।
कहहु कछु नई जो बात संसार केरी।।

वसन्त प्रवीर जापान प्रचण्ड रूस हीं।
परास्त कीनो तुमने सुन्यो नहीं।।

भारत अरे! अरे!! का कहिगे विचार लो।

वसन्त कही हमारी सब सत्य धार लो।।

भारत (लंबी साँस लेकर)
''कोउ नृप होइ हमें का हानी,
चेरि छोड़ि नहिं होउब रानी।''
(प्रवेश भारत महिषी का)
वसन्त (सामने देखकर)
माता! प्रणाम तुव पायन में हमारो।

भा. म. बाढ़ै प्रताप नित भूतल में तुम्हारो।।
(भीतर से 'वन्देमातरम्' की ध्वनि)
वसन्त (गद्द होकर)
हे मातु! देइ यह आजु कहा सुनाई?
(फिर सहसा चौंककर)
हाँ; हाँ! भली सुध हमें यहि काल आई!
(भारत महिषी के प्रति)
पूरब दिशि अति दूर सिन्धु के नील अंक मधि।
हहरत विपुल तरंग जहाँ चारहु दिशि निरवधि।।

बाली, लम्बक लसैं द्वीप द्वय जब ते न्यारे।
बसैं तहाँ कछु पूर्व सुवन सन्तान तुम्हारे।।

कह्यो अनेक प्रणाम मातु! उन तुव चरनन में।
अरु बोले कहि दियो जाइ ''हम सुखी भुवन में।।

बीस कोटि सम हमहुँ नेह के हैं अधिकारी।
कबहुँ कबहुँ तो चहिये लेनी खोज हमारी।।


झेली अनेकन कष्ट आजु लौं धर्म्म बचायो।
सुख सो शासन करत 'शशक' गन पै मन भायो।।



1. बाली और लम्बक द्वीप जावा से पूर्व पड़ते हैं। इन दोनों द्वीपों में अब तक हिंदू राज्य वर्तमान हैं। यहाँ के हिंदू लोग सब शैव हैं और चार वरर्णों में विभक्त हैं जिनके नाम उनकी भाषा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेशव और शूद्र हैं। चतुर्वर्ण को ये लोग चतुर्जन्म' कहते हैं। इन द्वीपों में शालिवाहन का शाका प्रचलित हैं। शैव लोगों में कई ग्रंथ भी प्रचलित हैं जिनमें मुख्य ये हैं'अगम', 'आदिगम', 'सारसमुच्चयागम', 'देवागम', मैश्वरलत्व', 'श्रीकान्तरामम' और 'गम्यागमन' इत्यादि। बहुत से ग्रंथ लुप्त हो गए हैं जिनके विषय में ये लोग भ्रमणकारियों से पूछा करते हैं कि वे भारतवर्ष में मिलते हैं या नहीं। बाली द्वीप के हिंदू लोग पहिले जावा में वास करते थे। वहाँ से मुसलमानों से बचने के लिए 'बहुबाहु' नामक राजा के साथ ये लोग और पूरब बाली द्वीप में चले गये। कहते हैं कि कलिंग देश के शैव लोगों ने द्विजावा में राज्य स्थापित किया था। बाली और लम्बक के आदिम निवासियों का नाम 'शशक' हैं। ये 'शशक' लोग मुसलमान हो गए हैं और बाली के हिंदू राजा की प्रजा हैं।

रहि सब बिधि स्वाधीन आर्य्य गौरव हम ढोवत।
कछुक सहारो हेतु, मातु! हम तुम दिसि जोवत।।

अश्वमेध हय सरिस मिशनरी दूत आई यहँ।
कबहुँ श्वेतपग धारि जायँ परावन करि भू कहँ।।

पै कबहूँ नहिं भूलि भारती बन्धु एक जन।
धारयो पग यहि भूमि निरखते हम भरि नैनन।।

प्रेम सहित भरि अंक, लावते निज घर, कर गहि।
दृढ़ करते निज धर्म्म तासु उपदेश ललित लहि।।

और भाव ते हमहुँ पुलकि तेहि ओर देखकर।
अहैं हमारे और बन्धु कछु बसत धरनि पर।।

भारतमहिषी
गाथा मेरी सुना के, बहु विधि कहियो जाई असीस मेरी!
बाढ़ै पूरी कला ते, जगमहँ जस ले प्रीति छावैं घनेरी।।

काहू हैं योग नाहीं, यद्यपि हम तऊ, सीख हैं देति याही।
धारे रहैं सदा ही, धरम प्रिय वही, छोड़ि हैं नाहिं ताही।।

सुतगन की मेरे कौन बात।
जैसे हैं वे तुम देखि जात।।
करि सकैं और का भुवन माँहिं।
आगम को जिनको चेत नाहिं।।

आलस की जिनकी परी बानि।
नहिं देखि सकैं निज लाभ हानि।।
तिल, नील, लाख, सन अरु कपास।
हम देत इन्हैं यह धरि आस।।
कछु कला सहित निज कर डुलाय।
करि हैं निज जीवन को उपाय।।
पर हाय विदेशिन हाथ जाय।
धरि आवत हैं ये सब उठाय।।
पुनि ताकत हैं बनि बनि चकोर।
परिधान आदि हित तासु ओर।।
आवत जब बनि बनि विविध ढंग।
की वस्तु अनोखी रंग बिरंग।।
हैं देखि देखि ये होत दंग।
धावत मुँह के बल भरि उमंग।।
सीटी सुनि जय जयकार बोलि।
घर में जो पावैं धन टटोलि।
चौकिन पर यूरोप-देव केर।
तैरत जो जल में चहूँ फेर।।
फेंकत दूरहि सों कर बढ़ाये।
लौटत प्रसाद नव पाय पाय।।
झलकाइ अंग पट पर महीन।
बनि के तब निकलत कोउ 'अमीन'।।
सिर के ऊपर कोइ है निहाल।
टाँगत नवीन शीशे विशाल।।
हैं पास सैकड़ों बन्धु प्रान।
त्यागत बिनु भोजन, नाहिं ध्यान।।
जिनके भाई बहु एक बेर।
भोजन करि बितवत दिवस फेर।।
उनको जग के बिच नहिं बुझाय।
ऊँचो सिर कैसे होत, हाय!
इनको यह ढीले ढंग देखि।
हरखत परदेसी जन विमेखि।।
जब करैं दु:ख से ये पुकार।
कोउ सुनत न ज्यों रोवत सियार।
समुझाइ थकीं हम बार बार।।
नहिं सँभलत हैं ये अति गँवार।।
(नेपथ्य में)
सहि चुके जननी! बहु यातना,
वचन ना कबहूँ अब टारि हैं।
प्रण करैं 'पर आस किये बिना,
अवसि आपुहि आप उबारि हैं।।
('वंदेमातरम् की भीषण ध्वनि)
(पटाक्षेप)





रूपमय हृदय


(1)
बहु नीहार-कल्पनाएँ बन,
रखता हैं वह सर्व सनातन।

रूप हृदयमय, हृदय रूपमय का अनंत अंबुधि उमड़ा हैं;
कहीं किसी चढ़ती तरंग पर शीर्षबिंदु बन उछल पड़ा हैं।

कह कर '''क्या ही अकल कला हैं!''
प्रलय-निलय की ओर चला हैं।
(2)
विविध रूप-संगीत-नीत स्वर।
भीतर हृदय हमारे होकर।

भाव-सूत्रा शुभ खोल बाँटते हैं हमको दहने औ बाएँ।
'बँटते-बँटते चुक जाएँ हम, ये लेनेवाले रह जाएँ'।

गरज गरज कर बरस गया घन।
उमड़ चला जग में नवजीवन।
(3)
नवदल-गुंफित पुष्पहास यह!
शशिरेखा-सुस्मित-विभास यह!

नभ चुंबित नग-निविड़-नीलिमा उठी अवनि-उर की उमंग सी।
कलित-विरल-घनपटल-दिगंचल-प्रभा पुलकमय राग-रंग सी।

पांडुर धूम्र पुंज बहु खंडित;
कोर हिरण्य-मेखला-मंडित।
(4)
तिग्म ताप तिलमिली तिरोहित,
शीतलता संचरित समाहित,

दृग रंजन अंजन-घन-छाया हरे हरे लहलहे हर्ष पर।
निशा-नयन मीलित अरूपता असित असत छन हेतु छिन्नकर।

वज्र रेख-द्युति द्रुत उन्मीलन,
अक्षर रूपकला अनुशीलन।
(5)
चमक दमक कुछ नहीं जहाँ पर,
भोग-विभूति नहीं विस्मयकर,

रूप वहाँ के भी अंतस् में कोई प्रिय प्रसंग कहते हैं;
साहचर्य-स्रुत-स्निग्ध श्लेष रस सिक्त सदा लिपटे रहते हैं।

चमत्कार की चाह वाह पर,
नहीं चारुता उनकी निर्भर।
(6)
जीर्ण शीर्ण दीवार खड़ी हैं,
जिसमें कहीं दरार पड़ी हैं;

सटे नींव से धरे पीत पुट हैं घमोय के झाड़ कँटीले।
ठूँठी नीम तले कुछ बैठे धूल-धूसरे बाल हठीले।।

ये भी स्मृति-मधु में हैं गिरते,
लगी हुई आँखों में फिरते।

(7)
रूपों से तो परे हमारा,
हृदय नहीं हैं कभी पधारा,

और पधारेगा न कभी वह, जो चाहे सो पैर उभारे,
ज्ञान जाय, अज्ञान जाय, मतवाद जाय, बकवाद सिधारे।

अखिल व्यंजना को इस सुंदर।
छोडे क़ौन लक्षण कहकर?
(8)
ये ही रूप खेल कर मन में,
देशकाल के धुँधलेपन में,

नंदनवन बनकर ललचाते, अमर धाम की आहट लाते,
शोभा-शक्ति शीलमय प्रभु की लोकरंजनी कला दिखाते,

धन्य! धन्य! जगमंगल झाँकी
यह नारायणमय नरता की।
(9)
भव्य भावना-भवन हमारे,
रचित इन्हीं रूपों से सारे।

इनकी ही अनुभूति-भूति से विश्व मूर्ति मय योग जगेगा।
किंतु न किसी अरूप लोक से हृदय हमारा कभी लगेगा।

रसमय-रूप-रूपमय-रस धर
चलित चराचर चक्र निरंतर।
(10)
अत्याचार वेदना भारी
बढ़ती हैं तो बढे हमारी
मर लेंगे फिर कभी, अभी तो ऐसी कुछ हड़बड़ी नहीं हैं।
बढ़ती हैं वह धर्म शक्ति के दर्शन को जो यहीं कहीं हैं।

अमित पाप-संताप सने हैं
उत्कंठा में इसी बने हैं।
(11)
सिर पर के झोंकों से सारे,
छत्रा पत्रा छिन जाँये हमारे,

इस उत्कंठा में ही ठूँठी ठटरी तक हम खडे रहेंगे।
फूले फले हरे निज बीती प्रिय समीर से कभी कहेंगे।

आशा सुख की भाषा सुंदर
हास विलास रूप कुसुमाकर।
(12)
सचमुच ही यदि प्रेम कहीं हैं,
ज्ञात छोड़ वह कहीं नहीं हैं।

'लगा किसी अज्ञात क्षेत्र में, यह कहकर क्यों बात छिपाना।
यही ज्ञात 'सत' का प्रकाश हैं, 'चित' का भी हैं यही ठिकाना।।

यही सघन 'आनंद' घटा हैं।
यही अजस्र अदभ्र छटा हैं।
(13)
एक देशगत ध्वंस असत् हैं,
रूप कला विभु सत् शाश्वत हैं

प्रभु के रक्षामय स्वरूप में हैं 'सत' का संकेत सुभासित।
रुचिर लोकरंजन सुषमा में हैं 'आनंद' मोद अधिवासित।


काव्य-कलाधर 'सदानंद' मय
वाल्मीकि तुलसी जय जय जय।
(14)
सम्मुख सर्जन रक्षण, रंजन।
विमुख विलोपन, भक्षण, भंजन।

लोकनीति-बाधा-छाया में उभयमुखी यह कला छूटकर।
रोष-अमर्ष-समन्वित फूटी होकर कोमल करुण काव्य स्वर

क्रुद्ध प्रेममय उग्र अनुग्रह
दया दर्पमय द्रवण भयावह।





वसन्त पथिक


देखो पहाड़ी से उतरता पथिक हैं जो इस घड़ी,
हैं अरुण पथ पर दूर तक जिसकी बड़ी छाया पड़ी।
छिपकर निकलता टहनियों के बीच से झुकता कभी,
और फिर उलझकर झाड़ियों में घूमकर रुकता कभी।
आकर हुआ नीचे खड़ा, अब सामने उसके चली,
फैली हुई कुछ दूर तक वन की घनी रम्य स्थली।

कचनार कलियों से लदे फूले समाते हैं नहीं,
नंगे पलासों पर पड़ी हैं राग की छीटें कहीं।
ऊँची कँटीली झाड़ियाँ भी पत्तियों से, हैं मढ़ी,
हल्की हरी, अब तक न जिन पर श्यामता कुछ भी चढ़ी।
सुन्दर दलों के बीच में काँटे छिपे हैं, थामना!
जैसे भलों के संग में खोटे जनों की कामना।
पौधे जिन्हें पशु नोचकर सब ओर ठूठे कर गए,
वे भी सँभलकर फेंकते हैं फिर हरे कल्ले नए।

वे पेड़ जिनपर बैठते कौवे लजाते थे कभी,
कैसे चहकते आज हैं उन पर जमे पक्षी सभी!
कटते हुए अब खेत भूरे सामने आने लगे,
जिनमें गिरे कुछ भाग से ही भाग चिड़ियों के जगे।
सूहे वसन्ती रक्ष् के चल आ सी मृदुगामिनी,
हैं डोलती उस भूमि की भूरी प्रभा में भामिनी।

लिपटे हुए द्रुम जाल में वह झाँकते हैं झोपडे,
जो अन्न के शुभ सत्रा-से सब प्राणियों के हित खडे।
जो शान्ति औ सन्तोष के सुख से सदा रहते भरे,
मिलता जहाँ विश्राम हैं दिन के परिश्रम के परे।
आकर समीर प्रभात ही वन खेत से सौरभ लिए,
हैं खेलता प्रति द्वार पर हिम बिन्दु को चद्बचल किए।

भोली लजीली नारियों से नित्य ही आकर जहाँ
हैं पूछ जाता आड़ में छिपकर पपीहा ''पी कहाँ?''
छेड़ा पथिक को एक ने हँसकर ''उधर जाते कहाँ?
वह राह टेढ़ी हैं।'' कहाँ उसने ''नहीं चिन्ता यहाँ।''

कब घेर सकती हैं उसे चिन्ता भला निज छेम की,
जिसके हृदय में जग रही हैं ज्योति पावन प्रेम की?
छायी गगन पर धूल हैं निखरी निरी निर्मल मही,
मानो प्रकृति के अंग पर मंजुल मृदुलता ढल रही।

देखो जहाँ अमराइयाँ हैं मौरकर उमड़ी हुई,
कंचनमयी पीली-प्रभा सौरभ लिये पड़ती चुई।
यह आम की मृदु मंजरी अब मन्द मारुत से हिली;
कूकीं कई मिल कोयलें, टूटी पथिक-ध्यानावली।
तब देख चारों ओर अपने निज हृदय की टोह ली,
पाई नहीं आमोद के संचार को उसमें गली।

चलता रहा चुपचाप; चट फिर बात यह उसने कही
''अधिक हैं रहे सन्तुष्ट हो सुषमा निरख जो आप ही।
सुनता रहे ध्वनि मधुर पर मन में न अपने यह गुने,
हा! पास में कोई नहीं हैं और जो देखे सुने।
वे धन्य हैं पर-ध्यान में जो लीन ऐसे हो रहे,
जो दो हृदय के योग में कुछ भूल अपने को रहे।
बाँटे किसी सुख को सदा जो ताक में रहते इसी,
जिनके वदन पर हास हैं प्रतिबिम्ब मानस का किसी।''

कोमल मधुर स्वर में किसी ने पूछा वहीं कुछ झोंक से,
'बातें' कहाँ की कर गये? आते कहो किस लोक से?''
देखा पथिक ने चौंककर, पाया किसी को पर नहीं,
अचरज दबे पड़ने लगे पग मन्द मारग में वहीं।
बोला उझककर ''पवन तूने कहाँ से ये स्वर छुए,
अथवा हृदय से गँजकर ये आप ही बाहर हुए।''
इस बीच नीचे कुंज से फुर से उड़ी चिड़ियाँ कई,
सँग में लगी कुछ दूर उनके दृष्टि भी उसकी गई।

देखा पथिक ने दूर कुछ टीले सरोवर के बडे,
हैं पेड़ चारों ओर जिन पर आम जामुन के खडे।
हिलकर बुलाते प्रेम से प्रति दिन हरे पत्तो जहाँ,
''आओ पथिक, विश्राम लो छिन छाँह में बसकर यहाँ।''
हैं एक कोने पर झलकता श्वेत मन्दिर भी वही,
हारे पथिक की दृष्टि हैं उस ओर ही अब लग रही।

बढ़ने लगा उस ओर अब; आई वही ध्वनि फिर,''रहो!
लेने चले विश्राम का सुख तुम अकेले क्यों कहो?''

यद्यपि घने सन्देह में थे भाव सब उसके अड़े,
मुँह से अचानक शब्द ये उसके निकल ही तो पडे।
''बस में नहीं यह सुख उठाकर हम किसी के कर धरें,
पथ के कठिन श्रम से न कुछ जब तक उसे पीड़ितकरें।''

विस्मय-भरे मन से छलकती कल्पना छन छन नयी,
'छाया यहाँ छलती मुझे, यह भूमि हैं मायामयी'।

यह सोचते ही सामने आया रुचिर मन्दिर वही,
जिसके शिखर पर डाल पीपल की पसरकर झुक रही।

प्रतिमा पुनीत विराजती भीतर भवानीनाथ की,
आसन अचल पर हैं टिकी बाहर सवारी साथ की।

करके प्रणाम, विनीत स्वर से पथिक यह कहकर टला,
''क्या जान सकते हैं प्रभो, माया तुम्हारी हम भला?''

देखा सरोवर तीर निर्मल नीर मन्द हिलोर हैं;
जिसमें पडी वट विटप-छाया काँपती इक ओर हैं।
अति मन्द गति से ढुर रही हैं पाँति बगलों की कहीं,
बैठी कहीं दो चार चिड़ियाँ पंख को खुजला रहीं।

झुककर दु्रमों की डालियाँ जल के निकट तक छा रहीं,
जिनसे लिपट अनुराग से फूली लता लहरा रहीं।

सौरभ-सनी, जलकण मिली मृदु वायु चलती हो जहाँ,
होवे न क्यों फिर पथिक की काया शिथिल शीतल वहाँ?
उतरा पथिक जल के निकट, फिर हाथ मुँह धोकर वहीं,
बैठा घने निज ध्यान में, तन हैं कहीं और मन कहीं।

हिलकर सलिल अब थिर हुआ, उसमें दिखायी यह पड़ी,
किस मोहिनी प्रिय मूर्ति की छायामयी आकृति खड़ी।
ताका उलटकर ज्यों पथिक ने खिलखिलाकर हँस पड़ा,
चंचल नवेली कामिनी जो पास थी पीछे खड़ा।

आभा अधर पर मन्द सी मुसकान की अब रह गई,
पलकें ढली पड़ती, मधुरता ढालती मुख पर नई।

पीले वसन पर लहरती अलकें कपोलों से छुई,
उस कुसुम कोमल अंग से छवि छूटकर पड़ती चुई।

जाने नहीं किस धार में सुध बुध पथिक की बह गई,
बीते अचल दृग से उसे तो ताकते ही छन कई।

कहता हुआ यह उठा पड़ा फिर,''हे प्रिये मम तुम कहाँ।''
हँसकर मृदुल स्वर से बढ़ी कहती हुई ''हो तुम जहाँ।''
उमडे हुए अनुराग में आतुर मिले दोनों वहीं,
फूले हुए मन अंग में उनके समाते हैं नहीं।
बैठे वहीं मिलकर परस्पर, कामिनी ने तब कहा
हमको यहाँ पर देखकर होगा तुम्हें अचरज महा,
चलकर यहाँ से दूर पर कुछ एक सुन्दर ग्राम हैं,
जिसमें हमारी पूज्यतम मातामही का धाम हैं।

ठहरी हुई हैं आजकल हम साथ जननी के वहाँ,
हम नित्य दर्शन हेतु शिव के नियम से आतीं यहाँ।
यह तो बताओ थे कहाँ, यह रीति सीखी हैं भली,
जब से गये घर से, नहीं तब से हमारी खोज ली।
हमने यही समझा, जगत की अन्त करके सब कला,
होकर बडे बूढे फ़िरोगे; क्या किया तुमने भला।''
छोड़ो इन्हें ये प्रेम से जी खोलकर बोलें मिलें,
पाठक, यहाँ क्या काम अब हम आप अपनी राह लें।।

('कविता मंजरी' ग्रंथ से)


रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 8

  भाग - 1 //  भाग -2 // भाग -3 // भाग - 4 //  भाग - 5 //  भाग -6 //  भाग - 7 // भाग - 8 //  भाग - 9 //  भाग - 10 // भाग -11 //  भाग - 12 //


 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.