रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
8
सृजन के विविध आयाम
कविता
(मधुस्रोत)
प्रकृति-प्रबोध
शक्ति-सिंधु के बीच भुवन को खेनेवाले,
गोचर, गण्य स्वरूप काल को देनेवाले।
विश्व-विभाजक के आगम आभास-मात्रा पर,
रहा कृष्ण अध्र्दांग काल का हट तिल-तिल-भर।
दृश्य भेद हैं लीन जगत के जिसमें सारे,
चेतन-वृत्ति समेट सृष्टि हैं जड़ता धारे।
'हम हैं' यह भी भूल जीव हैं जिसमें जीते,
नहीं जानते, किंतु पवन नाकों से पीते।
जीना कैसा? इसे जिलाया जाना कहिए,
पीना कैसा? इसे पिलाया जाना कहिए।
नहीं जानते जिसे कर्म वह कहाँ हमारा?
जहाँ न 'हम' हैं अलग, मूल हैं वहाँ हमारा?
कर्म जिसे करते न जानते, हैं वह सोना,
होकर भी हम नहीं जानते जिसमें होना।
कोई देख विराट रूप अपना घबराता,
गिरि, वन, सरि, पशु आदि सभी अपने में पाता।
सपना हैं क्या अपना रहना अपने भीतर,
चलना पैर पसार, देखना आँख मूँदकर?
समतल से सब सरक कालिमा सिमटी जाकर,
ऊँचों के पड़ पैर-तले, नींवों के भीतर।
वर्ण-भेद की लीकष् लोक लोचन ने डाली,
नीले नभ के आंचल की वह लटकी लाली।
जिससे लगी लहरती हैं वह जो हरियाली,
चित पर चढ़ती देख उसे चहकी चटकाली।
ज्ञान-द्वार खुल पडे, ग़ए जब वे खटकाएँ,
लक्षण थे जो लुप्त, गए अब वे सब पाए।
सारी पशुता, नरता, खगता आदि अधूरी,
जो अब तक थीं पड़ी, कला से निकलीं पूरी।
चलना, उड़ना और रेंगना दिया दिखाई,
हँसना, रोना और रँभाना पड़ा सुनाई।
इतना-उतना, ऐसा-वैसा व्यक्त हुए अब,
खुले भेद, तम भेद भुवन में ज्योति जगी जब।
कौआं ने चट छेड़ दिया यह पाठ पढ़ाना,
'भला बने या बुरा बने, बकते ही जाना।
कुकवि, कुतर्की नित्य कान इनसे फुँकवाते,
तब अपना मुँह खोल दूसरों का सिर खाते।
मानव-मानस-मुकुर महा खुल पड़ा मही पर,
सदा अमलता में जिसकी हैं पड़ती आकर।
परम भावमय के भावों की अंशच्छाया,
उतनी, जितनी में जीवन का जाल बिछाया।
देखा यह जो जगे भूत का जगना सोना,
ऐसा ही हैं घोर भूत-निद्रा का खोना।
यदि जागृति हैं सत्य, स्वप्न हैं उसकी छाया,
इन दोनों का साथ सदा से रहता आया।
यह दो-रंगी छटा नित्य शाश्वत अभंग हैं,
सोना, जगना, दोनों जिसमें संग-संग हैं।
उस छाया के बीच-बीच जो ज्योति फूटती,
अलग-अलग-सी लगती हैं वह नींद टूटती।
तृण, कृमि, पशु, नर आदि इसी जागृति के क्रम हैं,
जगने में कुछ बढे हुए, कुछ उनसे कम हैं।
जगने के इस जटिल यत्न में बीज फूटता,
उठने के कुछ पहले उसका अंग टूटता।
खोल खेत में आँख बीज एखुवा कहलाता,
मिट्टी मुँह में डाल, फूल तन में न समाता।
चलते फिरते अंगों में फिर लगता जाकर,
गड़ा जहाँ-का-तहाँ नहीं तब रहता भू पर।
गति-प्रसार हित चार पैर हैं कहीं हिलाता,
भू से कर्म-समर्थ करों को कहीं उठाता।
देखो! अब खेत और बस्ती, वन, बारी,
बहती हैं धवल धार मंद मंद प्यारी।
भटक रहे घूम-घूम नाले जो आए,
तीर की तरंगवती भूमि के भुलाए।
रस कर रस कलकल मृदु तान वह लड़ी हैं,
रेत चूर उसी राग-रंग में पड़ी हैं।
पुलकित हो उठे उधर टीले कँकरीले,
ढाल पर बबूल और झाड़ ले कँटीले।
शस्यावलि रस-रव पर नृत्य कर रही हैं,
जीवन-घट जिन जिनके हेतु भर रही हैं।
देते हैं सिर पर, कुछ मेंड़ पर दिखाई,
फड़क उठे पंख, जहाँ चरणचाप पाई।
चलने को और चले हाथ पैर नाना,
उड़ने को और ठना उड़ना, मँडराना।
झगड़ा सब इसी 'और' के लिए खड़ा हैं,
चोंच चली ईधर उधर से 'हड़ा-हड़ा' हैं।
('माधुरी', अप्रैल, 1924)
आमंत्रण
(1)
दृग के प्रति रूप सरोज हमारे,
उन्हें जग ज्योति जगाती जहाँ,
जब बीच कलंब-करंबित कूल से,
दूर छटा छहराती जहाँ।
घन अंजन-वर्ण खड़े, तृण जाल को
झाईं पड़ी दरसाती जहाँ,
बिखरे बक के निखरे सित पंख,
विलोक बकी बिक जाती जहाँ ।।
(2)
द्रुम-अंकित, दूब भरी, जलखंड,
जड़ी धरती छबि छाती जहाँ,
हर हीरक-हेम मरक्त-प्रभा ढल,
चंद्रकला हैं चढ़ाती जहाँ।
हँसती मृदुमूर्ति कलाधर की,
कुमुदों के कलाप खिलाती जहाँ,
घन-चित्रित अंबर अंक धरे,
सुषमा सरसी सरसाती जहाँ ।।
(3)
निधि खोल किसानों के धूल-सने,
श्रम का फल भूमि बिछाती जहाँ,
चुन के, कुछ चोंच चला करके,
चिड़िया निज भाग बँटाती जहाँ।
कगरों पर काँस की फैली हुई,
धवली अवली लहराती जहाँ,
मिल गोपों की टोली कछार के बीच,
हैं गाती औ गाय चराती जहाँ ।।
(4)
जननी-धरणी निज अंक लिए,
बहु कीट, पतंग खेलाती जहाँ,
ममता से भरी हरी बाँह की छाँह,
पसार के नीड़ बसाती जहाँ।
मृदु वाणी, मनोहर वर्ण अनेक,
लगाकर पंख उड़ाती जहाँ,
उजली-कँकरीली तटी में धँसी,
तनु धार लटी बल खाती जहाँ ।।
(5)
दल-राशि उठी खरे आतप में,
हिल चंचल चौंध मचाती जहाँ,
उस एक हरे रँग में हलकी,
गहरी लहरी पड़ जाती जहाँ।
कल कर्बुरता नभ की प्रतिबिंबित,
खंजन में मन भाती जहाँ,
कविता, वह! हाथ उठाए हुए,
चलिए कविवृंद! बुलाती वहाँ ।।
(माधुरी, अक्टूबर, 1925)
हर्षोद्गार1
(1)
धन्य! यह कमनीय कोशल भूमि परम ललाम,
'गुरु प्रसाद' विभूति लहि जहँ लखत जन 'श्रीराम'।
विमल मानस तें अभंग तरंग सरयू लाय,
विमल मानस बीच तुंग तरंग देति उठाय ।।
(2)
बाल दिनकर, जासु सैकत-राशि पै कर फेरि,
रामपद-नख-ज्योति निर्मल नित्य काढ़त हेरि।
जासु पुलिन पुनीत पै करि शंखनाद-प्रचार,
होति हैं भू-भार-हर की सदा जय-जयकार ।।
(3)
दलित जीवन के हमारे क्षीण सुर में लीन,
धर्म के जयनाद की यह गूँज अति प्राचीन।
नाहि हारन देति हिय में करति बल संचार,
देति आस बँधाय, टरि हैं अनय-अत्याचार ।।
(4)
मर्म-स्वर सब भूत को लै, करुण प्रेम जगाय,
आदि कवि, कल कंठ तें प्रगटी गिरा जहँ आय।
बैठि तुलसी जहाँ 'मानस' द्वार खोलि अनूप,
दियो सबहिं दिखाय हरि को लोक-रंजन रूप ।।
1. गत 20 सितम्बर को फैजाबाद के कवि-सम्मेलन में, सभापति के रूप में, पठित।
(5)
सकल सुषमा प्रकृति की लै, रुचिर भाव मिलाय,
गए श्री द्विजदेव जहँ पीयूष रस बरसाय।
निरखि वाही ठौर पै यह विज्ञ सुकवि-समाज,
होत पुलकित गात, हृदय प्रमोद-पूरित आज ।।
('माधुरी', नवंबर, 1925)
गोस्वामीजी और हिन्दू जाति
बल-वैभव-विक्रम-विहीन यह जाति हुई जब सारी,
जीवनरुचि घट चली; हट चली जग से दृष्टि हमारी।
प्रभु की ओर देखने जब हम लगे हृदय में हारे,
नए पंथ कुछ चले चिढ़ाने 'वह तो जग से न्यारे'।
उस नैराश्यगिरा से आहत मन गिर गया हमारा,
अंधकारमय लगा जगत यह, रहा न कहीं सहारा।
अटपट बानी ने जीवन की खटखट से खटकाया,
लोकधर्म के रुचिर रूप पर चटचट पट फैलाया।
जिसके तानों में फँसकर मति गति थक चली हमारी,
मर्यादा मिट चली लोक की, गई वृत्ति वह मारी।
होता अभ्युदय जाति का फिर फिर जिसके द्वारा,
हरती हैं जो सकल हीनता, भरती हैं सुख सारा।
जाय वीरता, मान न उसका यदि मानस से जावे;
जाय शक्ति पर भक्ति शक्ति की यदि जनमन न भगावे;
पर न भारती-पाद-पद्म तज पूज्य बुध्दि यदि भागे;
कितनी ही पर ताप तप्त तनु पिसकर पीड़ा पावै।
पर यदि दुष्टदमन पर श्रद्धा मन में कुछ रह जावै;
लोकरक्षिणी शक्ति उदय तो अपना आप करेगी,
विद्या, बल, वैभव वितरित कर सब संताप हरेगी।
पर जनता के मन से ये शुभ भाव भगाने वाले,
दिन दिन नए निकलते आते थे मत के मतवाले।
इतने में सुन पड़ी अतुल सी तुलसी की बर वानी,
जिसने भगवत्कला लोक के भीतर की पहचानी।
शोभा-शक्ति शील-मय प्रभु का रूप मनोहर प्यारा,
दिखा लोकजीवन के भीतर जिसने दिया सहारा।
शक्तिबीज शुभ भव्य भक्ति वह पाकर मंगलकारी,
मिटी खिन्नता, जीने की रुचि फिर कुछ जगी हमारी।
जिस दंडकवन में प्रभु की कोदंड-चंड-ध्वनि भारी,
सुनकर कभी हुए थे कंपित निशिचर अत्याचारी।
वहीं शक्ति वह झलक उठी झंकार सहित भयहारी,
दहल उठा अन्याय, उठी फिर मरती जाति हमारी।
प्रभु की लोकरंजिनी छवि पर जब तक भक्ति रहेगी,
तब तक गिर गिरकर उठने की हम में शक्ति रहेगी।
रंजन करना साधुजनों का, दुष्टों को दहलाना,
दोनों रूप लोकरक्षा के हैं, यह भूल न जाना।
उभय रूप में देते हैं जिसमें भगवान् दिखाई,
वह प्राचीन भक्ति तुलसी से फिर से हमने पाई।
यही भक्ति हैं जगत् बीच जीना बतलानेवाली,
किसी जाति के जीवन की जो करती हैं रखवाली।
खींच वीरता, विद्या, बल पर से जो भक्ति हमारी,
अपनी ओर फेर करते हों लोकधर्म से न्यारी।
हमें चाहिए उनसे अपना पीछा आप छुड़ावें,
तुलसी का कर ध्यान न उनकी बातों में हम आवें।
(माधुरी, अगस्त, 1927)
हृदय का मधुर भार
हृदय, क्यों लाद लिया यह भार,
किसी देश की किसी काल की छाया का भंडार,
कहाँ लिए जाता हैं, मुझको यह जीवन-विस्तार।
उठते पैर नहीं हैं मेरे, झुक-झुक बारंबार,
झाँका करता हूँ मैं, तेरे भीतर दृष्टि पसार।
अंकित जहाँ मधुरता के हैं, वे अतीत आकार,
जिनके बीच प्रथम उमड़ी थी, जीवन की यह धार,
लगी रहेगी ताक-झाँक यह सब दिन इसी प्रकार।
लिपटा था मधुलेप कहाँ का ऐसा अमित अपार,
उन रूपों में चिपका, जिनकी छाया तक का तार।
संचित हैं, जिन रूपों की यह छाया जीवन-सार,
उनके कुछ अवशेष मिलेंगे बाहर फिर दो-चार।
आशा पर बस, इसी तरह चलता हूँ, हे संसार,
तेरे इन रूख रूपों के कड़वेपन की झार।
झलक (1)
नगर से दूर कुछ गाँव की-सी बस्ती एक,
हरे-भरे खेतों के समीप अति अभिराम,
जहाँ पत्राजाल अंतराल से झलकते हैं,
लाल खपरैल, श्वेत छज्जों के सँवारे धाम।
बीचो बीच वट-वृक्ष खड़ा हैं विशाल एक,
झूलते हैं बाल कभी जिसकी जटाएँ थाम,
चढ़ी मंजु मालती-लता हैं जहाँ छाई इुई,
पत्थर की पट्टियों की चौकियाँ पड़ी हैं श्याम।
बैठते हैं नित्य यहाँ धर्म के धुरीण एक,
क्षत्रिय कुलीन वृद्ध 'भद्र'1 भीष्म के समान,
नाना इतिहास और पुराण के प्रसंग यहाँ,
छिडे हुए रहते हैं करते पवित्रा कान।
नीम-तले पास ही पुरोहित का द्वार वह,
रहती हैं जहाँ शिष्य-मंडली विराजमान;
पढे-लिखे लोगों का निवास ही विशेष यहाँ,
घर हैं दो-चार गोप, नापित भी गुणवान।
पंडित 'श्रीविंध्यजी' की मधुर, सरस वाणी,
भारत की भारती की ज्योति को जगाती हैं;
वीथियों में स्वच्छ शुभ्र शिष्यों की फिरती हुई,
मंडली पुराना दृश्य सामने फिराती हैं।
परम पुनीत रीति नीति-भरी 'भद्रजी की,
द्वापर की छाया वट-छाया बीच छाती हैं;
यों इस भूखंड की निराली आर्य-माधुरी का,
नूतन करालता न लोप कर पाती हैं।
चहल-पहल सदा रहती हैं, सोहते हैं,
प्रकृति के बाँधे रुचि-रंग में सने समाज;
छाया छिन्न हुई, धूप छिटकी छटा के साथ,
दूबों पर ओप ओस-कण की रही विराज।
जम गई मंडली सयानों की सहास मुख,
जिन्हें हैं नचाता नहीं आज कोई काम-काज;
चल पड़ी चर्चा चटकीली चित-चाह-भरी,
घड़ी कोई अड़ी जान पड़ती नहीं हैं आज।
देखो यह टोली जो कुमारों की निकली अब,
बोली औ ठठोली के निकालती अनेक ढंग;
युगल 'प्रमोद बंधु' और 'वृक' आगे चले,
पीछे मैं 'अरुणजी' को लाता हूँ ढकेले संग।
फिर वे न-जाने किस बात पर लौट पडे,
मुँह को लटकाते झुंझलाते किए भ्रूभंग;
हँस-हँस लोटते हैं उधर 'प्रमोद बंधु',
बीच में मैं रहता हूँ देख यह दृश्य दंग।
जाते हैं पूर्व पथ पकडे हुए 'पुष्कर' का,
पनस-रसाल-जाल-बीच से बिचरते;
दोनों ओर फैली हरियाली हृदयों में,
ढली पड़ती हैं, पैर आगे आप से उभरते ।
नंदन-वन-वीथी का खंड यह साथ लिए,
आते हम मानो स्वर्गधाम से उतरते;
चलते हैं संग में उमंग-भरे साथी सब,
छेड़ किसी खूसट को अट्टहास करते।
छोड़ पथ 'पुष्कर' के कोने पर आए अब,
पीपल की डाल जहाँ दूर तक छाई हैं;
मंडप हैं शिव का पुराना एक नीम वहीं,
घाट भी हैं आगे बँधा देता दिखलाई हैं।
दाहने कदंब और बाएँ हैं अशोक खड़ा,
बीचो बीच टूटी हुई ढालुवाँ जुड़ाई हैं;
नीम, आम लगे हुए टीलों पर तीन ओर,
कोने पर कुटी एक साधु की बनाई हैं।
दक्षिण की ओर उस टीले पर देख पडे,
'हरिकेश'7 हाथ को उठाए औ' पुकारते;
गन्ने कुछ हाथ में वे उनके, सो बाँट लिए,
जोत उन्हें साथ अब आगे हैं सिधारते।
खेतों में घुमाती चली जाती हैं ढुर्री यह,
'शरपत्रा' ओर जहाँ नित्य ही पधारते;
चंदन से चर्चित कलेवर ले 'नंदनजी',
मधुर-मधुर छंद मुख से उचारते।
भूरी, हरी घास आसपास, फूली सरसों दे,
पीली-पीली बिंदियों का चारों ओर हैं पसार;
कुछ दूर विरल, फिर और आगे,
एक रंग मिला चला गया पीत-पारावार।
गाढ़ी हरी श्यामता की तुंग राशि-रेखा घनी,
बाँधती हैं दक्षिण की ओर उसे घेर घार;
जोड़ती हैं जिसे खुले नीले नभमंडल से,
धुधली-सी नीली नगमाला उठी धुँआधार।
लगती हैं चोटियाँ वे अति ही रहस्यमयी,
पास ही में होगा बस यहीं कहीं देवलोक;
बार बार दौड़ती हैं दृष्टि उस धूँधली सी ,
छाया बीच ढूँढ़ने को अमर-विलास-ओक।
ओट में अखाडे वहीं होगें वे पुरंदर के,
अप्सराएँ नाच रही होंगी जहाँ ताली ठोंक;
सुनने को सुंदर संगीत वह मंद-मंद,
बुध्दि की नहीं हैं अभी कहीं कोई रोक-टोक।
अंकित नीलाभरक्त, श्वेत नील सुमनों से,
मटर के फैले हुए घने हरे जाल में;
फलियाँ हैं करतीं संकेत जहाँ मुड़ते हैं;
और अधिकार का न ज्ञान इस काल में।
बैठते हैं प्रीति-भोज हेतु आसपास सब,
पक्षियों के साथ इस भरी हुई थाल में;
हाँक पर एक साथ पंखों ने सराटे भरे,
हम मेड़-पार हुए एक ही उछाल में।
सूखती तलैया के चारो ओर चिपकी हुई,
लाल लाल काइयों की भूमि पार करते;
गहरे पडे ग़ोपद के चिन्ह से अंकित जो,
श्वेत बक जहाँ हरी दूब में बिचरते।
बैठ कुछ काल एक पास के मधूक-तले,
मन में सन्नाटे का निराला सुर भरते;
आए 'शरपत्रा' के किनारे जहाँ रूखे खुले
टीले कँकरीले हैं हिमंत में निखरते।
श्यामल, सघन अमराइयों के बीच जहाँ,
धौले, मटियाले घर देखने में आते हैं;
करते निवास उसी ग्राम में हैं 'नंदनजी',
नारद-सा दिव्य रूप नित्य जो दिखाते हैं।
पच्छिम की ओर उस छोटे-से सरोवर के,
पार जब दृष्टि हम अपनी दौड़ाते हैं;
पड़ता हैं दिखाई धाम पूज्य 'वागीशजी' का,
बात-बात में जो हास्य-रस बरसाते हैं।
दर्शन की लालसा से सीधे मुडे उसी ओर,
गङ्ढों और खाइयों का कुछ भी न ध्यान कर;
टेढे-मेढे मेड़ छोड़ चलते हैं खेतों-बीच,
बोलता हैं कोई, तो न मानते हैं तिल-भर।
बीच से चबूतरे के निकला हैं पीपल जो,
आए वहाँ बैठे मिले साथ दोनों विप्रवर;
ठोकर खा जड़ की ज्यों बोले हम 'पंडितजी!,'
हँसे वे हमारे इस झुकते प्रणाम पर।
('माधुरी', मार्च, 1925)
1. बाबू बलभद्र सिंह रमई पट्टी मिर्जापुर में शुक्लजी के पड़ोसी।
2. पं. विंध्येश्वरी प्रसाद तिवारी रमई पट्टी मिर्जापुर में शुक्लजी के
पड़ोसी। शुक्लजी के व्यक्तित्व निर्माण में इन दोनों व्यक्तियों की
महत्तवपूर्ण भूमिका थी।
3. शुक्लजी के सहपाठी पं. परमानंद और उनके छोटे भाई रामानंद।
4. वृक रामई पट्टी के पड़ोसी गाँव जोगियाबारी के निवासी पं. सत्यनारायण
मिश्र। इन्हें लोग 'विगवा गुरु' भी कहते थे।
5. मुंशी जयजयलाल, इन्हें लोग लालजी भी कहते थे।
6. रमई पट्टी से पूरब कुछ दूर स्थित एक पक्का पोखरा। यह स्थान शुक्लजी को
बहुत प्रिय था। वे अक्सर वहाँ जाया करते थे।
7. हरिकेश्वर मिश्र, शुक्लजी के साथी, पक्के पोखरे की सैर में सदैव उनके
साथ रहने वाले। वे हँसमुख, मजाकी, मिलनसार और ठहाका लगाकर हँसने वाले
व्यक्ति थे।
8. रमई पट्टी के पास सरपतहवा नामक कच्चा तालाब।
9. पं. रघुनंदन प्रसाद, शुक्लजी की भ्रमण मंडली के विशेष सदस्य।
10. पं. वागीश्वरी प्रसाद मिश्र।
11. पं. वागीश्वरी प्रसाद मिश्र और पं. रघुनंदन मिश्र।
झलक (2)
कर से कराल निज काननों को काटकर,
शैलों को सपाट कर, सृष्टि को सँहार ले;
नाना रूप रंग धरे, जीवन उमंग-भरे,
जीव जहाँ तक बने मारते, तू मार ले।
माता धरती की भरी गोद यह सूनी कर,
प्रेत-सा अकेला पाँव अपने पसार ले;
विश्व बीच नर के विकास हेतु नरता ही,
होगी किंतु अल्म न, मानव! विचार ले ।।1
खेत बन बंजर कछार लगते हैं हमें,
माता धरती की खुली गोद के प्रसार से;
देते हैं दिखाई हाथ माय के प्रत्यक्ष जहाँ,
लालते औ पालते सभी को अति प्यार से।
विटप विहंग नर पशु जहाँ एक संग,
मिले-जुले पलते हैं एक परिवार से;
जहाँ विश्व-जीवन की धारा से न छिन्न अभी,
हुआ हैं मनुष्य निज दृष्टि के विकार से ।।2
ए हो बन बंजर कछार हरे-भरे खेत,
विटप विहंग! सुनो अपनी सुनावें हम;
छूटे तुम, तो भी चाह चित्ता से न छुटी यह,
बसने तुम्हारे बीच फिर कभी आवें हम।
सडे चले जा रहे हैं गडे अपने ही बीच,
जो कुछ बचा हैं उसे बचा कहाँ पावें हम;
मूल रस-स्रोत हो हमारे वही, छोड़ तुम्हें,
सूखते हृदय सरसाने कहाँ जावें हम! ।।3
रूपों से तुम्हारे पले होंगे जो हृदय वे ही,
मंगल की योग-विधि पूरी पाल पावेंगे;
जोड़ के चराचर की सुख-सुषमा के साथ,
सुख को हमारे शोभा सृष्टि की बनावेंगे।
वे ही इस महँगे हमारे नर-जीवन का,
कुछ उपयोग इस लोक में दिखावेंगे;
सुमन-विकास, मृदु आनन के हास, खग-
मृग के विलास-बीच भेद को घटावेंगे ।।4
नर में नारायण की कला भासमान कर,
जीवन को वे ही दिव्य-ज्योति सा जगावेंगे;
कूप से निकाल हमें छोड़ रूप-सागर में,
भव की विभूतियों में भाव-सा रमावेंगे।
वैसे तो न-जाने कितने ही कुछ काल कला,
अपनी दिखाते अस्त होते चले जावेंगे;
जीने के उपाय तो बतावेंगे अनेक, पर
जिया किस हेतु जाय वे ही बतलावेंगे ।।5
प्रकृति के शुद्ध रूप देखने को आँखें नहीं,
जिन्हें वे ही भीतरी रहस्य समझाते हैं;
झूठे-झूठे भावों के आरोप से आछन्न उसे,
करके पाखंड-कला अपनी दिखाते हैं।
अपने कलेवर की मैली औ कुचैली वृत्ति,
छोप के निराली छटा उसकी छिपाते हैं;
अश्रु श्वास, ज्वर ज्वाला नीरच रुदन, नृत्य,
देख अपना ही तंत्री-तार वे बजाते हैं ।।6
नर भव-शक्ति की अनंत-रूपता हैं बिछी,
तुझे अंध-कूपता से बाहर बढ़ाने को;
चारों ओर फैले महा-मानस की ओर देख,
गर्त में न गड़ा गड़ा, हंस! कुछ पाने को।
निज क्षुद्र छाया के यों पीछे दौड़ मारने से,
सच्चा भाव विश्व का न एक हाथ आने को;
रूप जो आभास तुझे सत्य-सत्य देंगे, बस,
उन्हीं को समर्थ जान अंतस जगाने को ।।7
ऐसे एक भाव पर झूठे-झूठे सैकड़ों ही,
स्वाँग 'आह ओह' के निछावर हैं नर के;
सारा विश्व जिसका चलाया हुआ चलता हैं,
वह भाव-धारा ढूँढ़ आँखें खोल करके।
आदिम ज्वलंत अनुराग कभी नाचता था,
रूप बाँध-बाँध नई-नई गति भर के;
रूप और भाव की अभिन्नता मिलेगी वह,
सृष्टि के प्रसार में; न मध्य घट-घर के ।।8
जिस सूक्ष्म सूत्र को पसार कर बँधा हुआ,
एक हैं अनेक होता गया वही भाव हैं;
खोज अनुबंध में अनेकता के उसे यदि,
निभृत निसर्ग-गति देखने का चाव हैं।
किंतु खंड दृष्टि से न शृंखला मिलेगी वह,
वहाँ ताक-झाँक से छिपाव ही छिपाव हैं;
संगत संबंध बिना होती नहीं व्यंजना हैं,
शब्द न बिखेर जहाँ उसी का अभाव हैं ।।9
वासना अज्ञान की उपासना बनेगी जहाँ,
और-और भंडता भी साथ लिए आवेगी हैं;
हाथ मटकाती, हाव भाव दिखलाती हुई,
आँख मूँद-मूँद सिर ऊपर उठावेगी।
पलकों को प्याला कह झूमती जँभाती हुई,
हाल से, हलाहल से मातना दिखावेगी;
देश के पड़ोस ही के पोंछे रंग पोत-पोत,
रूप वह अपना नवीन बतलावेगी ।।10
भौतिक उन्माद-ग्रस्त योरप पड़ा हैं जहाँ,
वहीं तेरे चोंचले ये मन बहलावेंगे;
आज अति श्रम से शिथिल जो विराम हेतु,
आकुल हैं उसको ये टोट के सुलावेंगे।
हम अब उठना हैं चाहते जगत्-बीच,
भारत की भारती की शक्ति को जगावेंगे;
दंडक ये दंड के प्रहार से लगेंगे तुझे,
भाग-भाग भंडता! न तुझको टिकावेंगे ।।11
धर्म कर्म व्यवहार, राष्ट्रनीति के प्रचार,
सब में पाषंड देख इतने न हारे हम;
काव्य की पुनीत भूमि बीच भी प्रवेश किंतु,
उसका विलोक रहे कैसे, धीर धारे हम?
सच्चे भाव मन के न कवि भी कहेंगे यदि,
कहाँ फिर जायँगे असत्यता के मारे हम?
खलेगा 'प्रकाशवाद' जिनको हमारा यह,
कहेंगे कुवाद वे जो लेंगे सह सारे हम? ।।12
आज चली मंडली हमारी एक घूमे हुए,
नाले का कछार धरे और ही उमंग में;
धुँधली-सी धूप धूल सने वातमंडल से
ढालती हैं मृदुता की आभा हर रंग में।
अंजित दृगंचल की कोर से किसी की खुल,
रंजित रसा में रसी झूमती तरँग में;
मानो मदभरी ढीली दृष्टि हैं किसी की बिछी,
मन को रमाती रम जाती अंग-अंग में ।।13
धौले कंकरीले कटे विकट कगार जहाँ,
जड़ों की जटा के जाल खचित दिखाते हैं;
निकल वहीं से पेड़ आडे बढे हुए कई,
अधर में लेटे हुए अंग लपकाते हैं।
भूमि की सलिल-सिक्त श्यामता में गुछी हरी,
दूब के पटल पट शीतल बिछाते हैं;
सारी हरियाली छाँट लाल-लाल छीटें बने
छिटक पलाश चित्ता बीच छपे जाते हैं ।।14
बातें भी हमारे साथ उठी चली चलती हैं,
मोद-पूर्ण मानस के मुक्त हैं अनेक द्वार;
चारों ओर छोटे बडे शब्द स्रोत छूट-छूट,
मिलते बढ़ाते चले जाते हैं अखंड धार।
उठती हैं बीच-बीच हास की तरंगें ऊँची,
झोंक में झुलाती टकराती हमें बार-बार;
झाड़ियाँ कटीली कर बैठती हैं छेड़छाड़,
उलझ सुलझ कोई पाता हैं किसी प्रकार ।।15
ढाल धरे ऊपर को ढुर्रियाँ गई हैं कई,
फैले हुए गर्त-जाल बीच से निकलती;
चाव-भरे चढे चले जाते हैं चपल गति,
चित्ता छोड़ अभी कहीं किसी की न चलती।
गंजिका के गुंफित अरुण हास और झाड़,
झापस झपेट छड़ी हाथ से फिसलती;
नीचे पड़ी पैर की धमाक; उड़ी ऊपर को,
पक्षियों की टोली फड़कीले पंख झलती ।।16
शिग्रओं की पीवर गँठीली पेड़ियों से फूटी,
सरस लचीली टूटी डालियाँ कहीं-कहीं;
नील-श्याम-दल-मढे छोर छितराए हुए,
शीर्ण मुरझाए फूल-झौंर हैं झुला रहीं।
कोरे धुंध-धूमले गगन-पट बीच खुले,
सेमलों की शाखा-जाल खचित खडे वहीं;
लसे हैं विशाल लाल संपुट से फूल चोखे,
बसे हैं विहंग अंग जिनके छिपे नहीं ।।17
आए अब ऊपर तो देखते हैं चारों ओर,
रूप के प्रसार चित्ता-रुचि के प्रचार से;
उछल उमड़ और झूम सी रही हैं सृष्टि,
गुंफित हमारे साथ किसी गुप्त तार से।
तोड़ा था न जिसे अभी खींच अपने को दूर,
मोड़ा था न मुँह को पुराने परिवार से;
उत्सव में, विप्लव में, शांति में प्रकृति सदा,
हमें थी बुलाती उसी प्यार की पुकार से ।।18
धुंधले दिगंत में विलीन हरिदाभ रेखा,
किसी दूर देश की-सी झलक दिखाती हैं;
जहाँ स्वर्ग भूतल का अंतर मिटा हैं चिर,
पथिक के पथ की अवधि मिल जाती हैं।
भूत औ भविष्यत् की भव्यता भी सारी छिपी,
दिव्य भावना-सी वहीं भासती भुलाती हैं;
दूरता के गर्भ में जो रूपता भरी हैं वही,
माधुरी ही जीवन की कटुता मिटाती हैं ।।19
निखरी सपाट कोरी चिकनी कठोर भूमि,
सामने हमारे श्वेत झलक दिखाती हैं;
जिसके किनारे एक ओर सूखी पत्तियों की,
पांडु-रक्त मेखला रणित हिल जाती हैं।
आस-पास धूल की उमंग कुछ दूर दौड़,
दूब में दमक हरियाली की दबाती हैं;
कंटकित नीलपत्रा मोड़ती घमोइयों के,
रक्त गर्भ-पीतपुट-दल छितराती हैं ।।20
ग्राम के सीमांत का सुहावना स्वरूप अब,
भासता हैं, भूमि कुछ और रंग लाती हैं;
कहीं-कहीं किंचित् हेमाभ हरे खेतों पर,
रह-रह श्वेत शूक-आभा लहराती हैं।
उमड़ी-सी पीली भूरी हरी द्रुम-पुँज-घटा,
घेरती हैं दृष्टि दूर दौड़ती जो जाती हैं;
उसी में विलीन एक ओर धरती ही मानो,
घरों के स्वरूप में उठी-सी दृष्टि आती हैं ।।21
देखते हैं जिधर उधर ही रसाल पुंज,
मंजु मंजरी से मढे फ़ूले न समाते हैं;
कहीं अरुणाभ, कहीं पीत पुष्पराग-प्रभा,
उमड़ रही हैं; मन मग्न हुए जाते हैं।
कोयल उसी में कहीं छिपी कूक उठी जहाँ,
नीचे बाल बृंद उसी बोल से चिढाते हैं;
छलक रही हैं रस माधुरी छकाती हुई,
सौरभ से पवन झकोरे भरे आते हैं ।।22
देख देवमंदिर पुराना एक बैठे हम,
वाटिका की ओर जहाँ छाया कुछ आती हैं;
काली पड़ी पत्थर की पट्टियाँ पड़ी हैं कई,
घेर जिन्हें घास फेर दिन का दिखाती हैं।
क्यारियाँ पटी हैं, लुप्त पथ में उगे हैं झाड़,
बाड़ की न आड़ कहीं दृष्टि बाँध पाती हैं;
नर ने जो रूप वहाँ भूमि को दिया था कभी,
उसे अब प्रकृति मिटाती चली जाती हैं ।।23
मानव के हाथ से निकाले जो गए थे कभी,
धीरे-धीरे फिर उन्हें लाकर बसाती हैं;
फूलों के पड़ोस में घमोय, बेर और बबूल,
बसे हैं, न रोक-टोक कुछ भी की जाती हैं।
सुख के या रुचि के विरुद्ध एक जीव के ही,
होने से न माता कृपा अपनी हटाती हैं;
देती हैं पवन, जल, धूप सबको समान,
दाख औ बबूल में न भेद-भाव लाती हैं ।।24
मेंड़ पर वासक की छिन्न पंक्ति-मक्खियों की,
भीड़ को बुला के मधु-बिंद हैं पिला रही;
कुंद की धवल हास-माधुरी उसी के पास,
श्वास की सुवास हैं समीर में मिला रही।
कोमल लचक लिए डालियाँ कनेर की जो,
अरुण प्रसून-गुच्छ मोद से खिला रही;
चल चटकीली चटकाली चहकार भरी,
बार-बार बैठ उन्हें हाव से हिला रही ।।25
कोने पर कई कोविदार पास-पास खडे,
वर्तुल विभक्त दलराशि घनी छाई हैं;
बीच-बीच श्वेत अरुणान झलराए फूल,
झाँकते हैं सुन ''ऋतुराज की अवाई हैं''।
पत्तियों की कोट के कटाव पर फूली हुई,
आँखों में हमारी जपा झाँकती ललाई हैं;
भौंरे मदमाते मँड़राते गूँज-गूँज जहाँ,
मधुर सुमन-गीत दे रहा सुनाई हैं ।।26
रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 8
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