रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
8
सृजन के विविध आयाम
जीवनी
(श्री राधाकृष्णदास)
'हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका' का सम्पादन
कहने की आवश्यकता नहीं कि उपर्युक्त पत्र के अन्तिम दोनों पैराग्राफष् (ग)
और (घ) बाबू राधाकृष्णदास ही से सम्बन्ध रखते हैं। भारतेन्दु के अधूरे
ग्रन्थों को पूरा करने की कामना भी इन्हीं की थी और 'चन्द्रिका' को निकालने
का विचार भी इन्हीं का था। इनमें से अपनी पहिली कामना तो इन्होंने आगे चलकर
कुछ पूरी कर ली पर दूसरे विचार में बाधा पड़ी। इनकी यह बड़ी प्रबल अभिलाषा थी
कि 'चन्द्रिका' द्वारा भारतेन्दु का स्मरण कुछ काल तक हिन्दी भाषियों में
बना रहे। यह 'चन्द्रिका' बाबू हरिश्चन्द्र को बहुत प्यारी थी। यहाँ तक कि
जब वह 'मोहन-चन्द्रिका' से मिलकर श्रीनाथद्वार में जाकर बन्द हो गई तब
उन्होंने अक्तूबर 1884 में 'नवोदिता हरिश्चन्द्रचन्द्रिका' के नाम से उसे
फिर से निकाला। पर देश के दुर्भाग्य से दो नम्बर निकाल कर वे आप ही चल बसे।
इस 'नवोदिता हरिश्चन्द्रचन्द्रिका' का तीसरा नम्बर बाबू राधाकृष्णदास ने
सम्पादित करके निकाला। इसमें भारतेन्दु की कुछ पिछली कविताएँ, उनका बलिया
का व्याख्यान तथा स्वर्णलता उपन्यास का कुछ अंश प्रकाशित हुआ। आगे से
स्थायी रूप से इस 'हरिश्चन्द्रचन्द्रिका' को निकालने का बाबू राधाकृष्णदास
प्रयत्न करने लगे। 'हरिप्रकाश प्रेस' के स्वामी बाबू अमीर सिंह जो
भारतेन्दु के अन्तरंग मित्रों में से थे, 'चन्द्रिका' को केवल लागत पर
छापने को तैयार भी हो गए। उस समय कार्य का चटपट आरम्भ कर देना भी बहुत
आवश्यक था। क्योंकि बहुत दिनों तक बन्द रहने के कारण तथा और दो एक कारणों
से जो उसकी ओर से लोगों का उत्साह शिथिल पड़ गया था वह उसके जन्मदाता के
अकाल परलोकवास के कारण जागृत हो उठा था। यह अवसर हाथ से न जाने पावे बाबू
राधाकृष्णदास इसी यत्न में थे। उस समय 'चन्द्रिका' किस दशा में थी इसका पता
इन दो चार पंक्तियों से लगेगा जिन्हें मैं एक पत्र से उध्दृत करताहूँ-
'इस चन्द्रिका की उन्नति तो अब तक बहुत हो जाती परन्तु उसके बन्द रहने से
बड़ी हानि हुई। दूसरे श्रीनाथद्वार में जो छपी तो इसमें वे बातें न रहीं जो
प्रथम काशी में थीं। इससे बहुत लोगों का मन इसकी ओर से हट गया।'
ये सब ठीक ठाक कर ही चुके थे कि पण्डित मोहनलाल विष्णुलाल पण्डया का एक
पत्र आ पहुँचा जिसमें उन्होंने 'चन्द्रिका' पर अपना स्वत्व बतलाया और उसे
छापने से इन्हें रोका। इन्होंने उस पत्र का जो योग्यतापूर्ण और उचित उत्तर
दिया वह यह है-
मान्यवर,
कृपा पत्र आपका आया। समाचार ज्ञात हुए। चन्द्रिका के विषय में आपने जो लिखा
सो यदि आपको पूज्य भारतेन्दुजी लिख गए हैं तो अवश्य आपके सिवाय और किसी को
छपाने का अधिकार नहीं है। परन्तु मुझे इसका ब्योरा कुछ भी नहीं मालूम था।
इसी से मैंने छापने का विचार किया था, अब जो आप उसमें बाधा करते हैं तो
मुझे छपाने का कोई आग्रह नहीं। मेरा आशय केवल मात्र यही था कि इसके द्वारा
उनकी कीर्ति चली जाती और अपनी प्यारी चन्द्रिका को फैली हुई देखकर
भारतेन्दुजी की आत्मा सुखी होती। मुझे न तो कुछ फ़ायदे की इच्छा और न आशा
थी। दूसरे स्वयं भारतेन्दुजी ने इसे निकाला था और उनका विचार बराबर चलाने
का भी था। कदाचित् आपको निरुत्साह और अपनी प्यारी चन्द्रिका को बन्द देखकर
उन्होंने चलाया हो तो आश्चर्य नहीं। यदि आपने उनसे यह प्रश्न किया होता तो
यथार्थ उत्तर मिलता और यह कैसे दु:ख की बात होगी कि आप ऐसे उनके बालमित्र
द्वारा उनकी प्यारी 'चन्द्रिका' बन्द हो। खैर, मुझसे इससे कुछ प्रयोजन
नहीं। आप कृपापूर्वक उस लिपि की एक कापी मेरे पास भेज दें जिसके द्वारा
उन्होंने चन्द्रिका आपको दी है तो बड़ा अनुग्रह हो और मैं भी उसे देखकर
संतोष करूँ। दूसरी बात, छपी हुई 'चन्द्रिका' के विषय में जो आपने लिखा सो
जिन दिनों यह 'चन्द्रिका' (फिर) चलाई गई थी उन दिनों मैं यहाँ नहीं था,
श्रीनाथजीद्वार की यात्रा में था। एक नौकर उन्होंने (बाबू हरिश्चन्द्र ने)
रखा था जो कि उसका सब प्रबन्ध करता था और उसी के पास उसका हिसाब किताब था
और है। यदि आप पिछला हिसाब चाहते हैं तो उसे लिखें विक्टोरिया प्रेस के पते
से या मुझे लिखें तो मैं ही पता लगा कर भेज दूँ।
2 अप्रैल, 1885 दासानुदास
श्री राधाकृष्णदास
बहुत दिनों तक इस पत्र का कोई उत्तर नहीं आया। इधर 'चन्द्रिका' के लिए लोग
ऊब रहे थे। बाबू राधाकृष्ण के पास पत्र पर पत्र आ रहे थे। डेढ़ महीने के
उपरान्त एक दिन इनसे पंडित जगन्नाथ झारखंडी से भेंट हुई जिन्होंने कहा कि
पंडयाजी ने 'चन्द्रिका' प्रकाशित करने की अनुमति दे दी है। इस संवाद को
पाकर बाबू राधाकृष्णदास बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने एक रजिस्ट्री चिट्ठी
पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंडया को लिखी-
मान्यवर,
मैंने एक निवेदन-पत्र आपकी सेवा में 'चन्द्रिका' के विषय में भेजा था,
किन्तु उसका कोई उत्तर न मिला इससे 'चन्द्रिका' का सब काम बन्द रहा। पूज्य
भारतेन्दुजी के प्रेमियों ने बहुत तकाजा किया कि 'चन्द्रिका' उनकी बड़ी
प्रिय थी और यादगार है इसे अवश्य चलाओ। मेरा विचार था कि मैं फिर आपको
लिखूँ। आज पंडित जगन्नाथ झारखंडी जी से भेंट हुई। उन्होंने कहा कि आपने कहा
है कि तुम लोग 'चन्द्रिका' खुशी से चलाओ और हानि लाभ जो हो उसके मालिक रहो
पर तुम लोगों को और किसी को देने व बेचने का अधिकार न होगा। हम लोग आपकी इस
बड़ी कृपा के लिए चित्त से धन्यवाद देते हैं। हम लोगों को यह शर्त मंजूर है।
मैं इस पत्र द्वारा इस बात का इकष्रार करता हूँ कि मुझे चन्द्रिका के बेचने
या किसी को देने का अधिकार कदापि न होगा। यदि आप इसके सिवाय और किसी तरह पर
बाजाप्त: लिखवाना चाहें तो भी हम लोगों को उज्र नहीं है। आप जो चाहें लिखा
लें।
इस पत्र का उत्तर कृपापूर्वक शीघ्र ही दीजिएगा क्योंकि छ: महीने की पिछली
'चन्द्रिका' निकालनी है। आशा है कि जैसे आपने इतनी बड़ी कृपा की वैसे ही
उत्तर शीघ्र ही देने की भी कृपा कीजिएगा।
20 जून, 1885 दासानुदास
श्री राधाकृष्णदास
इस पत्र का क्या फल हुआ नहीं कह सकते। किन्तु इसके उपरान्त फिर 'चन्द्रिका'
का दर्शन न हुआ। इसका कारण क्या है, ज्ञात नहीं। बाबू राधाकृष्णदासने अपने
सामयिक पत्रों के इतिहास में चन्द्रिका के बन्द होने का कारण
इसप्रकारलिखाहै-
'भारतेन्दु अस्त हो गए। उनके कनिष्ठ भाई बाबू गोकुलचन्द्रजी ने पीछे सन्
1885 में तीसरा नम्बर प्रकाशित किया। पंडित मोहनलालजी पंडया ने न
जाने क्या सोच कर एक नोटिस दी कि बाबू हरिश्चन्द्रजी ने
'हरिश्चन्द्रचन्द्रिका'हमें दी थी अतएव उस पर कषनून से हमारा अधिकार है; आप
लोग उसके छापने का उद्योग न करें। बस, यह 'चन्द्रिका' भी अपने चन्द्रमा के
साथ विलीन हो गई।'
यह बात समझ में नहीं आती कि पंडयाजी ने जब निवारण पत्र भेजने के उपरान्त
फिर पंडित जगन्नाथ झारखंडी द्वारा 'चन्द्रिका' निकालने की आज्ञा दे दी तब
फिर उसके निकलने में क्या बाधा पड़ी। या तो पंडित झारखंडीजी से जो समाचार
मिला उसमें कुछ भ्रम रहा हो अथवा पंडयाजी ने एक बार अनुमति देकर फिर नहीं
कर दिया हो। किन्तु इन दोनों बातों पर जी नहीं जमता। अस्तु जो कारण हो
'चन्द्रिका' फिर निकल न सकी और हमारे चरित्रनायक का उत्साह मन ही मन रह
गया।
भारतेन्दु का स्मारक
(क) दैनिक पत्र का उद्योग
कई मित्रों ने सम्मति भेजी कि 'चन्द्रिका' के अतिरिक्त भारतेन्दु के स्मारक
में कोई दैनिक व साप्ताहिक पत्र निकाला जाय जिसमें ताजी खबरें रहें और
सामयिक
प्रसंगों पर विचार किया जाय। इनके मन में भी यह बात आई और एक दैनिक पत्र
निकालने के उद्योग में ये तत्पर हुए और अपने मित्रों तथा हिन्दी लेखकों से
सहायता और परामर्श की प्रार्थना की। इनके इस विचार की धूम शीघ्र ही लोगों
में फैल गई और उसकी प्रशंसा होने लगी। पंडित श्रीधर पाठक ने इस विषय में
इनको लिखा-
प्रयाग
18 अप्रैल, 1885
महाशय,
.....दैनिक पत्र कब से निकालने का विचार है? हम समझते हैं आपने यन्त्रादि
सामग्री अवश्य सम्पादित कर ली होगी। क्योंकि बिना निज के यन्त्रा के
एतद्विधा पत्र का निर्वाह नितान्त असाधय है। यथाशक्ति आपके पत्र के
प्रचारने अथवा और रीति से उसकी सहायता करने में सदा सन्नध्द रहूँगा।
आपका मंगलाकांक्षी
श्रीधर पाठक
ग्राहक बढ़ाने के लिए एजेंट आदि नियुक्त करने के विषय में इधर उधर मित्रों
से लिखा पढ़ी भी हुई। लोगों ने अनेक प्रकार के परामर्श भी दिए। पंडित
रविदत्ता शुक्ल ने लिखा-
प्रियवर,
मुझको यह बात सुनकर बड़ा हर्ष हुआ कि आप लोग एक दैनिक पत्र चलाने के यत्न
में हैं। मेरी सम्मति में इस पत्र का नाम 'हरिश्चन्द्र दैनिक' अथवा और ही
कोई नाम जिसमें स्वर्गीय भारतेन्दुजी का नाम आवे, अवश्य होना
चाहिए।.......'चन्द्रिका' का चौथा नम्बर कब निकलेगा?
आपका शुभेच्छुक
रविदत्ता शुक्ल
लाला श्रीनिवासदास ने भी इस विषय में पूछताछ की थी।
श्रीशोजयति
मथुरा
7 जून, सन् 1885 ई.
श्रीयुत् बाबू गोकुलचन्द्रजी तथा
बाबू राधाकृष्णदासजी योग्य बनारस
परम प्रिय मित्र वरेषु,
आपके कृपा पत्र और पोस्टकार्ड आए परन्तु मैं अत्यन्त लज्जित हूँ कि अद्यापि
उनकी पहुँच पर्यन्त न लिख सका। यहाँ आए पीछे मुझको एक तो काम की व्यग्रता
रही दूसरे कुछ शरीर भी अस्वस्थ हो गया था, तथापि मैं इस विषय में आपका
निस्संदेह अपराधी हूँ। क्षमा करिए।
.......'चन्द्रिका' और दैनिक पत्र कब से प्रकाशित होंगे और उनके नाम क्या
क्या रखे गए कृपा करके लिखिए। मुझसे जहाँ तक हो सकेगा मैं सदैव तन मन से
इनकी सहायता में प्रवृत्त रहूँगा। मुझको अपना सच्चा मित्र समझ कर मेरे
योग्य काम काज होय सो सदैव लिखते रहिए। मेरा नवीन नाटक अभी अनवकाश के कारण
नहीं लिखा गया। परन्तु आपकी कृपा से आशा है कि धीरे धीरे समाप्त हो जायगा।
आपका स्नेहाभिलाषी
श्री निवासदास
बाबू राधाकृष्णदास ने बहुत प्रयत्न किया पर काशी से पत्र निकलने का प्रबन्ध
न हो सका। अब इनके संतोष का कारण यही रह गया कि मर्चेंट प्रेस के अधयक्ष
इनके परम मित्र बाबू सीताराम कानपुर से 'भारतोदय' नामक दैनिक पत्र निकाल
चुके थे। इसके प्रधन लेखक बाबू राधाकृष्णदास, पंडित राधाचरण गोस्वामी और
पंडित प्रतापनारायण मिश्र थे। इसके निकलने की सूचना इन्हें इन शब्दों में
मिलीथी।
कानपुर
21 अप्रैल, 1885
प्रिय मित्र,
कुछ देखा सुना? 'भारतोदय' का जन्म जन्माष्टमी ही को है। यह नित्यमेव प्रकाश
करेगा, केवल रविवार को नहीं। लो बस लेखनी को सुधारो, काग़ज को उठाओ। लेखों
की मारामारी से नागरी की इस क्यारी में एक तुम भी न्यारी ही कर लो यह चार
यारों-राधाकृष्ण, चरण, प्रताप, राम की चारयारी है इस [ इसे ] बाँटो, अपने
मन के गट्ठे खोलो। लिखो, कहाँ तक लिखोगे। प्रिय, यदि आज्ञा हो तो इस
'नि:सहाय हिन्दू' ही को प्रथम 'भारतोदय' में प्रकाश कर डालें।
आपका अभिन्न
सीताराम
प्रार्थनानुसार इनका 'नि:सहाय हिन्दू' प्रथम इसी भारतोदय में प्रकाशित हुआ।
दुर्भाग्यवश यह पत्र एक वर्ष भी न चलने पाया और अपना नाम छोड़कर चल दिया।
भारतेन्दु का स्मारक
(ख) अन्य उद्योग
भारतेन्दु के स्मारक के लिए कई स्थानों में उद्योग हुआ। कुँवर फष्तह लाल
मेहता ने उदयपुर में 'हरिश्चन्द्र आर्य्यविद्यालय' खोला जिसके लिए इन्होंने
काशी में बहुत कुछ उद्योग किया और पुस्तक आदि से उसकी पूरी सहायता की।
पंडित राधाचरण गोस्वामी भी इस सम्बन्ध में उद्योग करते थे। उन्हें पत्र
भेजकर ये बराबर उत्साह दिया करते थे। निदान जहाँ जहाँ इन्होंने उस महात्मा
को कीर्ति रक्षा के निमित्ता यत्न होते सुना वहाँ वहाँ जैसे जैसे हो सका या
तो कुछ सहायता पहुँचाई अथवा सहानुभूति सूचित की। भारतेन्दु के निकटवर्ती
बन्धु् होने के कारण समस्त हिन्दी प्रेमी इन्हीं से उनका जीवन वृत्तान्त
लिखने का बारम्बार अनुरोध करते थे। सबसे अधिक आग्रह इस विषय में पंडित
राधाचरण गोस्वामी का था। वे बार बार इन्हें लिखा करते थे 'एक मनोर्थ'
(मनोरथ) हमारा पूर्ण कीजिए। परम श्रध्दास्पद भारतेन्दु श्रीयुक्त बाबू
हरिश्चन्द्रजी का जीवनचरित्र क्रमपूर्वक वर्ष वर्ष का आप लिख कर प्रकाश
कीजिए। आप उनके अति निकटवर्ती भ्राता हैं।'
बाबू हरिश्चन्द्र का स्मारक स्थिर करने के लिए इन्होंने कई जगह लिखा पढ़ी
की। इनका विचार था कि उनके स्मारक में एक समिति बनाई जाय जो उत्तम उत्तम
ग्रन्थों और लेखों पर मेडल दिया करे। पंडित राधाचरण गोस्वामी ने इस विषय
में इनको लिखा-'इसकी कमेटी अवश्य होनी चाहिए और वह काशी में ही हो। जब यह
कमेटी स्थिर हो जाय तब उसमें क्या स्मारक हो यह विचार किया जाय।
ग्रन्थकारों को मेडल देने की अपेक्षा पारितोषक देना अच्छा है।'
हिन्दीप्रेमियों की गुण ग्राहकता से यह बात शब्दों में ही समाप्त हो गई।
भारतेन्दु के ग्रन्थों का प्रबन्ध
भारतेन्दु के असमाप्त ग्रन्थों और लेखों को 'हरिश्चन्द्र सर्वस्व' के नाम
से निकालने का संकल्प इन्होंने किया और इस कार्य में हाथ भी लगाया। इस बीच
में हमारे पूर्व परिचित खड्गविलास प्रेस के मालिक बाबू रामदीनसिंह का
अनुरोध पुस्तकों के छापने के विषय में बढ़ने लगा। उनके उत्साह की शाब्दिक
तरंगें इनके हृदय पर टकराने लगीं। ऐसा जान पड़ा कि वे चटपट सर्वसाधारण के
उपकार के लिए हानि लाभ का विचार छोड़ भारतेन्दु कृत समस्त पुस्तकों को छाप
कर बाँटने लगेंगे। बाबू राधाकृष्ण के पास सिफारिशें भी कई मित्रों की कई
तरह की आईं। जैसे एक मित्र ने इन्हें लिखा-
प्यारे राधाकृष्ण,
बाँकीपुर में बाबू रामदीनसिंह से मिलकर मन अत्यन्त प्रसन्न हुआ।
भारतेन्दुजी के सच्चे प्रेमियों में से यह भी हैं। मेरी सम्मति में
भारतेन्दुजी की रचित पुस्तकों के कॉपीराइट के विषय में आपको और इनको एक हो
जाना चाहिए। इसमें दोनों को लाभ है। इन्होंने प्रतिज्ञा की है कि भारतेन्दु
की जो पुस्तकें 'खड्गविलास' में छापेंगे, (उसकी) आप जितनी प्रति जब जब
चाहेंगे बिना मूल्य (वे) आपको दे दिया करेंगे। फिर इसमें आपको हानि क्या?
ये लोग उत्साही हैं पुस्तकें छाप भी डालेंगे।
इस आग्रह को देखकर ये लोग किनारे हो गए और भारतेन्दु कृत ग्रन्थों के
प्रकाशन में सहायता देना ही इन लोगों ने अपना कर्तव्ये स्थिर किया।
'खड्गविलास प्रेस' से भारतेन्दु की अप्रकाशित पुस्तकों और संगृहीत वस्तुओं
की माँग पर माँग आती गई और ये जो कुछ मिलता गया उसे नि:संकोच धाड़ाधाड़ भेजते
गए। भारतेन्दु कृत समस्त ग्रन्थों की विषय क्रम से सूची बनाकर इन्होंने
भेजी। 'हरिश्चन्द्र कला' के नाम से भारतेन्दु की पुस्तकें क्रम क्रम से
'खड्गविलास प्रेस' से निकलने लगीं। वार्षिक मूल्य 6 रुपए रखा गया। 80
कापियाँ गर्वमेंट भी लेने लगी। इस कार्य में बाबू राधाकृष्ण ने जब जैसी
आवश्यकता हुई तब वैसी सहायता की। 1889 में गर्वमेंट जो 80 कापियाँ लेती थी
उन्हें लेना उसने बन्द कर दिया। अब परोपकार में रत बाबू रामदीनसिंह को उसके
निकालने में घाटा दिखाई देने लगा। ग्राहकों की संख्या की भी शिकायत होने
लगी। 'हरिश्चन्द्र कला' दो महीने तक बन्द रही। तब बाबू राधाकृष्णदास ने
अपनी लेखनी उठाई और 24 नवम्बर, सन् 1889 के 'हिन्दोस्तान' में एक अत्यन्त
करुणापूर्ण लेख लिखा। उसमें हिन्दी के दुर्भाग्य और भारतेन्दु के असमय अस्त
होने पर ऑंसू बहाते हुए आपने लिखा-'इन्होंने (भारतेन्दु ने) यथा साधय अपना
तन, मन, धन सब लगाकर, अपमान को मान समझ कर अपना जीवन इसी हिन्दी की सेवा
में लगाया परन्तु उसी दुर्भाग्य ने फिर अपना काम किया और इनका परलोक बहुत
थोड़े दिनों में हो गया।................ हिन्दी के रसिको! जरा बताइए तो सही
कि जिसने अपना जीवन आप ही लोगों को अर्पण कर दिया आप लोगों ने उसके लिए वा
उसकी प्यारी हिन्दी के लिए अब तक क्या किया? कुछ नहीं; सिवाय रोने के और
कुछ नहीं किया। और किसी देश में (यदि) हरिश्चन्द्र का जन्म हुआ होता तो
क्या उनके पीछे ऐसी उदासीनता दिखाई देती। कभी नहीं! आप लोगों का कुछ दोष
नहीं है यह दोष भाग्य का है। अस्तु, जाने दीजिए, जो हुआ बहुत अच्छा हुआ।
प्यारे हरिश्चन्द्र की कीर्ति ऐसी अचल है कि उसके लिए किसी की सहायता की
आवश्यकता नहीं। उनके ग्रन्थ (ऐसे) अमूल्य हैं कि आचन्द्र दिवाकर उनकी चाह
लोगों को रहेगी और लोग उनको स्मरण करेंगे। परन्तु उनके ग्रन्थों, लेखों तथा
काव्यों में से बहुत से ऐसे हैं जो कि प्राय: लोप हो गए हैं और जिनका मिलना
अत्यन्त कठिन हो गया है। इस अभाव को दूर करने के लिए उनके मित्र बाबू
रामदीनसिंह ने 'हरिश्चन्द्र कला' प्रकाशित करना आरम्भ किया। उसी हिन्दी के
दुर्भाग्य ने फिर अपना प्रभाव दिखाया ही तो। लाभ को कौन कहे उसके व्यय का
छोटा अंश भी ग्राहकों से नहीं मिलता। फिर क्यों कर कोई इतने बड़े व्यय का
भार अपने ऊपर उठा सकता है? आश्चर्य! महदाश्चर्य!! जो हिन्दी बीस कोटि
हिन्दोस्तानियों (ध्या न रखना चाहिए कि यह लेख 'हिन्दोस्तान' में छपा था)
की मातृभाषा कहलावे उसके ऐसे एक अमूल्य रत्न के ग्राहक केवल बारह!!! क्यों
महाशयों, क्या यह लज्जा और शोक की बात नहीं है? दो बरस तक गवर्नमेण्ट इसकी
अस्सी कापी लेती थी, तब तक बेचारे रामदीनसिंह ने आधा चौथाई खर्च निकलने पर
भी साहस को न छोड़ा और बराबर निकालते रहे। परन्तु अब गवर्नमेण्ट ने भी लेना
बन्द कर दिया। अब केवल बारह ही ग्राहक रह गए; फिर क्यों कर काम चल सकता
है?....अब थक कर दो महीने से 'कला' बन्द कर दी गई है। यदि हिन्दी के
प्रेमीगण कुछ इस ओर ध्याथन देंगे तो फिर छपेगी, नहीं तो अब कला के दर्शन
कहाँ?'
इनकी यह तत्परता देख कर बहुत लोगों ने इन्हें 'हरिश्चन्द्र कला' का सम्पादक
कहना ही उचित समझा।
सन् 1888 में नाटकावली छप चुकी और ऐतिहासिक ग्रन्थों में हाथ लगा।
भारतेन्दु की लिखी वा संग्रह की हुई जिन जिन वस्तुओं की आवश्यकता हुई उनके
लिए इन्हें लिखा गया-
खड्गविलास प्रेस बाँकीपुर
28-5-1888
प्रियवर, बाबू राधाकृष्णदासजी,
.................नाटक की कापी जो मेरे पास थी वह बिलकुल हो गई, अब इतिहास
में हाथ लगाया गया है।
उसमें आपके पास कालचक्र, बनारस क्वींस कॉलेज का लेख, काशी की अनेक
प्रशस्ति, विश्वनाथजी के मन्दिर के समीप औरंगजेब की मसजिद का लेख आदि और
सरकारी अमलदारी के प्रारम्भ के अनेक कागज़ और बादशाही जमाने के परम्परागत
कागज़ जिनमें से एक पत्र अकबर ने एक शाहजादे को लिखा था वह, और बड़े-बड़े
गवर्नर जनरलों के अनेक पत्र, नैपाल, जयपुर आदि बड़े बड़े राजाओं और लखनऊ
इत्यादि के प्रतिष्ठित नवाबों ने छोटी छोटी बेगमों और शाहजादों को जो पत्र
लिखे हैं वे सब, और महाराजा बनारस, राजा कंतित आदि और अंगरेजों के
सुलहनामों वगैरह की नकल, शिष्यों के दस्ते सिख गुरुओं की कई एक चिट्ठियाँ,
महाराज वल्लभाचार्य की चिट्ठियाँ आदि अनेक इतिहास सम्बन्धी वस्तु उनके
(भारतेन्दु के) संग्रह में वहाँ हैं। मुझे पूरी आशा है कि ये सब आपके पास
हैं। इतिहास सम्बन्धी जो कुछ वस्तु हों सब गिन कर रजिस्ट्री द्वारा भेजिए।
एक बार दत्ताचित्त होकर उस महात्मा की कीर्ति चमकाइए और संसार को उनके यश
से अलंकृत कीजिए।
आपका उत्ताराभिलाषी
रामदीनसिंह।
इस उत्साह को देख कर इन्होंने पूरा परिश्रम करके भारतेन्दु की कीर्तिरक्षा
के विचार से जो जो सामग्रियाँ पाईं सब भेज दीं। ऊपर के पत्र में जिन-जिन
वस्तुओं का उल्लेख है उनके अतिरिक्त भारतेन्दु के अक्षरों के नमूने, उनके
अनेक पत्र तथा जीवन सम्बन्धि जो जो बातें याद पड़ीं उनके विवरण इन्होंने
आपसे आप भेजे। इन सब सामग्रियों का खड्गविलास प्रेस द्वारा क्या उपयोग हुआ
यह हिन्दी प्रेमियों से छिपा नहीं है। उनके ग्रन्थों के कैसे सुलभ और
सुन्दर संस्करण निकले हिन्दी पाठक बड़े धैर्य और सहिष्णुता के साथ देखते आ
रहे हैं। पेज काटना तो इस प्रेस का धर्म ही नहीं, शुध्दाशुध्द का विचार तो
पाठकों ही के ऊपर छोड़ा जाता है, पुस्तकों का मूल्य देखकर भी ग्राहकों को एक
बार जरूर चौंकना पड़ता है। अब भारतेन्दु की कीर्तिरक्षा किस प्रकार हुई वह
भी सुनिए। न जाने कितनी पुस्तकें उनके नाम से निकाली गईं जिनका कर्तृत्व
स्वीकार करने में अविख्यात उपन्यासों के अनुवादक भी एक बार हिचकेंगे। एक
बार 'पूर्णप्रकाश वा कुलीन कन्या' नाम की पुस्तक पर जब बाबू राधाकृष्णदास
की दृष्टि ग्रन्थावली में पड़ी तब उन्हें बड़ा खेद हुआ और उन्होंने लिखा-'इस
ग्रन्थ की न कथा अच्छी न भाषा। व्यर्थ खड्गविलास वालों ने भारतेन्दु की
ग्रन्थावली में छाप कर उनकी हँसी कराई। यह मल्लिका की लिखी है।' राजा
भरतपुर की लिखी हुई 'माधुरी' भारतेन्दु के नाम से निकाली गई। जीवन सम्बन्धि
जितनी सामग्रियाँ भेजी गईं उनमें से कुछ ही मनुष्य जाति के काम में आईं। इस
बात का बाबू राधाकृष्णदास को सब दिन खेद रहा। भारतेन्दु के अत्यन्त
निकटवर्ती होने के कारण प्राय: लोग इनसे उनका जीवनचरित लिखने का हठ करते।
उस समय इन्हें और भी दु:ख होता। मुझसे भी इनसे इस विषय में जब जब बातचीत आई
तब-तब इन्होंने यही कहा 'लिखने योग्य सामग्री सब खड्गविलास प्रेस में सड़
गई।' नागरीप्रचारिणी सभा के गृहप्रवेशोत्सव के समय पंडित अयोध्याीसिंह
उपाधयाय, पंडित चन्द्रधार शर्मा गुलेरी, मिस्टर जैन वैद्य, बाबू काशी
प्रसाद जायसवाल तथा और कई हिन्दी प्रेमी सज्जन इनके स्थान पर एकत्रित थे।
मैं भी वहाँ उपस्थित था। उस समय जब उपाधयायजी ने यह बात छेड़ी तब भी
इन्होंने यही कहा था-'खड्गविलास वाले जीवनी निकालना चाहते हैं। सामग्री
बहुत सी उन्हीं के पास है।' राम राम करके एक चरित निकला भी तो उसमें कहीं
इन सामग्रियों का उपयोग न देख पड़ा।
पुस्तकों का व्यवसाय
बाबू हरिश्चन्द्र और उनके छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्र दोनों महाशयों की
शिक्षा का प्रभाव इनके जीवन पर अलग अलग पड़ा था। लेख और पुस्तक लिखने के
उत्साह के साथ ही साथ द्रव्य संचय की इच्छा भी इनमें बनी रहती थी। बाबू
हरिश्चन्द्र के जीवनकाल ही में उनकी पुस्तकों की माँग इन्हीं के पास आती
थी। उनकी मृत्यु के पीछे भी वह क्रम जारी रहा। ये उनकी पुस्तकों का स्टाक
अपने पास रखते थे और आर्डर सप्लाई करते थे। इस सम्बन्ध में एक और व्यक्ति
का नाम लेना पड़ता है। वह मल्लिका थी-वही मल्लिका जिसका बाबू हरिश्चन्द्र के
साथ बहुत कुछ सम्बन्ध था। वह भी यही कार्य करती थी और 'मल्लिकचन्द्र एंड
को' के नाम से उसने दूकान खोल रखी थी। भारतेन्दु के नाते से वह इन्हें बड़े
स्नेह के भाव से देखती थी। यदि माँगी हुई पुस्तक किसी एक के स्टाक में न
हुई तो वह दूसरे से माँग लेता था। इस विषय का एक पत्र देखिए-
प्रिय बच्चा!
2 बादशाह दर्पण
2 भक्ति सर्वस्व
2 धानंजय विजय
1 कमीशन की साक्षी
इतनी पुस्तकें हमारे यहाँ हैं सो जाती हैं। बाकी प्रेमतरंग, प्रेमप्रलाप,
स्त्रीतदंडसंग्रह हमारे यहाँ नहीं है और 'चन्द्रिका' के लिए भला हम बहाना
करती हैं। चन्द्रिका की जिल्द नहीं है।
तुम्हारी
मल्लिका।
सभा समाजों से सम्बन्ध
जैसा कि पहले कहा जा चुका है सभा समाजों में सम्मिलित होने का उत्साह
इन्हें बाल्यकाल ही से था। 15 वर्ष की छोटी अवस्था में इन्होंने बनारस
कॉलेज में एक डिबेटिंग क्लब जारी होने की सूचना, देखिए, किस उत्साह के साथ
और कैसी अच्छी भाषा में कविवचनसुधा में दी थी-
श्रीयुत् क.व. सुधा सम्पादकेषु
महाशय,
बड़े आनन्द की बात है कि कालिज के विद्यार्थियों ने भी कालिज में एक क्लब
जारी किया है जिसका नाम स्टूडेंट डिबेटिंग क्लब रखा गया है। इसकी जड़ बाबू
लक्ष्मीशंकर मिश्र एम.ए. और बाबू दामोदरदास एफ. ए. ने लगाई है। बाबू
लक्ष्मीशंकर मिश्र प्रेसीडेंट, बाबू दामोदरदास सेक्रेटरी, कॉलेज के
विद्यार्थी और स्कूल के टीचर लोग मेंबर हैं। यह शनिवार को होती है और
अंगरेजी में स्पीच दी जातीहै।
महाशय! क्या यह कुछ कम आनन्द की बात है। ईश्वर इसको चिरायु करे और इसकी
इच्छा पूर्ण करता रहे। जिसके सहायक बाबू लक्ष्मीशंकर ऐसे पुरुष हैं उसकी
इच्छा पूर्ण होने में कौन सन्देह है?
13-9-1880 श्री राधाकृष्णदास
सन् 1881 में कई नवयुवकों के उद्योग से जिनमें बाबू राधाकृष्णदास मुख्य थे
काशी में एक 'बाल्य समाज' स्थापित हुआ। इसका मुख्य उद्देश्य बोलने की शक्ति
बढ़ाना था। प्रति रविवार को नगर के उत्साही बालक और युवक इकट्ठे होते थे और
नियत विषयों पर हिन्दी वा उर्दू में कुछ न कुछ कहते थे। देशोन्नति सम्बन्धी
विषय ही प्राय: इसमें नियत किए जाते थे। यद्यपि यह 'बाल समाज' था पर पचीस
वर्ष के मुछाड़िए भी इसमें सम्मिलित होते थे। बाबू राधाकृष्णदास इस सभा के
लेखाधयक्ष थे। इसके प्रबन्ध का भार इन्होंने अपने ऊपर लिया था, सभा का
कार्य विवरण आदि यही पढ़ते थे। इस समाज के सामने 'भारतवर्ष की वर्तमान
अवस्था' तथा और कई विषयों पर बाबू राधाकृष्णदास ने व्याख्यान दिए थे।
उद्योग और उन्नति का सम्बन्ध आरम्भ ही से इनके चित्त पर जम गया था। एक दिन
की बात है कि समाज के सामने 'भारत की आनेवाली अवस्था और उसकी उन्नति के
उपाय' पर विचार हो रहा था। व्याख्यानदाता बाबू मुरलीधार नाम के किसी महाशय
ने कहा 'भारतवर्ष की यह दुरवस्था न सुधारेगी वरंच और भी बिगड़ती जायगी।'
उद्योगोपासक बाबू राधाकृष्णदासजी से न रहा गया। उन्होंने तुरन्त उठकर कहा
'ऐसा कदापि नहीं है। भारतवर्ष की उन्नति अवश्य होगी। देखिए, आगे लोग इतना
भी नहीं जानते थे कि भारतवर्ष दुर्दशा में है या नहीं, और उन्नति किस
चिड़िया का नाम है। पर अब लोग धीरे-धीरे इसकी चर्चा करने लगे। पहले यहाँ
केवल बाबू हरिश्चन्द्रजी ने इस विषय में कमर बँधी। अब उनके साथ बहुत सेलोग
हैं। इसी तरह धीरे धीरे जब अधिकांश लोग ऐसे हो जाएँगे तब अवश्य
उन्नतिहोगी।'
इसी वर्ष काशी में 'सुजन समाज' स्थापित हुआ जिसमें इन्होंने बड़े उत्साह के
साथ योग दिया। कई बार ये इसके सभापति भी बनाए गए थे। सन् 1901 में जब
भारतप्रभु लार्ड कर्जन विक्टोरिया हाल बनवाने की धुन में थे तब इन्होंने इस
सभा में वाइसराय के पास यह लिखने का प्रस्ताव किया था कि विक्टोरिया हाल न
बनाकर विक्टोरिया रिलीफ फंड (अनाथ कोष) खोला जाय।
अलीगढ़ में सन् 1877 में बाबू तोताराम के उद्योग से 'भाषासम्बर्ध्दिनी सभा'
स्थापित हुई थी जिसने आरम्भ काल में हिन्दी की बहुत कुछ सेवा की।
ग्रन्थकारों को मेडल आदि देकर और उनके ग्रन्थों को प्रकाशित करके उनके
उत्साह को बढ़ाया। इस सभा की ओर से एक पत्र 'भारतबन्धु्' निकलता था। जनवरी
सन् 1882 में बाबू राधाकृष्णदास इस सभा के सभासद् हुए। तब से ये इस सभा की
सहायता के हेतु बराबर सन्नध्द रहते थे। सेक्रेटरी बाबू तोताराम भी इनसे
बराबर परामर्श लिया करते थे। इसी से समझ लीजिए कि इस छोटी अवस्था में
इन्होंने लोगों की दृष्टि में अपने को कैसा बना लिया था। 30 नवम्बर, 1883
के 'भारतबन्धुो' में एक 'समालोचक सभा' का प्रस्ताव इन्हीं ने किया था और
'भाषासम्बर्ध्दिनी सभा' ने इन्हीं की सम्मति से 'समालोचक सभा' के सभासद
चुने थे।
बाबू मोक्षदादास मित्र, बाबू दामोदरदास बी. ए. और बाबू राधाकृष्णदास के ही
उद्योग से 'काशी सार्वजनिक सभा' स्थापित हुई। बाबू मोक्षदादास इसके सभापति
हुए। बाबू दामोदरदास बी.ए. और बाबू सीताराम बी.ए. सेक्रेटरी बनाए गए। नगर
के प्राय: सब सुशिक्षित और प्रतिष्ठित लोग इसके सभासद थे। सन् 1886 में
'काशी जीवदयाविस्तारिणी सभा' अपाहिज पशुओं की रक्षा के निमित्ता खड़ी की गई
जिसकी आदमनी खर्च का हिसाब महीने महीने कलक्टर साहब के पास भेजना पड़ता था।
बाबू राधाकृष्णदास इस सभा के सेक्रेटरी नियुक्त किए गए थे।
अपनी अग्रवाल जाति के उपकार की ओर भी इनका ध्याीन बहुत कुछ था। अग्रवालों
में स्त्री्शिक्षा आदि के प्रचार के लिए ये बराबर उद्योग करते रहे। इस
कार्य में इन्हें बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ पड़ीं क्योंकि पुराने ढर्रे के लोगों को
ये सब बातें काल के समान लगती थीं। स्त्रीयशिक्षा का नाम सुनते ही बहुतों
के रोंगटे खड़े हो जाते थे। किन्तु इनके सौम्य और सात्विक आचरण की कुछ ऐसी
मोहनी लोगों पर छा जाती थी कि उन्हें यह निश्चय हो जाता था कि जो कुछ ये
करते हैं उससे किसी प्रकार की हानि न होगी। 3 सितम्बर, सन् 1893 को
इन्होंने तथा काशी के और कई उत्साही लोगों ने 'अग्रवाल-हितकारिणी' नाम की
एक सभा इस अभिप्राय से स्थापित की कि अग्रवाल जाति की अनाथ और धनहीन
विधवाओं को कुछ आर्थिक सहायता मिला करे तथा उस जाति के ऐसे बालकों की
शिक्षा का यथोचित प्रबन्ध किया जाय जिनके माता पिता वा सम्बन्धी अर्थ संकोच
से इन्हें शिक्षा देने में असमर्थ हैं। इनके उद्योगों का फल भी बहुत कुछ
हुआ। आजकल पचासों अग्रवाल कन्याएँ शिक्षा पा रही हैं। इनके उदार और
निष्पक्ष भाव के कारण बिरादरी में इनका बड़ा मान था। यहाँ पर यह कह देना भी
आवश्यक है कि बाबू हरिश्चन्द्र का चौधारी घराना था और ये पायक थे इससे और
भी बिरादरी में इनकी बात चल जाती थी। बिरादरी के किसी विवादग्रस्त विषय का
निपटारा इनके निश्चय के अनुसार बड़ी सुगमता से हो जाता था। जो कुछ ये कह
देते थे उसे मानने के लिए लोग प्रस्तुत रहते थे। बड़े बड़े झगड़ों को ये इस
कौशल से निपटाते थे कि दोनों पक्षों में से किसी के मन में भी द्वेषबुध्दि
नहीं उत्पन्न होने पाती थी। समाज की कुरीतियों पर ये बड़ी कड़ी दृष्टि रखते
थे। एक बार आप एक जनवासे में गए। उसके विषय में आप लिखते हैं-'जनवासे में
लड़के बहुत गारत होते हैं।.........के भांजे ने नज़र बचा कर रंडी को पान
दिया।' आपकी अवस्था अभी 12 वर्ष से अधिक न होगी। 'यद्यपि ये पक्के
समाज-संशोधाक थे पर संशोधानों को ये इस रीति से चलाना चाहते थे कि वे किसी
को खलने न पावें। मुख्य बात तो यह थी कि ये संशोधाक वा प्र्रवत्ताक
प्रसिध्द होने की इच्छा से कोई कार्य नहीं करते थे। ये उन लोगों से सर्वथा
भिन्न थे जो मर्यादाबध्द हिन्दू-समाज को विशृंखल करके विलायती ब्रह्मचर्य
का सुख भोगना चाहते हैं। प्रत्येक प्राचीन रीति व्यवहार (को) देखकर इनकी
नाक भौं नहीं चढ़ती थी। जब लोग देखते थे कि इनके शरीर से पुरानी मर्यादा की
कितनी रक्षा होती है तब उन्हें यह समझने का अवसर न मिलता था कि ये किसी
प्रचलित प्रथा के प्रतिकूल केवल परिवर्तन वा दिलबहलाव की इच्छा से उद्योग
करते हैं। उन्हें यह निश्चय हो जाता था कि जिस बात का ये विरोध करते हैं
उसमें अवश्य कोई न कोई बुराई है और जिसके लिए आग्रह करते हैं उससे अवश्य
कुछ न कुछ भलाई की आशा है। बाबू राधाकृष्ण में एक गुण यह भी था कि अपने नए
विचार को किसी पर ठेलने के पहले वे उसके मन को तौल लेते थे कि वह उस नए
विचार का कितना अंश धारण करने को प्रस्तुत है। विधवा-विवाह के पक्षपाती तो
ये थे ही। जब बिरादरी में इन्होंने इसके लिए राह निकालनी चाही तब लोगों से
गुप्त रीति पर हस्ताक्षर कराने के लिए स्वीकार-पत्र के रूप में कुछ फ़ार्म
छपाए। स्वीकार पत्र यह है-
श्रीहरि
हम लोग जो इस इकरारनामे पर दस्तखत करते हैं इस बात का इकष्रार ईश्वर को
साक्षी देकर धर्म से करते हैं कि नीचे लिखे हुए कषयदों की पाबन्दी करेंगे-
(1) अपनी जाति यानी वैश्य अग्रवालों में दुर्भाग्य से अगर कोई बाल-विधवा हो
जाय तो उस अक्षतयोन्या कन्या का पुनर्विवाह करने वा कराने में दिल व जान से
कोशिश करेंगे।
(2) जो लोग वर-पक्ष वा कन्या-पक्ष वाले ऐसा पुनर्विवाह करने पर मुस्तैद
होंगे उनका साथ हम ठीक उसी तरह पर देंगे जैसा कि हम अपनी तमाम बिरादरी का
देते हैं, उनको किसी तरह छोटा न समझेंगे।
(3) जब तक सब लोगों की जिनके दस्तखत इस कागज पर हैं, सम्मति न हो लेगी हम
इस भेद को किसी पर जाहिर न करेंगे।
शुभ संवत् 1945 फाल्गुन कृष्ण 2
सन् 1899 में राजा साहब भिनगा की ओर से एक अनाथालय काशी में स्थापित किया
गया। इसका प्रबन्ध कार्यकारिणी सभा द्वारा होता था जिसके मेंबर सरकार की ओर
से चुने जाते थे। बाबू राधाकृष्णदास भी कुछ दिनों तक इस कमेटी के मेंबरथे।
काशी के प्रसिध्द चन्द्रप्रभा प्रेस की प्रबन्धकारिणी समिति के भी ये
सदस्यथे। 19 मार्च को ये उसके सेक्रेटरी और डाइरेक्टर चुने गए थे।
हरिश्चन्द्र स्कूल
ऊपर लिखा जा चुका है कि बाबू हरिश्चन्द्र और उनके छोटे भाई बाबू
गोकुलचन्द्र ने आसपास के लड़कों को इकट्ठा करके अपने घर पर शिक्षा देना
आरम्भ किया था। धीरे धीरे जब लड़कों की संख्या बढ़ने लगी तब पढ़ाने के लिए एक
वैतनिक अधयापक नियत किया गया और सन् 1868 में नियमित रूप से चौखम्भा स्कूल
स्थापित किया गया जो आगे चलकर हरिश्चन्द्र स्कूल के नाम से प्रख्यात हुआ।
जब तक बाबू हरिश्चन्द्रजी थे तब तक तो इस स्कूल को वे ही चलाते रहे। 1879
तक तो यह बिलकुल उन्हीं की आर्थिक सहायता पर रहा। इसके पीछे गर्वमेंट ने 20
रुपए मासिक ग्रांट देना आरम्भ किया जो आगे चलकर 45 रुपये हो गया।
म्युनिसिपेल्टी से भी 200 रुपये वार्षिक मिलने लगा। भारतेन्दुजी की मृत्यु
के पीछे इसका प्रबन्ध बाबू गोकुलचन्द्रजी ने अपने हाथ में लिया। स्कूल
बराबर उन्नति करता गया और 1888 ई. में मिडिल क्लास खोल दिया गया। पर सन्
1892 में बाबू गोकुलचन्द्र का भी परलोकवास हो गया। उनके दोनों पुत्र, बाबू
कृष्णचन्द्र और ब्रजचन्द्र, छोटे थे। घर को सँभालनेवाला सिवाय बाबू
राधाकृष्णदास के और कोई न था। ये ही उनकी सम्पत्ति के मैनेजर हुए। इस
प्रबन्ध भार को ये बड़ी धीरता और सहिष्णुता के साथ आवश्यक अवधि तक लिए रहे।
स्वार्थी लोगों ने, जिनकी दाल इनके मारे नहीं गलने पाती थी, बीच बीच में इन
पर अनेक अपवाद भी लगाए और घर में एक दूसरे के मन में मैल भी डालनी चाही पर
ये अपने कर्तव्य। पथ से न डिगे। और वस्तुओं के साथ हरिश्चन्द्र स्कूल का
इन्तजाम भी इन्हीं के सिर पड़ा। ये उसके एक मात्र प्रबन्धकर्ता
(Respsonsible Manager) हुए। जब से इन्होंने इसका प्रबन्ध भार अपने ऊपर
लिया ये बराबर इसकी उन्नति के लिए फटफटाते रहे। समय समय पर छात्रों की जाकर
परीक्षा लेते, उत्साहित करने के लिए उन्हें पुरस्कार देते, मास्टरों पर
ताकीद करते। सन् 1896 में इन्होंने इंट्रेंस क्लास भी खोल दिया। थोड़े दिनों
तक तो काम अच्छी तरह चला, उसके पीछे सहायता की कमी और इनकी अवस्था के कारण
उत्साह शिथिल पड़ गया। इंसपेक्टर ने बड़ी खराब रिपोर्ट लिखी। अन्त में लाचार
होकर इंट्रेंस तोड़ देना पड़ा। इन्होंने भरसक स्कूल के लिए कोई बात उठा नहीं
रखी पर यदि सहायता न मिले, लोगों को इसके संस्थापिन की कीर्तिरक्षा का
ध्याबन और विद्या प्रचार के महत्तव का अनुमान न हो तो अकेले ये कहाँ तक हाय
हाय करें। हर्ष की बात है कि यह स्कूल आगे चलकर सँभल गया और इसने अपनी बहुत
उन्नति की। आजकल यह नगर के बहुत अच्छे हाईस्कूलों में है।
काशी नागरीप्रचारिणी सभा से सम्बन्ध
काशी में कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों ने मिलकर एक सभा स्थापित की और उसका
नाम नागरीप्रचारिणी रखा। यह सभा बहुत दिनों तक नार्मल स्कूल में होती रही।
इसके पीछे 9 जुलाई, 1893 को इसके नियम आदि बनाए गए। 16 तारीख को फिर एक
बैठक हुई जिसमें वे नियम संशोधित होकर स्थिर हुए। यही दिन सभा का जन्मदिन
माना गया। बाबू श्यामसुन्दरदास बी.ए. सभा के मन्त्रील बनाए गए और तब से
बराबर सभा का कार्य नियमित रूप से होने लगा। यह सभा बाबू प्रमदादास मित्र
के बुलानाले वाले घर पर होने लगी; किन्तु वहाँ वर्षाकाल में सभासदों और
दर्शकों को कष्ट होने लगा। इस पर बाबू राधाकृष्णदास ने कृपा करके
हरिश्चन्द्र स्कूल में स्थान दिया और सभा के अधिवेशन बहुत दिनों तक वहीं
होते रहे।
17 फष्रवरी, सन् 1894 को 'श्रीयुत् बाबू राधाकृष्णदासजी ने सभा की
प्रार्थना से सभापति होना स्वीकार किया और उसी दिन से मानो इस सभा में
संजीवनी शक्ति का संचार हुआ। फिर तो दिनोंदिन सभा में अच्छे अच्छे हिन्दी
के विद्वान् तथा स्थानिक और विदेशीय मान्य लोग सभासद होने लगे और उसके साथ
ही साथ सभा की भी उन्नति होने लगी। बस अब तो कोई अधिवेशन ऐसा न होने लगा
जिसमें विद्वान् लोग उपस्थित न हों और हिन्दी के प्रचारार्थ कुछ उत्तम
प्रबन्ध न किया गया हो।'1
इस सभा से सम्बन्ध होते ही बाबू राधाकृष्णदास तन मन धन से इसकी सेवा में
तत्पर हो गए। तब से बराबर इनके अनेक उद्योगों का लक्ष्य सभा का उपकार ही
रहा। इसके लिए इन्होंने शारीरिक कष्ट उठाया, मानसिक व्यथा सही, द्रव्य को
संशय में डाला, जो जो बन पड़ा सब कुछ किया। इनके जीवन की बहुत सी घटनाओं का
केन्द्र यह सभा बनी। 24 मार्च (1893) को सभा का एक अधिवेशन बड़ी धूमधाम का
हुआ जिसमें बाबू रामदीनसिंह, पंडित रामशंकर व्यास तथा और भी बहुत से हिन्दी
के उत्साही प्रेमी उपस्थित थे। बाबू राधाकृष्णदास ने अपना लिखा 'नागरीदास
का जीवन चरित्र' सभा के सामने पढ़ा। लोगों को यह एक नई चीज मालूम हुई। बाबू
रामदीनसिंह ने इसे अपने खड्गविलास प्रेस में छापकर प्रकाशित किया। इस
अधिवेशन का प्रभाव लोगों पर बहुत अच्छा पड़ा। सभा के आगामी महत्तव का आभास
लोगों को मिलने लगा। अनेक विद्वान् और प्रतिष्ठित लोग सभासद हुए। इसके
पहिले भी अनेक विषयों पर सभासदों ने लेख पढ़े थे परन्तु यह सबसे पहला था जो
छपकर पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ।
सभा का प्रथम वार्षिकोत्सव भी बड़ी धूम से हुआ। नगर के प्राय: सभी
प्रतिष्ठित और विद्वान् लोग उपस्थित हुए। (परलोकवासी) रायबहादुर पंडित
लक्ष्मीशंकर मिश्र एम.ए. सभापति बनाए गए। वार्षिक रिपोर्ट पढ़ी गई जिसमें
बाबू राधाकृष्णदास के विषय में कहा गया-'बाबू राधाकृष्णदासजी तथा बाबू
कार्तिकप्रसादजी का उद्योग और उत्साह इस सभा के कार्यों में परम
प्रशंसास्पद है। इन महाशयों ने सभा की सहायता बड़े अविचल और उदार भाव से की
अथवा यों कहिए कि सभा की इस उन्नति के मूल कारण ये ही दो महाशय हैं।' बाबू
राधाकृष्णदास ने सभा को धन्यवाद देकर कहा-'मैं कदापि इस धन्यवाद के योग्य
नहीं हूँ जो इस सभा ने मेरे प्रति अपनी वार्षिक रिपोर्ट में प्रकाशित किया
है। इसके अनन्तर उन्होंने इस विषय पर कि 'हिन्दी क्या है?' एक अत्यन्त
सारगर्भित और युक्तिपूर्ण लेख पढ़ा जिस पर सभागृह में चारों ओर से करतल
ध्वोनि हुई।
इसके अनन्तर ये बराबर समय समय पर उपयोगी प्रस्तावों द्वारा सभा की सहायता
करने लगे। 22 मई (1894) के अधिवेशन में इन्होंने यह प्रस्ताव किया
1. ना. प्र. सभा प्रथम वर्ष की रिपोर्ट।
कि हिन्दी के प्रसिध्द प्रसिध्द ग्रन्थकारों, पत्रसम्पादकों तथा लेखकों के
जीवनचरित लिखकर तथा लिखवा कर प्रकाशित किए जायँ। इस प्रस्ताव को सभा ने
स्वीकार किया था और लोगों के चरित्र संग्रह करना आरम्भ भी कर दिया था, पर
कई कारणों से यह कार्य उस समय न हो सका।
एशियाटिक सोसाइटी को सहायता
एशियाटिक सोसाइटी को हिन्दी पुस्तकों की खोज में ये बड़ी सहायता पहुँचाते
थे। बाबू बहुबल्लभ भट्टाचार्य से, जो हिन्दी पुस्तकों की नोटिस करने के लिए
सोसाइटी की ओर से नियुक्त थे, इनसे बड़ी मित्रता हो गई थी। हिन्दी ग्रन्थों
की खोज में बाबू राधाकृष्ण बड़ा परिश्रम करते थे और इस विषय में जानकारी भी
बहुत रखते थे। हिन्दी के इतिहास का ज्ञान जितना बाबू राधाकृष्णदास को था
उतना अब इने गिने लोगों को है। हिन्दी के पुराने कवियों को समझने का अभ्यास
इन्हें बहुत अच्छा था। उनके विषय में जानकारी भी ये बहुत रखते थे। इन्होंने
हिन्दी के बहुत से पुराने ग्रन्थ ढूँढ़ निकाले, उनके कत्तर्ाा तथा
निर्माणकाल आदि का निर्णय किया। इनकी इच्छा थी कि एशियाटिक सोसाइटी की एक
शाखा युक्तप्रदेश में भी स्थापित हो। 8 मई, सन् 1897 को इन्होंने बात ही
बात बाबू कृष्णबलदेव वर्मा से इसकी चर्चा भी चलाई थी। इस पर उक्त वर्माजी
ने डॉक्टर फुर्र से इस सम्बन्ध में लिखा पढ़ी करने को कहा था। पर पीछे शायद
नागरी प्रचारिणी सभा को खोज के काम की ओर प्रवृत्त देख इन्होंने इस बात के
लिए विशेष उद्योग नहीं किया।
24 अगस्त, 1895 को बाबू बहुबल्लभ इनके यहाँ आए और कहने लगे कि गर्वमेंट
बहुत शीघ्र रोमन अक्षर जारी करना चाहती है। यह सुनते ही बाबू राधाकृष्णदास
घबड़ा गए। उसी समय उन्होंने एक अपील मन्त्रीह की ओर से ना. प्र. सभा के
सभासदों के नाम भेजी और आप उठकर हरिप्रकाश प्रेस में दौड़े आए। वहाँ बाबू
कार्तिकप्रसाद भी थे। दोनों हिन्दी प्रेमियों ने मिलकर इस विषय पर बहुत सोच
विचार किया। अन्त में यह ठहरी कि कल ही प्रबन्धकारिणी सभा की एक बैठक हो और
इस मामले में आवश्यक कार्रवाई की जाय।
दूसरे दिन अर्थात् 25 अगस्त, सन् 1895 को प्रबन्धकारिणी सभा हुई। उसमें यह
स्थिर किया गया कि एक पैम्फ़लेट (छोटी पुस्तक) रोमन और उर्दू के विरुध्द
अंगरेजी में लिखा जाय। इस कार्य के लिए 6 आदमियों की एक कमेटी बनाई गई
जिसमें बाबू राधाकृष्णदास भी थे। पर इसके पीछे ये सात आठ दिन तक बीमार रहे,
पेट के दर्द का दौरा रहा। आराम पाते ही इन्होंने हिन्दी विषयक पैम्फ़लेट में
हाथ लगाया और 5 दिन में उसे पूरा किया। इस हिन्दी लेख में उन्होंने उर्दू
लिपि के दोष, रोमन लिपि की अपूर्णता तथा नागरी अक्षरों के गुण स्पष्ट रूप
से दिखलाए। ईश्वर की कृपा से रोमन वाली बात दबी दबाई ही रह गई।
आर्यभाषा-पुस्तकालय का दान
'कादम्बरी' और 'दुर्गेशनन्दिनी' इत्यादि के अनुवादकर्ता बाबू गदाधार सिंह
भी उन दिनों काशी ही में थे। वे भी हिन्दी के हित की चर्चा में आकर
सम्मिलित हुआ करते थे। 9 जून, 1897 को बाबू श्याम सुन्दरदास और बाबू गदाधार
सिंह इनके यहाँ आए। सभा के सम्बन्ध में बातचीत आई। सभा में उस समय केवल
नागरी भांडार नाम का एक छोटा सा पुस्तकालय था। बाबू राधाकृष्णदास ने इस बात
पर बहुद खेद प्रकट किया। बाबू गदाधार सिंह के जी में भी कुछ बात आ गई और
उन्होंने अपना 'आर्यभाषा पुस्तकालय' सभा को देना स्वीकार किया।
अदालतों में नागरी-प्रचार
उस समय सभा के लिए सबसे गुरुतम कार्य अदालतों में नागरी व्यवहार की आज्ञा
का प्राप्त करना था। वह बरसों से इस प्रयत्न में जी जान से लगी हुई थी,
किन्तु न तो उपयुक्त अवसर ही हाथ आता था और न कहीं से उत्साह ही मिलता था।
नवम्बर 1895 में परम न्यायशील सर ऐंटनी मैकडानल इन प्रान्तों के लाट होकर
आए। तभी से आशासूत्र कुछ कुछ बँधाने लगा। धीरे धीरे मैमोरियल देने की
तैयारियाँ होने लगीं। हिन्दी के पक्ष में प्रजा का हस्ताक्षर कराने का समय
आया। इसके लिए एक सब-कमेटी बनाई गई जिसके मन्त्री् पंडित जगन्नाथ मेहता
चुने गए। यह कठिन उद्योग और परिश्रम का समय था। बाबू राधाकृष्ण ने उस समय
जो किया वह हिन्दी-प्रेमियों को सदा स्मरण रखना चाहिए। उन दिनों इन्होंने न
दिन को दिन और न रात को रात समझा। अवसर हाथ से न जाने पावे बस यही धुन इनके
मन में समाई। इन्होंने अपने उद्योग से 26440 मनुष्यों के हस्ताक्षर प्राप्त
किए। न जाने कितने स्थानों में लोगों को उत्साह दे दे कर हस्ताक्षर संग्रह
करने के लिए लोगों को उत्तोजित किया। सभा की ओर से राधाकृष्ण ने पंडित
केदारनाथ पाठक को हस्ताक्षर इकट्ठे करने के लिए 17 जून, 1897 को बाहर भेजा।
पाठक जी पश्चिम की ओर गए और घूम घूम कर दस्तखत कराने लगे। इस प्रकार दो
महीने बीत गए। एक दिन दोपहर के समय बाबू राधाकृष्ण अपने घर पर बैठे नागरी
के विषय में सोच रहे थे। अकस्मात् कोतवाली के सब इंस्पेक्टर साहब का अशुभ
दर्शन हुआ। बैठते ही उन्होंने इनसे प्रश्न किया-
सब इंस्पेक्टर-आपकी तरफ से नागरी के लिए कौन कौन दस्तखत कराने गया है?
बाबू राधाकृष्ण-सिर्फ़ केदारनाथ पाठक।
सब इंस्पेक्टर-पंडित माताप्रसाद नाम का कोई और भी घूम रहा है?
काशी का नाम बतलाता है।
बाबू राधाकृष्ण-मैं नहीं जानता। मेरठ से पंडित गौरीदत्ता, इलाहाबाद से
पंडित मदनमोहन मालवीय और लखनऊ से बाबू कृष्णबलदेव वर्मा की ओर से भी लोग गए
हैं, शायद उनमें से कोई हो।
सब इंसपेक्टर साहब तो इन सब बातों को दर्ज करके चलते हुए। अब बाबू
राधाकृष्ण को चिन्ता हुई कि बात क्या है। पंडित केदारनाथ के लिए ये बहुत
व्यग्र हुए कि वे कहीं किसी आपत्ति में तो नहीं फ़ँसे। उन दिनों सूफी
अंबालाल और मि. तिलक आदि पर राजविद्रोह के अभियोग चल रहे थे। चारों ओर
डिटेक्टिवों की धूम थी। थोड़े से सन्देह में भी लोग पकड़ लिए जाते थे। पाठकजी
ने एक बार इटावा से लिखा भी था कि ''डिटेक्टिवों के हाथ में पड़कर हम कई दिन
हैरान हुए।'' इसी से इन्हें और भी चिन्ता हुई। अन्त में पाठकजी का एक पत्र
मिला जिसे देख इन्हें संतोष हुआ। इन्होंने फिर तुरन्त पाठकजी को लिखा-
'बहुत दिनों की आशा देखने पर कल आपका पत्र आया। इस बीच आपके पत्र न लिखने
से मुझे जो कष्ट हुआ लिख नहीं सकता। आप आगे से पत्र लिखने में ऐसी सुस्ती न
किया कीजिए। हर सप्ताह कार्ड पर इतना लिख कर भेज दिया कीजिए कि कहाँ हैं।
यहाँ पुलिस की तहकीकात आई थी कि आपकी तरफ से कोई मनुष्य माताप्रसाद नाम का
हस्ताक्षर कराने के लिए घूम रहा है। मैंने कहा नहीं, पंडित केदारनाथ घूम
रहे हैं। पीछे मुझे विदित हुआ कि आपका नाम मातादीन भी है। इटावा में
डिटेक्टिव के हाथ पड़ने का हाल आप लिख चुके थे। महीनों से पत्र नहीं मिला।
मैंने सोचा कि कहीं आप फ़ँसे तो नहीं। बड़ी चिन्ता हुई; दस दिन तक नींद न आई।
मालवीयजी को लिखा, वे मदद करने को मुस्तैद हुए। इस बीच में आपका पत्र मिला,
तब जी में जी आया। देवता! ऐसा न किया करो, पत्र शीघ्र भेजा करो। कहीं झगड़ा
तकरार न करना। जो कोई खुशी से लिख दे तो ठीक, नहीं छोड़ देना। हर एक स्थान
से जल्दी जल्दी दो सौ चार सौ जो हो सके कराते बढ़ते चले जाइए, अब देर न
कीजिए। जितने हस्ताक्षर हुए हों तुरन्त भेज दीजिए। अब अपने दोनों नाम
बताइएगा। कहीं फँसिए तो तुरन्त हमें खबर दीजिएगा। पत्रोत्तार तुरन्त भेज
दीजिएगा।
श्रीराधाकृष्णदास
31-9-97
महारानी विक्टोरिया की हीरकजुबिली
महारानी विक्टोरिया की हीरकजुबिली का समय निकट आया। ये 'प्रीतिकुसुमांजलि'
के नाम से कविताओं का एक संग्रह प्रस्तुत करा के महारानी की सेवा में भेजने
के आयोजन में लगे। उसके लिए इन्होंने स्वयं एक कविता लिखी तथा बहुत से काशी
के पंडितों से संस्कृत में बनवाई। 21 जून, 1897 को हीरकजुबिली महोत्सव हुआ।
उस दिन प्रीतिकुसुमांजलि की प्रतियाँ सारे नगर में बाँटी गईं। 23 जून को
जुबिली के उपलक्ष्य में बाबू प्रमदादास मित्र और इनके उद्योग से पंडितों
तथा नगर निवासियों की एक सभा हुई जिसमें महारानी की तस्वीर बीच में रखकर
आशीर्वाद दिया गया और प्रीतिकुसुमांजलि का पाठ हुआ।
नागरीप्रचारिणी सभा का चौथा वार्षिक अधिवेशन
20 जुलाई (1897) को सर ऐंटनी मैकडानल काशी आने वाले थे। सभा के
वार्षिकोत्सव पर सभापति का आसन ग्रहण करने के लिए सभा की ओर से लाट साहब से
प्रार्थना की गई। किन्तु 18 तारीख को सबेरे कलक्टर साहब का एक पत्र बाबू
राधाकृष्णदास को मिला। ये उनके पास हालचाल लेने के लिए गए। उनसे विदित हुआ
कि लाट साहब ने लिखा है ''खेद है कि यह हमारी प्राइवेट विजिट है, इससे किसी
सार्वजनिक अनुष्ठान में हम सम्मिलित न हो सकेंगे। अत: नागरीप्रचारिणी सभा
के वार्षिकोत्सव पर हम सभापति का आसन नहीं स्वीकार कर सकते''। इस पर
इन्होंने कलक्टर साहब से ही सभापति होने की प्रार्थना की और उन्होंने
स्वीकार कर लिया। 28 जुलाई (1897) को सभा का वार्षिकोत्सव बड़ी धूमधाम से
हुआ। कलक्टर साहब सभापति थे। ज्वायंट मजिस्ट्रेट, प्रोफ़ेसर जांसन, रेवरेंड
ग्रीव्स, मि. मारिसन, कुँवर भिनगा तथा बहुत से प्रतिष्ठित और विद्वान् लोग
आए थे। सभा में बड़ी भीड़ थी। मन्त्रीध बाबू राधाकृष्णदास ने रिपोर्ट पढ़कर
सुनाई। बाबू श्यामसुन्दरदास बी. ए. ने Hindi literature (हिन्दी साहित्य)
पर अंगरेजी में एक लेख पढ़ा। रेवरेंड ई. ग्रीव्स ने उठ कर हिन्दी के सम्बन्ध
में बहुत कुछ कहा और बाबू राधाकृष्ण की लिखी रिपोर्ट की हिन्दी की बड़ी
प्रशंसा की। कलक्टर साहब ने भी बाबू राधाकृष्ण के उत्साह और उद्योग की
प्रशंसा में बहुत कुछ कहा। इसके अनन्तर सभा समाप्त होने पर कलक्टर साहब ने
पीतल का एक अपूर्व डिब्बा निकाला और उसे बाबू राधाकृष्णदास को दिखलाया। उस
डिब्बे पर प्राचीन मतानुसार भूगोल का नक्शा खुदा था। उसे क्षेमकृष्ण पंडित
ने राजा वीर के लिए बनाया था जो अकबर के समय में थे। इनको बहुत उत्वं+ठित
देख कलक्टर साहब ने दो चार दिन के लिए डिब्बे को इन्हीं के पासरहनेदिया।
साहित्यविनोद वा विद्याचन्द्रोदय
जुलाई 1897 में बाबू श्यामसुन्दरदास बी.ए., पंडित जगन्नाथ मेहता, बाबू
राधाकृष्णदास और पंडित सुधाकर द्विवेदी ने मिलकर साहित्यविनोद के नाम से एक
पत्र निकालने का विचार किया जिसमें नई नई उपयोगी पुस्तकें क्रमश: प्रकाशित
हुआ करें। 31 अगस्त को बाबू राधाकृष्ण मेहताजी को लेकर पंडित सुधाकरजी के
यहाँ पत्र के विषय में बातचीत पक्की करने के लिए गए। दस दस रुपए महीने के
शेयर बनाए गए और पत्र का नाम 'विद्याचन्द्रोदय' स्थिर हुआ। एक शेयर बाबू
राधाकृष्ण ने भी लिया। पंडित सुधाकर ने अपना एक ग्रन्थ उसमें छपने को दिया।
बाबू राधाकृष्ण का 'प्रताप नाटक' पहले इसी में छपने वाला था। इतना सब ठीक
ठाक होने पर भी पत्र न निकल सका।
टेक्स्टबुक कमेटी
टेक्स्टबुक कमेटी में अपना एक सभासद रखने के लिए सभा कुछ दिनों से प्रयत्न
कर रही थी। 25 अक्टूबर (1897) को शिक्षा विभाग के डाइरेक्टर का एक पत्र इस
विषय में आया। टेक्स्टबुक कमेटी के लिए प्रस्ताव रूप में सभा की ओर से पाँच
नाम भेजे गए थे जिनमें एक बाबू राधाकृष्ण का भी था। उस वर्ष सभा की ओर से
इन्द्रनारायणसिंह एम.ए. सभासद चुने गए।
चोरी
इधर यह सब हो रहा था उधार हिन्दी के लिए मेमोरियल देने की तैयारी हो रही
थी। 1897 बीता, 1898 लगा। मेमोरियल के विषय में बातचीत करने के लिए इन्हें
कई बार प्रयाग जाना पड़ा। 14 फ़रवरी (1898) को लाट साहब एक इवनिंग पार्टी में
सम्मिलित होने वाले थे। मेकडानलाष्टक नाम की एक कविता इन्होंने लाट महोदय
को अर्पित करने के अभिप्राय से लिखी। 12 फ़रवरी को ये प्रयाग गए। पंडित
मदनमोहन मालवीय तथा और कई सज्जनों ने उस कविता को देखकर बहुत पसन्द किया और
सम्मति दी कि वह 14 फ़रवरी को लाट साहब को इवनिंग पार्टी में समर्पित की
जाय। लाट साहब ने भी लिखा कि मुझे उसे पार्टी में लेने में कोई आपत्ति नहीं
है यदि प्रान्तिक कमेटी स्वीकार करे। उक्त कमेटी में एक नवाब साहब के विरोध
करने पर उस कविता का पार्टी में पढ़ा जाना स्थिर नहीं हुआ और वह श्रीमान् की
सेवा में यों ही भेज दी गई। इसके उपरान्त ये प्रयाग में कई दिनों तक बाबू
ब्रज मोहनलाल जी के यहाँ रहे। 16 तारीख को ये खा पी कर कहीं बाहर गए। इसी
बीच में डेरे पर से इनका बक्स चोरी हो गया। बक्स में ये ये चीजें
थीं-डायरी, कुछ दस्तावेज़, मुख्तारनामे, लेफ्टिनेंट गवर्नरों के पत्र,
नागरी-प्रचारिणी सभा की कुछ जरूरी चिट्ठियाँ, दो हज़ार हस्ताक्षर (हिन्दी के
पक्ष में), जन्मपत्र, औरंगजेब के समय के किबाले1, हफ्तसहेली नाम की एक
प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक, इनकी अप्रकाशित कविताओं का एक संग्रह तथा एक
कापी जिसमें ये 'मीरानाटक' नामक एक बहुत बड़ा ग्रन्थ प्राय: समाप्त कर चुके
थे। बक्स में 24
1. इन किबालों को, जिनमें हिन्दी को विशेष स्थान दिया गया था, वे लाट साहब
को दिखाने के लिए ले गए थे।
रुपए नकद भी थे। इस घटना से इन्हें बड़ी चोट पहुँची। विशेष कर हफ्तसहेली,
मीरानाटक और किबालों के लिए ये अत्यन्त व्यथित हुए। हफ्तसहेली सादर कवि की
रची हुई एक बहुत ही प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक थी जिसकी रचना बहलोल लोदी
(1450 ई.) के समय में 873 हिजरी में हुई थी। इसको इन्होंने एशियाटिक
सोसाइटी के लिए ढूँढ़ा और बड़ी कठिनता से पढ़ा था। 'मीरानाटक' में ये प्रसिध्द
भक्तिन मीराबाई का वृत्तान्त नाटक के रूप में बहुत दिनों से लिख रहे थे। 13
दृश्य तक लिख चुके थे कि उसकी यह दशा हुई। इन्होंने बहुत खोज कराई पर बक्स
कापता कहीं न लगा। कागज़ पत्र का एक चिट भी कहीं इधर उधर न मिला। निदान
निराश होकर ये काशी चले आए। आने के दूसरे दिन मीरानाटक की जो जो कविताएँ
याद पड़ी उन्हें बैठ कर इन्होंने लिखा। इस घटना का सोच इन्हें बहुत दिनों तक
बनारहा।
नागरी का डेपुटेशन
यह स्थिर हुआ कि अब एक डेपुटेशन नागरी के निमित्ता श्रीमान् मेकडानल साहब
के पास जाना चाहिए। बाबू राधाकृष्ण ने अवसर देख 'हिन्दी होने से मुसलमानों
को भी सुबीता होगा' इस विषय पर एक लेख हिन्दोस्तान में लिखा। लाट साहब ने 2
मार्च, 1898 को डेपुटेशन से मिलना स्वीकार किया। डेपुटेशन में माननीय पंडित
मदनमोहन मालवीय, राजा साहब माँडा, राजा साहब आवागढ़, राजा घनश्यामसिंह साहब
मरसान (अलीगढ़), राय सिध्देश्वरी प्रसाद नारायणसिंह बहादुर, राय कृष्णसहाय
बहादुर-सभापति देवनागरीप्रचारिणी सभा (मेरठ), आनरेबल राय श्री रामबहादुर,
मुंशी (अब राजा) माधाोलाल, पंडित सुन्दरलाल आदि प्रतिष्ठित और विद्वान् लोग
थे। बाबू राधाकृष्ण पहली ही तारीख को प्रयाग जा डटे और डेपुटेशन के साथ
नागरीप्रचारिणी सभा के रिपोर्टर होकर गर्वमेंट हाउस में गए। श्रीमान् ने
डेपुटेशन की प्रार्थना को उचित और न्यायसंगत बतलाया, पर कहा कि 'इतने दिनों
से प्रचलित अक्षरों को एकबारगी बदलने से गड़बड़ होगा। तथापि अभी सरकार की
आज्ञा प्रजा को और प्रजा की प्रार्थना सरकार को हिन्दी में भी होने की
आज्ञा दी जानी चाहिए। श्रीमान् के इन वचनों से सबको बड़ा संतोष हुआ और लोग
आनन्द मनाते अपने अपने डेरों पर पहुँचे। बाबू राधाकृष्ण भी उस दिन बाबू
कृष्णबलदेव वर्मा ही के डेरे पर रह गए। 5 तारीख को ये काशी लौट आए और आते
ही बाबू प्रमदादास मित्र तथा अपने और कई मित्रों के यहाँ जाकर इन्होंने इस
शुभ संवाद को बाँटा।
बाबू गदाधार सिंह का वसीयतनामा
इसी वर्ष (1898) जुलाई महीने में हिन्दी के परम हितैषी बाबू गदाधार सिंह का
देहान्त हुआ। वे अपनी सारी सम्पत्ति नागरीप्रचारिणी सभा के नाम लिख गए और
बाबू राधाकृष्णदास को ट्रस्टी कर गए। इस वसीयतनामे के पीछे इन्हें कितनी
हैरानी हुई और कितनी मनोवेदना भोगनी पड़ी सो आगे चलकर देखिए।
1 अगस्त, 1898 को मुसम्मात परतापी और विंधोसरी ने कचहरी में उज्र किया कि
बाबू गदाधार सिंह सारी जायदाद हम लोगों के नाम लिख गए थे परविल को बच्चा
बाबू ने बदल डाला। बाबू राधाकृष्ण की ओर से कहा गया कि इन लोगों को उज्र
करने का हक ही नहीं है। जज ने ये दो तनक़ीहें करके तारीख मुक़र्ररकी-
(1) इन लोगों को उज्रदारी का हकष् है या नहीं?
(2) वसीयतनामा ठीक है या नहीं?
इसके उपरान्त चार महीने तक तारीखें टलती गईं, अदालत से कुछ फैसलानहुआ। 2
दिसम्बर (1898) को मुसम्मात परतापी के वकील साहब इनके पास आएऔरकहने लगे कि
मुसम्मात परतापी और विंधोसरी को 600 रुपए पर अपने हक से दस्तबरदारी करना
मंजूर है। इस पर कुछ लोगों ने तो बाबू राधाकृष्णदास को सम्मति दी कि इस
प्रकार मामला तय करना ठीक नहीं है। पर अन्त में इन्होंने किसी प्रकार इस
झगड़ेको शान्त करना ही उचित समझा और बाबू बटुक प्रसाद के घर पर सब कार्रवाई
हुई। इनकी ओर से 600 रुपए जमा किए गए और मुसम्मात परतापी ने इकरारनामा
लिखा।
बाबू गदाधार सिंह की सम्पत्ति पर बहुत से लोग दाँत लगाए थे, जिनमें कुछ
उनके बिरादरी के लोग भी थे। जायदाद का सभा के हाथ में जाना बहुत लोगों को
खटक रहा था। परतापी के साथ सब मामला निपट जाने के बाद ये एक दिन निश्चिन्त
बैठे थे कि इन्हें अकस्मात् यह चिट्ठी मिली-
धोखा न खाइये
आप न जानिएगा कि मकान मैं दखल कर लूँगा। रुपया देकर आप विंधोसरी और परतापी
की मदद से मकान नहीं पा सकते। आप मकान को किसी तरह नहीं पा सकते। सोचने की
बात है कि जो आपकी निन्दा करे उसी को आप रुपया देते हैं। आप कितना ही रुपया
फूँकिए लेकिन मकान में नहीं घुस सकते। घुसते ही पचासों क्या हजारों आदमी
टूट पड़ेंगे और खून की नदी बह निकलेगी। आप यह न जानिएगा कि ठकुराइन के
मददगार कोई नहीं हैं।
ये लोग रुपया ले लेंगे और मारपीट फ़ौजदारी करके आपको सीधो जमलोक पहुँचा
देंगे, वह सब खुद कहते हैं। आप रुपया देकर ज़रूर धोखा खाइएगा, आगे आपकी
खुशी। लेकिन इसका परिणाम अच्छा है वा बुरा इसको अच्छी तरह जाँच लीजिए। मान
जाइए नहीं तो धोखा खाइएगा। जान चली जायगी लेकिन मकान न जायगा। प्राण जाय
बरु बचन न जाई।
मैं हूँ
जीतनसिंह
और मैं हूँ
पुन्नू महराज।
इस पत्र से ये तनिक भी विचलित न हुए, अपने कर्तव्यो पर दृढ़ रहे। किन्तु
इससे भी बढ़कर एक दूसरी उपाधि (व्याधिा) खड़ी हुई। 24 फरवरी, 1899 को
वाजिदअली नामक एक व्यक्ति ने दरखास्त दी कि वसीयतनामा जाली है, माल
लावारिसी है। कलक्टर साहब के यहाँ दरखास्त भेजी गई। 'होम करते हाथ जले'
वाली कहावत इनके विषय में ठीक उतरी। इतने दिनों तक तो लेने देने ही की बात
थी अब चरित्र पर भी आक्रमण आरम्भ हुआ। मैजिस्ट्रेट की सुपुर्दगी से मुकदमा
डिप्टी के इजलास में गया। उस समय इनके चित्त की क्या दशा हुई होगी लोग
स्वयं अनुमान कर सकते हैं। इनके शरीर के चिरसहचर पुराने रोग का भी इस समय
वेग बढ़ा। एक ओर तो डॉक्टर लोग इनसे कहते थे कि यह Consumption (यक्ष्मा) का
First Stage (प्रथमावस्था) है और दूसरी ओर न्यायालय में यह निर्णय हो रहा
था कि इन्होंने जाल किया है वा नहीं। यह इनकी कठिन परीक्षा का समयथा।
अस्वस्थ शरीर लेकर गरमी की कड़कड़ाती धूप में इन्हें कई दिन कचहरी दौड़नापड़ा।
28 जून (1899) को जज के इजलास में इस मुकदमे की पेशी हुई। उस दिन केवल बाबू
राधाकृष्ण का थोड़ा सा इज़हार हुआ। जज साहब ने वसीयतनामे पर सन्देह प्रकट
किया। अब तो इनकी चिन्ता और भी बढ़ी। उस दिन आधी रात तक बाबू नृसिंहदास वकील
के यहाँ बैठकर इसी विषय में ये परामर्श करते रहे। वह रात बड़े कष्ट से बीती।
दूसरे दिन फिर मुकदमा पेश हुआ। मुसम्मात परतापी, शिवनरायन सिंह, गंगा
प्रसाद आदि के इज़हार हुए। ईश्वर की दया से इज़हार सब इनके अनुकूल हुए।
मुकदमे का रंग बदला। इनकी चिन्ता कुछ कम हुई। उस दिन ये और इनके मित्र लोग
पूरी तैयारी के साथ कचहरी गए थे। राय शिवप्रसादजी दस हजार रुपए के नोट,
आवश्यकता पड़ने पर जमानत आदि के लिए, लेते गए थे। अन्त में 15 जुलाई, 1899
को जज साहब ने अपना फैसला सुनाया और बाबू गदाधार सिंह के बिल का प्रोवेट
देने की आज्ञा दे दी। सत्य की जय हुई। उस दिन के विषय में आप स्वयं लिखते
हैं, 'परमेश्वर ने बड़ी कृपा की। मान प्राण रख लिया। इस मुकदमे ने खूब
स्वर्ग नरक की सैर कराई। पूरी परीक्षा ली, और पूरी शिक्षा दी। शत्रु मित्र
की परख हुई। तरह तरह के अपवाद सहे। अन्त में दूध का दूध और पानी का पानी
हुआ। जीवन में यह यादगार समय है'।
आगे चल कर एक स्थान पर फिर आप अपने वर्ष भर के जीवन की आलोचना में लिखते
हैं-'यह वर्ष हमारा बहुत बुरा बीता। रोजगार में भी हानि हुई, शरीर से भी
दु:खी रहे, मरते मरते बचे। बाबू गदाधार सिंह के मुकदमे के कारण मनस्ताप,
लोकापवाद, शारीरिक और आर्थिक झंझट सहा। सबसे बढ़कर धर्म भाव में द्रास हुआ।
साहित्य-सेवा भी कुछ न कर सके। निदान एक मरे नहीं बाकी मरने से भी बुरी दशा
हुई। इस जीवन से तो मरना श्रेष्ठ था।'
बिचारने की बात है कि यह लोकापवाद, मनस्ताप और शारीरिक कष्ट इन्होंने किसके
लिए सहा। क्या अपने लिए? नहीं नागरीप्रचारिणी सभा के लिए, हिन्दी के लिए।
थे तो भारतेन्दु ही के फुफेरे भाई न।
इतने अपवाद और झंझट सह कर अन्त में इन्होंने ट्रस्टीपन से इस्तीफ़ा दे दिया
और पंडित छन्नूलाल बाबू गदाधार सिंह की जायदाद के ट्रस्टी हुए। किन्तु
इस्तीफा देने पर भी इनका पिंड नहीं छूटा। बरसों तक काशी के धूर्त बदमाश
मुसम्मात परतापी को उभाड़ कर इनसे रुपए ऐंठने का एक न एक ढर्रा निकालते रहे।
17 अक्टूबर, 1900 की बात है कि ये रात को साढ़े आठ बजे कारखाने से लौट कर आए
और ज्यों ही भीतर जाने लगे कि डेवढ़ी पर मुसम्मात परतापी ने इनका दुपट्टा
पकड़ लिया और कहने लगी कि हमारा रुपया दिए जाओ। ये तो किसी प्रकार दुपट्टा
छुड़ाकर भीतर चले गए पर बाहर उन लोगों ने आपस में मारपीट करके एक विचित्र
कांड खड़ा किया। बाबू राधाकृष्णदास ने तुरन्त इसकी इत्ताला कोतवाली में
लिखाई। दूसरे दिन सबेरे बाबू नृसिंहदास पंडित छन्नूलाल और राय शम्भुप्रसाद
इनके यहाँ आए और आपस में बहुत कुछ सलाह हुई। मुसम्मात परतापी ने भी इत्ताला
लिखाई कि 'हमको बच्चा बाबू 10 रुपए महीना देते थे। हमने तीन चार सौ का जेवर
इनके पास रख दिया था। आज हम माँगने गई तब इनकार कर दिया। बाबू कृष्णचन्द्र
ने हमें धाक्का मार कर निकाल दिया और बच्चा बाबू ने कुबड़ी से मारा'। अब तो
इनका नाकों दम हो गया। जो जो इनसे मिलता उससे यही कहते कि बाबू गदाधार सिंह
अच्छी बला हमारे पीछे लगा गए। 30 अक्टूबर को मुक़दमा कचहरी में पेश हुआ।
खयानत का मुकदमा तो खारिज़ हो गया, मारपीट का रह गया। 12 नवम्बर को फिर जज
साहब के बँगले पर मुकदमा पेश हुआ। इन लोगों को हाजिर भी न होना पड़ा और
मुकदमा मुसम्मात परतापी के गवाहों के नामानुकूल इज़हार पर खारिज़ हो गया। 20
रु. इन लोगों को तावान का दिलाया गया न दे तो 15 दिन कैद।
संसार की गति देखिए कि पहले तो मनुष्यों की प्रवृत्ति परोपकार की ओर होती
ही नहीं। यदि किसी की हुई भी तो उसके ऊपर ऐसा पहाड़ टूटने लगता है कि वह
बेचारा घबड़ा जाता है और कहने लगता है कि 'कहाँ से हमने इस मार्ग पर पैर
रखा।'
रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 8
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