रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
8
सृजन के विविध आयाम
कहानी
ग्यारह वर्ष का समय
दिन भर बैठे-बैठे मेरे सिर में पीड़ा उत्पन्न हुई। मैं अपने स्थान से उठा और
अपने एक नए एकान्तवासी मित्र के यहाँ मैंने जाना विचारा। जाकर मैंने देखा
तो वे ध्यानमग्न सिर नीचा किए हुए कुछ सोच रहे थे। मुझे यह देखकर कुछ
आश्चर्य नहीं हुआ; क्योंकि यह कोई नई बात न थी। उन्हें थोडे ही दिन पूरब से
इस देश में आए हुआ हैं। नगर में उनसे मेरे सिवाय और किसी से विशेष
जान-पहिचान नहीं हैं; और न यह विशेषत: किसी से मिलते-जुलते ही हैं। केवल
मुझसे, मेरे भाग्य से, वे मित्रभाव रखते हैं। उदास तो वे हर समय रहा करते
हैं। कई बार उनसे मैंने इस उदासीनता का कारण पूछा भी; किन्तु मैंने देखा कि
उसके प्रगट करने में उन्हें एक प्रकार का दु:ख सा होता हैं, इसी कारण मैं
विशेष पूछपाछ नहीं करता।
मैंने पास जाकर कहा, ''मित्र! आज तुम बहुत उदास जान पड़ते हो। चलो थोड़ी दूर
तक घूम आयें। चित्ता बहल जाएगा।''
वे तुरन्त खड़े हो गए और कहा, ''चलो मित्र, मेरा भी यही जी चाहता हैं। मैं
तो तुम्हारे यहाँ जानेवाला था।''
हम दोनों उठे और नगर से पूर्व की ओर का मार्ग लिया। मार्ग के दोनों ओर की
कृषि-सम्पन्न भूमि की शोभा का अनुभव करते और हरियाली के विस्तृत राज्य का
अवलोकन करते हम लोग चले। दिन का अधिकांश अभी शेष था; इससे चित्ता को
स्थिरता थी। पावस की जरावस्था थी इससे ऊपर से भी किसी प्रकार के अत्याचार
की सम्भावना न थी। प्रस्तुत ऋतु की प्रशंसा भी हम दोनों बीच-बीच में करते
जाते थे।
अहा:! ऋतुओं में उदारता का अभिमान यही कर सकता हैं। दीन कृषकों को अन्नदान
और सरूय्यातप तप्त पृथिवी को वस्त्रादान देकर यश का भागी यही होता हैं। इसे
तो कवियों की 'कौंसिल' से 'रायबहादुर' की उपाधि मिलनी चाहिए। यद्यपि पावस
की युवावस्था का समय नहीं हैं; किन्तु उसके यश की ध्वजा फहरा रही हैं।
स्थान-स्थान पर प्रसन्न सलिलपूर्ण ताल यद्यपि उसकी पूर्व उदारता का परिचय
दे रहे हैं।
एतादृश भावों की उलझन में पड़कर, हम लोगों का ध्यान मार्ग की शुद्धता की ओर
न रहा। हम लोग नगर से बहुत दूर निकल गए। देखा तो शनै:-शनै: भूमि में
परिवर्तन लक्षित होने लगा; अरुणता मिश्रित पहाड़ी, रेतीली भूमि, जंगली बेर
और मकोय की छोटी-छोटी कंटकमय झाड़ियाँ, दृष्टि के अन्तर्गत होने लगीं। अब हम
लोगों को जान पड़ा कि हम दक्षिण की ओर झुके जा रहे हैं। सन्ध्या भी हो चली।
दिवाकर की डूबती हुई किरणों की अरुण आभा झाड़ियों पर पड़ने लगी। ईधर प्राची
की ओर दृष्टि गई; देखा तो चन्द्रदेव पहले से ही सिंहासनरूढ़ होकर एक पहाड़ी
के पीछे से झाँक रहे थे।
अब हम लोग नहीं कह सकते कि किस स्थान पर हैं। एक पगडंडी के आश्रय अब तक हम
लोग चल रहे थे, जिस पर उगी हुई घास इस बात की शपथ खा के साक्षी दे रही थी
कि वर्षों से मनुष्यों के चरण इस ओर नहीं पड़े हैं। कुछ दूर तक चलकर यह
मार्ग भी तृणसागर में लुप्त हो गया। ''इस समय क्या कर्त्तव्य हैं?'' चित्ता
इसी के उत्तर की प्रतीक्षा में लगा। अन्त में यह विचार स्थिर हुआ कि किसी
खुले स्थान से चारों ओर देख यह ज्ञान प्राप्त हो सकता हैं कि हम लोग अमुक
स्थान पर हैं।
दैवत् सम्मुख ही एक ऊँची पहाड़ी देख पड़ी, उसी को इस कार्य के उपयुक्त स्थान
हम लोगों ने विचारा। ज्यों-त्यों करके पहाड़ी के शिखर तक हम लोग गए। ऊपर आते
ही भगवती जहनुनन्दिनी के दर्शन हुए। नेत्रा तो सफल हुए। इतने में
चारुहासिनी चन्द्रिका भी अट्टहास करके खिल पड़ी। उत्तर-पूर्व की ओर
दृष्टिगई। विचित्रा दृश्य सम्मुख उपस्थित हुआ। जाद्दवी के तट से कुछ अन्तर
पर नीचे मैदान में, बहुत दूर, गिरे हुए मकानों के ढेर स्वच्छ चन्द्रिका में
स्पष्ट रूप से दिखाई दिए।
मैं सहसा चौंक पड़ा और ये शब्द मेरे मुख से निकल पड़े ''क्या यह वही खंडहर
हैं जिसके विषय में यहाँ अनेक दन्तकथाएँ प्रचलित हैं?'' चारों ओर दृष्टि
उठाकर देखने से मुझे पूर्णरूप से निश्चय हो गया कि हो न हो यह वही स्थान
हैं, जिसके सम्बन्ध में मैंने बहुत कुछ सुना हैं। मेरे मित्र मेरी ओर ताकने
लगे। मैंने संक्षेप में उस खंडहर के विषय में जो कुछ सुना था उनसे कह
सुनाया। हम लोगों के चित्ता में कौतूहल की उत्पत्ति हुई; उसको निकट से
देखने की प्रबल इच्छा ने मार्ग-ज्ञान की व्यग्रता को हृदय से बहिर्गत कर
दिया। उत्तर की ओर उतरना बड़ा दुष्कर प्रतीत हुआ, क्योंकि जंगली वृक्षों और
कंटकमय झाड़ियों से पहाड़ी का वह भाग अच्छादित था। पूर्व की ओर से हम लोग
सुगमतापूर्वक नीचे उतरे। यहाँ से खंडहर लगभग डेढ़ मील के प्रतीत होता था। हम
लोगों ने पैरों को उसी ओर मोड़ा, मार्ग में घुटनों तक उगी हुई घास पग-पग पर
बाधा उपस्थित करने लगी; किन्तु अधिक विलम्ब तक यह कष्ट हम लोगों को भोगना न
पड़ा; क्योंकि आगे चलकर फूटे हुए खपड़ैलों की सिटकियाँ मिलने लगीं, ईधर-उधर
गिरी हुई दीवारें और मिट्टी के ढूह प्रत्यक्ष होने लगे। हम लोगों ने जाना
कि अब यहीं से खंडहर का आरम्भ हैं। दीवारों की मिट्टी का स्थान क्रमश: ऊँचा
होता जाता था, जिस पर से होकर हम लोग निर्भय जा रहे थे। इस निर्भयता के लिए
हम लोग चन्द्रमा के प्रकाश के भी अनुगृहीत हैं। सम्मुख ही एक देवमन्दिर पर
दृष्टि जा पड़ी जिसका कुछ भाग तो नष्ट हो गया था; किन्तु शेष
प्रस्तरविनर्म्मित्ता होने के कारण अब तक क्रूर काल के आक्रमण को सहन करता
आया था। मन्दिर का द्वार ज्यों का त्यों खड़ा था। किवाड़ सट गए थे। भीतर
भगवान भवानी पति बैठे निर्जन कैलाश का आनन्द ले रहे थे; द्वार पर उनका
नन्दी भी बैठा था। मैं तो प्रणाम करके वहाँ से हटा; किन्तु देखा तो हमारे
मित्र बड़े ध्यान से खड़े हो उस मन्दिर की ओर देख रहे हैं और मन ही मन कुछ
सोच रहे हैं। मैंने मार्ग में भी कई बार लक्ष्य किया था कि वे कभी-कभी ठिठक
जाते और किसी वस्तु को बड़ी स्थिर दृष्टि से देखने लगते। मैं खड़ा हो गया और
पुकारकर मैंने कहा, ''कहो मित्र! क्या हैं? क्या देख रहे हो?''
मेरी बोली सुनते ही वे झट मेरे पास दौड़ आए और कहा, ''कुछ नहीं, यों ही मैं
मन्दिर देखने लग गया था।'' मैंने फिर तो कुछ न पूछा। किन्तु अपने मित्र की
ओर देखता जाता था, जिस पर कि विस्मययुक्त एक अभुतभाव लक्षित होता था। इस
समय खंडहर के मध्य भाग में हम लोग खड़े थे। मेरा हृदय इस स्थान को इस अवस्था
में देख विदीर्ण होने लगा। प्रत्येक वस्तु से उदासी बरस रही थी, इस संसार
की अनित्यता की सूचना मिल रही थी। इस करुणोत्पादक दृश्य का प्रभाव मेरे
हृदय पर किस सीमा तक हुआ, शब्दों द्वारा अनुभव कराना असम्भव हैं।
कहीं सड़े हुए किवाड़ भूमि पर पड़े प्रचंड काल को साष्टांग दंडवत् कर रहे हैं।
जिन घरों में किसी अपरिचित की परछाईं पड़ने से कुल की मर्यादा भंग होती थी,
वे भीतर से बाहर तक खुले पड़े हैं। रंग-बिरंगी चूड़ियों के टुकड़े ईधर-उधर पड़े
काल की महिमा गा रहे हैं। मैंने इनमें से एक को हाथ में उठाया, उठाते ही यह
प्रश्न उपस्थित हुआ कि ''वे कोमल हाथ कहाँ हैं, जो इन्हें धारण करते थे।''
हा! यही स्थान किसी समय नर-नारियों के आमोद-प्रमोद से पूर्ण रहा होगा और
बालकों के कल्लोल की ध्वनि चारों ओर से आती रही होगी। वही आज कराल काल के
कठोर दाँतों के तले पिस कर चकनाचूर हो गया हैं। तृणों से आच्छादित गिरी हुई
दीवारें, मिट्टी और ईंटों के ढूह, टूटे-फूटे चौखटे और किवाड़ ईधर-उधर पड़े एक
स्वर में मानो पुकार के कह रहे थे'' दिनन के फेर होत मेरु होत माटी को'';
प्रत्येक पार्श्व से मानो यही ध्वनि आ रही थी। मेरे हृदय में करुणा का एक
समुद्र उमड़ पड़ा जिसमें मेरे विचार सब मग्न होने लगे।
मैं एक स्वच्छ शिला पर, जिसका कुछ भाग तो पृथ्वीतल में धँसा था और शेषांश
बाहर था, बैठ गया। मेरे मित्र भी आकर मेरे पास बैठे। मैं तो बैठे-बैठे
काल-चक्र की गति पर विचार करने लगा; मेरे मित्र भी किसी विचार में डूबे थे;
किन्तु मैं नहीं कह सकता कि वह क्या था। यह सुन्दर स्थान इस शोचनीय और पतित
दशा को क्यों प्राप्त हुआ, मेरे चित्ता में तो यही प्रश्न बार-बार उठने
लगा; किन्तु उसका सन्तोषदायक उत्तर प्रदान करने वाला वहाँ कौन था? अनुमान
ने यथासाध्य प्रयत्न किया, परन्तु कुछ फल न हुआ। माथा घूमने लगा। न जाने
कितने और किस-किस प्रकार के विचार मेरे मस्तिष्क से होकर दौड़ गए।
हम लोग अधिक विलम्ब तक इस अवस्था में न रहने पाए। यह क्या? मधुसूदन! यह कौन
सा दृश्य हैं? जो कुछ देखा उससे अवाक् रह गया। कुछ दूर पर एक श्वेत वस्तु
इसी खंडहर की ओर आती हुई प्रतीत हुई। मुझे रोमांच हो आया; शरीर काँपने लगा।
मैंने अपने मित्र को उसी ओर आकर्षित किया और उँगली उठा के दिखाया। परन्तु
कहीं कुछ न देख पड़ा, मैं स्थापित मूर्ति की भाँति बैठा रहा। पुन: वही
दृश्य! अबकी बार ज्योत्स्नालोक में स्पष्ट रूप से हम लोगों ने देखा कि एक
श्वेत-परिच्छद-धारणी स्त्री एक जल का पात्रा लिए खंडहर के एक पार्श्व से
होकर दूसरी ओर वेग से निकल गई और उन्हीं खंडहरों के बीच फिर न जाने कहाँ
अन्तधरान हो गई। इस अदृष्ट-पूर्व व्यापार को देख मेरे मस्तक में पसीना आ
गया और कई प्रकार के भ्रम उत्पन्न होने लगे। विधाता! तेरी सृष्टि में न
जाने कितनी अद्भुत-अद्भुत वस्तु मनुष्य की सूक्ष्म विचार-दृष्टि से वंचित
पड़ी हैं। यद्यपि मैंने इस स्थान-विशेष के सम्बन्ध में अनेक भयानक वार्ताएँ
सुन रक्खी थीं; किन्तु मेरे हृदय पर भय का विशेष संचार न हुआ। हम लोगों को
प्रेतों पर भी इतना दृढ़ विश्वास न था, नहीं तो हम दोनों का एक क्षण भी उस
स्थान पर ठहरना दुष्कर हो जाता। रात्रि भी अधिक व्यतीत होती जाती थी। हम
दोनों को अब यह चिन्ता हुई कि यह स्त्री कौन हैं? इसका उचित परिशोध अवश्य
लगाना चाहिए।
हम दोनों अपने स्थान से उठे, और जिस ओर वह स्त्री जाती हुई देख पड़ी थी उसी
ओर चले। अपने चारों ओर प्रत्येक स्थान को भली प्रकार देखते, हम लोग गिरे
हुए मकानों के भीतर जा-जा के शृंगालें के स्वच्छन्द विहार में बाधा डालने
लगे। अभी तक तो कुछ ज्ञात न हुआ। यह बात तो हम लोगों के मन में निश्चय हो
गई थी कि हो न हो वह स्त्री खंडहर के किसी गुप्त भाग में गई हैं। गिरी हुई
दीवारों की मिट्टी और ईंटों के ढेर से इस समय हम लोग परिवृत्त थे; वाह्य
जगत् की कोई वस्तु दृष्टि के अन्तर्गत न थी। हम लोगों को जान पड़ता था कि
किसी दूसरे संसार में खड़े हैं। वास्तव में खंडहर के एक बड़े भयानक भाग में
इस समय हम लोग खड़े थे। सामने एक बड़ी ईंटों की दीवार देख पड़ी जो औरों की
अपेक्षा अच्छी दशा में थी। इसमें एक खुला हुआ द्वार था। इसी द्वार से हम
दोनों ने इसमें प्रवेश किया। भीतर एक विस्तृत आँगन था जिसमें बेर और बबूल
के पेड़ स्वच्छन्दतापूर्वक खड़े उस स्थान को मनुष्य-जाति-सम्बन्ध से मुक्त
सूचित करते थे। इसमें पैर धरते ही मेरे मित्र की दशा कुछ और हो गई और वे चट
बोल उठे, ''मित्र! मुझे ऐसा जान पड़ता हैं कि जैसे मैंने इस स्थान को और कभी
देखा हो, यह नहीं कह सकता कब। प्रत्येक वस्तु यहाँ की पूर्व परिचित सी जान
पड़ती हैं।'' मैं अपने मित्र की ओर ताकने लगा। उन्होंने आगे कुछ न कहा। मेरा
मित्र इस स्थान के अनुसंधान करने को मुझे बाध्य करने लगा। ईधर-उधर देखा तो
एक ओर मिट्टी पड़ते-पड़ते दीवार की ऊँचाई के मध्य भाग तक वह पहुँच गई थी। इस
पर से होकर हम दोनों दीवार पर चढ़ गए। दीवार के नीचे दूसरे किनारे से
चतुर्दिक् वेष्टित एक कोठरी दिखाई दी, मैं उसमें उतरने का यत्न करने लगा।
बड़ी सावधानी से एक उभरी हुई ईंट पर पैर रखकर हम दोनों नीचे उतर गए। यह
कोठरी ऊपर से बिलकुल खुली थी, इसलिए चन्द्रमा का प्रकाश इसमें बे-रोकटोक आ
रहा था। कोठरी की दाहिनी ओर एक द्वार था। हम लोगों ने निकट जाकर किवाड़ों को
पीछे की ओर धीरे से ढकेला तो जान पड़ा कि भीतर से बन्द हैं।
मेरे तो पैर काँपने लगे। पुन: साहस को धारण कर हम लोगों ने किवाड़ के
छोटे-छोटे रन्धा्रों से झाँका तो एक प्रशस्त कोठरी देख पड़ी। एक कोने में
मन्द-मन्द एक प्रदीप जल रहा था जिसका प्रकाश द्वार तक न पहुँचता था। यदि यह
प्रदीप उसमें न होता तो अन्धाकार के अतिरिक्त हम लोग और कुछ न देख पाते।
हम लोग कुछ काल तक स्थिर दृष्टि से उसी ओर देखते रहे। इतने में एक स्त्री
की आकृति देख पड़ी जो हाथ में कई छोटे पात्र लिए उस कोठरी के प्रकाशित भाग
में आई। अब तो किसी प्रकार का सन्देह न रहा। एक बार इच्छा हुई कि खटखटाएँ,
किन्तु कई बातों का विचार करके हम लोग ठहर गए। जिस प्रकार से हम लोग कोठरी
में आए थे, धीरे-धीरे उसी प्रकार नि:शब्द दीवार पर से होकर फिर आँगन में
आए। मेरे मित्र ने कहा ''इसका शोध अवश्य लगाओ कि यह स्त्री कौन हैं।'' अन्त
में हम दोनों आड़ में, इस आशा से कि कदाचित् वह फिर बाहर निकले, बैठे रहे।
पौन घंटे के लगभग हम लोग इसी प्रकार बैठे रहे। इतने में ही श्वेतवसनधारिणी
स्त्री आँगन में सहसा आकर खड़ी हो गई। हम लोगों को यह देखने का समय न मिला
कि वह किस ओर से आई। उसका अपूर्व सौन्दर्य देखकर हम लोग स्तम्भित व चकित रह
गए। चन्द्रिका में उसके सर्वांग की सुन्दरता स्पष्ट जान पड़ती थी। गौर वर्ण,
शरीर किंचित् क्षीण और आभूषणों से सर्वथा रहित; मुख उसका, यद्यपि उस पर
उदासीनता और शोक का स्थायी निवास लक्षित होता था, एक अलौकिक प्रशान्त
कान्ति से देदीप्यमान हो रहा था। सौम्यता उसके अंग-अंग से प्रदर्शित होती
थी। वह साक्षात् देवी जान पड़ती थी।
कुछ काल तक किंकर्तव्यविमूढ़ होकर स्तब्धा लोचनों से उसी ओर हम लोग देखते
रहे। अन्त में हमने अपने को सँभाला और इसी अवसर को अपने कार्योपयुक्त
विचारा। हम लोग अपने स्थान से उठे और तुरन्त उस देवरूपिणी के सम्मुख हुए।
वह देखते ही बड़े वेग से पीछे हटी। मेरे मित्र ने गिड़गिड़ा कर कहा,''देवि!
ढिठाई क्षमा करो। मेरे भ्रमों का निवारण करो।'' वह स्त्री क्षणभर के लिए
चुप रही, फिर स्निग्धा और गम्भीर स्वर में बोली, ''तुम कौन हो और क्यों
मुझे व्यर्थ कष्ट देते हो।'' इसका उत्तर ही क्या था? मेरे मित्र ने फिर
विनीत भाव से कहा, ''देवि! मुझे बड़ा कौतूहल हैं, दया करके यहाँ का सब रहस्य
कहो।''
इस पर उसने उदास स्वर से कहा, ''तुम हमारा परिचय लेके क्या करोगे? इतना जान
लो कि मेरे समान अभागिनी इस समय इस पृथ्वीमंडल में कोई नहीं हैं।''
मेरे मित्र से न रहा गया, हाथ जोड़कर उन्होंने फिर निवेदन किया, ''देवि!
अपने वृत्तान्त से मुझे परिचित करो। इसी हेतु हम लोगों ने इतना साहस किया
हैं। मैं भी तुम्हारे ही समान दुखिया हूँ। मेरा इस संसार में कोई नहीं
हैं।'' मैं अपने मित्र का यह भाव देखकर चकित रह गया।
स्त्री ने करुण स्वर से कहा, ''तुम मेरे नेत्रों के सम्मुख भूला-भुलाया
मेरा दु:ख फिर उपस्थित करने का आग्रह कर रहे हो। अच्छा बैठो।''
मेरे मित्र निकट के एक पत्थर पर बैठ गए। मैं भी उन्हीं के पास जा बैठा। कुछ
काल तक सब लोग चुप रहे। अन्त में वह स्त्री बोली, ''इसके प्रथम कि मैं अपने
वृत्तान्त से तुम्हें परिचित करूँ, तुम्हें शपथपूर्वक यह प्रतिज्ञा करनी
होगी कि तुम्हारे सिवाय यह रहस्य संसार में और किसी के कानों तक न पहुँचे,
नहीं तो मेरा इस स्थान पर रहना दुष्कर हो जाएगा और आत्महत्या ही मेरे लिए
एकमात्र उपाय शेष रह जाएगा।''
हम लोगों के नेत्र गीले हो आए। मेरे मित्र ने कहा'' देवि! मुझसे तुम किसी
प्रकार का भय न करो, ईश्वर मेरा साक्षी हैं।''
स्त्री ने तब इस प्रकार कहना आरम्भ किया'' यह खंडहर जो तुम देखते हो, आज से
दस वर्ष पूर्व एक सुन्दर ग्राम था। अधिकांश ब्राह्मण क्षत्रियों की इसमें
बस्ती थी। यह घर जिसमें हम लोग बैठे हैं, चन्द्रशेखर मिश्र नामी एक
प्रतिष्ठित और कुलीन ब्राह्मण का निवास स्थान था। घर में उनकी स्त्री और एक
पुत्र था; इस पुत्र के सिवाय उन्हें और कोई सन्तान न थी। आज 11 वर्ष हुए
मेरा विवाह इसी चन्द्रशेखर मिश्र के पुत्र के साथ हुआ था।''
इतना सुनते ही मेरे मित्र सहसा चौंक पड़े। ''हे परमेश्वर! यह सब स्वप्न हैं
या प्रत्यक्ष?'' ये शब्द उनके मुख से निकले ही थे कि उनकी दशा विचित्र हो
गई। उन्होंने अपने को बहुत सँभाला और फिर से सँभल कर बैठे। वह स्त्री उनका
यह भाव देखकर विस्मित हुई और उनसे पूछा, ''क्यों, क्या हैं?''
मेरे मित्र ने विनीत भाव से उत्तर दिया, ''कुछ नहीं, यों ही मुझे एक बात का
स्मरण आया। कृपा करके आगे कहो।'' स्त्री ने फिर कहना आरम्भ किया
''मेरे पिता का घर काशी में....महल्ले में था। विवाह के एक वर्ष पश्चात् इस
ग्राम में एक भयानक दुर्घटना उपस्थित हुई। यहीं से मेरे दुर्दयनीय दु:ख का
जन्म हुआ। सन्ध्या को सब ग्रामीण अपने-अपने कार्य से निश्चिन्त होकर
अपने-अपने घरों को लौटै। बालकों का कोलाहल बन्द हुआ। निद्रा देवी ने
ग्रामीणों के चिन्ताशून्य हृदयों में अपना डेरा जमाया। आधी रात से अधिक बीत
चुकी थी; कुत्तो भी थोड़ी देर तक भूँककर अन्त में चुप हो रहे। प्रकृति
निस्तब्धा हुई, सहसा ग्राम में कोलाहल मचा और धमाके के कई शब्द हुए। लोग
आँखें मींजते उठे। चारपाई के नीचे पैर देते हैं तो घुटने भर पानी में खड़े?
कोलाहल सुनकर बच्चे भी जगे। एक दूसरे का नाम ले-लेकर लोग चिल्लाने लगे।
अपने-अपने घरों में से लोग बाहर निकल कर खड़े हुए। भगवती जाद्दवी को द्वार
पर बहते हुए पाया। भयानक विपत्ति का कोई उपाय नहीं। जल का वेग क्रमश: अधिक
बढ़ने लगा। पैर कठिनता से ठहरते थे। जिधर दृष्टि उठाकर देखा जल ही जल दिखाई
दिया। एक-एक करके सब सामग्रियाँ बहने लगीं। संयोगवश एक नाव कुछ दूर पर आती
देख पड़ी। आशा! आशा!! आशा!!!
नौका आई, लोग टूट पड़े और बलपूर्वक चढ़ने का यंत्न करने लगे। मल्लाहों ने
भारी विपत्ति सम्मुख देखी। नाव पर अधिक बोझ होने के भय से उन्होंने तुरन्त
अपनी नाव बढ़ा दी। बहुत लोग रह गए। नौका पवनगति से गमन करने लगी। लोग उतरे।
चन्द्रशेखर मिश्र भी नाव पर से उतरे और अपने पुत्र का नाम लेकरपुकारा। कोई
उत्तर न मिला। उन्होंने अपने साथ ही उसे नाव पर चढ़ाया था। किन्तु भीड़-भाड़
नाव पर होने के कारण वह उनसे पृथक् हो गया था, मिश्रजी बहुत घबड़ाए और
तुरन्त नाव लेकर लौटे। देखा, बहुत से लोग रह गए थे, उनसे पूछपाछ किया।किसी
ने कुछ पता न दिया। निराशा भयंकर रूप धारण करके उनके सामने उपस्थित हुई।
सन्ध्या का समय था, मेरे पिता दरवाजे पर बैठे थे। सहसा मिश्रजी घबड़ाए हुए
आते देख पड़े। उन्होंने आकर आद्योपान्त पूर्वोल्लिखित घटना कह सुनाई, और
तुरन्त उन्मत्ता की भाँति वहाँ से चल दिए। लोग पुकारते ही रह गए? वे एक
क्षण भी वहाँ न ठहरे। तब से फिर कभी वे दिखाई नहीं दिए। ईश्वर जाने वे कहाँ
गए। मेरे पिता भी दत्तचित्त होकर अनुसंधान करने लगे। उन्होंने सुना कि
ग्राम के बहुत से लोग नाव पर चढ़-चढ़कर ईधर-उधर भाग गए हैं। इसलिए उन्हें आशा
थी। इस प्रकार ढूँढ़ते-ढाँढ़ते कई मास व्यतीत हो गए। अब तक तो समाचार की
प्रतीक्षा में थे और इन्हें आशा थी; किन्तु अब उन्हें भी चिन्ता हुई।
चन्द्रशेखर मिश्र का भी तब से कहीं कुछ समाचार न मिला। जहाँ-जहाँ मिश्रजी
का सम्बन्ध था मेरे पिता स्वयं गए; किन्तु चारों ओर से निराश लौटे; किसी का
कुछ अनुसंधान न लगा। एक वर्ष बीता, दो वर्ष बीते, तीसरा वर्ष आरम्भ हुआ।
पिता बहुत ईधर-उधर दौड़े, अन्त में ईश्वर और भाग्य के ऊपर छोड़कर बैठे रहे।
तीसरा वर्ष भी व्यतीत हो गया।
मेरी अवस्था उस समय 14 वर्ष की हो चुकी थी; अब तक तो मैं निर्बोध बालिका
थी। अब क्रमश: मुझे अपनी वास्तविक दशा का ज्ञान होने लगा। मेरा समय भी
अहर्निश इसी चिन्ता में अब व्यतीत होने लगा। शरीर दिन पर दिन क्षीण होने
लगा। मेरे देवतुल्य पिता ने यह बात जानी। वे सदा मेरे दु:ख भुलाने का यत्न
करते रहते थे। अपने पास बैठाकर रामायण आदि की कथा सुनाया करते थे। पिता अब
वृद्ध होने लगे; दिन-रात्रि की चिन्ता ने उन्हें और भी वृद्ध बना दिया। घर
के समस्त कार्य-सम्पादन का भार मेरे बड़े भाई के ऊपर पड़ा। उनकी स्त्री का
स्वभाव बड़ा क्रूर था। कुछ दिन तो किसी प्रकार चला। अन्त में वह मुझसे डाह
करने लगी और कष्ट देना प्रारम्भ किया। मैं चुपचाप सब सहन करती थी।
धीरे-धीरे आश्वासवाक्य के स्थान पर वह तीक्ष्ण वचनों से मेरा चित्ता अधिक
दुखाने लगी। यदि कभी मैं अपने भाई से निवेदन करती तो वे भी कुछ न बोलते,
आनाकानी कर जाते। और मेरे पिता की, वृद्धावस्था के कारण कुछ चल नहीं, सकती
थी। मेरे दु:ख को समझनेवाला वहाँ कोई नहीं देख पड़ता था। मेरी माता का पहिले
ही परलोकवास हो चुका था। मुझे अपनी दशा पर बहुत दु:ख हुआ। हा! मेरा स्वामी
यदि इस समय होता तो क्या, मेरी यही दशा होती? पिता के घर क्या इन्हीं वचनों
द्वारा मेरा सत्कार किया जाता? यही सब विचार करके मेरा हृदय फटने लगता था।
अब क्रमश: मेरा हृदय मेघाच्छन्न होने लगा। मुझे संसार शून्य दिखाई देने
लगा। एकान्त में बैठकर अपनी अवस्था पर अश्रुवर्षण करती। उसमें भी यह भय लगा
रहता कि कहीं भौजाई न पहुँच जाये। एक दिन उसने मुझे इसी अवस्था में पाया तो
तुरन्त व्यंग्य वचनों द्वारा मुझे आश्वासन देने लगी। मेरा शोर्कात्ता हृदय
अग्निशिखा की भाँति प्रज्वलित हो उठा; किन्तु मौनावलम्बन के सिवाय अन्य
उपाय ही क्या था? दिन-दिन मुझे यह दु:ख असह्य होने लगा। एक रात्रि को मैं
उठी; किसी से कुछ न कहा; और सूर्योदय के प्रथम ही अपने पिता का गृह मैंने
परित्याग किया।
मैं अब यह नहीं कह सकती कि उस समय मेरा क्या विचार था? मुझे एक बार अपने
पति के स्थान को देखने की लालसा हुई। दु:ख और शोक से मेरी दशा उन्मत्ता की
सी हो गई थी। संसार में मैंने दृष्टि उठा के देखा तो मुझे और कुछ न दिखलाई
दिया; केवल चारों ओर दु:ख! सैकड़ों कठिनाइयाँ झेलकर अन्त में मैं इस स्थान
तक आ पहुँची। उस समय मेरी अवस्था केवल सोलह वर्ष की थी। मैंने इस स्थान को
उस समय भी प्राय: इसी दशा में पाया था। यहाँ आने पर मुझे कई चिद्द ऐसे मिले
जिनसे मुझे यह निश्चय हो गया कि चन्द्रशेखर मिश्र का घर यही हैं। इस स्थान
को देखकर मेरेर अन्त्तर हृदय पर बड़ा कठोर आघात पहुँचा।
इतना कहते-कहते हृदय के आवेग ने शब्दों को उसके हृदय ही में बन्दी कर
रक्खा; बाहर प्रगट होने न दिया। क्षणेक पर्यन्त वह चुप रही, सिर नीचा किए
भूमि की ओर देखती रही। ईधर मेरे मित्र की दशा कुछ और ही हो रही थी; लिखित
चित्र की भाँति बैठे वे एकटक ताक रहे थे, इन्द्रियाँ अपना कार्य्य उस समय
भूल गई थीं। स्त्री ने फिर कहना आरम्भ किया
''इस स्थान को देख मेरा चित्त बहुत दग्धा हुआ। हा! यदि ईश्वर चाहता तो किसी
दिन मैं इसी गृह की स्वामिनी होती। आज ईश्वर ने मुझको इस अवस्था में
दिखलाया। उसके आगे किसका वश हैं? अनुसंधान करने पर मुझे दो कोठरियाँ मिलीं
जो सर्वप्रकार से रक्षित और मनुष्य की दृष्टि से दुर्भेद्य थीं। लगभग चारों
ओर मिट्टी पड़ जाने के कारण किसी को उनकी स्थिति का सन्देह नहीं हो सकता था।
मुझे बहुत-सी सामग्रियाँ भी इनमें प्राप्त हुईं जो मेरी तुच्छ
आवश्यकतानुसार बहुत थीं। मुझे यह निर्जन स्थान अपने पिता के कष्टागार से
प्रियतर प्रतीत हुआ। यहीं मेरे पति के बाल्यावस्था के दिन व्यतीत हुए थे।
यही स्थान मुझे प्रिय हैं। यहीं मैं अपने दु:खमय जीवन का शेष भाग, उसी
करुणालय जगदीश्वर की, जिसने मुझे इस अवस्था में डाला, आराधना में बिताऊँगी।
यही विचार मैंने स्थिर किया। ईश्वर को मैंने धन्यवाद दिया, जिसने ऐसा
उपयुक्त स्थान मेरे लिए ढूँढ़कर निकाला। कदाचित् तुम पूछोगे कि इस अभागिनी
ने अपने लिए इस प्रकार का जीवन क्यों उपयुक्त विचारा? तो उसका उत्तर हैं कि
यह दुष्ट संसार भाँति-भाँति की वासनाओं से पूर्ण हैं, जो मनुष्य को उसके
सत्य पथ से विचलित कर देती हैं, दुष्ट और कुमार्गी लोगों के अत्याचार से
वंचित रहना भी कठिन कार्य हैं।''
इतना कहकर वह स्त्री ठहर गई। मेरे मित्र की ओर उसने देखा। वे कुछ मिनट तक
काष्ठपुत्तालिका की भाँति बैठे रहे; अन्त में एक लम्बी ठंडी साँस भरके
उन्होंने यह कहा, ''ईश्वर! यह स्वप्न हैं या प्रत्यक्ष?'' स्त्री उनका यह
भाव देख-देखकर विस्मित हो रही थी। उसने पूछा, क्यों; कैसा चित्त हैं? मेरे
मित्र ने अपने को सँभाला और उत्तर दिया, 'तुम्हारी कथा का प्रभाव मेरे
चित्त पर बहुत हुआ हैं; कृपा करके आगे कहो।''
स्त्री ने कहा, ''मुझे अब कुछ कहना शेष नहीं हैं। आज पाँच वर्ष मुझे इस
स्थान पर आए हुए; संसार में किसी मनुष्य को आज तक यह प्रगट नहीं हुआ। यहाँ
प्रेतों के भय से कोई पदार्पण नहीं करता। इससे मुझे अपने को गोपन रखने में
विशेष कठिनता नहीं पड़ती। संयोगवश रात्रि में किसी की दृष्टि मुझ पर पड़ी भी
तो चुड़ैल के भ्रम से मेरे निकट तक आने का किसी को साहस न हुआ। यह आज प्रथम
ऐसा संयोग उपस्थित हुआ हैं, तुम्हारे साहस को मैं सराहती हूँ और प्रार्थना
करती हूँ कि तुम अपने शपथ पर दृढ़ रहोगे। संसार में अब मैं प्रगट होना नहीं
चाहती; प्रगट होने से मेरी बड़ी दुर्दशा होगी। मैं यहीं अपने पति के स्थान
पर अपना जीवन शेष करना चाहती हूँ। इस संसार में अब बहुत दिन न रहूँगी।''
मैंने देखा मेरे मित्र का चित्त भीतर ही भीतर आकुल और संतप्त हो रहा था;
हृदय का वेग रोककर उन्होंने प्रश्न किया, ''क्यों! तुम्हें अपने पति का कुछ
स्मरण हैं?''
स्त्री के नेत्रों से अनर्गल वारिधारा प्रवाहित हुई। बड़ी कठिनतापूर्वक उसने
उत्तर दिया। ''मैं उस समय बालिका थी। विवाह के समय मैंने उन्हें देखा था।
वह मूर्ति अद्यापि मेरे हृदय-मन्दिर में विद्यमान हैं; प्रचंड काल भी उसको
वहाँ से हटाने में असमर्थ हैं।''
मेरे मित्र ने कहा, ''देवि! तुमने बहुत कुछ रहस्य प्रगट किया; जो कुछ शेष
हैं उसका वर्णन कर अब मैं इस कथा की पूर्ति करता हूँ।''
स्त्री विस्मयोत्फुल्ल लोचनों से मेरे मित्र की ओर निहारने लगी। मैं भी
आश्चर्य से उन्हीं की ओर देखने लगा। उन्होंने कहना आरम्भ किया।
''इस आख्यायिका में यही ज्ञात होना शेष हैं कि चन्द्रशेखर मिश्र के पुत्र
की क्या दशा हुई। चन्द्रशेखर मिश्र और उनकी पत्नी क्या हुए। सुनो, नाव पर
मिश्रजी ने अपने पुत्र को अपने साथ ही बैठाया। नाव पर भीड़ अधिक हो जाने के
कारण वह उनसे पृथक् हो गया। उन्होंने समझा कि वह नाव ही पर हैं; कोई चिन्ता
नहीं। ईधर मनुष्यों की धक्का-मुक्की से वह लड़का नाव पर से नीचे जा रहा। ठीक
उसी समय मल्लाह ने नाव खोल दी। उसने कई बार अपने पिता को पुकारा, किन्तु
लोगों के कोलाहल में उन्हें कुछ सुनाई न दिया। नाव चली गई। बालक वहीं खड़ा
रह गया। और लोग किसी प्रकार अपना-अपना प्राण लेके ईधर-उधर भागे। नीचे भयानक
जल-प्रवाह, ऊपर अनन्त आकाश। लड़के ने एक छप्पर को बहते हुए अपनी ओर आते
देखा; तुरन्त वह उसी पर बैठ गया। इतने में जल का एक बहुत ऊँचा प्रबल झोंका
आया। छप्पर लड़के सहित शीघ्र गति से बहने लगा। वह चुपचाप मूर्तिवत् उसी पर
बैठा रहा। उसे यह ध्यान नहीं कि इस प्रकार कई दिन तक वह बहता गया। वह भय और
दुविधा से संज्ञाहीन हो गया था। संयोगवश एक व्यापारी की नाव जिस पर रूई लदी
थी पूरब की ओर जा रही थी। नौका का स्वामी भी बजरे ही पर था। उसकी दृष्टि उस
लड़के पर पड़ी। वह उसे नाव पर ले गया। लड़के की अवस्था उस समय मृतप्राय थी।
अनेक यत्न के उपरान्त वह होश में लाया गया। उस सज्जन ने लड़के की नाव पर बड़ी
सेवा की। नौका बराबर चलती रही, बीच में कहीं न रुकी, कई दिनों के उपरान्त
वह कलकत्ते पहुँची।
वह बंगाली सज्जन उस लड़के को अपने घर पर ले गया और उसे उसने अपने परिवार में
सम्मिलित किया। बालक ने अपने माता-पिता के देखने की इच्छा प्रगट की। उसने
उसे बहुत समझाया और शीघ्र अनुसंधान करने का वचन दिया। लड़का चुप हो गया।
इसी प्रकार कई मास व्यतीत हो गए। क्रमश: वह अपने पास के लोगों में हिलमिल
गया। बंगाली महाशय के एक पुत्र था दोनों में भ्रातृस्नेह स्थापित हो गया।
वह सज्जन उस लड़के के भावी हित की चेष्टा में तत्पर हुआ। ईस्ट इण्डिया
कम्पनी के स्थापित किए हुए एक अंग्रेजी स्कूल में, अपने पुत्र के साथ-साथ
उसे भी वह शिक्षा देने लगा। क्रमश: उसे अपने घर का ध्यान कम होने लगा। वह
दत्ताचित्त होकर शिक्षा में अपना सारा समय देने लगा। इसी प्रकार कई वर्ष
व्यतीत हो गए। उसके चित्त में अब अन्य प्रकार के विचारों ने निवास किया। अब
पूर्वपरिचित लोगों के ध्यान के लिए उसके मन में कम स्थान शेष रह गया।
मनुष्य का स्वभाव ही इस प्रकार का हैं। नौ वर्ष का समय निकल गया।
इसी बीच में एक बड़ी चित्ताकर्षक घटना उपस्थित हुई। बंगदेशी सज्जन के उस
पुत्रा का विवाह हुआ। चन्द्रशेखर का पुत्रा भी उस समय वहाँ उपस्थित था।
उसने सब देखा; दीर्घकाल की निद्रा भंग हुई। सहसा उसे ध्यान हो आया, ''मेरा
भी विवाह हुआ हैं; अवश्य हुआ हैं।'' उसे अपने विवाह का बारम्बार ध्यान आने
लगा। अपनी पाणिगृहीत भार्या का भी उसे स्मरण हुआ। स्वदेश में लौटने को उसका
चित्त व्याकुल होने लगा। रात दिन इसी चिन्ता में व्यतीत होने लगे।
हमारे कतिपय पाठक हम पर दोषारोपण करेंगे कि ''हैं! न कभी साक्षात् हुआ, न
वार्तालाप हुआ, न लम्बी-लम्बी कोर्टशिप हुई यह प्रेम कैसा?'' महाशय! रुष्ट
न होईए। इस अदृष्ट प्रेम का धर्म और कर्त्तव्य से घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। इसकी
उत्पत्ति केवल सदाशय और नि:स्वार्थ हृदय में ही हो सकती हैं। इसकी जड़ संसार
के और प्रकार के प्रचलित प्रेमों से दृढ़तर और अधिक प्रशस्त हैं। आपको
सन्तुष्ट करने को मैं इतना और कहे देता हँ कि इंग्लैंड के भूतपूर्व
प्रधानमन्त्री लार्ड बेकन्सफील्ड (Earl of Baconsfield) का भी यही मत था।
युवक का चित्त अधिक डाँवाडोल होने लगा। एक दिन उसने उस देवतुल्य सज्जन
पुरुष से अपने चित्ता की अवस्था प्रगट की और बहुत विनय के साथ विदा माँगी।
आज्ञा पाकर उसने स्वदेश की ओर यात्रा की। देश में आने पर उसे विदित हुआ कि
ग्राम में अब कोई नहीं हैं। उसने लोगों से अपने पिता माता के विषय में
पूछपाछ किया। कुछ लोगों ने कहा कि थोड़े दिन हुए वे दोनों इस नगर में थे; और
अब वे तीर्थस्थानों में देशाटन कर रहे हैं। वह अपनी धर्मपत्नी के दर्शनों
की अभिलाषा से सीधे काशी गया। वहाँ तुम्हारे पिता के घर का वह अनुसंधान
करने लगा। बहुत दिनों के पश्चात् तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता से उसका साक्षात्
हुआ, जिससे तुम्हारे संसार से सहसा लोप हो जाने की बात ज्ञात हुई। वह निराश
होकर संसार में घूमने लगा।
इतना कहकर मेरे मित्र चुप हो रहे। ईधर शेष भाग सुनने को हम लोगों का चित्ता
ऊब रहा था; आश्चर्य से उन्हीं की ओर हम ताक रहे थे। उन्होंने फिर उस स्त्री
की ओर देखकर कहा, ''कदाचित् तुम पूछोगी, कि इस समय अब वह कहाँ हैं? यह वही
अभागा मनुष्य तुम्हारे सम्मुख बैठा हैं।''
हम दोनों के शरीर में बिजुली सी दौड़ गई। वह स्त्री भूमि पर गिरने लगी; मेरे
मित्र ने दौड़कर उसको सँभाला। वह किसी प्रकार उन्हीं के सहारे बैठी। कुछ
क्षण के उपरान्त उसने बहुत धीमे स्वर में कहा, ''अपना हाथ दिखाओ।''
उन्होंने चट अपना हाथ फैला दिया, जिस पर एक काला तिल दिखाई दिया। स्त्री
कुछ काल तक उसी की ओर देखती रही; फिर मुख ढाँप कर सिर नीचा करके बैठी रही।
लज्जा का प्रवेश हुआ क्योंकि यह एक हिन्दू रमणी का उसके पति के साथ प्रथम
संयोग था।
आज इतने दिनों के उपरान्त मेरे मित्र का गुप्त-रहस्य प्रकाशित हुआ। उस
रात्रि को मैं अपने मित्र के खंडहर में अतिथि रहा। सबेरा होते ही हम सब लोग
प्रसन्नचित्त नगर में आए।
(सरस्वती, सितंबर 1903)
रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 8
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